Tuesday, December 16, 2025
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महिलाओं के समर्थन ईरान में अब पुरुष पहन रहे हिजाब

ईरान में महिलाओं के सपोर्ट में पुरुष भी हिजाब पहन रहे हैं। पिछले एक हफ्ते में कई पुरुषों ने हिजाब पहने हुए अपनी फोटोज शेयर की हैं। ये सभी फोटोज ईरानी एक्टिविस्ट और जर्नलिस्ट मसीह अलीनेजाद के उस कैंपेन का हिस्सा है, जो महिलाओं पर जबरन थोपे जाने वाले नियम का विरोध करता है। बता दें ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद से हिजाब पहनना अनिवार्य है।

#meninhijab हो रहा ट्रेंड…

न्यूयॉर्क में रहनी वाली मसीह महिलाओं के लिए हिजाब कम्पलसरी करने के खिलाफ कैंपेन चला रही हैं।  इस कैंपेन के जरिए उन्होंने ईरान के पुरुषों से महिलाओं का सपोर्ट करने को कहा था।  उन्होंने पुरुषों से #meninhijab हैशटैग के साथ हेडस्कॉर्फ में अपनी फोटो शेयर करने को कहा था, जिसमें महिला बिना हिजाब के हो।
इसके बाद हफ्तेभर में कई पुरुषों ने पत्नी या महिला रिलेटिव के साथ हिजाब में अपनी फोटो शेयर की हैं।
22 जुलाई के शुरू किए गए इस कैंपेन के बाद मसीह को हिजाब में 30 पुरूषों की फोटोज मिलीं।
उन्होंने बताया कि कई पुरुषों ने ये फोटोज अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर भी पोस्ट की थी।
मसीह माय स्टील्थी फ्रीडम कैंपेन चलाती हैं और ईरान में रही महिलाओं और लड़कियों की – आजादी के पल की फोटोज को शेयर करती हैं।

हिजाब पहनना है जरूरी

ईरान में 1979 में हुए इस्लामिक रिवोल्यूशन के बाद से महिलाओं के लिए हिजाब पहनना कम्पलसरी है।   महिलाओं से इसका पालन कराने के लिए ईरान में मॉरैलिटी पुलिस काम करती है।  हिजाब पहनने को प्रेरित करने के लिए देश में जगह-जगह बिलबोर्ड लगाए गए हैं।  हिजाब न पहनना यहां अपमानजनक माना जाता है। और इसके लिए जुर्माने से लेकर कैद तक की सजा है।

 

 ‘शाह की कंजरी’

     अमृता प्रीतम

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उसे अब नीलम कोई नहीं कहता था। सब शाह की कंजरी कहते थे। नीलम को लाहौर हीरामंडी के एक चौबारे में जवानी चढ़ी थी। और वहां ही एक रियासती सरदार के हाथों पूरे पांच हजार में उसकी नथ उतरी थी। और वहां ही उसके हुस्न ने आग जला कर सारा शहर झुलसा दिया था। पर फिर वह एक दिन हीरा मंडी का रास्ता चौबारा छोड़ कर शहर के सबसे बड़े होटल फ्लैटी में आ गयी थी।

वही शहर था, पर सारा शहर जैसे रातों रात उसका नाम भूल गया हो, सबके मुंह से सुनायी देता था -शाह की कंजरी।

गजब का गाती थी। कोई गाने वाली उसकी तरह मिर्जे की सद नहीं लगा सकती थी। इसलिये चाहे लोग उसका नाम भूल गये थे पर उसकी आवाज नहीं भूल सके। शहर में जिसके घर भी तवे वाला बाजा था, वह उसके भरे हुए तवे जरूर खरीदता था। पर सब घरों में तवे की फरमायिश के वक्त हर कोई यह जरूर कहता था “आज शाह की कंजरी वाला तवा जरूर सुनना है।”

लुकी छिपी बात नहीं थी। शाह के घर वालों को भी पता था। सिर्फ पता ही नहीं था, उनके लिये बात भी पुरानी हो चुकी थी। शाह का बड़ा लड़का जो अब ब्याहने लायक था, जब गोद में था तो सेठानी ने जहर खाके मरने की धमकी दी थी, पर शाह ने उसके गले में मोतियों का हार पहना कर उससे कहा था, “शाहनिये! वह तेरे घर की बरकत है। मेरी आंख जोहरी की आंख है, तूने सुना हुआ नहीं है कि नीलम ऐसी चीज होता है, जो लाखों को खाक कर देता है और खाक को लाख बनाता है। जिसे उलटा पड़ जाये, उसके लाख के खाक बना देता है। और जिसे सीधा पड़ जाये उसे खाक से लाख बना देता है। वह भी नीलम है, हमारी राशि से मिल गया है। जिस दिन से साथ बना है, मैं मिट्टी में हाथ डालूं तो सोना हो जाती है।

“पर वही एक दिन घर उजाड़ देगी, लाखों को खाक कर देगी,”  शाहनी ने छाती की साल सहकर उसी तरफ से दलील दी थी, जिस तरफ से शाह ने बत चलायी थी।

” मैं तो बल्कि डरता हूं कि इन कंजरियों का क्या भरोसा, कल किसी और ने सब्ज़बाग दिखाये, और जो वह हाथों से निकल गयी, तो लाख से खाक बन जाना है।” शाह ने फिर अपनी दलील दी थी।

और शाहनी के पास और दलील नहीं रह गयी थी। सिर्फ वक़्त के पास रह गयी थी, और वक़्त चुप था, कई बरसों से चुप था। शाह सचमुच जितने रुपये नीलम पर बहाता, उससे कई गुणा ज्यादा पता नहीं कहां कहां से बह कर उसके घर आ जाते थे। पहले उसकी छोटी सी दुकान शहर के छोटे से बाजार में होती थी, पर अब सबसे बड़े बाजार में,लोहे के जंगले वाली, सबसे बड़ी दुकान उसकी थी। घर की जगह पूरा महल्ला ही उसका था, जिसमें बड़े खाते पीते किरायेदार थे। और जिसमें तहखाने वाले घर को शाहनी एक दिन के लिये भी अकेला नहीं छोड़ती थी।

बहुत बरस हुए, शाहनी ने एक दिन मोहरों वाले ट्रंक को ताला लगाते हुए शाह से कहा था, ” उसे चाहे होटल में रखो और चाहे उसे ताजमहल बनवा दो, पर बाहर की बला बाहर ही रखो, उसे मेरे घर ना लाना। मैं उसके माथे नहीं लगूंगी।”

और सचमुच शाहनी ने अभी तक उसका मूंह नहीं देखा था। जब उसने यह बात कही थी, उसका बड़ा लड़का स्कूल में पढ़ता था, और अब वह ब्याहने लायक हो गया था, पर शाहनी ने ना उसके गाने वाले तवे घर में आने दिये, और ना घर में किसी को उसका नाम लेने दिया था।

वैसे उसके बेटे ने दुकान दुकान पर उसके गाने सुन रखे थे, और जने जने से सुन रखा था- “शाह की कंजरी। ”

बड़े लड़के का ब्याह था। घर पर चार महीने से दर्जी बैठे हुए थे, कोई सूटों पर सलमा काढ़ रहा था, कोई तिल्ला, कोई किनारी, और कोई दुप्पटे पर सितारे जड़ रहा था। शाहनी के हाथ भरे हुए थे – रुपयों की थैली निकालती, खोलती,फिर और थैली भरने के लिये तहखाने में चली जाती।

शाह के यार दोस्तों ने शाह की दोस्ती का वास्ता डाला कि लड़के के ब्याह पर कंजरी जरूर गंवानी है। वैसे बात उन्होंने ने बड़े तरीके से कही थी ताकी शाह कभी बल ना खा जाये, ” वैसे तो शाहजी कॊ बहुतेरी गाने  नाचनेवाली हैं, जिसे मरजी हो बुलाओ। पर यहां मल्लिकाये तर्रन्नुम जरूर आये, चाहे मिरजे़ की एक ही ’सद’ लगा जाये।”

फ्लैटी होटल आम होटलों जैसा नहीं था। वहां ज्यादातर अंग्रेज़ लोग ही आते और ठहरते थे। उसमें अकेले अकेले कमरे भी थे, पर बड़े बड़े तीन कमरों के सेट भी। ऐसे ही एक सेट में नीलम रहती थी। और शाह ने सोचा – दोस्तों यारों का दिल खुश करने के लिये वह एक दिन नीलम  के यहां एक रात की महफिल रख लेगा।

“यह तो चौबारे पर जाने वाली बात हुई,” एक ने उज्र किया तो सारे बोल पड़े, ” नहीं, शाह जी! वह तो सिर्फ तुम्हारा ही हक बनता है। पहले कभी इतने बरस हमने कुछ कहा है? उस जगह का नाम भी नहीं लिया। वह जगह तुम्हारी अमानत है। हमें तो भतीजे के ब्याह की खुशी मनानी है, उसे खानदानी घरानों की तरह अपने घर बुलाओ, हमारी भाभी के घर।”

बात शाह के मन भा गयी। इस लिये कि वह दोस्तों यारों को नीलम की राह दिखाना नहीं चाहता था (चाहे उसके कानों में भनक पड़ती रहती थी कि उसकी गैरहाजरी में कोई कोई अमीरजादा नीलम के पास आने लगा था।) – दूसरे इस लिये भी कि वह चाहता था, नीलम एक बार उसके घर आकर उसके घर की तड़क भड़क देख जाये। पर वह शाहनी से डरता था, दोस्तों को हामी ना भार सका।

दोस्तों यारों में से दो ने राह निकाली और शाहनी के पास जाकर कहने लगे, ” भाभी तुम लड़के की शादी के गीत नहीं गवांओगी? हम तो सारी खुशियां मनायेंगे। शाह ने सलाह की है कि एक रात यारों की महफिल नीलम की तरफ हो जाये। बात तो ठीक है पर हजारों उजड़ जायेंगे। आखिर घर तो तुम्हारा है, पहले उस कंजरी को थोड़ा खिलाया है?तुम सयानी बनो, उसे गाने बजाने के लिये एक दिन यहां बुला लो। लड़के के ब्याह की खुशी भी हो जायेगी और रुपया उजड़ने से बच जायेगा।”

शाहनी पहले तो भरी भरायी बोली, ” मैं उस कंजरी के माथे नहीं लगना चाहती,” पर जब दूसरों ने बड़े धीरज से कहा, ” यहां तो भाभी तुम्हारा राज है, वह बांदी बन कर आयेगी, तुम्हारे हुक्म में बधीं हुई, तुम्हारे बेटे की खुशी मनाने के लिये। हेठी तो उसकी है, तुम्हारी काहे की? जैसे कमीन कुमने आये, डोम मरासी, तैसी वह।”

बात शाहनी के मन भा गयी। वैसे भी कभी सोते बैठते उसे ख्याल आता था- एक बार देखूं तो सही कैसी है?

उसने उसे कभी देखा नहीं था पर कल्पना जरूर थी – चाहे डर कर, सहम कर, चहे एक नफरत से। और शहर में से गुजरते हुए, अगर किसी कंजरी को टांगे में बैठते देखती तो ना सोचते हुए ही सोच जाती – क्या पता, वही हो?

“चलो एक बार मैं भी देख लूं,” वह मन में घुल सी गयी, ” जो उसको मेरा बिगाड़ना था, बिगाड़ लिया, अब और उसे क्या कर लेना है! एक बार चन्दरा को देख तो लूं।”

शाहनी ने हामी भर दी, पर एक शर्त रखी – ” यहां ना शराब उड़ेगी, ना कबाब। भले घरों में जिस तरह गीत गाये जाते हैं, उसी तरह गीत करवाउंगी। तुम मर्द मानस भी बैठ जाना। वह आये और सीधी तरह गा कर चली जाये। मैं वही चार बतासे उसकी झोली में भी डाल दूंगी जो ओर लड़के लड़कियों को दूंगी, जो बन्ने, सहरे गायेंगी।”

“यही तो भाभी हम कहते हैं।” शाह के दोस्तों नें फूंक दी, “तुम्हारी समझदारी से ही तो घर बना है, नहीं तो क्या खबर क्या हो गुजरना था।”

वह आयी। शाहनी ने खुद अपनी बग्गी भेजी थी। घर मेहेमानों से भरा हुआ था। बड़े कमरे में सफेद चादरें बिछा कर, बीच में ढोलक रखी हुई थी। घर की औरतों नें बन्ने सेहरे गाने शुरू कर रखे थे….।

बग्गी दरवाजे पर आ रुकी, तो कुछ उतावली औरतें दौड़ कर खिड़की की एक तरफ चली गयीं और कुछ सीढ़ियों की तरफ….।

“अरी, बदसगुनी क्यों करती हो, सहरा बीच में ही छोड़ दिया।” शाहनी ने डांट सी दी। पर उसकी आवाज़ खुद ही धीमी सी लगी। जैसे उसके दिल पर एक धमक सी हुयी हो….।

वह सीढ़ियां चढ़ कर दरवाजे तक आ गयी थी। शाहनी ने अपनी गुलाबी साड़ी का पल्ला संवारा, जैसे सामने देखने के लिये वह साड़ी के शगुन वाले रंग का सहारा ले रही हो…।

सामने उसने हरे रंग का बांकड़ीवाला गरारा पहना हुआ था, गले में लाल रंग की कमीज थी और सिर से पैर तक ढलकी हुयी हरे रेशम की चुनरी। एक झिलमिल सी हुयी। शाहनी को सिर्फ एक पल यही लगा – जैसे हरा रंग सारे दरवाजे़ में फैल गया था।

फिर हरे कांच की चूड़ियों की छन छन हुयी, तो शाहनी ने देखा एक गोरा गोरा हाथ एक झुके हुए माथे को छू कर आदाब बजा़ रहा है, और साथ ही एक झनकती हुई सी आवाज़ – “बहुत बहुत मुबारिक, शाहनी! बहुत बहुत मुबारिक….”

वह बड़ी नाजुक सी, पतली सी थी। हाथ लगते ही दोहरी होती थी। शाहनी ने उसे गाव-तकिये के सहारे हाथ के इशारे से बैठने को कहा, तो शाहनी को लगा कि उसकी मांसल बांह बड़ी ही बेडौल लग रही थी…।

कमरे के एक कोने में शाह भी था। दोस्त भी थे, कुछ रिश्तेदार मर्द भी। उस नाजनीन ने उस कोने की तरफ देख कर भी एक बार सलाम किया, और फिर परे गाव-तकिये के सहारे ठुमककर बैठ गयी। बैठते वक्त कांच की चूड़िया फिर छनकी थीं, शाहनी ने एक बार फिर उसकी बाहों को देखा, हरे कांच की और फिर स्वभाविक ही अपनी बांह में पड़े उए सोने के चूड़े को देखने लगी….

 

कमरे में एक चकाचौध सी छा गयी थी।  हरएक की आंखें जैसे एक ही तरफ उलट गयीं थीं, शाहनी की अपनी आंखें भी, पर उसे अपनी आंखों को छोड़ कर सबकी आंखों पर एक गुस्सा-सा आ गया…

 

वह फिर एक बार कहना चाहती थी – अरी बदशुगनी क्यों करती हो? सेहरे गाओ ना …पर उसकी आवाज गले में घुटती सी  गयी थी। शायद ओरों की आवाज भी गले में घुट सी गयी थी। कमरे में एक खामोशी छा गयी थी। वह अधबीच रखी हुई ढोलक की तरफ देखने लगी, और उसका जी किया कि वह बड़ी जोर से ढोलक बजाये…..

 

खामोशी उसने ही तोड़ी जिसके लिये खामोशी छायी थी। कहने लगी, ” मैं तो सबसे पहले घोड़ी गाऊंगी, लड़के का’सगन’ करुंगी, क्यों शाहनी?” और शाहनी की तरफ ताकती, हंसती हुई घोड़ी गाने लगी, “निक्की निक्की बुंदी निकिया मींह वे वरे, तेरी मां वे सुहागिन तेरे सगन करे….”

 

शाहनी को अचानक तस्सली सी हुई – शायद इसलिये कि गीत के बीच की मां वही थी, और उसका मर्द भी सिर्फ उसका मर्द था – तभी तो मां सुहागिन थी….

 

शाहनी हंसते से मुंह से उसके बिल्कुल सामने बैठ गयी -जो उस वक्त उसके बेटे के सगन कर रही थी…

 

घोड़ी खत्म हुई तो कमरे की बोलचाल फिर से लौट आयी। फिर कुछ स्वाभाविक सा हो गया। औरतों की तरफ से फरमाईश की गयी – “डोलकी रोड़ेवाला गीत।” मर्दों की तरफ से फरमाइश की गयी “मिरजे़ दियां सद्दां।”

 

गाने वाली ने मर्दों की फरमाईश सुनी अनसुनी कर दी, और ढोलकी को अपनी तरफ खींच कर उसने ढोलकी से अपना घुटना जोड़ लिया। शाहनी कुछ रौ में आ गयी – शायद इस लिये कि गाने वाली मर्दों की फरमाईश पूरी करने के बजाये औरतों की फरमाईश पूरी करने लगी थी….

 

मेहमान औरतों में से शायद कुछ एक को पता नहीं था। वह एक दूसरे से कुछ पूछ रहीं थीं, और कई उनके कान के पास कह रहीं थीं – “यही है शाह की कंजरी…..”

 

कहनेवालियों ने शायद बहुत धीरे से कहा था  – खुसरफुसर सा, पर शाहनी के कान में आवाज़ पड़ रही  थी, कानों से टकरा रही थी – शाह की कंजरी…..शाह की कंजरी…..और शाहनी के मूंह का रंग फीका पड़ गया।

 

इतने में ढोलक की आवाज ऊंची हो गयी और साथ ही गाने वाली की आवाज़, “सुहे वे चीरे वालिया मैं कहनी हां….” और शाहनी का कलेजा थम सा गया — वह सुहे चीरे वाला मेरा ही बेटा है, सुख से आज घोड़ी पर चढ़नेवाला मेरा बेटा…..

 

फरमाइश का अंत नहीं था। एक गीत खत्म होता, दूसरा गीत शुरू हो जाता। गाने वाली कभी औरतों की तरफ की फरमाईश पूरी करती, कभी मर्दों की। बीच बीच में कह देती, “कोई और भी गाओ ना, मुझे सांस दिला दो।” पर किसकी हिम्मत थी, उसके सामने होने की, उसकी टल्ली सी आवाज़ …..वह भी शायद कहने को कह रही थी, वैसे एक के पीछे झट दूसरा गीत छेड़ देती थी।

 

गीतों की बात और थी पर जब उसने मिरजे की हेक लगायी, “उठ नी साहिबा सुत्तिये! उठ के दे दीदार…” हवा का कलेजा हिल गया। कमरे में बैठे मर्द बुत बन गये थे। शाहनी को फिर घबराहट सी हुई, उसने बड़े गौर से शाह के मुख की तरफ देखा। शाह भी और बुतों सरीखा बुत बना हुआ था, पर शाहनी को लगा वह पत्थर का हो गया था….

 

शाहनी के कलेजे में हौल सा हुआ, और उसे लगा अगर यह घड़ी छिन गयी तो वह आप भी हमेशा के लिये बुत बन जायेगी….. वह करे, कुछ करे, कुछ भी करे, पर मिट्टी का बुत ना बने…..

 

काफी शाम हो गयी, महफिल खत्म होने वाली थी…..

 

शाहनी का कहना था, आज वह उसी तरह बताशे बांटेगी, जिस तरह लोग उस दिन बांटते हैं जिस दिन गीत बैठाये जाते हैं।  पर जब गाना खत्म हुआ तो कमरे में चाय और कई तरह की मिठायी आ गयी…..

 

और शाहनी ने मुट्ठी में लपेटा हुआ सौ का नोट निकाल कर, अपने बेटे के सिर पर से वारा, और फिर उसे पकड़ा दिया, जिसे लोग शाह की कंजरी कहते थे।

 

“रहेने दे, शाहनी!  आगे भी तेरा ही खाती हूं।” उसने जवाब दिया और हंस पड़ी। उसकी हंसी उसके रूप की तरह झिलमिल कर रही थी।

 

शाहनी के मुंह का रंग हल्का पड़ गया।  उसे लगा, जैसे शाह की कंजरी ने आज भरी सभा में शाह से अपना संबंध जोड़ कर उसकी हतक कर दी थी। पर शाहनी  ने अपना आप थाम लिया। एक जेरासा किया कि आज उसने हार नहीं खानी थी। वह जोर से हंस पड़ी। नोट पकड़ाती हुई कहने लगी, “शाह से तो तूने नित लेना है, पर मेरे हाथ से तूने फिर कब लेना है? चल आज ले ले…….”

 

और शाह की कंजरी नोट पकड़ती हुई, एक ही बार में हीनी सी हो गयी…..

कमरे में शाहनी की साड़ी का सगुनवाल गुलाबी रंग फैल गया…..

 

स्मृति शेष – सदैव अमर रहेगा हजार चौरासी की माँ अपराजेय साहित्य

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जन्म 14 जनवरी1926
जन्म भूमि ढाका, ब्रिटिश भारत
मृत्यु 28 जुलाई2016
मृत्यु स्थान कोलकाताभारत
अभिभावक पिता- मनीष घटक, माता- धारीत्री देवी
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र साहित्यकार, उपन्यासकार, निबन्धकार
मुख्य रचनाएँ ‘अग्निगर्भ’, ‘जंगल के दावेदार’, ‘1084 की माँ’, ‘माहेश्वर’, ‘ग्राम बांग्ला’, ‘झाँसी की रानी’, ‘मातृछवि’ और ‘जकड़न’ आदि।
भाषा हिन्दीबांग्ला
विद्यालय ‘विश्वभारती विश्वविद्यालय’,शांतिनिकेतनकलकत्ता विश्वविद्यालय
शिक्षा बी.ए., एम.ए., अंग्रेज़ी साहित्य में मास्टर डिग्री
पुरस्कार-उपाधि मेग्सेसे पुरस्कार‘ (1977), ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार‘ (1979), ‘पद्मश्री‘ (1986), ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार‘ (1996), ‘पद्म विभूषण‘ (2006)
प्रसिद्धि सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी महाश्वेता देवी की कृतियों पर कई फ़िल्मों का निर्माण भी हुआ, जैसे-1968 में ‘संघर्ष’, 1993 में ‘रूदाली’,1998 में ‘हजार चौरासी की माँ’ तथा2006 में ‘माटी माई’ आदि।
अद्यतन 12:30, 30 जुलाई, 2016 (IST)
इन्हें भी देखें कवि सूचीसाहित्यकार सूची

महाश्वेता देवी (अंग्रेज़ीMahasweta Devi, जन्म- 14 जनवरी1926ढाका; मृत्यु- 28 जुलाई2016कोलकाताभारत की प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका थीं। उन्होंने बांग्ला भाषा में बेहद संवेदनशील तथा वैचारिक लेखन के माध्यम से उपन्यास तथा कहानियों से साहित्य को समृद्धशाली बनाया। अपने लेखन के कार्य के साथ-साथ महाश्वेता देवी ने समाज सेवा में भी सदैव सक्रियता से भाग लिया और इसमें पूरे मन से लगी रहीं। स्त्री अधिकारों, दलितों तथा आदिवासियों के हितों के लिए उन्होंने जूझते हुए व्यवस्था से संघर्ष किया तथा इनके लिए सुविधा तथा न्याय का रास्ता बनाती रहीं। 1996 में उन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार‘ से सम्मानित किया गया था। महाश्वेता जी ने कम उम्र में ही लेखन कार्य शुरु कर दिया था और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

परिचय

14 जनवरी, 1926 को महाश्वेता देवी का जन्म अविभाजित भारत के ढाका में जिंदाबहार लेन में हुआ था। इनके जन्म के समय माँ धरित्री देवी मायके में थीं। माँकी उम्र तब 18 वर्ष और पिता मनीष घटक की 25 वर्ष थी। पिता मनीष घटक ख्याति प्राप्त कवि और साहित्यकार थे। माँ धरित्री देवी भी साहित्य की गंभीर अध्येता थीं। वे समाज सेवा में भी संलग्न रहती थीं। महाश्वेता ने जब बचपन में साफ-साफ बोलना शुरू किया तो उन्हें जो जिस नाम से पुकारता, वे भी उसी नाम से उसे पुकारतीं। पिता इन्हें ‘तुतुल’ कहते थे तो ये भी पिता को तुतुल ही कहतीं। आजीवन पिता उनके लिए तुतुल ही रहे।[1] भारत के विभाजन के समय किशोर अवस्था में ही उनका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर रहने लगा था। इसके उपरांत उन्होंने ‘विश्वभारती विश्वविद्यालय’, शांतिनिकेतन से बी.ए. अंग्रेज़ी विषय के साथ किया। फिर ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय‘ से एम.ए. भी अंग्रेज़ी में किया। महाश्वेता देवी नेअंग्रेज़ी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त की थी। इसके बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में उन्होंने अपना जीवन प्रारम्भ किया। इसके तुरंत बाद ही कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी व्याख्याता के रूप में आपने नौकरी प्राप्त कर ली। सन 1984में इन्होंने सेवानिवृत्ति ले ली।

प्रारम्भिक शिक्षा तथा नटखट स्वभाव

बचपन से ही महाश्वेता मातृभक्त रहीं। थोड़ी बड़ी हुईं तो ढाका के ‘इंडेन मांटेसरी स्कूल’ में भर्ती कराया गया। चार वर्ष की उम्र में ही बांग्ला लिखना-पढ़ना सीख गई थीं। पिता को नौकरी मिल गई थी। कई बार बदली हुई। तबादले पर उन्हें ढाका, मनमनसिंह, जलपाईगुड़ी, दिनाजपुर और फरीदपुर जाना पड़ा। ढाका के जिंदाबहार लेन में महाश्वेता का ननिहाल था और नतून भोरेंगा में पिता का गाँव। ननिहाल आना-जाना लगा रहता था। दुर्गा पूजा की छुट्टियाँ तो ननिहाल में ही कटतीं। बचपन में महाश्वेता नटखट थीं। इतनी कि एक बार ननिहाल में रहते हुए भोरंगा की दुर्गा पूजा देखने गई थीं। चार भाई-बहनों के साथ। भाई बहनों को लेकर वे एक स्नान घाट से उतरीं। स्नान करने और तैरने का मजा काफूर हो गया, जब चारों बच्चे डूबने से बचे। उस दिन सप्तमी की पूजा थी। घर आईं तो खूब डाँट पड़ी थी।

शांतिनिकेतन में शिक्षा

1935 में महाश्वेता जी के पिता का तबादला मेदिनीपुर हुआ तो महाश्वेता का वहाँ के मिशन स्कूल में दाखिला कराया गया, लेकिन उसके अगले वर्ष ही मेदिनीपुर से नाता टूट गया; क्योंकि उन्हें शांतिनिकेतन भेजने का फैसला किया गया। तब वे दस वर्ष की थीं। शांतिनिकेतन के नियमानुसार लाल रंग के किनारे वाली साड़ी, बिस्तर, लोटा, गिलास वगैरह खरीदा गया। शांतिनिकेतन में मिली नई जगह, सुंदर भवन, लाइब्रेरी आदि में महाश्वेता को उन्मुक्त प्रकृति मिली। नई सहेलियाँ मिलीं। आश्रम की दिनचर्या ऐसी थी कि सभी छात्र सुबह से देर रात तक व्यस्त रहते। शिक्षा का माध्यम बांग्ला होने के बावजूद अंग्रेज़ी अनिवार्य थी। शांतिनिकेतन में महाश्वेता का जल्दी ही मन लग गया। वहाँ उन्हें श्रेष्ठ शिक्षक मिले। बकौल महाश्वेता, ‘आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी पढ़ाते थे। सभी आश्रमवासी उन्हें छोटा पंडित जी कहते थे।1937 में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी बांग्ला की कक्षा ली थी। तब सातवीं कक्षा की छात्रा महाश्वेता के लिए यह अविस्मरणीय घटना थी। गुरुदेव ने पाठ परिचय से बलाई पढ़ाया था। इसके पहले 1936 में बंकिम शतवार्षिकी समारोह में रवींद्रनाथ का भाषण सुना था महाश्वेता ने।[1]

Mahasweta Devi was felicitated and given Landmark Literature  Life time achievement  award at NCPA on Sunday. *** Local Caption *** Mahasweta Devi was felicitated and given Landmark Literature  Life time achievement  award at NCPA on Sunday. Express photo by Ganesh Shersikar. Mumbai 06-11-2011.
कलकत्ता आगमन

महाश्वेता शांतिनिकेतन में तीन साल ही रह सकीं, क्योंकि 1939 में उन्हें कलकत्ता बुला लिया गया। शांतिनिकेतन जाने पर वे जितना रोई थीं, उससे ज्यादा उसके छूटने पर रोई थीं। 1939 में शांतिनिकेतन से लौटने के बाद कलकत्ता के ‘बेलतला बालिका विद्यालय’ में आठवीं कक्षा में महाश्वेता का दाखिला हुआ। उसी साल उनके काका ऋत्विक घटक भी घर आकर रहने लगे। वे 1941 तक यहाँ रहे। 1939 में बेलतला स्कूल में महाश्वेता की शिक्षिका थीं अपर्णा सेन। उनके बड़े भाई खेगेंद्रनाथ सेन ‘रंगमशाल’ निकालते थे। उन्होंने एक दिन रवींद्रनाथ की पुस्तक ‘छेलेबेला’ देते हुए महाश्वेता से उस पर कुछ लिखकर देने को कहा। महाश्वेता ने लिखा और वह ‘रंगमशाल’ में छपा भी। यह महाश्वेता की पहली रचना थी। स्कूली जीवन में ही महाश्वेता ने राजलक्ष्मी और धीरेश भट्टाचार्य के साथ मिलकर एक अल्पायु स्वहस्तलिखित पत्रिका निकाली – ‘छन्नछाड़ा।’

नानी, दादी व माँ ने महाश्वेता को अच्छे साहित्य पढ़ने के संस्कार दिए। कोई किताब पढ़ने के बाद कोई प्रसंग दादी माँ पूछ भी लेती थीं। बचपन में दादी की लाइब्रेरी से ही लेकर महाश्वेता ने ‘टम काकार कुटीर’ पढ़ा था। घर का पूरा माहौल ही शिक्षा और संस्कृतमय था। इसलिए लिखने-पढ़ने का एक नियमित अभ्यास छुटपन में ही हो गया। हेम-बंधु-बंकिम-नवीन-रंगलाल को उन्होंने 12 वर्ष की उम्र में ही पढ़ लिया। माँ देश प्रेम और इतिहास की पुस्तकें पढ़ने को देतीं और कहतीं- “अभी इन पुस्तकों को पढ़ना जरूरी है। बाद में अपनी इच्छा से पढ़ना।” पिता की भी बड़ी समृद्ध लाइब्रेरी थी। तब के ‘नोबेल पुरस्कार‘ प्राप्त कई लेखकों की रचनाएँ महाश्वेता ने पिता की लाइब्रेरी से ही लेकर पढ़ी थीं। 1939-1944 के दौरान महाश्वेता के पिता ने कलकत्ता में सात बार घर बदले। 1942 में घर के सारे कामकाज करते हुए महाश्वेता ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। उस वर्ष (1942) ‘भारत छोड़ो आंदोलन‘ ने महाश्वेता के किशोर मन को बहुत उद्वेलित किया।1943 में अकाल पड़ा। तब महिला आत्मरक्षा समिति के नेतृत्व में उन्होंने राहत और सेवा कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। अकाल के बाद महाश्वेता ने कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स वार’ और ‘जनयुद्ध’ की बिक्री भी की थी। पर पार्टी की सदस्य वे कभी नहीं हुईं।[1]

व्यावसायिक शुरुआत

किशोरवय में ही कंधे पर आ चुके पारिवारिक दायित्व को निभाने के प्रति भी महाश्वेता सदा सजग रहतीं। माँ के जीवन के आखिरी वर्षों में महाश्वेता ने पुरानी सिलाई मशीन चलाकर कपड़ों की सिलाई की। 1944 में महाश्वेता ने कलकत्ता के आशुतोष कॉलेज से इंटरमीडिएट किया। पारिवारिक दायित्व से कुछ मुक्ति मिली यानी वह भार छोटी बहन मितुल ने सँभाला तो महाश्वेता फिर शांतिनिकेतन गईं कॉलेज की पढ़ाई करने। वहाँ ‘देश’ के संपादक सागरमय घोष आते-जाते थे। उन्होंने महाश्वेता से ‘देश’ में लिखने को कहा। तब महाश्वेता बी.ए. तृतीय वर्ष में थीं। उस दौरान उनकी तीन कहानियाँ ‘देश’ में छपीं। हर कहानी पर दस रुपये का पारिश्रमिक मिला था। तभी उन्हें बोध हुआ कि लिख-पढ़कर भी गुजारा संभव है। उन्होंने शांतिनिकेतन से 1946 में अंग्रेज़ी में ऑनर्स के साथ स्नातक किया। उसके साल भर बाद 1947में प्रख्यात रंगकर्मी विजन भट्टाचार्य से उनका विवाह हुआ। 1948 में पदमपुकुर इंस्टीट्यूशन में अध्यापन कर महाश्वेता ने घर का खर्चा चलाया। उसी वर्ष पुत्र नवारुण भट्टाचार्य का जन्म हुआ। 1949 में महाश्वेता को केंद्र सरकार के डिप्टी एकाउंटेट जनरल, पोस्ट एंड टेलीग्राफ ऑफिस में अपर डिवीजन क्लर्क की नौकरी मिली। लेकिन एक वर्ष के भीतर ही, चूँकि पति कम्युनिस्ट थे, सो उनकी नौकरी चली गई। महाश्वेता अतुल गुप्त के पास गईं। उनकी नोटिस के दबाव में महाश्वेता की फिर बहाली हुई लेकिन इस बार महाश्वेता की दराज में मार्क्स और लेनिन की किताबें रखकर कम्युनिस्ट होने का आरोप लगाकर और अस्थायी होने के चलते दुबारा नौकरी से उन्हें हटा दिया गया। नौकरी जाने के बाद जीवन-संग्राम ज्यादा कठिन हो गया। महाश्वेता ने कपड़ा साफ करने के साबुन की बिक्री से लेकर ट्यूशन करके घर का खर्चा चलाया। यह क्रम 1957 में रमेश मित्र बालिका विद्यालय में मास्टरी मिलने तक चला। विजन भट्टाचार्य से विवाह होने से ही महाश्वेता जीवन संग्राम का यह पक्ष महसूस कर सकीं और एक सुशिक्षित, सुसंस्कृत परिवार की लड़की होने के बावजूद स्वेच्छा से संग्रामी जीवन का रास्ता चुन सकीं।

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‘झाँसीर रानी’ की रचना

संघर्ष के इन दिनों ने ही लेखिका महाश्वेता को भी तैयार किया। उस दौरान उन्होंने खूब रचनाएँ पढ़ीं। विश्व के मशहूर लेखकों-चिंतकों की रचनाएँ, इलिया एरेनबर्ग, अलेक्सी टालस्टाय, गोर्की, चेखव, सोल्झेनित्सिन, मायकोवस्की और रूस के कई अन्य लेखकों की पुस्तकें पढ़ीं। उसी समय विजन भट्टाचार्य को एक हिंदी फिल्म की कहानी लिखने के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ा। उनके साथ महाश्वेता भी गईं। मुंबई में महाश्वेता के बड़े मामा सचिन चौधरी थे। मामा के यहाँ ही महाश्वेता ने पढ़ा – वी.डी. सावरकर, 1857। उससे इतनी प्रभावित हुईं कि उनके मन में भी इसी तरह का कुछ लिखने का विचार आया। तय किया कि झाँसी की रानी पर वे किताब लिखेंगी। उन पर जितनी किताबें थीं, सब जुटाकर पढ़ा। मुंबई से आने के बाद ट्यूशन वगैरह तो चल ही रहा था, लेखन को भी जीविका का साधन बनाने का विचार दृढ़ होता गया।

महाश्वेता ने प्रतुल गुप्त को अपने मन की बात बताई कि वे झाँसी की रानी पर लिखना चाहती हैं। महाश्वेता ने झाँसी की रानी के भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्र व्यवहार शुरू किया। सामग्री जुटाने और पढ़ने के साथ-साथ उत्साहित होकर महाश्वेता ने लिखना भी शुरू कर दिया। फटाफट चार सौ पेज लिख डाले। पर इतना लिखने के बाद उनके मन ने कहा – यह तो कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने उसे फाड़कर फेंक दिया। झाँसी की रानी के बारे में और जानना पड़ेगा। तो इसके लिए छह वर्ष के बेटे नवारुण भट्टाचार्य और पति को कलकत्ता में छोड़कर अंततः झाँसी ही चली गईं। तब न पति के पास नौकरी थी न उनके पास। जैसे-तैसे शुभचिंतकों से पैसे लेकर वे 1954 में झाँसी की यात्रा पर निकलीं। अकेले उन्होंने बुंदेलखंड के चप्पे-चप्पे को अपने कदमों से नापा। वहाँ के लोकगीतों को कलमबद्ध किया। तब झाँसी की रानी की जीवनी लिखने वाले वृन्दावनलाल वर्मा झाँसी कंटोनमेंट में रहते थे। उनसे भी वे मिलीं। उनके परामर्श के मुताबिक झाँसी की रानी से जुड़े कई स्थानों का दौरा किया। बुंदेलखंड से लौटकर महाश्वेता ने नए सिरे से ‘झाँसीर रानी’ लिखी और ‘देश’ में यह रचना धारावाहिक छपने लगी। न्यू एज ने इसे पुस्तक के रूप में छापने के लिए महाश्वेता को पाँच सौ रुपये दिए। इस तरह महाश्वेता की पहली किताब1956 में आई।[1] ‘झाँसीर रानी’ (1956) के बाद महाश्वेता की दूसरी पुस्तक ‘नटी’ 1957 में आई। उसी कड़ी में ‘जली थी अग्निशिखा’ आई। ये तीनों किताबें 1857 के महासंग्राम पर केंद्रित हैं। ह्यूरोज ने ही कहा है कि समय और युग की सभी रूढ़ियों को तोड़कर लक्ष्मीबाईने अपने को एक योग्य व सक्षम सेनानायक सिद्ध किया था। ह्यूरोज के इस कथन को महाश्वेता ने ‘जली थी अग्निशिखा’ में भी उद्धृत किया है।

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पति से सम्बंध विच्छेद

साठ का दशक महाश्वेता के जीवन के लिए बड़ा उथल-पुथल वाला रहा। 1962 में विजन भट्टाचार्य से उनका विवाह-विच्छेद हो गया। असीत गुप्त से दूसरा विवाह हुआ। किंतु उनसे भी 1975 में विवाह-विच्छेद हो गया। उसके बाद उन्होंने लेखन और आदिवासियों के बीच कार्य कर हमेशा सृजनात्मक कार्यों में अपने को व्यस्त रखा। यह भी गौर करने योग्य है कि महाश्वेता कभी कर्तव्य से च्युत नहीं हुईं। घर में बेटी, दीदी, पत्नी, माँ और दादी माँ की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई। महाश्वेता आरंभ से ही अलग किस्म की महिला रहीं। इसलिए दो-दो बार विवाह-विच्छेद होने के बावजूद उनके सम्मान पर कोई आँच नहीं आई। वे वही महाश्वेता रहीं। महाश्वेता का उनके पति भी बहुत सम्मान करते थे। इसलिए विवाह-विच्छेद के बाद भी विजन या असीत ने महाश्वेता के विरुद्ध या महाश्वेता ने उन दोनों के विरुद्ध कभी कुछ नहीं कहा। विजन की मुत्यु के बाद महाश्वेता दिन भर वहाँ रहीं। वहाँ महाश्वेता की उपस्थिति को बहुत सम्मान दिया गया।

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उपन्यास ‘अरण्येर अधिकार’ का लेखन

अपने उपन्यास ‘अरण्येर अधिकार’ (जंगल के दावेदार) में महाश्वेता देवी समाज में व्याप्त मानवीय शोषण और उसके विरुद्ध उबलते विद्रोह को उम्दा तरीके से रखांकित करती हैं। ‘अरण्येर अधिकार’ में उस बिरसा मुंडा की कथा है, जिसने सदी के मोड़ पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनजातीय विद्रोह का बिगुल बजाया। मुंडा जनजाति में समानता, न्याय और आजादी के आंदोलन का सूत्रपात बिरसा ने अंग्रेज़ों के खिलाफ किया था। ‘अरण्येर अधिकार’ आदिवासियों के सशक्त विद्रोह की महागाथा है जो मानवीय मूल्यों से सराबोर है। महाश्वेता ने मुख्य मुद्दे पर उँगली रखी है। मसलन बिरसा का विद्रोह सिर्फ अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध नहीं था, अपितु समकालीन सामंती व्यवस्था के विरुद्ध भी था। बिरसा मुंडा के इन पक्षों को सहेजकर साहित्य और इतिहास में प्रकाशित करने का श्रेय महाश्वेता को ही है। ‘अरण्येर अधिकार’ लिखने के पीछे की कहानी ये है कि 1974 में फिल्म निर्माता शांति चौधरी ने महाश्वेता से बिरसा मुंडा पर कुछ लिखकर देने को कहा। श्री चौधरी, बिरसा पर फिल्म बनाना चाहते थे। बिरसा पर लिखने के लिए महाश्वेता ने पहले तो कुमार सुरेश सिंह की किताब पढ़ी। फिर दक्षिणबिहार गईं, वहा के लोगों से मिलीं। कई तथ्य संग्रह किए। फिर लिखा ‘अरण्येर अधिकार’। 1979 में जब इस किताब पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो आदिवासियों ने जगह-जगह ढाक बजा-बजाकर गया था – ‘हमें साहित्य अकादमी मिला है।’ तब मुंडा नाम से ही उनमें असीम गौरव बोध जगा था। जो मुंडा भूमिज नाम से सरकारी रेकार्ड में दर्ज थे, उन्होंने उपने को मुंडा नाम से दर्ज करने की प्रशासन से दरखास्त की थी। साहित्य अकादमी मिलने पर मुंडाओं ने महाश्वेता का अभिनंदन करने के लिए उन्हें अपने यहाँ (मेदिनीपुर में) बुलाया। 1979 की उस सभा में आदिवासी वक्ताओं ने कहा था- “मुख्यधारा ने हमें कभी स्वीकृति नहीं दी। हम इतिहास में नहीं थे। तुम्हारे लिखने से हमें स्वीकृति मिली।” साहित्य अकादमी पाने पर महाश्वेता को जितनी खुशी नहीं हुई, उससे ज्यादा इन आदिवासियों की प्रसन्नता से हुई। महाश्वेता को लगा, आदिवासियों के बारे में उनका दायित्व और बढ़ गया है। उन्होंने आदिवासियों के लिए यथासंभव काम करते जाने और उनके बारे में और भी जानने की कोशिश जारी रखी।

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रचनाएँ

महाश्वेता देवी ने विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं आदि का योगदान दिया। उनका प्रथम उपन्यास ‘नाती’ 1957 में प्रकाशित किया गया था। ‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है, जो 1956 में प्रकाशित हुई। उन्होंने स्वयं ही अपने शब्दों में कहा था कि- “इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।” इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कोलकाता में बैठकर नहीं, बल्कि सागरजबलपुरपूनाइंदौर और ललितपुर के जंगलों; साथ ही झाँसीग्वालियर और कालपी में घटित तमाम घटनाएँ यानी1857-1858 में इतिहास के मंच पर जो कुछ भी हुआ, सबको साथ लेकर लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज़ अफ़सर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। महाश्वेता जी कहती थीं- “पहले मेरी मूल विधाकविता थी, अब कहानी और उपन्यास हैं।” उनकी कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों में ‘अग्निगर्भ’, ‘जंगल के दावेदार’ और ‘1084 की माँ’, ‘माहेश्वर’ और ‘ग्राम बांग्ला’ आदि हैं। पिछले चालीस वर्षों में इनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के क़रीब प्रकाशित हो चुके हैं।[2]

एक पत्रकार, लेखक, साहित्यकार और आंदोलनधर्मी के रूप में महाश्वेता देवी ने अपार ख्याति प्राप्त की। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में ‘अग्निगर्भ’ ‘जंगल के दावेदार’ और ‘1084 की मां’, माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। पिछले चालीस वर्षों में उनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के क़रीब (सभी बंगला भाषा में) प्रकाशित हो चुकी है। महाश्वेता देवी की कृतियों पर फिल्में भी बनीं। 1968 में ‘संघर्ष’, 1993 में ‘रूदाली’, 1998 में ‘हजार चौरासी की माँ’, 2006 में ‘माटी माई’।[3] महाश्वेता देवी की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

लघुकथाएँ – मीलू के लिए, मास्टर साब

कहानियाँ – स्वाहा, रिपोर्टर, वान्टेड

उपन्यास – नटी, अग्निगर्भ, झाँसी की रानी, मर्डरर की माँ, 1084 की माँ, मातृछवि, जली थी अग्निशिखा, जकड़न

आत्मकथा उम्रकैद, अक्लांत कौरव

आलेख – कृष्ण द्वादशी, अमृत संचय, घहराती घटाएँ, भारत में बंधुआ मज़दूर, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, ग्राम बांग्ला, जंगल के दावेदार, आदिवासी कथा

यात्रा संस्मरण – श्री श्री गणेश महिमा, ईंट के ऊपर ईंट

नाटक – टेरोडैक्टिल, दौलति[2]

प्रमुख रचनाओं की कथावस्तु

  • महाश्वेता देवी ने ‘शालगिरह की पुकार पर’ कृति मेंसंथाल जीवन और अँग्रेजों के विरुद्ध उनके ऐतिहासिक संग्राम को दर्ज किया है।
  • ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’ में आदिवासी समाज की हकीकत को दर्शाया गया है।
  • ‘अमृत संचय’उपन्यास 1857 से थोड़ा पहले प्रारंभ होता है। ‘अमृत संचय’ में प्रतिकूल स्थितियों में भी जीवन के प्रति जो ललक है और प्रतिरोध की जो चेतना है, उस चेतना पर महाश्वेता की बराबर नजर रही है। गौरों के विरुद्ध ही वह चेतना नहीं थी, बल्कि आज़ादभारत में भी प्रतिरोध की चेतना रही है, जिसे महाश्वेता पूरे साहस के साथ अभिव्यक्त करती हैं।
  • ‘आपरेशन बसाईटुडु’, ‘जगमोहन की मृत्यु’ में महाश्वेता की वेदना और संघर्ष की स्मृति भी संचित है। महाश्वेताइतिहास, मिथक और वर्तमान राजनैतिक यथार्थ के ताने-बाने को संजोते हुए सामाजिक परिवेश की मानवीय पीड़ा को स्वर देती हैं।
  • ‘अग्निगर्भ’ में महाश्वेता देवी पूछती हैं- “जब बटाईदारी-अधिया जैसी घृणित प्रथा में किसान पिस रहे हों, खेतिहर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी न मिले, बीज-खाद-पानी-बिजली के लाले पड़े हों, उनका अस्तित्व दाँव पर हो, ऐसे में वह सामंती हिंसा के विरुद्ध हिंसा को चुन ले तो क्या आश्चर्य? ‘अग्निगर्भ’ में उन संघर्षशील लोगों कीकथा है, जिन्होंने सामाजिक न्याय के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर दिए।
  • सर्कस की पृष्ठभूमि पर लिखा ‘प्रेमतारा’ प्रेम की कथा है, फिर भी उसकी पृष्ठभूमि में सिपाही विद्रोह रहता है।
  • ‘अक्लांत कौरव’ की कथा छोटी है, लेकिन अपने गर्भ में विस्फोटक तथ्य छिपाए है।
  • शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ निरंतर संघर्ष करने वाले गरीब और समर्पित स्कूल मास्टर की कथा के जरिए साठ-सत्तर के दशक में अपने नक्सल आंदोलन के वैचारिक सरोकारों और लोगों में आती प्रतिरोध की चेतना को लेखिका ने ‘मास्टर साब’उपन्यास में दर्शाया है। यह एक जीवनीपरक, विचारोत्तेजक और मार्मिक उपन्यास है।
  • महाश्वेता ने ‘हजार चौरासी की माँ’ में नक्सल आंदोलन को माँ की नजर से देखा। नक्सल आंदोलन की वे साक्षी रही थीं। जनसंघर्षों ने उनके जीवन को भी परिवर्तित किया और लेखन को भी। ‘हजार चौरासी की माँ’ उस माँ की मर्मस्पर्शीकहानी है, जिसने जान लिया है कि उसके पुत्र का शव पुलिस हिरासत में कैसे और क्यों है।
  • अपनेउपन्यास ‘नील छवि’ में उन्होंने रोचक ढंग से बताया है कि ड्रग्स और ब्लू फिल्में किस तरह समाज को भीतर से खोखला कर रही हैं और कला-जगत, पत्रकारिता और उच्च व निम्न मध्य वर्ग किन विडंबनाओं का शिकार है? पूरी और बुरी तरह उपभोक्ता संस्कृति में जकड़ा समाज किस तरह अपनी विलासिता और महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सारे मानवीय और नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे चुका है।
  • ‘कवि वैद्यघोटी गइनेर जीवन उ मृत्यु’ में महाश्वेता ने निचली जाति के युवक के मानवाधिकार हासिल करने के संघर्ष को वाणी दी है।[

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बिहारमध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके महाश्वेता देवी के कार्यक्षेत्र रहे। वहाँ इनका ध्यान लोढ़ा तथा शबरा आदिवासियों की दीन दशा की ओर अधिक रहा। इसी तरह बिहार के पलामू क्षेत्र के आदिवासी भी इनके सरोकार का विषय बने। इनमें स्त्रियों की दशा और भी दयनीय थी। महाश्वेता देवी ने इस स्थिति में सुधार करने का संकल्प लिया। 1970 से महाश्वेता देवी ने अपने उद्देश्य के हित में व्यवस्था से सीधा हस्तक्षेप शुरू किया। उन्होंने पश्चिम बंगाल की औद्योगिक नीतियों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन छेड़ा तथा विकास के प्रचलित कार्य को चुनौती दी।

आदिवासियों की संघर्ष गाथाएँ

महाश्वेता देवी ने अपने कई उपन्यासों की तरह अपनी अनेक कहानियों में भी सदियों से मुख्यधारा से बाहर धकेली गई आदिवासी अस्मिता के प्रश्न को शिद्दत से उठाया है। महाश्वेता की कई कहानियाँ आदिवासियों की प्रामाणिक संघर्ष गाथाएँ हैं बल्कि उन्हें महागाथाएँ कहना ज्यादा उचित होगा। इन महागाथाओं में आदिवासी समाज की चिंता कदाचित पहली बार बेचैनी के साथ प्रकट हुई। अपनी कथाकृतियों में हाशिए पर धकेले गए आदिवासी को नायक बनाकर महाश्वेता देवी हिंदी में प्रेमचंद तो बांग्ला में ताराशंकर बंद्योपाध्याय और मानिक बंद्योपाध्याय से भी आगे निकल गईं। प्रेमचंद और ताराशंकर किसान को नायक बना चुके थे तो मानिक बाबू मछुआरों को। उससे काफी आगे जाकर महाश्वेता ने जनजातियों और आदिवासियों के विद्रोही नायकों को अपनी कथाकृतियों का नायक बनाया। महाश्वेता अपनी कहानियों में समाज को शोषण, दोहन और उत्पीड़न से मुक्त कराते संघर्षशील नायकों का संधान करती हैं। इन संघर्षशील आदिवासी नायकों का संधान महाश्वेता की कहानी ‘बाढ़’ में बागदी के रूप में ‘बांयेन’ में डोम ‘शाम सवेरे की माँ’ में पाखमारा ‘शिकार’ में ओरांव ‘बीज’ में गंजू ‘मूल अधिकार और भिखारी दुसाध’ में दुसाध ‘बेहुला’ में माल या ओझा और ‘द्रौपदी’ में संथाल के रूप में सहज ही हो जाता है।

सन 1984 में प्रकाशित अपने श्रेष्ठ गल्प की भूमिका में महाश्वेता देवी ने लिखा है- “साहित्य को केवल भाषा-शैली और शिल्प की कसौटी पर रखकर देखने के मापदंड गलत हैं। साहित्य का मूल्यांकन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। किसी लेखक के लेखन को उसके समय और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में रखकर न देखने से उसका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। मैं पुराकथा पौराणिक चरित्र और घटनाओं को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में फिर से यह बताने के लिए लिखती हूँ कि वास्तव में लोक-कथाओं में अतीत और वर्तमान एक अविच्छिन्न धारा के रूप में प्रवाहित होते हैं। यह अविच्छिन्न धारा भी वायवीय नहीं है बल्कि जात-पांत खेत और जंगल पर अधिकार और सबसे ऊपर सत्ता के विस्तार तथा उसके कायम रखने की पद्धति को केंद्र में रखकर निम्न वर्ग के मनुष्य के शोषण का क्रमिक इतिहास है।”

कहानियों के विषय

महाश्वेता की कहानियों में सामंती ताकतों के शोषण, उत्पीड़न, चल-छद्म के विरुद्ध पीड़ितों और शोषितों का संघर्ष अनवरत जारी रहता है। संघर्ष में वह मार भी खाता है पर थककर बैठ नहीं जाता। क्रूरता और बर्बरता में भी पीड़ित तबका टिके रहता है। कई उपन्यासों की तरह उनकी कहानियों में भी आदिम जनजातीय स्रोतों से प्राप्त कथा तो है ही, जीवन और समाज के दूसरे ज्वलंत मुद्दों को भी उनहोंने साधिकार स्पर्श किया है। ‘रुदाली’ कहानी में महाश्वेता ने औरत की अस्मिता का प्रश्न उम्दा तरीके से उठाया तो ‘अक्लांत कौरव’ में विकास और छद्म प्रगतिवाद की तीखी आलोचना की।

‘वर्तिका’ का सम्पादन

पलामू के बंधुआ मजदूरों के बीच काम करते हुए महाश्वेता ने कई तथ्य एकत्रित किए थे। उसी के आधार पर निर्मल घोष के साथ मिलकर उन्होंने ‘भारत के बंधुआ मजदूर’ नामक पुस्तक लिखी थी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी अंचलों के सुख-दुख के बारे में उन्होंने समय-समय पर जो लिखा वे भी संकलित होकर पुस्तक रूप में छाप चुकी हैं – ‘डस्ट आन रोड’। महाश्वेता की टिप्पणियों के इस संकलन को मैत्रेई घटक (महाश्वेता के छोटे भाई) ने संपादित किया है। 1980 में उन्होंने पत्रिका ‘वर्तिका’ का संपादन शुरू किया था। उसके पहले उनके पिता मनीष घटक उसे संपादित करते थे। पिता का 1979 में निधन हो गया तो महाश्वेता ने पत्रिका का चरित्र ही बदल डाला। वर्तिका एक ऐसा मंच बन गया जिसमें छोटे किसान, खेत मजदूर, आदिवासी, कारखानों में काम करने वाले मजदूर, रिक्शा चालक अपनी समस्याओं और जीवन के बारे में लिखते। अब भी लिखते हैं। ‘वर्तिका’ में मेदिनीपुर के लोधा और पुरुलिया के खेड़िया शबर आदिवासियों ने बहुत कुछ लिखा। इसके जरिए आदिवासियों ने जीवन में पहली बार किसी प्रकाशन में लिखा। पहली लोधा स्नातक लड़की चुनी कोटाल ने भी 1982में वर्तिका में लिखा था अपने जीवन संघर्ष के बारे में। इस तरह वर्तिका के जरिए महाश्वेता ने बांग्ला में वैकल्पिक साहित्यिक पत्रकारिता की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किए। महाश्वेता ने बंधुआ मजदूर, किसान, फैक्टरी मजदूर, ईंट भट्ठा मजदूर, आदिवासियों को जमीन से बेदखल किए जाने और बंगाल के हरेक आदिवासी समुदाय पर वर्तिका के विशेष अंक निकाले। उन्होंने बांग्ला देश और अमेरिका के आदिवासियों पर भी विशेष अंक निकाले। वर्तिका ने अपनी गहरी संपादकीय दृष्टि और संपादकीय विवेक का परिचय दिया।

पुरस्कार व सम्मान

1977 में महाश्वेता देवी को ‘मेग्सेसे पुरस्कार‘ प्रदान किया गया। 1979 में उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार‘ मिला। 1996 में ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार‘ से वह सम्मानित की गईं। 1986 में ‘पद्मश्री‘ तथा फिर 2006 में उन्हें ‘पद्मविभूषण‘ सम्मान प्रदान किया गया।

निधन

महाश्वेता देवी का निधन 28 जुलाई2016 को कोलकाता में हुआ। उन्हें कोलकाता के 22 मई को बेल व्यू नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था। उनके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। दिल का दौरा पड़ने के बाद उनका निधन हो गया।

(साभार – भारत डिस्कवरी)

 

तबला वादक लच्‍छू महाराज नहीं रहे

वाराणसी. जाने-माने तबला वादक लक्ष्मण नारायण सिंह उर्फ लच्छू महाराज का बुधवार देर रात निधन हो गया। वे कई दिनों से बीमार थे। डॉक्‍टरों ने बताया, हार्ट अटैक के कारण उनका निधन हुआ। 16 अक्टूबर 1944 को उनका जन्म हुआ था। वे एक्टर गोविंदा के मामा और गुरु थे। इस खबर के बाद गोविंदा अपनी शूटिंग कैंसल कर बनारस पहुंच रहे हैं।

 

बचपन में ही गोविंदा ने लच्छू महाराज को बना लिया था गुरु…

लच्छू महाराज के भाई आरपी सिंह व पीएन सिंह ने बताया कि एक्टर गोविंदा को तबला बजाना लच्छू महाराज ने ही सिखाया था। वह जब यहां आते थे साथ मिलकर ही तबला बजाया करते थे। लच्छू महाराज को गोविंदा ने बचपन में ही अपना गुरु मान लिया था।  जब लच्छू महाराज मुंबई जाते तो वे गोविंदा के घर में ही रुकते थे।

गोविंदा ने कहा- मुझे बहुत दुख हुआ

आरपी सिंह ने बताया कि जैसे ही ये खबर गोविंदा को लगी वे दुखी हो गए। फोन पर बताया, ”मैं सब शूटिंग कैंसल कर कल बनारस आऊंगा।”

कौन थे लच्छू महाराज?

जाने-माने तबला वादक थे। इन्होंने बनारस घराने की तबला बजाने की परंपरा को आगे बढ़ाया। उनके कई शिष्य देश-दुनिया में तबला बजाते हैं। लच्छू महाराज बेहद सादगी पसंद शख्स थे। इसी कारण उन्होंने कोई सम्मान नहीं लिया।-उनके अजीज मित्र राम अवतार सिंह ने बताया कि वह इतने साधारण थे कि 2002-03 में यूपी सरकार की ओर से उन्हें पद्श्री दिया जा रहा था, लेकिन उन्होंने नहीं लिया। बाद में ये सम्मान उनके शिष्य पंडित छन्नू लाल मिश्र को मिला। भाई पीएन सिंह ने बताया कि जब आठ साल की उम्र में वे मुंबई में एक प्रोग्राम के दौरान तबला बजा रहे थे तो जाने-माने तबला वादक अहमद जान ने कहा था कि काश लच्छू मेरा बेटा होता।

 

मुंशी प्रेमचंद के 136वें जन्मदिन पर गूगल ने यूं किया याद

नई दिल्ली। भारत के मशहूर हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के 136वें जन्मदिन पर गूगल ने उन्हें खास अंदाज में याद किया। गूगल ने अपना डूडल मुंशी प्रेमचंद के नाम किया । 1880 में उत्तर प्रदेश के लमही गांव में जन्मे प्रेमचंद भारत ही नहीं विश्व के बड़े साहित्यकारों में गिने जाते हैं।

‘कलम के सिपाही’ के नाम से मशहूर प्रेमचंद ने एक दर्जन से ज्यादा उपन्यास और कई कहानियां लिखी थीं। उनकी कहानियों और रचनाओं में आम आदमी का दर्द नजर आता है। गूगल के डूडल में प्रेमचंद को गांव की कहानियों के रचयिता के रूप में दिखाया गया है। डूडल के देखकर उनकी कई कहानियां याद आ जाती हैं।

गौरतलब है कि मशहूर लेखक और साहिकत्यकार प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय था। कलम के जादूगर के नाम से मशहूर इस लेखक की हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा पर सामान्य पकड़ थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रेमचंद ने हिंदी से पहले उर्दू में लिखना शुरू किया था।

मुशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में आमजन की पीड़ा को शब्दों के जरिये पिरोया है। यही वजह है कि उनकी हर रचना कालजयी है। मुंशी प्रेमचंद का व्यक्तित्व बड़ा ही साधारण था। उनके निधन के इतने साल बाद भी उनकी रचनाएं कफन, गबन, गोदान, ईदगाह और नमक का दरोगा हर किसी को बचपन की याद दिलाती हैं।

इनके द्वारा लिखे गए कई उपन्यासों और कहानियों पर फिल्म और धारावाहिक बन चुके हैं। अभी हाल ही में मुंशी प्रेमचंद की ईदगाह पर फिल्म का निर्माण चल रहा है।

चर्चित कहानियां

मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, आत्माराम, बूढ़ी काकी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, उधार की घड़ी, नमक का दरोगा, पंच फूल, प्रेम पूर्णिमा, जुर्माना आदि।

उपन्यास

गबन, बाजार-ए-हुस्न (उर्दू में), सेवा सदन, गोदान, कर्मभूमि, कायाकल्प, मनोरमा, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, प्रेमा और मंगल-सूत्र (अपूर्ण). प्रेमचंद्र ने लगभग 300 कहानियां तथा चौदह बड़े उपन्यास लिखे।

 

आईएनए में सेनानी रह चुकीं रमा बेन है देश की सबसे बुज़ुर्ग पर्यटक गाइड !

89 वर्ष की उम्र में रमा सत्येन्द्र खंडवाला (रमा बेन) न सिर्फ सबसे वृद्ध पर्यटक गाइड हैं बल्कि INA की श्रेष्ठ सैनिक भी रह चुकी हैं। रमा आजाद हिन्द फौज के रानी झाँसी रेजिमेंट में दो साल तक सेकेण्ड लेफ्टिनेंट रहीं।

रमा का जन्म 1926 में बर्मा के रंगून में हुआ था। वो कई साल से पर्यटक गाइड का काम कर रही हैं और अभी भी उनका अपने काम को छोड़ने का कोई इरादा नहीं है।
रमा आगरा के बाहर काम करती हैं। उन्हें इस बात का दुख है कि आजकल के गाइड अपने फायदे के लिए पर्यटकों को भटकाते है। वे गाइड कम और दुकानदारों के दलाल ज्यादा होते है और इन पर्यटकों को लूटते है।

एक वैध गाइड होने के नाते रमा खुद को बाहरी पर्यटकों के सामने देश की प्रतिनिधि मानती हैं। इस मामले में वे खुद को किसी राजदूत से कम नहीं मानतीं। उनका कहना है कि इस तरह पर्यटकों के भरोसे का फायदा उठाने वाले गाइड, देश की छबि खराब कर रहे हैं।

रमा ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया, “इस हानी को रोकने के लिए पुलिस और पर्यटन विभाग में तालमेल जरूरी है। इन दलालों का ऐतिहासिक स्थलों पर प्रवेश ही वर्जित कर देना चाहिए। अगर इन्हें अभी नहीं रोका गया तो ये पूरे पर्यटन उद्योग पर ही कब्जा कर लेंगे। टूर ऑपरेटरों को भी अपने छोटे-छोटे फायदों के सामने देश की छबि के बारे में सोचना चाहिए। ये खतरे में है।“

रमाबेन का परिवार स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था। इसलिए रमाबेन के अंदर भी बचपन से ही कर्तव्य और देशभक्ति की ज्योति जल रही थी। युवावस्था में वो सुभाष चंद्रबोस से काफी प्रभावित थीं। INA में सेवा देने के बाद, द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने पर उन्हें नजरबंद भी कर दिया गया था।
1946 में उनका परिवार मुम्बई आ गया। तब उन्होंने कई तरह के काम किए। कभी सचिवालय में तो कभी नर्स का काम किया। रमा को जापानी भाषा पर अच्छी पकड़ थी, इसलिए कुछ दिन भाषा अनुवादक का भी काम किया। जब उन्हें पता चला कि सरकार पर्यटक गाइड के लिए प्रशिक्षण दे रही है तो उन्होंने तय कर लिया कि उनके लिए यही काम सही है।

“डेस्क जॉब में मेरी कभी भी रूचि नहीं थी। मैंने प्रशिक्षण प्रोग्राम में दाखिला ले लिय़ा,“ रमा ने बताया।

भारत के पर्यटक गाइड में सिर्फ 17-18% ही महिलाएं हैं। इस निम्न प्रतिशत को देखते हुए रमा औऱ महिलाओं को भी इस काम में देखना चाहती हैं।

रमा का कहना है, “सब मानसिकता पर निर्भर करता है। कुछ लोग, खासकर उत्तर भारत के लोग इसे अच्छा पेशा नहीं मानते हैं। जबकि, ये सबसे अनोखा और रोमांचक पेशा है। हमें नई-नई जगह देखने के लिए मिलती हैं और दुनिया भर के लोगों से मिलने का मौका मिलता है।“

 

 

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की दो कविताएं

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भारत

सीखे नित नूतन ज्ञान,नई परिभाषाएं,
जब आग लगे,गहरी समाधि में रम जाओ;
या सिर के बल हो खडे परिक्रमा में घूमो।
ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि-बाजीगर के?

गांधी को उल्‍टा घिसो और जो धूल झरे,
उसके प्रलेप से अपनी कुण्‍ठा के मुख पर,
ऐसी नक्‍काशी गढो कि जो देखे, बोले,
आखिर , बापू भी और बात क्‍या कहते थे?

डगमगा रहे हों पांव लोग जब हंसते हों,
मत चिढो,ध्‍यान मत दो इन छोटी बातों पर
कल्‍पना जगदगुरु की हो जिसके सिर पर,
वह भला कहां तक ठोस कदम धर सकता है?

औ; गिर भी जो तुम गये किसी गहराई में,
तब भी तो इतनी बात शेष रह जाएगी
यह पतन नहीं, है एक देश पाताल गया,
प्‍यासी धरती के लिए अमृतघट लाने को।

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समर शेष है

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,

किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराधRamdhari_Singh_'Dinkar'

सुप्रीम कोर्ट ने 24 हफ्ते की प्रेग्नेंट रेप सर्वाइवर को दी अबॉर्शन की इजाजत

नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई की एक रेप सर्वाइवर  को 24 हफ्ते की प्रेग्नेंसी के बावजूद अबॉर्शन की इजाजत दे दी है। कानूनन 20 हफ्ते बाद अबॉर्शन नहीं कराया जा सकता। लेकिन सोमवार को कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अगर मां की जान को खतरा है, तो 20 हफ्ते बाद भी अबॉर्शन कराया जा सकता है। सर्वाइवर  ने मौजूदा कानून को चैलेंज किया था। 24 हफ्ते की प्रेग्नेंसी में अबॉर्शन की इजाजत मिलने का यह दूसरा मामला है। इससे पहले गुजरात में भी ऐसा ही मामला सामने आ चुका है।

क्या है ये मामला…
– मुंबई की रहने वाली रेप विक्टिम ने अपनी अपील में कहा था- “मैं बेहद ही गरीब फैमिली से हूं। मेरे मंगेतर ने शादी का झांसा देकर मेरे साथ रेप किया। “बाद में उसने दूसरी लड़की से शादी कर ली। उसके बाद मुझे प्रेग्नेंसी का पता चला। मैंने कई टेस्ट कराए, जिसमें इस बात की पुष्टि हुई कि अगर मैंने अबॉर्शन नहीं कराया तो जान को खतरा है।”

डॉक्टरों ने क्या कहा?
2 जून 2016 को डॉक्टरों ने उसका अबॉर्शन करने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट 1971 के मुताबिक 20 हफ्ते की प्रेग्नेंसी के बाद अबॉर्शन नहीं किया जा सकता।

महिला ने कैसे चुनौती दी?

– महिला ने कानून के इस प्राेविजन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उसका कहना था कि 1971 में जब कानून बना था उस समय 20 हफ्ते बाद अबॉर्शन की इजाजत नहीं देने का नियम सही था। लेकिन अब मेडिकली 26 हफ्ते बाद भी गर्भपात हो सकता है।  कोर्ट ने 22 जुलाई को सर्वाइवर  की जांच के लिए मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (केईएम) के सात डॉक्टरों का एक बोर्ड बनाया और उसे रिपोर्ट देने को कहा।

मेडिकली ऐब्नॉर्मल है बच्चा

बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि महिला के गर्भ में पल रहा बच्चा मेडिकली ऐब्नॉर्मल है। उसकी न तो खोपड़ी है और न ही लीवर है। बच्चे की आंत भी शरीर के बाहर है। अगर यह बच्चा जन्म लेगा तो बच नहीं पाएगा। अगर अबॉर्शन नहीं कराया गया तो युवती की जान को खतरा है।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

– जस्टिस जेएस केहर और अर्जुन मिश्रा की बेंच ने कहा- “हम पिटिशनर को एमटीपी एक्ट 1971 के तहत ही अबॉर्शन की इजाजत देते हैं।” कोर्ट ने इस मामले को ‘लाइफ बनाम लाइफ’ मानते हुए कहा कि महिला की जान को खतरा है, इसलिए अबॉर्शन किया जा सकता है, लेकिन 1971 का लॉ सही है या नहीं, इस पर सुनवाई होती रहेगी।
बता दें कि एटीपी एक्ट का सेक्शन 3 कहता है कि 20 हफ्ते से ज्यादा होने पर गर्भपात नहीं हो सकता है। लेकिन सेक्शन 5 कहता है कि अगर महिला की जान को खतरा हो तो कभी भी गर्भपात किया जा सकता है।

प्रोविजन बदला जा सकता है

केंद्र सरकार की ओर अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा, “इस मामले में केंद्र एमटीपी एक्ट के सेक्शन 5 के तहत अबॉर्शन की इजाजत दे सकता है, क्योंकि इस मामले में मां की जान को खतरा है।”बाकी धाराओं को लेकर हम अभी कुछ नहीं कहना चाहेंगे, क्योंकि ये एक बेहद गंभीर मामला है।’ “इसमें ढील दी गई तो कन्या भ्रूण हत्या जैसे मामलों में भी इसकी आड़ ली जा सकती है। लिहाजा, कोई बदलाव करने से पहले अलग से सुनवाई जरूरी है।” इस पर बेंच ने कहा कि 20 हफ्ते से ज्यादा के भ्रूण का गर्भपात नहीं करने के प्रोविजन की लीगैलटी पर दूसरी बेंच सुनवाई करेगी। वह बेंच ऐसे की एक मामले की पहले ही सुनवाई कर रही है।

ये फैसला दूसरे केस में मिसाल बनेगा?
कोर्ट ने कोई नई व्यवस्था नहीं दी है। मौजूदा कानून की धारा-5 में ही लिखा है कि जान का खतरा हो तो 20 हफ्ते के बाद भी गर्भपात हो सकता है। लेकिन उसके लिए मेडिकल बोर्ड की इजाजत चाहिए होगी। वैसे केंद्र का एक प्रपोजल पेंडिंग है, जिसमें अबॉर्शन की टाइम लिमिट 24 हफ्ते करने का प्रपोजल है।

दिल्ली में भी ऐसा ही मामला
– दिल्ली हाईकोर्ट में भी सोमवार को एक ऐसे ही मामले की सुनवाई हुई। इसमें 16 साल की रेप सर्वाइवर  ने 24 से 26 हफ्ते की प्रेग्नेंसी के बावजूद अबॉर्शन की इजाजत मांगी है।  नाबालिग की जांच के लिए बनाए गए मेडिकल बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अबॉर्शन से नाबालिग की जांन को खतरा है। अबॉर्शन नहीं करने पर भी इस उम्र में बच्चा पैदा करने से जान को खतरा हो सकता है।  अब हाईकोर्ट ने नाबालिग की जांच के लिए एम्स के चार डॉक्टरों का एक नया पैनल बनाया है। जो बताएगा कि लड़की को कितने हफ्ते का गर्भ है और अबॉर्शन से लड़की की जान को खतरा है कि नहीं।

गुजरात रेप केस में भी 24 हफ्ते बाद अबॉर्शन की इजाजत मिली थी

पिछले साल गुजरात की 14 साल की एक रेप सर्वाइवर को भी सुप्रीम कोर्ट ने 24 सप्ताह बाद अबॉर्शन कराने की इजाजत दी थी। कोर्ट ने कहा था कि जान को खतरा होने के हालात में 14 साल की रेप सर्वाइवर  का अबॉर्शन कराया जा सकता है।

इन 6 देशों में नहीं हो सकता अबॉर्शन
– दुनिया के 6 देश ऐसे भी हैं, जहां किसी हाल में अबॉर्शन मान्य नहीं है, चाहे महिला की जान ही क्यों न चली जाए।
– इनमें लैटिन अमेरिका के चार (चिली, डोमिनिकन रिपब्लिक, अल सल्वाडोर तथा निकारागुआ) और यूरोप के दो देश (वेटिकन सिटी और माल्टा) शामिल हैं।

 

1000 अनाथ बेटियों के दत्तक पिता हैं महेश सवाणी

सूरत. 1000 अनाथ बेटियों के दत्तक पिता बनने का संकल्प लेने वाले सूरत के इंडस्ट्रलिस्ट महेश सवाणी ने अपने बेटे और भतीजे की शादी भी अनाथ बेटियों के सामूहिक मैरिज सेरमनी में करने का फैसला किया है। 25 दिसंबर-2016 को होने वाले सामूहिक विवाह में 236 अनाथ बेटियों की भी डोली उठेगी।

रईस लोगों को मिलेगा मैसेज…

– महेश सवाणी ने सोमवार को सामूहिक शादी का प्रोग्राम तय कर दिया है। 22 दिसंबर 2016 को मेहंदी की रस्म, 23 को रास-गरबा और 25 दिसंबर को फेरे होंगे। महेश सवाणी का कहना है खुशियां बांटने का इससे अच्छा विकल्प और कुछ नहीं हो सकता।  दूसरे रईस लोगों को इससे अच्छा मैसेज मिलेगा कि एक ही विवाह के खर्च में कई शादियां हो सकती हैं। गरीब और पिता की छत्रछाया खो चुकी बेटियों के दत्तक पिता बनने का सौभाग्य मिल सकता है।

सामूहिक शादी में गिफ्ट

– 2008 के बाद उन्होंने राज्य में सामूहिक विवाह का हिस्सा बनना शुरू कर दिया। ऐसे प्रोग्राम में जाकर वह बेटियों को एक पिता के रूप में गिफ्ट भी देते हैं।  2012 तक वह कन्यादान करते थे। 2013 से उन्होंने सामूहिक विवाह के प्रोग्राम करने शुरू कर दिए।

इस घटना के बाद लिया संकल्प

बात 2008 की है। सवाणी परिवार के ईश्वरभाई सवाणी की दो बेटियां मितुला, अमृता की शादी होनी थी। शादी से एक सप्ताह पहले ही ईश्वरभाई चल बसे।  ईश्वरभाई के परिवार की मदद के लिए महेशभाई पहुंचे, बेटियों के शादी सहित पूरी जिम्मेदारी उठाने की इच्छा जता कर इजाजत मांगी। परिवार ने रजामंदी दी महेशभाई ने मितुला, अमृता का विवाह करवाया और खुद कन्यादान भी लिया। तब महेश को लगा कि सोसाइटी में मितुला, अमृता जैसी कई बेटियां हैं, जिनके पिता नहीं है।  इसके बाद उन्होंने तय कर लिया कि वे 1001 ऐसे बेटियों के दत्तक पिता बनेंगे।

 

साहित्यिकी के कार्यक्रम में गायक अजय राय ने बाँधा समां

गत शनिवार को” साहित्यिकी ” संस्था के तत्वावधान  में साहित्यिक गीत एवं गजलों का आयोजन भारतीय भाषा परिषद में किया गया।कार्यक्रम आरंभ करने के पहले दो मिनट का मौन रखकर दिवंगत महाश्वेता देवी को श्रद्धांजलि दी गई ।जाने-माने गायक श्री अजय राय ने सुपरिचित कवियों,शेयरों के गीत -गजलों को अपनी जादुई आवाज में प्रस्तुत कर मंत्र मुग्ध कर दिया ।निराला, गोपाल सिंह नेपाली, बच्चन, नूर मोहम्मद नूर, नीरज, कुँवर विजय, जयशंकर प्रसाद, बुद्धिनाथ मिश्र, दुश्यन्त कुमार आदि के चर्चित गीतों को सुर संगीत में ढाला ।तबले पर संगत दी दिव्येंदु भट्टाचार्य ने।सचिव किरण सिपानी ने श्री अजय राय का परिचय देते हुए कार्यक्रम का आरंभ किया ।राजश्री शुक्ला एवं दुर्गा व्यास ने कार्यक्रम का कुशल संचालन करते हुए उसे जीवंत बनाए रखा।अध्यक्ष कुसुम जैन ने

डाॅ शंभुनाथ, श्री खेमकरण पालीवाल, श्री आशुतोष, श्री प्रमोद शाह, श्रीमती मंजुरानी सिंह ,इतूसिंह एवं अन्य गणमान्य अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन किया ।साहित्यिकी की सदस्याओं की अच्छी उपस्थिति रही ।