Tuesday, September 16, 2025
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बेटी को पढ़ाना था, पिता ने स्पेशल बच्चों के लिए खड़ा कर दिया स्कूल

भीलवाड़ा.यह कहानी है प्रेमकुमार जैन की। बेटी सोना दो साल की थी। चलते-चलते लड़खड़ा जाती थी। अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने कह दिया सोना विमंदित है। इलाज संभव नहीं। उसी दिन जैन ने जिद कर ली। वे सोना को चलाएंगे और पढ़ाएंगे। साथ ही उन बच्चों के सम्मान के लिए भी कुछ करेंगे जो सोना की तरह हैं। उन्होंने सोना मनोविकास केंद्र खोल दिया।

1996 में शुरू हुए अपनी तरह के इस स्कूल में अब 76 बच्चे हैं। दस प्रशिक्षित शिक्षक हैं। स्कूल सही चलता रहे इसलिए उन्होंने अपना व्यवसाय कम कर लिया। मूलत: जहाजपुर के रहने वाले जैन बताते हैं, बात वर्ष 1985-86 की है। सोना चलने लगी तो बार-बार गिर जाती थी। कुछ दिन सोचा कि बड़ी होने पर सही चलने लगेगी।

डॉक्टर बोले ठीक नहीं हो सकती बेटी

दो साल की हो गई तब भी वही स्थिति रही। भीलवाड़ा के डॉक्टर बीमारी समझ नहीं पाए तो जयपुर ले गए। वहां डॉक्टर ने बताया कि सोना 70 फीसदी विमंदित है इसलिए कभी ठीक नहीं हो सकती। पूरा परिवार सदमे में आ गया। वे स्थायी रूप से भीलवाड़ा आ गए। विमंदित बच्चों को पढ़ाने का तरीका समझा। छह साल तक ट्रेंड टीचर की तलाश में जयपुर सहित कई विमंदित स्कूलों में गए। 1996 में जयपुर के एक स्कूल से एक टीचर को भीलवाड़ा लाकर सोना मनोविकास केंद्र शुरू किया। विमंदित बच्चों के परिजनों से खुद मिलते और यहां ऐसे बच्चों को भर्ती कराने को प्रेरित करते।

सोना भी इसी केंद्र की छात्रा

सोना जब दो साल की थी तब जैन ने विशेष स्कूल खोलने का प्रण किया था। आठ साल की तब से सोना इसी स्कूल में अन्य बच्चों के साथ है। उसे भी स्पिच थैरेपी, फिजियो थैरेपी दी जाती है। वह अलग-अलग कमरों में विशेष खिलौनों से खेलती है। संगीत की क्लास में भी जाती है। आईक्यू लेवल के अनुसार उसे अलग-अलग बच्चों के साथ रखा जाता है।

सरकारी सहायता नहीं

यह केंद्र 1996 से 2002 तक सरकारी सहायता के बगैर चला। वर्ष 2002 में केंद्र सरकार से कुछ सहायता मिलना शुरू हुई जो 2007 में बंद हो गई। अक्टूबर, 2012 में राज्य सरकार से अनुदान मिला। यह वार्षिक चार लाख रुपए है लेकिन सालाना खर्च करीब 12 लाख रुपए आता है। बाद में स्कूल संचालन समिति भी कुछ सहयोग करने लगी। सोना मनो विकास केंद्र के संस्थापक प्रेम कुमार जैन कहते हैं कि किसी का विमंदित होना गुनाह तो नहीं। क्यों न उसे भी सम्मान का जीवन मिले। कई मूक-बधिर भी संघर्ष करके उच्च पदों पर पहुंचे हैं। तो विमंदित को भी कम नहीं आंका जा सकता।

 

प्यार के इजहार करना बखूबी जानते हैं पावरफुल बराक ओबामा

 

वो दुनिया का सबसे ताकतवर शख्स है. दुनिया के सबसे ताकतवर देश का सर्वोच्च नागरिक लेकिन बावजूद इसके वो सार्वजनिक जगह पर अपनी पत्नी का पर्स पकड़ने में झिझकता नहीं है। बीवी को सबसे सामने आई लव यू कहने में उसे कोई शर्म नहीं आती। अपनी बेहद व्यस्त जिंदगी में भी वो अपनी पत्नी को रेस्त्रां ले जाकर खाना खि‍लाना नहीं भूलता। उसका यकीन पत्नी को पीछे रखने में नहीं बल्क‍ि उसका हाथ पकड़कर साथ चलने में है।

जी हां, हम बात कर रहे हैं अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की। अगर हम आपसे पूछें कि आपने अमेरिकी राष्ट्रपति को पत्नी मिशेल ओबामा के बिना कितनी बार देखा है तो शायद आपको याद न पड़े। ओबामा दुनिया के किसी भी कोने में हों, मिशेल हमेशा उनके साथ नजर आती है। दोनों की पहचान एक आदर्श दंपती के तौर पर होती है। इन्हें अमेरिका की सबसे रोमांटिक जोड़ी के तौर पर भी देखा जाता है.

इनके बीच का प्यार वाकई एक मिसाल है. खासतौर पर उन पुरुषों के लिए जो अपने व्यस्त कामकाज का हवाला देकर बीवी-बच्चों को दरकिनार कर देते हैं. आप खुद ही सोचिए, क्या बराक के पास काम की कमी होगी…फिर भी वो अपनी पत्नी को भरपूर समय देते हैं.

10 ऐसी बातें जो साबित करती हैं कि एक बेहतरीन पति हैं बराक

 ओबामा भले ही दुनिया के सबसे ताकतवर शख्स क्यों न हों लेकिन उन्हें अपनी पत्नी से रोमांस करना भी बखूबी आता है. एक टेलीविजन इंटरव्यू के दौरान मिशेल ने खुद ये बात स्वीकार की थी कि उनके पति कई बार सिर्फ उनके लिए ही गाना गाते हैं और उनकी आवाज अच्छी है।

. मिशेल ने डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में कहा था कि बराक निस्वार्थ प्रेम करना जानते हैं। वो प्यार के लिए त्याग करने में भी पीछे नहीं हटते.उनके लिए भौतिक चीजें मायने नहीं रखतीं।

 मिशेल ने इसी दौरान ये भी कहा था कि बराक भले ही राष्ट्रपति बनकर व्हाइट हाउस पहुंच गए हों लेकिन वो आज भी वैसे ही हैं जैसे 23 साल पहले थे। मिशेल ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वो वही हैं जिससे उन्होंने सालों पहले मोहब्बत की थी।

 हर पत्नी चाहती है कि उसका पति सिर्फ और सिर्फ उसकी खूबसूरती की तारीफ करे और उसे ही आकर्षक कहे। बराक ओबामा बिल्कुल ऐसे ही हैं. बराक मानते हैं कि मिशेल बेहद आकर्षक हैं।

 पति, पत्नी की बात सुनें इससे अच्छा क्या हो सकता है। बराक ओबामा ने एक इंटरव्यू में खुद स्वीकार किया था कि उन्होंने अपनी पत्नी मिशेल के कहने की वजह से ही स्मोकिंग छोड़ दी।

ओबामा सार्वजनिक मंच पर भी अपने प्यार का इजहार करने में पीछे नहीं रहते. Ellen DeGeneres के शो पर उन्होंने पूरी दुनिया के सामने मिशेल को एक बेहतरीन महिला कहा था और अपने प्यार का इजहार किया था।

सोशल मीडिया और न्यूज पोर्टल पर बराक ओबामा और मिशेल की जितनी भी तस्वीरें आती हैं, सभी में दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे दिखते हैं. ये प्यार नहीं तो और क्या है? एक इंटरव्यू में ओबामा ने कहा भी था, मुझे आंखें मिली ही इसलिए हैं कि मैं तुम्हें देख सकूं। बराक कई बार कह चुके हैं वे हमेशा मिशेल की सलाह पर अमल करते हैं और कोई भी बड़ा फैसला मिशेल से बिना पूछे नहीं करते. अमेरिका के राष्ट्रपति पद की तमाम व्यस्तताओं के बीच वे मिशेल के लिए हर दिन वक्त निकालते थे और अमूमन सुबह की एक्सरसाइज और ब्रेकफास्ट एक साथ ही करते थे।

 अगस्त 2012 में जहां एक ओर राजनीतिक इतिहास बना वहीं बराक और मिशेल की एक तस्वीर ने भी रिकॉर्ड तोड़ दिए. इस तस्वीर में बराक और मिशेल एक-दूसरे को गले लगाए हुए हैं. बराक अपनी हर कामयाबी का श्रेय मिशेल को देते हैं और ये मानते हैं कि वो उनसे कहीं ज्यादा काबिल हैं. पत्नी को इतना सम्मान देना, एक अच्छे पति की ही तो निशानी है.

. एक अच्छा पति वही होता है जो खुद तो आगे बढ़े ही लेकिन अपनी पार्टनर को भी आगे बढ़ने में मदद करे। उसका साथ दे. मिशेल भले ही अमेरिका की प्रथम महिला क्यों न हों लेकिन उनकी अपनी भी एक पहचान है और लोग उन्हें उनके विचारों के लिए जानते हैं।

इस एक बात से ये साबित हो जाता है कि बराक को अपनी पत्नी से कितना प्यार है। भारत दौरे के दौरान हवाई जहाज से उतरते समय बराक ने मिशेल का पर्स पकड़ रखा था। हो सकता है कुछ लोग इसे जोरू का गुलाम होना कहें लेकिन बराक के लिए तो ये प्यार जताने का एक मौका था, जिसे उन्होंने यूं ही जाने नहीं दिया।

 

भारतीय छात्र के आविष्कार का कमाल, नासा ने दिया न्योता

मुरादाबाद –   फि‍ल्‍म थ्री इडि‍यट के आमिर खान से इंस्‍पायर 11वीं के स्‍टूडेंट ने कबाड़ से 55 फीट ऊंचाई तक उड़ने वाले ड्रोन का एक मॉडल तैयार किया। इस मॉडल को उसने नासा की वेबसाइट पर अपलोड कर दिया था। 25 फरवरी को नासा ने उसे इंटरनेशनल स्पेस डेवलपमेंट कॉन्फ्रेंस के तहत 18 से 22 मई तक अमेरिका में होने वाले ओरल प्रजेंटेशन के लिए इंवाइट किया है।  विशाल अमरोहा जिले के गजरौला कस्बे में रहता है। विशाल के मुताबिक, अमरोहा में ड्रोन कैमरा बनाने के लिए सामान नहीं मिला। वह दिल्ली के जामा मस्जिद के पास स्थित कबाड़ी की दुकान पर गया। यहां से कैमरे से रिलेटेड इंस्ट्रूमेंट्स लेकर आया और अन्य जगहों से पुराने इंस्ट्रूमेंट्स लाकर ड्रोन कैमरा तैयार किया है।  इसका मॉडल नासा के इंटरनेशनल स्पेस सोसाइटी की वेबसाइट पर अपलोड कर दिया।  इसे स्पेस सेटलमेंट स्टूडेंट डिजाइन कॉम्पिटीशन के लिए सेलेक्‍ट कर लिया गया है। इस कॉम्पि‍टीशन में दुनियाभर के स्‍टूडेंट्स हिस्‍सा लेंगे।

कैमरे में लगी लिपो बैटरी

विशाल ने बताया कि इस कैमरे में एक लिपो बैटरी लगी है।  भारत में पेपर बैटरी मिलती नहीं है, नहीं तो इसमें पेपर बैटरी लगती।

पेपर बैटरी लगाने से यह 24 घंटे तक चार्ज रहता। इससे बॉर्डर पर हम इसके माध्यम से 24 घंटे तक निगरानी रख सकते हैं।
विशाल का कहना है कि मुझको सब से ज्यादा खुशी इस बात की है कि देश-विदेश में बनने वाले ड्रोन कैमरा एक ट्रेंड इंजीनियर बनाते है, जबकि यह ड्रोन मैंने बिना ट्रेनिंग बनाया है।

 

 छोटी ही सही मगर शुरुआत जरूर होनी चाहिए

अच्छा इलाज और जरूरत पड़ने पर अच्छे डॉक्टर का मिल पाना आज के दौर में बेहद जरूरी चीज है मगर ये दोनों ही आसानी से नहीं मिलते। अच्छा इलाज मिल जाए तो यह महंगा होता है और डॉक्टर घर नहीं जाते और जाते भी हैं तो उनकी फी अचानक बढ़ जाती है। नंदिनी बसु फूकन की समस्या भी कुछ ऐसी ही थी। एक अनुभवी एच आर प्रोफेशनल के रूप में 16 साल गुजारने के बाद उन्होंने अपनी 2 सहयोगियों की सहायता से इस समस्या का समाधान निकाला और शुरूआत हुई वैद्य.कॉम की। गौर करने वाली बात यह है कि इन तीनों में से किसी नने डॉक्टरी नहीं पढ़ी मगर आज उनके साथ 150 से अधिक डॉक्टर जुड़े हैं। डॉक्टर ऑन कॉल परिसेवा बंगाल मे एकदम नयी है। अपराजिता ने वैद्य.कॉम की संस्थापक और संचालक नंदिनी बसु फुकन से मुलाकात की –

वैद्य मेरी अपनी जरूरत की देन है

मैंने 16 साल बतौर एच आर प्रोफेशनल काम किया है और कामकाजी होने के नाते घर में अभिभावकों की देख-रेख कितना मुश्किल और अहम् है, मैं जानती हूँ। मेरी पृष्ठभूमि डॉक्टरों वाली नहीं है मगर दवाओं और डॉक्टरों की जरूरत घर में हमेशा पड़ती थी। कई बार डॉक्टर के पास ले जाना मुश्किल होता था और कई बार डॉक्टर घर नहीं जाना चाहते। तब मुझे लगा कि यह समस्या तो सिर्फ मेरे साथ नहीं बल्कि दूसरों के साथ भी हो सकती है। आपको नर्स मिल सकती है और अब ऑनलाइन दवाएं मिल सकती हैं मगर डॉक्टर कॉल करने पर मिले, यह नहीं हो पाता और यहीं से वैद्य. डॉट कॉम की शुरूआत करने का ख्याल आया। यह मेरी अपनी जरूरत की देन है।

बहुत जगहों पर निराशा भी मिली

डॉक्टरों को चुनना और उनको अपने काम के बारे में समझाना, यह इतना आसान भी नहीं था। बहुत से डॉक्टरों से सहयोग मिला तो कई डॉक्टर ऐसे थे जिन्होंने अपने व्यवहार से हमें हताश किया या फिर उनकी फी इतनी अधिक थी कि हमारे लिए वहन करना आसान नहीं था। जरूरी था कि हम जिसके साथ जुड़ने जा रहे हैं, वह एक अच्छा इंसान भी हो। हमने 400 डॉक्टरों से मुलाकात की और उनको परखा और आज हमारे साथ 150 डॉक्टर जुड़ें हैं।

कोलकाता के किसी भी इलाके में हम उपलब्ध करवा सकते हैं डॉक्टर

हम लोगों और डॉक्टरों के बीच सम्पर्क करवाते हैं और कई बड़ी दवा कम्पनियों से भी हमें सहायता मिली है। मेरी सहयोगी शिवानी देव डॉक्टरों से मिलने और मुलाकात करने की जिम्मेदारी निभातीं है और उनके अनुभव का हमें बहुत लाभ मिला है। ऑपरेशन की जिम्मेदारी तृष्णा मुखर्जी देखती हैं और मैं रणनीति बनाती हूँ। वैद्य 2015 मई में शुरू हुआ और आज हम कोलकाता के किसी भी इलाके में डॉक्टर उपलब्ध करवा सकते हैं। हम अपने क्लाइंट्स और डॉक्टरों से एक दूसरे के बारे में राय जानते रहते हैं और डॉक्टरों में भी यह उत्सुकता हमने देखी है।

लोग काफी पड़ताल करते हैं

कोलकाता के लोग काफी शिक्षित हैं और वे कोई भी परिसेवा लेने से पहले काफी पड़ताल करते हैं। डॉक्टरों की उम्र और उनकी योग्यता के बारे में कई सवाल करते हैं। हमारे यहाँ मधुमेह, मेडिसिन और डेंटिस्ट की काफी माँग है। आज हमें रोजाना 3 से 5 कॉल मिलते हैं और हमारा सारा काम फोन और सोशल मीडिया पर ही होता है। हम गुवाहाटी के बाद भुवनेश्वर में भी अपनी परिसेवा आरम्भ करना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य अधिक से अधिक मरीजों और डॉक्टरों तक पहुँचकर पूर्व भारत में अपनी पकड़ मजबूत बनाना है।

छोटी ही सही मगर शुरुआत करें

कल्पना को सीमा में न बाँधें। छोटी ही सही मगर शुरुआत जरूर होनी चाहिए।

गर्मी, चुनाव, परीक्षा के बाद एक ताजा उम्मीद के इंतजार में

यह मौसम गर्मियों का है और बंगाल ही नहीं जहाँ चुनाव हो रहे हैं, यह एक बार फिर उम्मीदें बाँधने का मौसम है। बदलाव की उम्मीद, कुछ अच्छा होने की उम्मीद और सबसे बढ़कर विकास की उम्मीद, शायद यही उम्मीद है जो बार – बार ठगी गयी जनता को जीने की उम्मीद देती है। जहाँ तक बंगाल की बात है तो घोटालों के दलदल में फँसे आम आदमी के पास विकल्प ही नहीं है। उसके पास बुरा या कम बुरा चुनने का भी विकल्प नहीं है। 34 साल के वामपंथी शासन के बाद उसने बदलाव का दामन था मगर उसकी मुट्ठियों में सपना रेत बनकर बह गया। क्या ये  समझा जाए कि वर्तमान शासन के दौर में सब गलत हुआ, तो यह सच नहीं होगा मगर ये भी उतना ही सच है कि बंगाल में सुरक्षा और घोटालों के जितने दाग पिछले 5 सालों में लगे, उतने शायद पहले कभी नहीं लगे। छात्र राजनीति और हिंसा, बंद की राजनीति पहले भी थी और यह और प्रबल हो जाए तो हैरत नहीं होनी चाहिए। सत्ता के गलियारे में जिसकी लाठी, उसकी भैंस का गणित चलता है, अब लगता है कि लाठी भी 5 – 5 साल का विभाजन देखने जा रही है। यह हमारे राज्य के लोकतांत्रिक ढाँचे की पराजय ही कही जाएगी जहाँ आम आदमी को वोट डालने के लिए बाहर लाने के लिए भी केन्द्रीय वाहिनी और 144 धारा का उपयोग करना पड़ रहा है। चुनाव के इस पूरे दौर में केन्द्रीय वाहिनी की भूमिका बेहद सराहनीय है, उसके जवान आश्वस्त करते दिखे। अरसे बाद कोलकाता पुलिस को भी जनता के लिए मुस्तैदी के साथ खड़े होते गया मगर सवाल यह है कि क्या सत्ता बदलने या नयी सरकार आने के बाद हम पुलिस को ऐसी ही भूमिका में देख सकेंगे जो मंत्रियों की जी हजूरी न करती हो। यह बड़ा सवाल है और क्या गारंटी है कि वाममोर्चा – काँग्रेस गठबंधन में यह दबंगई नहीं होगी। आखिर जनता को अपना अधिकार पाने के लिए 5 साल इंतजार क्यों करना पड़े। मुझे लगता है कि इसका एकमात्र हल यह है कि अविश्वास प्रस्ताव  की कमान नेताओं के हाथ में न होकर आम आदमी के हाथ में हो, उसे यह अधिकार मिले कि अगर वह अपने जनप्रतिननिधि से संतुष्ट न हो तो उसे वापस बुला सकती है और किसी भी योग्य व्यक्ति को क्षेत्र की कमान सौंपे। नेताओं पर दबाव बनाए रखना सबसे अधिक आवश्यक है। क्या ऐसा सम्भव है कि बंगाल का लोकतंत्र इतना निडर हो कि अगले चुनाव में बगैर केन्द्रीय वाहिनी और 144 धारा के शांतिपूर्ण और निष्पक्ष ममतदान हो? सच तो यह है कि अभी यह बिलकुल सम्भव नहीं है और राजनीति का गणित और रिश्तों का मायाजाल हर पल बदलता है। सब भविष्य के गर्भ में है। यह महीना नतीजों का महीना है, एक के बाद एक हर बोर्ड के नतीजे घोषित होंगे। हमारी परीक्षा का आधार भी अजीब है वरना मेधा और योग्यता का आकलन 3 -4 घंटों की परीक्षा में कैसे हो सकता है? हर साल माध्यमिक और उच्च माध्यमिक के नतीजे निकलते हैं, मेधा तालिका में जगह बनाने वालों की जय – जयकार होती है और इसके बाद वे हर शुक्रवार को परदे पर से उतरने वाली गुमनाम फिल्म बन जाते हैं। कई बच्चे भयभीत तो कभी इस कदर नर्वस होते हैं कि उनको अपना डर जिंदगी से बड़ा लगता है और वे जिंदगी हार जाते हैं। हर किसी में प्रतिभा है, जरूरत बस उसे सामने लाने की है। कोई भी गलत कदम उठाने से पहले एक बार फिर कोशिश पर जरूर विचार करें। अपने घर – परिवार और मम्मी – पापा के बारे में सोचें क्योंकि मई में आप मदर्स डे और फिर फादर्स डे मनाएंगे। अपराजिता की ओर से बंगाल, और देश के नौनिहालों को ढेर सारी शुभकामनाएं, राम राज्य न सही, आम जनता का राज कम से कम लौटे।

समाज की नब्ज टटोलता कबिरा खड़ा बाजार में

लिटिल थेस्पियन की ओर से हाल ही में  भीष्म साहनी लिखित “कबीरा खड़ा बाज़ार में” का मंचन भारतीय भाषा परिषद सभागार में किया गया। नाटक के निर्देशक एस एम अज़हर आलम हैं। लगभग 1 घंटे 40 मिनिट के इस नाटक में कबीर के माध्यम से सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण किया गया है।kabira (2)

नाटक का सारांश – 

भीष्म साहनी द्वारा लिखित नाटक ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ संत कबीरदास के माध्यम से  समाज में व्याप्त कुरीतियों-विसंगतियों, जात-पात, छुआ-छूत, ऊंच-नीच, ढोंग-आडंबर और भेदभाव के खिलाफ पुरजोर ढंग से आवाज उठाई गई है l इस नाटक का सशक्त पक्ष कबीर की निर्गुणी रचनाएं हैं जो मानस पर अपना गहरा प्रभाव छोडती है।

निर्देशकीय –

नाटक में कबीर के फकीराना अंदाज के साथ धार्मिक मठाधीशों की चालबाजी और राजनीतिक शातिरों की जालसाजी का बखूबी चित्रण किया गया। इंसानियत को सबसे बड़ा मजहब मानने वाले कबीर को खरी बातों के लिए हिंदू-मुसलमान दोनों ही तबकों की आलोचना सहनी पड़ी, कोड़े खाने पड़े, जेल जाना पड़ा मगर कबीर ने सच्चाई का रास्ता नहीं छोड़ा। ‘चींटी के पग घुंघरू बाजे तो भी साहब सुनता है जैसे वाक्यों में आडम्बर का खुलासा और मानवीय दर्शन का चरम हैl ये नाटक अपने निर्गुणी विचारधारा का वाहक होने के कारण ही मुझे ज़्यादा प्रिय है l  हालाँकि मानवता का प्रचार हर युग की माँग है चाहे वो कबीर युग हो या आज का समय….कबीर हमेशा प्रासंगिक रहेंगे l

निर्देशक ने खुद सिकन्दर लोदी की भूमिका निभायी है जबकि कबीर की भूमिका में सायन सरकार दिखे। नाटक कबीर की तरह ही प्रासंगिक है।

 

साहित्यिकी ने किया भीष्म साहनी शतवार्षिकी का आयोजन

कोलकाता की सुपरिचित संस्था साहित्यिकी की ओर से हाल ही में भारतीय भाषा परिषद के सभागार में भीष्म साहनी शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित संगोष्ठी में भीष्म साहनी के साहित्यिक अवदानों पर गंभीर चर्चा हुई। डॉ. विजयलक्ष्मी मिश्रा के स्वागत भाषण से संगोष्ठी की सफल शुरुआत हुई। सविता पोद्दार ने साहनी की कहानियों का विश्लेषण करते हुए कहा कि भीष्म साहनी ने कथा साहित्य की जड़ता को तोड़कर उसे ठोस सामाजिक आधार दिया है। उन्होंने मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग की समस्याओं को उभारा।प्रसिद्ध नाट्यकर्मी महेश जायसवाल ने भीष्म साहनी के नाटकों पर बोलते हुए कहा कि रचनाकार का अपने समाज से जो रिश्ता होता है वह उसकी वैचारिक चेतना को विकसित करता है। भीष्म साहनी ने बंटवारे के दर्द को झेला और उसे अपनी रचनाओं में उतारा। भीष्म प्रगतिशील चेतना से संपन्न नाटककार थे।

महेश जी ने भीष्म के प्रसिद्ध नाटक “कबिरा खड़ा बाजार में ” के एक अंश की भावपूर्ण श्रुति नाट्य प्रस्तुति की जिसमें उनका साथ श्रीमती विजयलक्ष्मी मिश्रा और गीता दूबे ने दिया।IMG-20160414-WA0015

डा आशुतोष ने कहा कि भीष्म साहनी का आंकलन हमें मुकम्मल लेखक के तौर पर करना चाहिए और लेखकों को देवता के रूप में स्थापित करने से बचना चाहिए। रंगकर्मी जीतेन्द्र सिंह ने उनके नाटकों की चर्चा करते हुए हानूश को बहुत अधिक सशक्त नाटक के रूप में चिह्नित किया। गीता दूबे ने भीष्म साहनी के औपन्यासिक अवदान पर विचार करते हुए उन्हें मूल्यबोध की चेतना से संपन्न रचनाकार के रूप में रेखांकित किया। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में डा. किरण सिपानी ने भीष्म साहनी की प्रासंगिकता को उभारा। संगोष्ठी का सफल संचालन डा. वसुंधरा मिश्र और धन्यवाद ज्ञापन  वाणीश्री बाजोरिया ने किया। कार्यक्रम में साहित्यिकी की सदस्याओं के अलावा शहर के प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज की, जैसे, जीतेन्द्र जीतांशु, कल्याणी ठाकुर, सेराज खआन बातिश, कपिल आर्य, पुष्पा तिवारी आदि।

गीता दूबे

 

 

नौकरी छूटी तो बेटों ने घर से निकाल दिया लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी 

 

उम्र के जिस पड़ाव पर जब लोगों को चलने के लिए भी सहारे की जरूरत होती है, उस उम्र में किसी महिला को रोजी-रोटी के जुगाड़ के लिए रिक्शा चलाना पड़े तो आप उसकी स्थि‍ति का अंदाजा लगा सकते हैं।

उन्हें देखकर मन में एक ही सवाल आता है, क्या इनका कोई अपना नहीं है जो इन्हें इस उम्र में आराम दे सके लेकिन आपको जानकर दुख होगा कि वीणापाणी का एक भरा-पूरा परिवार है. बावजूद इसके वो ई-रिक्शा चलाने को मजबूर हैं। इलाहाबाद में रहने वाली वीणापाणी की कहानी जानकर किसी की भी आंखें छलक उठेंगी। 63 साल की उम्र में जब अपने ही घर के दरवाजे उनके लिए बंद हो गए तो वो सड़क पर आ गईं लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और आज वो शान से इलाहाबाद की सड़कों पर ई-रिक्शा चलाती हैं। उनकी एक बहन भी उन्हीं पर आश्रि‍त हैं। ऐसा नहीं है कि वीणापाणी का इस दुनिया में कोई सगा नहीं है. पति के अलावा उनके 3 बेटे भी हैं. बेटे सौतेले हैं लेकिन क्या कोई इतना निर्दयी हो सकता है जो मां समान महिला को दो वक्त की रोटी न खिला सके।

कर्ज लेकर खरीदा ई-रिक्शा नौकरी छूटी तो सौतेले बेटो ने तोड़ा नाता 
वीणापाणी शुरुआत से ही आत्मनिर्भर रहीं हैं। उन्होंने 60 साल की उम्र तक एक निजी कंपनी के अलावा जनसंख्या विभाग से जुड़कर काम किया लेकिन 60 की उम्र पार होने के बाद जब वो रिटायर हुईं तो बेटों ने रिश्ता तोड़ लिया. पति तो बहुत पहले ही उन्हें छोड़ चुके थे।

वीणापाणी पर उनकी बहन की भी जिम्मेदारी थी।ऐसे में उन्होंने रिटायरमेंट के बाद मिले पैसों के अलावा कुछ कर्ज लेकर 1 लाख 45 हजार रूपए जुटाए और ई-रिक्शा खरीदा। शुरू में उन्होंने रिक्शा चलवाने के लिए ड्राइवर भी रखे लेकिन जब ड्राइवर काम छोड़ कर भागने लगे तो वीणापाणी ने खुद रिक्शा चलने का फैसला किया।

मुस्कुराता चेहरा है इनकी पहचान 
40 डिग्री तापमान में सवारियों की तलाश में भटकना, एक जगह से दूसरी जगह लगातार रिक्शा दौड़ाते रहना, इतना आसान भी नहीं है लेकिन उन्हें अपनी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं.वो हर सुबह पूरी ताकत से उठती हैं और अपना काम करती है। वीणापाणी के चेहरे पर कभी भी शिकन नहीं दिखायी देती। खास बात ये है की ऐसे दौर में जब बेरोजगारी से तंग आकर तमाम नौजवान खुदकुशी कर रहे हैं 63 साल की ये महिला कहती है ‘जीवन एक संघर्ष है संघर्ष करना सीखो.’

ये चायवाला बदल रहा है गांववालों की ज़िंदगी

केएम यादव ने सैकड़ों ग्रामीणों को सरकार के बारे में जानकारियां हासिल करने में मदद की है. इन जानकारियों के बल पर लोगों ने सरकार से मिलने वाली सुविधाएं और अपना हक़ हासिल किया। यादव उत्तर प्रदेश के चौबेपुर गांव में अपनी चाय की दुकान पर बैठे हैं. चाय की यह दुकान उनका दफ़्तर भी है। वे लोगों को गरमागरम चाय पिला रहे हैं और उनसे बातें भी कर रहे हैं। चाय की यह दुकान दूसरी दुकानों से अलग नहीं है। तीन कच्ची दीवारो और फूस की छत के नीचे 10 कुर्सियां और मेज़ हैं। वहां कई लोग बैठे हुए हैं, जिनके हाथ में काग़ज़ात हैं. वे लोग काफ़ी उत्तेजित भी हैं। यादव उन काग़ज़ात को देखते हैं, उनके नोट बनाते हैं और लोगो को कई तरह के सुझाव देते हैं। यह साफ़ है कि ये लोग अपनी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए यादव के पास आए हुए हैं। सूचना के अधिकार क़ानून को भारत में ‘ग़रीबों का हथियार’ भी कहा जाता है। साल 2005 से ही इस क़ानून ने लोगों को इस लायक बनाया कि वे सरकारी अधिकारियों से सवाल पूछ सकें। सरकारी विभागों के ग़लत कामकाज और भ्रष्टाचार का खुलासा करने में इससे काफ़ी सहूलियत हुई है और इस वजह से इस क़ानून की काफ़ी तारीफ़ भी हुई है पर इस क़ानून की ख़ामियां भी हैं। यादव ने बीबीसी से कहा, “गांवों में जो लोग पढ़ लिख नहीं सकते, उनके लिए अर्ज़ी देना मुश्किल है. जो अनपढ़ हैं, उन्हें आवेदन करने की प्रकिया भी मालूम नहीं है। वे आगे कहते हैं, “ऐसे में लोगों को मेरी ज़रूरत होती है. मैं उन्हें आरटीआई के ज़रिए सिर्फ़ अपनी आवाज़ उठान में मदद करता हूं। मैं एक बार एक आवेदन करता हूं।”यादव की चाय की दुकान तमाम गतिविधियों का केंद्र है. चौबेपुर और आसपास के गावों के बाशिंदे यादव को ‘सूचना का सिपाही’ और ‘आधुनिक समय का महात्मा गांधी’ कहते हैंपर वे इससे सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं, “मैं महज एक कार्यकर्ता हूं और इन ग्रामीणों को उनकी समस्याओं से जुड़ी महत्वपूर्ण सूचनाएं हासिल करने में मदद करता हूं।”यादव ने पास के कानपुर शहर में नौकरी छोड़ने के बाद साल 2010 में आरटीआई के प्रति जागरुकता बढ़ाने का अभियान शुरू किया था। उन्होंने जल्द ही यह महसूस किया कि गांव के लोगों को सूचना के अधिकार के क़ानून की अधिक ज़रूरत है। उन्होंने साल 2013 में किराए पर एक कमरा लिया और चाय की दुकान का इस्तेमाल दफ़्तर की तरह करना शुरू किया। उन्होंने उस समय से अब तक 800 आरटीआई आवेदन डाले हैं। चौबेपुर के बाशिंदे, जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, वह भारत के गांवों के लोगों की समस्याओं का एक उदाहरण भर है। भूमि विवाद, कर्ज़ की योजनाएं, पेंशन, सड़क निर्माण और स्थानीय स्कूलों के लिए पैसे, ये समस्याएं ज़्यादा प्रमुख हैं। राज बहादुर सचान आरोप लगाते हैं कि कुछ लोगों ने उनकी ज़मीन छीन ली थी और वे उनसे अपनी ज़मीन वापस लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने बीबीसी से कहा कि अदालत ने साल 1994 में ही कह दिया था कि वह ज़मीन उनकी है। दो दशक बाद भी वे वह ज़मीन पाने की कोशिश कर रहे हैं। वे यादव से पिछले साल मिले. उन्होंने अदालती आदेश की एक प्रति और सरकारी विभागों से सूचना लेने के लिए आरटीआई की अर्ज़ी डाली है। यादव कहते हैं, “उनके मामले में समय अधिक लग रहा है क्योंकि कई विभाग इससे जुड़े हुए हैं. पर उनके पास वे सब काग़जात हैं, जो नए आवेदन के लिए ज़रूरी हैं। “उधर 70 साल के रमेश चंद्र गुप्ता यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके गांव के लोगों को सरकारी दुकान से सस्ते में अनाज मिले। वे कहते हैं, “उस दुकान का ठेकेदार सरकारी दर से ऊंची दर पर अनाज बेच रहा था। मैंने अनाज की वास्तविक क़ीमत जानने के लिए यादव की मदद से आरटीआई आवेदन डाला. ठेकेदार जिस क़ीमत पर अनाज बेचता है, वास्तविक क़ीमत उससे 20 फ़ीसदी कम है।.”उन्होंने कहा, “अधिकारियों को कार्रवाई करनी पड़ी क्योंकि मेरे पास सही सूचना है.”यादव ख़ुद भी अर्ज़ी डालते हैं। वे कहते हैं, “स्कूलों के लिए सरकारी फंड, सड़क बनाने और पीने के पानी के लिए आबंटित पैसे के लिए मैंने ख़ुद 200 अर्जियां दी हैं।”वे इसके आगे जोड़ते हैं, “लगभग सभी मामलों में मैं सरकारी अधिकारियों पर काम करने के लिए दवाब डालने में कामयाब रहा क्योंकि मेरे पास सही जानकारी थी।”

(साभार – बीबीसी)

16 वर्षीय भारतीय-अमेरिकी ने तैयार की एक बेहद सस्ती सुनने की मशीन

यह खबर उन तमाम लोगों के लिए सुखद हो सकती है जो किन्हीं कारणों से ऊंचा सुनते हैं। अमेरिका के हॉस्टन शहर में रहने वाले एक 16 वर्षीय भारतीय मूल के लड़के ने एक बेहद सस्ती सुनने की मशीन ईजाद की है। इस मशीन की कीमत महज 60 अमेरिकी डॉलर है और इसकी वजह से कइयों की जिंदगी बेहतर हो सकेगी।

मुकुंद वेंकटकृष्नन नामक इस लड़के की उम्र महज 16 साल है और वह इस डिवाइस के मॉडल पर पिछले दो वर्षों से काम कर रहे थे। उन्होंने इस हियरिंग मशीन को जेफरसन काउंटी पब्लिक स्कूल्स आइडिया फेस्ट में प्रेजेंट किया था और इस डिवाइस के लिए उन्हें प्रथम पुरस्कार भी मिला था।

इस डिवाइस को किसी भी सस्ते हेडफोन के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें आप अपनी जरूरत के हिसाब से फ्रीक्वेंसी घटा-बढ़ा सकते हैं. इसके अलावा यह लोगों की डॉक्टर पर निर्भरता को भी एकदम से कम कर देता है।  उन्हें इस डिवाइस पर काम करने की प्रेरणा उनके दादा-दादी से मिलने के बाद मिली जो भारत में रहते हैं। मुकुंद दो साल पहले उनसे मिलने आए थे और यहां दादा-दादी को सुनने में आ रही दिक्कतों और इसके उपचार के लिए लगने वाले मशीन की भारी कीमत से चिंतित थे। इसके बाद उन्होंने इस पर काम करना शुरू किया और पूरी दुनिया को यह कर दिखाया।