Wednesday, September 17, 2025
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दुनिया को ये बताना चाहती हैं प्रियंका चोपड़ा

प्रियंका चोपड़ा को स्पेन में चल रहे इंटरनेशनल इंडियन फिल्म एकेडमी को बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवार्ड मिला है। प्रियंका इनदिनों हॉलीवुड की ‘बेवॉच रिबूट’ में ‘ड्वेन ‘द रॉक’ जॉनसन और ज़ैक एफ़रन के साथ शूटिंग में व्यस्त हैं। बेवॉच में वो निगेटिव किरदार में हैं जो उन्हें पसंद है। उन्होंने कि उन्हें अमरीका में आए साल भर ही हुए हैं और अभी लंबी दूरी तय करनी है। वह कहती हैं कि वो दुनिया को यह बताना चाहती हूं कि बॉलीवुड में सिर्फ गाने पर डांस करने वाले हम जोकर नहीं हैं. ‘मैं दुनिया को बताना चाहती हूं कि भारत के कलाकार ‘जोक’ नहीं हैं। ‘”लोग सोचते हैं कि हम हॉलीवुड की नक़ल कर रहे हैं लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। हम दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रही इंडस्ट्री में से एक हैं। हम हिंदी बोलते हैं जो सिर्फ़ एक ही देश में बोली जाती है लेकिन हमारी इंडस्ट्री का चालीस प्रतिशत व्यवसाय भारत के बाहर से आता है।.”

 

टीम इंडिया के नए कोच बने अनिल कुंबले

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) ने अनिल कुंबले को भारतीय क्रिकेट टीम का नया हेड कोच नियुक्त किया है। धर्मशाला में हुए एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बीसीसीआई के प्रमुख अनुराग ठाकुर ने उनके नाम की घोषणा की। इस मौक़े पर बीसीसीआई के सचिव अजय शिर्के भी मौजूद थे। अनुराग ठाकुर ने बताया कि पूरी तरह पारदर्शी प्रक्रिया के बाद नए हेड कोच का चयन किया गया है। ऐसी रिपोर्टें हैं कि पूर्व क्रिकेटर रवि शास्त्री और अनिल कुंबले में ही इस पद के लिए टक्कर थी। सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली, वीवीएस लक्ष्मण और संजय जगदाले की सलाहकार समिति ने मुख्य कोच का चयन किया। बीसीसीआई ने नए कोच की नियुक्ति के लिए एक जून से अर्जियां मंगाई थीं और आवेदन करने की आखिरी तारीख 10 जून तय की थी। बोर्ड को कोच के आवेदन के लिए कुल 57 आवेदन मिले, बोर्ड ने इस सूची में से 21 लोगों को इंटरव्यू के लिए चुना। दरअसल 2001 में पहली बार बीसीसीआई ने विदेशी कोच पर दांव लगाया था. तब न्यूज़ीलैंड के जॉन राइट को कोच की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। आधिकारिक तौर पर अजित वाडेकर भारतीय टीम के पहले कोच थे. इसके बाद बोर्ड ने संदीप पाटिल, अंशुमान गायकवाड़ और कपिल देव को कोच नियुक्त किया। राइट के कार्यकाल के बाद ग्रेग चैपल ने मुख्य कोच की ज़िम्मेदारी संभाली. फिर दक्षिण अफ्रीका के गैरी कर्स्टन के कार्यकाल में भारतीय टीम ने कई टूर्नामेंट जीते और अपनी ज़मीन पर विश्व कप भी जीता। कर्स्टन के बाद डंकन फ्लेचर ने कोचिंग की जिम्मेदारी संभाली, लेकिन उनका कार्यकाल कर्स्टन की तरह सफल नहीं रहा।

 

खुद पर यकीन रखें और आर्थिक तौर पर सजग रहें

बेबाक होना आसान नहीं होता और उससे भी मुश्किल है बेबाकी के साथ लिखना। इस पर भी अगर आप महिला हैं तो मर्यादा, शालीनता न जाने कितने भारी – भरकम शब्दों को जीना पड़ता है। अपने ब्लॉग बकबक पर बकबक करने वाली माधवीश्री यूँ तो पत्रकार ही हैं मगर इन दिनों लेखन में हाथ आजमा रही हैं और तारीफें भी बटोर रही हैं। लाडली मीडिया अवार्ड की विजेता माधवी श्री का पहला उपन्यास वाह! ये औरतें इन दिनों काफी पसंद किया जा रहा है। अपराजिता की माधवीश्री से हुई बातचीत के कुछ अंश –

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मेरा जन्म और परवरिश कोलकाता में ही हुई। मैंने कॉमर्स की पढ़ाई की है और मुझे सीए बनना था, पहला चरण पार भी कर गयी। दूसरे चरण की पढ़ाई के दौरान माँ की मृत्यु हो गयी। तब खबर नहीं थी कि यह घटना मेरे जीवन को कहाँ तक बदलेगी मगर उसके बाद ही जीवन के संघर्षों से सामना हुआ। तब पता चला कि इंसान को खुद अपना सहारा बनना पड़ता है और मैंने भी यही किया। माँ तो अब भी याद आती हैं मगर मेरा झुकाव लेखन की तरफ होने लगा। जनसत्ता में लिखना शुरु किया तो धीरे – धीरे पहचान भी बनने लगी मगर अंदरूनी राजनीति से भी सामना हुआ। तब पत्रकारिता की दुनिया में महिलाएं कम थीं और उस समय न तो मुझे घर से सहयेग मिला और न ही कार्यक्षेत्र से। पत्रकारिता में फायदे की बहुत अधिक कल्पना नहीं की जा सकती थी। सीए बनने का सपना अधूरा रह गया मगर लेखन जारी रहा। तब मैं लेखन के अतिरिक्त सेमिनार वगैरह भी करवाती थी मगर कोलकाता से बाहर जाकर कुछ करने की इच्छा जोर पकड़ने लगी और कुछ समय तक रहने के बाद लगा कि अब यह मेरी पहचान बनाने का समय है और मैं दिल्ली चली आई।

दिल्ली में आकर नौकरी की तलाश और स्वतंत्र पत्रकारिता करना आसान नहीं था मगर ईश्वर की कृपा से मेरी सहेली पत्रिका में मुझे नौकरी मिल गयी। हालात से मैंने हार नहीं मानी। इसके बाद कई संस्थानों में पढ़ाया जिसमें देश का प्रख्यात संस्थान इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मासकॉंम भी शामिल है। मेरे विद्यार्थी चुनाव आयोग से लेकर कई चैनलों में हैं।

घर, बाहर और समाज में महिलाओं के प्रति जो नजरिया मैंने देखा, उसे देखकर जेंडर इक्वेलिटी से संबंधित समस्याओं पर लिखा मगर उसका प्रकाशित होना इतना आसान नहीं था। दिल्ली का माहौल काफी अलग है मगर यहाँ रहकर मैंने काफी कुछ सीखा है।

समस्या यह है कि पिछले 10 सालों में लड़कियाँ जितनी तेजी से आगे बढ़ी हैं, समाज उस गति से आगे नहीं बढ़ा है। मुझे लगता है कि लड़कियों के लिए सिंगल रूम फ्लैट की व्यवस्था की जानी चाहिए जो कि सस्ते ब्याज दरों पर उपलब्ध हो। अपनी पहचान बनाने की कोशिश में जुटी लड़कियों को आर्थिक सहयोग मिले तो और भी लाभ होगा। पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत से पुरस्कार जीते औऱ भारत के एकमात्र महिला पत्रकारिता क्लब की कार्यकारिणी में तीन बार जीतना भी मेरे लिए उपलब्धि है। विद्यार्थियों से मिलने वाला आदर भी मेरे लिए काफी महत्वपूर्ण है।

अपने सपने को जीएं और उसे अधूरा न छोड़ें। पैसों का पूरा ध्यान रखें क्योंकि इसकी जरूरत कभी भी पड़ सकती है। खुद पर और ईश्वर पर अपना विश्वास और उम्मीद हमेशा जिंदा रखें।

कार्य स्‍थल पर यौन उत्‍पीड़न  – आसान नहीं है समाधान

 सरकार भले ही कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न से संबंधित कानून का पालन नहीं करने वाली कंपनियों पर चाबुक चलाने के प्रयासों में जुटी है, लेकिन बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र की कंपनियों को इस कानून के बारे में पता तक नहीं है। कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (प्रीवेन्शन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल) कानून 2013 के अनुपालन पर एक कंपनी द्वारा 2015 में किए गए सर्वेक्षण में ये संकेत मिले हैं कि 97 फीसदी कंपनियां कानून और उसे अमल में लाने के बारे में वाकिफ ही नहीं हैं।

Businessman leaning over businesswoman, mid section
इसके अलावा कंपनी द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत भेजे गए आवेदनों से यह पता चला है कि केवल राजस्थान ने कानून की निगरानी के लिए जिला अधिकारियों के माध्यम से आवश्यक स्थानीय शिकायत समिति और नोडल अधिकारियों की नियुक्ति की है।
कंपनी के अधिकारियों के अनुसार कानून और इसको लागू करने के बारे में जागरुकता सबसे बड़ी चुनौती है। महिला और बाल विकास मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 में महिलाओं के साथ कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के 520 से अधिक मामले आए, जिसमें 57 मामले कार्यालय परिसर के अंदर प्रकाश में आए, जबकि 469 मामले काम से संबंधित अन्य स्थानों से जुड़े थे।

sexual harresment 1सार्वजनिक और निजी कार्यस्थलों पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए दिसंबर, 2013 में यह कानून लागू किया गया था। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे मामलों में कमी नहीं आयी है मगर अधिकतर मामलों में या तो महिलाएं खामोश रहती हैं या नौकरी छोड़ देती हैं। अगर कोई मामला सामने आता भी है तो कई कम्पनियाँ उस महिला को बर्खास्त कर देती है और अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके या तो मामला दबा देती हैं या फिर महिला का कॅरियर ही नष्ट कर दिया जाता है। जाहिर है कि किसी भी आम महिला के लिए लम्बी कानूनी लड़ना बेहद मुश्किल है और यही वजह है कि अधिकतर मामलों में  वह या तो हार मान लेती है या नौकरी छोड़ देती है। हर क्षेत्र में इस तरह के अपराधों को लेकर हर दूसरी कम्पनी का प्रबंधन इतना सहयोगी हो जाता है कि अपराधी अपनी पहचान का इस्तेमाल कर मीडिया में उस औरत को बदनाम कर छोड़ता है और उसे कहीं नौकरी नहीं मिलती। कम्पनियाँ अपनी छवि को चमकदार बनाए रखने के लिए भी ऐसे मामलों को दबा देती हैं क्योकि उत्पीड़न करने वाला अगर कम्पनी के लिए फायदेमंद है तो इसका असर कम्पनी पर पड़ेगा इसलिए अपराधी खुले घूम रहे हैं और लड़कियाँ विवश हैं। अगर यही स्थिति रही तो हालात कभी नहीं सुधरने जा रहे हैं।

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कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, लैंगिक समानता, जीवन और स्‍वतंत्रता को लेकर महिलाओं के अधिकारों का उल्‍लंघन है। कार्यस्‍थल पर महिलाओं के लिए अनुरूप वातावरण न होने की स्थिति में उनके लिए वहां कार्य करना मुश्किल हो जाता है और अगर ऐसे में यौन उत्‍पीड़न होता है तो महिलाओं की भागीदारी पर नकारात्‍मक प्रभाव पड़ता है। इस वजह से, देश की महिलाओं आर्थिक सशक्तिकरण और उनके समावेशी विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव होता है। सुहानी ने एक प्रसिद्ध कॉलेज से हाल ही में अपना एमबीए पूरा किया और वह एक मल्‍टीनेशनल कंपनी में अच्‍छे पद पर काम कर रही थी, लेकिन कुछ दिनों से उसके बॉस का व्‍यवहार उसके प्रति अजीब सा हो गया था, वह उसे शॉर्ट्स पहनने के लिए कहते और हमेशा अपने साथ ही रखने की कोशिश करते, ऐसे माहौल में सुहानी सही से अपना काम नहीं कर पा रही थी और वह हतोत्‍साहित होती जा रही थी, और कुछ ही समय बाद वह डिप्रेशन का शिकार हो गई। ऐसी कहानी कई महिलाओं और लड़कियों की है जो यौन उत्‍पीड़न के कारण अपने आप की काबिलियत को साबित नहीं कर पाती है, समाज के डर की वजह से आवाज नहीं उठाती हैं और कई शारीरिक समस्‍याओं की शिकार हो जाती हैं।HdpaXNhacMNLALQ-1600x900-noPad

यौन उत्‍पीड़न की शिकार महिलाओं को सिरदर्द, उल्‍टी, वजन कम होना, आत्‍मविश्‍वास खो देने और डिप्रेशन व तनाव जैसी कई समस्‍याएं हो जाती हैं। मानसिक और भावनात्‍मक आघात पहुँचने के कारण वो हर किसी पर से अपना विश्‍वास खो देती हैं। क्‍या होता है यौन उत्‍पीड़न: कार्यस्‍थल पर महिलाओं को ज़बरन परेशान करना, उनके साथ अश्‍लील बातें करना और छेड़छाड़ करना, शरीर को छूने का प्रयास करना, गंदे इशारे करना आदि जैसे कृत्‍य यौन उत्‍पीड़न की श्रेणी में आते हैं। महिलाओं की स्थिति हाल ही में हुए कुछ सर्वे से पता चला है कि लंबे समय तक कार्यस्‍थल पर यौन शोषण या उत्‍पीड़न होने पर महिला की मानसिक स्थिति इतनी खराब हो जाती है कि वह तनाव में रहने लगती है। अपने आप को सामाजिक रूप से अलग कर लेती है और किसी भी समारोह आदि में जाना पसंद नहीं करती है। कई बार, उनके मन में आत्‍महत्‍या करने का ख्‍याल भी आता है। यौन शोषण की शिकार हुई महिलाएं अक्‍सर स्‍लीप डिस्‍ऑर्डर से ग्रसित हो जाती हैं क्‍योंकि वह नींद की दवाईयों आदि का सेवन करना शुरू कर देती हैं। यौन उत्‍पीड़न के लिए कानून कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से महिलाओं का संरक्षण (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 में कार्यस्‍थल पर महिलाओं पर होने वाले यौन शोषण पर प्रकाश डाला गया है और एक शिकायत निवारण तंत्र प्रदान किया गया है। अधिनियम पर पिछले वर्ष सरकार के द्वारा इसके प्रवर्तन को सुनिश्चित करने के लिए प्रयास किया गया है। यह अधिनियम, महिलाओं के समानता के मौलिक अधिकारों की पुष्टि करता है जिसमें अंर्तगत उन्‍हें पूरी गरिमा और अधिकार के साथ समाज में रहने, किसी व्‍यवसाय, व्‍यापार या कार्य को करने की स्‍वतंत्रता है जिसमें भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 19(1)(छ) तहत प्रदान किए गए नियम के अनुसार, कार्य स्‍थल का वातावरण पूरी तरह सुरक्षित और यौन शोषणरहित होना भी शामिल है।

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सरकार क्‍या कर रही है इस मुद्दे को प्रमुखधारा में आगे बढ़ाने के लिए और उनकी प्रतिक्रिया तंत्र का मानकीकरण करने में मदद करने के लिए, महिला और बाल विकास मंत्रालय ने हाल ही में इस अधिनियम पर एक हैंडबुक को प्रकाशित किया है। ऑनलाइन इस हैंडबुक को http://goo.gl/0a3Of9 लिंक से डाउनलोड किया जा सकता है। इस बुकलेट को सभी केन्‍द्रीय सरकारी मंत्रालयों और विभागों, राज्‍य सरकारों और रेडी रेकनर के रूप में उपयोग करने के लिए व्‍यापार मंडलों को भी भेज दिया गया है। भारत सरकार के मंत्रालयों और विभागों को महिला और बाल विकास मंत्रालय के द्वारा सलाह दी गई है कि इस अधिनियम के अनुपालन को सुनिश्चित किया जाए। भारत के वाणिज्य और उद्योग के एसोसिएट चैम्‍बर्स (एसोचैम), वाणिज्‍य और उद्योग के भारतीय चैम्‍बर्स के फेडरेशन (फिक्की), सीसीआई, नैसकॉम से भी इस अधिनियम के प्रभावी क्रियान्‍वयन को सुनिश्चित करने का अनुरोध किया गया है। महिला और बाल विकास मंत्रालय, कम्‍पनियों की वार्षिक रिपोर्ट में आंतरिक शिकायतों समिति (आईसीसी) के संविधान के प्रकटीकरण को जनादेश करने के लिए प्रयत्‍नशील है। जैसा कि ऊपर पहले ही उल्‍लेख किया जा चुका है कि इस अधिनियम में महिलाओं की आयु, व्‍यवसाय, कार्यस्‍थल वातावरण को लेकर हर बात स्‍पष्‍ट है, हर महिला को लैंगिक समानता का अधिकार है। महिलाएं, चाहें सरकारी क्षेत्र में कार्यरत हों या प्राईवेट क्षेत्र में; यह अधिनियम उनके हित के लिए हर क्षेत्र में सरकार के द्वारा लागू किया जाता है। यहां तककि घरों में काम करने वाली बाईयों या कर्मियों के लिए भी यह नियम है। यह अधिनियम, कार्यस्‍थल पर यौन उत्‍पीड़न को एक व्‍यापक तरीके से परिभाषित करता है और यदि किसी संस्‍थान में 10 से अधिक यौन उत्‍पीड़न की शिकायतें मिलती हैं तो आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) के गठन पर जोर देती है। यौन उत्‍पीड़न की शिकायत को कृत्‍य होने के तीन महीने के भीतर कर देना चाहिए, विभिन्‍न परिस्थितियों में ज्‍यादा भी किया जा सकता है। सभी कम्‍पनियों को सलाह दी जाती है कि वे अपनी महिला कर्मचारियों को इस बारे में जागरूक करें और इसके लिए समय-समय पर वर्कशॉप और जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन करें। इस अधिनियम के अनुसार, राज्‍य सरकारों व विभागों की जिम्‍मेदारी है कि वे ध्‍यान दें कि महिलाओं की सुरक्षा हेतु इस अधिनियम को वे सही से लागू कर रहे हैं या नहीं।

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यह सुनिश्चित किया जाता है कि सभी विभाग, महिलाओं को कार्यस्‍थल पर सुरक्षित वातावरण देने में सक्षम हैं या नहीं। किसी भी प्रकार के मामले को हल्‍के में न लेने के आदेश भी हैं। अधिनियम, यौन उत्‍पीड़न के सम्‍बंध में कार्यस्‍थलों और रिकॉर्ड्स के निरीक्षणों को करने के लिए समुचित सरकार को अधिकृत करता है। अधिनियम की धारा 26(1) में कहा गया है कि इस अधिनियम के तहत नियोक्‍ता, अपने कर्तव्‍यों के उल्‍लंघन में पाये जाने की स्थिति में 50,000/- रूपए का जुर्माना देने के लिए उत्‍तरदायी होगा। साथ ही उसका लाईसेंस भी निरस्‍त भी किया जा सकता है या मामला गंभीर होने पर दोनों ही दंड दिए जा सकते हैं। इसलिए, प्रत्‍येक नियोक्‍ता व मालिक का यह मुख्‍य कर्तव्‍य है कि कार्यस्‍थल पर यौन शोषणरहित माहौल प्रदान करें। साथ ही हर व्‍यक्ति को इस अधिनियम के बारे में जागरूक करें और इसके लिए आवश्‍यक कार्यशालाओं का आयोजन करें। महिलाओं को लैंगिक समानता और भयरहित माहौल प्रदान करें। इसी प्रकार, पूरे भारत को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जा सकता है। कई बार पुरुषों को भी प्रताड़ना का शिकार होना पडता है, ऐसी स्थिति में वे अक्सर शिकायत भी नहीं कर पाते।जरूरी है कि यौैन उत्पीड़न के मामले में महिला और पुरुष, दोनों को ध्यान में रखकर नीति तैयार की जाए। यह कार्यस्थल के साथ देश के विकास  के लिए भीी जरूरी है।

उम्मीद करें कि दुनिया बची रहे और बेहतर बने

कहते हैं कि मन से चाहो तो ईश्वर भी मिल जाते हैं और जुलाई ऐसा महीना है कि भगवान भक्तों से मिलने रथयात्रा पर हर साल आते हैं। इस्कॉन की रथयात्रा और पुरी की जगन्नाथ यात्रा में जिस तरह तमाम कष्ट सहते हुए लोग उमड़ते हैं, वह अद्भुत है। शायद यही वह ताकत है जो तमाम मुश्किलों के बावजूद एक आम भारतीय को आगे बढ़ने की ताकत देती है। इसे ही श्रद्धा कहते हैं, यही विश्वास है जो आगे बढ़ने की शक्ति देता है। यही शक्ति जब साथ आ जाए तो देश और समाज दोनों आगे बढ़ते हैं और इसी को एकता कहा जाता है।munshi-premchand-1-24997-cover1

भारतीय राजनीति इस समय विदेश नीति को लेकर चर्चा में है तो इसरो ने हमें गौरव की अनुभूति करने के लिए माकूल वजहें दी हैं। जून में काफी कुछ बदला इसलिए देखा जाए तो यह महीना नयी शुरुआत का समय है। इस माह से भारत के सांस्कृतिक उल्लास के क्षण आरम्भ होते हैं। बंगाल में माँ के आगमन की सूचना खूँटी पूजा से मिलती है और हर व्यक्ति पर एक ही खुमार चढ़ता है, पूजा का खुमार, माँ की आराधना का उल्लास मगर हकीकत पर नजर डालिए तो स्थिति कुछ और ही नजर आती है। बहरहाल यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन का बाहर निकलना और उस फैसले को पलटने की जद्दोजहद, यह ऐसी परिस्थिति है जिसका प्रभाव सारी दुनिया पर पड़ने जा रहा है।

साहित्य की बात करें तो जुलाई मुंशी प्रेमचंद को याद करने का समय है जिनकी कई बातें आज की परिस्थितियों पर खरी उतरती हैं और उनका तमाम साहित्य पूरे समाज में बिखरा नजर आता है। यह आगे बढ़ने का समय है। यह समय वैश्विक हलचलों से भरा समय है, उम्मीद करें कि दुनिया बची रहे और बेहतर बने।

शक्ति – द विमेन इन मीडिया को मिली नयी कार्यकारिणी

मीडिया में कार्यरत महिलाओं को साथ लाने और उनके हितों को ध्यान में रखकर शक्ति – द विमेन इन मीडिया का गठन एक साल पहले किया गया था। गत रविवार को संस्था की बैठक में दूसरी कार्यकारिणी का गठन सर्वसम्मति से किया गया। बैठक में सर्वसम्मति से लोकप्रिय आर जे नीलम को शक्ति – द विमेन इन मीडिया का अध्यक्ष चुना गया।

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संस्था की उपाध्यक्ष भारती जैनानी तथा आफरीन हक बनायी गयी हैं जबकि सचिव पद का दायित्व अर्पिता विश्वास तथा सुषमा त्रिपाठी सम्भालेंगी। सँयुक्त सचिव के पद पर रेनु सिंह तथा बासवदत्ता सरकार लायी गयी हैं।

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सँयुक्त कोषाध्यक्ष सुतपा दत्त भण्डारी तथा अन्नू राय को बनाया गया है। इसके अतिरिक्त कार्यकारिणी में वनिता झारखंडी, श्रुति जायसवाल, निधि गुप्ता, शिल्पी सिन्हा, शाइस्ता नाज और शबाना परवीन भी शामिल हैं।

हार की जीत

 –  सुदर्शन

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माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे ‘सुल्तान’ कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रूपया, माल, असबाब, ज़मीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। “मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा”, उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, “ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।” जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।

खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, “खडगसिंह, क्या हाल है?”

खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, “आपकी दया है।”

“कहो, इधर कैसे आ गए?”

“सुलतान की चाह खींच लाई।”

“विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।”

“मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।”

“उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!”

“कहते हैं देखने में भी बहुत सुँदर है।”

“क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।”

“बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।”

बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से। उसने सैंकड़ो घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था। इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, “परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?”

दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उडने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।”

बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रति क्षण खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई, “ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।”

आवाज़ में करूणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, “क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?”

अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।”

“वहाँ तुम्हारा कौन है?”

“दुगार्दत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।”

बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था।बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, “ज़रा ठहर जाओ।”

खड़गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।”

“परंतु एक बात सुनते जाओ।” खड़गसिंह ठहर गया।

बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।”

“बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।”

“अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।”

खड़गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, “बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?”

सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।

बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, “इसके बिना मैं रह न सकूँगा।” इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।

रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रूक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। फिर वे संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।”

 

 

मौसम को बदलने दें, कपड़ों को नहीं

मौसम के अनुसार आपके कपड़ों का कलेक्शन चेंज हो यह हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है। आप मौसम और माहौल अनुसार कुछ कपड़े तो नए खरीद सकते हैं, लेकिन सिरे से सबकुछ बदलना बेहद खर्चीला भी होता है। ऐसे में आप ये बातें ध्यान रखेंगी तो पैसा भी बचाएंगी और अपडेट भी रहेंगी…

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क्वालिटी पर ध्यान

हर कपड़ा जो आप खरीदें उसकी फिटिंग तो परफेक्ट होनी चाहिए लेकिन क्वालिटी में तो जरा समझौता नहीं करें। खराब क्वालिटी के कपड़े एक मौसम ही निकाल लें यह मुश्किल हो जाता है तो नए मौसम में नई खरीदी जरूरी हो ही जाएगी। इसलिए उत्तम किस्म के फेब्रिक को ही अपनी अलमारी में जगह दें।

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दिखाएं क्रिएटिविटी

अपने अनुसार कपड़ों में बदलाव शुरू करें। थोड़ा क्रिएटिव होना यहां बेहद काम आएगा। पुरानी ड्रेसेस को अपने हिसाब से ऑल्टर करें। जरा-सा दिमाग लगाएंगी तो ड्रेस पूरी तरह से बदल जाएगी। पुरानी ड्रेसेस में बो लगाएं, स्ट्रैप या हेमलाईन एडजस्ट करें। चंद बटन भी लगाए जा सकते हैं, जो एक टी-शर्ट को नया कर सकते हैं और नाइट गाऊन को स्टाइलिश बना सकते हैं।

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खुद तैयार करवाएं

जब भी नया खरीदने निकलें तो यह भी ध्यान रखें कि क्या इसे टेलर से भी बनवाया जा सकता है। अगर खुद सिलाई जानती हैं तो इससे बेहतर क्या होगा कि आप अपनी नई ड्रेस खुद सिलें। एक लोकल टेलर चुनें और उसकी मदद से हर मौसम के लिए खुद के लिए बिल्कुल नया लुक तैयार करवाएं। ये बेहद सस्ता भी पड़ेगा।

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महंगा भी है जरूरी

बुरे कपड़े और खराब फिटिंग की ड्रेस खरीदने से बेहतर है एक अच्छा खरीदें भले वो थोड़ा महंगा हो। यह चंद महंगे कपड़े कई साल का इंतजाम कर देते है। इन्हें चुनने में खूब वक्त लगाएं, बार-बार बाजार जाएं। हर संभव परख करें। ट्रायल भी लें। फिर जाकर कुछ महंगा खरीदें और कुछ साल उसका मजा लें।

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अदला-बदली

आजकल हर चीज की अदला-बदली संभव हो गई है। शुक्र कीजिए आपके एंड्रायड फोन में ऐसे एप्स हैं जो पुरानी चीजों की अच्छी कीमत दिला रहे हैं। किसी और का कपड़ा आपको पहनना पसंद नहीं है तो क्या हुआ अपना नापसंद पीस बेचा तो जा सकता है। दोस्त अक्सर चीजें बदल लेते हैं। यह विकल्प कतई बुरा नहीं है।

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एक्सेसरीज होंगी मददगार

ऑनलाइन खरीदी कई बार बेहद मददगार साबित होती है। इसे अपनी स्मार्ट शॉपिंग में जरूर शामिल करें। खासतौर पर एक्सेसरीज तो यही से लें। कम कीमत के साथ इनसे बिलकुल नया लुक मिल जाता है। स्कार्फ, बेल्ट, इयरिंग्स और शूज के बारे में सोचें तो ऑनलाइन दुकानों पर जरूर झांके।

 

महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े हुए गाँव को विकसित किया इस डॉक्टर दम्पति ने !

डॉ. रविन्द्र कोल्हे और डॉ. स्मिता कोल्हे ने मेलघाट के वासियों की ज़िन्दगी बदल दी है। उन्होंने उस इलाके की स्वास्थ्य सुविधाओं को एक नया आयाम दिया है और लोगों को बिजली, सड़क और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध कराये हैं। आईये जाने उनके इस अद्भुत सफ़र की कहानी।

सन १९८५ की बात है जब श्री. देवराव कोल्हे रेलवे में काम करते थे। उनके पुत्र रविन्द्र, नागपुर मेडिकल कॉलेज से MBBS कर रहे थे। शेगांव में हर कोई रविन्द्र की पढाई ख़त्म होने का इंतज़ार कर  रहा था क्यूंकि रविन्द्र परिवार के पहले डॉक्टर होते पर उस वक़्त किसीको ये कहाँ पता था कि ये लड़का डॉक्टरी करके पैसे कमाने के बजाय एक अलग ही रास्ता चुनेगा।

डॉ.  रविन्द्र कोल्हे महात्मा गाँधी और विनोबा भावे की किताबों से बहुत प्रभावित थे। जब तक उन्होंने अपनी पढाई ख़त्म की, उन्होंने निश्चय कर लिया था कि वो अपने हुनर का इस्तेमाल पैसों के लिए नहीं बल्कि जरुरतमंदो की मदद के लिए करेंगे। उनके आगे सिर्फ यही सवाल था कि शुरुआत कहाँ से की जाये ?

पर जल्दी ही उन्हें जवाब मिल गया, जब उन्होंने डेविड वर्नर की पुस्तक का शीर्षक देखा –“Where There is No Doctor” ( जहां कोई डॉक्टर नहीं है)। इस किताब के प्रथम पृष्ठ पर  ४ लोगों की तस्वीर थी जो एक मरीज़ को अपने कंधे पर उठाये चले जा रहे थे , और उस तस्वीर के नीचे लिखा था – “Hospital 30 miles away” (अस्पताल तीस किलोमीटर की दूरी पर है )।

डॉ. कोल्हे ने निश्चय किया कि वे अपनी सेवायें ऐसी जगह को देंगे जहाँ दूर तक कोई स्वास्थ्य सुविधा नहीं है। और इसके लिए उन्होंने बैरागढ को चुना, जो महाराष्ट्र के मेलघाट में स्थित है। मेलघाट की यात्रा अमरावती से शुरू होती थी और हरिसाल पर जाकर ख़त्म होती थी जहाँ से बैरागढ पहुँचने के लिए ४० किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था।

डॉ. कोल्हे के एक प्रोफेसर, डॉ. जाजू के मुताबिक वैसे सुदूर इलाके में काम करने वाले किसी भी डॉक्टर को तीन चीज़ें आनी चाहिए- पहला बिना सोनोग्राफी या खून चढाने की सुविधा के प्रसव कराना, दूसरा- बिना एक्स-रे के निमोनिया को पहचानना , और तीसरा- डायरिया का इलाज़ करना। डॉ. कोल्हे ने मुंबई जाकर ६ महीने तक ये तीन चीज़ें सीखी और बैरागढ के लिए चल पड़े।

पर जल्दी ही डॉ. कोल्हे को समझ आ गया कि सिर्फ उनकी MBBS की डिग्री से वो लोगों की समस्याओं को हल नहीं कर सकते।

एक आदमी का एक हाथ विस्फोट में उड़ गया था। हादसे के १३ दिन बाद वो मेरे पास इलाज के लिए आया। मैं सर्जन नहीं था इसलिए मैं उसकी मदद नहीं कर सका। तब मुझे लगा कि ऐसे मरीजों को बचाने के लिए मुझे और पढने की जरुरत है, “ डॉ. कोल्हे ने बताया।

डॉ. कोल्हे १९८७ में MD करने चल दिए। उन्होंने अपनी थीसिस मेलघाट में व्याप्त कुपोषण पर की। उनकी थीसिस ने लोगों का ध्यान इस समस्या की तरफ खीचा ,बी बी सी ने इस खबर का प्रचार किया।

डॉ. कोल्हे अब मेलघाट लौटना चाहते थे ,पर इस बार अकेले नहीं।

वो एक सच्चा साथी चाहते थे। उन्होंने अपने लिए लड़की ढूंढना शुरू किया पर उनकी चार शर्तें थी। पहला – लड़की पैदल  ४० किलोमीटर चलने को तैयार हो (जितनी दूरी बैरागढ़ जाने के लिए तय करनी होती थी)। दूसरा – वो ५ रूपये वाली शादी को तैयार हो (उन दिनों कोर्ट मैरिज ५ रूपये में होती थी)।

तीसरा -वो ४०० रूपये में पुरे महीने गुज़ारा कर सके ( डॉ. कोल्हे हर मरीज़ से एक रुपया लेते थे और हर महीने ४०० मरीज़ देखते थे)।

और आखरी शर्त ये थी कि अपने लिए तो नहीं पर कभी दूसरों के भले के लिए भीख भी मांगना पड़े तो वो उसके लिए तैयार हो।

करीब १०० लड़कियों द्वारा ठुकराए जाने के बाद आखिरकार डॉ. स्मिता, जो नागपुर में एक जानी मानी डॉक्टर थी, ने डॉ.कोल्हे का प्रस्ताव सभी शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया। और इस तरह १९८९ में मेलघाट को उसका दूसरा डॉक्टर मिल गया ।

पर बैरागढ़ में एक चुनौती उनका इंतज़ार कर रही थी। लोगों ने डॉ. रविन्द्र को स्वीकार कर लिया था  और दो साल उनके साथ रहने के बाद उनपर भरोसा भी करने लगे थे पर डॉ. स्मिता, जिन्होंने आते ही औरतो के हक़ के लिए लड़ना शुरू कर दिया था, को लोग स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।पर फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी वजह से डॉ. स्मिता ने भी सभी गाँव वालो का विश्वास और प्यार जीत लिया।

डॉ. स्मिता जब पहली बार माँ बनने वाली थी तब डॉ. कोल्हे ने निश्चय किया था कि वो उनका प्रसव खुद करेंगे जैसा कि वो गाँव वालों का करते थे। पर किसी कारणवश बच्चे को मैनिंजाइटिस, निमोनिया और सेप्टिसीमिया हो गया। लोगो ने सुझाव दिया कि माँ और बच्चे को अकोला के बड़े अस्पताल में ले जाया जाये। डॉ. कोल्हे ने निर्णय डॉ. स्मितापर छोर दिया पर मन ही मन वो ये ठान चुके थे कि अगर इस वक़्त स्मिता ने गाँव से जाने का फैसला किया तो वो वापस कभी गाँव वालों को अपनी शक्ल नही दिखायेंगे।पर डॉ. स्मिता ने फैसला किया कि वो अपने बच्चे का इलाज़ गाँव के बाकी बच्चों की तरह कराएंगी।इसके बाद गाँव वालों की नज़र में उनकी इज्ज़त और बढ़ गयी।

 “सभी जानते थे कि मेलघाट के बच्चे कुपोषण से मर रहे थे, और लोग निमोनिया, मलेरिया और सांप के काटने से। शोधकर्ताओं ने इन मौतों का कारण तो ढूंढ लिया था पर इसकी असल वजह कोई नहीं जान पाया था जो कि गरीबी थी। वो निमोनिया से मरते थे क्यूंकि जाड़ों में उनके पास खुद को ढकने को कपडे नहीं होते थे। वो कुपोषण से मरते थे क्यूंकि उनके पास कोई काम नहीं था और जब खेती का मौसम नहीं होता था तब उनके पास पैसे भी नहीं होते थे। हम मौत की इन जड़ों का इलाज़ करना चाहते थे डॉ. रविन्द्र कोल्हे कहते हैं ।

 जब डॉ. रविन्द्र और डॉ. स्मिता ने गांववालों का स्वस्थ सुधार दिया तो इन भोले गांववालों को उनमे भगवान् नज़र आने लगा। उन्हें लगा कि इन डॉक्टरो के पास हर चीज़ का इलाज है। अब वो लोग उनके पास अपने बीमार पेड़ पौधे और मवेशियों को भी इलाज के लिए लाने लगे।

चूँकि वहां कोई दूसरा डॉक्टर नहीं था, डॉ. कोल्हे ने अपने एक पशु चिकित्सक मित्र से जानवरों की शारीरिक संरचना के बारे में पढ़ा और पंजाब राव कृषि विद्यापीठ अकोला से कृषि की पढाई की।काफी मेहनत के बाद उन्होंने एक ऐसा बीज बनाया जिस पर फंगस नहीं लगता। पर कोई इसे पहली बार इस्तेमाल नहीं करना चाहता था , इसलिए डॉ. कोल्हे और उनकी पत्नी ने खुद ही खेती करना शुरू कर दिया।

इस डॉक्टर  दम्पति  ने जागरूकता शिविरों का आयोजन करना शुरू किया जिस से खेती की नयी तकनीकों के बारे में लोग जागरूक हों, पर्यावरण की रक्षा हो और सरकार द्वारा की जाने वाली सुविधाओं का लाभ उठा सकें।

उनका सन्देश बिलकुल साफ़ था प्रगति के लिए खेती बहुत जरुरी है और युवाओं के खेती में आने से ही प्रगती होगी। ये सन्देश लोगों की नज़रों में और भी साफ़ हो गया जब  डॉ. कोल्हे का बड़ा बेटा रोहित किसान बन गया।

हमने लाभ आधारित खेती शुरू की। हमने सोयाबीन की खेती शुरू की जो महाराष्ट्र में कहीं नहीं होती थी। इसके अलावा हमने किसानो को मिश्रित खेती करने के लिए प्रेरित किया और उन चीज़ों को उगाया जो उनकी मूलभूत जरुरत थी। आज मैं अपनी किसानी से इतने पैसे कमा रहा हूँ जितना एक आई आई टियन किसी प्राइवेट कंपनी से कमाता है,” रोहित कोल्हे कहते हैं।

 कोल्हे परिवार ने वनों की सुरक्षा पर भी ध्यान दिया। उन्होंने वातावरण चक्र का भी ध्यान रखा जो हर ४ साल बाद पुनः दोहराया जाता है। अब वे सूखे की भविष्यवाणी भी कर सकते हैं ताकि गाँव वाले इसके लिए तैयार हो सकें। इस दम्पति ने पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली)  को भी अपने हाथ में लिया ताकि बारिश के वक़्त भी हर किसी को भोजन मिल सके। इस वजह से मेलघाट में कई सालो से अब कोई किसान आत्महत्या नहीं करता।

अगर हम किसी को एक दिन का खाना देते हैं तो उसकी बस एक ही दिन की भूख मिटती है, पर अगर हम उसे कमाना सिखाते हैं तो हम उसे ज़िन्दगी भर का खाना दे देते हैं , और हम यही करना चाहते थे”– कोल्हे दम्पति कहते हैं।

 एक बार पी.डब्लू.डी मिनिस्टर, नितिन गडकरी, जो स्मिता के मानस भाई थे कोल्हे दम्पति से मिलने  उनके घर आये और उनके रहने का ढंग देख कर चौक गए। उन्होंने उनके लिए घर बनाने की इच्छा जाहिर की। स्मिता ने घर के बजाय अच्छी सडके बनाने को कहा और मंत्रीजी ने अपना वादा निभाया। आज मेलघाट के ७० % गाँवो में सड़के बन चुकी है।

मेलघाट महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े हिस्सों में से एक है। यहाँ तकरीबन ३०० गाँव हैं और करीब ३५० गैर सरकारी संस्थाएं काम कर रही हैं। पर वो सिर्फ कुछ चीज़े मुफ्त में बाँटने का काम करती है जब कि डॉ. कोल्हे और डॉ. स्मिता इन लोगों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं।

इस डॉक्टर दम्पति की लम्बी लड़ाई ने अब अपना फल दिखा दिया है और अब मेलघाट में अच्छी सड़के हैं , बिजली है और १२ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। डॉ. कोल्हे अब किसीसे पैसे नहीं लेते। वो लोगों को सरकारी अस्पताल ले जाकर यथासंभव बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं दिलाते हैं।

इस गाँव में अभी तक कोई सर्जन नहीं है इसलिए डॉ. कोल्हे के छोटे बेटे, राम जो अकोला के सरकारी मेडिकल कॉलेज से MBBS कर रहे  हैं, सर्जन बनने की इच्छा रखते है।

ये दम्पति अभी तक मेलघाट के लोगो को एक बेहतर ज़िन्दगी देने के लिए संघर्ष कर रहा है। उनका अगला मिशन मेलघाट के सभी छोटे छोटे गाँवो में बिजली उपलब्ध कराना है।

धारनी में बिजली तो आ गयी है पर हर १४ घंटे पर लोड शेडिंग होती है। इतना भी काफी होता पर वोल्टेज इतना कम होता है कि किसान अपने पंप तक नहीं चला पाते। इसलिए इस बिजली से उनकी खेती को कोई फायदा नहीं मिलता। अगर हम यहाँ से २ किलोमीटर भी आगे जायें तो वहां बिजली नहीं है। संपर्क इस जगह की सबसे बड़ी कमजोरी है। जिस तरह आप एक महीने तक कोशिश करने के बाद ही हमसे बात कर पाए है ऐसा हर किसी के साथ है। अगर आप हमारे बारे में लिख रहे हैं तो ये ज़रूर लिखें कि इस गाँव के किसानो को बिजली की सख्त ज़रूरत है,” डॉ. कोल्हे जोर देकर कहते हैं।

 डॉ. रविन्द्र कोल्हे और डॉ. स्मिता कोल्हे के बारे में और जानने के लिए आप मृणालिनी चितले की लिखी  ‘मेळघाटा वरिल मोहराचा गंध’ और डॉक्टर मनोहर नारन्जे के द्वारा लिखित ‘बैरागढ़’ नामक पुस्तके  पढ़ सकते हैं।

(साभार – द बेटर इंडिया)

 

नयी एविएशन पॉलिसी से सस्ता होगा विमान का सफर

 

कैबिनेट ने नई एविएशन पॉलिसी को मंजूरी दे दी है।  हाल ही में पीएम मोदी की अध्‍यक्षता में हुई बैठक में यह फैसला किया गया है । नई पॉलिसी के तहत अब 1 घंटे के सफर के लिए 2500 रुपये का किराया देना होगा, जबकि 30 मिनट के लिए 1200 रुपये देने होंगे. नई पॉलिसी में यात्रियों के हितों का ध्यान रखा गया है।

नई नीति के लागू होने के बाद अब यात्रियों को घरेलू टिकट कैंसिल कराने पर रिफंड पंद्रह दिनों के अंदर मिल जाएगा, जबकि अंतरराष्ट्रीय हवाई टिकट कैंसिल करवाने पर 30 दिन के अंदर रिफंड मिलेगा। अगर कोई यात्री अपना टिकट कैंसिल करवाता है तो कैंसिलेशन चार्ज के तौर पर 200 रुपए से ज्यादा वसूला नहीं जा सकता।

अब विमानन कंपनियों को अंतरराष्‍ट्रीय उड़ानों के लिए 20 विमानों की जरूरत होगी लेकिन अंतरराष्‍ट्रीय सेवा शुरू करने के लिए पांच साल का इंतजार नहीं करना पड़ेगा। विमान में ओवर बुकिंग होने पर अगर यात्री को सवार नहीं होने दिया जाता है तो उसकी मुआवजा राशि बढ़ाकर 20 हजार रुपए कर दी गई है।

उड़ान के वक्त से 24 घंटे के अंदर फ्लाइ कैंसिल होती है तो मुआवजे की राशि 10 हजार रुपये तक होगी. प्रोमो और स्पेशल फेयर्स समेत सभी पर रिफंड्स लागू होंगे। 15 किलो के सामान के बाद 5 किलो तक के लिए 100 रुपये प्रति किलो से ज्यादा चार्ज नहीं किए जाएंगे.

यात्रियों की संख्या बढ़ाने पर जोर
नई पॉलिसी का मकसद ऐसी उड्डयन अवसंरचना तैयार करना है, जो 2022 तक 30 करोड़ घरेलू यात्रियों को, 2027 तक 50 करोड़ घरेलू यात्रियों को और 2027 तक ही 20 करोड़ अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों को सेवा देने में सक्षम हो। वित्त वर्ष 2014-15 में देश के घरेलू विमान यात्रियों की संख्या 13.932 करोड़ और अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों की संख्या पांच करोड़ से अधिक थी.

यात्रियों की बल्ले-बल्ले
यह पॉलिसी अगले महीने 1 जुलाई से ही लागू हो जाएगी। नई सिविल एविएशन पॉलिसी पर सरकार को इतना भरोसा है कि नागरिक उड्डयन मंत्री अशोक गजपतिराजू ने दावा किया कि अगले पांच साल में देश में हवाई यात्रा करने वालों की संख्या सलाना 8 करोड से बढ़कर 30 करोड़ को पार कर जाएगी। नई सिविल एविएशन पॉलिसी में दो बातों पर जोर है. पहला हवाई यात्रा को देश के हर हिस्से में दूर-दराज के छोटे शहरों तक ले जाना और हवाई जहाज के टिकट की कीमत बेहद कम करना जिससे साधारण आदमी भी बेधड़क हवाई यात्रा कर सके.

350 हवाई पट्टियों की पहचान
छोटे शहरों को हवाई मार्ग से जोड़ने के लिए सरकार ने देश में करीब 350 ऐसे हवाई अड्डों और हवाई पट्टियों की पहचान की है, जो वहां हवाई जहाज नहीं जाने की वजह से खाली पड़े हैं। पचास से सौ करोड़ रुपये, हर बेकार पड़े. हवाई अड्डे पर खर्च करके जल्द ही उन्हें उड़ान भरने के लायक बनाया जाएगा. जो राज्य सरकारें अपने यहां बेकार पडे हवाई अड्डों या हवाई पट्टियों को उड़ान भरने के लायक बनाने की पहल करेगीं, केन्द्र सरकरा उन्हें सबसे पहले हवाई यात्रा शुरू करने के लिए चुनेगा।