Saturday, September 20, 2025
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68 साल पहले की वो कहानी…जब कुंवारों और शादीशुदा के लिए था अलग टैक्स

 सरकार के बजट में आम लोगों के लिए कई घोषणाएं होती हैं। मिडिल क्‍लास के लोगों को सबसे ज्‍यादा इंतजार इनकम टैक्‍स की घोषणाओं का होता है। आजाद भारत के पहले बजट से लेकर और 2023 के बजट तक तमाम सरकारों ने कई तरह के प्रयोग किए हैं। ऐसी ही एक घोषणा करीब 68 साल पहले की गई थी। इस अनोखी घोषणा ने कुंवारे लोगों का बजट बिगड़ा कर रख दिया था। टैक्स स्लैब की वजह से कुंवारे लोगों पर आर्थिक बोझ बढ़ गया था।
जब कुंवारे लोगों पर बढ़ा गया था टैक्‍स का बोझ – बजट का ये दिलचस्‍प किस्‍सा साल 1955-56 के लिए पेश हुए बजट का है। केंद्र में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व की सरकार थी और वित्‍त मंत्री के पद पर चिंतामन द्वारकानाथ देशमुख थी। जिन्‍हें सी डी देशमुख के नाम से भी जाना जाता है। तत्‍कालीन वित्‍त मंत्री ने बजट में घोषणा की थी कि शादीशुदा और अविवाहितों के लिए अलग-अलग टैक्‍स स्‍लैब रहेगा। सरकार की इस अनोखी घोषणा ने सबको हैरान कर दिया था। सरकार की इस घोषणा के बाद कुंवारे लोगों पर टैक्‍स का बोझ बढ़ गया था। सरकार ने उस वक्त शादीशुदा लोगों के लिए मौजूदा टैक्‍स एक्‍जेम्‍प्‍ट स्‍लैब बढ़ाकर 2,000 रुपये कर दिया गया था जो 1,500 रुपए था और अविवाहितों के लिए इसे घटाकर 1,000 रुपए कर दिया गया था।
सरकार ने यह टैक्‍स स्‍लैब योजना आयोग की सिफारिश पर लागू किया था। भारत में शादीशुदा लोगों और कुंवारे लोगों के लिए पहली बार इस तरह की घोषणा की गई थी। 1955-56 के बजट में पहली बार हिंदी वर्जन भी लाया गया था। इसके बाद से ही एनुअल फाइनेंशियल स्‍टेटमेंट का हिंदी वर्जन और एक्‍सप्‍लेनेटरी मेमोरेंडम सर्कुलेट किया जाता है।
1955-56 में क्या था टैक्स स्लैब –  1955-56 में आए बजट के टैक्‍स स्‍लैब की बात करें तो शादीशुदा लोगों को 0 से 2,000 रुपए की कमाई पर कोई टैक्‍स नहीं था। 2,001 से 5,000 रुपये की कमाई पर 9 पाई टैक्स के रूप में देना होता था। कुंवारे लोगों की बात करें तो 0 से 1,000 रुपए की कमाई तक कोई टैक्‍स नहीं लगता था। वहीं, 1001 रुपए से 5,000 रुपये की कमाई पर 9 पाई टैक्‍स के रूप में देने पड़ते थे।

स्वाद गली : पहलवान ने गलती से बनाई डोडा बर्फी, काजू कतली कैसे बनी

अगर पूछा जाए कि सैकड़ों साल पहले भी कौन सी मिठाई हिट थी और आज भी हिट है, तो उसमें बरफी का नाम सबसे ऊपर होगा। आप मिठाई की छोटी सी बड़ी दुकान पर चले जाइए, वहां एक मिठाई तो पक्का होगी। ये होगी बर्फी. खोया, दूध और चीनी से बनी बर्फी जीभ पर एक खास मीठा टैक्स्चर देते हुए मनमोहक अंदाज में घुलती है। इसकी ना जाने कितनी किस्में भारत में तैयार की गईं. खासकर दो बर्फी दोधा और काजू कतली के पैदा होने की कहानी तो बहुत ही रोचक है।
90 के दशक की शुरुआत में जब आर्थिक उदारीकरण ने दस्तक नहीं दी थी, तब मिष्ठान भंडारों पर मात्र 5-6 तरह की मिठाइयां ज्यादा नजर आती थीं। ट्रे में सजी खोये की बर्फी, गुलाब जामुन, रसगुल्ला, कलाकंद, इमरती, जलेबी और लड्डू. कुछ मिष्ठान भंडार पर भांति-भांति की बंगाली मीठे पकवान भी होते थे। बाजारीकरण के प्रवेश के साथ मिठाई की दुनिया में भी बहुत प्रयोग हुए, नई मिठाइयां ने इंट्री मारी. इनोवेशन और फ्यूजन शुरू हुआ. सारे देश की हिट मिठाइयां हर जगह नजर आने लगीं तो नए किस्म के मीठे पकवान भी बनने लगे। पहले अगर मिठाई की दुकानों पर केवल खोया बर्फी ज्यादा सजी नजर आती थी। वहां अब बादाम बर्फी, मूंग बर्फी, ड्राईफ्रूट्स बर्फी, दोधा (डोडा) बर्फी, नारियल बर्फी, पिश्ता बर्फी, काजू कतली, तिरंगी बर्फी, चॉकलेट बर्फी…ना जाने बर्फी कितने रूपों में दिखती है. इसमें दोधा बर्फी और काजू कतली की तो बनने की कहानियां ही गजब की हैं।
दूध ओटाने का काम तो हमारे यहां शायद तब से हो रहा है जब से हमने मवेशी रखने शुरू किए और आग पर बर्तन खाने-पकाने का काम सीख लिया। सिंधु घाटी सभ्यता और इसके पहले बरफी जैसे व्यंजन बनाने का उल्लेख मिलता है। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग दूध और चीनी को किण्वित करने और ऐसी मिठाइयां बेशक बनाना जानते थे।
बर्फी फारस से आई – हालांकि जो बर्फी हम खाते हैं, जो फारस से तब आई जब मुगलों ने इधर रुख किया. कुछ का कहना है कि फारस से आने वाले व्यापारी इसे लेकर आए। खैर जो भी हो लेकिन बर्फी शब्द मूलतौर पर फारसी शब्द है. जो बर्फ से बना है। इसका फारसी में शाब्दिक मतलब होगा, जमी हुई चीज । हालांकि दुनिया में बर्फी भारत से फैली. कहा जाता है कि 19वीं सदी के बीच जब भारत से गिरमिटिया मजदूर कैरिबियन देशों और मॉरीशस की ओर गए तो इसे वहां ले गए. वहां ये लोगों को बहुत भायी. अब तो खैर बर्फी दुनियाभर में लोकप्रिय है।
अलग अलग तरह की बर्फियां –  बर्फी तो अब खैर हमारे रीतिरिवाजों और पूजा अर्चना के साथ खुशियों के मौकों से भी जुड़ी है। हर बर्फी का अंदाज और जीभ पर मीठे की आनंददायी लहर पैदा करने का तरीका भी अलग है. कुछ बर्फियां चिपचिपी होती हैंय़ कुछ क्रिस्पी, कुछ दानेदार टैक्सचर वाली तो कुछ जीभ पर आते ही हल्के हल्के घुलने वाली. कई जगह इनके आकार प्रकार भी बदल जाते हैं।
कैसे एक पहलवान ने अनायास बनाई डोडा बर्फी – अब दो बर्फियों के आविष्कारों की बात, जो ठेठ भारतीय जमीन पर पैदा हुईं और दुनियाभर में फैल गईं। भूरी सुनहरी रवेदार चिपचिपी दोधा (डोडा) बर्फी कुछ लोगों को बहुत अच्छी लगती है। इसके बनने की कहानी रोचक है. ये अनायास ही बन गई। वाकया बंटवारे से पहले 1912 का है. पंजाब के एक पहलवान थे हरबंस विज. कुश्ती पहलवानी का काम करते थे। खुराक भी जबरदस्त थी. दूध और घी खाते पीते अघा चुके थे। एक दिन उन्होंने रसोई में दूध, घी, मलाई और सूखे मेवों को चीनी डालकर ओटाना शुरू किया। दूध ओटते ओटते पहले सफेद हुआ. फिर भूरा होने लगा। ड्राईफ्रूट्स और घी के मेल ने भी कमाल किया. और जो कुछ हलवे के अंदाज में बनकर सामने आया वो भूरा, गाढ़ा, चिपचिपा, रवेदार और एक अलग स्वाद वाला था। उन्होंने इसे थाली में पलटा और सपाट करके बर्फी के शेप में काट लिया। वास्तव ये जो नया स्वाद था, ये बहुत शानदार तो था ही और नया नया भी. इसे उन्होंने दोधा बर्फी कहा। ये दोधा से कब डोडा बर्फी कही जाने लगी, पता ही नहीं चला.
पहलवान को कैसे मालामाल कर दिया इस बर्फी ने – अब हरबंस विज ने ये बर्फी बनाने का काम ही शुरू कर दिया। ये पसंद की जाने लगी। उनकी दुकान बड़ी होने लगी और इस बर्फी ने उन्हें खूब पहचान दी।  खासकर पहलवान इसे बहुत खाते थे. उन्हें लगता था कि इस बर्फी से दूध, घी और मावे का पूरा न्यूट्रीशन मिल जाता है। इस बर्फी की लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि लोग दूर दूर से इसे खरीदने आने लगे।
अब ये खास बर्फी बाहर भी खूब जाती है – जब बंटवारा हुआ तो हरबंस विज पाकिस्तान के अधीन आए पंजाब से कपूरथला आ गए। पाकिस्तान में जिसने उनका घर और दुकान खरीदी। उन्होंने भी इस बर्फी को बनाने बेचने का काम जारी रखा। कपूरथला में हरबंस ने अपनी दुकान शुरू की, जो इतनी फेमस हो गई कि वहां के चौक को ही दोधा (डोडा) चौक कहा जाने लगा. रॉयल दोधा हाउस से ये मिठाई अब भी एक्सपोर्ट होती है. अब हरबंस के परिवारवाले इसको चलाते हैं।
काजू कतली की दिलचस्प कहानी – काजू कतली की कहानी भी दिलचस्प है. ये दक्षिण भारत के दक्कन में ईजाद हुई, वहां से देशभर में फैली। अब तो ये हर किसी की पसंदीदा है. इसे बनाने का श्रेय 16वीं सदी में प्रसिद्ध शेफ भीमराव को जाता है. जो मराठा साम्राज्य के राजसी परिवार में मुख्य रसोइया थे।  मराठों को मिठाई बहुत पसंद थी. भीमराव चाहते थे कि कोई नई मिठाई तैयार करें जिससे राज परिवार को प्रभावित कर सकें।
मराठा राज परिवार के रसोइए ने इसे बनाया – कहा जाता है कि भीमराव जब ये मिठाई तैयार कर रहे थे तो उनके दिमाग में फारसी स्वीट हलवा-ए-फारसी भी था। जो बादाम और चीनी से बनाया जाता था. तो उन्होंने तय किया वो काजू से नए तरह की मिठाई बनाएंगे। काजू उस क्षेत्र में भरपूर पैदा होता था. और जब भीमराव ने काजू से मिठाई बनाई तो मराठा राजघराने में खूब पसंद की गई। ये आम बरफी से कुछ ज्यादा पतली परत वाली थी तो इसे नाम दिया गया काजू कतली. ये पहले महाराष्ट्र में लोगों को भाया और फिर देश में फैल गया। अब ये भारतीय मिठाइयों में सबसे मशहूर मिठाई बन चुकी है. इसे उच्च श्रेणी की मिठाई माना जाता है।
कैसे बनाते हैं बर्फी – आमतौर पर बर्फी को गाढ़े दूध से बने खोया, दानेदार चीनी और घी से बनाया जाता है। इसमें पिस्ता, काजू, इलायची, केसर और मूंगफली जैसे मेवे मिलाये जाते हैं। इसमें कुछ क्षेत्रीय किस्मों में फल, गुलाब जल, बेसन या बादाम शामिल होते हैं जैसे नागपुर की आरेंज बर्फी का स्वाद और अंदाज दोनों बेमिसाल हैं. इनमें डाली गईं सामग्रियों के जरिए इन्हें खास रंग भी दिया जाता है। जब ये मिश्रण ठंडा हो जाता है तो इसे डायमंड, चौकोर या गोल टुकड़ों में काट लिया जाता है।
बेसन की बर्फी – यह स्वादिष्ट बर्फी मुंह में जाते ही पिघल जाती है. इसे बेसन को डीप फ्राई करके बनाया जाता है जिससे न सिर्फ बर्फी का स्वाद बेहतर हो जाता है बल्कि इसमें एक मनमोहक खुशबू भी आ जाती है. जैसे बेसन का रंग बदलता है, वैसे ही बर्फी का रंग भी बदलता है. इसमें मेवों का भी इस्तेमाल होता है।
नारियल बर्फी – नारियल बर्फी का लुभावना और साफ्ट अंदाज जीभ को अपना नजाकत से बाग-बाग कर देता है. इसे नारियल के बुरादे और खोये के साथ बनाते हैं।
बादाम बर्फी – इसे बादाम के चूरे और खोया मिलाकर बनाते हैं। इसका स्वाद भी लजीज होता है।
(साभार – न्यूज 18)

120 सालों से लोगों की सेवा कर रहा अयोध्या का श्री राम अस्पताल

अयोध्या । सदियों से अयोध्या के लोग भगवान राम से अपनी भलाई के लिए प्रार्थना करते रहे हैं, लेकिन शहर में एक और ‘श्री राम’ भी हैं। अयोध्या के ये ‘श्री राम’ 120 से अधिक सालों से गरीबों, बीमारों को राहत और सहायता प्रदान करते आ रहे हैं। अपने में ऐतिहासिक विरासत को समेटे श्री राम अस्पताल का भवन शहर के केंद्र में राम पथ से जुड़े और नवनिर्मित भव्य राम मंदिर से एक किलोमीटर से भी कम की दूरी पर स्थित है।
इमारत के मुख्य ब्लॉक में एक दीवार पर लगी पुरानी संगमरमर की पट्टिका पर एक शिलालेख है, जिस पर लिखा है – ‘माननीय राय श्री राम बहादुर द्वारा अयोध्या के गरीबों के लिए निर्मित यह अस्पताल 5 नवंबर, 1900 को शुरू किया गया था। इसकी आधारशिला फैजाबाद मंडल के आयुक्त आईसीएस जे हूपर द्वारा रखी गई थी। 12 अप्रैल, 1902 को आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर एचएच सर जेम्स डिग्स लाटूश, केसीएसआई ने सार्वजनिक उपयोग के लिए खोला था’। एक अन्य पट्टिका पर हिंदी और उर्दू में वही शिलालेख अंकित है।
कई जिलों के लोग कराते हैं इलाज – अस्पताल के प्रशासनिक अधिकारी यश प्रकाश सिंह ने बताया, ‘यह अस्पताल क्योंकि अयोध्या में और राम जन्मभूमि स्थल के निकट स्थित है इसलिए बहुत बड़ी संख्या में लोग सोचते हैं कि इसका नाम प्रभु श्री राम के नाम पर रखा गया है। इसके संस्थापक श्री राम एक परोपकारी व्यक्ति थे, जिन्होंने इस अस्पताल की स्थापना की थी। अस्पताल में अयोध्या और फैजाबाद के साथ-साथ गोंडा और बस्ती जिलों से भी मरीज आते हैं।’
अस्पताल में होता है मुफ्त इलाज – यश प्रकाश सिंह ने बताया कि ‘अस्पताल उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन है और इलाज मुफ्त है। कई लोग यह भी सोचते हैं कि यह एक निजी अस्पताल है।’ अस्पताल को अब आधिकारिक तौर पर राजकीय श्री राम अस्पताल कहा जाता है। अपनी स्थापना के बाद से अस्पताल ने गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा की है और राम मंदिर के निर्माण के साथ बदली अयोध्या की रंगत के बाद यह भी नए जोश के साथ चिकित्सा सेवा के जरूरतमंद श्रद्धालुओं की सेवा कर रहा है।
राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह 22 जनवरी को हुआ और आम जनता के लिए इसके कपाट 23 जनवरी को खोल दिए गए। तब से अब तक लाखों श्रद्धालु मंदिर में दर्शन कर चुके हैं। प्रकाश सिंह ने कहा- उद्घाटन के पहले दिन एक भक्त जो बेहोश हो गया था। उसे एम्बुलेंस में हमारे अस्पताल में लाया गया और उसे चिकित्सा सहायता दी गई, अन्य श्रद्धालु जिन्हें सांस लेने में समस्या की शिकायत थी, या जो भीड़ में घायल हो गए थे, उनकी भी देखभाल की गई। अस्पताल राम मंदिर परिसर की ओर जाने वाले मुख्य सजावटी प्रवेश द्वार से पैदल दूरी पर स्थित है। 120 बिस्तरों वाले श्री राम अस्पताल के प्रशासनिक अधिकारी ने कहा, ‘पहले अस्पताल की पुरानी इमारत का रंग गुलाबी था, लेकिन राम पथ के किनारे की इमारतों के समान स्वरूप के अनुरूप इसका रंग हाल में बदलकर पीला कर दिया गया।’
(भाषा इनपुट के साथ रिपब्लिक भारत डेस्क)

शोज हाउसफुल, पर सिनेमाघर खाली, क्या है कॉरपोरेट बुकिंग

फिल्में रिलीज होने के साथ सिर्फ कहानी, वीएफएक्स या फिर स्टार्स ही चर्चा में नहीं आते. आजकल एक शब्द काफी चलन में है, वो है- कॉरपोरेट बुकिंग. कभी ना कभी ये शब्द आपके कानों के पर्दे को छूते हुए जरूर गुजरा होगा।
दिसंबर 2023 में जब रणबीर कपूर की फिल्म ‘एनिमल’ रिलीज हुई तो उस समय भी ये शब्द सुर्खियों में आया था। फिल्म के निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा के भाई और को-प्रोड्यूसर प्रणय रेड्डी वांगा ने आईड्रीम मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा था- “फिल्म की कमाई के जो आंकड़े हमने जारी किए हैं, वो बिल्कुल सटीक हैं। आजकल लोग बॉक्स ऑफिस नंबर्स पर शक करते हैं, क्योंकि आजकल बॉलीवुड में कॉरपोरेट बुकिंग पर निर्भर होने का ट्रेंड है। हमने ऐसा नहीं किया है।”
22 दिसंबर 2023 को थिएटर्स में प्रभास की फिल्म ‘सलार’ आती है. रिलीज के अगले ही दिन सोशल मीडिया पर इस फिल्म के खिलाफ ‘Scammer Salaar’ नाम का एक हैशटैग ट्रेंड करने लगता है। नेटिजंस ऐसा दावा करते हैं कि फिल्म के कलेक्शन को बढ़ा चढ़ाकर दिखाने के लिए मेकर्स ने कॉरपोरेट बुकिंग की है। इतना ही नहीं, ऐसा भी दावा होता है कि बिहार के बक्सर के ‘कृष्णा सिनेमहॉल’ में सुबह 6 और 7 बजे के शोज हाउसफुल दिखाए जाते हैं, जबकि ये हॉल 6 साल पहले ही बंद हो चुका है। उस समय इस तरह की भी बातें होती हैं कि ‘बुकमाय शो’ पर इस फिल्म के मॉर्निंग शो भरे हुए दिखाए गए, लेकिन जितने बजे का शो था उस समय सारे मॉल बंद थे। पिंकविला की एक रिपोर्ट की मानें तो साल 2022 में एक एक्शन फिल्म रिलीज होती है. रिलीज से पहले ये आंकड़ा सामने आता है कि टॉप नेशनल चेन की एडवांस बुकिंग में फिल्म ने 90 हजार टिकट बेच डाले हैं जबकि वो फिल्म ओपनिंग डे पर सिर्फ 6.50 करोड़ की ही कमाई कर पाती है। हालांकि, अगर किसी फिल्म के 90 हजार टिकट बिकते हैं तो ऐसा माना जाता है कि वो पिक्चर कम से कम 15 करोड़ तो जरूर कमाएगी, जोकि हुआ नहीं था। ये कोई इकलौता मामला नहीं है. आए दिन किसी न किसी फिल्म पर कॉरपोरेट बुकिंग के आरोप लगते रहते हैं. अब चलिए यहां पर समझ लेते हैं कि आखिर ये कॉरपोरेट बुकिंग है क्या और ये काम कैसे करती है –
कॉरपोरेट बुकिंग का खेल – आज कल रिलीज हो रही सभी फिल्मों के बीच हिट-सुपरहिट और ब्लॉकबस्टर होने की होड़ मची हुई है लेकिन अच्छा कलेक्शन सिर्फ वो ही फिल्में कर पाती हैं, जिसे लोग पसंद करते हैं। जिस पिक्चर को लोग नकार देते हैं उसकी कमाई में गिरावट आ जाती है. लेकिन हिट होने की इस रेस में कुछ फिल्मों के मेकर्स द्वारा खुद ही बुकिंग करवा ली जाती है, जिससे कमाई के आंकड़े को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। ऐसे में होता क्या है कि जब हम ऑनलाइन टिकट बुक करते हैं तो हमें ये दिखाया जाता है कि शोज हाउसफुल हैं, लेकिन जब आप थिएटर्स पहुंचते हैं तो वहां का नजारा कुछ और ही होता है। गिने-चुने लोग ही बैठे होते हैं. ये बुकिंग बड़े पैमाने पर कई बड़ों शहरों में की जाती हैं। फिल्ममेकर्स ऐसा करके बॉक्स ऑफिस पर खुद को जीत तो दिला देते हैं और ऐसी चर्चा होनी शुरू हो जाती है कि इस फिल्म ने 100 करोड़, 200 करोड़ या 1000 करोड़ कमा डाले, लेकिन हकीकत में मेकर्स को इससे पैसे के मामले में कुछ फायदा होता नहीं है. क्योंकि वो खुद ही टिकट बुक करवाते हैं और वो पैसा अपने घर में ही घूम-फिरकर वापस आ जाता है।
फिल्म ट्रेड एनालिस्ट कोमल नाहटा ने एफएम कनाडा को कुछ समय पहले दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि एनिमल इकलौती ऐसी फिल्म है, जिसके बारे में उन्होंने जरा सा ये भी नहीं सुना कि इस फिल्म के पास कॉरपोरेट बुकिंग से पैसा आ रहा हो. उन्होंने कहा था कि ये एक ऐसी फिल्म है, जिसने अपनी मेरिट पर कमाई की है और कमाई के जो आंकड़े सामने आए हैं वो सटीक हैं. उन्होंने ये भी कहा था कि- “कुछ और बड़ी फिल्में हैं जो मेरिट से ब्लॉकबस्टर हैं, लेकिन उसे और भी बड़ा ब्लॉकबस्टर साबित करने के लिए उस फिल्म के प्रोड्यूसर या हीरो कॉरपोरेट बुकिंग के नाम पर पैसे फाड़ते हैं और जो लोग बोलते हैं कि ‘बुकमाय शो’ पर फुल दिखा रहा है, लेकिन अंदर जाकर देखा तो 10 लोग बैठे हैं. ऐसा इसलिए ही होता है।”
मेकर्स को फायदा भी और नुकसान भी – कॉरपोरेट बुकिंग से जहां मेकर्स को अपनी फिल्म को बड़ा दिखाने में फायदा होता है तो वहीं दूसरी तरफ उनको भारी नुकसान भी उठाना पड़ता है। इसको समझने के लि एक उदाहरण लेते हैं- मान लीजिए अगर कोई हीरो या फिर प्रोड्यूसर 8 करोड़ रुपये के टिकट खरीदता है, तो उसके बाद रिकॉर्ड में ये तो जाता है कि इस फिल्म के इतने करोड़ रुपये के टिकट बिक गए हैं, लेकिन जब वो पैसा घूम-फिरकर उनके पास वापस आता है, तो पूरा नहीं आता है. क्योंकि फिल्म ने जितने के भी टिकट बेचे हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा एक्जीबिटर्स के पास चला जाता है।

चुनाव प्रचार अभियान में बच्चों का इस्तेमाल न करें राजनीतिक दल : चुनाव आयोग

नयी दिल्ली । लोकसभा चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों से पोस्टरों एवं पर्चों में प्रचार के लिए किसी भी रूप में बच्चों का इस्तेमाल करने से मना किया है। राजनीतिक दलों को भेजे परामर्श में निर्वाचन आयोग ने दलों और उम्मीदवारों द्वारा चुनावी प्रक्रिया के दौरान किसी भी तरीके से बच्चों का इस्तेमाल किए जाने के प्रति अपनी ‘कतई बर्दाश्त नहीं करने’ की नीति से अवगत कराया। आयोग ने कहा, ‘किसी भी तरीके से राजनीतिक प्रचार अभियान चलाने के लिए बच्चों के इस्तेमाल पर भी यह प्रतिबंध लागू है, जिसमें कविता, गीत, बोले गए शब्द, राजनीतिक दल या उम्मीदवार के प्रतीक चिह्न का प्रदर्शन शामिल है।’ उन्होंने आगे कहा कि यदि कोई नेता जो किसी भी राजनीतिक दल की चुनाव प्रचार गतिविधि में शामिल नहीं है और कोई बच्चा अपने माता-पिता या अभिभावक के साथ उसके समीप केवल मौजूद होता है तो इस परिस्थिति में यह दिशानिर्देशों का उल्लंघन नहीं माना जाएगा। मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार ने आगामी संसदीय चुनावों के मद्देनजर लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने में उनसे सक्रिय भागीदार बनने का आग्रह किया है।

लाक्षागृह-कब्रिस्तान विवाद: मुस्लिम पक्ष का दावा खारिज

53 साल बाद कोर्ट में हिंदू पक्ष की बड़ी जीत
बागपत । बागपत के बरनावा में स्थित महाभारतकालीन लाक्षागृह पर चल रहे विवाद में 53 वर्ष बाद हिंदुओं के पक्ष में फैसला आया। सुनवाई के बाद न्यायाधीश ने मुस्लिम पक्ष के उस दावे को खारिज कर दिया, जिसमें उसने लाक्षागृह की 100 बीघा जमीन को शेख बदरूद्दीन की मजार और कब्रिस्तान बताया था। मुस्लिम पक्ष ने हाईकोर्ट में अपील की बात कही है। बरनावा में स्थित लाक्षागृह टीले की 100 बीघा जमीन को लेकर हिंदू व मुस्लिम पक्ष के बीच पिछले 53 वर्षों से विवाद चल रहा है। 31 मार्च 1970 में मेरठ के सरधना की कोर्ट में बरनावा निवासी मुकीम खान ने वक्फ बोर्ड के मुतवल्ली की हैसियत से एक वाद दायर कराया था। इसमें लाक्षागृह गुरुकुल के संस्थापक ब्रह्मचारी कृष्णदत्त उर्फ स्वामी को प्रतिवादी बनाया गया था। सोमवार को मुकदमे की सुनवाई पूरी हो गई और सिविल जज जूनियर डिवीजन प्रथम शिवम द्विवेदी ने मुकदमे में फैसला सुनाते हुए मुस्लिम पक्ष के दावे को खारिज कर दिया।
मुस्लिम पक्ष का यह था दावा – दावे के अनुसार कब्रिस्तान एक ऊंचे टीले पर स्थित है जहां तकरीबन 600 साल पहले एक हजरत शेख बदरुद्दीन साहब ने अपने जिंदगी में इबादत की और फिर वहीं दफन हुए। इन बुजुर्ग का बहुत पुराना मकबरा बना है जिसके चारों तरफ हाता है और उसके करीब एक बड़ा चबूतरा बतौर मस्जिद थी और इसके आसपास भी काफी कमरे बने हुए थे। वादी ने अपने वाद में कहा कि कृष्ण दत्त उर्फ स्वामी कहीं बाहर के रहने वाले थे।
उन्होंने इस जगह को हिंदुओं के पुराने तीर्थ के ऊपर बनाया हुआ बताते हुए कब्रिस्तान को खत्म करके फिर से इसको हिंदुओं का तीर्थ बना देने की बात कही और यहां पर हवन करना शुरू कर दिया था। यह भी कहा गया कि वक्फ यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधीन है। न्यायालय में वाद शुरू होने के बाद वादी मुकीम खान और प्रतिवादी कृष्णदत्त दोनों का निधन हो गया। वर्ष 1997 में मुकदमा मेरठ से बागपत ट्रांसफर हो गया। जिसके बाद दोनों पक्ष की ओर से अन्य लोग ही वाद की पैरवी कर रहे थे।
सर्वे ऑफ इंडिया के अफसरों ने भी दी गवाही – करीब 53 साल अदालत में चले इस मुकदमे में दोनों पक्षों की ओर से ढेर सारे दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत किए गए। वादी और प्रतिवादी पक्ष की ओर से कई गवाह भी पेश किए गए। प्रतिवादी पक्ष ने सर्वे ऑफ इंडिया के अधिकारियों की भी गवाही कराई थी।
हिंदू पक्ष की जीत – प्रतिवादी पक्ष के अधिवक्ता रणबीर सिंह तोमर ने बताया, वर्ष 1997 से मुकदमे की सुनवाई बागपत न्यायालय में चल रही थी। सुनवाई के दौरान हमने सात गवाह पेश किए। इनमें सर्वे ऑफ इंडिया के अधिकारी की गवाही भी शामिल रही। सुनवाई के बाद न्यायाधीश ने मुस्लिम पक्ष का दावा खारिज कर दिया है। यह हिंदू पक्ष की बड़ी जीत है। जमीन लाक्षागृह की ही है।
ऊपरी अदालतों के दरवाजे खुले हैं – वादी पक्ष के वकील शाहिद अली का कहना है कि न्यायाधीश ने सुनवाई के बाद मुस्लिम पक्ष के दावे को खारिज कर दिया है। मुस्लिम पक्ष के पैरोकारों के साथ बातचीत कर आगे की रणनीति बनाई जाएगी। फैसले के खिलाफ उच्च अदालत का दरवाजा भी खटखटाया जाएगा।
यह है महाभारतकालीन लाक्षागृह – महाभारतकालीन इतिहास के अनुसार हस्तिनापुर राज सिंहासन से पांडवों को बेदखल करने के बाद दुर्योधन ने पांडवों को खत्म करने की योजना बनाई। इसके लिए वारणावर्त (अब बरनावा) में पुरोचन नाम के शिल्पी से ज्वलनशील पदार्थों लाख, मोम आदि से एक भवन तैयार कराया गया। इस भवन में पांडवों को ठहरा कर भवन में आग लगा दी। पांडवों के शुभचिंतकों ने उन्हें गुप्त रूप से इसकी सूचना पहले ही दे दी थी। आग लगते ही पांडव सुरंग से होकर बाहर सुरक्षित निकल गए। यह सुरंग हिंडन नदी के किनारे खुलती है। इसके अवशेष आज भी मिलते हैं। गांव के दक्षिण में लगभग 100 फुट ऊंचा और कई एकड़ भूमि पर फैला हुआ यह टीला लाक्षागृह के अवशेष के रूप में मौजूद है। इस टीले के नीचे दो सुरंगें स्थित हैं। बरनावा में कृष्णा व हिंडन नदी के संगम पर स्थित महाभारतकालीन ऐतिहासिक टीला लाक्षागृह को शेख बदरुउद्दीन की दरगाह व कब्रिस्तान बताने वाली मुस्लिम पक्ष की याचिका सोमवार को कोर्ट से खारिज कर दिए जाने पर शांति व्यवस्था व सुरक्षा के मद्देनजर टीले पर पुलिस फोर्स तैनात की गयी ।
ये बिंदु बने फैसले का आधार
राजस्व अभिलेखों में कब्रिस्तान दर्ज नहीं मिला
6 बीघा, 7 बिस्वा, 8 बिस्वांशी पर लाखा मंडप और शेष भूमि वन विभाग के नाम दर्ज मिली
25 नवंबर 1920 को नोटिफिकेशन जारी हुआ और फिर 27 नवंबर को दोबारा नोटिफिकेशन जारी हुआ था, जिसके सापेक्ष 1965 में तहसीलदार सरधना ने एसडीओ भूमि राजस्व अभिलेखों में दर्ज करने के लिए रिक्मंड किया
चार मार्च 1965 को एसडीओ सरधना ने लाखा मंडल दर्ज करने का आदेश पारित किया
28 अगस्त 1973 को मुकीम खान निगरानी योजित निरस्त हुई
1970 में यानि की 1977 फसली में कब्रिस्तान दर्ज नहीं मिला
विवादित जमीन लाखा मंडप और वन विभाग की थी, जिसमें साबित हुआ कि उक्त जमीन कब्रिस्तान के नाम पर दर्ज नहीं थी
1950 में विवादित जमीन में से 30 बीघा जमीन वन विभाग के नाम दर्ज हुई
उत्तर प्रदेश सरकार एवं वन विभाग ने गांधी धाम समिति के विरूद्ध बेदखली का वाद 10 अक्तूबर 1990 को खंडित किया
सर्वे विभाग ऑफ इंडिया ने लाक्षागृह का सर्वे किया। सर्वे के दौरान महाभारत कालीन साक्ष्य मिले

‘पुलिस बिन एक दिन’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन

कोलकाता । नयी दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘पुलिस पब्लिक प्रेस’ के द्वारा एक संगोष्ठी का आयोजन कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद में 21 जनवरी, रविवार को किया गया था। इस संगोष्ठी का विषय ‘पुलिस बिन एक दिन’ था। इस संगोष्ठी का उद्देश भारत को अपराध मुक्त करना है और आम जनता तथा पुलिस के बीच संबंध तथा संवाद स्थापित करना है। जिसके लिए संगोष्ठी के साथ-साथ एक भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इस प्रतियोगिता में पश्चिम बंगाल के विभिन्न जिलों के विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के चयनित 12 प्रतिभागियों ने अपनी प्रस्तुति मंच पर दी। इन प्रतिभागियों का चयन ऑनलाइन चयन प्रक्रिया द्वारा किया गया था। भाषण प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय के ओंकार बनर्जी, द्वितीय स्थान सेंट ल्युक डे स्कूल की वर्षा जायसवाल, तृतीय स्थान पर कांकीनारा हाई स्कूल के पीयूष साव और चतुर्थ स्थान सेंट ल्यूक डे स्कूल की सृष्टि सिंह ने प्राप्त किया। भाषण प्रतियोगिता के निर्णायकों की रूप में वरिष्ठ कवयित्री विद्या भंडारी, जनवादी कवि राज्यवर्धन और एम.एम.टी.सी. के पूर्व निदेशक मृत्युंजय श्रीवास्तव उपस्थित थे। इस आयोजन के प्रधान अतिथि और संगोष्ठी के मुख्य वक्ता पूर्व आई.पी.एस. विजय कुमार को उनके साहित्यिक योगदान के लिए सम्मानित किया गया। साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में विशिष्ट योगदान और कार्यों के किए डॉ. केयूर मजमूदार, प्रो. (डॉ) संजय जायसवाल, रचना सरन, विनोद यादव, प्रिया श्रीवास्तव, चेतन चौधरी, प्रकाश किल्ला, सोनू जायसवाल, सुशील कुमार सिंघल, सुरजीत दे, दिनेश जायसवाल, तारक नाथ दुबे, अल्पना सिंह आदि को सम्मानित किया गया। कार्यक्रम के अंत में पुलिस पब्लिक प्रेस पत्रिका के कर्णधार पवन कुमार भूत ने सभी का धन्यवाद ज्ञापन किया।

22 जनवरी का श्रीराम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह अंक

श्रीराम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह अंक – श्रीराम मंदिर आन्दोलन का इतिहास, स्वामी रामभद्राचार्य, नेताजी जयंती एवं गणतंत्र दिवस समारोह पर आधारित विविध सामग्री

शुभजिता – दिसंबर एवं जनवरी संयुक्त अंक

मिशन सिलक्यारा से लेकर आपराधिक कानूनों के ऐतिहासिक परिवर्तन की यात्रा एवं अन्य स्तम्भ

अंतरराष्ट्रीय कोलकाता पुस्तक मेले में पहुंचे 29 लाख लोग, बिकीं 27 करोड़ की किताबें

कोलकाता में हर साल लगने वाले अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले का समापन बुधवार 31 जनवरी को हो गया है। गुरुवार को आयोजकों में से एक अधिकारी ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय कोलकाता पुस्तक मेले में रिकॉर्ड 29 लाख लोगों ने दौरा किया। पुस्तक मेले में 27 करोड़ रुपये की किताबों की बिक्री दर्ज की गई, जो पिछले साल की बिक्री से अधिक है। अधिकारी ने दावा किया कि 25 करोड़ रुपये का आंकड़ा अब पुस्तक मेले के इतिहास में अब तक का उच्चतम आंकड़ा रहा था। अब यह रिकॉर्ड टूट गया है। पुस्तक मेले में दर्शकों की संख्या पिछली बार 25 लाख से बढ़कर इस वर्ष 29 लाख हो गई, जो एक और नया रिकॉर्ड है।
मेले के आयोजक पब्लिशर्स एंड बुकसेलर्स गिल्ड के महासचिव सुधांग्शु दे ने बताया कि पुस्तक मेला 18 से 31 जनवरी तक आयोजित किया गया। इसके बाद ही यह हिसाब लगाया गया है कि कितने लोग आए और कितने की किताबें बिक्री हुई हैं। किताबों के प्रति लोगों को प्रोत्साहित करने की एक पहल के रूप में, गिल्ड ने एक पाठक को सम्मानित किया जिसने तीन लाख 15 हजार रुपये की किताबें खरीदीं। उनका नाम देवब्रत चटर्जी है। देवब्रत एक निजी ट्यूटर हैं। गिल्ड के अध्यक्ष त्रिदीब चटर्जी ने बताया कि हम वरिष्ठ नागरिकों सहित इस राज्य के पुस्तक-प्रेमी लोगों को मेले में आने और इसके 48वें संस्करण में बेहतर और अधिक समावेशी तरीके से माहौल का आनंद लेने में मदद करने के लिए नई पहल करेंगे। पुस्तक मेले के डिजिटलीकरण को बढ़ाने के लिए, हमने मानचित्र और क्यूआर कोड प्रदान किए, जिससे उपस्थित लोगों के लिए आसान ऑनलाइन बुकिंग की सुविधा हुई। चटर्जी ने बताया कि 48वां अंतरराष्ट्रीय कोलकाता पुस्तक मेला जनवरी 2025 में आयोजित किया जाएगा। अब पुस्तक मेले में हिन्दी पुस्तकों और लेखन से संबंधित गतिविधियों पर एक नजर –
कोलकाता पुस्तक मेला में कृत्रिम मेधा पर बहस
कोलकाता पुस्तक मेला के प्रेस कार्नर में वाणी प्रकाशन और भारतीय भाषा परिषद के लोकार्पण समारोह में कई पुस्तकों का लोकार्पण हुआ जिनमें शंभुनाथ  की ’इतिहास में अफवाह’, कुसुम खेमानी की ’मारवाड़ी राजबाड़ी’, सुनील कुमार शर्मा की  ’आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ तथा ’चैटजीपीटी’ प्रमुख थीं।
इस अवसर पर ’कृत्रिम मेधा, समाज और साहित्य’ पर एक परिचर्चा आयोजित थी। इसमें अतिथियों का स्वागत करते हुए अदिति माहेश्वरी ने कहा कि 61वें वर्ष में वाणी प्रकाशन ग्रुप समय की मांग और समाज के बदलाव को पुस्तकों में दर्ज कर रहा है। बोई मेला में इस वर्ष ‘वाणी बिजनेस’ उपक्रम के तहत सुनील कुमार शर्मा की दो पुस्तकें ‘चैट जीपीटी’ और ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ का लोकार्पण सुखद है। भारत में पहली पंक्ति के आलोचक और पब्लिक इंटेलेक्चुअल डॉ. शम्भुनाथ की नई किताब ‘इतिहास में अफ़वाह’ को प्रकाशित करना गर्व का विषय है। वरिष्ठ लेखिका कुसुम खेमानी के उपन्यास का दूसरा संस्करण ‘मारवाड़ी राजबाड़ी’ की लोकप्रियता रेखांकित करता है। ये सभी पुस्तकें प्रश्न करने, उत्तर ढूंढने और संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से प्रकाशित की गई हैं। शंभुनाथ ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि कृत्रिम मेधा कितनी सभ्यता की उपलब्धि साबित होगी और कितना यह बेरोजगारी बढ़ाने वाला कारपोरेट अणु बम है, यह अभी स्पष्ट होना है। जो भी हो मेधारोबोट मनुष्य का विकल्प नहीं हो सकते। वे एंकरिंग कर सकते हैं, उद्योगों का प्रबंधन कर सकते हैं पर मनुष्य की तरह स्वप्न नहीं देख सकते! कई बार मनुष्य ऐसे भी निर्माण कर देता है जो उसके लिए विध्वंसकारी होता है, जैसे शिव ने भस्मासुर को बनाया था। लेखक और संस्कृति कर्मी मृत्युंजय श्रीवास्तव ने कहा कि आर्टिफीसियल इंटेलीजेंसी एक व्यवसायिक उपकरण है। यह ऐसा काम कर सकता है, जो दोहराव से पूरा हो जाता है। यह रचनात्मकता का विकल्प नहीं है। इसलिए रचनात्मकता पर कोई संकट नहीं है। मनुष्य के रचनात्मकता से ही एआई लगातार समृद्ध होगी। प्रो. हितेंद्र पटेल ने कहा कि श्रम का आनंद और नियंत्रण की आकांक्षा 18वीं शताब्दी से ही विज्ञान और आधुनिकता के साथ मनुष्य के भीतर आ गई। इसके परिणाम के रूप में आया है कृत्रिम मेधा। समाज कृत्रिम मेधा और शारीरिक श्रम दोनों के बीच में किसको स्वीकार करेगा, यह समाज तय करेगा। हमको इन दोनों प्रश्नों पर विचार करना होगा।कवि और तकनीकविद सुनील कुमार शर्मा ने बहस की शुरुआत करते हुए कहा कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग जरूरत के हिसाब से  होता है और यह औद्योगिक विकास में यह एक बड़ी क्रांति लाएगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग मानव क्षमताओं का विस्तार करते हुए मानव कल्याण और सभ्यता के विकास के लिए होना चाहिए। इसलिए आवश्यक है कि एआई का विकास जिम्मेदारी के साथ नैतिक निहितार्थ के साथ संरेखित करना होगा। कार्यक्रम का संचालन करते हुए डॉ. संजय जायसवाल ने कहा कि एआई को लेकर सबसे बड़ी चिंता है कि समाज के आखिरी पंक्ति पर खड़े लोगों के हित को ध्यान में रखा जाए। एआई का इस्तेमाल अपनी मौलिकता को विस्थापित करने के लिए नहीं बल्कि अपनी मौलिकता को विस्तार देने के लिए होना चाहिए। इस अवसर पर रामनिवास द्विवेदी,घनश्याम सुगला,अभिज्ञात, मंजू श्रीवास्तव, उदय भान दुबे, संजय दास, डॉ. संजय राय, उत्तम कुमार,विकास जायसवाल, पूजा सिंह, रामाशीष साव,रेखा श्रीवास्तव सहित कोलकाता के सैकड़ों साहित्यप्रेमी और संस्कृतिप्रेमी मौजूद थे।
पुस्तक मेले में संस्कृति नाट्य मंच की ओर से स्वच्छता पर नुक्कड़ नाटक
सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से गणतंत्र दिवस के अवसर पर कोलकाता पुस्तक मेले में स्वच्छता पर केंद्रित नुक्कड़ नाटक का मंचन किया गया।संस्कृति नाट्य मंच की ओर से इस प्रस्तुति का मुख्य संदेश स्वच्छता को समावेशिकता से जोड़ना है।
सभी को मिलकर इसे मानव धर्म का सूत्र बनाना है।हमें स्वच्छता को आडंबर का नहीं आचरण का हिस्सा बनाना होगा।इस नाटक में डॉ इबरार खान,डॉ मधु सिंह,विशाल कुमार साव,राजेश सिंह, कोमल साव,सुशील सिंह, टीना परवीन,आशुतोष राऊत,सपना खरवार, नंदिनी साव,आदित्य तिवारी, आदित्य साव,संजय जायसवाल ने अभिनय किया।नाट्य प्रस्तुति में लिली शाह,सूर्यदेव राय,चंदन भगत, रूपेश कुमार यादव,ज्योति चौरसिया ने विशेष सहयोग दिया।इस अवसर पर शंभुनाथ, श्रीरामनिवास द्विवेदी, हितेंद्र पटेल, मंजु श्रीवास्तव,उमा डगमान, डॉ गीता दूबे,दीक्षा गुप्ता,अभिषेक साव,पूजा गुप्ता,डॉ अनीता राय,पूजा गौड़,मिथिलेश मिश्रा, डॉ सुमिता गुप्ता,शगुफ्ता इस्तखार, कंचन भगत, सुषमा कुमारी, विनोद यादव,संजय दास सहित सैकड़ों की संख्या में दर्शक मौजूद थे।
भक्ति काव्य में मानव मूल्य’ पुस्तक का लोकार्पण
आनंद प्रकाशन के स्टॉल पर सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा काव्य पाठ का आयोजन किया गया। इस अवसर पर डॉ रेणु गुप्ता और डॉ मधु सिंह द्वारा संपादित ‘भक्ति काव्य में मानव मूल्य’ पुस्तक का लोकार्पण हुआ ।समीक्षक मृत्युंजय श्रीवास्तव ने कहा यह पुस्तक भक्ति काव्य की रोशनी से वर्तमान समय के अंधकार से लड़ने की शक्ति प्रदान करती है।इस अवसर पर आनंद प्रकाशन के संचालक दिनेश त्रिपाठी जी को पिछले 45 वर्षों से पुस्तक मेला में आनंद प्रकाशन के माध्यम से अपनी सेवा देने के लिए सम्मानित किया गया। इस अवसर पर डॉ . सुनील कुमार शर्मा, सेराज खान बातिश, राज्यवर्धन, रौनक अफ़रोज़, रचना सरन, सुरेश शॉ, रेखा शॉ, मृत्युंजय श्रीवास्तव, शिप्रा मिश्रा, अहमद कमाल हाशमी, अनिला राखेचा, शैलेश गुप्ता, श्वेतांक सिंह, इबरार खान, मधु सिंह, सिपाली गुप्ता, रेशमी सेन शर्मा, सुषमा कुमारी, टीना परवीन, शशांक गुप्ता, ऋतु सिंह और राहुल सिंह ने काव्य पाठ किया।कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए शंभुनाथ ने कहा पुस्तक मेला में हिंदी संस्कृति और साहित्य की निरंतरता बनी हुई है।हिंदी के युवा पाठकों की उपस्थिति हमें भरोसा देती है। धन्यवाद ज्ञापन देते हुए मिशन के संरक्षक रामनिवास द्विवेदी ने कहा कविताएं समाज को परिष्कृत करती हैं।कविता का जन्म सवालों के साथ होती है।कार्यक्रम का संचालन करते हुए मिशन के संयुक्त महासचिव संजय जायसवाल ने कहा पुस्तक मेला में कविता की ये आवाजें विभिन्न जगहों की आवाजें हैं, जो आपस में अपने आख्यान साझा करती हैं।
पुस्तक मेला में मरुतृण साहित्य-पत्रिका का लोकार्पण एवं काव्य पाठ
कुछ वर्षों से रुकी हुई मरुतृण साहित्य-पत्रिका के ताजा अंक का लोकार्पण साहित्यिक वातावरण में हुआ एवं लघु पत्रिका,  विनिर्माण ( बांग्ला) द्वारा कवि गोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता राम नारायण झा ‘ देहाती ‘ तथा मंच संचालन कवि प्रदीप कुमार धानुक ने किया । इस अवसर पर मरुतृण साहित्य पत्रिका के संपादक सत्य प्रकाश भारतीय मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद रहे । संपादक के अनुसार लघु पत्रिकाओं का बंद होना और फिर पुनः प्रकाशित होना संघर्ष और जीवटता को दर्शाता है; पत्रिकाएं भी बीमार पड़ती हैं फिर स्वस्थ्य भी होती हैं । विनिर्माण पत्रिका के संपादक पार्थ सारथि मौसम ने धन्यवाद ज्ञापन  किया । इस अवसर कई कवि – कवयित्रियों ने अपनी कविता से मंत्र मुग्ध कर दिया जिसमें मुख्य रूप से सरिता खोवाला, अनिल उपाध्याय,  कवि नवीन कुमार सिंह, पार्थ सारथी मौसम, मुरली चौधरी, डॉ शाहिद फ़ारोगी, सीता पॉल, सत्य कुमार राय, सत्यव्रत मित्रा, बीथी कर एवं सत्य प्रकाश भारतीय शामिल रहे ।