नृत्य को पाठ्यक्रम में स्थान दीजिए

भारतीय संस्कृति में हमेशा से ही नृत्य को महत्वपूर्ण स्थान मिला है मगर इस कला के प्रति वह भाव अभी भी नहीं है जो होना चाहिए। समाज में इसे सही स्थान अब तक नहीं मिला ऐसे में नृत्य के माध्यम से संवेदनाओं की भावनात्मक प्रस्तुति करती आ रही हैं देवप्रिया मुखर्जी। देवप्रिया मुखर्जी यूँ तो अध्यापिका हैं मगर बचपन से ही नृत्य उनका सहचर रहा है। भरतनाट्यम, कत्थक और रवींद्र नृत्य में पारंगत देवप्रिया मुखर्जी नृत्य वितान नामक डांस ग्रुप का संचालन करती हैं। अपराजिता ने देवप्रिया मुखर्जी से खास बातचीत की –
नृत्य की शुरुआत तो बचपन से ही हो गयी थी। पढ़ाई और नृत्य सीखना, दोनों साथ ही चले। अभिभावकों, खासकर माँ से बहुत प्रोत्साहन मिला। माँ अच्छा गाती थीं और वो मुझे गायन सिखाना भी चाहती थीं मगर तब मैं बहुत छोटी थी तो अपने गुरु की सलाह के बाद उन्होंने मुझे नृत्य का प्रशिक्षण दिलवाना आरम्भ किया। ङ्गिर प्राचीन कला केन्द्र से मैंने कत्थक, भरतनाट्यम और रवींद्र नृत्य में विशारद की डिग्री प्राप्त की।
मैं प्रतियोगिताओं में भाग लेती थी और निर्णायक भी बनने लगी थी। इसके पहले ही मैंने कम उम्र में सिखाना भी आरम्भ कर दिया। वैसे मैं अध्यापिका ही हूँ और सप्ताह में दो दिन नृत्य के लिए रखती हूँ। नृत्य वितान मेरा दल है और मेरी प्रस्तुतियों में कई पूर्व विद्यार्थी भी भाग लेते हैं।
शास्त्रीय नृत्य व्याकरण आधारित होने के कारण यह बेहद कठिन है जिसके लिए समझ होना आवश्यक है। आजकल हम जो कम्टम्परेरी नृत्य देखते हैं, उसमें परिश्रम और लचीलापन दोनों हैं मगर नृत्य की जो भावप्रवण अभिव्यक्ति है, वह नजर नहीं आती। उनमें गहराई नहीं दिखती। रिएलिटी शो में नजर आने वाले कलाकार कितनी दूर तक आगे जाते हैं, इसमें भी मुझे संशय है।
अगर किसी में शास्त्रीय नृत्य की समझ हो तो उसे बॉलीवुड में इस्तेमाल किया जा सकता है। बहुत सी फिल्मों में बेहद सुन्दर प्रयोग हुए भी हैं। लोकनृत्यों की भी अपनी खूबसूरती है। बिहू हो या राजस्थान का लोकनृत्य हो या किसी और प्रदेश का, ये देखने में बेहद आकर्षक हैं। नृत्य को लोकप्रिय बनाने के लिए गीतों का सहारा लिया जाना चाहिए।
नृत्य को लोकप्रिय बनाने के लिए इसे अकादमिक प्रक्रिया से जोड़ना जरूरी है। शास्त्रीय कंठ संगीत को माध्यमिक शिक्षा परिषद ने पाठ्यक्रम में स्थान दिया है, नृत्य को भी वही स्थान मिलना चाहिए। आज यह अनिवार्य नहीं है बल्कि यह स्कूलों पर निर्भर करता है मगर पाठ्यक्रम का अंग बनने पर निश्‍चित रूप से नृत्य लोकप्रिय होगा।
नृत्य को बचपन से ही जीवन का अंग बनाया जाना चाहिए। यह एक प्रकार की साधना है और इसे लेकर समाज को दृष्टिकोण विस्तृत करना होगा। कई बार बचपन में सीखने और कुछ प्रस्तुतियाँ देने के बावजूद लड़कियाँ अभ्यास छोड़ देती हैं मगर यह उनको समझना होगा कि उनको नृत्य की कितनी जरूरत है। नृत्य को लेकर नजरिए को बदलने की जरूरत है।
नृत्य को सम्मान और प्रेम देना होगा। आदिम सभ्यता में जब भाषा नहीं थी तो मुद्राएं ही अभिव्यक्ति का साधन थीं इसलिए नृत्य सभी कलाओं की जननी है इसलिए इसे समुचित सम्मान मिलना चाहिए।

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