Wednesday, September 17, 2025
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पिता की मौजूदगी ही हर कठिनाई से निकालती है

‘पिता’ शब्द ही संरक्षण का परिचायक है। जहां मां से निस्वार्थ ममता के आंचल की आशा की जाती है तो पिता से संरक्षण की। मां जन्मदाता है तो पिता से जीवनरूपी आशीष प्राप्त होता है। पिता के होने का अहसास ही हमें हर कठिनाई से निकालने में मदद करता है। हमें हर समय उस मजबूत सुरक्षा आवरण का आभास कराता है जिसे कोई भेद नहीं सकता।

पापा हैं तो कैसी चिंता

पिता के संरक्षण को सिर्फ उस एक उदाहरण से जाना जा सकता है जिसे अमूमन हर व्यक्ति ने देखा होगा और स्वयं भी महसूस किया होगा ‘पापा की गाड़ी पर पीछे बैठे बच्चे को’। पापा को कसकर पकड़े उसके नन्हें हाथ बताते हैं कि पापा हैं तो कोई डर नहीं। सबसे बेफिक्र वह अपनी ही दुनिया में आसपास के नजारे बड़े आत्मविश्वास के साथ देखता चलता है क्योंकि उसे मालूम है कि वह पापा के साथ है, तो फिर कैसी चिंता! मंजिल पर तो पहुंचना ही है।

यही सुरक्षा का अहसास बच्चे को मजबूत विश्वास वाला बनाता है। पिता भले ही अपनी पदवी से मां की तुलना में कठोर माने जाते हैं, मगर इस कठोरता के भीतर भी वह ढेर सारा प्यार छिपाए हुए रहते हैं क्योंकि प्रकृति ने ही उन्हें संरक्षणवादी और अनुशासनात्मक प्रवृत्ति का बनाया है। इसके लिए उन्हें इसी भूमिका में ही पहचान मिली है। जहां मां बच्चे की पहली शिक्षक होती है वहीं पिता पथप्रदर्शक। बच्चे की नन्हीं अंगुलियों को थामे पिता का हाथ ही उसे रास्तों पर चलने का हौसला दिलाता है।

मंजिल तक पहुंचने के लिए तमाम मुसीबतों, मुश्किलों से लड़ने का साहस भी पिता ही दिलाते हैं। कुल मिलाकर वे अपने अनुभवों से बच्चों को दुनियादारी के वह पाठ पढ़ाते हैं, जो उन्हें उनके भविष्य की मंजिल तक पहुंचने में मदद करते हैं।

मील के पत्थर की तरह सीख

बारीकी से गौर करो तो नजर आएगा कि पिता ने छोटी-छोटी बातों से ऐसे मील के पत्थर खड़े कर दिए जो आज जीवन की गाड़ी चलाने में हमें मदद करते हैं। बचपन में गुल्लक में रोज सिक्का भले ही शौक से डाला जाता हो और उत्साह रहता था कि एक दिन ये पैसे बहुत ज्यादा हो जाएंगे। मगर बड़े होकर हम जान पाते हैं कि वह सेविंग का सबक था, जो बड़े होकर हमें गृहस्थी चलाने के लिए आसान रास्ता बन गया।

जरा-सा बीमार हुए कि मां तीमारदारी में लग जाती हैं, मगर पिता तब भी हौसला देते हैं, घबराना नहीं बुखार है अभी भाग जाएगा और सच में शायद उन शब्दों को सुनकर हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता अचानक बढ़ जाती है और बुखार को भी उल्टे पैर भागना ही पड़ता है। यही पिता का संबल होता है, जो खेल के मैदान में भी हारने के बावजूद हमें फिर कोशिश करने की सीख देता है कि जीत ज्यादा दूर नहीं…कोशिशें जारी रखो। और सही में जीत हमारे हिस्से में आती भी है।

बच्चों की इच्छाओं के आगे पिता अपनी तमाम इच्छाओं को इतना बौना करके रखते हैं कि वह कभी बलवति होती ही नहीं। कड़ी मेहनत कर जो भी लाया जाए, उसमें पूरी होती हैं बच्चों की इच्छाएं क्योंकि पिता बनने के बाद सर्वोपरि रह जाती हैं बच्चों की ख्वाहिशें…।

 

अपने हिस्से की दुनिया तलाशतीं – वाह! ये औरतें

  •  सुषमा त्रिपाठी

इंसान चला जाए, अपनी गलियों को अपने भीतर सहेजे रखता है और बाहर की दुनिया में भी अपने हिस्से का कोना तलाश लेता है। लेखिका माधवीश्री के उपन्यास में नायिका के चरित्र में यह कोना नजर आता है। मां को समर्पित यह उपन्यास कल्पना पर आधारित हैं मगर लेखिका माधवी श्री के मुताबिक ही इसमें सभी कुछ कल्पना नहीं है।

लेखिका के अनुसार उपन्यास कोलकाता में लिखा गया था मगर इसे पढ़ने पर आपको आने वाले कल की औरतें दिखती हैं जो उनके जेहन में कहीं छुपी थीं और वक्त आते ही उपन्यास की शक्ल में जिंदा हो उठीं।

वाह ये औरतें, तीन सहेलियों की कहानी है। ऐसी औरतें जो हम अपने आस–पास देखते हैं मगर उनके अंदर का विद्रोह अनदेखा रह जाता है। चरित्र को नैतिकता के पलड़े पर न तोलकर सिर्फ उसे एक मानवीय पहलू से देखा जाए तो बात समझ में आती है। रमा उस कामकाजी औरत का चेहरा है जो सोशल गैदरिंग में खुशमिजाज और आत्मनिर्भर होने का दावा करती है और अपने टूटेपन को आत्मविश्वास के सहारे जोड़ने की कोशिश करती है। उमा लेखिका है, जो स्त्री विमर्श की बातें करने वाली आधुनिक स्त्री है। पूनम है, जो गृहस्थी की दुनिया में खुद को झोंक देने वाली और अमीर घर की महिला है जो परिवार की भव्यता को अपने कीमती कपड़ों और जेवरों के माध्यम से दिखाती है।

इन तीनों की कोशिश एक ही है, अपनी–अपनी दुनिया के कठघरों से अलग-अपने हिस्से का कोना तलाशना, जहां कोई बंधन न हो और जो हंसी निकले, भीतर की चट्टानों को तोड़कर निकले। एक ऐसी ख्वाहिश, जो लड़की से औरत बनी और अकेले रहने वाली हर महिला की ख्वाहिश है, जहां कंधा मिले मगर वह कंधा किसी मर्द का हो, यह बिल्कुल जरूरी नहीं है। ये तीन सहेलियां कुछ ही लम्हों में पूरी जिंदगी जीना चाहती हैं। कहानी वार्तालाप शैली में धाराप्रवाह चलती है। महसूस होता है कि कोई हमारे सामने बतिया रहा है और यही बात इस उपन्यास को भीड़ में से अलग करती है क्योंकि यहां अंदर का गुस्सा है, बतकही है मगर कोई आदर्श या किसी प्रकार का बौद्धिक बोझ नहीं है।

ये एक ऐसी दुनिया है जिसे न चाहते हुए भी कई बार औरतों में जीने की चाहत होती भी है मगर नैतिकता और आदर्श के बंधन में हम इन तमाम ख्यालों को पाप समझकर खुद से दूर रखते हैं। मसलन, रमा का खुद से 23 साल बड़े मर्द से शादी करना और उसके बाद भी एक प्रेमी रखना और उसका चालाकी से इस्तेमाल करना, पूनम का अपने देवर से संबंध बनाना और उमा का खुद से कम उम्र का ब्वायफ्रेंड रखना (जो अंत में उसे छोड़कर किसी और लड़की के साथ चला जाता है), ये सब किसी आम औरत के जेहन में नहीं आ सकता है और गलती से अगर आए तो वह इस ख्याल को धकेल देगी।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि रमा अपने पति के गुजरने के बाद ही यह कदम उठाती है यानि पत्नी वाली वफादारी उसमें है। इसके बावजूद वह जिस समाज में रहती है, उसे इसकी अनुमति नहीं है। रही बात उमा की तो वह भी अंत में कुणाल के मित्र कुशल से शादी करती है औऱ उसका कारण यह है कि कुणाल से शादी करने का मतलब रोमांस का खत्म हो जाना है। उमा को अंत में एक ही चीज याद रहती है स्वतंत्रता, और वह उसी के साथ जी रही है।

यह उपन्यास इस बात को सामने रखता है कि औरत भले ही एक मर्द के कंधे का सहारा तलाशती हो, खुद को उसे सौंपकर अपनी दुनिया उसमें देखती हो मगर उसका पूरा होना किसी मर्द पर या मातृत्व पर निर्भर नहीं करता। उसे अपने हिस्से का कोना चाहिए जो उसे रिश्तों की तमाम परिभाषाओं से अलग सिर्फ एक औरत से परे सिर्फ एक मनुष्य के तौर पर समझे, यही तलाश इन तीनों औरतों की है, हमारी और आपकी भी है।

उपन्यास में कई जगहों पर घर से लेकर कार्यस्थल पर औरतों के साथ होने वाली बदसलूकी और उपेक्षा खुलकर सामने आई है जिसमें दैहिक शोषण भी शामिल है और इसमें महिला पुलिस अधिकारियों का डर भी शामिल है। इसके साथ ही समाज के निचले तबके की औरतों का विद्रोह भी शामिल है। उपन्यास में उमा और कुणाल के साथ रीना औऱ सौमित्र का रिश्ता भी शिद्दत से मौजूद है मगर उमा और रीना में जो रिश्ता है, वह खींचता है। दिल्ली जब उमा के साथ बेरहम होती है तो रीना उसका सम्बल बनती है।

दरअसल, यह उपन्यास एक मर्द और औरत के रिश्ते की कहानी नहीं कहता बल्कि इसमें औरत के औरतपन से जन्मे अपनेपन के धागे हैं जो औरतों में एक खूबसूरत रिश्ता जोड़ते हैं। इनमें उमा, रमा और पूनम के साथ उमा और रीना का रिश्ता एक कड़ी है।उपन्यास में कोलकाता जहां भी नजर आया है, शिद्दत से नजर आया है मगर जिस दिल्ली ने गढ़ा, माधवी श्री उसे भी नहीं भूलीं। एक मां की तरह जिसे अपने दोनों बच्चे प्यारे हैं। प्रूफ की गलतियां हैं मगर उपन्यास की धाराप्रवाह शैली के कारण कई बार इन पर ध्यान नहीं जाता। नई दिल्ली के श्री प्रकाशन ने इसे छापा है। लेखिका यह पहला उपन्यास है और इसे पढ़ा भी जा रहा है। खुद से बतियाना हो और अपना कोना तलाशने की कसक हो तो ये उपन्यास पढ़ा जा सकता है।

 

पुस्तक –  वाह! ये औरतें

लेखिका – माधवी श्री

प्रकाशक – श्री प्रकाशन

 

दिल्ली का स्ट्रीट फ़ूड सुरक्षित बना रही है ये संस्था

क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है, कि राह चलते किसी स्ट्रीट फ़ूड पर नज़र पड़ते ही आपकी भूख बढ़ गयी हो, पर आपने उस ठेले वाले के गंदे हाथ देखकर अपना इरादा बदल लिया और आगे बढ़ गए हों? ऐसी परेशानी से यह दुकानवाले अक्सर गुज़रते हैं, और इसी को दूर करने के लिए ‘ वन रूपी फाउंडेशन’ नाम की संस्था ने इन लोगो में दस्ताने (gloves) बांटने की मुहीम चलायी है।

व‘न रूपी फाउंडेशन‘ के संस्थापको में से एक, तरुण भरद्वाज बताते हैं, ” हमने कई ठेले वालों को देखा जो बिना दस्तानो के खाना बना कर बेच रहे थे। तभी हमने सोचा कि इन्हें अन्य रेस्तरां के रसोइयो द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले दस्ताने दिए जाएँ, जिससे यह अपने काम को स्वच्छता पूर्वक कर सकें।”

यह संस्था अन्य कई प्रोजेक्ट पर काम कर चुकी है। जैसे- पेड़ लगाने की मुहीम, गरीब बच्चो के बीच कपडे वितरित करना, झुग्गियो में दंत चिकित्सा के कैंप लगवाना, पुस्तकालयों में किताबें दान करवाना, कैंसर के रोगियों के लिए रक्दान शिविर लगवाना आदि।

तरुण और उसके मित्र अरविन्द वत्स ने इस संस्था की शुरुआत नौ महीने पहले की थी। इसका उद्देश्य दान को इच्छुक लोगों से प्रतिदिन 1 रुपये ले कर ज़रुरतमंदो के जीवन में बदलाव लाना है। हर ठेले वाले को 20 जोड़ों के हिसाब से इन्होने अब तक 2000 दस्ताने बांटें हैं। 15 दिनों बाद वे वापिस इनके पास जा कर स्थिति की जानकारी लेंगे फिर इसी आधार पर वे इस मुहीम को आगे बढ़ाएंगे।

तरुण कहते हैं, ” यह स्वच्छता और रोग नियंत्रण की और एक बड़ा कदम होने के साथ-साथ, इन दुकानदारों की आय में वृद्धि का भी कारण बन सकता है। कई लोग जो सिर्फ इस कारण इनके हाथ का खाना पसंद नहीं करते थे क्यूंकि इनके पास दस्ताने नहीं थे, अब वे भी निश्चिन्त हो कर बाहर का खाना खा सकेंगे।तरुण मानते हैं कि शुरुआत में कई दुकानदार इन दस्तानो को पहनने के इच्छुक नहीं थे। वे बताते हैं, ” हमने उनमे से एक से इस दस्ताने को पहनकर बर्फ का गोला बनाने को कहा। उसने किया और हमने उसे बडे चाव से खाया। ऐसा करने से उस दुकानवाले के अन्दर आत्मविश्वास आया और वह दस्ताने इस्तेमाल करने लगा।

(साभार – द बेटर इंडिया)

 

 

 

 

आंखों की गंभीर समस्या है रेटिनल डिटैचमेंट

रेटिनल डिटैचमेंट एक ऐसी अवस्था है, जिसमें रेटिना आंख की पिछली दीवार से अलग हो जाती है। इससे रेटिना तक खून के संचार के साथ-साथ पोषण का स्रोत घटने लगता है। रेटिना अगर ज्यादा समय तक अलग रहे, तो व्यक्ति अपनी दृष्टि हमेशा के लिए खो सकता है।

ये होते हैं लक्षण

अगर किसी व्यक्ति को नजर के सामने अलग सी रोशनी की किरणें या धागे जैसी हिलने वाले वस्तुएं दिखे तो उसे हल्के में न लें। साथ ही अगर किसी को किनारों से चीजें अंधेरी सी दिखाई दे, तो बिना किसी देरी के एक अच्छे रेटिना विशेषज्ञ को दिखाएं।

तीन प्रकार के होते हैं

रेटिनल ब्रेक या टीअर : इसे चिकित्सकीय शब्दों में रेग्मैटोजिनस रेटिनल डिटैचमेंट कहते है। इसमें आंख के मध्य में मौजूद तरल जिसे विट्रियस कहते हैं, रेटिनल टीअर से निकलने लगता है, जिसके कारण रेटिना अपने स्थान से हटने या उठने लगता है।

एक्सुडेटिव रेटिनल डिटैचमेंट : यह रेटिना से तरल के रिसाव के कारण होता है। ज्यादातर मामलों में ट्यूमर या किसी सूजन संबंधी विकार के कारण एक्सुडेटिव रेटिनल डिटैचमेंट होता है।

ट्रैक्शन रेटिनल डिटैचमेंट : ऐसा प्रोलिफरेटिव डायबिटिक रेटिनोपैथी के कारण होता है। इसमें रेटिना विट्रियस कैविटी में मौजूद संवहनी ऊतक से अलग हो जाती है।

इनको रहता है अधिक खतरा

जिनकी पास की नजर कमजोर होती है, उनमें रेटिनल डिटैचमेंट का खतरा ज्यादा होता है। इसके अलावा अगर किसी को अतीत में कभी आंख पर चोट लगी हो या मोतियाबिंद की जटिल सर्जरी हुई हो, तो उन्हें भी रेटिनल डिटैचमेंट के होने की आशंका अधिक होती है। इसके अलावा अगर आपके परिवार में किसी को रेटिनल डिटैचमेंट की समस्या हो, तब भी आपको यह बीमारी हो सकती है।

इलाज है आसान

रेटिनल डिटैचमेंट के इलाज में प्रयोग होने वाली सबसे पुरानी और सबसे अधिक उपयोग होने वाली विधि है स्क्लेरल बक्कल। इस तकनीक का प्रयोग ऐसे मरीजों पर किया जाता है, जिनकी समस्या बहुत जटिल नहीं होती है। ऑपरेशन के फौरन बाद ही व्यक्ति अपने घर जा सकता है और कुछ दिनों बाद अपने काम पर भी।

सामान्य सर्जरी के 2-3 हफ्ते तक व्यक्ति को थकान महसूस हो सकती है। इसके अलावा अगर आपकी आंख में गैस का बुलबुला है, तो गाड़ी चलाने या हवाईजहाज की यात्रा से बचें। कई बार सर्जरी के 2-3 दिन तक आंख में असहजता या खुरदुरापन महसूस हो सकता है।

आंख के पूरी तरह स्वस्थ हो जाने तक किसी भी ऐसी गतिविधि से बचें, जिससे नजर पर दबाव पड़े। इस बात की आशंका हमेशा रहती है कि यदि एक आंख में रेटिनल डिटैचमेंट है, तो दूसरी आंख में भी यह समस्या हो सकती है। डायबिटीज होने पर साल में एक बार आंखों की पूरी जांच करवाना और भी जरूरी हो जाता है।

 

खुद भुखमरी से जूझने के बावजूद, अपनी सारी फसल चिडियों के लिए छोड़ देता है ये किसान!

अशोक सोनुले और उनके परिवार को बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी नसीब होती है। उनके परिवार में कुल १२ सदस्य है। आसपास के सभी किसानो की ज़मीने सूखे की वजह से  बंजर पड़ी है। पर अशोक के खेत में ज्वार की फसल लहलहा रही है। पर अशोक इनसे पैसे कमाने के बजाय, ये सारी फसल पक्षियों के चुगने के लिये छोड़ देते है। उन्होंने खेत में बिजूका (पक्षियों को भगाने के लिए लगाया जाने वाला मानव रुपी पुतला) भी नहीं लगाया और पक्षियों के लिए पानी का घड़ा भी हमेशा भरा रखते है।

नॅशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्युरियो  (NCRB), गृह मंत्रालय, के सर्वेक्षण द्वारा ये पता चलता है कि २०१४ में ५६५० किसानो ने आत्महत्या की है। फसल का ख़राब होना इन सभी आत्महत्याओ के पीछे का एक सबसे बड़ा कारण है।

आत्महत्या करने वाले ५६५० किसानो में २६५८ किसान महाराष्ट्र राज्य के है। बेमौसम बारिश और सुखा इस आपदा की वजह है।

जहाँ आमतौर पर किसान चिडियों को अपनी फसल का दुश्मन मानते है वही अशोक अपने खेत में आनेवाले पक्षियों को दाना खिलाने के लिये हमेशा तैयार रहते है।

अशोक सोनुले महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिल्हे से १५ किमी दूर बसे गड्मुदशिंगी गाँव के रहने वाले है। उनके दोनों बेटे प्रकाश और विलास और उनका भाई बालू दुसरो के खेतो में मजदूरी करते है, ताकि वो परिवार के १२ सदस्यों का भरण पोषण कर सके।

इस परिवार के पास ०.२५ एकर बंजर जमीन है, जिससे उन्हें एक वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता है। आसपास के इलाके की जमीन भी बंजर है।

हर साल की तरह इस साल भी अशोक ने जून के महीने में ज्वार के बिज बोये थे। पर हर बार की तरह, इस साल भी सुखा पड़ा, इसलिए उन्होंने ज्यादा फसल की अपेक्षा नहीं रखी थी। पूरा इलाका सूखे की चपेट में था।

पर इसे कुदरत का करिश्मा कह लीजिये कि कुछ ही महीनो में अशोक के खेत में सूखे के बावजूद ज्वार की फसल लहलहा रही थी और कटाई के लिये तैयार थी। अशोक इस फसल को काटने ही लगे थे कि खेत के बीचोबीच लगे एक बबूल के  पेड़ की वजह से उन्हें काम करने में दिक्कत होने लगी।

उन्होंने बबूल के पेड़ को काटने की ठान ही ली थी, पर उन्होंने देखा कि आसपास की जमीन बंजर होने के कारण पंछी उनके खेत में लगे ज्वार पर ही निर्भर थे। इसलिये वो अपना घोसला उस बबूल के पेड़ पर बनाते थे। ये देख अशोक का मन बदल गया और उन्होंने  उस पेड़ को नहीं काटा।

उन्हें ये एहसास हुआ कि आसपास के खेत बंजर पड़े है पर शायद इन पक्षियों के लिये ही उनका खेत हराभरा है।

इन पक्षियो का चहचहाना अशोक के चेहरे पर मुस्कान ले आता है। वे मानते है कि उनके खेत की साड़ी फसल पर सिर्फ इन चिडियों का ही अधिकार है।

सूखे की वजह से आसपास कही पानी भी नहीं है, इसलिये उनका पुरा परिवार पानी के घड़े खेत में और पेड़ पर रख देता है ताकि चिड़ियों को पानी की भी कमी न हो।

अशोक कहते है

इन पक्षीयो को भी तो खाना, पानी और रहने के लिये जगह की जरुरत है। मैं उन्हें ऐसे कैसे छोड़ देता?”

कोल्हापुर के लोकमत टाइम्स में रिपोर्टर, बाबासाहेब निरले को जब अशोक के  इस नेक काम के बारे में पता चला तब उन्होंने उनके अखबार में अशोक के बारे में लिखा।

बाबासाहेब कहते है-

अशोक जी का काम अद्वितीय, अनोखा और बेहद महत्वपूर्ण है। जहाँ सुखा पड़ा होता है, वहाँ ज्वार की एक थैली भी बहोत मायने रखती है। खुद के परिवार के लिये खाने की किल्लत होने के बावजूद अशोक जी पक्षीयो के लिये पूरी फसल छोड़ देते है, इस बात से मैं बहुत प्रभावित हुआ। उनका ये काम बहुत सराहनीय है।

जब बेटर इंडिया की टीम ने अशोक से संपर्क किया तब वे बहुत ख़ुश हुए। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उनकी ये छोटीसी कोशिश, लोगो को इतना प्रभावित करेगी। पर इतनी लोकप्रियता के बावजूद एक किसान की कठिन ज़िन्दगी उनके लिए रोज़मर्रा के जीवन की सच्चाई है। वे मानते है कि अगर उनके पास साधन होता तो वे समाज और निसर्ग के लिये और बहुत कुछ करना चाहते थे।

हमारे संपर्क करते ही फोटो और विडियो भेजने के लिये छायाचित्रकार दीपक गुरव कोप के हम आभारी है। अशोक और उनके गाँव के सभी लोग इस खबर को इंटरनेट पर पढने के लिये बेहद उत्साहित है।

(साभार – द बेटर इंडिया, तस्वीर व आलेख)

डिजिटल गांव के सपने को साकार करती, झारखंड की टैबलेट दीदी!

 

गोद में बच्चा और हाथो में टैबलेट ये नजारा झारखंड के गांवों में आम है, झारखंड के सुदूर गांवों की ये महिलाएं अपने घर- परिवार बच्चों का ध्यान रखने के साथ-साथ अपने घर को चलाने के लिए खूब मेहनत करती है। हाथ में टैबलेट लिये ये महिलाएं है झारखंड की ‘टैबलेट दीदी’।

तकनीक के इस युग में गांव की महिलाएं भी नई तकनीक के साथ कदमताल कर रही है। गांव में जितने भी स्वयं सहायता समूह होते है, उनके लेन-देन और बैठक के आंकड़ें ये टैबलेट के जरिए अपलोड करती है, जिससे रियल टाईम में ये आंकड़े झारखंड सरकार और भारत सरकार के एमआईएस में अपडेट हो जाता है।

कल तक दर्जनों रजिस्टर में स्वयं सहायता समूह का लेखा-जोखा रखने वाली ये महिलाएं आज पेपरलेस काम करती है। समूह का हर आंकड़ा इनके फिंगरटीप पर होता है।

आज झारखंड की सैकड़ों महिलाए अपने में बदलाव महसूस कर रही है, जिन महिलाओं ने ये सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके पास अपना मोबाईल होगा, वो आज टैबलेट चला रही है। ये टैबलेट उनकी पहचान बन चुकी है। गांव की हर गली के लोग उनको टैबलेट दीदी के नाम से पुकारते है।

झारखंड के रांची, पाकुड़ और पश्चिमी सिंहभूम जिले में इस पहल को शुरू किया गया है, जिसे झारखंड स्टेट लाईवलीहुड प्रमोशन सोसाईटी के द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है। इसके तहत गांव की महिलाओं को टैबलेट प्रशिक्षण उपलब्ध कराकर बुक-कीपिंग का गुर सिखाया जाता है। ये महिलाएं गंव की उन चुनिंदा महिलाओं में से है जिनमें अदम्य इच्छाशक्ति है। टैबलेट दीदी के रुप में चुनी गई महिलाएं आज स्वयं सहायता समूह में बुककीपिंग के अलावा टैबलेट के जरिए गांव की महिलाओं को जागरुक भी करती है। टैबलेट दीदी के आने से एक ओर जहां समूह का लेखा जोखा पहले से अच्छा हो गया है वहीं गांव की गरीब महिलाओं को आजीविका के विभिन्न साधनों के बारे में जागरुक करने के लिए टैबलेट से फिल्म भी दिखाया जाता है।

गरीबी को मात देकर बाहर निकली ये महिलाएं, आज टैबलेट दीदी के रुप में काम करके अपने घर को तो चला ही रही हैं साथ ही अपने इलाके से गरीबी को दूर करने के मिशन को भी जमीन पर उतार रही है।

द बेटर इंडिया की टीम जब टैबलेट दीदी से मिलने रांची के अनगड़ा प्रखण्ड के सोसो गांव में पहुंची तो वहां की टैबलेट दीदी-उमा, गांव की महिलाओं को बकरी पालन के गुर से संबंधित विडियो दिखा रही थी।

 “टैबलेट तो अमीरों की चीज है। मैने कभी उम्मीद नहीं की थी कि मेरे पास भी टैबलेट होगा। आज मेरी पहचान टैबलेट से है और मैं इसके जरिए अपने गांव के सभी समूहों का आंकड़ा दर्ज करती हूं और दीदी लोगों को फिल्में भी दिखाती हूँ।

उमा टेबलेट दीदी  बताती है कि-शुरू में  तो लगा कि मैंने कभी मोबाईल नहीं छुआ है, मैं कैसे टैबलेट चला पाउंगी, लेकिन कुल 7 दिन के प्रशिक्षण के बाद मुझे डेटा अपलोड, फिल्मे देखना, गेम खेलना, फोटो खीचना सब कुछ आता है।

गेतलसूद की टैबलेट दीदी- बबली करमाली, बताती है कि-टैबलेट बेस्ड स्वलेखा एमआईएस के आने से गांव के समूहों के आंकड़ों में अब किसी तरह की गड़बड़ी नहीं हो सकती है और पल भर में साप्ताहिक बैठक से जुड़ी हर जानकारी हम देश-विदेश तक शेयर करते है।

गांव की टैबलेट दीदी अपने गांव को डिजिटल गांव बनाने के लिए प्रयासरत है। गांव के माहौल में ये सिर्फ समूह से जुड़ा काम ही नहीं करती हैं बल्कि फुर्सत के पलों में इंटरनेट, ईमेल और फेसबुक पर भी रहती है।

आने वाले दिनों में टैबलेट दीदी के जरिए स्वयं सहायता समूह के उत्पादों की बिक्री की योजना है, जो जल्द ही धरातल पर उतरेगा। वहीं टैबलेट दीदी की सेवाओं को झारखंड सरकार के प्रस्तावित मोबाईल गवर्नेंस की विभिन्न सेवाओं से जोड़ने का प्रस्ताव भी है, ताकि गांव के स्तर पर इन सेवाओं का लाभ सभी ग्रामीणों को मिल सके।

कल तक टैबलेट को अमीरों की चीज समझने वाली गांव की ये महिलाएं आज टैबलेट दीदी के रुप में अपने नए रोल को बखूबी निभा रही है  और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया के सपनों को पंख देकर धरातल पर उतारने के लिए दिन रात मेहनत कर रही है। इनका सपना है की आने वाले दिनों में गांव के लोग भी इंटरनेट के जरिए हर काम घर बैठे कर सके।

भारत गांवो में बसता है और गांव समूह से बनता है…..  समूह अगर डिजिटल होगा तो डिजिटल गांव और डिजिटल इंडिया का सपना भी साकार होगा। प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया के सपने को साकार करने के लिए टैबलेट दीदी सुदूर गांव की आखिरी महिला तक को डिजिटल बनाकर इस पहल को धरातल पर उतारने में भागीदारी निभा रहा है।

(साभार – द बेटर इंडिया)

 

करीना कपूर ने कहा- ‘उन दिनों’ में पुरुषों को रखना चाहिए महिलाओं का ख्याल

लखनऊ. करीना कपूर खान का कहना है कि पीरियड्स के दिनों में पुरुषों को महिलाओं का ख्याल रखना चाहिए। पीरियड्स नैचुरल प्रॉसेस का हिस्सा होते हैं। करीना ने शनिवार को यहां लॉ मार्टीनियर कॉलेज में यूनिसेफ के प्रोग्राम में ये बातें कहीं। करीना ने स्टूडेंट्स से कहा- आप जो चाहें हासिल कर सकते हैं…

करीना ने मेन्स्ट्रूअल हाइजीन को लेकर यूनिसेफ के प्रोग्राम में कहा, ”महिलाओं में पीरियड्स और उनके हेल्‍थ रिलेटेड प्रॉब्‍लम्‍स पर खुलकर बात नहीं होती है, जो गलत है।”

”भगवान ने हमें बनाया है। पीरयड्स नैचुरल होते हैं। आप कैसे कह सकते हैं कि पीरियड्स के दौरान महिलाएं प्योर नहीं होतीं?”
करीना ने स्टूडेंट्स से कहा, ”ऐसा कुछ नहीं है जिसे लड़कियां अचीव नहीं कर सकतीं। मेरा सभी लड़कियों को यही मैसेज है। पैरेंट्स को बच्‍चों से हर तरह के मुद्दे पर खुलकर बात करनी चाहिए।”
करीना ने बताया, ”हम सेलेब्रिटीज हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम उन चीजों से नहीं गुजरते, जिससे आम लोग गुजरते हैं। हम भी 40 डिग्री टेम्‍परेचर में काम करते हैं, जैसे आप करते हैं।”
”सैनिटेशन की जो प्रॉब्‍लम्‍स हैं, वो हमारे साथ भी है। लोगों को लगता है कि हमें सारी सुविधाएं मिलती हैं, लेकिन ऐसा नहीं है।”
”अक्सर ऐसा होता है कि सफर में शूटिंग के दौरान हमें भी ऐसी परेशानियों से गुजरना पड़ता है।”
”पोर्टेबल टॉयलेट होते हैं, जो मेल-फीमेल दोनों को यूज करने होते हैं। हम भी मैनेज करते हैं। हमारा भी काम नहीं रुकता। लेकिन लोग ये समझते है कि हम स्टार हैं और सुविधाओं से लैस हैं।”

मैंने और करिश्मा ने तोड़ा मिथ

करीना ने कहा, ”अगर जेंडर बायसनेस की बात करें तो उसमे भी बहुत बदलाव आया है।”
”जर्नलिज्म में भी ज्‍यादा लड़कियां नजर आ रही है। हर फील्‍ड में लड़कियां आगे आ रही हैं।”
”मेरे परिवार में महिलाओं को काम करने की परमिशन नहीं थी, लेकिन मैंने और करिश्मा ने इस मिथ को तोड़ दिया।”
”फिर लोगों ने कहा शादी मत करो करियर खत्म हो जाएगा, लेकिन मैंने शादी भी की और मेरा काम भी जारी है, तो बदलाव हो रहा है।”

 

अंधे कानून के खिलाफ जंग छेड़ रही हैं पाकिस्तानी महिलाएं  

पाकिस्तानी महिलाओं ने देश में संसद जैसी अहमियत रखने वाली काउंसिल ऑफ इस्लामिक आइडियोलॉजी (CII) द्वारा पतियों को अपनी बात ना मानने पर महिलाओं की थोड़ी पिटाई करने का अधिकार देने वाले बिल की मुखालफत शुरू कर दी है। पाकिस्तानी अखबार ट्रिब्यून ने इस मामले में पाकिस्तान की 12 प्रोफेशनल महिलाओं की राय ली।

इन महिलाओं का सीधे तौर पर कहना था कि अगर कोई इनकी ‘थोड़ी पिटाई’ करता है तो ये उसका मुंहतोड़ जवाब देने में कोई कोताही नहीं बरतेंगी। अखबार ने इन महिलाओं से #TryBeatingMeLightly के साथ अपनी बात रखने के लिए कहा।

आइए आपको पढ़ाते हैं कि इन महिलाओं ने क्या कहा

अकीदा लालवानी नाम की डिजिटल स्टोरी टेलर का कहना है, ‘#TryBeatingMeLightly मैं वो विध्वंस बन जाऊंगी जिसकी तुमने कभी उम्मीद नहीं की होगी।’

फहद एस. कमल नाम की एजुकेशन कंसल्टेंट का कहना है, ‘#TryBeatingMeLightly और मुझे बताओ कि क्या तुम्हें अपनी ‘हल्की पिटाई’ पसंद है।’

ट्रैवल एंड लाइफस्टाइल ब्लॉगर अंबर जुल्फिकार कहती हैं, ‘#TryBeatingMeLightly और बदले में Aa**! में घूंसा खाओ।’

डिजिटल मार्केटर प्रियंका पाहुजा का जवाब था, ‘#TryBeatingMeLightly और मैं अपने सात साल के अनुभव के साथ एक कार तुम पर दौड़ा दूंगी।’

इस मामले में सुम्बुल उस्मान नाम की सोशल मीडिया मैनेजर का रुख बिल्कुल साफ है, ‘#TryBeatingMeLightly और तुम सुबह देखने के लिए नहीं बचोगे।’

डॉक्टर शगुफ्ता अब्बास, ‘#TryBeatingMeLightly मैं वो हाथ तोड़ दूंगी जो तुम मुझपर उठाओगे. बाकी का हिसाब मैं अल्लाह पर छोड़ती हूं।

सीनियर ब्रांड मैनेजर फिजा रहमान, ‘#TryBeatingMeLightly मैं सबके सामने तुम्हारी भी ‘हल्की पिटाई’ करूंगी, क्योंकि मैं लैंगिक भेदभाव के सख्त खिलाफ हूँ।.’

जैसे को तैसा में भरोसा रखने वाली ब्लॉगर इरम खान का कहना है, ‘#TryBeatingMeLightly और परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहो।.’

स्कूल टीचर और रेडियो जॉकी संदस रशीद, ‘#TryBeatingMeLightly और तुम इसके लिए अपनी बाकी बची हुई अभागी जिंदगी अफसोस में बिताओगे।.’

डिजिटल मार्केटर और ब्लॉगर सादिया अजहर, ‘#TryBeatingMeLightly मुझे अपनी बुद्धिमत्ता से Beat करो, अगर तुम कर सकते हो. मुझे अपनी मुस्कुराहट से Beat करो, मुझे अपनी दया भावना से Beat करो. लेकिन अगर तुमने मुझे एक पंख से भी पीटने की कोशिश की तो मैं तुम्हें बहुत बुरी तरह पीटूंगी।.’

मेडिकल स्टूडेंट अल्वीरा राजपर, ‘#TryBeatingMeLightly मुझे बताओ अगर कोई तुम्हारी बेटी की पिटाई करे तो तुम्हें कैसा लगेगा.।’

फोटो ब्लॉगर राबिया अहमद, ‘मैं सूर्य हूं, मुझे छूओगे तो मैं तुम्हें नरक की आग की तरह जला दूंगी. मैं प्रकाश हूं, तुम चाहोगे लेकिन मुझे कभी रोक नहीं पाओगे. तुम मुझमें कभी शामिल नहीं हो सकते. मैं उस तरह की औरत हूं जिस पर तूफानों के नाम रखे जाते हैं. मैं तुम्हें ललकारती हूं।, #TryBeatingMeLightly’

 

50 साल तक गुम रही फ़िल्म के मिलने की दास्तां

यह एक ऐसी असाधारण पाकिस्तानी फ़िल्म की कहानी है जिसे आधी सदी के बाद भी सुबह के तारे का इंतज़ार है, एक ऐसी फ़िल्म जिसमें भारत और पाकिस्तान का साझा झलकता है।

यह फ़िल्म लिखी पाकिस्तान में गई, इसमें मुख्य क़िरदार एक भारतीय ने निभाया और शूटिंग ढाका में हुई, जो उस वक़्त पूर्वी पाकिस्तान का सबसे बड़ा शहर था। मशहूर शायर फ़ैज़़ अहमद फ़ैज़़ की ‘जागो हुआ सवेरा’ को पाकिस्तान के फ़िल्मी इतिहास का सबसे अहम मील का पत्थर मानते हैं। 1958 में बनी यह फ़िल्म, कुछ दिन पहले फ्रांस के शहर कांस में आयोजित 69 वें फ़िल्म महोत्सव में ‘बरामद’ की जाने वाली फ़िल्मों की श्रेणी में दिखाई गई।

रूस के अग्रणी फ़िल्म निर्माता आंद्रेई तारकवोस्की की ‘सोलारस’, फ्रांसीसी निर्देशक रीगी वारनेयर की ‘इंडोक्ट्रिन’ और मिस्र के फ़िल्मकार यूसुफ़ शाहीन की ‘गडबाई बोनापार्ट’ जैसी दुर्लभ फ़िल्में के साथ इसकी स्क्रीनिंग हुई।

फ़िल्म समीक्षक साइबल चटर्जी कहते हैं, “यह फ़िल्म पाकिस्तानी सिनेमा में मील का पत्थर है. मेरे हिसाब से इस देश की यह एकमात्र नई याथार्थवादी फ़िल्म है. जिसने भी इसे खोज निकाला, उन्होंने बड़ा काम किया है। “यह फ़िल्म ब्याज के चंगुल में फंसे मछुआरों की कहानी है। अजय कारदार ने जब सन् 1957 में उसकी शूटिंग शुरू की, उस समय पाकिस्तान में बहुत उथल पुथल थी। फ़िल्मकार नोमान तासीर के बेटे अंजुम तासीर कहते हैं, “दिसंबर 1958 में फ़िल्म की रिलीज़ से तीन दिन पहले सरकार ने मेरे पिता से इसे रोकने को कहा. दो महीने पहले जनरल अयूब ख़ान पहले सैन्य शासक बने थे।.”

अंजुम तासीर कहते हैं, “सरकार ने फ़िल्म के युवा कलाकारों और लेखकों को कम्युनिस्ट क़रार दिया. कहानी, गीत और संवाद प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने लिखे थे।.” फ़ैज़़ की बेटी सलीमा हाशमी ने बताया, “जनरल अयूब ख़ान ने मेरे पिता और कई अन्य कलाकारों को क़ैद कर दिया।.” तासीर ने बताया, “मेरे पिता और अन्य लोगों ने लंदन में इसे प्रदर्शित करने का फ़ैसला किया, पर सरकार ने पाकिस्तान उच्चायोग को इस के बहिष्कार का आदेश दिया.” लेकिन ब्रिटेन में तत्कालीन उच्चायुक्त इकराम अताउल्लाह और उनकी पत्नी ने इसके प्रीमियर में भाग लिया। इस फ़िल्म की प्रेरणा भारत के निर्देशक सत्यजीत राय की 1955 की फ़िल्म ‘पाथेर पंचाली’ से ली गई थी और इसे ‘न्यू रियलिज़्म’ पर आधारित सिनेमा श्रेणी में शामिल किया जाता है।

फ़िल्म ब्लैक एंड व्हाइट में बांग्लादेश के नदी मेघना के तट पर फ़िल्माया गया। फ़िल्म में ढाका के निकट सतवी गांव के मछुआरा समुदाय के बारे में दिखाया गया है कि कैसे वो महाजनों के रहमोकरम पर रहते हैं।

प्रमुख बंगाली लेखक मानिक बंधोपाध्याय की कहानी से फ़ैज़ ने इसकी प्रेरणा ली थी। इसमें कोलकाता में रहने वाले संगीतकार तीमर बार्न ने संगीत दिया है, जबकि इसकी एकमात्र पेशेवर अभिनेत्री तृप्ति मित्रा भी भारतीय थीं। सन् 1940 के दशक में तृप्ति और उनके पति शोमभो मित्रा दोनों ही ‘इप्टा’ के सदस्य थे. फ़ैज़़ ने ब्रिटिश सिनेमेटोग्राफ़र वाल्टर लीज़र्ली को हायर किया। बाद में लीज़र्ली को ‘ज़ोरबा दा ग्रीक’ के लिए वर्ष 1964 में ऑस्कर पुरस्कार मिला और फ़िर कैमरामैन के रूप में ‘हीट एंड डस्ट’ (1983) के लिए पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सौंदर्यशास्त्र और प्रोडक्शन के ऊंचे पैमाने और सरकार के साथ तनातनी के कारण मिलने वाली लोकप्रियता से इस फ़िल्म को सफ़ल होना चाहिए था लेकिन तासीर के अनुसार, आर्थिक रूप से यह फ़ायदेमंद साबित नहीं हुई। एक क्लासिक फ़िल्म जिसे ‘ला सेट्रिडा’, ‘दा साइकिल थीफ़’ और ‘पाथेर पंचाली’ जैसी फ़िल्मों की श्रेणी में होना चाहिए था लेकिन वह कहीं गुम हो गई।

फिर आने वाले 50 वर्षों तक किसी ने इसका ज़िक्र तक नहीं किया, जबतक फ्रांस के शहर नांते में ‘थ्री कांटीनेंट्स फ़िल्म महोत्सव’ के संस्थापक फ़्रेंच ब्रदर्स फ़िलिप और एलन ने 2007 में पुरानी पाकिस्तानी फ़िल्में दिखाने का फ़ैसला नहीं किया।

फ़िलिप जल्लाद ने बताया, “पाकिस्तानी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मकार शिरीन पाशा ने कहा कि ‘जागो हुआ सवेरा’ के बिना पाकिस्तानी फ़िल्मों के अतीत पर नज़र नहीं डाल सकते। “इसके बाद तासीर ने पाकिस्तान और बांग्लादेश, पुणे, लंदन और पेरिस के अभिलेखागारों में इस फ़िल्म की तलाश की। प्रदर्शनी से एक सप्ताह पहले उन्हें इस फ़िल्म की कुछ रीलें फ़्रांसीसी फ़िल्म वितरक के पास मिलीं जबकि कुछ लंदन और कुछ कराची से बरामद हुईं। ‘अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज़’ के निर्माता ने बताया कि इन सभी को एक साथ रखकर देखने लायक बनाया गया और नवंबर में नांते में इसकी स्क्रीनिंग हुई।

इसके बाद तासीर ने फ़िल्म के रखरखाव का बीड़ा उठा लिया और उसकी प्रतियां चेन्नई के प्रसाद लैब्स में भेजीं. अंततः 2010 में यह फ़िल्म मुकम्मल हुई। तासीर ने फ़ैज़ की बेटी सलीमा हाशमी और फ़िलिप के साथ कांस में इसे पेश किया। इसके प्रीमियर के दौरान आधा हॉल खाली था, कोई पाकिस्तानी फ़िल्म समीक्षक वहां मौजूद नहीं था, जबकि केवल चार भारतीय पत्रकार फ़िल्म देखने आए थे। तासीर कहते हैं, “मैं इस फ़िल्म को पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश में दिखाना चाहता हूँ, यह तीनों देशों की साझी विरासत है.”

 

(साभार – बीबीसी हिन्दी)

जिंदगी के स्वाद में भरें थोड़ी मिठास

 

 रसमलाई

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सामग्री – 3 लीटर दूध फुल क्रीम, 2 नींबू का रस, डेढ़ चम्मच अरारोट, आधा चम्मच इलायची पाउडर, 8 से 10 पिस्ता बारीक कटे, आधा कटोरी चिरौंजी, 2 चुटकी केसर, 6 कप चीनी, 2 से 3 कप पानी, सजाने के लिए बारीक कटे पिस्ता और केसर की पत्तियों से रसमलाई गार्निश करें।

 विधि –  2 लीटर दूध को एक भारी तले वाले बर्तन में गर्म करें।  दूध में उबाल आने के बाद, गैस बंद कर दें। जब दूध थोड़ा ठंडा हो जाए तो इसमें नींबू का रस थोड़ा-थोड़ा डालते हुए एक बड़े चम्मच से चलाएं। जब दूध पूरा फट जाए. तो उसे एक साफ कपड़े में छानकर, ऊपर से ठंडा पानी डाल दें। इससे रसमलाई में नींबू का स्वाद नहीं आएगा।  अब कपड़े को बांधकर उसे अच्छी तरह दबाएं, ताकि फटे हुए दूध का सारा पानी निकल जाए. रसमलाई बनाने के लिए पनीर तैयार है। इसके बाद पनीर को किसी थाली में निकाल लें और इसे कद्दूकस या हाथों से अच्छी तरह मैश करके आटे की तरह गूंद कर चिकना करें। फिर पनीर में अरारोट मिक्स करके उसे 4 से 5 मिनट और मैश करें और गूंदकर चिकने आटे की तरह तैयार कर लें। अब मिश्रण में से थोड़ा-थोड़ा भाग हाथों में लेकर, उसे गोल शेप देकर हथेली से दबाकर, रसमलाई के लिए छैने तैयार करके एक प्लेट में रखते जाएं।अब चाशनी बनाने के लिए एक भगोने में 4 कप चीनी और 2 कप पानी डाल कर गैस पर गर्म करने रख दें। चाशनी में उबाल आने के बाद, प्लेट में रखे तैयार छैने इसमें डाल दें. भगोने को एक प्लेट से ढक दें। छेने और चाशनी तेज आंच पर 15 से 20 मिनिट तक पकाएं। कुछ देर में चाशनी गाढ़ी होने लगेगी, तो उसमें एक बड़े चम्मच से थोड़ा-थोड़ा करके पानी डालते रहें. ध्यान रखें कि चाशनी में हमेशा उबाल आता रहे। इस तरह चाशनी में सिर्फ 1 से 2 कप तक पानी डालें, छेने पकने के बाद फूल कर दुगने हो जाएंगे, तब गैस बंद कर दें। रसमलाई जिस चाशनी के साथ परोसी जाएगी, उसे तैयार करने के लिए बचा हुआ एक लीटर दूध एक बर्तन में डालकर उबाल लें। दूध में उबाल आ जाए तो उसे मध्यम आंच पर पकने दें और उसमें पिस्ता, केसर व चिरौंजी मिलाकर एक बड़े चम्मच से चलाते हुए पकाएं। दूध गाढ़ा होकर आधा रह जाए तो उसमें इलायची पाउडर और 2 कप चीनी मिलाकर कुछ देर और पकाए.फिर गैस बंद कर दें। अब रसमलाई के छैने चाशनी से निकालकर दूध में डाल दें. कुछ देर के लिए यह मिठाई फ्रिज में रख दें।  2-3 घंटे बाद इस स्वादिष्ट रसमलाई का आनंद लें।

  मिल्‍क केक

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सामग्री – 8-10 कप दूध, 1/8 चम्‍मच फिटकिरी ,200 ग्राम चीनी ,2 चम्‍मच घी 

विधि – सबसे पहले एक गहरे तली के पैन में दूध को गाढ़ा होने तक पका लें। फिर उसमें चीनी और फिटकिरी मिलाकर लगातार चलाते रहें। जब दूध दानेदार दिखने लगे और गाढ़ा हो जाए तब उसमें घी मिक्‍स कर दें। एक थाली में घी लगाकर अलग रख दें। दूध चलाते रहें और जब दूध बर्तन के किनारे छोड़ना शुरु कर दे तो उसे चिकनाई लगी थाली में निकाल लें। अब इसे चार से पांच घंटे तक सेट होने के लिए रख दें। इसके बाद मिल्‍क केक को चौकोर टुकड़ों में काट लें। अब इसे लंच या डिनर के बाद डिजर्ट में सर्व करें।