Saturday, May 24, 2025
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राजनीति कीजिए मगर हमारे महापुरुषों को बख्श दीजिए

चुनाव नजदीक आ रहे हैं। कुछ ही दिनों में मध्य प्रदेश और राजस्थान में चुनाव होने जा रहे हैं। इनकी बात इसलिए क्योंकि ये दोनों बड़े राज्य हैं और यहाँ जो भी नतीजे निकलते हैं, उसका असर देश की राजनीति पर पड़ना तय है। चुनाव सामने आते ही आरोप – प्रत्यारोप की राजनीति भी शुरू हो रही है और यह अभी और तेज होगी क्योंकि अगले साल लोकसभा चुनाव होंगे। नतीजा यह है कि अब तक जो हमारे जननेता व राष्ट्रपुरुष हाशिये पर थे, अब उन पर पड़ी धूल को झाड़पोंछ कर खड़ा किया गया है। सच तो यह है कि कोई महापुरुष किसी प्रदेश या समुदाय विशेष का नहीं होता मगर हमारा दुर्भाग्य यह है कि सबसे ज्यादा राजनीति इनके नाम पर ही होती है, नये इतिहास गढ़े जा रहे हैं। होना यह चाहिए कि हम अपने महापुरुषों को समान रूप से सम्मान दें मगर हो यह रहा है कि राजनीतिक दलों की सियासी चालें इस भावना को दबा रही है। महात्मा गाँधी और पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयन्ती एक ही दिन 2 अक्टूबर को पड़ती है। जब तक कांग्रेस की सरकार थी, कहीं न कहीं शास्त्री जी को एक कोने में डाला जाता रहा। ठीक उसी प्रकार, 31 अक्टूबर को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की पुण्यतिथि और देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयन्ती एक दिन ही पड़ी। हर बार सरदार पटेल हर जगह नजर नहीं आते थे मगर इस बार शायद यह पहली बार हुआ कि इन्दिरा गाँधी हाशिये पर चली गयीं। ये दोनों ही स्थितियाँ सही नहीं हैं। राजनेता राजनीति करेंगे, ये उनका काम है मगर सवाल यह है कि हमारी जिम्मेदारी क्या है? आखिर ये सभी नेता हमारे अपने हैं, पार्टियाँ आएंगी और जायेंगी मगर जनता ही है जो हमेशा से रही है। एक असंतुलन की स्थिति हर जगह है…एक बेवजह की तुलना की जाती है और एक अनावश्यक शीत युद्ध लग जाता है। सवाल यह है कि सभी महापुरुषों को हम समान रूप से सम्मान नहीं दे सकते। यह सही है कि विचारधाराएँ अलग हो सकती हैं मगर उनका अलग होना उनकी खासियत है। भला किस बगीचे में एक ही रंग के फूल अच्छे लगते हैं? ये हमारी खुशनसीबी है कि हमारे देश में इतनी विविधता है, इतने रंग हैं…हम सभी रंगों को सम्मान क्यों नहीं कर सकते? यह सही है कि आप बहुत मेहनत करते हैं, अच्छा काम कर रहे हैं मगर इससे आपको यह अधिकार कैसे मिल जाता है कि आप दूसरों को कमतर मानकर हाशिये पर धकेलें…आप अपनी बात विनम्रता से समझा भी सकते हैं।
एक समय था जब धोनी की तूती बोलती थी। अपनी सफलता के दम पर उन्होंने कई वरिष्ठ क्रिकेटरों को टीम से बाहर करवाया था…मगर ये समय है..करवट बदलता है। आज धोनी खुद युवराज, सहवाग और हरभजन की स्थिति में हैं। आज विराट भी वही कर रहे हैं बल्कि एक तरीके से कहा जाए तो हास्यास्पद तरीके से अपनी मनमानी कर रहे हैं जो कि सही नहीं है। क्षेत्र कोई भी हो, अनुशासन और परस्पर सम्मान बहुत जरूरी है और जब यह देश के इतिहास, उसकी संस्कृति से जुड़ा मामला है तो यह और भी संवेदनशील मामला हो जाता है। पटेल के नाम पर राजनीति करने वाले, महापुरुषों को अपनी सम्पत्ति मानने वाले ये समझें न समझें…हमें इस साजिश को समझना होगा और इसे काटना भी होगा। गाँधी हों, भगत सिंह हों, शास्त्री जी हों, सरदार पटेल हों, पंडित नेहरू हों, नेताजी हों या फिर इंदिरा गाँधी हों…इन सबने अपने समय के अनुसार काम किया, वे फैसले लिए जो उस समय उनके हिसाब से जरूरी थे। आप असहमत हो सकते हैं मगर इनके बीच तुलना गलत है और कमतर मानना तो अपराध है..इस बात को समझने की जरूरत है।

ये हैं इंदिरा गांधी के वो फैसले, जिसने बदल दिया पूरा भारत

आज देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जन्‍मदिन है। भारतीय राजनीति के इतिहास में इंदिरा गांधी को विशेष रूप से याद रखा जाता है। एक तेज तर्रार, त्‍वरित निर्णयाक क्षमता और लोकप्रियता ने इंदिरा गांधी को देश और दुनिया की सबसे ताकतवर नेताओं में शुमार कर दिया। इंदिरा को तीन कामों के लिए देश सदैव याद करता रहेगा। पहला बैंकों का राष्ट्रीयकरण, दूसरा राजा-रजवाड़ों के प्रिवीपर्स की समाप्ति और तीसरा पाकिस्तान को युद्ध में पराजित कर बांग्लादेश का उदय। आइए जरा नजर डालते हैं इन कामों के बारे में।


बैंकों का राष्ट्रीयकरण : 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। उस समय कांग्रेस में दो गुट थे इंडिकेट और सिंडिकेट। इंडिकेट की नेता इंदिरा गांधी थीं। सिंडिकेट के लीडर थे के.कामराज। इंदिरा गांधी पर सिंडिकेट का दबाव बढ़ रहा था। सिंडिकेट को निजी बैंकों के पूंजीतंत्र का प्रश्रय था। इंदिरा गांधी का कहना था कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण की बदौलत ही देश भर में बैंक क्रेडिट दी जा सकेगी। उस वक्त मोरारजी देसाई वित्त मंत्री थे। वे इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर चुके थे। 19 जुलाई 1969 को एक अध्यादेश लाया गया और 14 बैंकों का स्वामित्व राज्य के हवाले कर दिया गया। उस वक्त इन बैंकों के पास देश का 70 प्रतिशत जमापूंजी थी।
राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की 40 प्रतिशत पूंजी को प्राइमरी सेक्टर जैसे कृषि और मध्यम एवं छोटे उद्योगों) में निवेश के लिए रखा गया था। देश भर के ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक की शाखाएं खुल गईं। 1969 में 8261 शाखाएं थीं। 2000 तक 65521 शाखाएं हो गई। 1980 में छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। हालांकि 2000 के बाद यह प्रक्रिया धीमी पड़ गई।
राजा-महाराजओं के प्रिवीपर्स की समाप्ति : 1967 के आम चुनावों में कई पूर्व राजे-रजवाड़ों ने सी.राजगोपालाचारी के नेतृत्व में स्वतंत्र पार्टी का गठन लिया था। इनमें से कई कांग्रेस के बागी उम्मीदवार भी थे। इसकी के चलते इंदिरा गांधी ने प्रिवीपर्स खत्म करने का संकल्प ले लिया। 23 जून 1967 को ऑल इंडिया कांग्रेस ने प्रिवीपर्स की समाप्ति का प्रस्ताव पारित कर दिया। 1970 में संविधान में चौबीसवां संशोधन किया गया और लोकसभा में 332-154 वोट से पारित करवा लिया। हालांकि राज्य सभा में यह प्रस्ताव 149-75 से पराजित हो गया। राज्यसभा में हारने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति वीवी गिरी से सारे राजे-महाराजाओं की मान्यता समाप्त करने को कहा।


मान्यता समाप्ति के इस अध्यादेश को ननीभाई पालखीवाला ने सुप्रीमकोर्ट में सफलतापूर्वक चुनौती भी दी गई। इस बीच 1971 के चुनाव हो गए और इंदिरा गांधी को जबर्दस्त सफलता मिली। उन्होंने संविधान में संशोधन कराया और प्रिवीपर्स की समाप्ति कर दी। इस तरह राजे-महाराजों के सारे अधिकार और सहूलियतें वापस ले ली गईं।
हर राजा-महाराजा को अपनी रियासत का भारत में एकीकरण करने के एवज में उनके सालाना राजस्व की 8.5 प्रतिशत राशि भारत सरकार द्वारा हर साल देना बांध दिया गया था। यह समझौता सरदार पटेल द्वारा देसी रियासतों के एकीकरण के समय हुआ था। इस निर्णय के बाद सारे राजे-महाराजे इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गए। इंदिरा गांधी ने संसद में कहा कि एक समतावादी समाज की स्थापना के लिए प्रिवीपर्स और विशेष दर्जा जैसे प्रावधान बाधक थे। इस निर्णय से देश में सामंतवादी प्रवृत्तियों के शमन में मदद मिली और लोकतंत्र मजबूत हुआ
बांग्लादेश का उदय : आजादी के पहले अंग्रेज बंगाल का धार्मिक विभाजन कर गए थे। हिंदू बंगालियों के लिए पश्चिम बंगाल और मुस्लिम बंगालियों के लिए पूर्वी पाकिस्तान बना दिए गए थे। पूर्वी पाकिस्तान की जनता पाकिस्तान की सेना के शासन में घुटन महसूस कर रही थी। उनके पास नागरिक अधिकार नहीं थे। शेख मुजीबुर रहमान की अगुआई में मुक्ति वाहिनी ने पाकिस्तान की सेना से गृहयुद्ध शुरू कर दिया। नतीजतन भारत के असम में करीब 10 लाख बांगला शरणार्थी पहुंच गए, जिनसे देश में आंतरिक और आर्थिक संकट पैदा हो गया।
बांग्ला देश के स्वाधीनता आंदोलन को रेडिकल मानता था और मुक्ति वाहिनी को संगठित करने के लिए उसने अपनी फौज भेजना शुरू कर दिया था। 1971 तक हमारी सेना वहां पहुंच गई। पश्चिमी पाकिस्तान के हुक्मरानों को यह लगने लगा था कि भारतीय सेना की मदद से पूर्वी पाकिस्तान में उनकी हार सुनिश्चित है।

भारतीय सेना द्वारा बांगलादेश में कार्रवाई करने से पहले ही पाकिस्तान की हवाई सेना ने भारतीय एयर बेस पर हमले शुरू कर दिए। भारत की सेना को हमलों की भनक लग चुकी थी। हमले भारतीय वायुसेना ने निष्फल कर दिए। इसी के साथ 1971 का दूसरा भारत-पाकिस्तान युद्ध शुरू हो गया। पाकिस्तान कमजोर पड़ने लगा तो संयुक्त राष्ट्रसंघ में पहुंच गया और युद्ध विराम के लिए हस्तक्षेप करने की अपील की।
7 दिसंबर को अमेरिका ने प्रस्ताव पारित करते हुए तुरंत युद्ध विराम लागू करने के लिए कहा जिस पर स्टालिन शासित रूस ने वीटो कर लिया। रूस का मानना था कि भारतीय सेना की यह कार्रवाई पाकिस्तान की सेना के दमन के खिलाफ थी। हिंदुस्तान की सेना ने मुक्तिवाहिनी के साथ मिलकर पाकिस्तान की 90,000 सैनिकों वाली सेना को परास्त कर दिया। 16 दिसंबर को भरातीय सेना ढाका पहुंच गई। पाकिस्तान की फौज को आत्मसमर्पण करना पड़ा।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद किसी भी देश की सेना का यह सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था। विश्व के मानचित्र में एक नये देश बांग्लादेश का उदय हुआ, देर सवेर पाकिस्तान के सहयोगी अमेरिका और चीन ने भी बांग्लादेश को मान्यता दे दी।
आपातकाल ने किया बदलाव : इन तीन बड़े निर्णयों के कारण इंदिरा गांधी को आयरन लेडी कहा जाने लगा। बांगलादेश के उदय को इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन का उत्कर्ष कहा जा सकता है, वहीं 1975 में रायबरेली के चुनाव में गड़बड़ी के आरोप और जेपी द्वारा संपूर्ण क्रांति के नारे के अंतर्गत समूचे विपक्ष ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। इस पर इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया। आपातकाल में नागरिक अधिकार रद्द हो गए और प्रेस और मीडिया पर सेंसरशिप लागू हो गई। कई विपक्षी नेता जेल भेज दिए गए। संजय गांधी के नेतृत्व में जबरन नसबंदी अभियान और सत्ता पक्ष द्वारा दमन के कारण आपातकाल को इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन का निम्न बिंदु कहा जाने लगा।

दरअसल, 1971 में ही हाईकोर्ट ने रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी का निर्वाचन अवैध ठहरा दिया था। इस चुनाव में राजनारायण थोड़े ही मतों से हार गए थे। इंदिरा गांधी ने इस निर्णय को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी तो उन्हें स्टे मिल गया। वे प्रधानमंत्री के पद पर बनी रह सकतीं थी लेकिन सदन की कार्रवाई में भाग नहीं ले सकती थीं और न ही सदन में वोट दे सकती थीं। इन्ही परिस्थितियों के मद्देनजर इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लगा दिया था। इसका जनता ने माकूल जवाब दिया। 1977 में इमरजेंसी हटा ली गई और आम चुनाव हुए जिसमें इंदिरा गांधी की अभूतपूर्व हार हुई।
जनता पार्टी के नेतृत्व में चार घटक दलों के साथ मोरराजी देसाई प्रधानमंत्री बने। हालांकि दो साल ही जनता पार्टी में खींचतान शुरू हो गई। चरण सिंह 64 सांसदों को साथ जनता पार्टी से अलग हो गए। मोरारजी देसाई ने सदन में विश्वासमत का सामना करने से पहले् ही इस्तीफा दे दिय़ा।


चरणसिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बन गए। चरणसिंह भी सदन में विश्वास मत हासिल करते इसके पहले ही कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और राष्ट्रपति से नए चुनाव करने का अनुरोध किया । 1980 के चुनावों में कांग्रेस को जबर्दस्त जीत हासिल हुई और कांग्रेस सत्ता में लौटी। जाहिर है इंदिरा के शासनकाल में हुई ये ऐतिहासिक राजनीतिक घटनाओं ने भारत में न केवल राजनीतिक बल्‍कि सामाजिक परिवर्तन भी किए। आज भी देश और दुनिया इंदिरा गांधी को एक मजबूत नेता के रूप में जानती है।
(साभार – न्यूज 18 पर प्रकाशित अभय कुमार का आलेख)

इसलिए खास है 182 मीटर ऊंची प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी

सरदार वल्लभ भाई पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ (Statue of Unity) का 31 अक्टूबर को उनकी जयंती पर अनावरण किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिमा का अनावरण किया। अपनी ऊँचाई के कारण यह प्रतिमा अब दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति बन गई है। दुनिया में अब दूसरे स्थान पर चीन में स्प्रिंग टेंपल में बुद्ध की मूर्ति है जिसकी ऊंचाई 153 मीटर है। गुजरात सरकार को उम्मीद है कि इस विशालकाय मूर्ति को देखने के लिए देश ही नहीं विदेशों के पर्यटक भी आएंगे। इस नाते सरकार की ओर से पर्यटकों के ठहने के लिए भी विशेष व्यवस्था की गई है। सरकार आमदनी के लिए टिकट भी लगाएगी। यह प्रतिमा नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध से 3.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मूर्ति बनाने वाली कंपनी एलएंडटी के मुख्य कार्यपालक अधिकारी एवं प्रबंध निदेशक एस एन सुब्रमण्यन ने कहा, “स्टैच्यू आफ यूनिटी जहां राष्ट्रीय गौरव और एकता की प्रतीक है वहीं यह भारत के इंजीनियरिंग कौशल तथा परियोजना प्रबंधन क्षमताओं का सम्मान भी है।” प्रतिमा की विशेषतायें यह रहीं –
स्टैच्यू ऑफ यूनिटी का कुल वजन 1700 टन है और ऊंचाई 522 फीट यानी 182 मीटर है। प्रतिमा अपने आप में अनूठी है। इसके पैर की ऊँचाई 80 फीट, हाथ की ऊँचाई 70 फीट, कंधे की ऊँचाई 140 फीट और चेहरे की ऊँचाई 70 फीट है।
इस मूर्ति का निर्माण राम वी. सुतार की देखरेख में हुआ है. देश-विदेश में अपनी शिल्प कला का लोहा मनवाने वाले राम वी. सुतार को साल 2016 में सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था. इससे पहले वर्ष 1999 में उन्हें पद्मश्री भी प्रदान किया जा चुका है। इसके अलावा वे बांबे आर्ट सोसायटी के लाइफ टाइम अचीवमेंट समेत अन्य पुरस्कार से भी नवाजे गए हैं। वह इन दिनों मुंबई के समुंदर में लगने वाली शिवाजी की प्रतिमा की डिजाइन भी तैयार करने में जुटे हैं। महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि यह प्रतिमा स्टैच्यू ऑफ यूनिटी को भी पीछे छोड़ देगी और दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी।
चीन स्थित स्प्रिंग टेंपल की 153 मीटर ऊंची बुद्ध प्रतिमा के नाम अब तक सबसे ऊंची मूर्ति होने का रिकॉर्ड था मगर सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा ने अब चीन में स्थापित इस मूर्ति को दूसरे स्थान पर छोड़ दिया है। 182 मीटर ऊंचे ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ का आकार न्यूयॉर्क के 93 मीटर उंचे ‘स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी’ से दोगुना है।
मूर्ति बनाने वाली कंपनी लार्सन एंड टुब्रो ने दावा किया कि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा है और महज 33 माह के रिकॉर्ड कम समय में बनकर तैयार हुई है. जबकि स्प्रिंग टेंपल के बुद्ध की मूर्ति के निर्माण में 11 साल का वक्त लगा. कंपनी के मुताबिक यह प्रतिमा न्यूयॉर्क में स्थित स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी से लगभग दोगुनी ऊंची है।
सरदार पटेल की इस मूर्ति को बनाने में करीब 2,989 करोड़ रुपये का खर्च आया. कंपनी के मुताबिक, कांसे की परत चढ़ाने के आशिंक कार्य को छोड़ कर बाकी पूरा निर्माण देश में ही किया गया है। यह प्रतिमा नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध से 3.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कम्पनी ने कहा कि रैफ्ट निर्माण का काम वास्तव में 19 दिसंबर, 2015 को शुरू हुआ था और 33 माह में इसे पूरा कर लिया गया।
इस स्मारक की आधारशिला 31 अक्तूबर, 2013 को पटेल की 138 वीं वर्षगांठ के मौके पर रखी गई थी, जब पीएम नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इसके लिये भाजपा ने पूरे देश में लोहा इकट्ठा करने का अभियान भी चलाया गया।
सरदार पटेल की मुख्य प्रतिमा बनाने में1,347 करोड़ रुपये खर्च किए गए, जबकि 235 करोड़ रुपये प्रदर्शनी हॉल और सभागार केंद्र पर खर्च किये गये। वहीं 657 करोड़ रुपये निर्माण कार्य पूरा होने के बाद अगले 15 साल तक ढांचे के रखरखाव पर खर्च किए किए जाएंगे। 83 करोड़ रुपये पुल के निर्माण पर खर्च किये गये।

देश को एक सूत्र में बाँधने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल

‘लौहपुरुष’ सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के पहले गृहमंत्री थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी रियासतों का एकीकरण कर अखंड भारत के निर्माण में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। गुजरात में नर्मदा के सरदार सरोवर बांध के सामने सरदार वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर ऊंची लौह प्रतिमा का निर्माण किया गया है।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को वैचारिक एवं क्रियात्मक रूप में एक नई दिशा देने की वजह से सरदार पटेल ने राजनीतिक इतिहास में एक अत्‍यंत गौरवपूर्ण स्थान पाया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरदार पटेल की 137वीं जयंती पर इस प्रतिमा को राष्ट्र को स‍मर्पित करेंगे। यह दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी। इस प्रतिमा का नाम एकता की मूर्ति (स्टेच्यू ऑफ यूनिटी) रखा गया है। आइए जानते हैं सरदार वल्लभ भाई पटेल के बारे में 10 बातें-


1. सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नडियाद में हुआ। वे खेड़ा जिले के कारमसद में रहने वाले झावेर भाई और लाडबा पटेल की चौथी संतान थे। 1897 में 22 साल की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वल्लभ भाई की शादी झबेरबा से हुई। पटेल जब सिर्फ 33 साल के थे, तब उनकी पत्नी का निधन हो गया।
2. सरदार पटेल अन्याय नहीं सहन कर पाते थे। अन्याय का विरोध करने की शुरुआत उन्होंने स्कूली दिनों से ही कर दी थी। नडियाद में उनके स्‍कूल के अध्यापक पुस्तकों का व्यापार करते थे और छात्रों को बाध्य करते थे कि पुस्तकें बाहर से न खरीदकर उन्हीं से खरीदें। वल्लभभाई ने इसका विरोध किया और छात्रों को अध्यापकों से पुस्तकें न खरीदने के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप अध्यापकों और विद्यार्थियों में संघर्ष छिड़ गया। 5-6 दिन स्‍कूल बंद रहा। अंत में जीत सरदार की हुई। अध्यापकों की ओर से पुस्तकें बेचने की प्रथा बंद हुई।
3. सरदार पटेल को अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने में काफी समय लगा। उन्होंने 22 साल की उम्र में 10वीं की परीक्षा पास की। सरदार पटेल का सपना वकील बनने का था और अपने इस सपने को पूरा करने के लिए उन्हें इंग्लैंड जाना था, लेकि‍न उनके पास इतने भी आर्थिक साधन नहीं थे कि वे एक भारतीय महाविद्यालय में प्रवेश ले सकें। उन दिनों एक उम्मीदवार व्यक्तिगत रूप से पढ़ाई कर वकालत की परीक्षा में बैठ सकते थे। ऐसे में सरदार पटेल ने अपने एक परिचित वकील से पुस्तकें उधार लीं और घर पर पढ़ाई शुरू कर दी।
4. बारडोली सत्याग्रह का नेतृत्व कर रहे पटेल को सत्याग्रह की सफलता पर वहां की महिलाओं ने ‘सरदार’ की उपाधि प्रदान की। आजादी के बाद विभिन्न रियासतों में बिखरे भारत के भू-राजनीतिक एकीकरण में केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए पटेल को ‘भारत का बिस्मार्क’ और ‘लौहपुरुष’ भी कहा जाता है। सरदार पटेल वर्णभेद तथा वर्गभेद के कट्टर विरोधी थे।
5. इंग्‍लैंड में वकालत पढ़ने के बाद भी उनका रुख पैसा कमाने की तरफ नहीं था। सरदार पटेल 1913 में भारत लौटे और अहमदाबाद में अपनी वकालत शुरू की। जल्द ही वे लोकप्रिय हो गए। अपने मित्रों के कहने पर पटेल ने 1917 में अहमदाबाद के सैनिटेशन कमिश्नर का चुनाव लड़ा और उसमें उन्हें जीत भी हासिल हुई।


6. सरदार पटेल गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह की सफलता से काफी प्रभावित थे। 1918 में गुजरात के खेड़ा खंड में सूखा पड़ा। किसानों ने करों से राहत की मांग की, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने मना कर दिया। गांधीजी ने किसानों का मुद्दा उठाया, पर वो अपना पूरा समय खेड़ा में अर्पित नहीं कर सकते थे इसलिए एक ऐसे व्यक्ति की तलाश कर रहे थे, जो उनकी अनुपस्थिति में इस संघर्ष की अगुवाई कर सके। इस समय सरदार पटेल स्वेच्छा से आगे आए और संघर्ष का नेतृत्व किया।
7. गृहमंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों (राज्यों) को भारत में मिलाना था। इस काम को उन्होंने बिना खून बहाए करके दिखाया। केवल हैदराबाद के ‘ऑपरेशन पोलो’ के लिए उन्हें सेना भेजनी पड़ी। भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिए उन्हे भारत का ‘लौहपुरुष’ के रूप में जाना जाता है। सरदार पटेल की महानतम देन थी 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण करके भारतीय एकता का निर्माण करना। विश्व के इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा न हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस किया हो। 5 जुलाई 1947 को एक रियासत विभाग की स्थापना की गई थी।
8. सरदार वल्लभभाई पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते। वे महात्मा गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए इस पद से पीछे हट गए और नेहरूजी देश के पहले प्रधानमंत्री बने। देश की स्वतंत्रता के पश्चात सरदार पटेल उपप्रधानमंत्री के साथ प्रथम गृह, सूचना तथा रियासत विभाग के मंत्री भी थे। सरदार पटेल के निधन के 41 वर्ष बाद 1991 में भारत के सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान भारतरत्न से उन्‍हें नवाजा गया। यह अवॉर्ड उनके पौत्र विपिनभाई पटेल ने स्वीकार किया।


9. सरदार पटेल के पास खुद का मकान भी नहीं था। वे अहमदाबाद में किराए एक मकान में रहते थे। 15 दिसंबर 1950 में मुंबई में जब उनका निधन हुआ, तब उनके बैंक खाते में सिर्फ 260 रुपए मौजूद थे।
10. आजादी से पहले जूनागढ़ रियासत के नवाब ने 1947 में पाकिस्तान के साथ जाने का फैसला किया था लेकिन भारत ने उनका फैसला स्वीकार करने से इंकार करके उसे भारत में मिला लिया। भारत के तत्कालीन उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल 12 नवंबर 1947 को जूनागढ़ पहुंचे। उन्होंने भारतीय सेना को इस क्षेत्र में स्थिरता बहाल करने के निर्देश दिए और साथ ही सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का आदेश दिया।
जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ़ तथा हैदराबाद के राजाओं ने ऐसा करना नहीं स्वीकारा। जूनागढ़ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और जूनागढ़ भी भारत में मिल गया। जब हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया, तो सरदार पटेल ने वहां सेना भेजकर निजाम का आत्मसमर्पण करा लिया, किंतु कश्मीर पर यथास्थिति रखते हुए इस मामले को अपने पास रख लिया।

(साभार – वेबदुनिया)

भारत, बांग्लादेश क्रूज सेवाएं शुरू करेंगे; नए पड़ावों में कोलाघाट, छिलमारी बंदरगाह

नयी दिल्ली : भारत और बांग्लादेश दोनो देशों के बीच जल परिवहन को बढ़ावा देने के लिये रूपनारायण नदी को प्रोटोकॉल मार्ग के रूप में शामिल करने पर विचार करने के लिये सहमत हुये हैं। इसके अलावा दोनों पक्षों पश्चिम बंगाल में कोलाघाट और बांग्लादेश में छिलमारी को जहाजों के पड़ाव के लिए नामित करने पर भी सहमति हुई है। अंतर्देशीय जल परिवहन के प्रोटोकॉल व्यवस्था और उसमें सुधार पर चर्चा के लिए द्विपक्षीय बैठक में यह निर्णय लिया गया। भारत के नौवहन मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि बांग्लादेश के साथ ‘अंतर्देशीय जल पारगमन एवं व्यापार पर प्रोटोकॉल’ (पीआईडब्ल्यूटीटी) विषय पर स्थायी समिति की 19वीं बैठक में दोनों देश पश्चिम बंगाल में जियोंखली से कोलाघाटी तक रूपनारायण नदी (राष्ट्रीय जल मार्ग- 86) को शामिल करने के विषय में विचार करने पर सहमत हुए हैं। पश्चिम बंगाल में कोलाघाट और बांग्लादेश में छिलमारी को जहाजों के विश्राम स्थल के रूप में घोषित करने पर भी सहमति बनी है।”
नयी व्यवस्था के तहत फ्लाई ऐश, सीमेंट, निर्माण सामग्री इत्यादि रूपनारायण नदी के जरिए भारत से बांग्लादेश भेजी जा सकेगी। बयान में कहा गया है कि दोनों देश अंतर्देशीय प्रोटोकॉल मार्ग और तटीय नौवहन मार्गों पर यात्रियों और क्रूज जहाजों के आवागमन के लिये मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) को अंतिम रूप दिया गया है। क्रूज सेवाएं कोलकाता से ढाका और गुवाहाटी से जोरहाट के बीच चलायी जा सकती हैं।

दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना का निधन

नयी दिल्ली : दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना का लंबी बीमारी के बाद गत शनिवार को यहां निधन हो गया। वह 82 वर्ष के थे।उनके परिवार ने यह जानकारी दी है।खुराना के परिवार में पत्नी, एक बेटा और दो बेटियां हैं। उनके एक बेटे का पिछले महीने निधन हो गया था। भाजपा के वरिष्ठ नेता खुराना 1993 से 1996 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे थे। उन्हें 2004 में राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया था। खुराना के बेटे हरीश ने पीटीआई भाषा को बताया कि खुराना को छाती में संक्रमण था और पिछले कुछ दिनों से बुखार भी था। शनिवार सुबह से ही उन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही थी। उन्हें पांच साल पहले ब्रेन हेमरेज हुआ था और तब से वह बीमार चल रहे थे। परिवार ने कहा कि उनका अंतिम संस्कार कल किया जाएगा। केंद्रीय मंत्री हर्षवर्धन ने ट्वीट कर उनके निधन पर शोक जताया। हर्षवर्धन ने कहा, ‘‘ भाजपा परिवार और दिल्ली के हमारे पूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा के वरिष्ठ श्री मदनलाल खुरानाजी के परिवार को मेरी गहरी संवेदना। उनका लंबी बीमारी के बाद आज निधन हो गया। मेरी संवेदनाएं उनके प्रियजनों के साथ हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।’’

घरेलू हिंसा से उबरकर कश्मीर की परवीन बनीं मिसेज इंडिया इंटरनेशनल

श्रीनगर : परवीन भारत की पहली मुस्लिम महिला बन गई हैं जिन्होंने प्रतिष्ठित मिसेज इंडिया इंटरनेशनल का खिताब अपने नाम किया है। इस प्रतियोगिता का आयोजन हाल ही में मलेशिया में किया गया। नुसरत पवीन दक्षिणी कश्मीर के कुलगाम जिले के यारीपोरा खानपोरा गांव की रहने वाली हैं। नुसरत के तीन बच्चे हैं। उनकी असफल शादी ने उनकी जिंदगी ग़मों से भर दी थी इससे उन्हें मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी।
36 वर्षीय नुसरत परवीन ने अपने दुखों को प्रेरणा में बदलते हुए वह कर दिखाया है जो आजतक किसी भारतीय मुस्लिम महिला ने किया ही नहीं था। परवीन भारत की पहली मुस्लिम महिला बन गई हैं जिन्होंने प्रतिष्ठित मिसेज इंडिया इंटरनेशनल का खिताब अपने नाम किया है। इस प्रतियोगिता का आयोजन हाल ही में मलेशिया में किया गया। कश्मीर के एक मीडिया संस्थान को दिए इंटरव्यू में नुसरत परवीन ने कहा, ‘मेरा दर्द काफी गहरा और क्रूर था। मैंने दुखों को अकेले सहा और किसी तरह उबर कर बाहर आई। मैंने अपने बीते कल को पीछे छोड़ने का फैसला किया और तब मेरे भीतर कुछ करने का जज्बा पैदा हुआ।’ नुसरत पवीन दक्षिणी कश्मीर के कुलगाम जिले के यारीपोरा खानपोरा गांव की रहने वाली हैं। नुसरत के तीन बच्चे हैं। उनकी असफल शादी ने उनकी जिंदगी ग़मों से भर दी थी इससे उन्हें मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी। हालांकि अच्छी बात ये है कि अब वह इन सह से बाहर निकल आई हैं और आज ऐसा मुकाम हासिल किया है जिससे उनका नाम एक नए फलक पर पहुंच चुका है। नुसरत बताती हैं, ‘मैंने महाराष्ट्र के एक लड़के से प्रेम विवाह किया था जो कि पेशे से आर्किटेक्ट था। लेकिन जैसे-जैसे वह अपने करियर में सफल होता गया वैसे-वैसे वह मुझसे भी दूर होता गया।’
नुसरत ने कहा, ‘एक आम भारतीय स्त्री की तरह मैंने उसकी हर बात मानी और किसी तरह रिश्ते को बचा कर रखा। लेकिन शायद मेरी किस्मत में ही ऐसा होना लिखा था। मैं किसी तरह अपने बच्चों के भविष्य के लिए उसके साथ रहा करती थी।’ कुछ ही दिन पहले नुसरत को उनके पति की दूसरी शादी के बारे में मालूम चला तो उनके दिल पर मानो पहाड़ टूट पड़ा हो। वह चौंक गईं और टूट भी गईं। लेकिन उन्होंने किसी तरह खुद को संभाला और अपनी जिंदगी को फिर से पटरी पर लाने की योजना बनाई। मिसेज इंडिया इंटरनेशनल प्रतियोगिता में जीत हासिल करने के बाद नुसरत ने कहा, ‘मैंने जजों को बताया कि मैं एक हाउसवाइफ हूं और तीन बच्चों की मां भी हूं। अभी तक मैं घर की चाहारदीवारी में कैद थी और बच्चों की देखभाल करती थी, लेकिन आज मैं वहां हूं जहां पहुंचने की कभी कल्पना भी नहीं की थी। नुसरत अंग्रेजी में बहुत तेज नहीं हैं इसलिए उन्होंने जजों से हिंदी में बात करने का आग्रह किया। अपनी सीधी बात से वह जजों को प्रभावित कर पाईं और आज वह इस मुकाम को भी हासिल कर पाईं।
(साभार योर स्टोरी)

वीरांगना सम्मान समारोह व सांस्कृतिक उत्सव ने मन मोहा

हावड़ा : शरत सदन में रविवार की शाम वीरांगना सम्मान समारोह और सांस्कृतिक उत्सव में विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वाली महिलाओं को नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया। साहित्य के लिए डॉ.वसुंधरा मिश्र, सिनेमा के लिए ज़ारा परवीन, पत्रकारिता के लिए सुषमा त्रिपाठी, समाजसेवा के लिए करिश्मा खन्ना प्रियदर्शी तथा रंगमंच के लिए डॉ.बिन्दु जायसवाल को यह सम्मान दिया गया। समारोह में संगठन की नवगठित कार्यकारिणी की सदस्याएं भी सम्मानित की गयीं। यह कार्यक्रम अंतर्राष्ट्रीय क्षत्रिय वीरांगना फाउंडेशन, पश्चिम बंगाल इकाई की ओर से किया गया था। समारोह में विधायक वैशाली डालमिया अखिल भारतीय क्षत्रिय समाज के मुख्य संरक्षक जय प्रकाश सिंह, वीरांगना के संस्थापक सह मुख्य संरक्षक डॉ.एम.एस.सिंह ‘मानस’, वीरांगना की अंतर्राष्ट्रीय महासचिव भारती सिंह, वीरांगना पटना की महामंत्री निशा सिंह, समाजसेवी शोभा सिंह विशिष्ट मेहमान थे। कार्यक्रम में वीरांगना संदेश के नये अंक का लोकार्पण भी किया गया। कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए वीरांगना की प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने कहा कि हम महिलाओं की एकता और उनकी उन्नति के लिए कार्यरत हैं।

वीरांगना को हर कदम पर सहयोग देगा अखिल भारतीय क्षत्रिय समाज

अखिल भारतीय क्षत्रिय समाज के महामंत्री शंकर बख्श सिंह ने कहा कि प्रतिभा सिंह हमारी संस्था की आजीवन सदस्या काफी अरसे से रही हैं। जब उन्होंने इस राज्य में वीरांगना की बागडोर संभाली है तो यहां अखिल भारतीय क्षत्रिय समाज वीरांगना के साथ मिलकर कार्य करेगा।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शृंखला सौरभ गिरि, प्रियंका सोनकर, राहुल राणा ने हिन्दी व भोजपुरी गीतों से लोगों का मन मोहा। मोनिका गुप्ता व खुशी सिंह व अनुज के नृत्य ने लोगों का मन मोह लिया। मंच संचालन ओमप्रकाश ने किया। प्रतिमा सिंह, पूजा सिंह, इंदु सिंह, किरण सिंह, रीता सिंह, मीनू सिंह, पूनम सिंह,ममता सिंह, दिव्या सिंह, प्रिया सिंह, सुनीता सिंह, आदि पदाधिकारियों ने विभिन्न कार्यक्रमों में अपनी भागीदारी की।

अक्षरों में जिनके आग है….अदम गोंडवी

हिंदुस्तान में ग़ज़ल तवायफ की कोठे की सीढ़ियां उतर कर दूसरे तमाम रास्ते तलाशने लगी थी। लोग नई-नई रवायतें गढ़ने में लगे हुए थे और इन्हीं नई रवायतों में एक रवायत दुष्यंत कुमार की भी थी। इसी वक़्त दुष्यंत कुमार ने ग़ज़लों को आम आदमी की उस जुबान में लिखना शुरू किया जिसे वह जानता और समझता था।

उन्होंने अपनी ग़ज़ल के हवाले से सियासत, जम्हूरियत और हुकूमती इन्तेजामात की खामियों पर बुनियादी चोट करनी शुरू की और जिसे आगे चलकर अवामी शायर अदम गोंडवी साहब ने बखूबी आगे बढ़ाया। उन्होंने हिंदी ग़ज़ल को सिर्फ नई बुलंदियां ही नहीं दीं बल्कि उन तमाम लोगों को भी अपनी ग़ज़ल में जगह दी जो कहीं न कहीं हाशिए पर धकेले हुए थे, और जिनकी बातें उस वक्त शायरी में बहुत कम लोग कर रहे थे।

अदम गोंडवी ने अपनी ग़ज़लों में भूख, गरीबी और मजलूमों के दर्द को जोड़ा जिन्हें कोई नहीं पूछता था इसलिए अगर सही मायने में देखा जाए तो उनकी ग़ज़लें समाज में सबसे पीछे खड़े लोगों की आवाजें हैं, और इसी बात को वह अपनी ग़ज़ल के हवाले से कुछ इस तरह बयां करते हैं,

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो

या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गई

उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्म-ओ-ज़ब्‍त की तालीम देना बाद में

पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है

तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो

ख़ुद को जख्मी कर रहे हैं गैर के धोखे में लोग

इस शहर को रोशनी के बांकपन तक ले चलो

अदम गोंडवी का असली नाम रामनाथ सिंह था। उनकी पैदाइश 22 अक्टूबर 1947 को गांव आटा परसपुर, जिला गोंडा, उत्तर प्रदेश में एक गरीब किसान घर में हुई। उनका बचपन मुफलिसी में बीता और इसी वजह से वो बहुत ज्यादा तालीम हासिल नहीं कर पाए। उन्होंने महज प्राइमरी तक ही तालीम हासिल की और फिर पढ़ाई छोड़कर खेती किसानी में रम गए। अगर हम उनके अदबी मिजाज पर रोशनी डालें तो आजादी के बाद समाज में दम भरते दोहरे रवैये, सियासतदानों-अफसरानों के दोगलेपन और सामंती जुल्मों पर उन्होंने अपनी कलम जिस बेबाकी के साथ चलाई है वो निहायत ही काबिल-ए-तारीफ है, और ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है।

अदम गोंडवी साहब की शायरी का लहजा इंकलाब-जिंदाबाद से कहीं आगे निकलता हुआ दिखाई देता है। उनके लहजे में एक बगावती तेवर एकदम साफ नजर आता है. हिंदी गजल में दुष्यंत कुमार की रवायत को आगे बढ़ाने का काम अगर सही मायने में किसी ने किया है तो वो अदम गोंडवी ही हैं. कह सकते हैं कि अदम गोंडवी की ग़ज़लें सीधे-सीधे आग बरसाती हैं।

अगर दुष्यंत ने इमरजेंसी के दौरान सरकार के लिए इंदिरा गांधी की निरंकुशता को एक गुड़िया की सौ कठपुतलियों की सौ कठपुतलियों की जान है, कह कर आड़े हाथों लिया. अदम ने भी लिखा,

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में

उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत

कितना असर है खादी के उजले लिबास में

एक बार का वाकया है, एक कार्यक्रम के सिलसिले में उन्हें बुलाना था. मैंने उनसे संपर्क किया और वो फौरन राजी भी हो गए. फिर मैंने डरते-डराते उनसे पूछा, “कार्यक्रम में आने की आपकी कोई फीस?” हालांकि मैं अपने फीस वाले सवाल को लेकर थोड़ा फिक्रमंद जरूर था. मैं उनकी माली हालत से बखूबी वाकिफ था मगर मैं उनके इस जवाब के लिए तैयार नहीं था.

अदम गोंडवी साहब मेरी बात सुनकर कुछ सेकेंड के लिए खामोश हो गए और फिर यकायक बोले, ‘मज़लूमों को उनका हक दिला सकते हो? समाज में फैली गैर बराबरी को ख़त्म कर सकते हो? नहीं कर सकते हो आदरणीय. और आदरणीय मेरी शायरी का यही मेहनताना है. खैर, अगर शरीर ने साथ दिया तो जरूर हाजिर हो जाऊंगा’.

हालांकि बदकिस्मती से उनकी तबियत नासाज होने की वजह से उनका आना नहीं हो पाया। इस बात से एक बात की तसदीक जरूर होती है कि वो अपनी शायरी को लेकर बेहद संजीदा थे। वो इसे एक व्यवसाय के मानिंद नहीं बल्कि समाज में इसके एक सकारात्मक असर के हवाले से देखते थे।

उनके जानने वाले बताते हैं कि जब वो किसी से नाराज होते थे तो सिर्फ इतना ही कहते थे, आदरणीय आप बहुत असामाजिक हो रहे हैं। अदम गोंडवी साहब जब-जब अपनी नरम आवाज में अपने बगावती अशआर कहते थे तो ऐसा महसूस होता था कि उनके अशआर लफ्जों से नहीं बल्कि सैकड़ों आइनों से मिलकर बने हों और हर एक आईना समाज में फैली तमाम बुराइयों और जुल्मों की दास्तानें चीख चीखकर बयां कर रहा हो। वह एक ऐसे शायर थें जिन्होंने अपनी ताकत से कहीं आगे जाकर समाज के दबे कुचले लोगों की आवाज़ों का परचम अपनी शायरी के हवाले से बुलंद किया।

अगर उनका बस चलता तो वह मुल्क की बीमारू और लचर व्यव्यथा को तोड़कर जमींदोज कर देते मगर उनके कमजोर माली हालात ने उन्हें सिर्फ शायरी तक ही सीमित रक्खा।हालांकि उन्होंने जो किया है वो अवामी शायरी और हिंदी ग़ज़ल में एक मील का पत्थर जरूर साबित होती है। वह लिखते हैं,

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है

बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है

सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे

मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है

उनकी शायरी ने मजलूमों और हाशिए पर धकेले गए उन तमाम लोगों को वो आवाज दी और जिसका इस्तेमाल वो अपने हकूक पाने के लिए और अपनी आवाज गूंगी-बहरी हुकूमतों के कानों तक पहुंचाने के लिए कर सकें। उन्हें बस एक ही बात का अफसोस रहा कि वह समाज में कोई तबदीली नहीं ला सके मगर जो लोग तबदीली के बारे में सोचते हैं या फिर करने की ख्वाहिश रखते हैं उन्हें उनके अशआरों से हौसला यकीनन हासिल होता रहा है और कहीं हद तक ये बात आज नजर भी आती है। उनकी शायरी मुल्क के नवजवानों को हुकूमतों से लड़ने और उन्हें आईना दिखाने की प्रेरणा देती है, उनका हौसला बढ़ाती है।

अदम गोंडवी साहब बहुत ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन अपनी शायरी में उन्होंने जिस लहजे का इस्तेमाल किया है वह उनके अव्वल दर्जे की जहनी सोच और प्रगतिशीलता को सामने लाता है। उनके अशआरों की गहराई दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर करती है और इसकी एक बानगी पेश-ए-खिदमत है,

तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है

मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारी ज़ाम सोने के

यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

दरअसल अदब से उनका लगाव बचपन में ही हो गया था और तभी से उनकी दिलचस्पी शेर-ओ-शायरी की तरफ बढ़ने लगी थी और इसी वजह से वे आसपास के मुशायरों एवं कवि सम्मेलनों में जाने लगे थे। अस्सी का दशक आते-आते वे अदब और शेर-ओ-सुखन की दुनिया में एक जाना पहचाना चेहरा बनकर उभरने लगे थे। धीरे-धीरे उनकी शायरी लोगों के दिल-ओ-दिमाग में उतरने लगी थी और हो भी क्यों न, वो लोगों की बात कर रहे थे।

अदम गोंडवी साहब का आखिरी वक्त बहुत अच्छा नहीं गुजरा। पेट की गंभीर बीमारी की वजह से उन्हें दो-तीन महीने अस्पताल में रहना पड़ा. उहोंने अपनी आखिरी सांस 18 दिसम्बर 2011 को लखनऊ स्थित संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में ली. जिसके बाद वे ऐसी खाली जगह छोड़ गए जिसे भरना शायद मुमकिन न होगा।

उनके दो कविता संग्रह (धरती की सतह पर) तथा (समय से मुठभेड़) प्रकाशित हुए और जो आज भी बेहद पसंद किये जाते हैं. उनकी तमाम मशहूर कविताओं-ग़ज़लों में से एक, “आइये महसूस करिये जिंदगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको” बेहद चर्चित हुई” लेकिन सांप्रदायिक उन्माद पर लिखे उनके इस शेर के साथ उनके जन्म दिवस पर उन्हें याद करते हुए हम सब उन्हें नमन करते हैं, “गर गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले।

(साभार – फर्स्ट पोस्ट पर प्रकाशित आशीष मिश्रा का आलेख)

‘और आपने दो गज जमीं तक न छोड़ी इन्कलाबी शायर के लिए’

सुषमा त्रिपाठी
एक शायर जिसने हिन्दी में गजल को आवाज दी, एक शख्सियत जो इन्कलाब की आवाज बनी, एक कवि जो पूरे शहर की पहचान बन गया…वही शहर इतना बेरहम निकला कि तरक्की के नाम पर दो गज जमीन भी उससे छीन ली। खैर, सत्ता और सरकारें कब अदब का फर्क समझी हैं? परायी धरती पर हिन्दी के नाम पर विश्‍व सम्मेलन करने वाले और वहाँ हिन्दी का डंका बजाने वालों के पास हिन्दी के कवि और शायर के लिए इतनी सी जमीन भी नहीं है कि अब उसकी निशानी को बचाने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। जी मैं, दुष्यन्त कुमार की बात कर रही हूँ….उनका घर ढहाया गया..इस बात की खबर थी….फिर भी एक उम्मीद जगी थी..शायद कुछ बचा लिया गया हो…मगर घर की जगह सिर्फ धूल दिखी। सवाल तो मेरा यह है कि क्या दुष्यन्त कुमार सिर्फ मध्य प्रदेश या भोपाल के हैं? वह तो सारी हिन्दी के हैं, वह सारे हिन्दुस्तान के हैं…फिर इतनी खामोशी क्यों रही?

 

जो निशानियाँ पूरे एक मकान में थीं….वे दो कमरों में सिमटी पड़ी हैं और उनको अब भी इन्तजार है कि कब एक बड़ी सी छत मिले…कि इन निशानियों को सलीके से रखा जाए!भोपाल इन दिनों स्मार्ट सिटी का शिकार हो रहा है। इमारतें गिर रही हैं। शहर में जहाँ देखिए धूल ही उड़ रही है। माना कि तरक्की जरूरी है मगर क्या स्मार्ट सिटी की दुनिया में एक घर के लिए दो गज जमीन भी नहीं दी जा सकती थी? आखिर हिन्दीभाषी प्रदेशों की संस्कृति साहित्यकारों को वह सम्मान क्यों नहीं देती, जिसके वे हकदार हैं…क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि कोलकाता में कविगुरु रवीन्द्रनाथ की धरोहर को कोई सरकार छूने की भी हिम्मत कर सके? ये किसकी गलती है कि हम धर्मस्थलों के गिरने पर ईंट से ईंट बजा सकते हैं मगर हमारे अहसासों को जुबान देने वाले साहित्यकारों के लिए हमारी संवेदना ही मर गयी है।

आखिर क्यों साहित्यकार….आम जनता की धड़कन में नहीं बस पा रहा है? वह क्यों मीडिया और साहित्यकारों के एक वर्ग तक सीमित है? हद तो तब हो गयी जब दुष्यन्त कुमार के बारे में पूछने पर गुलशन कुमार समझते हैं….मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर किस तरह से प्रतिक्रिया दूँ। ये सही है कि मीडिया और साहित्यकारों के शोर ने संग्रहालय के लिए थोड़ी जगह फिलहाल बचा ली है मगर जो मूल जगह थी…जहाँ दुष्यन्त ने ‘साये में धूप’ जैसी कृति दी…जिस आँगन में अपनी पूरी संवेदना के साथ बिजनौर से लाकर आम का पेड़ लगाया…वो आँगन तो ढह गया….संग्रहालय कहीं भी बन सकता है मगर जिस घर को दुष्यन्त ने खुद खड़ा किया…क्या वह घर हमें दूसरी बार मिलेगा?

घर की जगह सपाट धूल उड़ाती जमीन आपका स्वागत करती है और एक कोने में अन्धेरे में जमीन पर पड़ा सँग्रहालय का बोर्ड धूल खा रहा है साहित्यकारों की विरासत, दुष्यन्त कुमार पाण्डुलिपि सँग्रहालय…..समझ में नहीं आ रहा था कि इस देखकर किस तरह की प्रतिक्रिया दी जानी चाहिए..क्या हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार की धरोहर की नियति यह होनी चाहिए? ये हमारी चेतना का विषय है जिसे आप व्यावहारिक होकर नहीं समझ सकते।

हिन्दीवालों को खुद से सवाल करने की जरूरत है। जब से सुना था कि कवि का घर स्मार्ट सिटी के नाम पर ढहा दिया गया, पीड़ा, साथ ही दुःख और गुस्सा तीनों परेशान कर रहे थे। एक बार देखना चाहती थी कि वो जगह देखूँ जहाँ ये निशानियाँ बचाकर रखी गयी हैं। दुष्यन्त कुमार का यह सँग्रहालय भोपाल के शिवाजीनगर में स्थानान्तरित कर दिया गया है। भोपाल की वरिष्ठ पत्रकार सुमन त्रिपाठी के साथ पहुँचती हूँ दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय..जहाँ द्वार पर पहुँचते ही दुष्यन्त की कविता ‘बयान’ उनकी हस्तलिपि में हमारा स्वागत करती है एक सवाल के साथ –
‘कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये।’
हम अन्दर जाते हैं और हमारी मुलाकात होती है संग्रहालय के निदेशक राजुरकर राज से…संग्रहालय सिर्फ दुष्यन्त की विरासत ही नहीं सहेज रहा बल्कि यह संग्रहालय हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों की पूरी विरासत को सम्भाल रहा है। अन्दर जाते ही एक शोकेस में सजी ईंटों से हमारा सामना होता है। इस पर लिखा है ‘खण्डहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही। दुष्यन्त कुमार के उसी खण्डहर बना दिये गये घर (69/8 दक्षिण तात्या टोपे नगर) से निकाले गये ईंटों के टुकड़े ’ इन ईंटों को वरिष्ठ पुराविद् डॉ. नारायण व्यास के सहयोग से संग्रहालय निदेशक राजुरकर राज ने संरक्षित किया है।’

यहाँ वह पत्र है जो दुष्यन्त ने महानायक अमिताभ बच्चन को लिखा तो यहीं पर 1827 में रची गयी श्रीमद्भागवत की पाण्डुलिपि भी है जिसे सँग्रहालय को पंडित ईशनारायाण जोशी ने उपलब्ध करवाया है। ढाई हजार वर्ष पुरानी श्रीगृहणावली है। यहाँ पर दुष्यन्त कुमार को मिला पदक, उनकी पासबुक है तो राजेश्‍वरी त्यागी के सौजन्य से प्राप्त ‘साये में धूप’ की पाण्डुलिपि भी संरक्षित है।


यहाँ पर आपको हरिवंश राय बच्चन, भीष्म साहनी, शरद जोशी, रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्‍वरनाथ रेणु की हस्तलिपि मिलती है। महिमा मेहता के सौजन्य से प्राप्त नरेश मेहता का चश्मा, डॉ. अंजनी चौहान के सौजन्य से प्राप्त शरद जोशी का चश्मा है तो ड़ॉ. शिवमंगल सिंह सुमन के हस्ताक्षर भी हैं। सोहनलाल द्ववेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के हाथों के निशान हैं इस संग्रहालय में और हल्दीघाटी की मिट्टी भी है।

सामान इतना है कि रखने की जगह कम पड़ जा रही है। संग्रहालय के निदेशक चाहते हैं कि कम से कम इतनी जगह तो मिले कि धरोहर के साथ सृजनात्मक गतिविधियों को भी जारी रखा जाये। जगह मिली है मगर इतनी बड़ी जगह नहीं मिली है कि दुष्यन्त कुमार के साथ हिन्दी की इस दुर्लभ अनूठी विरासत को सहेज कर रखा जाये। राजुरकर राज कहते हैं, ‘संग्रहालय की तुलना में दुष्यन्त का घर कहीं अधिक ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण था। उसे बचा लिया जाना चाहिए था। मकान को बचाकर भी स्मार्ट सिटी को विकसित किया जा सकता था।’ इसके पहले शरद जोशी के घर पर भी बुलडोजर चलाया गया। इस घर में ही दुष्यन्त कुमार ने ‘साये में धूप’ लिखी।

संग्रहालय को नोटिस मिली तो उसे खाली करना पड़ा। इस मकान में मध्य प्रदेश के राजभाषा विभाग में नौकरी करते हुए दुष्यन्त कुमार ने अपनी एक लम्बी उम्र गुजारी। ये घर बहुत खास था। गजलकार दुष्यन्त ने जवाहर चौक के अपने मकान में दो दशक पूर्व तक 15 वर्ष गुजारे। 31 दिसंबर 1975 तक उनके इस मकान में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, डॉ. कमलेश्‍वर और शरद जोशी जैसे साहित्य के हस्ताक्षरों की महफिल जमा करती थी। सम्पदा संचानालय ने मार्च 2017 में मकान और संग्रहालय को खाली करने का नोटिस जारी की थी। नोटिस मिलते ही दुष्यन्त कुमार के पुत्र आलोक कुमार त्यागी ने मकान तुरन्त ही खाली कर दिया, लेकिन उनकी धरोहर को पाण्डुलिपि संग्रहालय को वैकल्पिक स्थान या भवन नहीं मिलने के कारण खाली नहीं किया जा सका।


यह चेतने का समय है। यह जागने और धरोहरों को सहेजने का समय है। सरकारों से उम्मीद छोड़कर खुद पहल करने का समय है। विरोध के बाद शिवराज सामने आये और आश्‍वासन दिया कि एक बड़ी जगह मिलेगी मगर क्या हम सुनिश्‍चित हो सकते हैं कि इस तरह के हादसे किसी और शख्सियत की धरोहरों के साथ नहीं होंगे? कम से कम एक मुहिम तो ऐसी हो जहाँ एक मुकम्मल जगह मिले। इस विरासत के लिए, नहीं, हर विरासत के लिए। हिन्दीवालों आगे आओ, कहीं देर न हो जाये। सम्प्रति संग्रहालय देखकर यही कहने की इच्छा होती है, बकौल एक कवि –
‘उनकी आँखों का मर गया पानी
मेरी आँखों में भर गया पानी।’

(यह आलेख सलाम दुनिया में प्रकाशित हुआ है)