जानिए श्रीराम के पूर्वजों को
चुनाव सामग्री खरीद के लिए अब भी नकदी ही है लोगों की पहली पसन्द
कोलकाता : पश्चिम बंगाल में नकदी रहित मुहिम का चुनाव अभियान पर कुछ खास नहीं दिख रहा है। यहां चुनाव प्रचार सामग्री की खरीद के लिए अधिकतर भुगतान अभी भी नकद में हो रहा है। व्यापारियों ने बताया कि पिछले एक सप्ताह में चुनाव सामग्री की बिक्री में बढ़ोतरी हुई है। यहां लोकसभा चुनाव के लिए मतदान 11 अप्रैल से शुरू होंगे। ‘बड़ा बाजार’ के एक दुकानदार ने कहा, ‘‘अधिकतर व्यापार नकद में हो रहा है।’’ ‘बड़ा बाजार’ पूर्वी भारत का सबसे बड़ा थोक बाजार है। अन्य एक दुकानदार ने कहा, ‘‘हमारे लिए, नकद में ही भुगतान किया जा रहा है… जैसा कि 2014 में था। नकद सबसे सुविधाजनक है और खरीदारों को चुनाव आयोग के खर्च प्रतिबंधों से बचने में मदद करता है।’’ चुनाव के लिए छाता, टोपी, बैज, पेपर सन-गार्ड और स्कार्फ जैसे सामानों की बिक्री यहां की जा रही है। व्यापारियों ने बताया कि कॉफी मग इस साल चुनाव प्रचार के लिए एक नया आकर्षण हैं। भाजपा का चुनाव प्रचार सामान बेचने वाले एक दुकानदार ने बताया कि 2014 आम चुनाव की तुलना में इस साल व्यापार 40 से 50 प्रतिशत अधिक होने की संभावना है।
तेलंगाना का दूसरा किसान विद्रोह: निजामाबाद में 179 किसान लड़ रहे चुनाव
हैदराबाद : मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी कल्वकुंतला कविता ने कुछ दिनों पहले एक चुनावी सभा में कहा था कि तेलंगाना के एक हजार किसानों को बनारस और अमेठी जाकर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहिए ताकि प्रधानमंत्री को और कांग्रेस अध्यक्ष को मालूम पड़े कि खेती-किसानी करने वालों की हालत कितनी खराब है। कविता निजामाबाद क्षेत्र से लोकसभा सदस्य हैं और इस दफा फिर से अपने पिता की पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं। लगता है, किसानों ने उनके आह्वान को गंभीरता से लिया। पर 1100 किलोमीटर दूर जाने की बजाय उन्होंने अपने घर निजामाबाद से ही नामांकन भर दिया। नतीजा यह है कि अब यहां से 179 किसान खड़े हुए हैं, जबकि कुल उम्मीदवार 185 हैं। वे केवल अपनी समस्याओं की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने चुनाव लड़ रहे हैं। उम्मीदवारों में से एक ताहेर बिन हमदान कहते हैं, ‘हल्दी का दाम इतना कम हो गया है कि एक एकड़ पर हमको 40 हजार रुपए का नुकसान हो रहा है।’
तेलंगाना के किसान अपने विद्रोही और सत्ता विरोधी तेवर के लिए मशहूर हैं। जमींदारों और निजाम के खिलाफ 1946-48 के हथियारबंद किसान विद्रोह की याद अभी भी लोगों के जहन में है। पर अब विद्रोह ऐसी सरकार के खिलाफ है जो दावा करती है कि वह किसानों को इतनी सुविधाएं दे रही है जो दूसरे राज्यों में सपना ही है। खेतों के लिए मुफ्त बिजली के अलावा हर किसान को साल में 8000 रुपए प्रति एकड़ मिल रहे हैं। 59 की उम्र के पहले मृत्यु होने पर उनके परिवार को 5 लाख रु. का बीमा मिलता है।
तेलंगाना में देश की 13% हल्दी पैदा होती है। ये किसान लंबे अरसे से मांग कर रहे थे कि राष्ट्रीय हल्दी बोर्ड का गठन किया जाए और हल्दी तथा लाल ज्वार का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाए। हमदान के मुताबिक एक क्विंटल हल्दी उपजाने की लागत 7000 रुपए है, पर मंडी में 5000 का भावमिलता है। ‘किसान खेत कांग्रेस’ के अन्वेष चुनाव लड़ने की वजह बताते हैं: ‘ट्रेडर कार्टेल बनाते हैं, दाम गिराते हैं, सरकार कुछ नहीं करती। किसान को पैसे नहीं मिलते। हम लोग सड़क पर आ गए हैं, इसलिए चुनाव लड़ रहे हैं।’ जमानत के 25-25 हजार रुपए किसानों ने आपस में चंदा करके इकठ्ठा किए हैं।
निजामाबाद से भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवार भी मैदान में हैं। कविता कहती हैं कि ऐसा नहीं कि उन्होंने पांच सालों में कुछ नहीं किया: ‘हमने पार्लियामेंट में कई दफा यह मामला उठाया।’ हल्दी किसानों के हमले ने उनका रंग पीला कर दिया है। हमदान कहते हैं कि नामांकन वापस लेने के लिए टीआरएस ने किसानों पर दबाव बनाया था पर उन्होंने झुकने से इंकार कर दिया। तेलंगाना के लोगों ने इसके पहले भी समस्या की तरफ ध्यान खींचने थोक में नामांकन दाखिल किए थे। फ्लोराइड की समस्या से जूझ रहे नलगोंडा में 1996 के लोकसभा चुनाव में 480 कैंडिडेट मैदान में उतरे थे, जिनके लिए 50 पेज की बैलट पुस्तिका छपवानी पड़ी थी। लगभग सबकी जमानत जब्त हुई, पर डेमोक्रेसी का जमीर बचा रहा। कविता बोलीं- चुनाव लड़ रहे किसान भाजपा-कांग्रेस के के. कविता ने रविवार को कहा कि मुझे किसानों पर पूरा भरोसा है। जो किसान मेरे खिलाफ चुनाव में खड़े हुए हैं वे भाजपा और कांग्रेस के समर्थक हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे बिल्कुल भी परेशान नहीं हैं और नतीजों से पता चल जाएगा कि कौन सही है और कौन गलत।
भारतीय वस्तुओं का बढ़ रहा है चीन को निर्यात, आयात में आने लगी गिरावट
नयी दिल्ली : हाल के महीनों में चीन से होने वाले आयात में कुछ सुस्ती दिखाई दी है जबकि भारत से चीन को होने वाले निर्यात की गति बढ़ी है। पीएचडी वाणिज्य एवं उद्योग मंडल द्वारा उपलब्ध कराये गये आँकड़ों के मुताबिक 2018-19 के पहले 10 महीने में एक साल पहले की इसी अवधि के मुकाबले भारतीय उत्पादों का निर्यात 40 प्रतिशत बढ़कर 14 अरब डॉलर पर पहुँच गया। उद्योग संगठन ने एक बयान में कहा कि इससे पहले 2017-18 के शुरुआती 10 महीनों (अप्रैल से जनवरी) के दौरान चीन को 10 अरब डॉलर का निर्यात किया गया था जो कि मार्च में समाप्त वित्त वर्ष 2018- 19 के इन्हीं दस महीने में बढ़कर 14 अरब डालर पर पहुँच गया। उद्योग मंडल के महासचिव डॉक्टर महेश वाई. रेड्डी ने भारतीय निर्यातकों की सराहना करते हुए कहा कि पिछले कुछ महीने चीन को निर्यात बढ़ाने में उल्लेखनीय रहे हैं जबकि इस दौरान चीन से आयात कम हुआ है। रेड्डी ने बताया कि 2017-18 के पहले 10 महीने में जहाँ चीन से आयात 24 प्रतिशत बढ़ा था वहीं पिछले वित्त वर्ष 2018-19 के 10 महीने में आयात पांच प्रतिशत घट गया। रेड्डी ने कहा कि इस दौरान चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा भी 53 अरब डॉलर से कम होकर 46 अरब डॉलर पर आ गया। वर्तमान में चीन भारतीय उत्पादों का तीसरी बड़ा निर्यात बाजार है। वहीं चीन से भारत सबसे ज्यादा आयात करता है। दोनों देशों के बीच 2001-02 में आपसी व्यापार महज तीन अरब डॉलर था जो 2017-18 में बढ़कर करीब 90 अरब डॉलर पर पहुँच गया। चीन से भारत मुख्यत: इलेक्ट्रिक उपकरण, मेकेनिकल सामान, कार्बनिक रसायनों आदि का आयात करता है। वहीं भारत से चीन को मुख्य रूप से कार्बनिक रसायन, खनिज ईंधन और कपास आदि का निर्यात किया जाता है। पिछले एक दशक के दौरान चीन ने भारतीय बाजार में तेजी से अपनी पैठ बढ़ाई लेकिन अप्रैल- जनवरी 2018- 19 में इसमें गिरावट देखी गई है। हाल के वर्षों में भारत और चीन के बीच उद्योगों के बीच आंतरिक तौर पर व्यापार का विस्तार हुआ है। रेड्डी ने कहा भारत जेनरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्माता है लेकिन चीन में कड़े गैर-शुल्कीय प्रतिबन्ध होने की वजह से चीन को इन दवाओं का निर्यात नहीं हो पा रहा है। भारतीय दवा कंपनियां जहां अमेरिका और यूरोपीय संघ को जेनरिक दवाओं का निर्यात कर रही हैं वहीं यह आश्चर्य जनक है कि चीन को इनका निर्यात नहीं हो पा रहा है। डा. रेड्डी ने कहा कि चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा काफी बड़ा है लेकिन विदेश व्यापार नीति 2015- 20 में हाल में हुये बदलाव के बाद आने वाले वर्षों में व्यापार घाटा कम होने की उम्मीद है। चीन में बने उत्पादों को लेकर सोच में बदलाव आने और भारतीय उपभोक्ताओं के उपभोग के तौर तरीकों में बदलाव से व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में बदलने लगा है।
लेखकों के लिए सहारा बना ऑल ऑथर, देता है प्रचार में मदद
नयी दिल्ली : एक किताब हर लेखक के लिए एक ऐसा कठिन काम होता है जिसके करने पर उसे आनन्द मिलता है। सीधे शब्दों में कहें तो एक किताब हर लेखक के लिए उसके प्यार का श्रम होती है। लेकिन ऐसे समय में जहां हर रोज एक न एक नई किताब जारी हो रही है तो ऐसे में पाठकों को सही किताब को खोजने में मदद करना आसान नहीं है। नोएडा स्थित स्टार्टअप ऑलऑथर (AllAuthor) का उद्देश्य बुक प्रमोशन के लिए अपनी सेवाएं प्रदान करके लेखकों के काम को आसान बनाना है; इनमें व्यक्तिगत ब्रांडिंग, आकर्षक सामग्री का निर्माण और सोशल मीडिया प्रमोशन शामिल है। 2016 में दो भाइयों नवीन और मधुकर जोशी द्वारा शुरू किया गया, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ग्राफिक्स, बैनर और वीडियो जैसे मार्केटिंग टूल बनाता है और प्रदान करता है जिसे लेखक अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर पाठकों से जुड़ने के लिए शेयर कर सकते हैं। इनका अल्टीमेट गोल लेखकों को उस चीज पर ध्यान केंद्रित करने देना है जो वे सबसे अच्छा करते हैं: लेखन। नवीन कहते हैं, “लेखकों को आज जो चुनौती है, वह है उनके काम को बढ़ावा देने के लिए समय की कमी। हमारे प्रमोशनल टूल्स लेखकों को न्यूनतम प्रयासों के साथ उनकी पुस्तकों का प्रचार करने में मदद करते हैं। 2010 में, नवीन और मधुकर ने एक एडटेक स्टार्टअप के तौर पर M4math एक गणित सीखने की वेबसाइट शुरू की थी, जो कम्पनियों, कॉलेज प्रवेश परीक्षाओं और सरकारी नौकरी परीक्षाओं में प्री-प्लेसमेंट टेस्ट के लिए छात्रों को तैयार करने में मदद करती है। हालांकि, इस निःशुल्क प्लैटफॉर्म ने बिजनेस को कामयाब बनाने में मदद करने के लिए पर्याप्त रिवेन्यू जनरेट नहीं किया। लगभग उसी समय, वेबसाइट और मोबाइल डेवलपमेंट इंडस्ट्री में काम कर रहे नवीन को वेबसाइट डेवलपमेंट के लिए कुछ प्रोजेक्ट्स मिलने शुरू हुए। उनके अधिकांश ग्राहक लेखक थे, जिसके बाद उन्होंने एक वेबसाइट बनाई जहाँ लेखक अन्य लेखकों के साथ जुड़ सकते थे और पुस्तक के प्रचार में मदद ले सकते थे। नवीन कहते हैं, “तब मैंने महसूस किया कि लगभग सभी लेखकों की आवश्यकता समान थी, जैसे बुक लिस्टिंग, सोशल मीडियालिंक्स आदि। इससे एक आइडिया आया: क्यों न एक ऐसा मंच बनाया जाए जहाँ लेखक अपनी प्रोफाइल बना सकें और पाठकों से जुड़ सकें?” बस इसी के साथ ऑलऑथर का जन्म हुआ।
स्टार्टअप के पास अब तक प्लैटफॉर्म पर कुल 5,000 लेखक और लगभग 60,000 पाठक हैं, जिसमें यूएस (78 प्रतिशत) के अधिकतम लेखक हैं, इसके बाद यूके, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और भारत के हैं। नवीन कहते हैं कि लेखकों को उनके साथ साइन अप करना शुरू में एक चुनौती थी, लेकिन वे उनकी बात पर भरोसा करते थे। टीम ने सोशल मीडिया चैनलों के माध्यम से लेखकों से संपर्क किया और उन्हें अपने मंच पर आने के लिए प्रभावित किया। वर्तमान में, ऑलऑथर का दावा है कि उसके प्लैटफॉर्म पर 20 ऐसे लेखक हैं जो अमेजॉन टॉप 100 रैंकिंग में सूचीबद्ध हैं, जिनमें जेएस स्कॉट, कैरोलिन ब्राउन और अन्य शामिल हैं। टीम अब सात सदस्यों की हो गई है, जबकि मधुकर जमीनी काम और टीम का प्रबंधन करते हैं वहीं नवीन तकनीक और मार्केटिंग क्षेत्रों को मैनेज करते हैं। दोनों भाइयों को स्पष्ट है कि उनका ध्यान अब ऑलऑथर पर है।
ऑल ऑथर काम कैसे करता है?
ऑल ऑथर का उपयोग लेखक और पाठक, दोनों लोगों द्वारा किया जा सकता है। पाठकों के लिए सदस्यता मुफ्त है जबकि लेखक फ्री और सशुल्क सदस्यता में से किसी को भी चुन सकते हैं। हर लेखक जो साइन अप करता है, उसे एक समर्पित पेज मिलता है, जहां वह अपनी बायो, किताबें (लिंक खरीदने के साथ), और सोशल मीडिया हैंडल और वेबसाइट / ब्लॉग शामिल कर सकता है। वेबसाइट पाठकों के लिए हर पुस्तक का – दो चैप्टर का एक फ्री सैम्पल पेश करती है; यदि वे पुस्तक खरीदना चाहते हैं तो वे ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर रीडायरेक्ट हो सकते हैं। इसमें पाठकों के लिए एक सेक्शन भी है जहां वे लेखकों के साथ बातचीत कर सकते हैं, अन्य पाठकों के साथ पुस्तकों पर चर्चा कर सकते हैं और अपने पसंदीदा उद्धरण और पुस्तकों की सूची बना सकते हैं।
(साभार योर स्टोरी)
सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक़्त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता
सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।
व्रत पर खाएं ये फलाहार
थालीपीठ

सामग्री : ½ कप साबूदाना, लगभग 1 कप पानी, 2 मध्यम उबले आलू , 1/3 कप सिंघाड़े का आटा, 4 बड़े चम्मच भूनी मूँगफली , 4-5 हरी मिर्च , 1¼ छोटा चम्मच/ स्वादानुसार सेंधा नमक , 2 बड़े चम्मच कटा हरा धनिया , 1½ छोटा चम्मच नीबू का रस, लगभग ३ बड़ा चम्मच, तेल सेकने के लिए, सूखा सिंघाड़े का आटा, थालीपीठ बेलने के लिए
विधि : साबूदाने को बीनकर धो लें अब इसे लगभग एक कप-सवा पानी में 2-3 घंटे के लिए भिगो दें> 2-3 घंटे के बाद साबूदाना पानी सोख कर मुलायम हो जाता है। अगर साबूदाना कड़ा लगता है तो थोड़ा और पानी डालकर कुछ और देर के लिए इसे भिगो दें। भीगे साबूदाने में को थालीपीठ के लिए इस्तेमाल करने से पहले छान लें जिससे कि अगर इसमें कुछ अतिरिक्त पानी है तो निकल जाए। हरी मिर्च का डंठल हटा कर और उसे अच्छे से धो कर महीन-महीन काट लें। उबले आलू को छील लें और फिर आलू को अच्छे से मसल लें, आप चाहें तो आलू को कद्दूकस भी कर सकते हैं। भुनी मूँगफली को दरदरा कूट लें। अब एक कटोरे में भीगा साबूदाना, मसले आलू, सिंघाड़े के आटा , दरदरी कुटि मूँगफली, कटी हरी मिर्च, कटा हरा धनिया, और नमक लें और सभी सामग्री को अच्छे से मिलाएँ. अब नीबू का रस डालें और फिर से अच्छे से मिलाएँ। अब इस मिश्रण को 10 बराबर हिस्सों में बाट लें और फिर इसकी लोई बना लें। मध्यम आँच पर तवे को गरम होने रखिए. जब तक तवा गरम हो रहा है आप एक लोई लीजिए और इसे सूखे सिंघाड़े के आटे की मदद से लगभग ३-४ इंच गोलाई में बेल लें. थालीपीठ को मोटा बेला जाता है। जब तवा गरम हो जाए तो इसकी सतह को ज़रा सा तेल/ घी लगाकर चिकना करिए और इसके ऊपर बिली थालीपीठ रखिए। तकरीबन 40 सेकेंड्स इंतजार करिए और फिर इसे पलट दीजिए। अब थोड़ा सा थालीपीठ लगाकर पराठे को दोनों तरफ से मध्यम से धीमी आँच पर सेक लीजिए। थालीपीठ को सेकने में लगभग 3 मिनट का समय लगता है। स्वादिष्ट फलाहारी थालीपीठ को आप फलाहारी खट्टी चटनी और दही के साथ परोस सकते हैं। आप चचें तो इसके साथ खीरे या फिर लौकी का फलाहारी रायता भी बना सकते हैं।
दही वाले आलू

सामग्री : 5-6 मध्यम उबले आलू , 500 ग्राम दही , 1½ छोटा चम्मच/ स्वादानुसार सेंधा नमक, 2 हरी मिर्चें , ¼ छोटा चम्मच लाल मिर्च/ काली मिर्च पाउडर, 1 बड़ा चम्मच कटी हुई हरी धनिया
विधि : आलू को छीलकर उन्हे गोल-गोल काट लें। हरी मिर्च का डंठल हटा कर और उसे अच्छे से धो कर महीन-महीन काट लें। दही को अच्छे से फेंट लें, अब इसमें कटे आलू, नमक, कटी हरी मिर्च और लाल मिर्च पाउडर मिलाएँ। कटी हुई हरी धनिया से सजाएँ। स्वादिष्ट दही के आलू तैयार हैं। कुटु के चीले या फिर सिंघाड़े के चीले के साथ परोसें।
तेजी से लोकप्रिय हो रही है किफायती व कारगर रेकी
रेकी तेजी से लोकप्रिय होती उपचार पद्धति है जो कम खर्च में गम्भीर से गम्भीर बीमारियों के उपचार में सहायक है। एक एफसीएस, लेखक, संगीतज्ञ के साथ ज्योतिष का ज्ञान रखने वाले रेकी प्रैक्टिसनर गौरव लोयलका इसके बारे में विस्तार से बता रहे हैं। –
इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा कैसे मिली?
अनगिनत लोग दर्द से गुजरते हैं क्योंकि कोई इलाज नहीं मिल पाता। रेकी प्रैक्टिसनर होने के नाते मै जानता हूँ कि हमारी सभी बीमारियाँ इमोशनल ब्लॉकेज के कारण हैं और वह हमारे भीतर हैं। मैंने यह कला सबसे बेहतरीन तरीके से लोगों की मदद करने में सक्षम होने के लिए की है। मैं आपको संक्षेप में उन क्षेत्रों के बारे में बताना चाहूँगा कि जहाँ रेकी मरीजों को स्वस्थ करती है, इसे किस तरीके से प्रयोग में लाया जाता है और यह चिकित्सकीय व्यवस्था के लिए भी सटीक है।
चिकित्सकीय व्यवस्था में रेकी विस्तार की ओर है
हमने चीजों को समझना शुरू कर दिया है कि हमारा दिल सच्चा है मगर हम इसे कभी माप नहीं सके। चूँकि हम समझने लगे हैं कि हम अपने शरीर के बारे में बहुत कम जानते हैं तो हमें यह महसूस हुआ है कि औषधि के क्षेत्र में बड़ा कदम उर्जा औषधि यानी एनर्जी मेडिसिन है।
रेकी को आम स्वास्थ्य सुविधा के साथ जोड़कर न सिर्फ उपचार हो सकता है बल्कि यह लाइलाज रोगों का भी समाधान देती है क्योंकि रेकी शरीर को उसे खुद ठीक होने के लिए उसकी सृजनात्मक क्षमता देती है। रेकी स्वास्थ्य उपचार योजना का हिस्सा है इसलिए रेकी से नाटकीय हीलिंग शिफ्ट यानी स्वस्थ होने की सम्भावना हैं। रेकी संस्थानों में अपनी जगह बना रही है। मरीजों से लेकर क्लिनिकल प्रैक्टिशनर्स में इसकी माँग लगातार बढ़ रही है।
परम्परागत इलाज अपनाने के बावजूद अधिक से अधिक मरीज इससे अधिक की माँग कर रहे हैं जिसे अस्पताल आवश्यकता को ध्यान में रखकर इस तरह की थेरेपी की सुविधा देकर पूरा भी कर रहे हैं। एएचए सर्वे के अनुसार अमेरिका के अस्पतालों में रेकी तीन शीर्ष थेरेपी में शामिल है जो मरीजों के लिए इस्तेमाल की जाती है। इनमें मसाज थेरेपी का स्थान 37 प्रतिशत के साथ पहला है, दूसरे स्थान पर संगीत और कला थेरेपी है जिसे 25 प्रतिशत लोग अपनाते हैं और इसके साथ ही बेहद कम अन्तर से हीलिंग टच थेरेपी भी शामिल है जिनमें रेकी और दूसरी स्पर्श चिकित्सा उपचार पद्धति शामिल हैं। रेकी में मरीज का अधिक से अधिक उपचार कम से कम समय में होता है।
अस्पतालों में रेकी की स्वीकृति तेजी से बढ रही है क्योंकि इससे विशेष सेटिंग या व्यवस्था, तकनीक या तैयारी की जरूरत नहीं है। रेकी स्पर्श उपचार पद्धति है। आर एन या अन्य पेशवर अपने अपने काम के हिस्से के तहत मरीजों का स्पर्श करते हैं। अगर वे रेकी -प्रशिक्षित हुए तो वे जब भी मरीज को स्पर्श करेंगे, मरीज को रेकी उर्जा मिलेगी। रेकी में लम्बे व औपचारिक सत्रों की जरूरत नहीं पड़ती, अवसर के अनुसार सामान्य तौर पर न्यूनतम उपचार के तहत मरीज की देखभाल में रेकी का उपयोग बहुत आसान है।
अनुसन्धान चल रहे हैं
शायद अनुसन्धानों में वृद्धि के कारण पश्चिमी हेल्थ केयर प्रैक्टिसनर्स विभिन्न स्थितियों में मरीजों पर रेकी के प्रभावों को लेकर पर्याप्त आँकड़े जुटा पाते है। इस समय रेकी को लेकर सबसे बड़ा अध्ययन कोलम्बिया/एचसीए के पोर्ट्समाउथ रीजनल हॉस्पिटल में चल रहा है जहाँ 8 हजार सर्जरिकल मरीजों को पहले और बाद में रेकी उपचार दिया गया। रेकी उनकी प्रवेश प्रक्रिया का हिस्सा है और सर्जरी के लिए ले जाती समय भी इसका संचालन होता है। प्रशिक्षित आर एनएस, फिजिकल थेरेपिस्टट, तकनीशियन और सपोर्ट स्टाफ द्वारा यह उपचार दिया जाता है। शोध के परिणाम निरन्तर मिल रहे हैं। रेकी पाने वाले सभी मरीजों को एनेस्थिसिया की जरूरत कम पड़ी, सर्जरी के दौरान खून कम बहा, अस्पताल में कम समय तक रहना पड़ा, दर्द निवारक दवाएं कम लेनी पड़ीं और अन्य मरीजों की तुलना में अस्पताल में सन्तुष्टिपरक अनुभव अधिक मिला।

दर्द प्रबन्धन के लिए रेकी कितनी प्रभारी है?
कनाडा स्थित एडुमॉन्टन के द क्रॉस कैन्सर इस्टिट्यूट में रेकी के प्रभावों को लेकर भीषण दर्द से परेशान 20 ऑन्कोलॉजी मरीजों को लेकर अध्ययन किया गया। स्टडी सुपरवाइजरों यानी अध्ययन निरीक्षकों ने रेकी के पहले और बाद में दर्द का आकलन करने के लिए वीएएस (विजुएल एनलॉग स्केल) और लिका्रट स्केल उपयोग किया और रेकी को लेकर परिणाम सकारात्मक रहे।
रेकी ऑर ऑन्कोलॉजी
ऑन्कोलॉजी के मरीजों के साथ हुए एक अन्य शोध में पाया गया कि रेकी टॉक्सिन निकालने की प्रक्रिया में तेजी लाती है, प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है, कीमोथेरेपी और उसके साइड इफेक्टस से निपटने में मदद करती है औ कैंसर डायग्नॉसिस के डर व तनाव को भी कम करती है।
रेकी और हृदय
येल यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ इन्टरनल मेडिसीन की हृदयरोग शाखा में एक अध्ययन किया गया कि रेकी मरीजों में हार्ट रेट वैरियबिलिटी (एचआरवी) को बढ़ा सकती है जिससे उनका एक्यूट कोरोनरी सिन्ड्रम होता है। येल -न्यू हेवेन हॉस्पिटल की कारडियाक यूनिट में रेकी एक क्लिनिकल प्रोग्राम है जो चल रहा है। इस अध्ययन में 5 रेकी प्रशिक्षित नर्से ही रेकी थेरेपिस्ट थीं जो पहले से इस प्रोग्राम का हिस्सा थीं। रेकी सांगीतिक हस्तक्षेप के जरिए आराम देने की दिशा में तुलनात्मक रूप से अधिक कारगर रहा।
रेकी और गम्भीर रोग
कई अध्ययनों से पता चला है कि कई गम्भीर बीमारियों के उपचार में रेकी का उपयोग कारगर रहा है। थायरॉयड और नर्वस सिस्टम फंक्शन से लेकर फाइब्रोमाल्जिया में यह प्रभावी रही। इसके साथ ही एड्स, गम्भीर थकान के लक्षण और नींद की समस्याओं के प्रबन्धन में भी उपयोगी रही।
गर्भावस्था में रेकी
सीटी, के हार्टफोर्ड हॉस्पिटल में हुए शोध में पाया गया कि गर्भावस्था में ऐनिक्सिटी रेकी के उपयोग से 94 प्रतिशत, नौसिया 80 प्रतिशत और दर्द 78 प्रतिशत कम हो गया।
आत्महत्या के खतरों से भी निपटती है रेकी
रेकी न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक समस्याओं का मुकाबला करने में भी मददगार है। सोच को सकारात्मक बनाती है और दर्द से गहरी राहत देती है। शोक और भय कम करने में मदद करती है जिससे पीड़ित में जीने की इच्छा जाग उठती है।
रेकी और बच्चे
रेकी बच्चों के लिए सुरक्षित और प्रभावी है। कैलिफोर्निया पैसिफिक मेडिकल सेंटर में कार्यरत व संक्रामक रोग के उपचार में महारत रखने वाले बाल रोग चिकित्सक डॉ. माइक कैंटवेल कहते हैं कि यह गम्भीर बीमारियों के उपचार में प्रभावी है। माँसपेशियों में लगी चोट, दर्द, सिरदर्द, गम्भीर संक्रमण, अस्थमा में काम करती है।
कहने की जरूरत नहीं कि रेकी आज लोकप्रिय होती जा रही है।
बारासात में सौमीज वर्ल्ड फैमिली सलून कम क्लिनिक का उद्घाटन
कोलकाता : प्रख्यात अभिनेत्री करिश्मा कपूर ने सौमीज वर्ल्ड फैमिली सलून कम क्लिनिक का उद्घाटन किया। यह सौमी का छठां आउटलेट है। इस सुसज्जित भव्य सलून में बाल से लेकर त्वचा समेत अन्य सौन्दर्य उपचारों की व्यवस्था है। सौमीज वर्ल्ड फैमिली सलून कम क्लिनिक की एम डी सौमी भट्टाचार्य केशवानी भी इस मौके पर मौजूद थीं। उन्होंने कहा कि उनके इस क्लिनिक में टैनिंग, पिगमेंटेशन, जैसी त्वचा सम्बन्धित समस्याओं के उपचार की सुविधा तो है ही बालों से सम्बन्धित समस्याओं का भी समाधान इस यूनिसेक्स सलून में मिलेगा।
917 अरब डॉलर का वैश्विक बाजार, भारत के पुस्तक बाजार में 25% की हिस्सेदारी
पिछले तीन सालों में ई-बुक के बाजार में अचानक बदलाव आया है। इससे पहले जहां ई-बुक पढ़ने वालों की तादात 16 से बढ़कर 23 फीसदी तक जा पहुंची थी, वहीं वर्ष 2018 में ई-बुक का बाजार 917 अरब डॉलर का था, जबकि वर्ष 2017 में यह बाजार 873 अरब डॉलर का था। यह आंकड़ा एसोसिएशन ऑफ अमेरिकन पब्लिशर्स की ताजा रिपोर्ट में सामने आया है। वहीं भारत में ई-बुक का बाजार तेजी से बढ़ा है। ई-बुक के क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम कर रही डिवाइस कंपनी किंडल के मुताबिक भारत और चीन में ई-बुक रीडर्स की संख्या 200 फीसदी से ज्यादा बढ़ी है। उद्योग-रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा समय में ई-बुक का बाजार भारत के कुल पुस्तक बाजार का 25 फीसदी है।
वर्तमान में किताबें पढ़ने के शौक को पूरा करने के लिए अब पाठकों के पास पहले से ज्यादा और बेहतर विकल्प हैं। वे अपने स्मार्टफोन या टैबलेट पर कहीं भी और कभी भी किताब पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं। अमेरिका में हुए एक सर्वे के अनुसार किताबें पढ़ने वाले करीब 33 प्रतिशत लोग या तो इसके लिए टैबलेट का इस्तेमाल करते हैं या फिर किंडल या नूक्स जैसे ई-बुक रीडिंग डिवाइसेज का। भारत में भी कमोबेश ऐसा ही ट्रेंड देखने को मिल रहा है। छपी हुई किताब को हाथों से पकड़कर उसके पन्नों की ताजा खुशबू के साथ ज्ञान बढ़ाने का भारतीयों का पुराना शौक तेजी से बदल रहा है। करीब दो साल पहले तक भारत में ई-बुक्स का बाजार अपनी शुरुआती अवस्था में था, लेकिन आज हालात काफी बदल चुके हैं। यही कारण है कि प्रिंटेड बुक्स के प्रकाशक भी तेजी से ई-बुक्स मार्केट में प्रवेश की योजना बना रहे हैं।
युवाओं के बजाय बुजुर्ग आगे
टाटा लिटरेचर लाइव सर्वे द्वारा भारतीय पाठकों की अभिरुचि की खोज की गई है। इसके अनुसार अधिकांश आयु-वर्ग के लोग पारंपरिक पुस्तकें ही पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं। ई-बुक पढ़ने वाले छात्र मात्र 23 प्रतिशत हैं। पाठक का एक बड़ा वर्ग (करीब 77 प्रतिशत) इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की अपेक्षा, परंपरागत माध्यम (मुद्रित पुस्तकें) ही पसंद करता है। दिलचस्प बात यह है कि 20 वर्ष से कम उम्र के पाठकों में सर्वाधिक 81 प्रतिशत इस श्रेणी में आते हैं। इनके बाद, 21 से 30 वर्ष आयु वर्ग के 79 प्रतिशत, 31 से 40 वर्ष तथा 41 से 50 वर्ष की उम्र के 75 प्रतिशत पाठक मुद्रित पुस्तकें पसंद करते हैं। इस संबंध में एक रुचिकर जानकारी मिली है कि 50 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की मुद्रित पुस्तकों में रुचि सबसे कम, 74.24 प्रतिशत है। अर्थात कम उम्र के पाठकों की अपेक्षा अधिक उम्र के पाठक ई-बुक में अधिक रुचि रखते हैं। संभवतः इसलिए कि ई-बुक्स हल्की होने की वजह से उन्हें सुविधाजनक लगती है। साथ ही ई-बुक रीडर पर, इसके प्रिंट को पढ़ने हेतु हम बड़ा कर सकते हैं, शब्दों के अर्थ तुरंत, एक क्लिक से प्राप्त कर लेते हैं (अलग से डिक्शनरी देखने की आवश्यकता नहीं होती) तथा कम प्रकाश में भी इसे पढ़ने की सुविधा रहती है।
1940 के दशक में हुई थी शुरुआत
ई-बुक्स दरअसल किताबों का डिजिटल फॉर्मेट होता है, जिसमें टैक्स्ट और इमेजेस होते हैं और जिसे कम्यूटर अथवा अन्य इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस पर पढ़ा जा सकता है। आमतौर पर ई-बुक्स के प्रिंटेड वर्जन भी होते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं है। आजकल कई ऐसी किताबें हैं, जिनके केवल इलेक्ट्रॉनिक फॉर्मेट ही होते हैं। ई-बुक्स के आविष्कारक और पहली ई-बुक लेखक के बारे में स्पष्ट जानकारी तो मौजूद नहीं है, लेकिन माना जाता है कि 1940 के दशक के आखिरी वर्षों में इसकी शुरुआत हुई थी। इसी दौरान रॉबर्टो बुसा ने थॉमस एक्विनोस की रचनाओं का एक डिजिटल इंडेक्स तैयार किया था। हालांकि, इससे पहले 1930 के दशक की शुरुआत में बॉब ब्रायन ने मशीनों के जरिए किताबें पढ़ने की चर्चा की थी। उन्हें यह विचार तब आया था, जब उन्होंने पहली टॉकी फिल्म देखी थी, लेकिन उस समय इस पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि ई-बुक्स की शुरुआत 1960 के दशक में हुई। उस समय लॉन्च होने वाली ई-बुक्स पाठकों के एक सीमित वर्ग के लिए ही होती थीं, लेकिन इंटरनेट की लोकप्रियता जैसे-जैसे बढ़ी, इसके स्वरूप में भी बदलाव होता गया। आज हर विषय की किताबें डिजिटल फॉर्म में मौजूद हैं।
ई-बुक फॉर्मेट्स
डिजिटल बुक्स के अलग-अलग फॉर्मेट विभिन्न समयों पर लोकप्रिय हुए, जिनमें एडोब का पीडीएफ फॉर्मेट सबसे ज्यादा पॉपुलर हुआ। लेकिन यह हर फॉर्मेट को सपोर्ट नहीं करता था। फिर 1990 के दशक के अंत में ओपन ई-बुक फॉर्मेट की शुरुआत हुई, जिसे अलग-अलग तरह के बुक रीडिंग सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर प्लेटफॉर्म के साथ इस्तेमाल किया जा सकता था।
इन वजहों से बेहतर
हजारों ई-बुक्स एकसाथ, एक जगह पर इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस में स्टोर कर रखी जा सकती हैं। कई बार मोबाइल डेटा कनेक्शन के साथ भी ये उपलब्ध होती हैं और इन्हें स्टोर करने की जरूरत भी नहीं होती। प्रिंटेड बुक्स सीमित संख्या में छापी जाती हैं या फिर पुरानी होने के बाद उपलब्ध नहीं होतीं। डिजिटल बुक्स कभी आउट ऑफ प्रिंट नहीं होतीं, क्योंकि एक बार अपलोड होने के बाद वे हमेशा के लिए मौजूद रहती हैं।
आर्थिक पहलू
ई-बुक्स के प्रोडक्शन में कागज और स्याही की जरूरत नहीं पड़ती। एक अनुमान के मुताबिक ई-बुक के मुकाबले एक प्रिंटेड बुक की छपाई में तीन गुना ज्यादा रॉ मटेरियल और 78 गुना अधिक पानी की जरूरत होती है। इस तरह ई-बुक की लागत कम आती है। चूंकि ई-बुक के निर्माण में लागत कम आती है, इसलिए किताबों के शौकीन लोगों के लिए यह एक सस्ता विकल्प है। इसकी डिलीवरी आदि में भी कोई खर्च नहीं लगता। कई वेबसाइट्स पर ई-बुक मुफ्त में भी उपलब्ध होती हैं। ई-बुक रीडर डिवाइस मौजूद हो तो बेहद कम खर्च में अपनी पसंद की किताबें पढ़ी जा सकती हैं।
कैसे करें इस्तेमाल
ई-बुक रीडर या डिवाइस एक मोबाइल इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस है, जिसे डिजिटल बुक्स पढ़ने के लिए खास तौर से डिजाइन किया जाता है। कम्प्यूटर्स के लिए ई-रीडर एप्लीकेशन भी मौजूद हैं। अमेजन किंडल, ब्रान्स एंड नोबल बुक, कोबो ई-रीडर और सोनी रीडर जैसे एप्लीकेशंस एंड्रॉयड, ब्लैकबेरी, आईफोन और आईपैड में भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं।





