‘और आपने दो गज जमीं तक न छोड़ी इन्कलाबी शायर के लिए’

सुषमा त्रिपाठी
एक शायर जिसने हिन्दी में गजल को आवाज दी, एक शख्सियत जो इन्कलाब की आवाज बनी, एक कवि जो पूरे शहर की पहचान बन गया…वही शहर इतना बेरहम निकला कि तरक्की के नाम पर दो गज जमीन भी उससे छीन ली। खैर, सत्ता और सरकारें कब अदब का फर्क समझी हैं? परायी धरती पर हिन्दी के नाम पर विश्‍व सम्मेलन करने वाले और वहाँ हिन्दी का डंका बजाने वालों के पास हिन्दी के कवि और शायर के लिए इतनी सी जमीन भी नहीं है कि अब उसकी निशानी को बचाने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। जी मैं, दुष्यन्त कुमार की बात कर रही हूँ….उनका घर ढहाया गया..इस बात की खबर थी….फिर भी एक उम्मीद जगी थी..शायद कुछ बचा लिया गया हो…मगर घर की जगह सिर्फ धूल दिखी। सवाल तो मेरा यह है कि क्या दुष्यन्त कुमार सिर्फ मध्य प्रदेश या भोपाल के हैं? वह तो सारी हिन्दी के हैं, वह सारे हिन्दुस्तान के हैं…फिर इतनी खामोशी क्यों रही?

 

जो निशानियाँ पूरे एक मकान में थीं….वे दो कमरों में सिमटी पड़ी हैं और उनको अब भी इन्तजार है कि कब एक बड़ी सी छत मिले…कि इन निशानियों को सलीके से रखा जाए!भोपाल इन दिनों स्मार्ट सिटी का शिकार हो रहा है। इमारतें गिर रही हैं। शहर में जहाँ देखिए धूल ही उड़ रही है। माना कि तरक्की जरूरी है मगर क्या स्मार्ट सिटी की दुनिया में एक घर के लिए दो गज जमीन भी नहीं दी जा सकती थी? आखिर हिन्दीभाषी प्रदेशों की संस्कृति साहित्यकारों को वह सम्मान क्यों नहीं देती, जिसके वे हकदार हैं…क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि कोलकाता में कविगुरु रवीन्द्रनाथ की धरोहर को कोई सरकार छूने की भी हिम्मत कर सके? ये किसकी गलती है कि हम धर्मस्थलों के गिरने पर ईंट से ईंट बजा सकते हैं मगर हमारे अहसासों को जुबान देने वाले साहित्यकारों के लिए हमारी संवेदना ही मर गयी है।

आखिर क्यों साहित्यकार….आम जनता की धड़कन में नहीं बस पा रहा है? वह क्यों मीडिया और साहित्यकारों के एक वर्ग तक सीमित है? हद तो तब हो गयी जब दुष्यन्त कुमार के बारे में पूछने पर गुलशन कुमार समझते हैं….मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर किस तरह से प्रतिक्रिया दूँ। ये सही है कि मीडिया और साहित्यकारों के शोर ने संग्रहालय के लिए थोड़ी जगह फिलहाल बचा ली है मगर जो मूल जगह थी…जहाँ दुष्यन्त ने ‘साये में धूप’ जैसी कृति दी…जिस आँगन में अपनी पूरी संवेदना के साथ बिजनौर से लाकर आम का पेड़ लगाया…वो आँगन तो ढह गया….संग्रहालय कहीं भी बन सकता है मगर जिस घर को दुष्यन्त ने खुद खड़ा किया…क्या वह घर हमें दूसरी बार मिलेगा?

घर की जगह सपाट धूल उड़ाती जमीन आपका स्वागत करती है और एक कोने में अन्धेरे में जमीन पर पड़ा सँग्रहालय का बोर्ड धूल खा रहा है साहित्यकारों की विरासत, दुष्यन्त कुमार पाण्डुलिपि सँग्रहालय…..समझ में नहीं आ रहा था कि इस देखकर किस तरह की प्रतिक्रिया दी जानी चाहिए..क्या हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार की धरोहर की नियति यह होनी चाहिए? ये हमारी चेतना का विषय है जिसे आप व्यावहारिक होकर नहीं समझ सकते।

हिन्दीवालों को खुद से सवाल करने की जरूरत है। जब से सुना था कि कवि का घर स्मार्ट सिटी के नाम पर ढहा दिया गया, पीड़ा, साथ ही दुःख और गुस्सा तीनों परेशान कर रहे थे। एक बार देखना चाहती थी कि वो जगह देखूँ जहाँ ये निशानियाँ बचाकर रखी गयी हैं। दुष्यन्त कुमार का यह सँग्रहालय भोपाल के शिवाजीनगर में स्थानान्तरित कर दिया गया है। भोपाल की वरिष्ठ पत्रकार सुमन त्रिपाठी के साथ पहुँचती हूँ दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय..जहाँ द्वार पर पहुँचते ही दुष्यन्त की कविता ‘बयान’ उनकी हस्तलिपि में हमारा स्वागत करती है एक सवाल के साथ –
‘कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये।’
हम अन्दर जाते हैं और हमारी मुलाकात होती है संग्रहालय के निदेशक राजुरकर राज से…संग्रहालय सिर्फ दुष्यन्त की विरासत ही नहीं सहेज रहा बल्कि यह संग्रहालय हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों की पूरी विरासत को सम्भाल रहा है। अन्दर जाते ही एक शोकेस में सजी ईंटों से हमारा सामना होता है। इस पर लिखा है ‘खण्डहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही। दुष्यन्त कुमार के उसी खण्डहर बना दिये गये घर (69/8 दक्षिण तात्या टोपे नगर) से निकाले गये ईंटों के टुकड़े ’ इन ईंटों को वरिष्ठ पुराविद् डॉ. नारायण व्यास के सहयोग से संग्रहालय निदेशक राजुरकर राज ने संरक्षित किया है।’

यहाँ वह पत्र है जो दुष्यन्त ने महानायक अमिताभ बच्चन को लिखा तो यहीं पर 1827 में रची गयी श्रीमद्भागवत की पाण्डुलिपि भी है जिसे सँग्रहालय को पंडित ईशनारायाण जोशी ने उपलब्ध करवाया है। ढाई हजार वर्ष पुरानी श्रीगृहणावली है। यहाँ पर दुष्यन्त कुमार को मिला पदक, उनकी पासबुक है तो राजेश्‍वरी त्यागी के सौजन्य से प्राप्त ‘साये में धूप’ की पाण्डुलिपि भी संरक्षित है।


यहाँ पर आपको हरिवंश राय बच्चन, भीष्म साहनी, शरद जोशी, रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्‍वरनाथ रेणु की हस्तलिपि मिलती है। महिमा मेहता के सौजन्य से प्राप्त नरेश मेहता का चश्मा, डॉ. अंजनी चौहान के सौजन्य से प्राप्त शरद जोशी का चश्मा है तो ड़ॉ. शिवमंगल सिंह सुमन के हस्ताक्षर भी हैं। सोहनलाल द्ववेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के हाथों के निशान हैं इस संग्रहालय में और हल्दीघाटी की मिट्टी भी है।

सामान इतना है कि रखने की जगह कम पड़ जा रही है। संग्रहालय के निदेशक चाहते हैं कि कम से कम इतनी जगह तो मिले कि धरोहर के साथ सृजनात्मक गतिविधियों को भी जारी रखा जाये। जगह मिली है मगर इतनी बड़ी जगह नहीं मिली है कि दुष्यन्त कुमार के साथ हिन्दी की इस दुर्लभ अनूठी विरासत को सहेज कर रखा जाये। राजुरकर राज कहते हैं, ‘संग्रहालय की तुलना में दुष्यन्त का घर कहीं अधिक ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण था। उसे बचा लिया जाना चाहिए था। मकान को बचाकर भी स्मार्ट सिटी को विकसित किया जा सकता था।’ इसके पहले शरद जोशी के घर पर भी बुलडोजर चलाया गया। इस घर में ही दुष्यन्त कुमार ने ‘साये में धूप’ लिखी।

संग्रहालय को नोटिस मिली तो उसे खाली करना पड़ा। इस मकान में मध्य प्रदेश के राजभाषा विभाग में नौकरी करते हुए दुष्यन्त कुमार ने अपनी एक लम्बी उम्र गुजारी। ये घर बहुत खास था। गजलकार दुष्यन्त ने जवाहर चौक के अपने मकान में दो दशक पूर्व तक 15 वर्ष गुजारे। 31 दिसंबर 1975 तक उनके इस मकान में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, डॉ. कमलेश्‍वर और शरद जोशी जैसे साहित्य के हस्ताक्षरों की महफिल जमा करती थी। सम्पदा संचानालय ने मार्च 2017 में मकान और संग्रहालय को खाली करने का नोटिस जारी की थी। नोटिस मिलते ही दुष्यन्त कुमार के पुत्र आलोक कुमार त्यागी ने मकान तुरन्त ही खाली कर दिया, लेकिन उनकी धरोहर को पाण्डुलिपि संग्रहालय को वैकल्पिक स्थान या भवन नहीं मिलने के कारण खाली नहीं किया जा सका।


यह चेतने का समय है। यह जागने और धरोहरों को सहेजने का समय है। सरकारों से उम्मीद छोड़कर खुद पहल करने का समय है। विरोध के बाद शिवराज सामने आये और आश्‍वासन दिया कि एक बड़ी जगह मिलेगी मगर क्या हम सुनिश्‍चित हो सकते हैं कि इस तरह के हादसे किसी और शख्सियत की धरोहरों के साथ नहीं होंगे? कम से कम एक मुहिम तो ऐसी हो जहाँ एक मुकम्मल जगह मिले। इस विरासत के लिए, नहीं, हर विरासत के लिए। हिन्दीवालों आगे आओ, कहीं देर न हो जाये। सम्प्रति संग्रहालय देखकर यही कहने की इच्छा होती है, बकौल एक कवि –
‘उनकी आँखों का मर गया पानी
मेरी आँखों में भर गया पानी।’

(यह आलेख सलाम दुनिया में प्रकाशित हुआ है)

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