Tuesday, September 16, 2025
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माँ पर मुनव्वर राणा की 2 कविताएं

munnavar anaकविता -1

हँसते हुए माँ बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते

हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं
सगी है या कि सौतेली है माँ बच्चे समझते हैं

हवा दुखों की जब आई कभी ख़िज़ाँ की तरह
मुझे छुपा लिया मिट्टी ने मेरी माँ की तरह

सिसकियाँ उसकी न देखी गईं मुझसे ‘राना’
रो पड़ा मैं भी उसे पहली कमाई देते

सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

भेजे गए फ़रिश्ते हमारे बचाव को
जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

तार पर बैठी हुई चिड़ियों को सोता देख कर
फ़र्श पर सोता हुआ बेटा बहुत अच्छा लगा

K. Prahalad-painting-of-child

कविता – 2

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं

अभी मस्जिद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं

कभी —कभी मुझे यूँ भी अज़ाँ बुलाती है
शरीर बच्चे को जिस तरह माँ बुलाती है

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ

मेरा खुलूस तो पूरब के गाँव जैसा है
सुलूक दुनिया का सौतेली माओं जैसा है

रौशनी देती हुई सब लालटेनें बुझ गईं
ख़त नहीं आया जो बेटों का तो माएँ बुझ गईं

वो मैला—सा बोसीदा—सा आँचल नहीं देखा
बरसों हुए हमने कोई पीपल नहीं देखा

काबुलीवाला 

tagore
रवींद्रनाथ टैगोर

 

मेरी पाँच वर्ष की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया होगा। उसके बाद से जितनी देर तक सो नहीं पाती है, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डाँट-फटकारकर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती है; किन्तु मुझसे ऐसा नहीं होता। मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है, कि मुझसे वह अधिक देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहता है।

सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्तरहवें अध्‍याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया, ”बाबूजी! रामदयाल दरबान कल ‘काक’ को कौआ कहता था। वह कुछ जानता ही नहीं, न बाबूजी?”

विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया, ”बाबूजी! भोला कहता था आकाश मुँह से पानी फेंकता है, इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।”

इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख कर, चट से धीमे स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी, “बाबूजी, माँ तुम्हारी कौन लगती है?”

मन ही मन में मैंने कहा – साली और फिर बोला, ”मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।”

तब उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुंह चलाकर ‘अटकन-बटकन दही चटाके’ कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्‍याय में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार में बन्दीगृह के ऊंचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।

मेरा घर सड़क के किनारे पर था, सहसा मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ”काबुलवाला, ओ काबुलवाला।”

मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बाँधे कन्धे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाए, हाथ में चमन के अंगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए यह बताना असम्भव है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कन्धे पर डाले, सर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्सतरहवाँ अध्‍याय आज अधूरा रह जाएगा।

किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा; त्यों ही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई। उसके छोटे-से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अन्दर ढूँढ़ने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्चियाँ निकल सकती हैं।

इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, वास्तव में प्रतापसिंह और कंचनमाला की दशा अत्यन्त संकटापन्न है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।

कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। खुद रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।

अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा, ”बाबूजी, आपकी बच्ची कहाँ गई?”

मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देना चाहा, पर उसने नहीं लिया और दुगुने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस प्रकार हुआ।

इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था। देखूँ तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी हुई काबुली से हँस-हँसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता है। मिनी को अपने पाँच वर्ष के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धैर्यवाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखा तो, उसका फिराक का अग्रभाग बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, ”इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना।” कहकर कुर्ते की जेब  से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली।

कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूं तो उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।

मिनी की माँ एक सफेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए डाँट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी, ”तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?”

मिनी ने कहा, ”काबुल वाले ने दी है।”

”काबुल वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?”

मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा, ”मैंने माँगी नहीं थी, उसने आप ही दी है।”

मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।

मालूम हुआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो बात नहीं। इस दौरान में वह रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से हृदय पर बहुत अधिकार कर लिया है।

देखा कि इस नई मित्रता में बँधी हुई बातें और हँसी ही प्रचलित है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसती हुई पूछती, ”काबुल वाला, ओ काबुल वाला, तुम्हारी झोली के भीतर क्या है? काबुली, जिसका नाम रहमत था, एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ उत्तर देता, ”हाँ बिटिया उसके परिहास का रहस्य क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।

उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता, ”तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?”

हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही ‘ससुराल’ शब्द से परिचित रहती हैं; किन्तु हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाती थी; इस पर भी किसी बात का उत्तर दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुद्ध था। उलटे, वह रहमत से ही पूछती, ”तुम ससुराल जाओगे?”

रहमत काल्पनिक श्वसुर के लिए अपना जबर्दस्त घूँसा तानकर कहता,  ”हम ससुर को मारेगा।”

सुनकर मिनी ‘ससुर’ नामक किसी अनजाने जीव की दुरवस्था की कल्पना करके खूब हँसती।

देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गई। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन ब्रह्माण्ड में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूँ, बाहरी ब्रह्माण्ड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता है। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।

इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सवेरे के समय अपने छोटे- से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण का काम निकाल लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़खाबड़, लाल-लाल ऊँचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे हुए ऊँटों की कतार जा रही है। ऊँचे-ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। किन्हीं के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।

मिनी की माँ बड़ी वहमी तबीयत की है। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं। उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया,तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।

रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं उसके शक को परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती, ”क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे का उठा ले जाना असम्भव है?” इत्यादि।

मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितान्त असम्भव हो सो बात नहीं पर भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सबमें समान नहीं होती, अत: मिनी की माँ के मन में भय ही रह गया लेकिन केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।

हर वर्ष रहमत माघ मास में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है,  फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती है। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के मध्य किसी षड्यंत्र का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूँ तो वह संध्या को हाजिर है। अँधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता है।

लेकिन, जब देखता हूं कि मिनी ‘ओ काबुल वाला’ पुकारती हुई हँसती-हँसती दौड़ी आती है और दो भिन्न-भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।

एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा, विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय राह में एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।

देखूँ तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशाई बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के ढीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा, ”क्या बात है?”

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपए उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।

रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में ”काबुल वाला! ओ काबुल वाला!” पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।

रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी। अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते के साथ ही उसने पूछा, ”तुम ससुराल जाओगे।”

रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा, ”हां, वहीं तो जा रहा हूं।”

रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा, ”ससुर को मारता, पर क्या करूँ, हाथ बँधे हुए हैं।”

छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।

रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धंधों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इन्सान कारागार की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं।

और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी वयोवृध्दि होने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगीं और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।

कितने ही वर्ष बीत गये। वर्षों बाद आज फिर शरद ऋतु आई है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी माँ-बाप के घर में अँधेरा करके ससुराल चली जाएगी।

सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की सँकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईंटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।

हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।

सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का ताँता बँधा हुआ है। आँगन में बाँसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़फानूस लटकाए जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। ‘चलो रे’, ‘जल्दी करो’, ‘इधर आओ’ की तो कोई गिनती ही नहीं है।

मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।

मैंने पूछा, ”क्यों रहमत, कब आए?”

उसने कहा, ”कल शाम को जेल से छूटा हूँ।”

सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आँखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया। मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो।

मैंने उससे कहा, ”आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूं। आज तुम जाओ, फिर आना।”

मेरी बात सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया। पर द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला, ”क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?”

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह ‘काबुल वाला, ओ काबुल वाला’ पुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी? यहाँ तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग-ताँगकर लेता आया था। उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।

मैंने कहा, ”आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी।”

मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।

मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा तो वह स्वयं ही आ रहा है।

वह पास आकर बोला, ”ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।”

मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, ”आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।” तनिक रुककर फिर बोला- ”बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।”

कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तहें खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उस अवस्था में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला, ”लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?”

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल हो उठे। उसने मुँह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जब रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन में एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।

मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।

मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, ”रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।”

रहमत को रुपए देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छाँटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।

 

‘साहित्यिकी’ पत्रिका को बिना पढ़े महसूस किया जा सकता है’

महानगर की संस्था साहित्यिकी की ओर से बुधवार की शाम भारतीय भाषा परिषद् सभागार में’साहित्यिकी’ पत्रिका के 25 वें अंक-‘सुलझे-अनसुलझे प्रसंग-(संपादक:सुषमा हंस,रेशमी पांडा मुखर्जी) की समीक्षा पर केंद्रित एक संगोष्ठी आयोजित की गयी।किरण सिपानी के स्वागत भाषण से गोष्ठी का समारंभ हुआ।संस्था द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित प्रत्रिका के प्रयास   की सराहना करते हुए डॉ इतु सिंह ने कहा  कि इस पत्रिका की  सबसे बड़ी खासियत है कि इसे बिना पढ़े महसूस किया जा सकता है।उन्होंने  कहा कि एक पृष्ठ में बात कहना बड़ी बात  है-यह गृहणियों की विशेषता है।विविधवर्णी पत्रिका  में राजनीति और व्यंग को भी स्थान मिलता तो बेहतर होता।

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डॉ आशुतोष  ने इस अनूठे प्रयास किसरहन करते हुE कहा कि 49 पन्नों की पत्रिका में कहीं भी बनावटीपन नहीं है,प्रमाणिकता है,अनुभवों का ताप है।कुछ रचनाओं के शिल्प और विषय की प्रशंसा करता हुए उन्होंने महत्वपूर्ण सुझाव दिए। सुषमा हंस ने संपादन के सन्दर्भ में अपने अनुभव,समस्याओं और सदस्याओं से मिले सहयोग पर अपना विस्तृत वक्तव्य रखा।अध्यक्षीय वक्तव्य में कुसुम जैन ने कहा कि संस्था’एकला चलो रे’ के सिद्धान्त में विश्वास नहीं रखती।मिलकर चलना-लिखना-पढ़ना हमारी ताकत है। संगोष्ठी का सञ्चालन विद्या भंडारी ने किया।

 

ये हैं सिंगल मदर वीरा, दिव्यांग बच्ची को दी नयी जिंदगी

लखनऊ की लोकप्रिय रेडियो जॉकी रहीं वीरा सिंगल मॉम बनकर नई मिसाल कायम कर रही हैं। एक तरफ वो बेटी के रूप में अपनी बूढ़ी मां की देखभाल करती हैं, वहीं दूसरी तरफ वो अपनी गोद ली हुई बेटी का ध्यान रखती हैं। वीरा ने अब तक शादी नहीं की है और न करना चाहती हैं। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अब बेटी वसु के नाम कर दी है।

दिव्यांग बच्ची थी वसु, वीरा ने दी नई जिंदगी…

वीरा बताती हैं, “मैंने वसु को वरदान शिशु केंद्र से अडॉप्ट किया था। तब वो महज 10 महीने की थी। वसु नॉर्मल बच्ची नहीं थी। उसका सिर एवरेज बच्चे से काफी बड़ा था।””डॉक्टर्स का कहना था कि वसु के सिर में फ्लूइड भरा है। इसी वजह से उसकी ग्रोथ नॉर्मल बच्चों जैसी नहीं थी। वह दिनभर लेटी रहती थी। न बैठ पाती थी, न पलट पाती थी। उंगलियां चलाने में भी उसे दिक्कत होती थी,” वीरा ने बताया। अक्सर जब लोग बच्चे अडॉप्ट करने जाते हैं तो वे बच्चों की खूबसूरती से आकर्षित होते हैं। वीरा ने खूबसूरती से पहले जरूरत को अहमियत दी।  वीरा बताती हैं, “वसु को अडॉप्शन से पहले कई लोगों ने रिजेक्ट किया। उसे पहली ही नजर में देखकर मुझे लगा कि यही मेरे दिल का टुकड़ा है। मैंने उसका इलाज अच्छे डॉक्टर्स के पास करवाया और अब वो पूरी तरह नॉर्मल है।”

दे रही हैं बेहतर जिंदगी

वीरा अपनी बेटी को लखनऊ के प्रतिष्ठित स्कूलों में शुमार ला मार्टीनियर स्कूल में पढ़ा रही हैं। 5 साल की वसु अपर प्रेप में पढ़ती है। वीरा अपना अधिकतर समय अपनी बेटी के साथ बिताती हैं।

इसलिए नहीं की शादी

वीरा ठाकुर परिवार से ताल्लुक रखती हैं।शादी न करने के डिसीजन के बारे में वीरा ने बताया, “कोई ऐसा मिला ही नहीं जो वीरा से प्यार करे।”
– “छोटी उम्र में ही मेरे सिर से पिता का साया उठ गया था। मेरी मां ने मुझे पाल कर बड़ा किया। जब शादी का समय आया तो मेरी मां ने एक से बढ़कर एक रिश्ते देखे, लेकिन सभी मुझसे ज्यादा दहेज को प्यार करते थे।” वीरा का मानना है कि जब लड़की शादी करके लड़के के घर जा रही है तो दहेज की क्या जरूरत, लड़की ही काफी होना चाहिए।  उनकी इसी सोच ने उनका शादी के बंधन से विश्वास उठा दिया। वीरा ने कहा, “दहेज़ की डिमांड की वजह से मैंने शादी से इंकार कर दिया। ठाकुरों में बेटी से ज्यादा दहेज़ को वरीयता दी जाती है।”

घर बसाने के लिए शादी नहीं है ज़रूरी

वीरा कहती हैं हर लड़की को इस ग़लतफहमी से बाहर आ जाना चाहिए की घर बसने के लिए शादी की ज़रूरत होती है। “मैं वसु और अपनी मां के साथ खुश हूं। क्या मेरा घर बसा हुआ नहीं है?”  वीरा ने कहा, “फरहान अख्तर, ऋतिक रोशन जैसे सितारों ने शादी के बाद लंबा समय अपने पार्टनर्स के साथ बिताया। एक दम से उन्हें महसूस हुआ कि वो एक दूसरे के लिए नहीं बने हैं। जो एक दूसरे को जितना बर्दाश्त करता है, उसका रिश्ता उतना ही लंबा चलता है। यह एक तरह का कॉम्प्रोमाइज ही है।”

 

ये हैं देश की तेजतर्रार आईपीएस मॉम

पानीपत./शिमला. हिमाचल के सोलन की एसपी अंजुम आरा की गिनती तेज-तर्रार IPS ऑफिसरों में की जाती है। उनकी छवि एक सख्त लेडी आईपीएस अफसर की है। बता दें कि अंजुम कानून व्यवस्था के साथ-साथ एक मां की जिम्मेदारी भी बखूबी निभा रही हैं। वे एक नन्हें बच्चे की मां है। ड्यूटी के साथ 2 साल के अपने बच्चे अरहान का ख्याल रखना चुनौती भरा काम है, लेकिन वो दोनों कामों में सामंजस्य बिठा लेती हैं।

अंजुम कहती हैं, एक एसपी की ड्यूटी के साथ अपने छोटे बच्चे के लिए वक्त निकालना मुश्किल होता है।  कई बार इसका बुरा भी लगता है, लेकिन हमेशा कोशिश रहती है कि ड्यूटी और मां की जिम्मेदारियों में सामंजस्य बनाए रखें।  उनका संदेश है कि लोगों को बेटा-बेटी को समान समझकर उनका भविष्य निर्माण करना चाहिए।  लड़कियों को भी पढ़ लिख कर आगे बढ़ने का मौका दिया जाना चाहिए।  लड़कियां किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़कर अपने माता-पिता का नाम रोशन कर सकती हैं।

इसलिए पुलिस सेवा को बनाया करियर
अंजुम आरा को देश की दूसरी महिला आईपीएस बनने का गौरव प्राप्त है। सोलन जिला की वह पहली महिला एसपी हैं।  वह लोगों के साथ सीधे संपर्क को समाज सेवा का बड़ा साधन मानती हैं। पुरुष प्रधान समाज की मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने पुलिस सेवा को चुना। अपनी इसी सोच और पुलिस वर्दी के प्रति आकर्षण ने ही उन्हें आईपीएस तक पहुंचाया। वे हिमाचल में सोलन जैसे बॉर्डर से जुड़े अति संवेदनशील जिला की कानून व्यवस्था संभाले हुए हैं।  उत्तर प्रदेश की लखनऊ से संबंध रखने वाली अंजुम 2011 बैच की आईपीएस अधिकारी हैं।priti chandra

डर की दहलीज से आईपीएस की मंजिल तक पहुंचाया : प्रीति चंद्रा

मेरी मां ने तो कभी हाथ में पेंसिल भी नहीं पकड़ी थी। लेकिन जिद की हम दो बहनों और एक भाई को पढ़ाने की। कॉलेज में आई तो रिलेटिव ने शादी का दबाव डालना शुरू किया। लेकिन मां चट्टान बनकर उनको डटकर जवाब देतीं। वो मुझ पर इतना भरोसा करती थीं कि जब घर से तीन किमी दूर खेतों में काम करने जातीं तो अक्सर घर की चाबियां वहीं भूल आती थीं। रास्ते में श्मशान पड़ता था। और बड़े भाई के होते हुए भी रात को 8 बजे मुझसे कहती जाओ, भागकर चाबियां लेकर आओ। बस इसी विश्वास ने मुझे आईपीएस ऑफिसर बनाया। हम दोनों बहनों ने इंटर कास्ट मैरिज की लेकिन वो हमारे सपोर्ट में खड़ी रहीं।

चैलेंजिंग कॅरिअर में सपोर्ट सिस्टम न हो तो चुनौतियां बढ़ जाती हैं। पति विकास पाठक के अलावा मेरे गांव की एक 22 साल की लड़की मेरा सपोर्ट सिस्टम है। आर्थिक स्थिति कमजोर होने की वजह से गांव में वो पढ़ नहीं सकती थी। इसलिए मैंने उसकी पढ़ाई से लेकर शादी का जिम्मा उठाया है। वो मेरी बड़ी बेटी की तरह है और जब मुझे कई दिन तक टूर पर जाना पड़ता है तो वो मेरे घर और बेटी का ध्यान रखती है। मैं भी अपनी बेटी को सिर्फ आजादी देना चाहती हूं जिससे वो बिना सरहदों के आसमां में पंख फैला सके।

 

 

मेकअप से छिपाएं चेहरे के तिल

चेहरे पर मौजूद तिल कई लोग पसंद नहीं करते और तिल सही जगह पर न हों तो खूबसूरती बिगाड़ भी देते हैं। लड़कियां और महिलाएं अपनी सुंदरता को लेकर बहुत सजग होती हैं और उन्हें कोई भी ऐसी चीज पसंद नहीं होती जो उनके लुक को थोड़ा सा भी खराब करे।

ऐसा ही हाल होता है शरीर में मौजूद तिल का कुछ लोग तो इन्हें ब्यूटी मार्क मानते हैं वहीं दूसरी ओर कुछ को तो ये बिल्कुल पसंद नहीं होते। ऐसे में आसान से मेकअप ट्रिक्स की मदद से इन्हें छुपाया जा सकता है…

– मेकअप करने से पहले चेहरे को अच्छी तरह धो लें और रूई में थोड़ा टोनर लेकर चेहरे और गरदन पर लगाएं. टोनिंग से आपका मेकअप अधिक देर तक टिकेगा क्योंकि यह आपकी त्वचा को शुष्क रखता है।
– तिलों को छिपाने के लिए ऑयल फ्री फाउंडेशन लें और अपनी प्राकृतिक त्वचा के रंग से हल्के रंग चुनें। यह तिल को छिपाने में बहुत मददगार साबित होता है। अपनी त्वचा पर समान रूप से फाउंडेशन लगाएं और इस बात का ध्यान रखें कि तिल छिप जाए।
– कंसीलर तिल छिपाने के सबसे पुराने और सरल मेकअप टिप्स में से एक है। कंसीलर का उपयोग करके आप अपने चेहरे के लगभग सभी काले धब्बे, तिल या निशान छिपा सकते हैं. लेकिन, इस बात का ध्यान रखें कि फाउंडेशन और कंसीलर का रंग एक जैसा होना चाहिए।
– अगर आप बहुत अच्छा परिणाम चाहती हैं तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि कंसीलर और फाउंडेशन अच्छी तरह से मिलाए जाएं। अगर आप कंसीलर की दो परतें लगा रही हैं तो दूसरी परत लगाने से पहले थोड़ा पाउडर लगाएं। 
– पहले कंसीलर केवल दो रंगों में उपलब्ध होते थे लेकिन, अब हरे, लैवेंडर और यहां तक कि पीले कंसीलर भी उपलब्ध हैं जो प्रभावशाली तरीके से आपके तिलों को छिपाने में मदद करते हैं।
– क्रीम कंसीलर की एक बूंद के साथ, आप अपने चेहरे पर जादू कर सकते हैं। यह तिल को प्रभावी ढंग से छिपाएगा, चाहे वह कितना ही काला क्यों न हो।

 

अगर ब्वॉयफ्रेंड को पापा से मिलवाने जा रही हैं

अगर आज से 4 या 5 साल पहले अगर यह बात की जाती तो शायद यह सरासर बदतमीजी कही जाती। माना कि आप किसी को पसंद करती हैं और शादी का इरादा भी रखती हैं मगर इतनी हिम्मत तो लड़कियों में ही नहीं अक्सर लड़कों में भी नहीं होती (सच मानिए, आज भी नहीं होती) कि मम्मी और खासकर पापा को जाकर यह कहें कि लो जी, यह रहा जिसे मैने चुन लिया (यह सब फिल्मों में ही होता है। गाने भले ही हीरो हीरोइन को शॉर्ट स्कर्ट में पहननाकर गाए मगर मम्मी से मिलने जाना है तो साड़ी और वह फिर सिर पर पल्ला रखकर पहननी होगी)। यह यही है कि समय के साथ आपके माता-पिता भी बदले हैं। उनकी सोच में भी बदलाव आया है और अब वो अपने बच्चों की सोच और उनकी पसंद को भी अपनाने लगे हैं मगर अब यह मोर्चा सम्भालना इतना आसान नहीं है। जबकि कुछ सालों पहले तक उन्हें ये सुनना भी अच्छा नहीं लगता था कि उनकी बेटी या बेटे ने किसी को अपने लिए चुना है।

अगर आपके पैरेंट्स आपके लिए इतना बदल सकते हैं तो ये आपका फर्ज बनता है कि आप उन्हें अपने हर फैसले में शामिल करें। आप उन्हें अपनी बात समझाने की कोशिश करें कि क्यों वो लड़का या वो लड़की आपके लिए सही है और यकीन मानिए वो आपकी बात जरूर समझेगें। यूं तो मम्मी-पापा को ब्वॉयफ्रेंड के बारे में बताना थोड़ा मुश्क‍िल है लेकिन कुछ छिपाने से बेहतर है कि आप सच बोलें।

अब अगर आपने घर में ब्वॉयफ्रेंड के बारे में बता ही दिया है और उसे अपने पापा से मिलवाने ले जा रही हैं तो कुछ बातों के लिए पहले से ही तैयार हो जाइए. हो सकता है आपको भी उस दौरान उन परिस्थितियों का सामना करना पड़े जिससे ज्यादातर लड़कियां गुजरती हैं:

  1. आपके पापा और ब्वॉयफ्रेंड आमने-सामने बैठे हैं लेकिन दोनों में से कोई कुछ बोल ही नहीं रहा. दोनों बस मुस्कुराए जा रहे हैं।
  1. पापा का इतना सपाट चेहरा आपने पहले कभी नहीं देखा होगा।
  2. दोनों के बीच बातचीत शुरू हो इसलिए आपको ही पहल करनी होगी लेकिन संतुलन बनाकर। हो सकता है दोनों में से किसी एक को ये लग जाए कि आप उस पर ध्यान नहीं दे रहीं।
  3. आपके पापा का पहला सवाल कल के बारे में क्या सोचा है? जबकि आपने अभी तो सिर्फ शादी करने का ही सोच रखा है।
  4. हो सकता है आपके पापा को आपकी पसंद अच्छी लग जाए और वो पूछ बैठें किशादी कब करना चाहते हो?
  5. तुम दोनों कब मिले? कैसे मिले? आपके पापा ये जरूर जानना चाहेंगे।
  6. ज्यादातर घरों ये सवाल मांएं करती हैं वो एकदम से पूछ बैठती हैं कि बेटा! तुम कमाते कितना हो?
  7. जो भी बोलें और और जो भी करें, उनको विश्वास में लेकर ही करें और तभी आपके प्यार की सच्ची जीत है।

नेत्रहीन बेटे को मां ने टेपरिकार्डर से पढ़ाया,  आईआईएम में पढ़ा बनाया अफसर

बिलासपुर.अपने बेटे करन की आंखों की रोशनी चले जाने पर भी छत्तीसगढ़ के कोरबा की अंजू सिंघानिया ने हौंसला नहीं खोया। करन को पढ़ाने पहले खुद सबक पढ़े, फिर टेपरिकॉर्डर पर रिकॉर्ड कर उसे पढ़ाए। एक मां की मेहनत का नतीजा है कि करन सिंघानिया ने डिसीबिएलिटी के बावजूद आईआईएम अहमदाबाद से 2015 में डिग्री ली और अब नामी कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर बना।

मां ने ठाना, बेटे ने कर दिखाया
अंजु के मुताबिक करन की बीमारी मेरे जीवन में सबसे बड़ा झटका थी। मैंने ठाना कि करन को मैं पढ़ाकर ही रहूंगी। खुद पढ़ाई की और उसे भी पढ़ाया। करन की लगन और पति के सहयोग से कोई भी कमी किसी लक्ष्य को हासिल करने में बाधा नहीं बन सकती। करन का स्कूल में टॉप आना फिर श्रीराम कॉलेज में सिलेक्नशन, आईआईएम से पासआऊट होना और एयरटेल जैसा इंडियन मल्टीनेशनल में मैनेजर बनना जैसी कामयाबी एक मां की मेहनत का ही नतीजा है। गुरुवार को कंपनी ने उसे दो महीने की ट्रेनिंग पर साउथ अफ्रीका भेजा है।karan-singhaniya3_1462649aanju

स्कूल ने दाखिला देने से कर दिया था मना

अंजू के पति राजेन्द्र सिंघानिया गेवरा में किराना दुकान चलाते हैं। दो बेटों में करन बड़ा है। पढ़ने में शुरुआत से ही तेज करन दसवीं में मेरिट में आया था। रेटीना पिग्मेंटोसा नाम की बीमारी के कारण आंखों की रोशनी कम होते चली गई। डीएवी स्कूल गेवरा ने उसे अगली क्लास में एडमिशन नहीं दिया। तब अंजु ने ठान लिया कि वह अपने बेटे को घर पर ही पढ़ाएगी। करन ने भी मेहनत की। एनटीपीसी में इंजीनियर मुकेश जैन जो दृष्टिहीन हैं, उन्होंने इनका समय-समय पर मार्गदर्शन किया। अच्छा रिजल्ट आने पर डीएवी ने भूल सुधार कर करन को एडमिशन दिया। 12वीं में टाॅप करने पर उसका सिलेक्नशन श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स में हुआ। यहां से पढ़कर वह आईआईएम में भी सिलेक्ट हुआ। करन की पढ़ाई के लिए अंजु अपने छोटे बेटे अनमोल को लेकर 6 साल पहले दिल्ली गईं, फिर अहमदाबाद और अब गुड़गांव में वह करन के साथ-साथ हैं।karan-singhaniya4_14

आईआईएम में पहली बार मिला दृष्टिहीन को प्रवेश

करन का सिलेक्शन आईआईएम अहमदाबाद में हुआ और उसने 2015 में पढ़ाई पूरी की।100 साल के इतिहास में पहली बार किसी दृष्टिहीन को आईआईएम में एडमिशन का यह पहला मामला था। आईआईएम में चयन से पहले करन ने दिल्ली श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स में पढ़ाई की। करन का कहना है कि मम्मी का जज्बा और संघर्ष ही है कि वह तक पहुंचा है।

 

काबुलीवाला

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  • रवीन्द्रनाथ टैगोर

मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, “बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।” मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। “देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?” और फिर वह खेल में लग गई।

मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!”

कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।

काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, “बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?”

मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, “इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।” फिर मैं बाहर चला गया।

कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।

काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?”

रहमत हँसता हुआ कहता, “हाथी।” फिर वह मिनी से कहता, “तुम ससुराल कब जाओगी?”

इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, “तुम ससुराल कब जाओगे?”

रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, “हम ससुर को मारेगा।” इस पर मिनी खूब हँसती।

हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।

एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।

इतने में “काबुलीवाले, काबुलीवाले”, कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ”तुम ससुराल जाओगे?” रहमत ने हँसकर कहा, “हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।”

रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, “ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।”

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।

काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।

कई साल बीत गए।

आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।

मैंने पूछा, “क्यों रहमत कब आए?”

“कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ,” उसने बताया।

मैंने उससे कहा, “आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।”

वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, “ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?”

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले” चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, “आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।”

वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।

मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “‘यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।”

मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, ‘आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।’ फिर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।”

उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, “लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?”

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।

मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद में खो गया।

मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, “रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।”

 

काम और घर के बीच रखें सही तालमेल

आज के वक्‍त में काम और घर संभालने का जिम्‍मा आपके कंधों पर आता है. इस काम को परफेक्‍शन के साथ करने के लिए जानें  आसान तरीके.

  1. खुद के साथ बैठे:काम और घर की जिम्‍मेदारियों के बीच जीवन कश्‍ती की कश्‍ती गोते न खाने लगे, इसके लिए जरूरी है अपने लिए समय निकालें. खुद को वक्‍त दें। पूरे दिन में 30 मिनट ही सही, मगर अपने साथ बैठें और खुद के बारे में सोचें।
  2. खुद को मत मानें गुनहगार:कभी काम के बीच संतुलन नहीं बन पाए तो इसके लिए खुद को जिम्‍मेदार नहीं माने। कई बार होता है कि काम के चक्कर में महिलाएं बच्चों को पूरा वक्त नहीं दे पाती हैं और इसके लिए खुद को अपराधी मानती हैं। इस सोच से बचें और हम चीज के लिए ईमानदार कोशिश करें।
  3. परवरिश के नए तरीके अपनाएं:परिवार के प्रति जिम्‍मेदारी को निभाने के लिए यह एक अच्‍छा तरीका है कि अपने बच्‍चों के लिए अनुभवी आया रखें। बच्‍चा बड़ा है तो उसे बेस्‍ट डे केयर में भेंजे. बस इस बात का ध्‍यान रखें कि आपके बच्‍चे के लिए क्‍या सही है. इसका चुनाव आपको समझदारी से करना है। कई बार ऐसा होता है कि हम काम को कम करने के लिए सहायक रखते हैं और उसे काम सही से नहीं आने के चलते काम पहले से ज्‍यादा बढ़ जाता है.
  4. सुबह को बनाएं आसान:सुबह कितनी भी जल्‍दी करो, लेकिन सुपरवुमेन बनना ही पड़ जाता है. बेशक सुपरवुमेन बनने में कोई बुराई नहीं लेकिन जरूरी है सारे काम भी सही तरीके से हों इसलिए रात में ही सुबह के कई कामों को पूरा कर लें. मसलन ड्रेस तैयार करना, सब्जी काटकर रखना, मोबाइल चार्ज करना. ऐसा करने से आपकी सुबह की टेंशन कम हो जाएगी।
  1. ऑफिस में बनाएं अच्‍छे रिश्ते ऑफिस के लोगों के साथ अपने रिश्ते अच्‍छे रखें। इससे आप ऑफिस के माहौल में बेहतर महसूस करती हैं। कई बार आपके साथ काम करने वाले ही आपके सबसे बड़े सपार्ट सिस्‍टम बनते हैं।
  2. ऑफिस के टाइम रहें घर से कनेक्‍ट:ऑफिस टाइम में घर के लोगों से फोन पर कनेक्‍ट रहिए. लेकिन इस बात का ध्‍यान रहे कि पूरा ऑफिस घर मत लेते आइए।
  3. कुछ खास करें: कामकाजी होने के बाद घर में आप बहुत समय नहीं दे पाती हैं। ऐसे में छुट्टी के दिन परिवार के साथ आउटिंग जाने का प्‍लान बनाएं. इस तरह आप अपने समय का सही इस्तेमाल कर सकेंगी।
  4. पार्टनर के साथ बिताएं समय:घर और काम इन दोनों चीजों में तालमेल तभी बनता है जब आपकी और आपके पार्टनर के बीच अच्‍छी ट्यूनिंग हो। ऐसे में आपस में वक्‍त बिताना कभी नहीं भूलें।