Wednesday, December 17, 2025
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आतंक के खिलाफ है हमारे देश की जंग, पाक की जनता और मीडिया भी साथ आए

यह समय बहुत नाजुक और बहुत हद तक निर्णायक है। आतंक के खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई की शुरुआत है। आज का दिन खास है क्योंकि हमारे अभिनन्दन लौट रहे हैं। पुलवामा के बाद भारतीय वायु सेना ने जो पराक्रम दिखाया, वह हमारे लिए गर्व का विषय है मगर इसके साथ ही हमें सजग रहने की भी जरूरत है। 350 आतंकी मार गिराए गए हैं मगर सबसे ज्यादा जरूरी है कि आतंक की जड़ें जहाँ हैं, उनको खोज निकाला जाए और खत्म किया जाए। इस काम में अब पाकिस्तान की जनता को मदद करनी होगी, पाक मीडिया को आगे आने होगा। अब शुक्रगुजार हैं कि अभिनन्दन के मामले में उन्होंने अपनी सरकार पर दबाव बनाया मगर शांति प्रक्रिया तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक आपकी सरकार और सेना आतंकवाद को अपना प्रश्रय देना बंद नहीं करती। अगर आप यह कदम पहले उठाते तो शायद हमारे रिश्ते इतने तल्ख नहीं होते और न ही दोनों देशों के इतने जवान शहीद होते। अब जरूरी है कि पाकिस्तान की जनता भी अपना हस्तक्षेप जारी रखे। एक जंग हम लड़ रहे हैं, अपने मुल्क दहशतगर्दी को रोकने के लिए आप भी कदम बढ़ाइए। हमने आतंकी ठिकानों पर हमला बोला, पाक ने हमारे सैन्य ठिकानों पर हमला किया। युद्ध की तरह पत्रकारिता के भी कुछ मूल्य होते हैं। भारत ने कभी युद्ध नहीं चाहा,इस बार भी नहीं चाहता मगर जब आपके जवानों की जान निरन्तर जाती रहे, आतंकी हमले होते रहें, बातचीत के बावजूद आतंकियों को पनाह दी जाती रहे तो एक सशक्त राजनीतिक हस्तक्षेप जरूरी होता है। अगर ऐसा न किया जाए तो न सिर्फ आपका दुश्मन आपको हल्के में लेने लगता है बल्कि सेना का मनोबल भी टूटता है। आखिर ये जवान किसके लिए अपनी जान दाँव पर लगा रहे हैं, हमारे और आपके लिए, तो जरूरी है कि एक बार उनके बारे में सोचा जाए।
पाक सेना की जिद और गुरूर का नतीजा पाकिस्तान की आम जनता को झेलना पड़ रहा है। अभी पाक सेना शांति की बात कर रही है मगर इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? पाक सरकार और सेना, दोनों से यह प्रश्न है कि आपने हाफिज सईद, मसूद अजहर और दाउद जैसे न जाने कितने दहशतगर्दों को पनाह दी, उससे आपको हासिल क्या हुआ? क्या वे आपके लिए इतने महत्वपूर्ण हैं कि आप अपनी जनता की जरूरतों को भी भूल जाएं? इमरान खान खुद खेल की दुनिया में रह चुके हैं, वह खुद जानते हैं कि भारत में उनके खेल के कितने प्रशंसक हैं,फिर वह उसी खतरनाक रास्ते पर क्यों चल रहे हैं? ये कैसी मैत्री है कि एक तरफ आप ऐटम बम गिराने की धमकी दे रहे हैं और दूसरी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं और दूसरी तरफ हमारी सीमा पर गोली और बम चलवा रहे हैं। आखिर आप पर कैसे भरोसा किया जाए जबकि आपने हर बार धोखा ही दिया है। कभी कन्धार, कभी संसद हमला, कभी 26 नवम्बर, कभी उड़ी, कभी पठानकोठ और अब पुलवामा। पहले खुद को इस लायक तो बनाइए कि आप पर विश्वास करने की वजह बने। हमारा देश शांति का देश है, युद्ध नहीं चाहते हम मगर आपको भी यह सुनिश्चित करना होगा कि आप अपने देश और जनता की खुशहाली चुनते हैं या उन आतंकियों को, जो आज आपके मुल्क की दुर्दशा का कारण बन रहे हैं। इमरान खान तय करें कि उनकी जवाबदेही अपनी जनता के प्रति है कि मसूद अजहर और हाफिज जैसे आतंकियों के प्रति..जब तक इस सवाल का जवाब हमारा पड़ोसी मुल्क नहीं खोज लेता और सही उत्तर नहीं खोज लेता…वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता। इतिहास को एक अच्छी दिशा में मोड़ना इस वक्त इमरान खान के हाथ में है।
एक सवाल हमारे देश में बैठे पाक परस्त लेखकों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों से है कि आखिर राष्ट्र से प्रेम करना अन्ध भक्ति कैसी हो सकती है? आखिर आपको मानवता और शांति जैसे शब्द आतंकियों, अलगाववादियों के मरने पर ही क्यों याद आते हैं? वायु सेना की एयर स्ट्राइक के बाद इनके चेहरे पर किसी प्रकार की खुशी नहीं दिखी बल्कि वे सवाल ही उठाते रहे?
हमारे अनुभव यही कहते हैं कि पााकिस्तान पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इस समय ठहरकर सभी को यह सोचने की जरूरत है कि कहीं आपसी और निजी हित राष्ट्रहित पर भारी तो नहीं पड़ रहे? इसका सबूत है कि रक्षा मंत्रालय और सेना के अनुरोध के बावजूद सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से विंग कमाण्डर की तस्वीरें शेयर की जाती रहीं। देश हित में कम, अपने मत स्थापित करने के लिए बातें की जा रहीं। जिन बातों को गोपनीय रखना था, वे सब अखबारों में छापे गए और थोड़े दिन की शांति के बाद विपक्ष ने हमला बोल दिया। हम मानते हैं कि लोकतन्त्र में प्रश्न करने का अधिकार सभी को है मगर यह भी सच है कि यह समय हमारे साथ खड़े रहने का है, एक दूसरे पर उँगली उठाने के लिए भी हमारा सुरक्षित होना जरूरी है। इस पूरे प्रकरण में महिला सशक्तीकरण का नया रूप दिखा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अतिरिक्त विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तथा रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने जिस तरीके से स्थिति सम्भाली, वह महिला सशक्तीकरण की नयी परिभाषा रचती है। हमें इसी परिभाषा की जरूरत है। बहरहाल हमारे देश में कुछ दिन में ही चुनाव घोषित होने जा रहे हैं। एक सजग नागरिक बनकर सही फैसला लेने की बारी आपकी है।

फोटोग्राफी की भाषा एक ही होती है मगर वह हजार शब्दों को पहुँचाती है

फोटोग्राफ्री की दुनिया में काम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है और फोटो पत्रकारिता तो और भी चुनौतीपूर्ण क्योंकि इसमें एक पल की देर भी सारी मेहनत पर पानी फेर सकती है। फोटो पत्रकारिता अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है क्योंकि एक तस्वीर सारी कहानी बयां कर सकती है। इसके बावजूद इस पुरुष प्रधान क्षेत्र में महिला फोटो पत्रकारों की तादाद लम्बे अरसे से कम रही है और आज भी महिलाओं के लिए काम करना इतना आसान नहीं है। ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में 20 साल से फोटो पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना लोहा मनवा रही हैं सुचेता दास। कई देश – विदेश के महत्पूर्ण मीडिया समूहों तथा समाचार एजेंसियों में काम कर चुकीं सुचेता की छायाचित्र प्रदर्शनी कई देशों में लग चुकी है मगर वे महज फोटो पत्रकार ही नहीं हैं बल्कि नयी पीढ़ी की राह को आसान करने के लिए वे अपना संस्थान ’इमेजेस रिडिफाइन्ड फोटोग्राफी इंस्टीट्यूट’ चला रही हैं। जुझारू फोटो पत्रकार व अध्यापक के रूप में एक सशक्त छाप छोड़ने वाली सुचेता दास के अनुभव जानते हैं –

मुझे बचपन से ही फोटोग्राफर बनना था
मेरे पिता शौकिया तौर पर फोटोग्राफी करते थे। वह तब मेरी तस्वीरें उतारतें। हमारे घर में बहुत से अखबार आते थे और उनमें बहुत सी तस्वीरें छपती थीं तब मुझे लगता था कि एक दिन मैं भी उनकी तरह तस्वीरें खीचूँगी और वह ऐसे ही अखबार में छपेगी। पहली बार सातवीं कक्षा में थी जब उन्होंने बनारस में पहली बार बंदरों की तस्वीरें खींची थी। छुट्टी होती थी तो पिता मुझे ऐसी जगहों पर ले जाया करते जहाँ बहुत सी तस्वीरें खींची जाती थीं। अगर मैं स्कूल के कार्यक्रमों में खींची गयी तस्वीरों को भी याद करूँ तो तस्वीरें खींचते ही मुझे लगभग 27 साल हो गए मगर प्रोफेशनल फोटोग्राफी मैं पिछले 21 साल से कर रही हूँ।

शुरुआत आसान नहीं थी
शुरुआती दिन इतने आसान नहीं थे। मेरे पिता मुझे प्रोफेसर बनाना चाहते थे और मैंने कलकत्ता विश्‍वविद्यालय से ज्योग्राफी ऑनर्स की पढ़ाई पूरी भी की मगर तब भी पढ़ाई के साथ ही फ्रीलॉसिंग करती रही। स्नातक की पढ़ाई के बाद, मेरा नाम एम एस सी के लिए सीयू के साथ जेयू की मेधातालिका में भी आ गया था मगर तब तक मैंने फोटोग्राफी पर ही खुद को केन्द्रित करने का फैसला कर लिया था और इस फैसले ने पापा को थोड़़ा नाराज कर दिया था। तब शुरुआत करना आसान नहीं था क्योंकि मेरे समय में आज की तरह फोटोग्राफी सिखाने के लिए कोई संस्थान नहीं था। इंटरनेट की सुविधा का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। और जहाँ भी जाती लोग सिफारिश माँगते थे और पूछा जाता था कि ‘किसने भेजा है या फिर शाम को मैं क्या कर रही हूँ?’ कई बार ऐसा भी हुआ कि मेरी तस्वीरों की तारीफें की गयी मगर सवाल का जवाब से असन्तुष्ट होने पर उनको खारिज भी कर दिया गया। ऐसी स्थिति में टाइम्स ऑफ इंडिया के स्थानीय सम्पादक उत्तम दा ही थे जिन्होंने मेरे काम को सराहा और प्रोत्साहन भी दिया।

महिलाओं के लिए काम करना तब भी आसान नहीं था और अब भी आसान नहीं है
महिलाओं के लिए काम करना तब भी आसान नहीं था और अब भी आसान नहीं है। तब आज की तरह इंटरनेट नहीं था इसलिए शोध करना हो या कुछ खोजना कहीं अधिक कठिन था और मेहनत अधिक करनी पड़ती थी। अच्छा काम करने पर भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अवसर और सुविधाएं कम मिलती थीं क्योंकि मान लिया जाता है कि पुरुषों का काम कहीं अधिक बेहतर है। अगर मैं अपनी बात करूँ तो मैंने कभी किसी नियोक्ता को किसी काम या असाइन्मेंट के लिए मना नहीं किया और सुविधाएं भी अधिक नहीं लीं। असाइनमेंट के दौरान भी बहुत से हार्ड न्यूज यानी गम्भीर खबरें कवर कीं, पत्रकारिता के दौरान पुलिस लाठीचार्ज, खदान विस्फोट और आग जैसे हादसों को कवर करते समय में कई बार चोट लगी,घायल भी हुई।

अब तक 62 राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी हूँ
मेरी ली गयी तस्वीरें ‘टाइम्स’, ‘वॉशिंग्टन पोस्ट’, ‘लंदन टाइम्स’, ‘नेशनल ज्योग्राफिक वेब पेज’, ‘न्यूज वीक’, ‘न्यूयार्क टाइम्स’ जैसी कई समाचार पत्रों तथा मीडिया में प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘राइटर्स इंटरनेशनल न्यूज एजेंसी’, ‘गल्फ न्यूज (दुबई)’ से लेकर ‘एसोसिएटेड प्रेस’ से लेकर कोलकाता के मशहूर समाचार पत्रों के लिए काम किया है। अब तक 62 राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय अवार्ड जीत चुकी हूँ जिनमें ‘वर्ल्ड प्रेस अवार्ड’, ‘गोल्डन आई अवार्ड,’ ‘ह्यूमैनिटी फोटो अवार्ड’, नेशनल ज्योग्राफी अवार्ड मास्टर कप’ योनहॉप इंटरनेशनल प्रेस फोटो अवार्ड, लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा ‘नेशनल नेशनल मीडिया ग्रांट (2 बार), नेशनल प्रेस फोटो अवार्ड (तीन श्रेणियों में) जैसे कई सारे अवार्ड शामिल हैं। ब्रिटेन में 2012 वर्ल्ड फोटोग्राफिक क्लब में मेरी तस्वीरों को लेकर 2011 का सर्वश्रेष्ठ फोटोग्राफर चुना गया। दक्षिण एशिया की सबसे अधिक बिकने वाली पत्रिका बेटर फोटोग्राफी में भारत की फोटो पत्रकार के रूप में चुना गया। 2012 में इंडियन नामक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है और संस्कृति मंत्रालय के कैलेंडर के लिए भी मेरी तस्वीरें इस्तेमाल की गयी हैं। इस समय में अपना समय मानव कल्याण से जुड़ी परियोजनाओं और विकासशील देशों के सामाजिक विकास में लगा रही हूँ।

नयी पीढ़ी के लिए रास्ते आसान करना चाहती हूँ
हमारे समय में कोई संस्थान नहीं था, मार्गदर्शक नहीं था और जब इमेजेस रिडिफाइंड शुरू किया तो सोच यही थी कि नयी पीढ़ी के लिए रास्ते आसान बना सकूँ। फटोग्राङ्गी में डेढ़ साल का डिप्लोमा देने वाला हमारा संस्थान एकमात्र संस्थान है। इमेजेस रि़डिफाइन्ड भारत का एकमात्र संस्थान है जहाँ विद्यार्थी 1 साल से 6 महीने का डिप्लोमा फोटो पत्रकारिता में पाते हैं। संस्थान शुरू करने के बाद अब फोटो पत्रकारिता के लिए वक्त कम मिलता है अब मैं जरूरतमंदो वंचितों के लिए काम करना चाहती हूँ और इसका असर भी पड़ता है। मेरे विद्यार्थी मशहूर मीडिया संस्थानों में काम कर रहे हैं।

कुछ लोगों को देखकर समूचे क्षेत्र के बारे में गलत धारणा न बनाएं
अच्छे और बुरे लोग पत्रकारिता में ही नहीं बल्कि हर जगह हैं इसलिए कुछ लोगों को देखकर समूचे क्षेत्र के बारे में राय नहीं बनानी चाहिए। फोटोग्राफी की भाषा एक ही होती है मगर हजार शब्दों को पहुँचा सकती है। मैं युवाओं से एक ही बात कहना चाहूँगी कि वे अपने काम के प्रति ईमानदार रहें। अपना सर्वश्रेष्ठ दें और वे इसका हजार गुना वापस पाएंगे।

नहीं रहे प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह

नयी दिल्ली :  हिंदी जगत के प्रख्यात साहित्यकार और आलोचक नामवर सिंह नहीं रहे। 93 वर्षीय नामवर सिंह पिछले कई दिनों से वे बीमार चल रहे थे, उन्होंने मंगलवार की रात 11.51 बजे अंतिम सांस ली। जनवरी में वे अचानक अपने रुम में गिर गए थे जिसके बाद उन्हें इलाज के लिए दिल्ली स्थित एम्स अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

डॉक्टरों के मुताबिक उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ था, हालांकि उनके इलाज में कुछ सुधार हुआ था लेकिन वे पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो पाए थे। बता दें कि उन्हें 1971 में साहित्य अकादमी सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। हिंदी साहित्य में उन्होंने कविताएं, कहानियां, आलोचनाएं, विचारधाराएं कई सारी चीजें लिखी हैं। नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1927 को जायतपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। अपने अधिकतर आलोचनाओं, साक्षात्कार इत्यादि विधाओं में साहित्य कला का सृजन किया है। उन्होंने ना सिर्फ साहित्य की दुनिया में अपना खासा योगदान दिया है बल्कि शिक्षण के क्षेत्र में भी उनका काफी योगदान है।

नामवर सिंह ने काशी विश्वविद्यालय में एमए और पीएचडी की इसके बाद इसी विश्वविद्यालय में उन्होंने प्रोफेसर के पद कई वर्षों तक अपनी सेवाएं भी दीं। नामवर सिंह ने सागर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन का काम किया, लेकिन यदि सबसे लंबे समय तक रहने की बात करें तो वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याल में रहे। जेएनयू से सेवानिवृत्त होने के बाद नामवर सिंह को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा के चांसलर के रूप में नियुक्त किया गया। उन्होंने लोकसभा  चुनाव भी लड़ा था। उन्होंने 1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार रूप में चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें इसमें हार मिली थी। उन्होंने समीक्षा, छायावाद, औऱ विचारधारा जैसी किताबें लिखीं हैं जो बेहद चर्चित है। इनके अलावा उनकी अन्य किताबें इतिहास और आलोचना, दूसरी परंपरा की खोज, कविता के नये प्रतिमान, कहानी नई कहानी, वाद विवाद संवाद आदि मशहूर हैं। उनका साक्षात्कार ‘कहना न होगा’ भी सा‍हित्य जगत में लोकप्रिय है।

नीदरलैंड की साहित्यकार प्रो.पुष्पिता अवस्थी का सम्मान एवं काव्यपाठ

कोलकाता : भारतीय भाषा परिषद के तत्वावधान में सभी भाषाओं को साथ लेकर चलने वाली काव्य लहरी-2 की काव्य गोष्ठी इस बार संस्कृत ,हिंदी और मैथिली भाषा पर केन्द्रित थी  जिसकी अध्यक्षता कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के आचार्य डॉ रवींद्रनाथ भट्टाचार्य ने की।काव्य-लहरी का मुख्य उद्देश्य ही है विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच सौहार्द-स्थापन ।
अभिलाषा तिवारी ने देवी का लोकगीत ‘ पचरा ‘ प्रस्तुत कर काव्य संध्या की शुरुआत की। प्रो राजश्री शुक्ला ने अतिथियों का परिचय एवं सम्मान कराते हुए स्वागत भाषण किया ।उन्होंने कहा कि फाल्गुन मास वसंत के साथ साथ नई फसलों के आगमन और उमंग के स्वागत का समय है,जिसका आध्यात्मिक और लौकिक रूप भी है । विशिष्ट वक्ता डॉ ऋषिकेश राय ने संस्कृत और मैथिली के काव्य इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि संस्कृत किसी एक वर्ग की भाषा नहीं है, यह प्रतिरोध , लोकधर्म की भाषा है । महाकाव्य सबसे ज्यादा संस्कृत में ही लिखे जा रहे हैं । नीदरलैंड से आईं हिंदी यूनिवर्स फाउंडेशन की निदेशक प्रो. पुष्पिता अवस्थी को भारतीय भाषा परिषद की अध्यक्षा डॉ कुसुम खेमानी ने शाल, अभिनन्दन पत्र एवं संस्था का स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया।काव्यगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे आचार्य डॉ. रवींद्र नाथ भट्टाचार्य एवं अन्य गणमान्य अतिथियों का सम्मान परिषद के उपाध्यक्ष ईश्वरी प्रसाद टांटिया, मंत्री नंदलाल शाह एवं विमला पोद्दार सहित सरला टांटिया और सरोजनी शाह ने किया।
प्रो. पुष्पिता अवस्थी ने अपनी हिंदी कविता पृथ्वी ,मुखौटा ,मधुबन के पाठ से श्रोताओं को मुग्ध किया । भाष्करानंद झा ‘भाष्कर’ ने मैथिली भाषा में ग़ज़ल प्रस्तुत करके खूब वाह-वाही बटोरी । डॉ रवींद्रनाथ भट्टाचार्य ने अपना अध्यक्षीय भाषण आतंकवाद विषय पर संस्कृत में दिया तथा संस्कृत में काव्यपाठ किया । धन्यवाद ज्ञापन भारतीय भाषा परिषद के मंत्री नन्दलाल शाह ने दिया । काव्य-गोष्ठी का संचालन काव्य-लहरी के संयोजक हास्य-व्यंग्य कवि गिरिधर राय ने किया । कार्यक्रम के प्रारम्भ में पुलवामा में शहीद हुए सैनिकों को एक मिनट का मौनव्रत पालन कर श्रद्धांजलि दी गई।कार्यक्रम में डॉ. रामप्रवेश रजक, डॉ. विवेक सिंह, शकुन त्रिवेदी इत्यादि गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे ।

हिन्दी के गौरव पुरुष थे डॉ.नामवर सिंह

कोलकाता : वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह के निधन पर भारतीय भाषा परिषद में आयोजित शोक सभा में उनके अवदान पर चर्चा करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। आलोचक श्रीनिवास शर्मा ने कहा, प्रगतिशील साहित्य के वैचारिक सरोकारों के इतिहास से नामवर सिंह की साहित्यिक यात्रा जुड़ी हैं। प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से लेकर आधुनिकतम साहित्य को उन्होंने आलोचना का विषय बनाया। ऐसे आलोचक किसी भाषा में जल्दी नहीं पैदा होते।
नामवर जी के शिष्य बृजमोहन सिंह ने कहा कि उन्होंने एक ओर वैचारिक संकीर्णता पर प्रहार की तो दूसरी तरफ सामाजिक चेतना से दूर साहित्य की भी आलोचना की। प्रेसिडेंसी विश्‍वविद्यालय के प्रो.वेदरमण ने कहा कि नमावर बहुत सहज थे। उन्होंने आलोचना को जो ऊँचाई दी, वह हमेशा बनी रहेगी।
परिषद की अध्यक्ष कुसुम खेमानी ने कहा कि उन्होंने बड़े मन से उन्होंने परिषद को हमेशा अपना सहयोग दिया। अरुण माहेश्‍वरी ने कहा कि उनके विचार एक वैकल्पिक विश्‍वदृष्टि के महान अंग हैं। सरला माहेश्‍वरी ने कहा कि वे हिंदी जगत की ऐसी शख्सियत थी जिनसे हिंदी जगत का कोई व्यक्ति अछूता नहीं रह सका है। मृत्युंजय ने कहा कि नामवर जी की इतनी ख्याति थी कि लेखक प्रतीक्षा में रहते थे कि वे उनका नाम ले लें। सेराज खान बातिश ने कहा कि नामवर सिंह की आलोचना के पाठक हमेश बने रहेंगे।
राकेश श्रीमाल ने कहा कि साहित्य में रुचि रखने वाला हर व्यक्ति नामवर जी को मन से अप्रत्यक्ष तौर पर स्मरण में रखता है। वागर्थ के सम्पादक डॉ. शंभुनाथ ने कहा कि आचार्य शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने यदि परंपरा के मूल्यांकन को समृद्ध बनाया तो नामवर सिंह ने समकालीन रचनाशीलता की उत्तम व्याख्या की। उनकी नई वैचारिक सूझ और ताजगी हमेशा पे्ररणा देती रहेगी। उन्होंने मौखिक परंपरा को आलोचना के स्तर पर प्रसिद्ध किया। पीयूषकांत, बालेश्‍वराय, सुशील कान्ति, पंकज सिंह आदि ने नामवर के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की। परिषद की सचिव बिमला पोद्दार ने संचालन किया।
प्रस्तुति : सुशील कान्ति

नामवर सिंह को याद करते हुए कविता जंक्शन संपन्न

कोलकाता : साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था नीलांबर कोलकाता ने सागर रेलवे ऑफिसर्स क्लब में कविता जंक्शन कार्यक्रम का आयोजन किया। इस वर्ष की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों के क्रम में संस्था का यह पहला आयोजन है। इसकी खास बात यह रही कि यह कार्यक्रम हाल ही में गुजरे हिंदी के शिखर आलोचक नामवर सिंह को समर्पित था। कार्यक्रम के शुरू में नामवर सिंह की जीवन यात्रा पर आधारित नीलांबर द्वारा तैयार वीडियो दिखाया गया। दिवंगत आत्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन पालन किया गया। कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि पधारे कवि श्री नवल और श्री आशुतोष सिंह समेत अन्य अतिथि कवियों और श्रोताओं ने नामवर सिंह की तस्वीर पर श्रद्धा सुमन अर्पित किया। नामवर सिंह की याद में श्रद्धांजलि वक्तव्य आनंद गुप्ता ने दिया।

संस्था के अध्यक्ष यतीश कुमार ने स्वागत भाषण दिया। इस कविता जंक्शन में नवल, आशुतोष सिंह, अनिल अनलहातु, विमलेश त्रिपाठी, रजनीश त्रिपाठी, संजय जायसवाल, शैलेश गुप्ता, आशा पांडेय, अनिला राखेचा, रमेश यादव, सुषमा कनुप्रिया, राहुल शर्मा, ममता विश्वनाथ, राहुल गौड़ आदि कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया। नवल और आशुतोष ने कविता से जुड़ी अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों से कार्यक्रम को समृद्ध किया। कार्यक्रम का संचालन ऋतु तिवारी और रेवा टिबरेवाल ने किया और धन्यवाद ज्ञापन किया संस्था के सचिव ऋतेश पांडेय ने। इस अवसर पर शैलेन्द्र शांत, निर्मला तोदी और कोलकाता के अनेक साहित्यप्रेमी उपस्थित थे।

2079 तक गर्भाशय ग्रीवा कैंसर से मुक्त हो सकता है भारत: लैंसेट अध्ययन

मेलबर्न : भारत आगामी 60 वर्षों में गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से छुटकारा पाने में सफलता हासिल कर सकता है। लैंसेट के एक अध्ययन में यह बात कही गई। अध्ययन में कहा गया है कि भारत ह्यूमन पेपिलोमावायरस (एचपीवी) टीकाकरण और गर्भाशय ग्रीवा की जांच को अधिक सुगम बनाकर 2079 तक गर्भाशय ग्रीवा कैंसर की समस्या से निजात पा लेगा। इसमें कहा गया है कि यदि 2020 तक इस बीमारी के उपचार एवं रोकथाम के प्रयासों को तेज किया गया तो 50 वर्ष में इसके एक करोड़ 34 लाख मामलों को रोका जा सकता है। ‘द लैंसेट आंकोलॉजी’ पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भारत, वियतनाम और फिलीपीन जैसे मध्यम स्तर के विकास वाले देशों में 2070 से 2079 तक गर्भाशय ग्रीवा कैंसर पर काबू पाया जा सकता है।ऑस्ट्रेलिया में ‘कैंसर काउंसिल न्यू साउथ वेल्स’ के अनुसंधानकर्ताओं के नेतृत्व में किए गए अध्ययन में पता चला है कि गर्भाशय ग्रीवा कैंसर से 181 में से 149 देशों में वर्ष 2100 तक निजात पाई जा सकती है। अमेरिका, फिनलैंड, ब्रिटेन और कनाडा जैसे उच्च आमदनी वाले देशों में इस बीमारी से 25 से 40 साल में निजात पाई जा सकती है।
कैंसर काउंसिल न्यू साउथ वेल्स के कारेन कैनफेल ने कहा, ‘‘समस्या की विकरालता के बावजूद हमारा अध्ययन कहता है कि इसे पहले से ही उपलब्ध साधनों की मदद से वैश्विक स्तर पर काबू किया जा सकता है।’’ उल्लेखनीय है कि गर्भाशय ग्रीवा का कैंसर महिलाओं को होने वाला चौथा सबसे आम कैंसर है। वर्ष 2018 में इसके करीब 5,70,000 नए मामलों का पता चला था।

कभी भीख माँगते थे, अब गोमती को स्वच्छ बना रहे हैं

लखनऊ :  हाल ही में स्वयंसेवकों के एक समूह ने उत्तर-प्रदेश के लखनऊ में गोमती नदी के घाट की साफ़-सफाई की और वहाँ जमा हुए प्लास्टिक के ढेर को हटाया।
हालांकि, इस तरह से सफाई की पहल कोई नई बात नहीं है, क्योंकि लगभग हर शहर में सामाजिक रूप से जागरूक नागरिक समूह यह कर रहा है। पर यह अभियान बाकी सबसे अलग था, क्योंकि ये 17 स्वयंसेवक, जिन्होंने यहाँ घाटों से प्लास्टिक के कचरे को साफ किया, वे कभी भिखारी हुआ करते थे।
तीन घंटे से भी कम समय में, उन्होंने नदी के दो घाटों को साफ कर दिया और फावड़े, झाडू आदि का इस्तेमाल करके एक टन कचरा निकाला, जिसे इस सप्ताह में लखनऊ नगर निगम द्वारा इकट्ठा कर लिया जाएगा।
इस अनूठी पहल का नेतृत्व शरद पटेल ने किया, जो लखनऊ में एक एनजीओ ‘बदलाव’ के संस्थापक हैं। बदलाव का उद्देश्य भीख मांगने की सामाजिक बुराई को समाप्त कर, इन लोगों के लिए पुनर्वास और रोजगार के अवसरों की दिशा में काम करना है।
शरद ने अपना ‘भिक्षावृत्ति मुक्ति अभियान,’ साल 2014 में शुरू किया। उनका उद्देश्य है कि ये सभी लोग भीख मांगना छोड़कर अपने पैरों पर खड़े हों, ताकि ये भी सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करें।
हालांकि, शरद के लिए इन लोगों को भीख मांगना छोड़कर, कोई रोज़गार करने के लिए मनाना आसान नहीं रहा। उन्होंने इन लोगों को काम दिलवाने में मदद की और उन्हें बहुत-सी संस्थाओ से जोड़ा। इससे इन लोगों को किसी की दया पर निर्भर होने की ज़रूरत नहीं, बल्कि ये सब स्वाभिमान से जी सकते हैं।
शरद बताते हैं कि कई लोग अब जगह-जगह जाकर ‘लेमन टी’ बेचते हैं, किसी ने स्ट्रीट फ़ूड के स्टॉल लगाना शुरू किया है, तो कई लोग रिक्शा आदि चला रहे हैं। उनकी कोशिश यही है कि इन सबको ऐसे किसी काम से जोड़ा जाए, जिसमें लगभग 10, 000 रूपये प्रति माह ये लोग कमा सकें। क्योंकि आज के जमाने में एक इंसान के लिए अपने महीने भर का खर्च चलाना बहुत मुश्किल है।
“जब मैंने इन लोगों को नौकरी दिलवाने में मदद की, तब ये सभी लोग बेघर थे। इनके पास कोई साधन नहीं था, जहाँ ये अपनी कमाई से बचत कर सकें। कई बार फूटपाथ पर सोते हुए, इनके पैसे चोरी हो जाते थे। ऐसे में, इन सब लोगों को अपने पैरों में खड़ा करने की हमारी सभी कोशिशें व्यर्थ जा रही थीं और इसलिए, मैंने इनके लिए एक आश्रय-घर खोलने का फ़ैसला किया,” शरद ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया।
क्राउडफंडिंग के ज़रिए, उन्होंने इन लोगों के लिए एक अस्थायी आश्रय-घर शुरू किया और यहाँ पर लगभग 20 लोग आराम से रह सकते हैं। फ़िलहाल, यहाँ 18 लोग रहते हैं और इनमें से एक दृष्टिहीन भी है।
उनका मुख्य ध्यान इन लोगों का हृदय परिवर्तन कर, उनमें व्यवहारिक बदलाव लाना है। जो लोग सालों से भीख मांगकर अपना गुज़ारा कर रहे हैं, उनके लिए आसान नहीं है कि वे अचानक से अपनी आदतें बदल दें। भिक्षावृत्ति के साथ-साथ इन सभी को अन्य सामाजिक बुराइयों से भी निकलना है, जैसे कि नशा करना, स्वच्छता से न रहना और सबसे बड़ी बात, इन्हें ये समझाना कि इनकी समाज के प्रति भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं।
“हमने इन लोगों के पूरे दिन की गतिविधियों की एक योजना बनाई हुई है। सुबह उठकर योग, व्यायाम आदि करवाना, फिर अच्छे से नहा-धोकर, अपने-अपने काम के लिए निकल जाना और साथ ही, अन्य कुछ बातें, जैसे कि साफ़-सफ़ाई का महत्व, शिक्षा का महत्व, श्रमदान करना और अपने आस-पास की चीज़ों के प्रति जागरूक रहना आदि, इन सब पर भी चर्चा होती है, शरद ने बताया।
यहाँ तक पहुंचने के लिए शरद ने बहुत-सी मुश्किलों का सामना किया। लेकिन अब उनके प्रयास सफल होने लगे हैं। शरद ने बहुत ही उत्साह के साथ द बेटर इंडिया को बताया,
“हमारे एक साथी हैं नरेन देव यादव, जिन्हें सालों पहले कोढ़ की बीमारी के चलते उनके घर वालों ने ही दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया था। तब से वे भिक्षावृत्ति से अपना गुज़ारा कर रहे थे। जब हमारी उनसे मुलाक़ात हुई, तो उन्होंने हमसे कहा कि हम भले ही उन्हें पुनर्वासित कर दें, लेकिन वे भिक्षा मांगना नहीं छोड़ेंगें, क्योंकि यही उनकी किस्मत में लिखा है।”
नरेन अपने परिवार के रवैये के कारण ज़िंदगी से बिल्कुल हताश थे। पर धीरे-धीरे शरद और उनकी टीम के प्रयासों के चलते उनका आत्म-विश्वास बढ़ा। और आज वे अपने दम पर अपनी ज़िंदगी बीता रहे हैं। इतना ही नहीं, वे शरद के हर अभियान में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। साथ ही, सेंटर पर और जहाँ भी उन्हें मौका मिले, वहाँ श्रमदान करते हैं।
इन सभी लोगों में बहुत से लोग अनपढ़ हैं और इन सबके लिए शरद की टीम अलग से कक्षाएँ लगाती हैं। शिक्षा के जैसे ही समाज के अन्य मुद्दों के प्रति भी ये सभी लोग जागरूक हो रहे हैं। हर रविवार को शरद एक चौपाल का आयोजन करते हैं, जहाँ ये लोग बैठकर विचार-विमर्श कर, ऐसे मुद्दों को बताते हैं जिन पर ये लोग काम करना चाहेंगें। इन मुद्दों में नशा-मुक्ति के लिए जागरूकता, स्वच्छता के प्रति जागरूकता आदि शामिल है और साथ ही, अब ये लोग समझने लगे हैं कि भिक्षावृत्ति भी एक सामाजिक मुद्दा है।
गोमती नदी के घाटों को साफ़ करने का कदम, शरद की इस बड़ी पहल का हिस्सा है। इसके माध्यम से, वे न केवल इन पुनर्वासित लोगों के जीवन में बदलाव लाना चाहते हैं, बल्कि वे पूरे समाज में परिवर्तन चाहते हैं। शरद का कहना है कि इन लोगों को सिर्फ़ आश्रय या रोज़गार देना उनका लक्ष्य नहीं है, बल्कि वे चाहते हैं कि देश के नागरिक होने के नाते वे अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ भी समझें। हर रविवार को ये सभी लोग, शहर भर में स्वच्छता अभियान पर काम कर रहे हैं। साल 2019 की बसंत पंचमी से शुरू हुई इस नेक पहल का पहला चरण होलिका दहन के दिन तक चलेगा। हालांकि, बहुत बार फंड्स की कमी के चलते, शरद और उनकी टीम को परेशानियाँ झेलनी पड़ती है। शरद कहते हैं, “हम अपनी तरफ से जितना कर सकते हैं, करने की कोशिश करते हैं। हमारी कोशिश यही है कि पैसे की कमी के कारण हमारी कोई भी पहल रुक न जाए। अभी हमने इन लोगों के लिए जो अस्थायी आसरा बनाया है, उसका पूरा सामान हमें दिल्ली की ‘गूँज संस्था’ ने स्पोंसर किया है। पर हमारा उद्देश्य इन लोगों के लिए एक स्थायी आश्रय घर बनाना है।
(साभार -द बेटर इंडिया)

जयललिता की बायोपिक का नाम होगा थलाइवी

चेन्नई : तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता की बायोपिक बन रही है। इसका निर्माण विष्णु इंदौरी कर रहे हैं। 24 फरवरी को जयललिता की जयन्ती के मौके पर उन्होंने फिल्म के नाम की घोषणा की है। फिल्म का नाम थलाइवी होगा। थलाइवी का मतलब नेता होता है। मूवी क्रिटिक तरण आदर्श ने ट्वीट करके इसकी जानकारी शेयर की। बाहुबली और बजरंगी भाईजान जैसी सुपरहिट फिल्में लिख चुके विजयेंद्र प्रसाद थलाइवी की पटकथा तैयार करेंगे। वहीं इसका निर्देशन विजय कर रहे हैं। थलाइवी को हिन्दी, तमिल और तेलुगु तीनों भाषाओं में बनाया जाएगा।फिल्म में नित्या मेनन जे जयललिता का रोल निभा सकती हैं। थलाइवी की रिलीज डेट अभी तय नहीं हुई है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, यह फिल्म 2019 के आखिर में रिलीज की जाएगी। 24 फरवरी 1948 को कर्नाटक के मैसूर में जन्मी जयललिता राजनेता के साथ-साथ एक अच्छी एक्टर और डांसर भी रही हैं। 13 साल की उम्र में उन्होंने पहली बार कन्नड़ फिल्म श्री शैला महात्म्य में काम किया था। 15 साल की उम्र से ही वे लीड अभिनेत्री का रोल प्ले करने लगीं। अपने करियर में इन्होंने 300 से ज्यादा हिन्दी, अंग्रेजी, कन्नड और तमिल फिल्मों में काम किया था। साल 1982 में इन्होंने एआईडीएमके की सदस्यता ग्रहण कर राजनीतिक करियर की शुरुआत की थी।

झारखंड के स्पोर्ट्स एनजीओ को मिला खेल की दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार 

राँची : मोनाको के स्पोर्टिंग क्लब में रात खेल की दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित अवॉर्ड ‘लॉरेस वर्ल्ड स्पोर्ट्स अवॉर्ड्स’ दिए गए। झारखंड के एनजीओ ‘युवा’ को स्पोर्ट फॉर गुड अवॉर्ड मिला। यह एनजीओ फुटबॉल के जरिए गांवों में लड़कियों को जागरूक और उन्हें सशक्त करने का काम करता है। इस एनजीओ की शुरुआत 2009 में जर्मन मूल के अमेरिकी नागरिक फ्रैंक गास्टलर ने दिल्ली से झारखंड आकर की थी।
यह एनजीओ गांवों में जाकर फुटबॉल के कार्यक्रम आयोजित करता है। इससे 450 लड़कियां जुड़ी हुई हैं। इनमें से चार लड़कियों हिमा, नीता, राधा, कोनिका ने मोनाको जाकर यह अवॉर्ड लिया। इस एनजीओ में 90% महिला कोच हैं। 2015 में युवा स्कूल भी खोला गया। ताकि खेल के साथ-साथ पढ़ाई पर भी ध्यान दिया जा सके। इस स्कूल में 6 से 18 साल तक की लड़कियां हैं।