गर्मी, चुनाव, परीक्षा के बाद एक ताजा उम्मीद के इंतजार में

यह मौसम गर्मियों का है और बंगाल ही नहीं जहाँ चुनाव हो रहे हैं, यह एक बार फिर उम्मीदें बाँधने का मौसम है। बदलाव की उम्मीद, कुछ अच्छा होने की उम्मीद और सबसे बढ़कर विकास की उम्मीद, शायद यही उम्मीद है जो बार – बार ठगी गयी जनता को जीने की उम्मीद देती है। जहाँ तक बंगाल की बात है तो घोटालों के दलदल में फँसे आम आदमी के पास विकल्प ही नहीं है। उसके पास बुरा या कम बुरा चुनने का भी विकल्प नहीं है। 34 साल के वामपंथी शासन के बाद उसने बदलाव का दामन था मगर उसकी मुट्ठियों में सपना रेत बनकर बह गया। क्या ये  समझा जाए कि वर्तमान शासन के दौर में सब गलत हुआ, तो यह सच नहीं होगा मगर ये भी उतना ही सच है कि बंगाल में सुरक्षा और घोटालों के जितने दाग पिछले 5 सालों में लगे, उतने शायद पहले कभी नहीं लगे। छात्र राजनीति और हिंसा, बंद की राजनीति पहले भी थी और यह और प्रबल हो जाए तो हैरत नहीं होनी चाहिए। सत्ता के गलियारे में जिसकी लाठी, उसकी भैंस का गणित चलता है, अब लगता है कि लाठी भी 5 – 5 साल का विभाजन देखने जा रही है। यह हमारे राज्य के लोकतांत्रिक ढाँचे की पराजय ही कही जाएगी जहाँ आम आदमी को वोट डालने के लिए बाहर लाने के लिए भी केन्द्रीय वाहिनी और 144 धारा का उपयोग करना पड़ रहा है। चुनाव के इस पूरे दौर में केन्द्रीय वाहिनी की भूमिका बेहद सराहनीय है, उसके जवान आश्वस्त करते दिखे। अरसे बाद कोलकाता पुलिस को भी जनता के लिए मुस्तैदी के साथ खड़े होते गया मगर सवाल यह है कि क्या सत्ता बदलने या नयी सरकार आने के बाद हम पुलिस को ऐसी ही भूमिका में देख सकेंगे जो मंत्रियों की जी हजूरी न करती हो। यह बड़ा सवाल है और क्या गारंटी है कि वाममोर्चा – काँग्रेस गठबंधन में यह दबंगई नहीं होगी। आखिर जनता को अपना अधिकार पाने के लिए 5 साल इंतजार क्यों करना पड़े। मुझे लगता है कि इसका एकमात्र हल यह है कि अविश्वास प्रस्ताव  की कमान नेताओं के हाथ में न होकर आम आदमी के हाथ में हो, उसे यह अधिकार मिले कि अगर वह अपने जनप्रतिननिधि से संतुष्ट न हो तो उसे वापस बुला सकती है और किसी भी योग्य व्यक्ति को क्षेत्र की कमान सौंपे। नेताओं पर दबाव बनाए रखना सबसे अधिक आवश्यक है। क्या ऐसा सम्भव है कि बंगाल का लोकतंत्र इतना निडर हो कि अगले चुनाव में बगैर केन्द्रीय वाहिनी और 144 धारा के शांतिपूर्ण और निष्पक्ष ममतदान हो? सच तो यह है कि अभी यह बिलकुल सम्भव नहीं है और राजनीति का गणित और रिश्तों का मायाजाल हर पल बदलता है। सब भविष्य के गर्भ में है। यह महीना नतीजों का महीना है, एक के बाद एक हर बोर्ड के नतीजे घोषित होंगे। हमारी परीक्षा का आधार भी अजीब है वरना मेधा और योग्यता का आकलन 3 -4 घंटों की परीक्षा में कैसे हो सकता है? हर साल माध्यमिक और उच्च माध्यमिक के नतीजे निकलते हैं, मेधा तालिका में जगह बनाने वालों की जय – जयकार होती है और इसके बाद वे हर शुक्रवार को परदे पर से उतरने वाली गुमनाम फिल्म बन जाते हैं। कई बच्चे भयभीत तो कभी इस कदर नर्वस होते हैं कि उनको अपना डर जिंदगी से बड़ा लगता है और वे जिंदगी हार जाते हैं। हर किसी में प्रतिभा है, जरूरत बस उसे सामने लाने की है। कोई भी गलत कदम उठाने से पहले एक बार फिर कोशिश पर जरूर विचार करें। अपने घर – परिवार और मम्मी – पापा के बारे में सोचें क्योंकि मई में आप मदर्स डे और फिर फादर्स डे मनाएंगे। अपराजिता की ओर से बंगाल, और देश के नौनिहालों को ढेर सारी शुभकामनाएं, राम राज्य न सही, आम जनता का राज कम से कम लौटे।

शुभजिता

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