Monday, December 15, 2025
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सरस्वती नदी को वापस लाने में जुटे दर्शन लाल

यमुनानगर : कुछ लोग समाज की सेवा करने के लिए पैदा होते हैं और दर्शन लाल जैन उन दुर्लभ लोगों में से एक हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया और समाज कल्याण के सभी पहलुओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। विशेषतौर पर गरीब व वंचित वर्ग की शिक्षा के लिए काम किया। इसके अलावा सरस्वती नदी के पुनरुद्धार के लिए संघर्ष किया।यमुनानगर जिले के सामाजिक योद्धा और आरएसएस के दिग्गज दर्शन लाल जैन (92 वर्ष) को केंद्र सरकार ने पद्मभूषण दिया है। दर्शनलाल जैन का जन्म 12 दिसंबर 1927 को जगाधरी शहर में एक धार्मिक और उद्योगपति जैन परिवार में हुआ। लोग उन्हें बाबूजी के नाम से भी पुकारते हैं। बचपन से ही देशभक्ति की भावना के चलते वे आरएसएस के संपर्क में आएं। वह महात्मा गांधी से बहुत प्रेरित रहे और ब्रिटिश शासन के दौरान जब स्वतंत्रता सेनानी के प्रतीक के रूप में जब खादी पर प्रतिबंध था तो वे स्कूल में खादी पहनकर जाते थे। 15 साल की उम्र में उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ काम करने पर उन्हें 1975-1977 में आपातकाल के दौरान जेल में रखा गया था। इस दौरान सशर्त रिहा करने के सरकार के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।
एमएलसी और राज्यपाल का पद ठुकराया
उनका सक्रिय राजनीति में शामिल होने की ओर झुकाव कभी नहीं था और 1954 में जनसंघ द्वारा एमएलसी सुनिश्चित सीट के लिए प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। बाद में उन्हें तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार द्वारा राज्यपाल बनाने की पेशकश भी की गई, लेकिन उन्होंने पद भी स्वीकार नहीं किया।
उन्होंने समाज की शिक्षा की दिशा में काम किया और 1954 में सरस्वती विद्या मंदिर की स्थापना की। साल 1957 में क्षेत्र के पहले डीएवी कॉलेज फॉर गर्ल्स के संस्थापक सदस्य बने। उन्होंने लगभग 20 वर्षों तक भारत विकास परिषद हरियाणा, विवेकानंद रॉक मेमोरियल सोसायटी, 30 साल तक वनवासी कल्याण आश्रम के साथ-साथ ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में हरियाणा के लगभग 100 स्कूल और गीता निकेतन एजूकेशन सोसायटी का नेतृत्व भी किया। उनकी एक और उपलब्धि रही टप्पा गांव (अंबाला) में नंद लाल गीता विद्या मंदिर। यह विद्यालय 1997 में अपनी स्थापना के बाद से हरियाणा, नॉर्थ ईस्ट और जम्मू-कश्मीर के जरूरतमंद और बुद्धिमान छात्रों को मुफ्त शिक्षा और मुफ्त बोर्डिंग प्रदान कर रहा है। उन्होंने मेवात जिले के नूंह में हिंदू हाई स्कूल को भी पुनर्जीवित किया जिसके कारण हरियाणा के मेवात क्षेत्र में कई नए स्कूल खुल गए।
सरस्वती नदी को वापस लाने में जुटे
लगभग 40 वर्षों तक आरएसएस के अध्यक्ष पद पर रहने के बाद उन्होंने 2007 में उम्र से संबंधित स्वास्थ्य समस्याओं के कारण 80 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद खुद को इस पद से मुक्त कर लिया। उन्होंने 1999 में सरस्वती नदी शोध संस्थान की स्थापना की और सरस्वती पुनरुद्धार परियोजना शुरू की। तब से वह पवित्र नदी सरस्वती की महिमा को वापस लाने में लगे हुए हैं। दर्शन लाल जैन का कहना है कि सरस्वती पुनरुद्धार में तेजी तब आई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रख्यात भू विज्ञानी पदमश्री केएस वाल्डिया की अध्यक्षता में प्रख्यात वैज्ञानिकों की एक केंद्रीय सलाहकार समिति का गठन किया और मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने हरियाणा सरस्वती हेरिटेज डेवलपमेंट बोर्ड की स्थापना भी की। दर्शन लाल ने 2007 में राष्ट्र के विस्मृत नायकों को याद करने के लिए योद्धा सम्मान समिति का गठन किया।
(साभार – अमर उजाला)

मिठास के साथ हो बासन्ती शुरुआत

केसरिया मीठे चावल


सामग्री : 200 ग्राम (एक कप) बासमती चावल, आधा कप दूध , 150 ग्राम (3/4 कप) चीनी , 2 – 3 चम्मच घी , 20 -25 टुकड़े केसर, 2 चम्मच कसा नारियल , 12-14 काजू , 8-10 बादाम, एक चम्मच किशमिश , 4-5 कुटी हुई इलाइची
विधि :– चावल को साफ करके एक घंटे के लिए पानी में भिगो दें। केसर को दूध में डालकर रख दें। एक घंटे बाद चावल को पानी से निकालें और उसमें 2 कप पानी, केसर दूध, एक टेबल स्पून घी और चीनी मिलाएं। इसके बाद चावलों को पकने के लिए गैस पर किसी बर्तन या कुकर में रख दें। एक छोटी कड़ाई में एक चम्मच घी डालकर गरम करें। इसमें कटे हुए काजू, बादाम और नारियल डाल कर हल्का सा भून लें। चावल जब पक जाएं तक उनमें घी सहित काजू, बादाम, नारियल और किशमिश, इलाइची मिलाएं। मीठा चावल पुलाव बनकर तैयार है। मीठे पीले चावलों को गरम या ठंडा करके दोनों ही तरीकों से खाया जा सकता है।

मोतीचूर के लड्डू

सामग्री : 1 कप बेसन, 1 कप चीनी, 1 कप पानी, 5 छोटी इलाइची, 1 टी स्पून पिस्ते, 1 टी स्पून तेल, 4 टी स्पून देसी घी
विधि : बूंदी के लड्डू बनाने के लिए सबसे पहले बेसन को ले और छलनी की मदद से बेसन को छान ले। अब बेसन को एक बाउल में ले उसमे थोड़ा सा पानी और तेल डालकर एक घोल तैयार कर ले। ध्यान रखे की घोल में गाठे और दाने ना रह जाए। घोल को अच्छे से फेट कर रख ले।
अब चाशनी बनाने के लिए एक बर्तन में चीनी और पानी को डालकर गैस पर पकने के लिए रख दे। कुछ देर बाद जब चीनी पानी में घुलने लगे तो हाथ में लेकर चेक कर ले की चाशनी में तार बन रहा है या नहीं अगर बन रहा है तो गैस बंद कर दे आपकी चाशनी बनकर तैयार है। अब एक कढ़ाई ले उसमे घी डालकर गैस पर गरम करने के लिए रख दे। अब एक कलछी को कढ़ाई के ऊपर रखे और बने हुए बेसन के घोल को कलछी के छेद में से कढ़ाई में डालते रहे। जब कुछ बूंदी कढ़ाई में डल जाए तो उन्हें हल्का ब्राउन होने तक तल ले और फिर प्लेट में निकाल ले। सभी बूंदी इसी तरह तैयार कर ले। बूंदी को ठंडा होने पर उसे चाशनी में डाल दे साथ ही पिस्ते के कटे हुए टुकड़े भी डाल दे। कुछ देर के लिए इन्हे कढ़ाई में ही छोड़ दे। अब थोड़ा सा बूंदी का मिश्रण हाथ में ले और दोनों हथेली की मदद से गोल आकार में लड्डू तैयार कर ले। सारी बूंदी से इसी तरह लड्डू बनाते रहे और प्लेट में रख ले। कुछ ही देर में आपके बूंदी के लड्डू बनकर तैयार है इन्हे किसी डब्बे में भरकर रख ले और अपनी मर्ज़ी के अनुसार इनके स्वाद का मज़ा ले।

पी.वी.भारती बनीं कॉरपोरेशन बैंक की सीईओ

मंगलुरू : केनरा बैंक की कार्यकारी निदेशक पी.वी.भारती ने कॉरपोरेशन बैंक की प्रबंध निदेशक (एमडी) एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) का पदभार ग्रहण कर लिया है। एक बयान में यह जानकारी दी गयी है। बयान में कहा गया कि वह बैंक में यह पद सम्भालने वाली पहली महिला है। भारती 15 सितम्बर 2016 से केनरा बैंक की कार्यकारी निदेशक पद पर कार्यरत थीं। उनके पास बैंकिंग क्षेत्र में काम करने का 37 साल से अधिक का अनुभव है। उनके पास राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तथा तमिलनाडु में विभिन्न शाखाओं में काम करने का अनुभव है। उनके पास ग्रामीण, अर्द्धशहरी, शहरी और मेट्रो शाखाओं के साथ ही प्रशासनिक कार्यालयों में भी काम करने का अनुभव है।

भारत में बाल मजदूरी से मुक्त कराए बच्चों के लिए पुनर्वास बेहतर हुआ : सत्यार्थी

दुबई : नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी ने कहा कि बाल मजदूरी या दासता से मुक्त कराए बच्चों के आर्थिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक पुनर्वास के लिए भारत की नीति बहुत मजबूत है। साल 2014 में शांति का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले सत्यार्थी ने संयुक्त अरब अमीरात में कहा कि बच्चों के पुनर्वास के प्रावधान ब्राजील, चिली, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में बेहतर हुए हैं। सत्यार्थी ने पीटीआई-भाषा से कहा, ‘‘जाहिर है कि हम भ्रष्टाचार, उदासीनता और देरी के मुद्दों से निपट रहे हैं।’ बाल अधिकारों के लिए काम करने वाले 65 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा, ‘‘अब भारत में हमारे पास बाल मजदूरी या दासता से मुक्त कराए बच्चों के आर्थिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक पुनर्वास के लिए बहुत मजबूत पुनर्वास प्रावधान हैं।’ सत्यार्थी ने कहा कि एक बार बच्चे मुक्त हो जाते हैं तो वे कानूनी तौर पर पुनर्वास के लाभों के अधिकारी हो जाते हैं।

सरोगेसी के जरिए माँ बनी एकता कपूर

मुम्बई : फिल्म एवं धारावाहिक निर्माता एकता कपूर सरोगेसी के जरिए माँ बन गई हैं । बच्चे का जन्म 27 जनवरी को हुआ और एकता ने अपने पिता जितेन्द्र के असली नाम पर बच्चे का नाम रवि रखा है। एकता ने इंस्टाग्राम पर लिखा है, ‘‘ईश्वर की कृपा से मुझे जीवन में बहुत कामयाबी मिली। हालांकि, ऐसा कुछ भी नहीं है जो माँ बनने की खुशी से बड़ा हो। मैं यह बयां भी नहीं कर सकती कि मेरे बच्चे के जन्म ने मुझे कितनी खुशी दी है।’ ‘टीवी क्वीन’ के रूप में मशहूर एकता ने कहा है कि वह पिछले सात साल से एक बच्चे के लिए प्रयास कर रही थीं। गौरतलब है कि एकता के भाई तुषार कपूर भी 2016 में सरोगेसी के जरिए पिता बने थे। उनके बेटे का नाम लक्ष्य है। सरोगेसी के जरिये 2017 में पिता बने फिल्म निर्माता करण जौहर ने एकता कपूर को माँ बनने पर बधाई दी है। फिल्म निर्माता हंसल मेहता और अश्विनी अय्यर तिवारी ने भी एकता कपूर को बधाई दी है।

सफलता उसी के कदमों को चूमती है जो समाज को स्वस्थ और सुन्दर बनाते हैं

संगीत और साहित्य का संगम बहुत कम देखने को मिलता है और ऐसा ही संगम हैं वसुन्धरा मिश्र। संगीत की अच्छी जानकारी और एक प्रोफेसर भी। अंश कालिक अध्यापिका के रूप में दीनबंधु कॉलेज (हावड़ा), जयपुरिया कॉलेज, प्रेसीडेंसी कॉलेज, रवींद्र भारती विश्वविद्यालय में पढ़ाया और अभी इग्नू में काउंसिलर रह चुकी हैं।  फिलहाल भवानीपुर कॉलेज में अंशकालिक अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं। कई किताबें लिख चुकी हैं और सरोद भी बजाती हैं। वसुन्धरा मिश्र से अपराजिता की बातचीत –

पुस्तकीय ज्ञान हमारी विरासत है

शिक्षा अपने आप में ज्ञान का परिचायक है।  केवल किताबी ज्ञान से मात्र नहीं है बल्कि जीवन के तमाम अनुभवों से मिलने वाली शिक्षा भी ज्ञान है। अनुभव और समाज के बीच रहते हुए शिक्षा प्राप्त करना ही सही अर्थों में ज्ञान प्राप्त करना और शिक्षित होना है। यह सही है कि पुस्तकीय ज्ञान हमारी विरासत है और वह हमें उत्तरोत्तर  विकास करने के लिए दिशा देने का कार्य करती रहती है। उसे हमें जानना चाहिए, उसे ढोना नहीं चाहिए तभी किसी भी शिक्षा की गुणवत्ता है। डिग्री प्राप्त करके भी यदि जमीन से जुड़कर काम नहीं किया गया तो वह शिक्षा आगे चलकर कहीं न कहीं नुकसान ही करती है।

वोकेशनल ट्रेनिंग परक शिक्षा ही आज के युग की माँग है

शिक्षण प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो व्यवहारिक अधिक हो। वोकेशनल ट्रेनिंग परक शिक्षा ही आज के युग की माँग है। स्कूल से ही इस प्रकार से बच्चों को तैयार किया जाए जिससे आगे चलकर वह अपना कार्य स्वयं चुन ले, रूचि के अनुसार रोजगार कर सके। साहित्य के विद्यार्थियों के लिए तो विशेष रूप से इस प्रकार की शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए। वैसे तो सृजन की प्रतिभा को निखारने के लिए बच्चों को समय देने की आवश्यकता है। स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा में सेमेस्टर सिस्टम हो गया है जो विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा प्रदान कर रहा है। परंतु यह मात्र डिग्री और अंंक प्राप्ति तक सीमित लगत है, गहन अध्ययन की कमी दिखती है।

भारत के विकास के लिए भारतीय भाषाओं को प्रमुखता देना जरूरी है

विद्यार्थियों को केवल परीक्षा पास करने की जल्दी रहती है। बी ए, एम ए की डिग्री प्राप्त विद्यार्थियों का ज्ञान जमीनी स्तर पर अधूरा ही रहता है। आने वाली नयी पौथ किस प्रकार नयी पीढ़ी को तैयार करेगी, यह आज का बड़ा गंभीर प्रश्न है। भारतीय शिक्षण प्रणाली पर चलने वाले विद्वानों की अलग पहचान हुआ करती थी। भारतीय संस्कार, आचार विचार और संस्कृति से विहीन शिक्षा देश को पूरी तरह से प्रोफेशनल भी बनाने में सक्षम नहीं हो सकती। हमारे पास उसके लिए भी अनिवार्य इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। आज हमें साहित्य संगीत कला के साथ साथ दर्शन, विज्ञान, तकनीकी, खेल, स्वास्थ्य आदि विभिन्न क्षेत्रों में विकास करने की आवश्यकता है। भारतीय भाषाओं को प्रमुखता देने की आवश्यकता है तभी भारत पूर्ण रूप से विकसित हो सकता है।

नये लोग लिख रहे हैं, अच्छा लिख रहे हैं
साहित्य के विषय में जब हिंदी साहित्य की चर्चा होती है तो कुछ निराशा होती है। ऐसा लगता है कि प्रेमचंद के साहित्य के बाद अभी ऐसा प्रभावशाली साहित्य नहीं आया जो आमलोगों में लोकप्रिय हुआ हो। साहित्य वही है जो आम जनता से जुड़े और लोगों को अपील करे। नये लोग लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं। प्रचार प्रसार की कमी है।

साहित्यकार को समग्रता और समष्टि में आंकलन करना होगा 
आज साहित्यकार भी नामी गिरामी प्रकाशकों, विशेष पाठक, धर्म, जाति, लिंग और भाषा आदि से जुड़ा है। उसकी सोच भी कई खेमों, विचारधाराओं से जुड़ गई है जो साहित्य की उन्नति के लिए संकीर्णता है। लोक कल्याणकारी और लोक मंगलकारी साहित्य ही अपनी पहचान स्थापित करता है। आज जितनी भी आधुनिक आर्यभाषाएं हैं वे वैदिक कालीन भाषा, संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश से होती हुई विकसित हुई हैं जो भारतीय होने की पहचान है। अतः साहित्यकार को समग्रता और समष्टि में आंंकलन करने की आवश्यकता है। बड़े साहित्यकार में पारदर्शिता होती है तभी वह बड़ा कहलाता है। साहित्यकार दो तरह के होते हैं एक तो अकादमिक साहित्यकार जिनका संबंध केवल आजीविका परक होता है जिनके लिए साहित्य लिखना पेशे से जुड़ा होता है और दूसरा जन्मजात रचनाकार जिसमें नैसर्गिक रचने की क्षमता होती है जो साध होता है। अकादमिक दृष्टि से लिखा साहित्य विषय परक होता है।सच्चा साधक ही जनसाधारण से जुड़ा होता है।
मेरे विचार से सत साहित्य वही है जो जनता की संवेदना से जुड़ा हो। कहा भी जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।

डिजीटल युग में युवा वर्ग नेट और गूगल पर पढ़ने लगा है

अच्छी किताबों की कमी नहीं है, पाठकों की कमी हो सकती है। डिजीटल युग में युवा वर्ग नेट और गूगल पर पढ़ने लगा है। प्रतियोगिता के स्तर पर होने वाली परीक्षाओं के दौरान जितना ज्ञान हो जाता है वही उनके लिए अध्ययन है अगर नौकरी मिल गई तो जीवन भर उन्हें अपने चिंतन-मनन और अन्य किताबों को पढ़ने का समय निकालना भी मुश्किल हो जाता है। आज के बदलते परिवेश में पाठक की प्राथमिकताएं भी बदल गयी हैं।महादेवी वर्मा,सूर्य कांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद,प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु तो अभी भी पढ़े जाते हैँ वहीं  कबीर दास , सूरदास, नानक, मीरा पढ़े जाते हैं, रवींद्र नाथ टैगोर और शरतचंद्र आदि भी पाठकों के लोकप्रिय साहित्यकार हैं। आज भी बहुत पढ़ा जा रहा है लेकिन अपनी अपनी पसंद के लोगों को पढ़ा जा रहा है। उक्तियाँ और उदाहरण के लिए अभी भी युगीन साहित्यकारों पर ही निर्भर हैं।

समाज से जुड़कर ही साहित्य होगा
साहित्य गीत, संगीत, नाटक, फिल्म आदि के द्वारा पाठकों या श्रोताओं के सामने बार बार दोहराया जाएगा वही साहित्य लोकप्रियता को प्राप्त करता है बशर्ते वह समाज से जुड़ा हो, जीवन की संवेदना से जुड़ा हो। रामचरितमानस और महाभारत के मिथकों को लेकर आज का भी साहित्य भी भरा हुआ है, साहित्यकारों की भी कमी नहीं है। भारत के हर कोने से यह साहित्य जुड़ा है,  भाषा, धर्म, लिंग सभी से ऊपर है यह साहित्य। इसका कारण है प्रचार प्रसार और लोकप्रियता। जीवन और समाज की वस्तुनिष्ठ दुनिया में साहित्य दिशा देने का काम करती है।
आज लेखक पाठकों से रूबरू होने लगे हैं।इसका कारण है कि बीते कुछ वर्षों से हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी होती दिखाई दे रही थी। बंगाल में जन साधारण के बीच लेखक को पूरी तरह से जाना जाता है। हिंदी में अभी कृष्णा सोबती का जाना दुखद है और यदि हमने उनका साहित्य नहीं पढ़ा तो सच में हिंदी में पाठकों की कमी आई है।

मन के भावों को व्यक्त करने का जरिया है साहित्य
मेरी सृजनात्मकता उस दिन शुरू हुई जब मेरी अभिव्यक्ति शब्दों पर उतरी थी। कालजयी कवियों को कुछ समझा, माँ को चिता पर जलते देखा, मेरी लेखनी मुझसे जुड़ी तब मैंने सृजन के सुख को थोड़ा बहुत चखा। समय और साधना दोनों की ही आवश्यकता है जो बहुत ही मुश्किल से मिलते हैं। “क्या ही अच्छा होता, हर दिन नया होता” इन पंक्तियों में जीने की कला मानती हूंँ। हर दिन नया (कविता संग्रह), टहनी पर चिड़िया (कहानी संग्रह), भगवान् बुद्ध और हिंदी काव्य (शोध कार्य), रवींद्र नाथ के संगीत में प्रयुक्त उद्भिद और फूल (अनुवाद बांग्ला से हिंदी), धर्म, दर्शन और विज्ञान में रहस्य वाद (सह संपादन प्रोफेसर कल्याण मल लोढा के साथ), पत्रकारिता के बदलते तेवर आदि प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं। बीएचयू से सन् 1985 में डॉ श्यामसुंदर शुक्ल के निर्देश में शोध किया। वहीं से संपूर्ण शिक्षा प्राप्त की। विवाह कोलकाता में हुआ। परिवार को प्राथमिकता देते हुए मैंने आरंभ से ही अंश कालिक अध्यापिका के रूप में दीनबंधु कॉलेज (हावड़ा), जयपुरिया कॉलेज, प्रेसीडेंसी कॉलेज, रवींद्र भारती विश्वविद्यालय में पढ़ाया और अभी इग्नू में कोन्सिलर और भवानीपुर कॉलेज में अंशकालिक अध्यापिका के रूप में कार्यरत हूँ। हिंदी की कुछ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हूँ। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनार कॉन्फ्रेंस और गोष्ठियों में यथा संभव भाग लेती हूँ। अपनी साहित्य यात्रा को जारी रखने का प्रयास करती रहती हूँ इसकी चिंता किए बगैर कि मैं साहित्य के किस पायदान पर हूंँ। मन के भावों को व्यक्त करने का जरिया है साहित्य। स्वयं को साहित्य प्रेमी और सेवी मानती हूँ। मेरे विचार या भाव यदि दस लोगों के भावों से भी मिलते हैं तो यही मेरी सार्थकता है। एक जगह मैंने लिखा है “आदमी आदमी तब नहीं होता, जब आदमी आदमीयत खो देता है।”

साहित्यिक गीतों को गाना अच्छा लगता है
संगीत के बिना मनुष्य अधूरा होता है। साहित्य संगीत और कला से अगर प्यार है तो मनुष्य सामाजिक और पूर्ण होने की ओर होता है। मेरा प्रिय वाद्य यंत्र सरोद है जिसे मैं अपने सुख के लिए बजाती हूँ और अपने से जुड़ने की कोशिश करती हूँ। साहित्यिक गीतों को गाना अच्छा लगता है। प्रसाद जी का गीत “ले चल वहां भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे धीरे” गुनगुनाना अच्छा लगता है। और यूं ही गाते गाते बहुत से गीत कम्पोज भी कर लेती हूँ।

सफलता उसी के कदमों को चूमती है जो समाज को स्वस्थ और सुन्दर बनाते हैं
“अपराजिता “नाम ही ऐसा है कि मन को छू लेती है। हर स्त्री अपने जीवन में यदि आने वाले हर युद्ध को जीत ले, पराजित न हो और अपने जिम्मेदारियों को ठीक से निभाए तो उसकी ओर बढ़ने वाली हर मुसीबतों से छुटकारा मिल सकता है। काश ऐसा हो पाता। सफलता उसी के कदमों को चूमती है जो समाज को स्वस्थ और सुंदर बनाते हैं।  अपराजिता के लिए मेरी ये पंक्तियाँ समर्पित हैं – “मैं जुड़ीं हूँ माँ से, और माँ जुड़ी है मुझसे। ”

कल सुन्दर बनाना है तो घर में हाथ बँटाना है….लेट्स शेयर द लोड

अपराजिता फीचर्स डेस्क
क्या आपने कभी सोचा है कि घरेलू उपकरणों के विज्ञापनों में लड़के जल्दी क्यों नहीं दिखते या फिर क्यों हमेशा औरतें या लड़कियाँ ही फिल्मों में कपड़े सुखाते या खाना पकाती दिखती हैं। बचपन से ही हम लड़कियों को जिस प्रकार सिखाया जाता रहा है कि काम सीख जाओ, पराए घर जाना है, वैसा मानसिक दबाव कभी मेरे भाइयों पर मैंने नहीं देखा…अगर वे खुद एक गिलास भी उठाकर रख दें….तो उनकी तारीफों के पुल बाँध दिए जाते हैं। भूले – भटके अगर अगर किसी लड़के को खाना बनाने में रुचि हो भी जाए तो माताएँ उनको रसोईघर से बाहर धकेल देती हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है कि सबको काम करती हुई बहू तो पसन्द है मगर काम करते हुए दामाद नहीं भाते…अगर बेटियों की सहायता करते दामाद देख भी लिए जाएं तो ससुराल में या तो जीना हराम हो जाएगा या फिर बेटियों की ही क्लास लग जाएगी। यह समस्या व्यक्तिगत नहीं है बल्कि सामाजिक है और समाज के साथ आर्थिक विकास को बाधित करने वाली है मगर हम हैं कि न तो समझने को तैयार हैं और न ही सुधरने को तैयार हैं। आज भी घरेलू काम करने वाले पति ‘जोरू का गुलाम’ वाली नजर से देखे जाते हैं…दरअसल देखा जाए तो हम पुरुषों को दोष दे भी नहीं सकते क्योंकि उनकी यह सोच बनाने में खुद औरतों ने कड़ी मेहनत की है। कभी यह सोचा नहीं कि आज जिस बहू को कमतर बताने के लिए कर रही हैं, उसका खामियाजा बेटियों को भुगतना पड़ेगा..।
सच तो यह है कि घरेलू कामकाज में पुरुषों की भागीदारी से घर ही नहीं बल्कि देश और समाज भी सँवर सकते हैं। फर्ज कीजिए कि गृहिणियाँ जितना काम करती हैं या कामकाजी महिलाएँ, जिस तरह घर और बाहर की तमाम जिम्मेदारियाँ सम्भालती हैं, उसके श्रम का मूल्य लगाया जाए (कृपया इसे सम्वेदना से जोड़ने की गलती न करें), तो शायद आप यह राशि चुका भी न सकें। अमर उजाला में एक रिपोर्ट आयी है। इस रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में ऑक्सफैम की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि दुनिया भर में हर साल महिलाएं 700 लाख करोड़ रुपये के ऐसे काम करती हैं, जिनका उन्हें मेहनताना नहीं मिलता। भारत में यह आँकड़ा छह लाख करोड़ रुपये का है। दुनिया भर में महिलाओं को लेकर एक ही सोच है कि उनका काम घर-परिवार की देखभाल करना है। इस सोच पर 2017 में मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में अहम टिप्पणी देते हुए कहा था कि एक महिला बिना कोई भुगतान लिए घर की सारी देखभाल करती है। उसे होम मेकर (गृहिणी) और बिना आय वाली कहना सही नहीं है। महिला सिर्फ एक माँ और पत्नी नहीं होती, वह अपने परिवार की वित्त मंत्री और चार्टर्ड अकाउंटेंट भी होती हैं। न्यायालय ने यह टिप्पणी पुडुचेरी बिजली बोर्ड की उस याचिका के सन्दर्भ में की थी, जिसमें बोर्ड को बिजली की चपेट में आकर मारी गई एक महिला को क्षतिपूर्ति के तौर पर चार लाख रुपये देने थे, जो कि बिजली बोर्ड को इसलिए स्वीकार नहीं थे, क्योंकि महिला एक गृहिणी थी और उसकी आय नहीं थी। न्यायालय ने बोर्ड की याचिका को अस्वीकार करते हुए कहा था कि हमें खाना पकाना, कपड़े धोना, सफाई करना जैसे रोजाना के कामों को अलग नजरिये से देखने की जरूरत है।

एरियल का अभियान

एक राष्ट्रीय सर्वे के मुताबिक, 40 प्रतिशत ग्रामीण और 65 प्रतिशत शहरी महिलाएं पूरी तरह घरेलू कार्यों में लगी रहती हैं। उससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि आँकड़ों के हिसाब से 60 से ज्यादा की आयु वाली एक चौथाई महिलाएं ऐसी हैं, जिनका सबसे ज्यादा समय घरेलू कार्य करने में ही बीतता है। पितृसत्तात्मक समाज में यह तथ्य गहरी पैठ बनाए हुए है कि स्त्री का जन्म सेवा कार्यों के लिए ही हुआ है। माउंटेन रिसर्च जर्नल के एक अध्ययन के दौरान उत्तराखंड की महिलाओं ने कहा कि वे कोई काम नहीं करतीं, पर विश्लेषण में पता चला कि परिवार के पुरुष औसतन नौ घंटे काम कर रहे थे, जबकि महिलाएं 16 घंटे। अगर उनके काम के लिए न्यूनतम भुगतान किया जाता, तो पुरुष को 128 रुपये और महिला को 228 रुपये मिलते। ऋतु सारस्वत का यह आलेख है जिसमें इस विषय पर उन्होंने बड़ी बारीकी से बात की है। वह कहती हैं कि कुछ देशों एवं संस्थानों ने घरेलू अवैतनिक कार्यों का मूल्यांकन करने के लिए कुछ विधियों का प्रयोग शुरू किया है। इन विधियों में से एक टाइम यूज सर्वे है यानी जितना समय महिला घरेलू अवैतनिक कार्यों को देती है, यदि उतना ही समय वह वैतनिक कार्य के लिए देती, तो उसे कितना वेतन मिलता। कई देशों ने अवैतनिक कार्यों की गणना के लिए मार्केट रिप्लेसमेंट कॉस्ट थ्योरी का भी इस्तेमाल किया है। यानी जो कार्य अवैतनिक रूप से गृहिणियों द्वारा किए जा रहे हैं, यदि उन सेवाओं को बाजार के माध्यम से उपलब्ध कराया जाए, तो कितनी लागत आएगी। संयुक्त राष्ट्र के रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सोशल डेवलपमेंट से जुड़े डेबी बडलेंडर ने द स्टैटिस्टिकल एविडेंस ऑन केयर ऐंड नॉन केयर वर्क अक्रॉस सिक्स कंट्रीज नामक अपने अध्ययन में, अर्जेंटीना, भारत, रिपब्लिक ऑफ कोरिया, निकारागुआ, दक्षिण अफ्रीका तथा तंजानिया का अध्ययन करने के लिए टाइम यूज सर्वे विधि का प्रयोग कर पाया कि अर्जेंटीना में जहां प्रतिदिन पुरुष 101 मिनट और महिला 293 मिनट अवैतनिक घरेलू कार्य करती हैं, वहीं भारत में पुरुष प्रतिदिन 36 मिनट और महिलाएं 354 मिनट अवैतनिक घरेलू कार्य करती हैं। दुनिया भर में कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई घंटे काम करती हैं, पर वह केवल 10 प्रतिशत आय ही अर्जित करती हैं और वे विश्व की मात्र एक प्रतिशत सम्पत्ति की मालकिन हैं।

यहाँ विडम्बना देखिए कि औरतों को हमेशा यह समझाया जाता है कि सब कुछ उसका ही है और मजे की बात यह है कि इस थ्योरी की बात करते समय उसका यह अधिकार तक आप नहीं देते कि वह अपनी मर्जी से परदा तक खरीदे, जमीन -जायदाद के बारे में उसे निर्णय का अधिकार देना तो दूर की बात है। अधिकतर मामलों में औरतें दूध का हिसाब तो समझ सकती हैं मगर घर में कितना पैसा आया, कितना और कहाँ निवेश हुआ..इस बात को लेकर उनको समझाया जाता है कि उनको तो बुद्धि ही नहीं है। औरतें भी खुद को कमतर मानती हैं और वह भी स्वीकार कर लेती हैं कि वे ये तमाम आर्थिक बातें नहीं समझेंगी, नतीजा यह होता है कि न तो आप उनको आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं और न ही वे खुद आगे बढ़ना चाहती हैं….ऐसे तो कुछ नहीं बदलेगा भाई साहब, जो आपकी पत्नी के साथ हो रहा है, हमें नहीं लगता कि आप चाहेंगे कि आपके दामाद आपकी बेटियों के साथ करें…तो इसका एक ही रास्ता है कि पहल इस बार आप करें..। कारण यह है कि सत्ता आपके पास है, सम्पत्ति और अधिकार आपके पास हैं तो बदलाव की जिम्मेदारी भी आप ही को उठानी होगी..अगर आप समझेंगे तो समाज समझेगा और देश आगे बढ़ेगा।
आज से 10 -15 साल पहले शायद हम इस मुद्दे की चर्चा तक भी नहीं करते मगर समय बदल रहा है और औरतों की निर्णयात्मक भागीदारी की बात अब विज्ञापनों के जरिए भी हो रही है। डिटर्जेंट कम्पनी एरियल ने एक नया विज्ञापन पेश किया है जो कार्यभार बाँटने की बात करता है, मतलब घरेलू कामकाज में लड़कों के हाथ बँटाने की बात करता है। अभियान है -हैशटैग शेयर द लोड। भारत में इस अभियान की शुरूआत समानता के मुद्दे पर की गयी थी, जहाँ खुशहाल परिवारों की आकांक्षा की जाती है, जिसमें पुरुष और महिलाएं लोड यानी घरेलू कामकाज समान रूप से शेयर करते हैं। माना जाता है कि बर्तन धोने और कपड़े धोने जैसे काम औरतों के हिस्से के ही हैं मगर विज्ञापनों के सकारात्मक पहल का नतीजा है कि आज ज्‍यादा पुरुष पहले से अधिक लोड शेयर कर रहे हैं। वर्ष में 2015 में, 79%* पुरुषों की सोच थी कि घरेलू काम सिर्फ औरतों का काम है। 2016 में, 63%* पुरुषों का मानना था कि घरेलू कामकाज औरत/बेटी का काम है और ‘बाहर’ का काम पुरूष/बेटे का काम है। 2018 में, यह संख्या घटकर 52%* हो गई है। इस प्रगति के बावजूद, अभी और काम किया जाना शेष है।
#ShareTheLoad के इस नए रिलीज किये गए संस्करण में, एरियल ने एक और प्रासंगिक सवाल उठाया है-क्या हम अपने बेटों को वही सीखा रहे हैं जो हम अपनी बेटियों को सिखा रहे हैं? माताओं को समाज का चेंज मेकर बनाने का आग्रह और इससे अपने बेटों की परवरिश करने के तरीके पर पुर्नविचार किया जा रहा है। हालांकि घर के बाहर के कामकाज को दोनों में बाँटा जाता है, लेकिन घरेलू कामकाज की जिम्मेदारी अभी भी महिला अकेले ही उठा रही है। जब पति घर के काम का लोड उठाने के लिए तैयार नहीं होता है, तो उसका पूरा भार महिलाओं के कंधों पर आ जाता है जो जिससे उसके कॅरियर की आकांक्षाओं और कार्य पर प्रभाव पड़ता है। वर्ष 2018 में एक स्वतंत्र तीसरी पार्टी द्वारा किए गए एक सर्वे में भी पाया गया था कि भारत में दस में से सात महिलाएं* घर की जिम्मेदारियों को संतुलित करने के लिए अपने काम की अतिरिक्त जिम्मेदारियों पर पुनर्विचार करती हैं। इस धारणा के साथ कि माताओं का एक मजबूत सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण होता है, एरियल माताओं की इस पीढ़ी को अपने बच्चों को समानता की पीढ़ी के रूप में पालने का आग्रह करता है। बीबीडीओ द्वारा परिकल्पित इस नई फिल्म के माध्यम से इस असमानता के कारणों में गहराई से जाना गया। अभियान बच्चों के पालन-पोषण के बारे में बात करना चाहता है। समान प्रगतिशील परिवारों में भी, हमारे बेटे और बेटियों की परवरिश के तरीके में अक्सर अंतर होता है। कुछ समय से, बेटियों को मजबूत, स्वतंत्र और सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए आश्वस्त किया जा रहा है लेकिन, वे शादी होते ही घरों की प्राथमिक देखभालकर्ता बन जाती हैं। इससे उन पर असंतुलित अपेक्षाएं और बोझ पड़ता है, जो उनके पेशेवर विकास के रास्ते में बाधा बन जाता है। हालांकि समाज बदल रहा है, लेकिन बेटों की अलग तरीके से परवरिश किये जाने पर ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए, उन्हें अपने भविष्‍य का बेहतर प्रबन्धन करने और उन्हें पारिवारिक समानता का पैरोकार बनाने में मदद करने के लिए उन्‍हें कपड़े धोना या खाना बनाना जैसे कुछ नए जीवन कौशल सिखाना।  वर्ष 2015 में, एरियल ने एक बहुत ही प्रासंगिक सवाल उठाया – क्या कपड़े धोना केवल एक महिला का काम है? ’घरेलू कामों के असमान वितरण पर ध्यान आकर्षित करने के लिए। वर्ष 2016 के ‘डैड्स शेयर द लोड’ अभियान के साथ, बातचीत का उद्देश्य असमानता के कारणों का पता लगाना था, जो कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्‍थानान्‍तरित होने वाले पूर्वाग्रह का चक्र है। अभियान पर टिप्पणी करते हुए, सोनाली धवन, मार्केटिंग डायरेक्टर, पी एंड जी इंडिया, और फैब्रिक केयर ने कहा, “इस वर्ष, हम इस असमानता के कारण की गहराई तक जाने के लिए बातचीत की पुन: शुरूआत करना चाहते हैं। सही परवरिश के संदर्भ में, हम भविष्य के लिए माताओं की इस पीढ़ी को चेंजमेकर बनाने का आग्रह करते हैं। जाहिर है कि काम साझा करना कम उम्र में सिखाया जाये, तो यह उनकी  मूल्य प्रणाली का एक हिस्सा बन जाता है। जोसी पॉल, क्रिएटिव डायरेक्टर, बीबीडीओ ने आगे कहा, “एरियल के #ShareTheLoad ने परिवार में लैंगिक समानता के लिए एक सक्रिय अभियान का रूप ले लिया है। इसने ब्रांड के लिए अधिकतम भावनात्मक इक्विटी उत्पन्न की है और समाज में एक सकारात्मक बदलाव की शुरूआत की है।

डब्‍ल्‍यूएआरसी ने इसे वर्ष 2017 और 2018 के लिए दुनिया के सबसे प्रभावी कैम्‍पेन के रूप में रैंक किया है। हम अभियान के अगले चरण को शुरू करने के लिए उत्साहित हैं। यह नया अभियान एक कड़वे सत्य पर आधारित है जो आज की सच्‍चाई है। इस फिल्म में, माता की एक अनिर्दिष्ट सामाजिक कंडीशनिंग का अहसास और उसका दृढ़ संकल्प समाज के लिए विचारशील, संवेदनशील और एक ऊँची छलांग है। उसका व्‍यवहार पुरुषों को घर में लोड शेयर करने का एक और कारण देता है। वर्ष 2018 में एक स्वतंत्र थर्ड पार्टी द्वारा किए गए एक सर्वे में भी पुरुष और महिला दृष्टिकोण में कुछ अंतर का पता चला था। 72% महिलाओं का मानना ​​है कि वीकैंड यानी सप्ताहांत सिर्फ किराने के सामान की खरीदारी, कपड़े धोने और घर के काम करने के लिए है, जबकि 68% भारतीय पुरुषों का मानना ​​है कि वीकैंड विश्राम के लिए हैं। घरेलू काम जैसे कपड़े धोने के बारे में, अभी भी अधिकांश महिलाएं सभी कार्यों की जिम्मेदारी अकेले ही सम्भालती हैं। 68% महिलाएं काम से वापस आती हैं और नियमित रूप से कपड़े धोने का काम करती हैं, जबकि पुरुषों में यह संख्या केवल 35% है। सच्‍चाई यह है कि, 40% भारतीय पुरुष वाशिंग मशीन चलाना नहीं जानते हैं। इसके अलावा, आधे से अधिक पुरुषों ने इस बात पर सहमति जताई कि वे इसलिए कपड़े धोना नहीं जानते क्योंकि उन्होंने कभी अपने पिता को ऐसा करते नहीं देखा है। कपड़े धोने के परिपेक्ष्‍य में, एरियल का नया संवाद एक माँ को अपने बेटे को कपड़े धोना सिखाता है। कम्पनी द्वारा जारी इस वीडियो फिल्म का निर्देशन इग्लिंश – विंग्लिश फेम गौरी शिंदे ने किया है।
यह स्वागतयोग्य है मगर इस सोच को आगे तो अकेले महिलाएं नहीं बढ़ा सकतीं…..आपकी भागीदारी चाहिए। कारण यह है कि अगर महिला आगे बढ़ी तो उसके पीछे खुद उसकी माँ और बहन से लेकर सास, ननद और गाँव तक की चाची, दादी, मामी, मासी सब पडेंगी…ऐसी स्थिति में ये आप ही होंगे जो इस बात को समझेंगे क्योंकि कल आपके बेटे को भी एक जिम्मेदार पति, पिता और नागरिक बनना है। ये बदलाव महिलाओं के सशक्तीकरण के साथ ही एक सशक्त व सन्तुलित समाज की जरूरत है…आप तैयार हैं न।

इनपुट – अमर उजाला पर ऋतु सारस्वत का आलेख और एरियल द्वारा जारी विज्ञप्ति

नृत्य नाटिका में दिखी स्वाधीनता सेनानी अजीजन बाई की कहानी

स्वाधीनता सेनानी अजीजन बाई की जीवनगाथा हाल ही में नृत्य नाटिका के माध्यम से प्रस्तुत की गयी। इस नृत्य नाटिका की परिकल्पना, निर्देशन और नृत्य निर्देशन डॉ. महानन्दा काँजीलाल की थी। वे अजीजन बाई की भूमिका में भी दिखीं। उनके साथ सरोद पर सुनन्दो मुखर्जी, तबले पर अमितांशु ब्रह्मा, की बोर्ड पर देवाशीष भट्टाचार्य, सारंगी पर कमलेश मिश्रा थे।

गायकों में श्रीजीता चक्रवर्ती और दिनेश पाल थे। नृ्त्य समूह में शम्शुद्दीन, पौषाली पाल, पृथना बाग, मेघमाला, दास, दीपान्विता मण्डल, पूर्णिता सिंह समेत कई अन्य कलाकार दिखे। परिचय देवदास घोष और अपरूपा मुखर्जी ने दिया। ध्वनि पर प्रकाश सज्जा अशोक तपन और सेट अजीत राय का था।

नेत्रहीन बच्चों के लिए सीमेन्ट पर बनाया गया ब्रेल ध्वज

राष्ट्रीय ध्वज फहराना हर भारतीय के लिए गौरव का क्षण है मगर बहुत से ऐसे लोग हैं जो इस सुख से वंचित हैं। हाल ही में गणतन्त्र दिवस पर एम पी बिड़ला सीमेन्ट ने रंगों से रहित ध्वज तैयार किया। सीमेन्ट से बना यह ध्वज ब्रेल मार्किंग के माध्यम से रंगों और ध्वज के प्रतीकों को उभारकर लाता है। कंक्रीट से बना यह ध्वज देश के कई ब्लांइड स्कूलों में ले जाया गया। गणतन्त्र दिवस की 70वीं वर्षगाँठ पर पटना, बर्दवान, राँची, दिल्ली और इलाहाबाद के कई ब्लाइंड स्कूलों में नेत्रहीन बच्चों ने यह ध्वज देखे। एम पी बिड़ला सीमेन्ट के एक्जिक्यूटिव प्रेसिडेंट सन्दीप रंजन घोष ने सीमेन्ट का यह ब्रेल ध्वज राष्ट्र के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है। इस अवसर पर ओलग्वी कोलकाता के एक्जिक्यूटिव क्रिएटिव डायरेक्टर सुजॉय राय भी उपस्थित थे।

‘भारत के रत्न’ पूर्व राष्ट्रपति प्रणव दा… सादगी पसंद, कांग्रेस के संकटमोचक

नयी दिल्ली : प्रणब मुखर्जी के बारे में एक बात अक्सर कही जाती है कि वे ऐसे प्रधानमंत्री थे जो देश को ही मिले नहीं नहीं। राज्यसभा सदस्य से सियासी कैरियर शुरू करने वाले प्रणब दा राष्ट्रपति तो बने लेकिन दो बार मौका आने के बाद भी प्रधानमंत्री नहीं बन सके। पश्चिम बंगाल में वीरभूम जिले के मिराती गांव में 11 दिसंबर 1935 को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कामदा मुखर्जी और राजलक्ष्मी मुखर्जी के घर जन्मे मुखर्जी को भारतीय राजनीति में उत्कृष्ट राजनेता, सादगी पसंद और कांग्रेस के संकटमोचक के तौर पर जाना जाता है।
पांच बार राज्यसभा और दो बार लोकसभा के लिए चुने गए प्रणब इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन सिंह सरकार तक महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे। राजनीति विज्ञान के शिक्षक के तौर पर कैरियर शुरू करने वाले प्रणब दा की राजनीतिक प्रतिभा को देखते हुए मात्र 34 वर्ष की उम्र में इंदिरा गांधी ने उन्हें राज्यसभा भेजा। इंदिरा सरकार में वित्त मंत्री बने। उनके निधन के बाद माना गया कि सबसे सीनियर मंत्री होने के नाते प्रणब कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनेंगे। हालांकि प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी और इसके बाद प्रणब को पार्टी में दरकिनार किया जाने लगा। लंबे समय तक साइड लाइन रहे प्रणब ने कांग्रेस छोड़ दी। करीब तीन साल बाद उनकी पार्टी का फिर कांग्रेस में विलय हो गया। 1991 में राजीव की हत्या के बाद पीवी नरसिंहराव ने प्रणब को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया। इसके बाद वे विदेश मंत्री बने।
दूसरी बार भी पिछड़ गए
2004 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए को बहुमत मिला। विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया ने प्रधानमंत्री न बनने की घोषणा की तो प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह के साथ प्रणब का भी नाम आगे आया। यहां दूसरी बार भी प्रणब पीएम की रेस में पिछड़ गए और बाजी मनमोहन के हाथ रही। जिस व्यक्ति को प्रणब ने रिजर्व बैंक का गवर्नर बनवाया था वो प्रधानमंत्री बना और प्रणब पहले रक्षामंत्री और फिर विदेश मंत्री बनाए गए। मनमोहन के दोनों कार्यकाल में, राष्ट्रपति बनने से पहले तक सारे राजनीतिक मामलों मुखर्जी ही संभालते रहेे। 2004 से 2012 के बीच प्रणब 95 से ज्यादा मंत्री-समूहों के अध्यक्ष रहे।
बहन ने कहा था राष्ट्रपति बनोगे
प्रणब दा पहली बार सांसद बने तो उनसे मिलने उनकी बहन आई थीं। चाय पीते हुए प्रणब ने कहा, वो अगले जनम में राष्ट्रपति भवन में बंधे रहने वाले घोड़े के रूप में पैदा होना चाहते हैं। इस पर उनकी बहन अन्नपूर्णा देवी ने कहा था, घोड़ा क्यों, तुम इसी जनम में राष्ट्रपति बनोगे। भविष्यवाणी सही साबित हुई और प्रणब दा 25 जुलाई 2012 को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के राष्ट्रपति बने।
बेटी का विरोध फिर भी संघ के कार्यक्रम में गए
बीते साल जब प्रणब मुखर्जी के संघ के कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि नागपुर जाने की खबर आई तो कांग्रेस में उनके सहयोगी रहे नेताओं ही नहीं बल्कि खुद उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने भी असमति जताई। शर्मिष्ठा ने ट्वीट कर अपने पिता को वहां न जाने को कहना था। शर्मिष्ठा ने कहा था, आपकी बातें भुला दी जाएंगी बस तस्वीरें रह जाएंगी। इसके बावजूद मुखर्जी संघ के कार्यक्रम में गए और संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार को देश का महान सपूत बताया। मुखर्जी ने सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हुए कहा था, राष्ट्रवाद किसी धर्म या जाति से बंधा नहीं है। नफरत से देश की पहचान को संकट है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के एक श्लोक का उद्धरण देते हुए उन्होंने कहा था, प्रजा की खुशी में ही राजा की खुशी हो। लगभग जिंदगीभर कांग्रेस में रहे प्रणब हमेशा भाजपा की विचारधारा की मुखालफत करते रहे। इसके बावजूद मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके रिश्ते बेहद अच्छे हैं। एक बार मोदी ने प्रणब को पितातुल्य कहा था।