कोलकाता : प्रसिद्ध फिल्म निर्माता व निर्देशक मृणाल सेन का गत रविवार सुबह 10:30 बजे कोलकाता के भवानीपुर स्थित उनके आवास पर निधन हो गया। ‘नील आकाशेर नीचे’, ‘भुवन शोम’, ‘एक दिन अचानक’, ‘पदातिक’, ‘बाइशे श्रावण’ और ‘मृगया’ जैसी फिल्मों के लिए पहचाने जाने वाले सेन देश के सबसे प्रख्यात फिल्म निर्माताओं में से एक थे और समानांतर सिनेमा के दूत थे। मृणाल सेन का नाम भारतीय सिनेमा जगत में एक ऐसे फिल्मकार के तौर पर शुमार किया जाता है जिन्होंने अपनी फिल्मों के जरिये भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विशेष पहचान दिलाई। उनकी फिल्मों में समाज के यथार्थ की छवि साफ नजर आती थी। 14 मई, 1923 को फरीदाबाद (अब बांग्लादेश) में जन्मे मृणाल सेन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा वहीं से हासिल की। इसके बाद उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज से आगे की पढ़ाई पूरी की।
इस दौरान वह कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे। हालांकि वह कभी इस पार्टी के सदस्य नहीं रहे। कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद मृणाल सेन की रुचि फिल्मों के प्रति हो गई और वह फिल्म निर्माण से जुड़ी पुस्तकों का अध्ययन करने लगे। उनकी अधिकतर फिल्में बांग्ला में हैं।
इन पुरस्कारों से नवाजा गया
2005 में भारत सरकार ने उनको ‘पद्म विभूषण’ और 2005 में ही ‘दादा साहब फाल्के’ पुरस्कार प्रदान किया था। मृणाल सेन को 2000 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अपने देश का प्रतिष्ठित सम्मान ‘ऑर्डर ऑफ फ्रेंडशिप’ दिया था। यह सम्मान पाने वाले वह अकेले भारतीय फिल्ममेकर थे। मृणाल सेन को भुवन शोम (1969), कोरस (1974), मृगया (1976) और अकालेर संधाने (1980) फिल्म के लिए स्वर्ण कमल प्राप्त हो चुके हैं।
राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्में बनाईं
मृणाल सेन ने 1955 में अपनी पहली फीचर फिल्म ‘रातभोर’ बनाई थी। इसके बाद ‘नील आकाशेर नीचे’ ने उनको स्थानीय पहचान दिलाई। उस समय का हर बड़ा अभिनेता उनके साथ काम करने का इच्छुक था। मृणाल सेन की तीसरी फिल्म ‘बाइशे श्रावण’ ने उनको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर दिया।
मृणाल सेन ने भारत सरकार की छोटी सी सहायता राशि से ‘भुवन शोम’ बनाई, जिसने उनको बड़े फिल्मकारों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया और उनको राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्रदान की। ‘भुवन शोम’ ने भारतीय फिल्म जगत में क्रांति ला दी और कम बजट की समांतर सिनेमा नाम से एक नया युग शुरू हुआ।
राष्ट्रपति और पीएम मोदी समेत देश की कई लोगों ने दी श्रद्धांजलि
मृणाल सेन के निधन पर राष्ट्रपति और पीएम नरेंद्र मोदी समेत देश की कई नामचीन हस्तियों ने उन्हें याद किया और ट्वीट कर श्रद्धांजलि दी।राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मृणाल सेन के निधन पर शोक जताते हुए कहा कि यह दुनिया के लिए क्षति है।
पीएम मोदी ने ट्वीट कर कहा कि हमारा देश कुछ अच्छी फिल्मों के लिए मृणाल सेन का आभारी रहेगा। उनके काम को आने वाली पीढ़ियां याद रखेंगी। मेरी सांत्वना उनके परिवारवालों के साथ हैं।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ट्वीट कर सेन के निधन पर शोक जताया। उन्होंने कहा, ‘मृणाल सेन के निधन से दुखी हूं। यह फिल्म उद्योग के लिए बड़ी क्षति है। उनके परिवार के प्रति मेरी संवेदनाएं हैं।’
माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने भी सेन को टि्वटर पर याद किया। उन्होंने कहा कि मृणाल सेन का गुजर जाना न केवल सिनेमा बल्कि दुनिया की संस्कृति और भारत की सभ्यता के मूल्यों के लिए बड़ी क्षति है। मृणाल दा लोगों पर आधारित अपने मानवतावादी कथानात्मक शैली से सिनेमैटोग्राफी में बड़ा बदलाव लाए।
सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने ट्वीट कर सेन को श्रद्धांजलि दी, अमिताभ ने कहा कि, मृणाल सेन नहीं रहे .. एक सौम्य, विशिष्ट सिनेमाई व्यक्तित्व, सत्यजीत रे और रित्विक घटक के समकालीन.. मैंने अपना सबसे पहला वॉइस ओवर मृणाल सेन की फिल्म ‘भुवन शोम’ में किया था।
नहीं रहे मशहूर फिल्मकार मृणाल सेन
‘दीदी कैफे’ ने लिखी आदिवासी महिलाओं की सफलता की कहानी
गिरिडीह : झारखंड के सुदूर गांवों में आजीविका दीदी कैफे साल भर पहले शुरू हुआ था। इसके सहारे होटल व्यवसाय में उतरीं आदिवासी महिलाओं ने कम समय में सफलता की नई कहानी लिख डाली है। आदिवासी समुदाय की महिलाओं की बात करें तो उनकी दुनिया जंगलों, पहाड़ों और खेत-खलिहानों तक सीमित रही है। कारोबार और व्यवसाय से तो इनका दूर-दूर का नाता नहीं रहा है। समय बदला है और बदलाव खुद अपनी कहानी कह रहा है। ये महिलाएं जागरूक हुई हैं। गिरिडीह जिला के उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में शुमार पीरटांड़ प्रखंड में संचालित आजीविका दीदी कैफे आदिवासी महिलाओं के स्वावलंबन की गाथा बयां कर रहा है। इस कैफे में होटल की तर्ज पर हर सुस्वादिष्ट भोजन व अन्य खाद्य पदार्थ उपलब्ध हैं। प्रखंड कार्यालय के कर्मियों से लेकर बीडीओ तक इस कैफे में मिलने वाली चाय, नाश्ता और भोजन के मुरीद हैं।
इस कैफे का संचालन चमेली महिला कैटरिंग समूह की ओर से हो रहा है। समूह की कोषाध्यक्ष रूपमनी टुडू और सदस्य सुनीता टुडू ने बताया कि प्रखंड कार्यालय में कैफे संचालन के लिए हमने भी आवेदन दिया था। चयन होते ही कैफे का संचालन शुरू किया। हम दोनों ने जो कुछ बचत की थी वह सभी इसमें लगा दी। करीब 90 हजार की राशि कच्चा माल, फर्नीचर, रसोई सजाने में लगाई। व्यंजनों की अच्छी गुणवत्ता, शुद्ध सामग्री का प्रयोग, सही दाम और सफाई ने कुछ ही दिनों में कैफे को शोहरत दे दी।
अब तो प्रखंड कार्यालय कर्मी, दूर-दूर से आने वाले ग्रामीण और अंचलाधिकारी व प्रखंड विकास पदाधिकारी तक यहां चाय, नाश्ता और भोजन को आते हैं। इतना ही नहीं आसपास होने वाले सरकारी व गैर सरकारी कार्यक्रमों में चाय, नाश्ता, भोजन की व्यवस्था इसी कैफे से होती है। बकौल सुनीता, हर माह कैफे से 6-7 हजार रुपये से अधिक की आय होती है। कैफे में चाय- नाश्ते के साथ वेज और नॉन वेज भोजन भी उपलब्ध है। कैफे के लिए भवन प्रशासन की ओर से मुहैया कराया गया है। अन्य व्यवस्थाएं इसे संचालित कर रही महिलाओं ने की है।
सुनीता कहती हैं कि कभी हम दो वक्त के भात को भी मोहताज थे। पति मजदूरी करते थे। उससे गुजर बसर ठीक से नहीं होती थी। इस कैफे ने हमारे घरों का अर्थतंत्र बदल दिया है। अब दो वक्त के भोजन की दिक्कत नहीं होती। घर में जरूरी सुख सुविधाएं भी हो गई हैं।
(साभार – दैनिक जागरण)
नृत्य को पाठ्यक्रम में स्थान दीजिए
भारतीय संस्कृति में हमेशा से ही नृत्य को महत्वपूर्ण स्थान मिला है मगर इस कला के प्रति वह भाव अभी भी नहीं है जो होना चाहिए। समाज में इसे सही स्थान अब तक नहीं मिला ऐसे में नृत्य के माध्यम से संवेदनाओं की भावनात्मक प्रस्तुति करती आ रही हैं देवप्रिया मुखर्जी। देवप्रिया मुखर्जी यूँ तो अध्यापिका हैं मगर बचपन से ही नृत्य उनका सहचर रहा है। भरतनाट्यम, कत्थक और रवींद्र नृत्य में पारंगत देवप्रिया मुखर्जी नृत्य वितान नामक डांस ग्रुप का संचालन करती हैं। अपराजिता ने देवप्रिया मुखर्जी से खास बातचीत की –
नृत्य की शुरुआत तो बचपन से ही हो गयी थी। पढ़ाई और नृत्य सीखना, दोनों साथ ही चले। अभिभावकों, खासकर माँ से बहुत प्रोत्साहन मिला। माँ अच्छा गाती थीं और वो मुझे गायन सिखाना भी चाहती थीं मगर तब मैं बहुत छोटी थी तो अपने गुरु की सलाह के बाद उन्होंने मुझे नृत्य का प्रशिक्षण दिलवाना आरम्भ किया। ङ्गिर प्राचीन कला केन्द्र से मैंने कत्थक, भरतनाट्यम और रवींद्र नृत्य में विशारद की डिग्री प्राप्त की।
मैं प्रतियोगिताओं में भाग लेती थी और निर्णायक भी बनने लगी थी। इसके पहले ही मैंने कम उम्र में सिखाना भी आरम्भ कर दिया। वैसे मैं अध्यापिका ही हूँ और सप्ताह में दो दिन नृत्य के लिए रखती हूँ। नृत्य वितान मेरा दल है और मेरी प्रस्तुतियों में कई पूर्व विद्यार्थी भी भाग लेते हैं।
शास्त्रीय नृत्य व्याकरण आधारित होने के कारण यह बेहद कठिन है जिसके लिए समझ होना आवश्यक है। आजकल हम जो कम्टम्परेरी नृत्य देखते हैं, उसमें परिश्रम और लचीलापन दोनों हैं मगर नृत्य की जो भावप्रवण अभिव्यक्ति है, वह नजर नहीं आती। उनमें गहराई नहीं दिखती। रिएलिटी शो में नजर आने वाले कलाकार कितनी दूर तक आगे जाते हैं, इसमें भी मुझे संशय है।
अगर किसी में शास्त्रीय नृत्य की समझ हो तो उसे बॉलीवुड में इस्तेमाल किया जा सकता है। बहुत सी फिल्मों में बेहद सुन्दर प्रयोग हुए भी हैं। लोकनृत्यों की भी अपनी खूबसूरती है। बिहू हो या राजस्थान का लोकनृत्य हो या किसी और प्रदेश का, ये देखने में बेहद आकर्षक हैं। नृत्य को लोकप्रिय बनाने के लिए गीतों का सहारा लिया जाना चाहिए।
नृत्य को लोकप्रिय बनाने के लिए इसे अकादमिक प्रक्रिया से जोड़ना जरूरी है। शास्त्रीय कंठ संगीत को माध्यमिक शिक्षा परिषद ने पाठ्यक्रम में स्थान दिया है, नृत्य को भी वही स्थान मिलना चाहिए। आज यह अनिवार्य नहीं है बल्कि यह स्कूलों पर निर्भर करता है मगर पाठ्यक्रम का अंग बनने पर निश्चित रूप से नृत्य लोकप्रिय होगा।
नृत्य को बचपन से ही जीवन का अंग बनाया जाना चाहिए। यह एक प्रकार की साधना है और इसे लेकर समाज को दृष्टिकोण विस्तृत करना होगा। कई बार बचपन में सीखने और कुछ प्रस्तुतियाँ देने के बावजूद लड़कियाँ अभ्यास छोड़ देती हैं मगर यह उनको समझना होगा कि उनको नृत्य की कितनी जरूरत है। नृत्य को लेकर नजरिए को बदलने की जरूरत है।
नृत्य को सम्मान और प्रेम देना होगा। आदिम सभ्यता में जब भाषा नहीं थी तो मुद्राएं ही अभिव्यक्ति का साधन थीं इसलिए नृत्य सभी कलाओं की जननी है इसलिए इसे समुचित सम्मान मिलना चाहिए।
अब देश का भविष्य जनता के हाथ में है
नया साल आ चुका हैऔर 2019 भारत के लिए काफी निर्णायक है। राजनीति से लेकर खेल तक, हर एक क्षेत्र एक नयी चुनौती की तरह सामने है। देश की राजनीति का अब कोई एक चेहरा नहीं है, एक इरादा भी नहीं है और एक से पैंतरे भी नहीं है। आम भारतीय इस बार एक मतदाता अधिक है और यह उसके लिए परीक्षा की घड़ी है कि वह किसे चुने जो देश को आगे ले जाए। आमतौर पर स्थानीय मुद्दों और केन्द्रीय मुद्दों के बीच एक टकराव की स्थिति बनती है मगर देखना यह है कि क्या आम मतदाता स्थानीयता से ऊपर उठकर फैसला लेगा। इस साल अयोध्या को लेकर भी फैसले की घड़ी शायद नजदीक है और देश की धार्मिक सहिष्णुता का ताना-बाना इस एक फैसले की राह देख रहा है। यह साल विश्व कप क्रिकेट का भी है।
कई नये चेहरे हमारे सामने हैं और कई पुराने दिग्गज भी हमारे पास हैं मगर नये और पुराने के मेल करा देने से बात नहीं बनेगी जबकि उनके बीच संयोजन न हो। आज की राजनीति व्यक्ति केन्द्रित हो गयी है। जरूरी है कि इस मोह से ऊपर उठकर हम देखें और देश की बेहतरी के लिए एक साथ निर्णय लें। देश का भविष्य अब सिर्फ जनता के हाथ में हैं इसलिए जिम्मेदारी भी सबसे ज्यादा उसी की है, मतलब हमारी और आपकी। आइए, नववर्ष पर इस दायित्व को हम मिलकर उठाएं…नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
गद्य वद्य कुछ – नील कमल
अपने समकालीनों पर कुछ लिखना बेहद चुनौतीपूर्ण और साहस भरा निर्णय होता है । यह दोधारी तलवार की तरह होता है । जिसमें कलाई का घुमाव सही नहीं गया तो अपनी ही गर्दन कटने का डर बराबर बना रहता है ।
नील कमल की यह किताब आज ही डाक से मिली । इस ‘आलोचना जैसी’ पुस्तक में त्रिलोचन और मुक्तिबोध से लेकर अनुज लुगुन , शायक आलोक और शुभम श्री तक शामिल हैं । कवि और कविता का चुनाव बेहद दिलचस्प है । यह एक कवि-आलोचक की बौद्धिक यात्रा का आलोचकीय वृत्तांत है ।
किताब के लगभग दस लेख अभी-अभी पढ़कर पूरा किया है । कुछ बातों से सहमति है तो कुछ से घोर असहमति । यह ठीक भी है । मैं समझता हूँ रास्ता इसी के बीच से निकलेगा । यह बेहद महत्वपूर्ण है कि जब अमूमन सभी ‘बड़े आलोचक’ घी को देसी घी , गाय का घी , ऊँट और भैंस का घी घोषित करने में अपनी सम्पूर्ण ‘मेधा’ व्यय कर रहे हैं तब भी कुछ लोग हैं जो दूध को मथकर घी निकालने के काम में जुटे हुए हैं । लेखक नील कमल को बहुत बहुत बधाई ।
विहाग वैैभव की वॉल से
सौजन्य – आनन्द गुप्ता
26 दिसम्बर से शुरू हिन्दी मेले में फोकस महात्मा गाँधी पर
युवाओं ने किया कहानी का नाटकीय पाठ
‘साहित्यिकी’ संस्था की मासिक गोष्ठी आयोजित
कोलकाता : महानगर की ‘साहित्यिकी’ संस्था के तत्वावधान में शुक्रवार, दिनांक २१ दिसंबर २०१८ को मासिक संगोष्ठी के अंतर्गत ‘साहित्यिकी पत्रिका’ के २८वें संस्करण ‘बदलते पर्यावरण में’ पर केन्द्रित परिचर्चा आयोजित की गई थी. मंजूरानी गुप्ता ने स्वागत भाषण में संस्था का परिचय व कार्यक्रमों की जानकारी दी. साथ ही संस्था की बड़ी पहचान के रूप में महिलाओं की एकमात्र हस्तलिखित पत्रिका की विशेषताओं से भी परिचित कराया I वरिष्ठ आलोचक, साहित्यकार तथा छपते-छपते के दीपावली अंक के संपादक कार्यक्रम के मुख्य वक्ता श्रीनिवास शर्मा जी ने पर्यावरण सम्बन्धी अपने विचारों से उपस्थित जनों को अवगत कराया. उन्होंने कहा कि ‘प्रदूषण और पर्यावरण-सुरक्षा’ जैसे ज्वलंत विषय का चुनाव करना और रचनाओं के रूप में सदस्य महिलाओं की भारी हिस्सेदारी इस बात का प्रमाण है कि यह चिंता किसी जाति, वर्ग या समुदाय विशेष की नहीं है. मनुष्य और प्रकृति के बीच आज एक द्वंद्व सा चल रहा है. तेज़ी से बढ़ती आबादी और उसकी ज़रूरतों को पूरी करने की समस्या इतनी विकट है कि विकास और पर्यावरण के बीच असंतुलन बढ़ता ही जा रहा है. संतुलन को बनाये रखने में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका महत्त्वपूर्ण है. इसी क्रम उन्होंने उन महिलाओं को भी पर्यावरण सुरक्षा सम्बन्धी अभियान का हिस्सा बनाने की आवश्यकता पर बल दिया जो शिक्षा और विकास के साधनों से वंचित रह गईं हैं.. श्रीनिवास जी ने बदलते समय और परिस्थितियों के अनुकूल पत्रिका को प्रिंट रूप में प्रकाशित करने सुझाव भी संस्था के समक्ष रखा. सुषमा हंस ने संपादन के दौरान होने वाले अपने अनुभवों को साझा किया और कहा कि दृष्टि बदलने से दृश्य बदल जाते हैं अतएव पर्यावरण-सुरक्षा के सम्बन्ध में लोगों के दृष्टिकोण में पहले बदलाव आना चाहिए. पूनम पाठक ने धार्मिक उत्सवों, अनुष्ठानों और पर्वों के बढ़ते व्यवसायीकरण को ‘आस्था पर प्रदूषण का प्रहार’ कह चिंता व्यक्त की तथा इसको रोकने में महिलाओं की जागरूकता और सार्थक प्रयासों की आवश्यकता को रेखांकित किया. वाणी बाजोरिया ने सरकार द्वारा किये गए प्रयासों के ठोस कार्यान्वयन और कड़े नियमों व् दंड के प्रावधान की आवश्यकता पर बल दिया. अध्यक्षीय भाषण में कुसुम जैन ने वैज्ञानिक सोच व तकनीकि की सहायता से पर्यावरण सम्बन्धी आन्दोलन को आगे बढ़ाने की पेशकश करते हुए साहित्य के माध्यम से समाज के प्रति महिलाओं के उत्तरदायित्त्व को भी महत्त्वपूर्ण माना. गीता दुबे ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए समाज के प्रति संस्था के समर्पित योगदान का उल्लेख किया. संगोष्ठी में संस्था की अनेक सदस्याओं के अतिरिक्त अन्य गणमान्य जन भी उपस्थित थे I कार्यक्रम का सफल सञ्चालन मंजूरानी गुप्ता ने किया था.
…रिपोर्ट, पूनम पाठक और वाणी बाजोरिया के सौजन्य से.
आपके कम्प्यूटर पर होगी सरकार की नजर
नयी दिल्ली : केंद्र सरकार ने 10 केंद्रीय एजेंसियों को किसी भी कम्प्यूटर सिस्टम में रखे गए सभी डेटा की निगरानी करने और उन्हें देखने के अधिकार दिए हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के साइबर एवं सूचना सुरक्षा प्रभाग द्वारा गत गुरुवार देर रात गृह सचिव राजीव गाबा के जरिए यह आदेश जारी किया गया। आदेश के मुताबिक, 10 केंद्रीय जांच और खुफिया एजेंसियों को अब सूचना प्रौद्योगिकी कानून के तहत किसी कम्प्यूटर में रखी गई जानकारी देखने, उन पर नजर रखने और उनका विश्लेषण करने का अधिकार होगा।
इन 10 एजेंसियों में खुफिया ब्यूरो (आईबी), नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी), राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए), रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ), सिग्नल खुफिया निदेशालय (जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर और असम में सक्रिय) और दिल्ली पुलिस शामिल हैं।
आदेश में कहा गया, ‘‘उक्त अधिनियम (सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 की धारा 69) के तहत सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों को किसी कम्प्यूटर सिस्टम में तैयार, पारेषित, प्राप्त या भंडारित किसी भी प्रकार की सूचना के अंतरावरोधन (इंटरसेप्शन), निगरानी (मॉनिटरिंग) और विरूपण (डीक्रिप्शन) के लिए प्राधिकृत करता है।’ सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 69 किसी कंप्यूटर संसाधन के जरिए किसी सूचना पर नजर रखने या उन्हें देखने के लिए निर्देश जारी करने की शक्तियों से जुड़ी है।
पहले के एक आदेश के मुताबिक, केंद्रीय गृह मंत्रालय को भारतीय टेलीग्राफ कानून के प्रावधानों के तहत फोन कॉलों की टैपिंग और उनके विश्लेषण के लिए खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को अधिकृत करने या मंजूरी देने का भी अधिकार है।
तो क्या कश्मीर में बीता था ईसा मसीह का आखिरी वक्त!
ईसाई समुदाय के सबसे बड़े पर्व के करीब आने के साथ ही ईश्वर के पुत्र ईसा मसीह को लेकर तमाम हैरतअंगेज बातों का जिक्र चल पड़ता है. ईसा मसीह के जन्म से लेकर उनकी मृत्यु और दोबारा जीवित होना जैसी बातों पर लगातार विवाद रहा है. ऐसी भी मान्यता है कि ईसा मसीह ने अपनी जिंदगी के कई साल भारत में गुजारे थे। खासकर उनका अंतिम वक्त कश्मीर में गुजरा था. कहा जाता है कि जब इजरायल में ईसा मसीह को सलीब पर लटकाया गया तो वो उसके बाद भी जिंदा रहे थे. लेकिन रहस्यमय तरीके से कहां गायब हो गए। ये आज भी रहस्य है. कुछ इतिहासकारों और शोधकर्ताओं का मानना है कि ईसा का ये रहस्यकाल कश्मीर में बीता। श्रीनगर के रोजाबल श्राइन को ईसा मसीह की करीब दो हजार साल पुरानी कब्र माना जाता है।
कई शोधकर्ताओं का मानना है कि जीसस की मृत्यु सूली पर चढ़ाने से नहीं हुई थी. रोमन द्वारा सूली पर चढ़ाए जाने के बाद भी वो बच गए। फिर मध्यपूर्व होते हुए भारत आ गए. उनका बाकी का जीवन भारत में बीता। रोजाबल में जिस व्यक्ति का मकबरा है, उसका नाम यूजा असफ है। शोधकर्ताओं का मानना है कि यूजा असफ कोई और नहीं बल्कि ईसा मसीह या जीसस ही हैं।
तमाम डॉक्युमेंट्रीज और किताबों में जिक्र
क्राइस्ट के भारत आने पर बीबीसी लंदन ने 42 मिनट की डॉक्यूमेंट्री ‘जीसस इन इंडिया” बनायी। श्रीलंका में करीब सवा घंटे की एक डॉक्यूमेंट्री बनाई गयी। ”जीसस वाज ए बौद्धिस्ट मंक”. ईसा के भारत आने पर तमाम किताबें लिखी गयीं। कई दशकों पहले कश्मीर के जाने-माने लेखक अजीज कश्मीरी ने अपनी किताब ”क्राइस्ट इन कश्मीर” से लोगों को ध्यान खींचा. आंद्रेयस फेबर कैसर ने ”जीसस डाइड इन कश्मीर” लिखी तो जाने माने लेखक एडवर्ड टी मार्टिन ने ”किंग ऑफ ट्रेवलर्स: जीसस लास्ट ईयर इन इंडिया” लिखी।

पहलगाम में यहूदी नस्ल के बाशिंदे
सुजैन ओस ने भी इसी विषय पर चर्चित किताब लिखी. जम्मू-कश्मीर आर्कियोलॉजी, रिसर्च एंड म्यूजियम में अर्काइव विभाग के पूर्व डायरेक्टर डॉ. फिदा हसनैन की भी इस विषय में दिलचस्पी तब पैदा हुई जब वो लद्दाख गए और उन्हें इस बारे में बताया गया। तब उन्होंने राज्य में इस संबंध में पुरानी किताबें और साक्ष्य तलाशने शुरू किए. जो कुछ उन्हें मिला, वो इशारा करता था कि ईसा के भारत आने की बात में दम है। पहलगाम का क्षेत्र डीएनए संरचना अनुसार मुसलमान बने यहूदी नस्ल के लोगों से भरा हुआ है।
सवाल भी हैं
कई विद्वानों ने शोध से साबित करने की कोशिश की कि ये कब्र किसी और की नहीं, बल्कि ईसा मसीह या जीसस की है। सवाल उठता है कि अगर जीसस की मौत सूली पर चढ़ाए जाने की वजह से येरूशलम में हुई तो उनका मकबरा 2500 किमी दूर कश्मीर में कैसे हो सकता है। बाइबल भी ईसा को सूली पर चढ़ाने के बाद उनके 12 बार अलग-अलग समय पर लोगों के सामने आकर मानव रूप में जीवित होने का प्रमाण देना कहती है।

ईसा सिल्क रूट से कश्मीर आ गए!
ईसा मसीह ने 13 साल से 30 साल की उम्र के बीच क्या किया, ये रहस्य सरीखा ही है. बाइबल में उनके इन वर्षों का कोई जिक्र नहीं मिलता। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने येरूशलम में यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली. दीक्षा के बाद वो लोगों को शिक्षा देने लगे. ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन 29 ई. को ईसा येरूशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया. जब उन्हें सलीब पर लटकाया गया, उस वक्त उनकी उम्र करीब 33 वर्ष थी। इसके दो दिन बाद ही उन्हें उनकी कब्र से पास जीवित देखा गया. फिर वो कभी यहूदी राज्य में नजर नहीं आए. उसके बाद के समय में उनके कश्मीर में होने का उल्लेख है। ईसा ने दमिश्क, सीरिया का रुख करते हुए सिल्क रूट पकड़ा। वह ईरान, फारस होते हुए भारत पहुँचे.जहां कश्मीर में वो 80 वर्ष की उम्र तक रहे। जीसस के भारत आने को लेकर कई किताबें लिखी गयीं जिसमें उनके कश्मीर आकर रहने का उल्लेख है।
अहमदिया समुदाय भी मानता है
हिंदू ग्रंथ भविष्यपुराण में भी कथित उल्लेख है कि ईसा मसीह भारत आए थे। उन्होंने कुषाण राजा शालीवाहन से मुलाकात की थी। मुस्लिमों का अहमदिया समुदाय भी यकीन करता है कि रोजाबल में मौजूद मकबरा ईसा या जीसस का ही है।अहमदिया समुदाय के संस्थापक हजरत मिर्जा गुलाम अहमद ने 1898 में लिखी अपनी किताब ‘मसीहा हिन्दुस्तान में’ ये लिखा कि रोजाबल स्थित मकबरा जीसस का ही है जिनकी शादी कश्मीर प्रवास के दौरान मरजान से हुई. उनके बच्चे भी हुए।
रूसी विद्वान ने पहली बार किया था ये दावा
जर्मन लेखक होलगर्र कर्सटन ने अपनी किताब ‘जीसस लीव्ड इन इंडिया’ में इस बारे में विस्तार से लिखा है। पहली बार सन 1887 में रूसी विद्वान, निकोलाई अलेक्सांद्रोविच नोतोविच ने संभावना जाहिर की थी कि शायद जीसस भारत आए थे। नोतोविच कई बार कश्मीर आए थे. जोजी ला पास के नजदीक स्थित एक बौद्ध मठ में वो मेहमान थे, जहां एक भिक्षु ने उन्हें एक बोधिसत्व संत के बारे में बताया जिसका नाम ईसा था। नोतोविच ने पाया कि ईसा औऱ जीसस क्राइस्ट के जीवन में कमाल की समानता है। निकोलस नोतोविच एक रूसी यहूदी राजदूत, राजनीतिज्ञ और पत्रकार थे. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय तौर पर पहली बार ये दावा किया था। रूसी विद्वान और लेखक निकोलाई नोतोविच, जो लद्दाख के बौद्ध मठ में ठहरे और फिर “अननोन ईयर्स ऑफ जीसस” किताब लिखी।
भारत सरकार की डॉक्युमेंट्री क्या कहती है
इस बारे में भारत सरकार द्वारा बनाई गई करीब 53 मिनट की डॉक्यूमेंट्री ”जीसस इन कश्मीर” कमाल की है. इसने बहुत प्रमाणिक ढंग से बताया है कि किस तरह जीसस भारत में आकर रहे। उनका ये प्रवास लद्दाख और कश्मीर में था. हालांकि रोमन कैथोलिक चर्च और वेटिकन इसे नहीं मानते. ये डॉक्युमेंट्री इशारा करती है कि जीसस अपने खास लोगों के साथ कश्मीर आए थे. फिर यहीं के होकर रह गए। उनके साथ आए यहूदी यहीं के वाशिंदे हो गए। इजरायल का ये ट्राइबल मैप बताता है कि सैकड़ों साल पहले जो कबीले वहां से गायब हो गए थे, वो अब कश्मीर में हैं। ये लोग अपने नाम भी उसी तरह रखते हैं, जिस तरह इजरायली।

इजरायल के 10 यहूदी कबीलों के वंशज कश्मीर में
भारत सरकार के फिल्म प्रभाग की ये डॉक्यूमेंट्री प्रमाणिक रूप से भारत में ईसा मसीह के संबंध पर ध्यान खींचती है। भारतीय सेंसर बोर्ड से पास इस डॉक्यूमेंट्री में 2000 साल पुराने शिव मंदिर के अभिलेखों, संस्कृत और बौद्ध पांडुलिपियों में यीशू के यहूदी नाम यसूरा के इस्तेमाल, सम्राट कनिष्क के अनदेखे सिक्कों और तिब्बती ऐतिहासिक पांडुलिपियों द्वारा उनके कश्मीर आने को साबित किया जाता है। इजरायल के कुल 12 यहूदी कबीलों में गुम हुए 10 यहूदी कबीलों में कुछ के वंशज अफगान और कश्मीर में ही बसे हुए हैं। उन्हें “बनी इजरायल ” कहा जाता है. वो सभी बेशक मुस्लिम बन चुके हैं, लेकिन उनका खानपान और रीति रिवाज कश्मीरियों से अलग हैं। वो कश्मीरियों से रोटी-बेटी के सम्बन्ध नहीं रखते।
कहाँ है श्रीनगर में ये कब्र
श्रीनगर के जिस छोटे से मोहल्ले खानयार में ये कब्र बताई जाती है और पिछले कुछ सालों में दुनियाभर के ईसाईयों और धार्मिसाक इतिहासकारों के आकर्षण का केंद्र भी बनती रही है। खानयार के रोजाबल में जो कब्र है, वो उत्तर-पूर्व दिशा में है जबकि मुसलमानों की कब्रें दक्षिण-पश्चिम में होती हैं।
(साभार – न्यूज 18)





