Monday, June 30, 2025
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डिजिटल शिक्षा, रोजगार और मूल्यपरक शिक्षा पर केन्द्रित होगा हिन्दी का नया पाठ्यक्रम – डॉ. राजश्री शुक्ला

राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हो गयी है और इसे ध्यान में रखकर नये सिरे से पाठ्यक्रम बनाया जाने लगा है । उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अगर कलकत्ता विश्वविद्यालय की बात की जाए तो स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर पर पाठ्यक्रम तैयार करने की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी है । इस परिप्रेक्ष्य में प्राध्यापकों को शामिल किया जा रहा है और हिन्दी के पाठ्यक्रम, पठन – पाठन को लेकर कार्यशालाएं आयोजित की जा रही हैं । ऐसी ही एक कार्यशाला गत 13 जुलाई को कलकत्ता गर्ल्स कॉलेज में आयोजित की गयी थी । हिन्दी पठन – पाठन और पाठ्यक्रम को नये सिरे से संवारना इतना आसान नहीं है मगर समय की माँग को देखते हुए अब हिन्दी के पाठ्यक्रम में डिजिटल शिक्षा और रोजगार पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है । शुभजिता ने हिन्दी पठन -पाठन, पाठ्यक्रम समेत कई अन्य मसलों को लेकर कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी स्नातक अध्ययन बोर्ड की अध्यक्ष डॉ. राजश्री शुक्ला से बातचीत की । शुभजिता के पाठकों के लिए साक्षात्कार के महत्वपूर्ण बिन्दु प्रस्तुत हैं –
प्र. राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर आप क्या कहना चाहेंगी और इसका हिन्दी पाठ्यक्रम पर क्या प्रभाव पड़ सकता है ?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, मुझे लगता है कि काफी अच्छे तरीके से सोच – विचार कर बनायी गयी है और इसमें विद्यार्थियों के बहुमुखी विकास का सुझाव है । सीमाएं सभी जगह रहती हैं तो अपनी सीमाओं के साथ ही आगे बढ़ना होगा लेकिन बहुमुखी विकास का उपाय हैं इसके अन्तर्गत, जैसे विद्यार्थी एक साल पढ़कर तय करेगा कि कौन से विषय सबसे ज्यादा उसकी मति और गति है, तब जाकर के वह ऑनर्स चुनेगा ।
दूसरी बात यह है कि बहुत अच्छा हिस्सा यह है सीवीएसी..कॉमन वैल्यू ऐडेड कोर्स, इस कोर्स का होना उन सभी कमियों को दूर करेगा जिसकी चर्चा बार – बार सभी शिक्षाशास्त्री, खासकर हम जैसे शिक्षा से जुड़े हुए लोग कर रहे थे कि विद्यार्थियों को किताबी शिक्षा मिल जाती है, ज्ञान मिल जाता है लेकिन जीवन मूल्य नहीं मिल पाते । भारतीय पारम्परिक जीवन मूल्य जैसे – समावेशीकरण..अर्थात विभिन्नता में एकता, देखने में बाहरी विभिन्नता दिखने के बावजूद आन्तरिक जो एकात्मकता के जो सूत्र हैं, वह सूत्र, पर्यावरण अध्ययन । तो इस तरह के जो विषय शामिल किए गये हैं, वे बहुत स्वागत योग्य हैं ।
प्र. नये पाठ्यक्रम को लेकर किस तरह की चुनौतियाँ हैं ?
शुरुआत में सभी को थोड़ी मुश्किल लगती है क्योंकि पेपर का नाम बदल गया है, प्रश्नपत्रों के कोड बदले हैं और तीन साल के लिए पढ़ने वाला बी.ए. 4 साल के लिए हो गया है । इसमें एक खूबी यह है मुझे जो समझ में आती है कि तीन साल में भी बी.ए. पढ़कर भी लोग निकल सकते हैं । रोजगार की दृष्टि से सोचें तो बहुत सकारात्मक कदम है कि बी.ए. एक साल में पढ़कर भी विद्यार्थी को एक साल की डिग्री मिल जाएगी बी.ए. की, वह जहाँ कहीं भी जरूरत होगी, देकर रोजगारपरक कार्य में शामिल सकता है और तीन साल में भी पढकर निकल सकता है और उसकी बी.ए. की डिग्री तीन साल की बी.ए. की डिग्री होगी लेकिन जिन लोगों की उच्च शिक्षा में रुचि होगी, सिर्फ वह लोग 4 साल का बी.ए. करेंगे और उसके आगे एम.ए. करेंगे तो मैं व्यक्तिगत रूप से हमेशा यह सोचती थी कि भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भीड़ बहुत है और गुणवत्ता की कमी है । यहाँ बी.ए. में ही गुणवत्ता की दृष्टि से विद्यार्थी समझ जाएगा कि उच्च शिक्षा की दिशा में उसकी रुचि है या इसकी रुचि रोजगारपरक दूसरे क्षेत्रों में है, तो वह 2 -3 साल में निकलकर दूसरे क्षेत्र अपना लेगा ।
जिनकी रुचि में शोध में, नये अनुसंधानों में, ज्ञान – विज्ञान को गहराई से पढ़ने में है, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में है, वह लोग चौथे साल बी.ए. पढ़ेंगे और उसके बाद एम.ए. पढ़ेंगे । चौथे साल में बी.ए. में रिसर्च करना, यह भी सकारात्मक कदम है क्योंकि 3 साल पढ़ते – पढ़ते विद्यार्थी यह समझ जाता है कि रिसर्च कैसे करना चाहिए, उसे थोड़ा अन्दाज हो जाएगा कि शोध कैसे किया जाएगा । इससे एम. ए. के बाद पी.एच.डी. में जो शोध किया जाता है, उसकी गुणवत्ता में वृद्धि होगी क्योंकि एक बार वह सीख चुका रहेगा कि शोध कैसे करना है, और तब वह इसके बाद गुणवत्ता की दृष्टि से पी.एच.डी. के शोध में ज्यादा सकारात्मक योगदान कर सकेगा ।
प्र. क्या हिन्दी पाठ्यक्रम में डिजिटल शिक्षा को स्थान दिया जाने वाला है ?
यह जो हिन्दी वाला पाठ्यक्रम बना है, विशेषकर कलकत्ता विश्वविद्यालय ने जो पाठ्यक्रम बनाया है विद्यार्थियों के लिए और सभी विद्यार्थियों के लिए, इसमें डिजिटल लिटरेसी के नाम पेपर ही बना रहे हैं । डिजिटल लिटरेसी का पेपर पढ़ना – पढ़ाना आज की डिजिटल दुनिया और उसके बढ़ते महत्व को देखते हुए अत्यंत स्वागत योग्य है । आजकल विद्यार्थी सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं, साथ ही यूपीआई का उपयोग कर रहे हैं, विभिन्न डिजिटल माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं । इनसे लाभ तो हैं मगर इसके साथ ही इसके खतरे भी हैं, साइबर अपराध बढ़ रहे हैं, जानकारी के अभाव में विद्यार्थी ठगी का शिकार हो जाते हैं । डिजिटल साक्षरता के अध्ययन से विद्यार्थी को पता रहेगा कि सोशल मीडिया का प्रयोग करते हुए उसको कितनी दूर तक किस सीमा में रहना है, कितनी दूर तक जाना है । इन विचारों को ध्यान में रखते हुए कलकत्ता विश्वविद्यालय ने डिटिटल लिटरेसी के नाम से कोर्स बनाया है और हिन्दी के पाठ्यक्रम में भी डिजिटल साक्षरता के नाम से एक पेपर तैयार किया गया है । यह नया बनाया गया पेपर है जो हमारे हिन्दी के विद्यार्थियों को डिजिटलाइजेशन की दृष्टि से, डिजिटल दुनिया को समझने में बहुत मदद करेगा ।
प्र. पाठ्यक्रम को रोजगारपरक बनाने के लिए किस तरह के प्रयास किये जा रहे हैं ?
दूसरी बात यह है कि रोजगारपरक कार्यक्रमों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो पत्रकारिता तो अब हिन्दी के विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में अब यूँ ही पढ़ाई जा रही है लेकिन प्रयोजनमूलक हिन्दी, अनुवाद, पत्रकारिता, इस प्रकार के विषय हैं जो विद्यार्थियों को रोजगार के क्षेत्र में ले जाते हैं । उन विषयों पर अलग – अलग पेपर का पढ़ाया जाना और उनमें व्यावहारिक शिक्षा को ज्यादा बढ़ाया जाना, यह इस बार के पाठ्यक्रम में किया जा रहा है । पिछले कुछ वर्षों का उदाहरण दूँ तो कलकत्ता विश्वविद्यालय के एम. ए. के विद्यार्थी अब जिस संख्या में अध्यापक बनने के लिए आगे बढ़ते हैं तो करीब – करीब, उतनी ही संख्या या उससे अधिक अनुवादक, राजभाषा अधिकारी बनने के लिए इस प्रकार रोजगारपरक कार्यक्रमों की ओर बढ़ जा रहे हैं । अब ये विद्यार्थी जब बी.ए. से एम.ए. में आते हैं तो तब उनको यह समझ में आ जाता है कि अनुवाद पढ़कर वे रोजगार के क्षेत्र में सीधे आगे जा सकते हैं । शिक्षक बनने में जो समय लगता है, उस समय को छोटा करते हुए वे इस तरह के क्षेत्रों में आगे जा सकते हैं तो इन विषयों पर ज्यादा महत्व दिया जा रहा है, ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है ।
दूसरी बात यह है कि अभी हम लोगों ने अनुवाद वाले पेपर में दुभाषिया, बहुभाषिकता को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया है तो बहुभाषिकता को शामिल करने से, दुभाषिये का कोर्स शामिल करने से बहुत लाभदायक हो रहा है ।आज भारत पर्यटन की दृष्टि से आगे बढ़ रहा है और इस क्षेत्र में दुभाषिये की बड़ी उपयोगिता है । दूसरी तरफ विश्व बाजार में भी भारत एक बहुत बड़े बाजार के रूप में उभर रहा है तो मल्टीनेशनल कम्पनियों में इस तरह की योग्यता रखने वाले लोगों की बहुत जरूरत पड़ रही है जो एक से अधिक या ज्यादा भाषाएं जानते हों । ऐसा लगता है कि विद्यार्थी रोजगार की दृष्टि से थोड़ा आगे बढ़ पाएंगे । कुछ सुविधाएं तो कम से कम जरूर होंगी ।
प्र. पारम्परिक पाठ्यक्रम क्या पूरी तरह बदलने जा रहा है ?
पारम्परिक पाठ्यक्रम को हम छोड़ेंगे नहीं बल्कि पारम्परिक पाठ्यक्रम में जो विषय कम हो रहे थे, जैसे व्याकरण का ज्ञान जरूरी है । पिछले कुछ वर्षों से हमने गौर किया कि व्याकरण में बहुत ज्यादा त्रुटियाँ विद्यार्थियों से बहुत ज्यादा हो रही थीं तो हमने अब उच्च शिक्षा में, बी.ए. की कक्षा में भी व्याकरण को शामिल किया जो पिछले कई वर्षों से, लंबे समय से कम हो गया था । इस विचार से कि स्कूल से विद्यार्थी व्याकरण पढ़कर आएंगे तो बार – बार व्याकरण उन्हें क्यों पढ़ाया जाए? लेकिन विद्यार्थियों के जीवन को देखकर, विद्यार्थियों की व्यावहारिक स्थिति को देखकर यह तय किया गया कि व्याकरण को स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम में लाया जाए । इस प्रकार पारम्परिक शिक्षा तो दी जा रही है लेकिन चूंकि सेमेस्टर हो गया है, पेपर बढ़ गये हैं, पेपर की संख्या बढ़ा दी गयी है तो पारम्परिक शिक्षा के कोर्स को भी थोड़ा कम किया गया है और उन जगहों पर व्यावहारिक शिक्षा को लाया जा रहा है, लागू किया जा रहा है ।
प्र. पाठ्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया में प्राध्यापकों और विद्यार्थियों को किस तरह शामिल किया जा रहा है ?
बी.ए. में तो इस वर्ष से नया पाठ्यक्रम लागू हो गया । इस वर्ष दाखिला लेने वाले विद्यार्थी नया पाठ्यक्रम ही पढ़ेंगे । शिक्षकों से राय मशवरा तो आजकल लिया ही जाता है, आधिकारिक रूप से भी और अनौपचारिक रूप से शिक्षकों की राय मानकर के, चुनकर और सुनकर ही । राय -परामर्श चूंकि अधिक नहीं हो पाया था इसलिए हमने सिर्फ एक वर्ष का यानी दो सत्रों का ही पाठ्यक्रम बनाया और बाकी सारे पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना अभी बाकी है और इसमें शिक्षकों की पूरी राय लोकतांत्रिक पद्धति से ली जा सके, इसके लिए हिन्दी का सहायक शिक्षा बोर्ड, उच्च शिक्षा बोर्ड, उसने यह तय किया कि इस प्रकार की कई कार्यशालाएं आयोजित की जाएं, जैसी कि कलकत्ता गर्ल्स कॉलेज में आयोजित की गयी जिससे अध्यापक अपनी ओर से अपनी राय तो बताएं ही कि कौन सा विषय रखना है, किन – किन विषयों में, किसको – किसको शामिल करना है, साथ ही प्रश्न कैसे बनेंगे, इसको लेकर हम लोगों की एक योजना है कि हम एक विस्तृत प्रश्न बैंक तैयार करेंगे तो प्रश्न बैंक होने पर अध्यापकों को पढ़ाने में सुविधा होगी, प्रश्न तैयार करने वालों को प्रश्नपत्र तैयार करने में सुविधा होगी, परीक्षकों को कॉपी देखने में सुविधा होगी और विद्यार्थियों को पढ़ने में सबसे अधिक सुविधा होगी ।
प्र. आमतौर पर पाठ्यक्रम में महिला रचनाकारों को समुचित स्थान नहीं मिल पाता, नये पाठ्यक्रम में क्या कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे ?
यह योजना तो है कि महिला लेखन में सिर्फ एक महिला को शामिल कर लिया जाए, पूरे पाठ्यक्रम के अंत में, और वहाँ जाकर खुद को संतुष्ट कर लेना है तो इस भावना को छोड़कर आगे बढ़ना है क्योंकि यह पाठ्यक्रम ऐसे समय में बन रहा है जब स्त्री विमर्श अपनी परिपक्वता के दौर में आ चुका है । पुराने समय की भी अनेक विस्मृत कवयित्रियाँ, विस्मृत लेखिकाएं, इनका परिचय हमें प्राप्त हो रहा है । अभी हमने जितने पेपर बनाये हैं, उसके अन्तर्गत तो यह कार्य नहीं हो सका क्योंकि हमने मध्यकालीन काव्य तक, और आधुनिक युग में छायावादी काव्य तक ही पहुँच पाए हैं । फिर हमें भी अपनी सीमा का ध्यान रखना पड़ता है कि अगर हम अपने पाठ्यक्रम में 4-5 कवियों या लेखकों को ही स्थान दे सकते हैं तो उन रचनाकारों को गुणवत्ता की दृष्टि से, रचनात्मक संतुलन की दृष्टि से और आलोचकों के विचार से, सभी कसौटियों पर कसकर यह देखना होगा कि किसी एक स्थापित रचनाकार के स्थान पर किसी एक महिला रचनाकार को अगर रखने जाते हैं तो उनका प्रामाणिक ग्रन्थ उपलब्ध होना चाहिए । सिर्फ छिटपुट रचनाओं के आधार पर हम उन्हें पाठ्यक्रम में स्थान दे दें, ये करने की स्थिति में हम अभी नहीं हो पाए हैं लेकिन निश्चय ही हम लोगों ने इस बात पर विचार किया है कि स्त्री लेखन को, स्त्री रचनाकार को, पूरी धारा के बाद अन्त में एक पैराग्राफ में छोड़ा जाता है, उससे स्त्री को कहें, दलित को कहें, हाशिए के विमर्श को, आदिवासी के विमर्श को कहें, इनको हम एक पैराग्राफ में सीमित रखकर नहीं छोड़ेंगे बल्कि जिन रचनाकारों की चर्चा आज चल रही है, जिनकी प्रामाणिक रचनाएं उपलब्ध हैं, उनको हम पाठ्यक्रम में स्थान देंगे ।

स्वाधीनता सेनानी भी थीं मुंशी प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी

कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी न केवल साहित्य में निपुण थीं बल्कि कम ही लोगों को पता है कि उन्होंने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया था। खुद प्रेमचंद ने शिवरानी के जेल जाने पर कहा था कि उन्होंने अपना सम्मान बहुत बढ़ा लिया है। आजादी की लड़ाई लड़ने वाली महिलाओं में उनका नाम वैसे दर्ज नहीं हुआ जैसे होना चाहिए था। वह उतना मशहूर नहीं हो पाईं लेकिन वह आजादी की लड़ाई लड़ने वाली महिलाओं के समूह की नेत्री थीं। स्वतंत्रता की लड़ाई में दुकानों पर विदेशी सामान की बिक्री का विरोध करने और धरना देने कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। उनका नाम था शिवरानी देवी वे हिंदी के महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की पत्नी थीं। उन्होंने आजादी की लड़ाई न केवल संघर्ष बल्कि अपनी साहित्यिक कामों से भी आगे बढ़ाई थी।
पंडित नेहरू की मां स्वरूप रानी नेहरू की गिरफ्तारी के विरोध में भाषण
मशहूर आलोचक वीरेंद्र यादव कहते हैं, ‘मुंशी प्रेमचंद करीब साढ़े 6 साल लखनऊ में रहे। 1924-1930 तक वह अपने दो बेटों, बेटी और पत्नी शिवरानी देवी के साथ लखनऊ में निवास किया। मुंशी प्रेमचंद और शिवरानी आजादी की लड़ाई लड़ते हुए जेल जाना चाहते थे। शिवरानी आजादी की लड़ाई में दो महीने जेल में भी रहीं।’ शिवरानी को 11 नवंबर 1930 को अमीनाबाद के झंडेवाला पार्क में विदेशी सामान की बिक्री कर रहे दुकान के सामने धरना देने के कारण गिरफ्तार किया गया था। यादव कहते हैं, ‘वह हमेशा लोगों के सामाजिक के साथ-साथ आर्थिक विकास की बात करती थीं। वह स्वतंत्रता संग्राम में लगातार हिस्सा लेती रहीं। पूर्व पीएम जवाहर लाल नेहरू की मां स्वरूप रानी नेहरू की झंडेवाला पार्क में गिरफ्तारी के विरोध में शिवरानी देवी भाषण दिया था।’
महिला कार्यकर्ताओं की नेत्री थीं शिवरानी
उन्होंने कहा कि शिवरानी लगातार आजादी की लड़ाई में भाग लेती रहीं और वह इतना लोकप्रिय हो गई थीं कि जब कांग्रेस कार्यकर्ता मोहन लाल सक्सेना ने महिला वॉलिंटियर की लिस्ट बनाई तो शिवरानी को इसका कैप्टन बनाया था। यादव ने कहा कि आजादी की लड़ाई में उनके भाग लेने की सबसे खास बात ये थी कि उनके पति मुंशी प्रेमचंद को भी इसकी जानकारी तक नहीं थी। प्रेमचंद को यह जानकारी तब मिली जब उनके पास कांग्रेस वॉलिंटियर की सूची को हिंदी और उर्दू में अनुवाद के लिए भेजा गया था। यहां प्रेमचंद ने इसमें अपनी पत्नी का नाम देखा।
माताजी मुझे नौकरी में 23 रुपये मिलते हैं। अगर कहीं और मुझे 10 रुपये की नौकरी भी मिल जाए तो इस बुरी नौकरी को मैं लात मार दूं। मेरे लिए यह बेहद दुखदायी है कि मैं अपनी माताओं, बहनों की पूजा करने की बजाए उन्हें जेल ले जा रहा हूं।
मनोहर बंदोपाध्याय की किताब ‘लाइफ एंड वर्क्स ऑफ प्रेमचंद’ में शिवरानी देवी की गिरफ्तारी का विस्तारपूर्वक जिक्र है। ‘प्रेमचंद घर में’ शिवरानी की गिरफ्तारी के दौरान पुलिसवालों की भावनाओं का भी जिक्र है। किताब में लिखा है कि झंडेवाला पार्क में शिवरानी की गिरफ्तारी के दौरान एक पुलिसवाला भावुक हो गया। वह इन महिलाओं के देश की आजादी के लिए जेल जाने के इस जज्बे को देख भावुक हो गया था।
नौकरी तक छोड़ने को हो गया था तैयार पुलिसकर्मी
किताब में पुलिसवाले से बातचीत का भी जिक्र है। ‘माताजी मुझे नौकरी में 23 रुपये मिलते हैं। अगर कहीं और मुझे 10 रुपये की नौकरी भी मिल जाए तो इस बुरी नौकरी को मैं लात मार दूं।’ पुलिसवाले की इस बात को सुनकर शिवरानी ने उन्हें ढाढस बंधाया और कहा कि आप अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। इसपर पुलिसवाले ने कहा कि आप कितनी महान हैं। यही वजह है कि आप जेल जा रही हैं। मेरे लिए यह बेहद दुखदायी है कि मैं अपनी माताओं, बहनों की पूजा करने की बजाए उन्हें जेल ले जा रहा हूं।’
खराब सेहत के बावजूद अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा
जेल से छूटने के बाद भी शिवरानी देवी चुप नहीं बैठीं। इस दौरान उनकी सेहत भी खराब होने लगी थी। उन्होंने जेल में सी क्लास के कैदियों से खराब बर्ताव और सर्दी के सीजन में कंबल नहीं देने के खिलाफ प्रदर्शन का आयोजन किया। उनके प्रदर्शन का ही नतीजा था कि अधिकारी उनकी मांगों के आगे झुक गए।
शिवरानी की गिरफ्तारी और प्रेमचंद की प्रतिक्रिया
लखनऊ विश्वविद्यालय के शिक्षक रविकांद चंदन ने बताया कि जब शिवरानी देवी को गिरफ्तार किया गया था तो प्रेमचंद वाराणसी में थे। बाद में वह जेल गए और पत्नी से कहा, ‘तुम नहीं, जेल में मैं हूं। क्योंकि मुझे अपने बच्चों की देखभाल करनी है।’ प्रेमचंद को लगता था कि वाराणसी से लौटने के बाद उन्हें कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। बल्कि वह तो उस महान दिन का इंतजार कर रहे थे। वह इस बाद से गदगद थे कि उनकी पत्नी ने उनपर बढ़त बना ली है। प्रेमचंद ने कहा कि उनकी पत्नी से अपना सम्मान बहुत ऊंचा कर लिया है। पत्नी की गिरफ्तारी पर प्रेमचंद बोले – तुम नहीं, जेल में मैं हूं। क्योंकि मुझे अपने बच्चों की देखभाल करनी है।
एक निपुण साहित्यकार भी थीं शिवरानी
शिवरानी का हाथ साहित्य में भी निपुण था। लेकिन कुछ समय बाद ही उन्होंने इसे तिलांजलि दे दी। उन्होंने 1931 में अपनी पहली कहानी ‘साहस’ प्रकाशित किया था। इस कहानी की जानकारी भी प्रेमचंद को इसके प्रकाशित होने के बाद लगी। शिवरानी की अपने पति प्रेमचंद पर किताब ‘प्रेमचंद घर में’ प्रेमचंद के साहित्य के प्रति उनका अमूल्य योगदान है।
हर साल घर बदल देते थे
लखनऊ में रहने के दौरान यह जोड़ा हर साल अपने घर बदल लेता था। क्योंकि गर्मियों की छुट्टियों में प्रेमचंद अपने घर वाराणसी के लम्ही चले जाते थे। वह ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि वह किराए पर खर्च वहन नहीं कर पाते।
शिवरानी और प्रेमचंद की शादी
मदन गोपाल की किताब ‘मुंशी प्रेमचंद’ के अनुसार, प्रेमचंद ने एक शादी के विज्ञापन वाले कॉलम में एक इश्तेहार देखा था। इस इश्तेहार में फतेहपुर जिले के सलीमपुर गांव के मुंशी देवीप्रसाद ने विज्ञापन दिया था कि उनकी बेटी जिसकी शादी 11 साल की उम्र में किया गया था। शादी के 3 महीने बाद ही वह विधवा हो गई। इस विज्ञापन को देखने के बाद प्रेमचंद ने अपनी शिक्षा और तनख्वाह की जानकारी भेजी। उन्होंने बाल विधवा से विवाह का प्रस्ताव भेजा। शिवरानी के पिता देवीप्रसाद जो आर्य समाज को मानने वाले थे, वह विधवा विवाह के समर्थक थे और उन्होंने एक पर्चा प्रेमचंद को भेजा और फतेहपुर बुलाए। उनको प्रेमचंद पसंद आए। उन्होंने प्रेमचंद को आने का किराया दिया और कुछ उपहार दिए। शिवरानी ने बताया कि उनकी शादी के प्रेमचंद के परिवार से सहमति नहीं मिली। इसके बाद प्रेमचंद ने इसके बारे में परिवार के किसी सदस्य को बताया भी नहीं। उन्होंने मुझसे शादी की। उस वक्त ये बहुत बड़ा कदम था।
अनुवाद कर घर चलाते थे प्रेमचंद
शिवरानी देवी साहित्य में निपुण तो थीं लेकिन अंग्रेजी में उनका हाथ तंग था। वह अंग्रेजी समझ नहीं पाती थीं। प्रेमचंद ब्रिटिश राज के दौरान सबसे प्रभावकारी अंग्रेजी अखबार ‘लीडर’ में छपे खबरों का अनुवाद करते थे।
शिवरानी की कहानी ‘साहस’, एक ढृढ़ लड़की की कहानी
शिवरानी ने अपनी कहानी साहस को चांद के संपादक को भेजी। संपादक ने अपनी मैगजीन में उनकी कहानी छाप दी। उन्होंने कहानी के लेखक का नाम लिखा था शिवरानी देवी, प्रेमचंद की पत्नी। सहगल ने प्रेमचंद को उस मैगजीन की कॉपी प्रतिज्ञा के किश्त के साथ भेज दी। उन्होंने कथा सम्राट को बधाई देते हुए कहा कि उनकी पत्नी ने भी लिखना शुरू कर दिया है। साहस एक ऐसे लड़की की कहानी थी जिसने अपनी शादी के वक्त अपने होने वाली पति की पिटाई की थी।
(साभार – नवभारत टाइम्स)

54वें गारमेंट बायर्स एंड सेलर्स मीट में 700 करोड़ का कारोबार

कोलकाता । पश्चिम बंगाल गारमेंट मैन्युफैक्चरर्स एंड डीलर्स एसोसिएशन की ओर से विश्व बांग्ला मेला प्रांगण में 20,21 और 22 जलाई को आयोजित तीन दिवसीय 54वें गारमेंट बायर्स एंड सेलर्स मीट में देश-विदेश के 700 से अधिक स्थानीय और राष्ट्रीय ब्रांडों ने भाग लिया। यह प्रदर्शनी इस क्षेत्र की सबसे पुरानी प्रदर्शनी है। इस मीट में देश-विदेश से आये 2000 से अधिक आगंतुकों ने लगभग 700 करोड़ रुपये का व्यापारिक लेनदेन किया। इस अवसर पर पश्चिम बंगाल गारमेंट मैन्युफैक्चरर्स एंड डीलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हरि किशन राठी ने कहा, इस उद्योग में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर लगभग 50 लाख से अधिक कर्मचारी जुड़े हुए है। इस मीट ने बंगाल में रेडीमेड गारमेंट उद्योग को बढ़ावा देने में खुद को हर बार साबित किया है। हम रेडीमेड गारमेंट के व्यापार और विपणन को बढ़ावा देने के लिए सरकार के प्रयासों की सराहना करते हैं। उन्होंने कार्यकारी समिति, प्रायोजकों और प्रतिभागियों की टीम के प्रति अपना आभार और सराहना व्यक्त की, जिन्होंने इस कार्यक्रम को सफल बनाया। उन्होंने प्रगति मैदान थाना और डब्ल्यूबीआईडीसी को भी उनके समर्थन और सहयोग के लिए उनके प्रति आभार प्रकट किया। वेस्ट बंगाल गारमेंट मैन्युफैक्चरर्स एंड डीलर्स एसोसिएशन में उपस्थित अन्य प्रमुख समिति के सदस्यों में: विजय करीवाला (वरिष्ठ उपाध्यक्ष), प्रदीप मुरारका (उपाध्यक्ष), देवेन्द्र बैद (माननीय. सचिव) , कन्हैयालाल लाखोटिया (कोषाध्यक्ष), प्रेम कुमार सिंहल (संयुक्त. कोषाध्यक्ष) के अलावा अमरचंद जैन, तरूण कुमार झाझरिया, आशीष झंवर, मनीष राठी, कमलेश केडिया, मनीष अग्रवाल, किशोर कुमार गुलगुलिया, विक्रम सिंह बैद, सौरव चांडक, विजय अग्रवाल, मनीष जैन, साकेत कुमार खंडेलवाल, अजय सुल्तानिया, राजीव केडिया, संदीप राजा, बृज मोहन मूंधड़ा, भुवन अरोड़ा, मोहित दुगड़- साथ कार्यकारी समिति के सदस्य, हरि प्रसाद शर्मा के साथ पूर्व अध्यक्ष चांद मल लढ़ा मौजूद थे।

कर्नाटक पर्यटन स्टैंड टीटीएफ कोलकाता 2023 में सर्वश्रेष्ठ साज – सज्जा वाला स्टैंड

कोलकाता । कर्नाटक पर्यटन ने टीटीएफ कोलकाता 2023 में सर्वश्रेष्ठ साज – सज्जा वाले स्टैंड का खिताब अपने नाम कर लिया । गत 14 जुलाई से 16 जुलाई तक विश्व बांग्ला कन्वेंशन सेंटर में आयोजित इस पर्यटन मेले में कर्नाटक के 100 वर्ग मीटर के विशाल स्टैंड में अपनी विरासत और वन्य जीवन को बढ़ावा देकर सराहना बटोरी । स्टैंड ने प्रतिष्ठित मैसूर पैलेस गेट को प्रदर्शित किया, जो राज्य की शाही विरासत का प्रतीक है। इसके अतिरिक्त, अपनी स्थापत्य सुंदरता के लिए प्रसिद्ध अच्युत मंदिर की संरचना को प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया, जो कर्नाटक के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व को उजागर करता है।
टीटीएफ कोलकाता 2023 में कर्नाटक पर्यटन स्टैंड को सर्वश्रेष्ठ सजावट के लिए उत्कृष्टता पुरस्कार मिला। यह मान्यता स्टैंड की उत्कृष्ट प्रस्तुति और रचनात्मक डिजाइन को दर्शाती है, जो आगंतुकों के लिए एक व्यापक और दृश्यमान मनोरम अनुभव प्रदान करने के लिए कर्नाटक की प्रतिबद्धता को उजागर करती है। स्टैंड ने विरासत और वन्य जीवन के तत्वों को प्रभावी ढंग से संयोजित किया, जो राज्य के अद्वितीय आकर्षणों का व्यापक प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। विरासत और वन्य जीवन को सहजता से एकीकृत करके, टीटीएफ कोलकाता 2023 में कर्नाटक पर्यटन स्टैंड ने आगंतुकों को एक व्यापक अनुभव प्रदान किया, जो उन्हें कर्नाटक की समृद्ध सांस्कृतिक टेपेस्ट्री और प्राकृतिक चमत्कारों का पता लगाने के लिए आमंत्रित करता है।
कर्नाटक पर्यटन स्टैंड का उद्घाटन राज्य के पर्यटन मंत्री बाबुल सुप्रियो ने किया । इस मौके पर श्री द्वारा किया गया। बाबुल सुप्रियो, पर्यटन मंत्री, पश्चिम बंगाल, , केएसटीडीसी की महाप्रबंधक इंदिरम्मा, केएसटीडीसी के प्रबंधक मनोज कुमार एवं जंगल लॉज एंड रिसॉर्टस के प्रबंधक मंजुनाथ भी उपस्थित थे । आयोजन के दौरान, कर्नाटक पर्यटन प्रतिनिधिमंडल ने घरेलू टूर ऑपरेटरों, ट्रैवल एजेंटों और अन्य प्रमुख हितधारकों के साथ चर्चा की। इन बातचीतों का उद्देश्य मौजूदा संबंधों को मजबूत करना और नई साझेदारियां स्थापित करना है, जिससे अंततः कर्नाटक में पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा।

भवानीपुर फुटसल 2023 में दिखा विद्यार्थियों का उत्साह

कोलकाता । “हम एक साथ खड़े हैं, हारें या जीतें – हम एक टीम हैं।” ये ऐसे शब्द हैं जो फुटबॉल जैसे खेल से पूरी तरह मेल खाते हैं। एक सार्वभौमिक प्रशंसक आधार के साथ, यह खेल दुनिया भर में छोटे और बड़े सभी रूपों में खेला जाता है। ‘फुटसल’ एक फीफा-मान्यता प्राप्त छोटे-पक्षीय इनडोर फुटबॉल खेल है जिसमें फुटबॉल के प्रकार के विपरीत प्रत्येक पक्ष में केवल 5 खिलाड़ियों की आवश्यकता होती है जिसमें 11 लोगों की आवश्यकता होती है। छात्रों को जीवंत और सक्रिय रखने के लिए, भवानीपुर एजुकेशन सोसाइटी कॉलेज ने भवानीपुर फुटसल 2023 का आयोजन किया, जो इस खेल में रुचि रखने वाले कई छात्रों के लिए एक शानदार अवसर था। कैंपस टर्फ इस तरह के आयोजन की मेजबानी के लिए एक उपयुक्त स्थान था क्योंकि खिलाड़ी अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता से प्रदर्शन कर सकते थे जबकि दर्शक अपना उत्साह बनाए रखने के लिए उत्साहित रहते थे। कुल 56 टीमों ने भाग लिया, यह आयोजन 11, 12 और 13 जुलाई 2023 को हुआ।पहले दिन, यानी 11 जुलाई को, राउंड 1 के लिए 28 मैच निर्धारित थे जो कि क्वालीफाइंग राउंड था। पहले दिन के अंत में, 28 टीमें बची थीं। दूसरे दिन का खेल ख़त्म होने तक 14 टीमें खेल में बची थीं। अंतिम लेकिन महत्वपूर्ण बात, तीसरा दिन वह था जब विजेता सामने आएगा और अपनी सही स्थिति का दावा करेगा। तीसरे दिन चौथा राउंड या क्वार्टर-फ़ाइनल, सेमी-फ़ाइनल और फ़ाइनल सुबह 10:00 बजे से होंगे। जब तीसरा दिन समाप्त हुआ, तो टीम ‘अंकारा मेस्सी’ विजयी रही, टीम ‘वीकेंड वॉरियर्स’ प्रथम उपविजेता रही और टीम ‘6 सुपर स्ट्राइकर्स’ क्रमशः द्वितीय उपविजेता रही।
यह स्पष्ट था कि छात्र खेल के प्रति जुनूनी थे क्योंकि वे चिलचिलाती धूप में खेलते थे और भारी बारिश होने पर भी नहीं रुके। जब दोनों टीमों ने अपने मैचों के अंत में हाथ मिलाया तो सभी खिलाड़ियों ने बेहतरीन खेल भावना का परिचय दिया। कई टीमें अपने मैच से पहले और बाद में रणनीतियों का विश्लेषण करने और दूसरों को प्रोत्साहित करने के लिए टर्फ के बाहर अतिरिक्त समय बिताती थीं। 13 जुलाई को समापन समारोह में विजेता तीनों टीमों को हमारे डीन सर प्रो. दिलीप शाह द्वारा मेडल एवं प्रमाण पत्र से सम्मानित किया गया। दिलीप शाह ने कहा कि यह आयोजन एक सफल पहल था और कॉलेज अपने छात्रों को अपने कौशल दिखाने के लिए एक मंच प्रदान करने के लिए खेल से संबंधित अन्य कार्यक्रम आयोजित करता रहेगा। कुल मिलाकर 58 टीमें थीं। इस प्रकार लगभग 360 छात्रों ने खिलाड़ियों और स्वयंसेवकों के रूप में टूर्नामेंट में भाग लिया। वहाँ दो पेशेवर रेफरी थे जिन्होंने यह सुनिश्चित किया कि निष्पक्ष खेल हो। अंततः खेल स्वयं विजेता रहा क्योंकि दीवार पर लिखा था धूप हो या बारिश, मज़ा हो या दर्द, हानि हो या लाभ, हम सभी ने अपने खेल के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। रिपोर्ट किया अनिकेत दासगुप्ता ने और जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

भवानीपुर कॉलेज ने फिल्म निर्माण के लिए एक नया समूह सेल्युलाइड बनाया

कोलकाता । भवानीपुर एजूकेशन सोसाइटी कॉलेज के विद्यार्थियों की फिल्म निर्माण में रुचि जगाने के लिए अपने कई समूहों में से एक समूह रील्स को नई पहचान का नाम सेल्युलाइड दिया । 2023 से प्रभावी, बिल्कुल नए कलेक्टिव, ‘सेल्युलाइड’ का गठन भावी फिल्म निर्माताओं को फिल्म निर्माण के 10 महत्वपूर्ण पहलुओं जैसे निर्देशन, उत्पादन प्रबंधन, छायांकन और पटकथा लेखन आदि में ज्ञान और मार्गदर्शन प्रदान करने के उद्देश्य से किया गया था। समूह के संरक्षक, सुप्रोवो टैगोर ने ‘फर्स्ट स्टेप फॉरवर्ड’ नामक एक पहल का आयोजन किया, जिसमें सत्रों की एक श्रृंखला में 30 से अधिक छात्रों ने भाग लिया, जो इस क्षेत्र में कौशल का उपयोग कर एक सफल कैरियर बनाने के लिए सहयोगी सिद्ध होगा। यह प्रसिद्ध उक्ति है एलेजांद्रो गोंजालेज की कि “फिल्म बनाना आसान है; एक अच्छी फिल्म बनाना युद्ध है। एक बहुत अच्छी फिल्म बनाना एक चमत्कार है।”
इसका पहला सत्र एक प्रेरणादायी रहा जो 14 जून को प्लेसमेंट हॉल में हुआ और इसका उद्देश्य छात्रों को सेल्युलाइड के विचारों से परिचित कराना था। इसमें छात्र भविष्य के सत्रों में भाग लेने के लिए उत्सुक दिखाई दिए।
दूसरा सत्र 27 जून को सोसायटी हॉल में हुआ। सभी विद्यार्थियों को 4 लघु फिल्में दिखाई गईं जिनमें डूडलबग, टू, चटनी, और अहिल्या थीं। विद्यार्थी फिल्मों के अनुभव में डूबने और फिल्मों में प्रतिबिंबित विचारों पर ध्यान केंद्रित किया ।
तीसरे सत्र में छात्र छात्राओं द्वारा पिछले सत्र में देखी गई चार लघु फिल्मों पर चर्चा करने और अपनी राय साझा करने के लिए कॉलेज में एकत्रित हुए। इस संवादात्मक सत्र में छात्र छात्राओं ने फिल्म निर्माण पर दूसरों और अपने दृष्टिकोणों पर विस्तार से चर्चा की। अंत में, 7 जुलाई को 4ए में सेल्युलाइड द्वारा आयोजित नवीनतम सत्र में फिल्म ‘बाराका’ की स्क्रीनिंग शामिल थी, जो डेढ़ घंटे की डॉक्यूमेंट्री फिल्म थी जिसमें कोई कहानी नहीं थी और जिसका मुख्य विषय यह था कि फिल्म को कैसे दर्शाया जाए।इस दुनिया में जीवन की त्रासदी और जीवंतता दोनों आपस में जुड़ी हुई हैं।
समय के साथ, सेल्युलाइड समूह का लक्ष्य अधिक से अधिक छात्रों को इसमें सक्रिय भाग लेने और फिल्म निर्माण की कला सीखने के माध्यम से विस्तार करना है। ऐसे और भी कई मनोरंजक सत्र और कार्यक्रम हैं जिनकी मेजबानी और आयोजन के लिए यह समूह तत्पर है। सेल्युलाइड के पहले बैच के विद्यार्थियों को अच्छे फिल्म और थियेटर निर्माण में विशिष्टता प्राप्त गुरु सुप्रोवो टैगोर मिले हैं जिन्होंने उन्हें सिखाने की योजना बनाई है। फिल्मों और वृत्तचित्रों में उनके अद्वितीय दृष्टिकोण को कैसे मूर्त रूप दिया जाए इस कौशल का विकास किया जाएगा । रिपोर्ट दी अनिकेत दासगुप्ता ने और जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

स्कूल..ऐसा जहाँ 11 रुपये फीस देकर पढ़ते हैं नौनिहाल

कोलकाता । शिक्षा सभी की जरूरत है और बच्चों को एक अच्छा नागरिक बनाने की बुनियाद है । इसके लिए ऐसी शिक्षा चाहिए जो सबकी पहुँच के भीतर हो । कोलकाता के टॉलीगंज में ऐसा ही स्कूल है जहाँ जरूरतमंद बच्चों को 11 रुपये मासिक फीस लेकर पढ़ाया जा रहा है । चौंकिए मत, हम सच कह रहे हैं । दरअसल, कोलकाता की बेस्ट फ्रेंड्ज सोसायटी टॉलीगंज द बेसिक फंडा नामक स्कूल के साथ ऐसा ही स्कूल चला रही है जहाँ एक या दो नहीं, 11 गतिविधियाँ बच्चों को सिखायी जा रही हैं । एगारो टाका पाठशाला नामक इस स्कूल में बच्चों को आर्ट एंड क्राफ्ट, बेकिंग, योग, बेसिक कम्प्यूटर, स्टोरी टेलिग, अंग्रेजी बोलना, पर्सनल ग्रूमिंग प्रशिक्षित मेंटर्स द्वारा सिखायी जा रही है । स्कूल में आत्मरक्षा के तरीके सिखाने की भी योजना है । द बेसिक फंडा की संस्थापक प्रिंसिपल सीमा बाहरी ने कहा कि टॉलीगंज स्कूल का प्रथम केन्द्र यानी सेंटर है जो कि बेस्ट फ्रेंड्ज सोसायटी के सहगोय से स्थानीय सहयोगियों, वॉलेंटियर्स, क्लब एवं सेंटर की साझीदारी में चलाया जा रहा है । सीमा बाहरी बेस्ट फ्रेंड्ज क्लब की नियुक्त चेयरपर्सव भी हैं । एगारो टाका पाठशाला सप्तांहांत गतिविधि केन्द्र है जो टॉलीगंज इलाके के हरिदेवपुर में है ।

‘मैं बूंँद हूँ विराट बनने चली हूँ’ वर्षा का स्वागत किया अर्चना ने

कोलकाता । वर्षा के आगमन के साथ ही बाल- वृद्ध, युवक-युवतियों के साथ ताल- तलईया, नदी-नाले, गंगा- यमुना, धरती- आकाश, पेड़ – पौधे सब मदमस्त हो जाते हैं तो भला सृजनशील कवि कवयित्री पीछे क्यों रहे। आषाढ़ की प्रथम गड़गड़ाहट के साथ ही मन के भावों का उद्दीपन होने लग जाता है। अर्चना संस्था के सदस्यों ने वर्षा ऋतु का स्वागत करते हुए सर्वप्रथम संयोजक और संचालन करते हुए इंदु चांडक ने सरस्वती वंदना या कुंदेदु तुषार हार धवला से आरंभ किया। खिड़की से हाथ पसार कर छूती हूं आकाश के बादलों कोमैं हूं बूंद विराट बनने चली हूं कविता और राजस्थानी गीत /काला धोला बादल आया/म्हारे छोटे गांव में मृदुला कोठारी ने सुना कर सबका मन मोह लिया। हिम्मत चोरड़िया प्रज्ञा ने गीत और कुण्डलिया-हलधर खेतों में चले,आया सावन देख।/काम करेगें रात दिन, बदलेंगे अब रेख।। गीत-पड़े ये रिमझिम आज फुहार।धरा ने किया गजब शृंगार।।संगीता चौधरी ने धरती के श्रृंगार पर अपनी रचना
हरियाली कण-कण बसे,बहे नदी में धार ।/सावन आने से हुआ, धरती का श्रृंगार ।।सुनाया और निशा कोठारी ने बाल गीत- ये बूँदों की टप-टप /ये पैरों की छप-छप, गीत-
सावन तुझसे बस इतनी सी विनती है मेरी सुनाया। विद्या भंडारी ने समाज की समसामयिक समस्याओं को देखते हुए गीत सुनाया ना झूला है /ना कजरी ना बलमा है /ना सजनी
ये कैसा सावन /हरियाला ना अंगना और ना बदरी सुनाया। नौरतनमल भंडारी ने पहले के समय को याद करते हुए अपनी रचनाएं प्रेम यात्रा- पहले जब कभी हम मिलते/
तो कहाॅ पता चलता/कब दिन ढला/कब रात हुई।और एहसास – मैं बोलना चाहता हूॅ/क्योकि मेरे पास शब्द है
कल्पना है/स्वप्न है/अभिव्यक्ति है।प्रसन्न चोपड़ा ने अपनी रचनात्मक भावों में अपने अस्तित्व को रेखांकित किया जिसमें वे कहती हैं कि सागर नहीं, दो बूंद पानी तो हूँ तन मन दोनों भी खो गई, यह सावन की बौछार / हरियाली है चारों ओर, प्रकृति ने किया सिंगार। वहीं सुशीला चनानी ने मनहरण और सरसी छंदों में महत्वपूर्ण गीत प्रस्तुति दी जो महत्वपूर्ण रहे – भीगा भीगा मौसम है /आयी बरखा रानी है । /सावन और विरहणी। नई सदस्य चंद्र कांता सुराणा ने छम छम करता आया सावन/अनंत अनंत कर्मों का क्षय करती है तपस्या/रचना सुनाई। इंदु चांडक का गीत कारे कारे बदरा नील गगन में/उमड़ घुमड़ कर आये ने सबको सावन की वारिश में भिगो दिया।
डॉ वसुंधरा मिश्र ने मन का सावन सुनाई जिसमें वर्षा के कई आयामों पर प्रकाश डाला। उनकी ये पंक्तियाँ बहुत पसंद की गईं – कृषि के साथ कृष्ण बांसुरी बजाएं तो सावन हैं /क्रोधित वर्षा के नैनों की धारा जब बुझ जाएं तो सावन है
बाढ़ के खतरे न आएं पशु-पक्षी और मानव के जीवन सुरक्षित हों तो सावन है।धन्यवाद ज्ञापन किया सुशीला चनानी ने और जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

पुस्तक समीक्षा:ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक:“अव्यक्त से व्यक्त तक”

समीक्षक,. डॉ. पूनम पाठक, मेरठ

आत्मकथाकार: रेणु गौरीसरिया

इससे पूर्व कि हम रेणु गौरीसरिया द्वारा विरचित आत्मकथा “ज़करिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक” पर चर्चा करें और यह समझने का प्रयास करें कि एक स्त्री अपनी आत्मकथा आखिर क्यों लिखती है, हमारे लिए प्रथम ‘आत्मकथा’ को समझना और जानना आवश्यक है। आत्मकथा शब्द अंग्रेजी के ऑटोबायोग्राफी का हिंदी रूपांतरण है। ‘आत्मकथा’ लेखक के जीवन में घटित कुछ विशेष या अनेक हिस्सों को, उससे जुड़ी तमाम घटनाओं को शब्द रूप में प्रस्तुत करने वाला वह सच्चा दस्तावेज है जिसमें अतीत की स्मृतियों और भोगे हुए जीवन की अनेक घटनाओं का विवरण सत्य एवं यथार्थ की पृष्ठभूमि में लेखक के स्वयं के दृष्टिकोण से बताया गया हो। अपनी तीव्र और गहन अनुभूतियों को लिखते समय एक बार फिर से भोगने की पीड़ा या प्रसन्नता को अनुभव करता है। वस्तुतः अनुभूतियों का सर्जनात्मक विन्यास है आत्मकथा इसीलिए ‘आत्मकथा’ को साहित्य की श्रेणी में रखा गया है। यह हिंदी साहित्य की एक अत्यंत गूढ़ एवं जटिल किंतु अर्थपूर्ण विधा है।                           यथार्थता, निष्पक्षता,क्रमबद्ता, तटस्थता और ईमानदारी आत्मकथा के लिए नितांत अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण तत्व है जो कथाकार को ही नहीं अपितु उसकी कृति को भी जीवंत, रोचक, प्रभावशाली, विश्वसनीय और प्रामाणिक बनाता है। इस शब्द का पहली बार प्रयोग सन 1796 में हर्डर नामक जर्मन व्यक्ति ने किया था। जिसे ‘जीवनी’ के समकक्ष माना गया था। 19वीं शताब्दी के आरंभ में आत्मकथा को जीवनी से पृथक मानते हुए इसे एक स्वतंत्र विधा के रूप में लिखा एवं पढ़ा जाने लगा।                                                                                                                             हिंदी साहित्य की पहली आत्मकथा “अर्धकथानक” नाम से प्रकाशित है जिसके लेखक श्री बनारसी दास जैन माने जाते हैं। अंबिकादत्त व्यास, महावीर प्रसाद द्विवेदी, डॉ श्यामसुंदरदास, राहुल सांकृत्यायन, बाबू गुलाब राय,डॉ राजेंद्र प्रसाद, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, और डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन आदि मुख्य पुरुष आत्मकथाकार रहे हैं। सूची लंबी है।           पुरुष प्रधान देश और समाज में भाई, पिता या पुत्र के संरक्षण में जीवनपर्यंत जीने के लिए विवश स्त्रियों का स्वतंत्र अस्तित्व विकसित होना जब संभव नहीं था तो कोई भी स्त्री अपनी आत्मकथा कैसे लिख पाती? पुरुष आत्मकथा लेखन की भरमार के बीच स्त्री आत्मकथा लेखन का स्रोत दूर तक भी दिखाई नहीं देता था। समाज की रूढ़िवादी मान्यताओं, रीति-रिवाजोंऔर परंपराओं के बंधन से निकलने के लिए उन्होंने कलम को अपना हथियार बनाया। वर्षों से पुरुष वर्चस्व की कैद में रहते हुए भी सहिष्णुता पूर्वक जीवन जीने वाली स्त्रियाँ कलम पकड़ने के पश्चात भी अपनी आत्मकथा लिखने से परहेज ही करती रही कि आत्मकथा लेखन से उनके भीतर किसी कोने में दबी छिपी कोमल कठोर भावनाएं कहीं सार्वजनिक न हो जाएं जिसके चलते उन्हें पारिवारिक और सामाजिक क्षति उठानी पड़ेगी। धीरे-धीरे पुरानी मान्यताओं के टूटने पर स्त्रियाँ परिवर्तित मूल्य बोध के प्रति जागरूक हुई और आधुनिक काल में अपने जीवन-संघर्ष को चित्रित करने लगी। परिणामस्वरूप बहुत बाद में वे अपनी आत्मकथा लेखन में रुचि दिखाने का साहस कर पाईं। मराठी, पंजाबी, बांग्ला आदि भारतीय भाषा में लिखित आत्मकथा से प्रभावित होकर हिंदी में भी आत्मकथा लेखन प्रारंभ हुआ। जिसमें खुलकर लेखिकाओं अपनी व्यथा, पीड़ा और  मानसिक घुटन को शब्दों में व्यक्त किया।                                        महिला आत्मकथा साहित्य का सर्वप्रथम सूत्रपात  बांग्ला भाषा में रससुंदरी देवी नामक लेखिका द्वारा माना जाता है जिन्होंने वर्ष 1876 में “आमार जीबोन ” नामक आत्मकथा लिखी। इसके पश्चात यही साहस बांग्ला, मराठी इत्यादि अनेक भाषाओं के साथ-साथ हिंदी भाषा की अनेकों आत्मकथा में भी प्रतिबिंब होता रहा है। हिंदी की पहली स्त्री आत्मकथा जानकी देवी बजाज द्वारा रचित “मेरी जीवन यात्रा है” जो वर्ष 1956 में प्रकाशित हुई थी। हिन्दी की प्रमुख आत्मकथाकारों में मैत्रेई पुष्पा, रमणिका गुप्ता, मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, मैत्रेई पुष्पा, चंद्रकिरण सोनरिक्शा, रमणिका गुप्ता, सुषमा बेदी इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं। पंजाब की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट समूचे स्तरीय आत्मकथा साहित्य में अग्रिम पंक्ति की रचना मानी जाती है। लेखिकाओं ने बड़ी ही बेबाकी और निर्भीकता से अपने हृदय की भावनाओं को आत्मकथा में अभिव्यक्त किया।                                                                                                             स्त्री आत्मकथाओं की इस कड़ी में अब एक कड़ी और जुड़ गई है –रेणु गौरीसरिया द्वारा लिखित आत्मकथा “ज़करिया स्ट्रीट से मेफेयर रोड तक” जो नवंबर वर्ष 2020 में संभावना प्रकाशन, हापुड़ से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य रु 300/ है। इस आत्मकथा का बांग्ला संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है जिसे बांग्ला भाषियों में काफी प्रशंसा मिल रही है।       रेणु दी से मेरा परिचय कोलकाता की साहित्यिक संस्था “साहित्यिकी” के माध्यम से हुआ। अक्सर मिलना-जुलना रहता था। रेणु गौरीसरिया, कोलकाता महानगर में राजस्थान से सदियों पूर्व आकर बसे एक संभ्रांत, धनाढ्य, सुसंस्कृत कोलकाता महानगर के एक मारवाड़ी परिवार में जन्मी, पली, बढ़ीं एक रिटायर्ड स्कूल टीचर हैं। कुछ वर्ष पहले जब वे गंभीर रूप से बीमार पड़ी और तब उनकी चेतना ने उन्हें एहसास कराया कुछ लिखने का। तभी उन्होंने निश्चय किया कि जो कुछ भी अपने जीवन की स्मृतियां उनमें अभी भी शेष है वह सब वे अपने पुत्र और पुत्री के लिए लिखेंगी। जिसका परिणाम सामने आया “जकारिया स्ट्रीट से मेफ़ेयर रोड तक” के रूप में जिसमें उनके अब तक के भोगे गए जीवन का यथार्थ समाहित है। यूँ देखा जाए तो जकरिया स्ट्रीट से मेफेयर रोड की दूरी भले ही कम हो, मात्र 6-7 किलोमीटर की और इस यात्रा को मात्र 20-25 मिनट में ही पूरा कर लिया जाता है, किन्तु प्रतीकात्मक रूप में लेखिका ने इन दोनों स्थानों बीच सिमटा अपने जीवनकाल का बहुरंगी एक लंबा फासला तय किया है। इन दोनों स्थानों पर जहाँ एक ओर रेणु जी द्वारा व्यतीत किए गए, कहना चाहिए कि भोगे गए और अनुभव किए गए परिस्थितिजन्य विविध पलों, भावनाओं, संवेदनाओं, यंत्रणाओं, पीड़ाओं और विपदाओं के पल-पल परिवर्तित अंधकारमय अनेक चित्र समाहित है तो दूसरी ओर आशा, आत्मविश्वास, निर्भीकता, दृढ़ इरादे,  संघर्षशीलता और जीवटता के उजाले भी फैले हैं जिसमें उनका जगमगाता हुआ व्यक्तिव उभर कर सामने आता है। नियति के खेल का अद्भुत उदाहरण इसे माना जा सकता है।                                                  किसी के लिए भी अपनी आत्मकथा लिखना सरल कार्य नहीं होता है। इसकी विषयवस्तु कथाकार का स्वयं का जीवनवृतांत होता है। अपने जिए हुए जीवन और उससे प्राप्त कटु एवं मधुर अनुभव, अतीत में भोगे हुए दुख-सुख का पुन:निरीक्षण करता है। जकरिया स्ट्रीट से मेफेयर रोड की यह यात्रा स्त्री चेतना, स्त्री अस्मिता, स्त्री स्वतंत्रता, स्त्री संघर्षशीलता एवं स्त्री के सशक्तिकरण की अद्भुत आत्मकथात्मक कृति है जिसमें एक स्त्री जीवन की घुटन, पीड़ा, अन्याय, वैवाहिक जीवन के दर्द और पति की संकुचित मानसिकता को बेबाकी से और निर्भीकता से चित्रित किया गया है। स्त्री के जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक वर्जनओं, बंधनों पितृसत्तात्मक समाज की ओर से लगी अनेक पाबंदियों को उजागर कर स्त्री शोषण, स्त्री अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत करती है यह यात्रा गाथा। लेखिका के द्वारा भोगे हुए जीवन का सच यथार्थ के धरातल पर प्रकट हुआ है। उन्होंने अपने बाल्यकाल से लेकर लेखिका बनने के मार्ग में आने वाली तमाम घटनाओं का उल्लेख ही नहीं किया वरन उन्हें एक बार फिर से जिया भी है। अपने कमजोर आत्मविश्वास को उन्होंने आत्मिक दुर्बलता के संदर्भ में देखा और अपने जीवन में संघर्षों से, कठिनाइयों से कभी हार नहीं मानी। यह आत्मकथा नियति के समक्ष स्त्री सशक्तिकरण की एक ऐसी इबारत प्रस्तुत करती है जो अनेक अर्थों में समाज के लिए प्रेरणास्पद है।एक कुलीन,समृद्ध, संभ्रांत बहुत बड़े संयुक्त परिवार की लड़की जिसे खाना पकाना तक न आता हो उसके मन में अनगिनत विचारों, यादों का, भावनाओं का ऐसा अदृश्य संसार बसा है जिससे वह स्वयं ही अनजान रही। बीमारी की पीड़ा ने उसे उसके भीतर बसे संसार में जाकर उसको फिर से जीने देने का अवसर प्रदान करने के लिए प्रवेश द्वार खोल दिए जिसके परिणामस्वरूप यह आत्मकथा पाठकों के समक्ष आई। बेहद संकोची, शर्मीली सी, मृदुभाषी, मितभाषी और संस्कारवान लड़की की स्मृतियाँ चित्रपट पर मानों रील के सदृश्य चलने लगती है और अनेक दृश्य एक-एक कर शब्दों का लबादा ओढ़े पन्नों पर बिछते चले जाते हैं। रेणु जी के जीवन संघर्ष की कथा है यह आत्मकथा।                             रेणु जी की यह आत्मकथा प्रमाण है कि एक भारतीय स्त्री को अपने जीवन को जीवन जैसा बनाए रखने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है वह भी तब जबकि उसका बचपन, उसका पालन पोषण एक सनाढ्य और समृद्ध परिवार में व्यतीत हुआ हो। यह उस कर्तव्यनिष्ठ पुत्री, पत्नी और माँ की कहानी है जिसने अपनी स्वायत्तता को प्रत्येक परिस्थिति में बनाए रखा।                                                                                                        एक अत्यंत विशाल संयुक्त परिवार में रेणु जी का पालन पोषण हुआ। आज के एकाकी परिवार के समय में संयुक्त परिवार का ऐसा उदाहरण है जिसमें अनेक कई पीढ़ियाँ एक साथ रहती थीं, जिनमें दादा-दादी, चाचा, ताऊ अपने अपने परिवार के साथ रहा करते थे, एक स्वप्न समान प्रतीत होता है। अनेक चचेरे भाई-बहन के बीच बिताए बचपन की सुनहरी स्मृतियों ने आत्मकथा के बड़े हिस्से को सुंदर एवं रोचक बना दिया है। फिल्मों की बेहद शौकीन रेणु जी ने बचपन की यादों को कुछ इस तरह से याद किया है – ‘बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ती फिरती तितली बन के’।  इस आत्मकथा में एक भारतीय स्त्री की स्मृति रूपी खजाने से निःसृत अनेक ऐसे वृतांत हैं जो पाठक को उसके बचपन स्मृतियों में खींच कर ले जाते हैं। बचपन में जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है। वह लिखती है बचपन किसी का कुछ कठिनाइयों भरा हो तब भी वर्तमान की तुलना में मधुर ही प्रतीत होता है। सभी को अपना बचपन प्रिय होता है। वास्तव में बचपन की खट्टी-मीठी, चटपटी यादें किसी भी इंसान के परवर्ती जीवन जीने के लिए मानो रिचार्ज कूपन होते हैं इस आत्मकथा ने यह सिद्ध कर दिया है। आत्मकथा के अनेक मोड़ों पर पाठक का मन फिर-फिर मुड़ कर पीछे बचपन की गलियों में लुकाछिपी खेलता, चचेरे भाई बहनों, संगी-साथियों के संग अनगिनत मजेदार किस्से-कहानियों को सुनता-सुनाता, बाल-सुलभ वाद विवादों में उलझता-सुलझता तरह-तरह के स्वांग रचता, सोने से दिन और चांदी-सी रातों वाले बचपन के मजे लूटने लगता है। कथाकार के बचपन के बेशुमार किस्सों को पढ़ते पढ़ते मेरा मन भी कुछ क्षणों के लिए अपने बचपन की ओर ताकता, आनंद लेता और फिर वापस पन्नों में आँखों के साथ साथ मन को भी लौटा लाने का प्रयास करता। बालमन की चंचलता, निश्छल हास्य विनोद के अनेक एवं विस्तृत रोचक वृतांतों से रेणु जी की आत्मकथा जीवंत हो उठी है। तीज त्योहार, रीति रिवाज, परम्पराएं और रिश्तों की मजबूत डोर से बंधी मजबूत यादें लेखिका के जीवन का अभिन्न अंग बनी हैं।            यह आत्मकथा एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो जीवन के गहरे उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए अपना जीवन जीती है। समाज में व्याप्त भ्रांतियाँ, रूढ़िवादिता, परंपरावादिता पर लगातार गहरी चोट करती हैं। कई स्थानों पर लेखिका की सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना मुखरित हुई है। कोई भी आत्मकथा सदा खुलेपन की मांग करती है। बड़ी बेबाकी से बिना लाग लपेट के रेणु जी ने अपने अंतर्मन में जमी तहों को खोल दिया है। किसी भी युग में स्त्री का बोलना सहज सह्य नहीं होता है लेकिन एक ईमानदार अभिव्यक्ति कोपाठकों का विश्वास और स्नेह सहज ही प्राप्त हो जाता है। अपनी तथाकथित इमेज के टूटने के डर से लेखक खुलेपन से बचते हैं। रेणुजी ने अपने इस डर को धता-बता दिया जो बड़े साहस की बात है।                                                                                                                    एक धनाड्य मारवाड़ी परिवार की नाजों से पली-बढ़ी बेटी पर ऐसा भीषण कुठाराघात हुआ कि उसे असमय वैधव्य मिला। नियति के कठोर दुख को सहन कर उसने दूसरे वैवाहिक जीवन की प्रतारणा झेली।  उनके भीतर धीरे-धीरे अंदर ही अंदर बहुत कुछ टूटा जा रहा था। अनेक बार आत्मविश्वास भी डगमगाया। एक सम्पन्न परिवार की बेटी ने आर्थिक कठिनाइयों को झेला। अपनी परिवार और मित्रों का संबल पाकर टूटी नहीं। परिस्थितियों से निरंतर लड़ती रहीं। उन्होंने अपने जीवन में कभी कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किए लेकिन अपनी शर्तों पर जीने जीने वाली इस नाजुक-सी दिखने वाली मजबूत लड़की ने परिस्थितियों के कारण जीवन के संघर्ष में कभी हार नहीं मानी। सम्मुख आन खड़े लक्ष्य का हाथ थामने से इनकार भी नहीं किया। अपनी पीड़ाओं को पहले आँसुओं में और फिर पन्नों पर बहाया उसने। गहरे तनाव की अवस्था में अपने कष्टकर परिस्थितियों से छुटकारा पाने का एकमात्र समाधान उन्होंने मात्र 22 वर्ष की अल्पायु में एक नहीं तीन तीन बार आत्मघात करने जैसा भयानक विचार तक सोचा और अमल भी किया किन्तु ईश्वर को कुछ और ही स्वीकार्य था। उन गलतियों और नादानियों के लिए भीषण मानसिक और शारीरिक प्रताड़नाएं झेली जो उन्होंने कभी की ही नहीं। इसी तरह कुछ मधु और कुछ कटु दिन व्यतीत करते हुए जीवन से विरक्त बस जिए जा रहीं थी। जीवन की भटकनों में दिशा दिखाने वाले अनेक व्यक्तियों ने गहरी संवेदना के साथ उनको अपनाया,जिनके प्रति अपना आभार प्रकट करते हुए लेखिका जीवन में चलती ही रहीं। उन्होंने अपने जीवन के सबसे बड़े संबल माँ और भैया को यह आत्मकथा समर्पित की है जिनके अत्यधिक लाड़ प्यार ने बिगड़ा भी और जीने की ताकत भी दी। वे निरंतर अनुभवों से सीखती रहीं, आगे ही आगे बढ़ती रहीं और बस चलती रहीं क्योंकि जीवन रुकना नहीं जानता।                                                                                          10 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद दोबारा शिक्षा प्रारंभ करना कठिन होता है लेकिन यह कठिन कार्य भी आत्मकथाकार ने सहज भाव से करते हुए अपनी सांस्कृतिक अभिरुचि को भी तराशा। पुराने मित्रों का साथ आत्मीयजनों के स्नेह सूत्र को थामे-थामे अनेक नए मित्र बनाए और नए पुराने सभी के साथ अपने रिश्तों को सहज भाव से निभाती रहीं। पुराने परंपरावादी विचारों को छोड़ कर नए आसमान में अपनी राहों को तलाशना उन्होंने अपनी माँ से सीखा। बेटियों को सदा से ही पराया समझा गया। विवाह के बाद ही उसका वही घर मान्य होता है जो उसका पति की कमाई से खरीद गया हो। रेणु दी की अपनी बेटी के लिए विवाह पूर्व मुंबई में अलग फ्लैट खरीदने के विचार को प्रश्रय देने वाली आधुनिक प्रगतिवादी सोच ने मुझे गहराई तक प्रभावित किया। इससे प्रेरित होकर मैंने भी अपनी बेटी के लिए भी ऐसा ही निर्णय लिया यह सोच कर कि विवाह पूर्व यदि लड़का घर खरीद सकता है तो लड़की क्यों नहीं? कथाकार की प्रगतिवादी सोच की कुछ टूटी कुछ छूटी अनेक कड़ियाँ इस आत्मकथा में यत्र तत्र मिलती हैं। स्मृतियों के हाथों में कलम थमा कर कथाकार यंत्रवत मात्र दृष्टा बनकर अपने भोगे हुए सच का हिस्सा बनता जाता है।                                                                  इस आत्मकथा के माध्यम से पुराने जमाने के रहन-सहन, रीति-रिवाज, परम्पराएं और जीवन शैली की झलक मिलती है। पुस्तक प्रेमी,गीत संगीत और घूमने की शौकीन लेखिका पंडित जसराज जैसे नामी गिरानी व्यक्तियों से घनिष्ठता से जुड़ी थी यह जानना मेरे लिए यह अत्यंत रोमांचकारी रहा  इसलिए नहीं कि पंडित जसराज मेरे भी प्रिय हैं और उनके लिए मेरे मन में अगाध श्रद्धा भाव है बल्कि इसलिए भी कि जिन रेणु दी को मैं जानती हूँ व्यक्तिगत तौर पर,उनकी प्रशंसक हूँ और उनके शांत-सौम्य व्यवहार से बेहद प्रभावित भी हूँ, उनके साथ अपने पंडित जी की घनिष्ठता होने से रेणु दी मेरे लिए उतनी ही श्रद्धेय स्वरूप हैं ऐसा लगा मानों मैं स्वयं पंडित जी से जुड़ गई।                                                 लेखिका एक संवेदनशील स्त्री, पत्नी, माँ, बेटी, बहन, सखि, शिक्षिका आदि अनेक रूपों में तो सामने आती ही है, पर वह भावुक और दुर्बल बिल्कुल नहीं है। वह संवेदनशील नागरिक भी जो कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं पर चिंता व्यक्त करती है। देशवासियों में घृणा और नफरत फैलाने वाली राजनीतिपरक मानसिकता से उनका मन विचलित हो जाता है। अनेक सामाजिक बुराइयाँ जैसे विवाह के लिए लड़की को देखने आने की प्रथा, बेटी का उपहार आदि न देने की परंपरा का विरोध भी प्रबलता से दर्ज कराती हैं। ऐसे अनेक प्रसंगों से यह आत्मकथा भरी पड़ी है और पठनीय बन पड़ी है।         यह आत्मकथा अनेक प्रश्नों के उत्तर अनायास ही सुझाती है। आज की भागदौड़ भरे जीवन और आपा-धापी के वातावरण, माता-पिता की व्यस्त दिनचर्या और एकाकी परिवारों में पोषित अधिकांश बच्चे छोटी सी कठिनाई आते ही निराशा के गहन तल तक पहुँच जाते हैं, संघर्ष करने से घबराते हैं, मनचाही वस्तु आसानी से सुलभ न होने पर क्यों धैर्य छोड़ बैठते हैं, क्यों उनके व्यक्तित्व में अनेक गाँठे पड़ जाती  हैं जो प्रयास करने के बावजूद जीवनपर्यंत खुल नहीं पाती। शायद ऐसे बच्चों को बचपन की जीवंतता और बालसुलभ चंचल स्वतंत्रता सुलभ नहीं होती। एक साथ रहने वाली कई पीढ़ियों के परिवारों का आपस में प्रगाढ़ता से जुड़े रहना जीवन को अनोखा संबल प्रदान करता है जो उनके परवर्ती जीवन में ढाल बनकर सदा ही उनको आत्मविश्वास से लबरेज रखता है। जिसके तार बचपन के सूत्रों में गूँथे रहते हैं। यह आज के अभिभावकों को सीखने की आवश्यकता है। कथाकार के समृद्ध बचपन के अनेक भव्य चित्र, कई पुराने भारतीय परिवारों की याद दिलाते गएमुझे। छोटी उम्र में विवाह की मासूमियत के रंग कुछ अलग होते हैं । यह सच्चाई बहुत ही सहजता से अभिव्यक्त हुई है। पहले विवाह का लाड़ प्यार बहुत ही निर्मम तरीके से दूसरे विवाह के अपमान, तिरस्कार और उपेक्षा में कैसे बदल जाता है, शायद इसे ही नियति की कठोरता कहेंगे। नाजों से पली विवाहित बेटियों का दुख पिता को किस कदर तोड़ देता है, ससुराली अत्याचारों एवं पति की निर्ममता से मुक्ति दिलाने के लिए मायके वाले कितना तड़पते हैं। ऐसी कई परिस्थितियों में स्त्री कितनी लाचार और असहाय हो जाती है, उसकी ममता खून के आँसू रोती है। वर्णन-दर-वर्णन आत्मकथा पाठक की संवेदना को झिंझोड़ती है कि वह नियति की निष्ठुरता पर द्रवित हुए बिना नहीं रह पाता। कलाकारों, साहित्यकारों के संसर्ग में संस्कारवान होती हुई, आत्मोन्नति करती हुई कथानायिका मारवाड़ी समाज के जागरण और बदलाव को अपने चरित्र में रूपांतरित करती है। कई पड़ाव को पार करते, रुक-रुककर चलते-चलते आखिरकार शिक्षा के आलोक से जीवन को आलोकित करती हुई अपनी प्रगतिशील सोच का प्रमाण देती है यह शांत, सुशील किन्तु दृढ़ इरादों वाली कथानायिका। स्कूल में अध्यापन से जुड़कर आत्मनिर्भरता का बिगुल बजाती है। कई संस्थानों से जुड़कर अपनी बौद्धिक तृप्ति की राह स्वयं तलाशती है। अवसर मिलने पर अपनी यायावरी के शौक को पूरा करने का लोभ नहीं छोड़ पाती और सिलसिलेवार यात्रा की सुखद व दुखद स्मृतियों के लेखन से आत्मतृप्ति का अनुभव करती है। रेणु दी की लेखनी में वह क्षमता है कि उनके यात्रा संस्मरण भी यदि प्रकाशित हों तो पाठकों को साक्षात सैर का आनंद मिलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इस आत्मकथा मेंवे पग-पग मार्गदर्शन करने वाले, मुश्किल अवसरों में संबल बनने वाले समस्त जनों के प्रति आभार भी प्रकट करती गईं हैं जो उनकी विनयशीलता को प्रदर्शित करती है।                                                                 इस आत्मकथा की तटस्थता का उल्लेख किए बिना तो बात अधूरी रह जाएगी। संबंधों के विश्लेषण में कथाकार की तटस्थ दृष्टि हमेशा सक्रिय रही है। विशेषकर अपने बच्चों पम्मी और अर्जुन के नाम लिखे गए पत्रों में। दूरियों और नज़दीकियों के धागों में पिरोए उनको लिखे पत्र किसी मां की चिंताओं को बड़ी निस्संकता से अभिव्यक्त करते हैं। संबंधों की गर्मजोशी एवं कड़वाहट के रेखाचित्र आँकती यह आत्मकथा अपने आसपास की परिस्थितियों से रूबरू होकर समस्याओं के समाधान की प्रेरणा देती है। अनेक स्थलों पर कथाकार की सामाजिक और राजनैतिक चेतना तीव्रता से मुखरित हुई है।                    आत्मकथा साहित्य में स्वयं आत्मकथाकार ही पाठक के आकर्षण का केंद्रबिन्दु होता है, वही मुख्य नायक या नायिका होता है और अन्य पात्र उसके चरित्र के निमित्त मात्र ही होते हैं। अनेक बार आत्मकथा साहित्य में अन्य पात्रों की योजना कम या अधिक रहतीहै। इस आत्मकथा में रेणु जी ने अपने जीवन से सम्बद्ध हर उस व्यक्ति, हर उस घटना, हर उस स्थान का और उससे जुड़ी अनेक अनुभूतियों का गहराई से वर्णन किया है जिसने उनके जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। ऐसा करते हुए कुछ  स्थलों पर वर्णन आवश्यकता से कुछ अधिक विस्तृत हो गया है। इसे आत्मकथा लेखन की कोई त्रुटि नहीं वरन कथाकार की स्मृतियों और अनुभूतियों की सघनतापूर्ण और गहनतापूर्ण अभिव्यक्ति ही समझना चाहिए। प्रोफेसर शम्भुनाथ जी के शब्दों में यदि कहा जाए तो लेखन एक नरक से गुजरना है, अँधेरों तपिश और अनेकोनेक पीड़ाओं से गुजरना है, आत्मानवेक्षण से गुजरता है जहाँ कोई आश्वासन नहीं। लेखक इन यातनाओं से गुजरता हुआ भी इनसे अलिप्त रहता  है। इस दृष्टिकोण से इस आत्मकथा की गणना श्रेष्ठ आत्मकथाओं में होनी चाहिए क्योंकि श्रेष्ठ आत्मकथा वही है जिसमें लेखक यथार्थ और वास्तविक तथ्यों को बिनाकिसी कल्पना, लाग-लपेट अथवा विकृति के अपने संपूर्ण व्यक्तित्व के साथ नि:संकोच भाव, तटस्थता और ईमानदारी सेप्रस्तुत करे।                                        पुस्तक का कवर सुंदर बन पड़ा है जिसमें मुखपृष्ठ पर पुरुषों से भरा हुआ कोलकाता के एक व्यस्त इलाके ज़करिया स्ट्रीट का चित्र है और पिछले पृष्ठ पर मेफेयर रोड की छवि अंकित है। पर न जाने क्यों कवर पुस्तक के नाम के अनुरूप प्रतीत नहीं होता। यह मेरा अपना दृष्टिकोण भी हो सकता किन्तु मुझे यह प्रतीत हुआ कि जो लोग कोलकाता महानगर की भौगोलिक स्थिति से परिचित नहीं हैं उनके लिए संभवतः शीर्षक और कवर पृष्ठ को आपस में सम्बद्ध करना कठिन प्रतीत होगा।बंगाल जैसे कला-संस्कृति से समृद्ध व सम्पन्न नगर की और चित्रकार की कला की प्रशंसनीय है।                आत्मकथा साहित्य में शैली ही व्यक्ति है। ‘शैली’ ही (अभिव्यक्ति का तरीका) आत्मकथाकार के व्यक्तित्व को स्पष्ट रूप से उजागर करती है। प्रस्तुत आत्मकथाकार की शैली वर्णनात्मक, सहज, स्वाभाविक आम बातचीत की सुस्पष्ट, प्रभावशाली, प्रभावोत्पादक, रोचक एवं आकर्षित है। ऐसा लगता है जैसे लेखिका अपनी किसी अंतरंग सखि से अपनी नितांत निजी बातें साझा कर रही है। यह  इस आत्मकथा एक बड़ा गुण है। उनकी अनुभूतियाँ अनेक स्थल पर विशेष रूप से पुस्तक के अंत में कविता के रूप में भी प्रस्फुटित हुईं हैं जो उनके भीतर छिपे कवि हृदय होने का भी परिचायक है।                 प्रचार, प्रशंसा या आत्मसंतुष्टि या आत्माभिव्यक्ति ही किसी भी लेखन के उद्देश्य हो सकते हैं। प्रस्तुत आत्मकथा लेखन के उद्देश्य के विषय में यदि बात की जाए तो कहा जा सकता है कि लिखते समय लेखिका के मन में आत्माभिव्यक्ति की भावना की प्रबलता ही परिलक्षित होती है। जिसकी परिणति आत्मशांति में माना जा सकता है। बीमारी के समय गहन नैराश्य में डूबकर अतीत की स्मृतियों को पुनर्जीवित करने के मोह ने लेखिका को आत्मकथा लिखने पर विवश कर दिया। यही कारण है कि अभिव्यक्ति का विस्तार हो गया है किन्तु उसने  भावनाओं की मार्मिकता और रोचकता को प्रभावित नहीं होने दिया है।                                                                                                                   यह रेणु गौरीसरिया के लेखन का प्रथम प्रकाशन है। किसी भी उम्र का लेखन स्वागत योग्य होता है। आशा है कि इस प्रथम प्रकाशन की संतुष्टि उन्हें नई ऊर्जा और आत्मविश्वास से भर देगी और वे  इस क्षेत्र में निरंतर गतिमान रहेगी। अगले संस्करण में उनकी स्मृतियों की कुछ छवियाँ भी जुड़ सकें  तो आनंद की बात होगी। यह मेरा सुझाव है। नए युग के पाठकों और लेखकों के लिए यह आत्मकथा अनेक मायनों में ज्ञान के नए विस्तृत आयाम जोड़ती है जो उस जमाने के लोगों के माध्यम से ही प्राप्य हो सकता है।                                                                                        बढ़ती उम्र में लेखिका की स्मरण क्षमता के साथ लेखकीय क्षमता ने मुझे बहुत अचंभित किया। काश  कि मेरे कोलकाता प्रवास के दौरान ही मेरे हाथ में यह पुस्तक आती तो मैं भाग कर उनके घर और  उन सभी स्थानों पर जाती, देखती और अनुभूतियों को साक्षात महसूस करती जो कुछ भी पुस्तक को पढ़ते समय मैंने महसूस किया। मुझे समीक्षा लिखना नहीं आता और न ही कोई दावा करती हूँ। पर हाँ, इस आत्मकथा ने मुझे लिखने पर विवश किया। यही सच्चाई है। इस आत्मकथा को पढ़ते हुए  जो महसूस किया उसे ही शब्दों में उतारने की कोशिश भर की है। बहुत कुछ बता गई, जीने के गुर सिखा गई और रेणु दी का लिखा कुछ और पढ़ने की प्यास जगा गई यह आत्मकथा। ईश्वर उनकी लेखनी को और सशक्त करे, उन्हें स्वस्थ और आत्मविश्वास से भरपूर सुदृढ़ बनाए रखे। जल्दी ही उनके यात्रा संस्मरण और कोमल अनुभूतियाँ कविताओं के रूप में पढ़ने को मिले, इस कामना के साथ रेणु दी को बहुत सारा सादर प्यार!!

सम्पर्क 

सी-84, केन्द्रीय विहार 1, श्रद्धापुरी 1,

कंकड़खेड़ा, मेरठ

पिन- 250001

मो. 8697993343

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कौन हैं रितु कारिधाल जिन्हें मिली चांद पर चंद्रयान उतारने की जिम्मेदारी

इसरो ने चंद्रयान मिशन-3 की जिम्मेदारी इस बार महिला खगोल वैज्ञानिक रितु कारिधाल को सौंपी है। रितु लखनऊ से ताल्लुक रखती हैं। उन्हें आमतौर पर रॉकेट वुमन ऑफ इंडिया के नाम से जाना जाता है। इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन के लिए 14 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण रहा जब इसरो ने अपना महत्वकांक्षी चंद्रयान मिशन-3 को लॉन्च करने कर दिया । जानकारी के मुताबिक, आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा में स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से चंद्रयान 3 को दोपहर 2.35 बजे चांद की ओर रवाना किया गया । 23 या 24 अगस्त को इसके चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की सतह पर उतरने की उम्मीद है। अभी तक दुनिया के किसी भी देश ने दस्तक नहीं दी है। इस पूरे मिशन की जिम्मेदारी इस बार एक महिला खगोल वैज्ञानिक को सौंपी गई है, जिनका नाम रितु कारिधाल है। आइए जानते हैं इनके बारे में।

लखनऊ की हैं रितु कारिधाल
रितु कारिधाल उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से ताल्लुक रखती हैं। उन्हें आमतौर पर रॉकेट वुमन ऑफ इंडिया के नाम से जाना जाता है। अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम करने के लंबे अनुभव को देखते हुए इसरो ने चंद्रयान-3 का मिशन डायरेक्टर रितु को बनाया है। इससे पहले रितु कारिधाल चंद्रयान-2 समेत कई बड़े अंतरिक्ष मिशनों का हिस्सा रह चुकी हैं। खास बात ये है कि वे उन वैज्ञानिकों में शुमार हैं जिन्होंने इसरो का युवा वैज्ञानिक पुरस्कार जीता था।

स्कूल से एमटेक तक का सफर
लखनऊ के राजाजीपुरम् में रहने वाली रितु कारिधाल ने अपनी शुरुआती पढ़ाई लखनऊ के सेंट एगनिस स्कूल से की थी। इसके बाद उन्होंने नवयुग कन्या विद्यालय से पढ़ाई की। लखनऊ यूनिवर्सिटी में भौतिकी से एमएससी करने के बाद रितु ने एयरोस्पेस इंजीनियरिंग से एमटेक करने के लिए इंडियन इंस्टीट्यूज ऑफ साइंस बैंगलौर का रुख किया। उन्होंने एम टेक पूरा करने के बाद पीएचडी करने का मन बनाया ।

इसरो के लिए छोड़ दी थी पीएचडी

रितु कारिधाल ने कुछ समय तक एक कॉलेज में पार्ट टाइम प्रोफेसर के तौर पर अपनी सेवाएं दी। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, इसी बीच 1997 में उन्होंने इसरो में नौकरी के लिए आवेदन किया। जिसमें उनकी नियुक्ति हो गई। मुश्किल ये थी कि नौकरी के लिए पीएचडी छोड़नी थी, जिसके लिए वह राजी नहीं थी। जिन प्रोफेसर मनीषा गुप्ता की गाइडेंस वे पीएचडी कर रहीं थीं जब उन्हें ये पता चला तो उन्होंने रितु को इसरो ज्वॉइन करने के लिए प्रोत्साहित किया।

युवा वैज्ञानिक का मिला पुरस्कार

रितु कारिधाल को पहली पोस्टिंग यू आर राव सेटेलाइट सेंटर में मिली थी। यहां उनकी परफॉर्मेंस ने सबको प्रभावित किया। 2007 में उन्हें इसरो युवा वैज्ञानिक का पुरस्कार मिला। ये वो दौर था जब मंगलयान मिशन पर काम शुरू होने वाला था। एक इंटरव्यू में रितु कारिधाल ने बताया था कि ‘अचानक ही मुझे बताया कि अब मैं मंगलयान मिशन का हिस्सा हूं, ये मेरे लिए शॉकिंग था, लेकिन उत्साहजनक भी था, क्योंकि मैं एक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट का हिस्सा बनी थी।’

चंद्रयान-2 की रहीं मिशन डायरेक्टर
बता दें कि चंद्रयान-2 की मिशन डायरेक्टर भी रितु कारिधाल रह चुकी हैं। उनके अनुभव को देखते हुए साल 2020 में इसरो ने तय कर लिया था कि मिशन चंद्रयान-3 की कमान रितु के हाथ में ही सौंपी जाएगी। इस मिशन के प्रोजेक्ट डायरेक्टर पी वीरामुथुवेल हैं। इसके अलावा चंद्रयान-2 मिशन की प्रोजेक्ट डायरेक्टर रहीं एम वनिता को इस मिशन में डिप्टी डायरेक्टर की जिम्मेदारी दी गई है जो पेलॉड, डाटा मैनेजमेंट का काम संभाल रही हैं।

45 दिन अंतरिक्ष में रहेगा चंद्रयान-3
गौरतलब है कि चंद्रयान-3 की लॉन्चिंग 14 जुलाई को हुई । जिसके बाद चंद्रयान-3 करीब 45 दिन का समय अंतरिक्ष में गुजारेगा। इस दौरान वह LVM-3 रॉकेट से अंतरिक्ष में सफर करेगा। इस पूरे मिशन की खास बात ये है कि इस बार चंद्रयान-3 में ऑर्बिटर नहीं भेजा जा रहा है। इस बार चंद्रयान-3 के साथ देश में तैयार किए गए प्रोपल्शन मॉड्यूल भेजे जा रहे हैं, जो लैंडर और रोवर को चंद्रमा की कक्षा तक लेकर जाएगा। चंद्रयान-3 अपने साथ कुल वजन 2145.01 किलोग्राम वजन लेकर जा रहा है, जिसमें 1696.39 किलोग्राम फ्यूल है।