अक्षरों में जिनके आग है….अदम गोंडवी

हिंदुस्तान में ग़ज़ल तवायफ की कोठे की सीढ़ियां उतर कर दूसरे तमाम रास्ते तलाशने लगी थी। लोग नई-नई रवायतें गढ़ने में लगे हुए थे और इन्हीं नई रवायतों में एक रवायत दुष्यंत कुमार की भी थी। इसी वक़्त दुष्यंत कुमार ने ग़ज़लों को आम आदमी की उस जुबान में लिखना शुरू किया जिसे वह जानता और समझता था।

उन्होंने अपनी ग़ज़ल के हवाले से सियासत, जम्हूरियत और हुकूमती इन्तेजामात की खामियों पर बुनियादी चोट करनी शुरू की और जिसे आगे चलकर अवामी शायर अदम गोंडवी साहब ने बखूबी आगे बढ़ाया। उन्होंने हिंदी ग़ज़ल को सिर्फ नई बुलंदियां ही नहीं दीं बल्कि उन तमाम लोगों को भी अपनी ग़ज़ल में जगह दी जो कहीं न कहीं हाशिए पर धकेले हुए थे, और जिनकी बातें उस वक्त शायरी में बहुत कम लोग कर रहे थे।

अदम गोंडवी ने अपनी ग़ज़लों में भूख, गरीबी और मजलूमों के दर्द को जोड़ा जिन्हें कोई नहीं पूछता था इसलिए अगर सही मायने में देखा जाए तो उनकी ग़ज़लें समाज में सबसे पीछे खड़े लोगों की आवाजें हैं, और इसी बात को वह अपनी ग़ज़ल के हवाले से कुछ इस तरह बयां करते हैं,

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो

या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गई

उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्म-ओ-ज़ब्‍त की तालीम देना बाद में

पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है

तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो

ख़ुद को जख्मी कर रहे हैं गैर के धोखे में लोग

इस शहर को रोशनी के बांकपन तक ले चलो

अदम गोंडवी का असली नाम रामनाथ सिंह था। उनकी पैदाइश 22 अक्टूबर 1947 को गांव आटा परसपुर, जिला गोंडा, उत्तर प्रदेश में एक गरीब किसान घर में हुई। उनका बचपन मुफलिसी में बीता और इसी वजह से वो बहुत ज्यादा तालीम हासिल नहीं कर पाए। उन्होंने महज प्राइमरी तक ही तालीम हासिल की और फिर पढ़ाई छोड़कर खेती किसानी में रम गए। अगर हम उनके अदबी मिजाज पर रोशनी डालें तो आजादी के बाद समाज में दम भरते दोहरे रवैये, सियासतदानों-अफसरानों के दोगलेपन और सामंती जुल्मों पर उन्होंने अपनी कलम जिस बेबाकी के साथ चलाई है वो निहायत ही काबिल-ए-तारीफ है, और ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है।

अदम गोंडवी साहब की शायरी का लहजा इंकलाब-जिंदाबाद से कहीं आगे निकलता हुआ दिखाई देता है। उनके लहजे में एक बगावती तेवर एकदम साफ नजर आता है. हिंदी गजल में दुष्यंत कुमार की रवायत को आगे बढ़ाने का काम अगर सही मायने में किसी ने किया है तो वो अदम गोंडवी ही हैं. कह सकते हैं कि अदम गोंडवी की ग़ज़लें सीधे-सीधे आग बरसाती हैं।

अगर दुष्यंत ने इमरजेंसी के दौरान सरकार के लिए इंदिरा गांधी की निरंकुशता को एक गुड़िया की सौ कठपुतलियों की सौ कठपुतलियों की जान है, कह कर आड़े हाथों लिया. अदम ने भी लिखा,

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में

उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत

कितना असर है खादी के उजले लिबास में

एक बार का वाकया है, एक कार्यक्रम के सिलसिले में उन्हें बुलाना था. मैंने उनसे संपर्क किया और वो फौरन राजी भी हो गए. फिर मैंने डरते-डराते उनसे पूछा, “कार्यक्रम में आने की आपकी कोई फीस?” हालांकि मैं अपने फीस वाले सवाल को लेकर थोड़ा फिक्रमंद जरूर था. मैं उनकी माली हालत से बखूबी वाकिफ था मगर मैं उनके इस जवाब के लिए तैयार नहीं था.

अदम गोंडवी साहब मेरी बात सुनकर कुछ सेकेंड के लिए खामोश हो गए और फिर यकायक बोले, ‘मज़लूमों को उनका हक दिला सकते हो? समाज में फैली गैर बराबरी को ख़त्म कर सकते हो? नहीं कर सकते हो आदरणीय. और आदरणीय मेरी शायरी का यही मेहनताना है. खैर, अगर शरीर ने साथ दिया तो जरूर हाजिर हो जाऊंगा’.

हालांकि बदकिस्मती से उनकी तबियत नासाज होने की वजह से उनका आना नहीं हो पाया। इस बात से एक बात की तसदीक जरूर होती है कि वो अपनी शायरी को लेकर बेहद संजीदा थे। वो इसे एक व्यवसाय के मानिंद नहीं बल्कि समाज में इसके एक सकारात्मक असर के हवाले से देखते थे।

उनके जानने वाले बताते हैं कि जब वो किसी से नाराज होते थे तो सिर्फ इतना ही कहते थे, आदरणीय आप बहुत असामाजिक हो रहे हैं। अदम गोंडवी साहब जब-जब अपनी नरम आवाज में अपने बगावती अशआर कहते थे तो ऐसा महसूस होता था कि उनके अशआर लफ्जों से नहीं बल्कि सैकड़ों आइनों से मिलकर बने हों और हर एक आईना समाज में फैली तमाम बुराइयों और जुल्मों की दास्तानें चीख चीखकर बयां कर रहा हो। वह एक ऐसे शायर थें जिन्होंने अपनी ताकत से कहीं आगे जाकर समाज के दबे कुचले लोगों की आवाज़ों का परचम अपनी शायरी के हवाले से बुलंद किया।

अगर उनका बस चलता तो वह मुल्क की बीमारू और लचर व्यव्यथा को तोड़कर जमींदोज कर देते मगर उनके कमजोर माली हालात ने उन्हें सिर्फ शायरी तक ही सीमित रक्खा।हालांकि उन्होंने जो किया है वो अवामी शायरी और हिंदी ग़ज़ल में एक मील का पत्थर जरूर साबित होती है। वह लिखते हैं,

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है

बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है

सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे

मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है

उनकी शायरी ने मजलूमों और हाशिए पर धकेले गए उन तमाम लोगों को वो आवाज दी और जिसका इस्तेमाल वो अपने हकूक पाने के लिए और अपनी आवाज गूंगी-बहरी हुकूमतों के कानों तक पहुंचाने के लिए कर सकें। उन्हें बस एक ही बात का अफसोस रहा कि वह समाज में कोई तबदीली नहीं ला सके मगर जो लोग तबदीली के बारे में सोचते हैं या फिर करने की ख्वाहिश रखते हैं उन्हें उनके अशआरों से हौसला यकीनन हासिल होता रहा है और कहीं हद तक ये बात आज नजर भी आती है। उनकी शायरी मुल्क के नवजवानों को हुकूमतों से लड़ने और उन्हें आईना दिखाने की प्रेरणा देती है, उनका हौसला बढ़ाती है।

अदम गोंडवी साहब बहुत ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन अपनी शायरी में उन्होंने जिस लहजे का इस्तेमाल किया है वह उनके अव्वल दर्जे की जहनी सोच और प्रगतिशीलता को सामने लाता है। उनके अशआरों की गहराई दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर करती है और इसकी एक बानगी पेश-ए-खिदमत है,

तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है

मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारी ज़ाम सोने के

यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

दरअसल अदब से उनका लगाव बचपन में ही हो गया था और तभी से उनकी दिलचस्पी शेर-ओ-शायरी की तरफ बढ़ने लगी थी और इसी वजह से वे आसपास के मुशायरों एवं कवि सम्मेलनों में जाने लगे थे। अस्सी का दशक आते-आते वे अदब और शेर-ओ-सुखन की दुनिया में एक जाना पहचाना चेहरा बनकर उभरने लगे थे। धीरे-धीरे उनकी शायरी लोगों के दिल-ओ-दिमाग में उतरने लगी थी और हो भी क्यों न, वो लोगों की बात कर रहे थे।

अदम गोंडवी साहब का आखिरी वक्त बहुत अच्छा नहीं गुजरा। पेट की गंभीर बीमारी की वजह से उन्हें दो-तीन महीने अस्पताल में रहना पड़ा. उहोंने अपनी आखिरी सांस 18 दिसम्बर 2011 को लखनऊ स्थित संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में ली. जिसके बाद वे ऐसी खाली जगह छोड़ गए जिसे भरना शायद मुमकिन न होगा।

उनके दो कविता संग्रह (धरती की सतह पर) तथा (समय से मुठभेड़) प्रकाशित हुए और जो आज भी बेहद पसंद किये जाते हैं. उनकी तमाम मशहूर कविताओं-ग़ज़लों में से एक, “आइये महसूस करिये जिंदगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको” बेहद चर्चित हुई” लेकिन सांप्रदायिक उन्माद पर लिखे उनके इस शेर के साथ उनके जन्म दिवस पर उन्हें याद करते हुए हम सब उन्हें नमन करते हैं, “गर गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले।

(साभार – फर्स्ट पोस्ट पर प्रकाशित आशीष मिश्रा का आलेख)

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