नयी दिल्ली । भारतीय नर्सों की मांग दुनियाभर में बढ़ रही है। भारत के मुकाबले नर्सों को यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में लाखों रुपये महीने सैलरी मिल रही है। नर्सों की सबसे ज्यादा कमी विकसित देशों में देखी जा रही है। बता दें कि पिछले साल 70 हजार से 1 लाख भारतीय नर्सें विदेश गई हैं। वहीं इस साल उनकी डिमांड 15-30% बढ़ने वाली है। एक्सपर्ट की मानें, तो आने वाले सालों में नर्सों की डिमांड बढ़ने वाली है। क्योंकि बूढ़ी होने वाली आबादी के कारण कई देश देखभाल के लिए नर्स चाहते हैं।
इटली, जर्मनी और जापान जैसे देशों में बड़ी संख्या में नर्सों की भर्ती की जा रही है। वहीं ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में भी नर्सों की नौकरियों की भरमार है। वहीं नर्सों को नौकरी देने वाले देशों में कतर, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब आदि शामिल हैं। यह नर्स बनने के लिए सबसे अच्छा समय माना जा रहा है। दुनियाभर में करीब 6,40,000 के करीब नर्सें काम कर रही हैं। एक्सपर्ट की मानें, तो भारतीय नर्सों की मांग विदेशों में काफी बढ़ी है। महीने दर महीने 20-30% भारतीय नर्सों की मांग में वृद्धि हुई है। यह दिखाता है कि एक साल में नर्सों की डिमांड दोगुना हो सकती है। दुनियाभर में नर्सिंग प्रोफेशनल्स की कमी है। WHO के अनुसार, साल 2030 तक 45 लाख नर्सों की जरूरत होगी। वहीं सबसे ज्यादा भारतीय नर्सों को हायर विकसित देश कर रहे हैं। क्वालिफाइड नर्सों के लिए विदेश में नौकरी पाना काफी आसान है। क्योंकि विदेश में उनको अच्छी तनख्वाह मिल रही है, साथ ही बढ़िया क्वालिटी ऑफ लाइफ, सिक्योरिटी और प्रोफेशनल ग्रोथ भी मिल रहा है। भारत की तुलना में विदेशों में भारतीय नर्सों को औसतन सात से दस गुना अधिक सैलरी मिलती है। वहीं पर्चेचिंग पावर पैरिटी के आधार पर भारत की तुलना में विदेश में मिलने वाली सैलरी तीन से पांच गुना ज्यादा है।
दुनियाभर में बढ़ी भारतीय नर्सों की मांग
देवी भारती व पंडित मंडन मिश्र से आदिगुरू शंकराचार्य का शास्त्रार्थ
पति की हार को देख उभय भारती ने शंकराचार्य से कह दिया कि ये तो उनकी आधी जीत है। भारती ने कहा, ‘मैं मंडन मिश्र की अर्धांगिनी हूं, अभी आपने आधे को ही हराया है। आपको मुझसे भी शास्त्रार्थ करना होगा। पहले भारती ने शंकराचार्य के सभी सवालों का सटीक जवाब दिया। जब शास्त्रार्थ के 21 वें दिन भारती को ये लगने लगा कि अब वे हार जाएंगी तो उन्होंने शंकराचार्य के सामने कामशास्त्र के सवाल रख दिए। उन्होंने पूछ लिया कि काम क्या है? इसकी प्रक्रिया क्या है और इससे संतानें कैसे पैदा होती है? ब्रह्मचर्य के घोर साधक शंकराचार्य इन सवालों के आगे नतमस्तक हो गए और उन्होंने उसी वक्त हार मान ली। इस तरह भारती ने शंकराचार्य को परास्त कर दिया।कामशास्त्र के बारे में जानने के लिए शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी से छह महीने का समय मांगा। ऐसा कहा जाता है कि शंकराचार्य ने योग के जरिए एक मृत राजा की देह में प्रवेश किया और उस राजा की पत्नी के साथ कई दिन बिताने के बाद उन्होंने कामशास्त्र को जाना। इसके बाद वे फिर मंडन के पास पहुंचे और उन्होंने उनकी पत्नी को सारे सवालों का जवाब देते हुए उन्हें हराया। इसके बाद मंडन मिश्र शंकराचार्य के शिष्य बन गए।
नहीं रहे दिशोम गुरू शिबू सोरेन
-ममता बनर्जी ने जताया शोक
नयी दिल्ली । झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का सोमवार सुबह सर गंगा राम अस्पताल में निधन हो गया। वे 81 वर्ष के थे। शिबू सोरेन किडनी से जुड़ी बीमारी के चलते पिछले एक महीने से अस्पताल में भर्ती थे। सर गंगा राम अस्पताल की ओर से जारी एक बयान में कहा गया कि शिबू सोरेन को आज सुबह 8:56 बजे मृत घोषित कर दिया गया। लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। वे किडनी की बीमारी से पीड़ित थे और डेढ़ महीने पहले उन्हें स्ट्रोक भी हुआ था। पिछले एक महीने से वे लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर थे। शिबू सोरेन के पुत्र और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद दिल्ली में मौजूद हैं। हेमंत सोरेन ने अपने पिता के निधन की जानकारी साझा करते हुए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ”आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सभी को छोड़कर चले गए हैं। आज मैं शून्य हो गया हूं। सोशल मीडिया एक्स पर शोक संदेश साझा करते हुए सोमवार को ममता बनर्जी ने लिखा, “झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व केंद्रीय मंत्री, झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक और मेरे आदिवासी भाइयों और बहनों के गुरु दिशोम (महान नेता) शिबू सोरेन के निधन से अत्यंत दुःखी हूं। मेरे भाई हेमंत सोरेन, उनके पुत्र और झारखंड के मुख्यमंत्री, साथ ही उनके पूरे परिवार, बिरादरी और सभी अनुयायियों के प्रति मेरी हार्दिक संवेदना। मैं उन्हें अच्छी तरह जानती थी और उनका सच्चा सम्मान करती हूं। आज झारखंड के इतिहास का एक अध्याय समाप्त हो रहा है।”
लोक को आलोक देता है तुलसी साहित्य: प्रो हरिशंकर मिश्र
कोलकाता । रामकथा को लोकोन्मुखी बनाकर गोस्वामी तुलसीदास ने संस्कृति को संवारने और समाज को बचाने का अभूतपूर्व कार्य किया। उनके साहित्य में भारतीय संस्कृति का संपूर्ण परिचय तो है ही, लोक जागरण के सूत्र भी हैं। अपने संग्रह त्याग, विवेक का परिचय देते हुए उन्होंने रामकथा को परिमार्जित कर उसका विमल रूप प्रस्तुत किया है।’ ये उद्गार हैं लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष प्रो० हरिशंकर मिश्र के, जो सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय के तत्वावधान में आयोजित तुलसी जयंती समारोह में बतौर प्रधान वक्ता बोल रहे थे। समारोह के अध्यक्ष प्रसिद्ध उद्योगपति, समाजसेवी एवं प्रखर वक्ता डॉ विट्ठलदास मूंधड़ा ने सनातन मूल्यों पर हो रहे चौतरफा प्रहार पर चिंता व्यक्त करते हुए अस्मिता की रक्षा और संस्कृति के संरक्षण हेतु तुलसी साहित्य के प्रसार की आवश्यकता पर बल दिया। समारोह का शुभारंभ जालान बालिका विद्यालय की छात्राओं द्वारा प्रस्तुत रुद्राष्टकम से हुआ। स्वागत भाषण देते हुए पुस्तकालय के उपाध्यक्ष डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी ने तुलसी जयंती के साथ प्रेमचंद के जन्मदिवस के संयोग की चर्चा करते हुए कहा कि एक रामकथा के गायक हैं और दूसरे ग्रामकथा के रचनाकार। दोनों ने समाज को नई दिशा प्रदान की। इस अवसर पर जालान बालिका विद्यालय की छात्राओं द्वारा रामलला नहछू की संगीतमय प्रस्तुति ने सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। अतिथियों का स्वागत महावीर प्रसाद बजाज, अरुण प्रकाश मल्लावत, विश्वंभर नेवर, सागरमल गुप्त, विधुशेखर शास्त्री ने किया। कार्यक्रम का संचालन पुस्तकालय की मंत्री दुर्गा व्यास ने एवं धन्यवाद ज्ञापन पुस्तकालयाध्यक्ष भरत कुमार जालान ने किया। इस अवसर पर शंकर लाल सोमानी, डॉ सत्या उपाध्याय, डॉ वसुमति डागा, डॉ तारा दूगड़, कमलेश मिश्र, विजय पाण्डेय, नंदलाल सिंघानिया, वंशीधर शर्मा, प्रियंकर पालीवाल के साथ साथ अन्य गणमान्य लोगों की गरिमामयी उपस्थिति रही। समारोह की सफलता में भगीरथ सारस्वत, श्रीमोहन तिवारी, पलक सिंह तथा सैकत मन्ना की सक्रिय भूमिका रही।
वर्तमान समय में प्रेमचंद कितने प्रासंगिक ..सेवासदन और निर्मला उपन्यास के संदर्भ में

प्रेमचंद को हिंदी उपन्यास का प्रवर्तक माना जाता है । उनके पूर्व हिंदी उपन्यास की कोई मौलिक स्थिति नहीं थी। प्रेमचंद के पूर्व के उपन्यास साहित्य जासूसी तिलस्मी ऐय्आरी और काल्पनिक रोमांस से युक्त होने के कारण मानव के यथार्थ जीवन से बहुत दूर थे। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने कहा था कि जब हिंदी में नवीन सामाजिक चेतना का विकास नहीं हुआ था प्रेमचंद उपन्यास के इस निर्माण और अनुवाद के प्रांरंभिक युग को पार करते हुए हिंदी उपन्यासों के उस युग में पहुंचने वाले पहले साहित्यकार थे जिन्होंने उसका शिलान्यास किया और हिंदी उपन्यास एक सुनिश्चत कलास्वरूप को प्राप्त कर अपनी आत्मा को पहचान सका तथा अपने उद्देश्य से परिचित होकर उसकी पूर्ति में लग सका।
प्रेमचंद जी उपन्यास साहित्य में युगांतर लेकर अवतरित हुए। प्रेमचंद के परवर्ती उपन्यासकारों ने किसी न किसी रूप में प्रेमचंद जी का अनुकरण किया। आज हिंदी उपन्यास साहित्य विकसित होकर पुष्ट हो चुका है। उसमें शैली – शिल्प और विषयवस्तु की दृष्टि से नए- नए प्रयोग हुए हैं और असंख्य उपन्यास लिखे गए लेकिन प्रेमचंद जैसा युगदृष्टा उपन्यासकार उत्पन्न नहीं हुआ ।
सेवासदन 1911 में लाहौर से उर्दू में जश्ने बाजार नाम से दो भागों में प्रकाशित हुआ था बाद में 1913 में महावीर प्रसाद पोद्दार जी की प्रेरणा से हिंदी में सेवासदन का प्रकाशन हुआ।
सेवासदन समाज का यथार्थ रूप से चित्रण करने वाला सामाजिक उपन्यास है। इसमें समाज की विभिन्न जातियों विचार पद्धतियों मान्यताओं एवं मर्यादाओं का पूर्ण रूप से चित्रण मिलता है। इसमें पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं का बड़ा ही स्वाभाविक वर्णन है। समाज में व्याप्त विपन्नता रिश्वतखोरी दहेज प्रथा अनमेल विवाह नारी जीवन की समस्याएं और समाज के तथाकथित सम्मनित लोगों की यथार्थ मानसिकता को दर्शाया गया है।
सेवासदन उपन्यास की नारी पात्री सुमन है जिसके इर्द गिर्द उपन्यास कई घटनाओं को बुनता हुआ बढ़ता है और तत्कालीन समाज के सभी पहलुओं को एक एक करके सामने रखा गया है। सुमन शक्तिशाली चरित्र है जिसमें सौन्दर्य और सेवाभाव दोनों का समन्वय है। चंचल और युवा नायिका सुमन जिसमें एक ओर जहां मांसल सौन्दर्य है तो दूसरी ओर उसमें अत्यधिक अन्तर्दृष्टि भी है। वह अपने चित्त की निर्बलता को दूर करने में भी सक्षम है।
वेश्या बनी सुमन के प्रति समाजसेवी विट्ठलदास कहते हैं कि स्त्रियों को अगर ईश्वर सुंदरता दे तो धन भी दे ।
निर्मला, मुंशी प्रेमचन्द द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दी उपन्यास है। इसका प्रकाशन सन १९२७ में हुआ था। सन १९२६ में दहेज प्रथा और अनमेल विवाह को आधार बना कर इस उपन्यास का लेखन प्रारम्भ हुआ। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली महिलाओं की पत्रिका ‘चाँद’ में नवम्बर १९२५ से दिसम्बर १९२६ तक यह उपन्यास विभिन्न किस्तों में प्रकाशित है।
निर्मला में अनमेल विवाह और दहेज प्रथा की दुखान्त व मार्मिक कहानी है। उपन्यास का लक्ष्य अनमेल-विवाह तथा दहेज़ प्रथा के बुरे प्रभाव को अंकित करता है। निर्मला के माध्यम से भारत की मध्यवर्गीय युवतियों की दयनीय हालत का चित्रण हुआ है। उपन्यास के अन्त में निर्मला की मृत्यृ इस कुत्सित सामाजिक प्रथा को मिटा डालने के लिए एक भारी चुनौती है। प्रेमचन्द ने भालचन्द और मोटेराम शास्त्री के प्रसंग द्वारा उपन्यास में हास्य की सृष्टि की है।
निर्मला उपन्यास पूर्व शिल्प से मुक्त नहीं है ।स्वपन संवाद और लेखकीय टिप्पणी का प्रयोग है – – निर्मला स्वप्न में देखती है कि विवाह अधिक आयु के व्यक्ति के साथ होगा।
मुंशी तोताराम के स्वप्न में मंसाराम की मृत्यु होना ।
रुक्मिणी का कहना कि वह लौटकर फिर न आएगा।
निर्मला, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध उपन्यास है, जो दहेज प्रथा और अनमेल विवाह के दुष्परिणामों पर केंद्रित है। उपन्यास में, निर्मला नाम की एक युवती का विवाह उसके पिता की उम्र के एक अधेड़ व्यक्ति से हो जाता है, जिसके पहले से ही तीन बेटे हैं। दहेज की मांग और सामाजिक दबाव के कारण निर्मला का जीवन नारकीय हो जाता है। उपन्यास में, प्रेमचंद ने निर्मला के माध्यम से भारतीय समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति, दहेज प्रथा के अभिशाप और अनमेल विवाहों के कारण होने वाली पीड़ा को उजागर किया है। लेखक का मुख्य उद्देश्य इन सामाजिक कुरीतियों पर प्रकाश डालना और पाठकों को इनके प्रति जागरूक करना है।
कथा-सारांश: निर्मला, एक सुंदर और सुशील युवती है, जिसका विवाह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति, तोताराम से होता है। तोताराम पहले से ही तीन बेटों का पिता है। निर्मला का जीवन ससुराल में कठिन हो जाता है। उसे दहेज की वजह से अपमान और अनादर का सामना करना पड़ता है। उसे अपने पति के बेटों से भी उपेक्षा मिलती है। निर्मला, अपने पति के प्रति समर्पित रहती है, लेकिन समाज उसे शक की नजर से देखता है। वह अपने कर्तव्यों का पालन करती है, लेकिन उसका जीवन पीड़ा और संघर्षों से भरा रहता है। अंततः, निर्मला बीमारी और मानसिक तनाव के कारण मृत्यु को प्राप्त होती है।
लेखक का प्रतिपाद्य: प्रेमचंद इस उपन्यास के माध्यम से दहेज प्रथा और अनमेल विवाह के खिलाफ आवाज उठाते हैं। वे दिखाते हैं कि कैसे ये सामाजिक बुराइयां महिलाओं के जीवन को नष्ट कर देती हैं। निर्मला के माध्यम से, प्रेमचंद ने भारतीय समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति, उनकी पीड़ा और संघर्षों को उजागर किया है। वह पाठकों को यह संदेश देना चाहते हैं कि इन कुरीतियों को खत्म करना आवश्यक है। उपन्यास में, प्रेमचंद ने समाज में व्याप्त रूढ़िवादी सोच और पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर भी प्रहार किया है। वह एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहां महिलाओं को सम्मान मिले और वे बिना किसी भेदभाव के जी सकें।
संक्षेप में, “निर्मला” एक सामाजिक उपन्यास है जो दहेज प्रथा और अनमेल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों पर प्रकाश डालता है और महिलाओं के प्रति सहानुभूति और सम्मान की भावना जगाता है। प्रेमचंद ने इस उपन्यास के माध्यम से पाठकों को इन सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष करने और एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए प्रेरित किया है।
मेरी माँ ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया : मुक्तिबोध
रचनाकार: गजानन माधव मुक्तिबोध | संस्मरण
जयशंकर प्रसाद और मुंशी प्रेमचंद
एक छाया-चित्र है। प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों खड़े हैं। प्रसाद गम्भीर सस्मित। प्रेमचन्द के होंठों पर अस्फुट हास्य। विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर हिन्दी कलाकारों के उस चित्र पर नजर ठहरने का एक और कारण भी है ।
प्रेमचन्द का जूता कैनवैस का है, और वह अँगुलियों की ओर से फटा हुआ है। जूते की कैद से बाहर निकलकर अँगुलियाँ बड़े मजे से मैदान की हवा खा रही है। फोटो खिंचवाते वक्त प्रेमचन्द अपने विन्यास से बेखबर हैं। उन्हें तो इस बात की खुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं, और फोटो निकलवा रहे हैं।
इस फोटो का मेरे जीवन में काफी महत्व रहा है। मैने उसे अपनी माँ को दिखाया था। प्रेमचन्द की सूरत देख मेरी माँ बहुत प्रसन्न मालूम हुई। वह प्रेमचन्द को एक कहानीकार के रूप में बहुत-बहुत चाहती थी। उसकी दृष्टि से, यानी उसके जीवन में महत्व रखने वाले, सिर्फ दो ही कादम्बरीकार (उपन्यास लेखक) हुए हैं – एक हरिनारायण आप्टे, दूसरे प्रेमचन्द। आप्टे की सर्वोच्च मराठी कृति, “उनके लेखे, पण लक्षान्त कोण देती है”, जिसमें भारतीय परिवार में स्त्री के उत्पीड़न की करूण कथा कही गयी है। वह क्रान्तिकारी करूणा है। उस करूणा ने महाराष्ट्रीय परिवारों को समाज-सुधार की ओर अग्रसर कर दिया।
मेरी माँ जब प्रेमचन्द की कृति पढ़ती, तो उसकी आँखों में बार-बार आँसू छल छलाते से मालूम होते। और तब–उन दिनों मैं साहित्य का एक जड़मति विद्यार्थी मात्र मैट्रिक का एक छोकरा था – प्रेमचन्द की कहानियों का दर्द भरा मर्म माँ मुझे बताने बैठती ।
प्रेमचन्द के पात्रों को देख, तदनुसारी-तदनरूप चरित्र माँ हमारे पहचानवालों में से खोज-खोजकर निकालती। इतना मुझे मालूम है कि माँ ने प्रेमचन्द का “नमक का दारोगा” आलमारी में से खोजकर निकाला था। प्रेमचन्द पढ़ते वक्त माँ को खूब हँसी भी आती, और तब वह मेरे मूड की परवाह किये बगैर मुझे प्रेमचन्द कथा प्रसूत उसके हास्य का मर्म बताने की सफल-असफल चेष्टा करती।
प्रेमचन्द के प्रति मेरी श्रद्धा व ममता को अमर करने का श्रेय मेरी माँ को ही है। मैं अपनी भावना में प्रेमचन्द को माँ से अलग नहीं कर सकता। मेरी माँ सामाजिक उत्पीड़नों के विरूद्ध क्षोभ और विद्रोह से भरी हुई थी। यद्यपि वह आचरण में परम्परावादी थी, किन्तु धन और वैभवजन्य संस्कृति के आधार पर ऊँच-नीच के भेद का तिरस्कार करती थी। वह स्वयं उत्पीड़ित थी। और भावना द्वारा, स्वयं की जीवन-अनुभूति के द्वारा, माँ स्वयं प्रेमचन्द के पात्रों में अपनी गणना कर लिया करती थी। मेरी ताई (माँ) अब बूढ़ी हो गयी है। उसने वस्तुत: भावना और सम्भावना के आधार पर मुझे प्रेमचन्द पढ़ाया। इस बात को वह नहीं जानती है कि प्रेमचन्द के पात्रों के मर्म का वर्णन-विवेचन करके वह अपने पुत्र के ह्रदय में किस बात का बीज बो रही है। पिताजी देवता हैं, माँ मेरी गुरू है। सामाजिक दम्भ, स्वाँग, ऊँच-नीच की भावना, अन्याय और उत्पीड़नों से कभी भी समझौता न करते हुए घृणा करना उसी ने मुझे सिखाया।
लेकिन मेरी प्यारी श्रद्धास्पदा माँ यह कभी न जान सकी कि वह किशोर-ह्रदय में किस भीषण क्रान्ति का बीज बो रही है, कि वह भावात्मक क्रान्ति अपने पुत्र को किस उचित-अनुचित मार्ग पर ले जायेगी, कि वह किस प्रकार अवसरवादी दुनिया के गणित से पुत्र को वंचित रखकर, उसके परिस्थिति-सामंजस्य को असम्भव बना देगी।
आज जब मैं इन बातों पर सोचता हूँ तो लगता है कि यदि मैं, माँ और प्रेमचन्द की केवल वेदना ही ग्रहण न कर, उनके चारित्रिक गुण भी सीखता, उनकी दृढ़ता, आत्म-संयम और अटलता को प्राप्त करता, आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति नष्ट कर देता, और उन्हीं के मनोजगत् की विशेषताओं को आत्मसात करता, तो शायद, शायद मैं अधिक योग्य पात्र होता। माँ मेरी गुरू भी अवश्य, किन्तु, मैं उनका शायद योग्य शिष्य ना था। अगर होता तो कदाचित् अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक होता, केवल प्रयोगवादी कवि बनकर न रह जाता।
मतलब यह कि जब कभी भी प्रेमचन्द के बारे में सोचता हूँ, मुझे अपने जीवन का ख्याल आ जाता है। मुझे महान चरित्रों से साक्षात्कार होता है, और मैं आत्म-विश्लेषण में डूब जाता हूँ। आत्म-विश्लेषण की मन:स्थिति बहुत बुरी चीज है।
जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तो मेरे कुछ लेखक-मित्रों के पास प्रेमचन्दजी के पत्र आये। मैं उन मित्रों के प्रति ईर्ष्यालु हो उठा। उन दिनों मैं उन लोगों को जीनियस समझता था, और प्रेमचन्द को देवर्षि। अब सोचता हूँ कि दोनों बातें गलत है। मेरे लेखक-मित्र जीनियस थे ही नहीं, बहुत प्रसिद्ध अवश्य थे और अभी भी है। किन्तु वे प्रेमचन्द के लायक न तब थे, न अब हैं। और यहाँ हम हिन्दी साहित्य के इतिहास के एक मनोरंजक और महत्वपूर्ण मोड़ तक पहुँच जाते है। प्रेमचन्द जी भारतीय सामाजिक क्रान्ति के एक पक्ष का चित्रण करते थे। वे उस क्रान्ति के एक अंग थे। किन्तु अन्य साहित्यिक उस क्रान्ति का एक अंग होते हुए भी उसके सामाजिक पक्ष की संवेदना के प्रति उन्मुख नहीं थे। वह क्रान्ति हिन्दी साहित्य में छायावादी व्यक्तिवाद के रूप में विकसित हो चुकी थी। जिस फोटो का मैंने शुरू में जिक्र किया, उसमें के प्रसादजी इस व्यक्तिवादी भाव-धारा के प्रमुख प्रवर्तक थे।
यह व्यक्तिवाद एक वेदना के रूप में सामाजिक गर्भितार्थों को लिये हुए भी, प्रत्यक्षत: किसी प्रत्यक्ष सामाजिक लक्ष्य से प्रेरित नहीं था । जैनेन्द्र में तो फिर भी मुक्तिकामी सामाजिक ध्वन्यर्थ थे, किन्तु आगे चलकर अज्ञेय में वे भी लुप्त हो गये। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द उत्थानशील भारतीय सामाजिक क्रान्ति के प्रथम और अन्तिम महान कलाकार थे। प्रेमचन्द की भाव-धारा वस्तुत: अग्रसर होती रही, किन्तु उसके शक्तिशाली आविर्भाव के रूप में कोई लेखक सामने नहीं आया। यह सम्भव भी नहीं था, क्योंकि इस क्रान्ति का नेतृत्व पढ़े-लिखे मध्यम-वर्ग के हाथ में था, और वह शहरों में रहता था। बाद में वह वर्ग अधिक आत्म-केन्द्रित और अधिक बुद्धि-छन्दी हो गया तथा उसने काव्य में प्रयोगवाद को जन्म दिया।
किन्तु, क्या यह वर्ग कम उत्पीड़ित है? आज तो सामाजिक विषमताएँ और भी बढ़ गयी हैं। प्रेमचन्द का महत्व पहले से भी अधिक बढ़ गया है। उनकी लोकप्रियता अब हिन्दी तक ही सीमित नहीं रह गयी है। अन्य भाषाओं में उनके अनुवादकर्ताओं के बीच होड़ लगी रहती है। प्रेमचन्द द्वारा सूचित सामाजिक सन्देश अभी भी अपूर्ण है। किन्तु हम जो हिन्दी के साहित्यिक है, उसकी तरफ विशेष ध्यान नहीं दे पाते। एक तरह से यह यथार्थ से भागना हुआ। उदाहरणत: आज का कथा-साहित्य पढ़कर पात्रों की प्रतिच्छाया देखने के लिए हमारी आँखे आस-पास के लोगों की तरफ नहीं खिंचतीं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है, जैसे पात्रों की छाया ही नहीं गिरती, कि वे लगभग देहहीन है। लगता है कि हमारे यहाँ प्रेमचन्द के बाद एक भी ऐसे चरित्र का चित्रण नहीं हुआ, जिसे हम भारतीय विवेक-चेतना का प्रतीक कह सकें। शायद, अज्ञान के कारण मेरी ऐसी धारणा होगी। कोई मुझे प्रकाश-दान दें।
किन्तु, कुल मिलाकर मुझे ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द की जरूरत आज पहले से भी ज्यादा बढ़ी हुई है। प्रेमचन्द के पात्र आज भी हमारे समाज में जीवित हैं। किन्तु वे अब भिन्न स्थिति में रह रहे हैं। किसी के चरित्र का कदाचित् अध:पतन हो गया है। किसी का शायद पुनर्जन्म हो गया है। बहुतेरे पात्र अपने सृजनकर्त्ता लेखक की खोज में भटक रहे है। उन्हें अवश्य ऐसा कोई-न-कोई लेखक शीघ्र ही प्राप्त होगा।
प्रेमचन्द की विशाल छाया में बैठकर आत्म-विश्लेषण की मन:स्थिति मुझे अजीब ख्यालों में डूबो देती है। माना कि आज व्यक्ति पहले जैसा ही जीवन-संघर्ष में तत्पर है, किन्तु अब वह अधिक आत्म केन्द्रित और आत्म-ग्रस्त हो गया है, माना कि इन दिनों वह समाज-परिवर्तन की, समाजवाद की, वैज्ञानिक विकास की, योजनाबद्ध कार्य की, अधिक बात करता है। किन्तु एक चरित्र के रूप में, एक पात्र के रूप में, वह सघन और निबिड़ आत्म-केन्द्रित होता जा रहा है। माना कि आज वह अधिक सुशिक्षित-प्रशिक्षित है, और अनेक पुराणपंथी विचारों को त्याग चुका है, तथा जीवन जगत से अधिक सचेत और सचेष्ट है किन्तु मानो ये सब बातें, ये सारी योग्यताएँ, ये सारी स्पृहणीय विशेषताएँ, उसे अधिकाधिक स्वयं-ग्रस्त बनाती गयी हैं। कदाचित् मेरा यह मन्तव्य अतिशयोक्तिपूर्ण है, किन्तु यह भी सही है कि वह एक तथ्य की ही अतिशयोक्ति है।
आश्चर्य मुझे इस बात का होता है कि आखिर आदमी को हो क्या गया है। उसकी अन्तरात्मा, एक जमाने में समाजोन्मुख सेवाभावी थी, आज आदर्शवाद की बात करते हुए भी इतनी अजीब क्यों हो गयी? एक बार बातचीत के सिलसिले में, एक सम्मानीय पुरूष ने मुझे कहा कि व्यक्ति जितना सुशिक्षित-प्रशिक्षित होता जायेगा, उतना ही बौद्धिक होता जायेगा, और उसी अनुपात में उसकी आत्मकेन्द्रिता बढ़ती जायेगी, उतने ही उसके मानवोचित गुण कम होते जायेंगे, जैसे करूणा, क्षमा, दया, शील, उदारता आदि। मेरे ख्याल से उसने जो कहा है, गलत है। किन्तु यह मैं निश्चय नहीं कर पाता कि उसका मन्तव्य निराधार है। शायद, मैं गलती कर रहा हूँगा। जीवन के सिर्फ एक पक्ष को (अधूरे ढ़ंग से और अपर्याप्त निरीक्षण द्वारा) आंकलित कर मैं इस निराशात्मक मन्तव्य की ओर आकर्षित हूँ।
किन्तु, कभी-कभी निराशा भी आवश्यक होती है। विशेषकर प्रेमचन्द की छाया में बैठे, आज के अपने आस-पास के जीवन के दृश्य देख, वह कुछ तो स्वाभाविक ही है। सारांश यह, कि प्रेमचन्दजी की कथा-साहित्य पढ़कर आज हम एक उदार और उदात्त नैतिकता की तलाश करने लगते है, चाहने लगते हैं कि प्रेमचन्दजी के पात्रों के मानवीय गुण हममें समा जायें, हम उतने ही मानवीय हो जायें जितना कि प्रेमचन्द चाहते हैं। प्रेमचन्दजी का कथा-साहित्य हम पर एक बहुत बड़ा नैतिक प्रभाव डालता है। उनका कथा-साहित्य पढ़ते हुए उनके विशिष्ट उँचे पात्रों द्वारा हमारे अन्त:करण में विकसित की गयी भावधाराएँ हमें न केवल समाजोन्मुख करती है, वरन् वे आत्मोन्मुख भी कर देती है। और अब प्रेमचन्द हमें आत्मोन्मुख कर देते हैं, तब वे हमारी आत्म-केन्द्रिता के दुर्ग को तोड़कर हमें एक अच्छा मानव बनाने में लग जाते हैं। प्रेमचन्द समाज के चित्रणकर्त्ता ही नहीं, वरन् वे हमारी आत्मा के शिल्पी भी है।
माना कि हमारे साहित्य का टेकनीक बढ़ता चला जायेगा, माना कि हम अधिकाधिक सचेत और अधिकाधिक सूक्ष्म-बुद्धि होते जायेंगे, माना कि हमारा बुद्धिगत ज्ञान संवेदनाओं और भावनाओं को न केवल एक विशेष दिशा में मोड़ देगा, वरन् उनका अनुशासन-प्रशासन भी करेगा। किन्तु क्या यह सच नहीं है कि मानवीय सत्यों और तथ्यों को देखने की सहज भोली और निर्मल दृष्टि, ह्रदय का सहज सुकुमार आदर्शवाद, दिल को भीतर से हिला देने वाली कर्त्तव्योन्मुख प्रेरणा भी हमारे लिए उतनी ही कठिन और दुष्प्राप्त होती जायेगी?
ओह! काश, हम भी भोली कली से खिल सकते! पराये दु:ख में रोकर उसे दूर करने की भोली सक्रियता पा सकते! शायद मैं विशेष मन:स्थिति में ही यह सब कह रहा हूँ। फिर भी मेरी यह कहने की इच्छा होती है कि समाज का विकास अनिवार्यत: मानवोचित नैतिक-हार्दिक विकास के साथ चलता जाता है, यह आवश्यक नहीं है। सभ्यता का विकास नैतिक विकास भी करता है, यह जरूरी नहीं है।
यह समस्या प्रस्तुत लेख के विषय से सम्बन्धित होते हुए भी उसके बाहर है। मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि प्रेमचन्द का कथा-साहित्य पढ़कर हमारे मन पर जो प्रभाव होते हैं, वे धीरे-धीरे हमारी चिन्तना को इस सभ्यता-समस्या तक ले आते हैं। क्या यह हमें प्रेमचन्द की ही देन नहीं है?
जयंती पर विशेष : प्रेमचंद मुंशी कैसे बने
डॉ. जगदीश व्योम
सुप्रसिद्ध साहित्यकारों के मूल नाम के साथ कभी-कभी कुछ उपनाम या विशेषण ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि साहित्यकार का मूल नाम तो पीछे रह जाता है और यह उपनाम या विशेषण इतने प्रसिद्ध हो जाते हैं कि उनके बिना कवि या रचनाकार का नाम अधूरा लगने लगता है। साथ ही मूल नाम अपनी पहचान ही खोने लगता है। भारतीय जनमानस की संवेदना में बसे उपन्यास सम्राट ‘प्रेमचंद’ जी भी इस पारंपरिक तथ्य से अछूते नहीं रह सके।उनका नाम यदि मात्र प्रेमचंद लिया जाय तो अधूरा सा प्रतीत होता है।
उपनाम या तख़ल्लुस से तो बहुत से कवि और लेखक जाने जाते हैं किन्तु ‘मुंशी’ प्रेमचंद का उपनाम या तखल्लुस नहीं था। ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि ‘प्रेमचंद’ के नाम के साथ ‘मुंशी’ का क्या संबंध था। यह शब्द आखिर जुड़ा कैसे? क्या प्रेमचंद ने कभी मुंशी का काम किया या यह उपाधि उनके परिवार में पिता या पितामह से उनके पास विरासत में हस्तांतरित हुई। साथ ही प्रेमचंद का मूल नाम क्या था और वह बदल कर प्रेमचंद कैसे हो गया? प्रेमचंद के नाम के साथ ‘उपन्यास सम्राट’ का एक और विशेषण भी जुड़ा हुआ है। यह सब नाम और उपाधियाँ प्रेमचंद के साथ कैसे जुड़ गए- इसके पीछे कुछ रोचक घटनाएँ हैं।
‘प्रेमचंद’ का वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। ‘नबावराय’ नाम से वे उर्दू में लिखते थे। उनकी ‘सोज़े वतन’ (१९०९, ज़माना प्रेस, कानपुर) कहानी-संग्रह की सभी प्रतियाँ तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ज़ब्त कर ली थीं। सरकारी कोप से बचने के लिए उर्दू अखबार “ज़माना” के संपादक मुंशी दया नारायण निगम ने नबाव राय के स्थान पर ‘प्रेमचंद’ उपनाम सुझाया। यह नाम उन्हें इतना पसंद आया कि ‘नबाव राय’ के स्थान पर वे ‘प्रेमचंद’ हो गए।
हिन्दी पुस्तक एजेन्सी का एक प्रेस कलकत्ता में था, जिसका नाम ‘वणिक प्रेस’ था। इसके मुद्रक थे ‘महाबीर प्रसाद पोद्दार’। वे प्रेमचंद की रचनाएँ बँगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरत बाबू को पढ़ने के लिए दिया करते थे। एक दिन शरत बाबू से मिलने के लिए पोद्दार जी उनके घर पर गए। उन्होंने देखा कि शरत बाबू, प्रेमचंद का कोई उपन्यास पढ़ रहे थे। जो बीच में खुला हुआ था। कौतूहलवश पोद्दार जी ने उसे उठा कर देखा कि उपन्यास के एक पृष्ठ पर शरत् बाबू ने ‘उपन्यास सम्राट” लिख रखा है। बस, यहीं से पोद्दार जी ने प्रेमचंद को ‘उपन्यास सम्राट प्रेमचंद’ लिखना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार धनपत राय से ‘प्रेमचंद’ तथा ‘उपन्यास सम्राट प्रेमचंद’ हुए।
प्रेमचंद जी के नाम के साथ ‘मुंशी’ कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप ‘मुंशी’ शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। इस जिज्ञासा की पूर्ति हेतु मैंने प्रेमचंद जी के सुपुत्र एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमृत राय जी को एक पत्र लिखकर इस विषय में उनकी राय जाननी चाही। अमृतराय जी ने कृपा कर मेरे पत्र का उत्तर दिया। जो इस प्रकार है-
अमृत राय जी के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। यह बात सही है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है। यह भी सच है कि कायस्थों के नाम के आगे मुंशी लगाने की परम्परा रही है तथा अध्यापकों को भी ‘मुंशी जी’ कहा जाता था। इसका साक्षी है प्रेमचंद से संबंधित साहित्य।
इस सम्बन्ध में प्रेमचंद की धर्म पत्नी ‘शिवरानी देवी’ की पुस्तक ‘प्रेमचंद घर में’ में प्रेमचंद से संबंधित सभी घरेलू बातों की चर्चा शिवरानी देवी ने की है। पूरी पुस्तक में कहीं भी प्रेमचंद के लिए ‘मुंशी’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इससे स्पष्ट है कि उस समय तक प्रेमचंद के नाम के साथ ‘मुंशी’ का प्रयोग नहीं होता था, और न ही सम्मान स्वरूप लोग उन्हें ‘मुंशी’ ही कहते थे, अन्यथा शिवरानी देवी प्रेमचंद के लिए कहीं न कहीं ‘मुंशी’ विशेषण का प्रयोग अवश्य करतीं। क्यों कि इसी पुस्तक में उन्होंने दया नारायण जी के लिए मुंशी जी शब्द का प्रयोग कई बार किया है परन्तु प्रेमचंद के लिए कहीं भी नहीं।
एक उदाहरण देखें-
“आप बीमार पड़े। मुझसे बोले-
हंस की जमानत तुम जमा करवा दो। मैं अच्छा हो जाने पर उसे सँभाल लूँगा।
उनकी बीमारी से मैं खुद परेशान थी उस पर ‘हंस’ की उनको इतनी फिक्र। मैं बोली, अच्छे हो जाइये, तब सब कुछ ठीक हो जाएगा।”
आप बोले, “नहीं दाखिल करा दो। रहूँ या न रहूँ “हंस” चलेगा ही। यह मेरा स्मारक होगा।”
मेरा गला भर आया। हृदय थर्रा गया। मैंने जमानत के रुपये जमा करवा दिए।
आपने समझा शायद धुन्नू, (अमृत राय घरेलू नाम) जमानत न करा पाए। दयानारायण जी निगम को तार दिया। वे आये। पहले बड़ी देर तक उन्हें पकड़ कर वे (प्रेमचंद) रोते रहे। वे भी रोते थे, मैं भी रोती थी, और मुंशी जी भी रोते थे। मुंशी जी ने कई बार रोकने की चेष्टा की पर आप बोले, ‘भाई शायद अब भेंट न हो।अब तुमसे सब बातें कह देना चाहता हूँ। तुमको बुलवाया है, हंस की जमानत करवा दो।”
(प्रेमचंद घर में – शिवरानी देवी, पृष्ठ-७०)
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद के लिए ‘मुंशी’ शब्द का प्रयोग सम्मान सूचक के अर्थ में कदापि नहीं हुआ है और न ही उनके जीवन काल में उनके नाम के साथ लगाया जाता था। तो फिर यह ‘मुंशी’ शब्द कब से प्रेमचंद का सान्निध्य पा गया और किस लिए? प्रेमचंद के नाम, जो प्रकाशकों ने उनकी कृतियों पर छापे हैं उनमें क्रमश: ‘श्री प्रेमचंद जी’ (मानसरोवर प्रथम भाग), ‘श्रीयुत प्रेमचंद (सप्त सरोज), ‘उपन्यास सम्राट प्रेमचंद धनपतराय (शिलालेख), प्रेमचंद (रंगभूमि), श्रीमान प्रेमचंद जी (निर्मला)आदि कृतियों पर कहीं भी ‘मुंशी’ का प्रयोग नहीं हुआ है। जब कि श्री, श्रीयुत, उपन्यास सम्राट आदि विशेषणों का प्रयोग हुआ है। यदि प्रेमचंद के नाम के साथ ‘मुंशी” विशेषण का प्रचलन उस समय हो रहा होता तो कहीं न कहीं अवश्य प्रयुक्त होता। मगर मुंशी शब्द का प्रयोग प्रेमचंद जी के साथ कहीं नहीं हुआ है। प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का एकमात्र कारण यही है कि ‘हंस’ नामक पत्र प्रेमचंद एवं ‘कन्हैयालाल मुंशी’ के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर ‘कन्हैयालाल मुंशी’ का पूरा नाम न छपकर मात्र ‘मुंशी’ छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था। (हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है)।
संपादक -मुंशी, प्रेमचंद
‘हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने ‘मुंशी’ तथा ‘प्रेमचंद’ को एक समझ लिया और ‘प्रेमचंद’- ‘मुंशी प्रेमचंद’ बन गए।
यह स्वाभाविक भी है। सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। उसे ‘प्रेमचंद’ और ‘मुंशी’ के पचड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता थी। फिर कुछ संयोग ऐसा बना कि भ्रम का पक्ष सबल हो गया, वह ऐसे कि एक तो प्रेमचंद कायस्थ थे, दूसरे अध्यापक भी रहे। कायस्थों और अध्यापकों के लिए ‘मुंशी’ लगाने की परम्परा भी रही है। यह सब मिला कर जन सामान्य में वे ‘मुंशी प्रेमचंद’ के नाम से जाने जाने लगे। धीरे-धीरे मुंशी शब्द प्रेमचंद के साथ अच्छी तरह जुड़ गया। आज प्रेमचंद का मुंशी अलंकरण इतना रूढ़ हो गया है कि मात्र मुंशी से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है तथा ‘मुंशी’ न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।
सोफ़िया तोल्स्ताया: वो औरत जिसने तोल्स्तॉय की प्रतिभा को सहा, सँवारा और सँभाला
जब आशा भोसले से नाराज हुए किशोर कुमार
आशा भोंसले ने किशोर दा के साथ जाने कितने ही गीत गाए हैं। यूं तो किशोर दा संग आशा जी की बढ़िया ट्यूनिंग थी। लेकिन एक दफा एक वाक्या ऐसा हुआ था जब कुछ देर के लिए किशोर दा आशा भोंसले से नाराज़ हो गए थे। हुआ कुछ यूं था कि किशोर दा के साथ आशा जी एक सॉन्ग रिकॉर्ड कर रही थी। आशा जी को लगा कि किशोर दा ने सही से नहीं गाया है।
उन्होंने किशोर दा से कह दिया कि आपको दोबारा से रिकॉर्डिंग करनी चाहिए क्योंकि आपने बेसुरा गाया है। किशोर दा को ये बात बुरी लगी। उन्होंने आशा जी से कहा कि तुम बहुत बोलती हो। और फिर किशोर दा म्यूज़िक डायरेक्टर पंचम दा के पास जाकर बोले कि अब वो आशा के साथ रिकॉर्डिंग नहीं करेंगे। पंचम दा ने किसी तरह किशोर दा को उस गाने की रिकॉर्डिंग कंप्लीट करने के लिए मना लिया।
फिर स्टूडियो में जब सॉन्ग रिहर्सल शुरू हुई तो किशोर दा और आशा जी के बीच में बिल्कुल भी बात नहीं हुई। लेकिन जब गाने की फाइनल टेक रिकॉर्ड किया जाना शुरु हुआ और किशोर दा ने अपना वर्स गाया तो उन्हें अहसास हो गया कि वो बेसुरा गा रहे हैं। किशोर दा ने आशा जी की तरफ देखा। आशा जी उस वक्त गुस्से में थी और दूसरी तरफ देख रही थी।
और चूंकि किशोर कुमार आशा भोंसले को छोटी बहन मानते थे तो उन्होंने डांटते हुए आशा जी से कहा, वहां क्या देख रही है। मुझे बता कि मैं खराब गा रहा हूं। आशा जी उनसे बोली, मैं खराब बताऊं तो आप चिढ़ जाते हो। ना बताऊं तो डांटते हो। किशोर दा प्यार से बोले, कोई बात नहीं आशा। मैं ऐसा ही हूं पागल सा। और फिर फाइनली वो सॉन्ग रिकॉर्ड हो ही गया। आज आशा भोंसले जी का जन्मदिन है। आज ही के दिन यानि 8 सितंबर को सन 1933 में आशा भोँसले जी का जन्म हुआ था।