Sunday, December 21, 2025
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शिक्षक, शिक्षा और शिक्षार्थी

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  •  सौमित्र आनंद

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किसी भी राष्ट्र का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। शिक्षा के अनेक आयाम हैं, जो राष्ट्रीय विकास में शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हैं। वास्तविक रूप में शिक्षा का आशय है ज्ञान, ज्ञान का आकांक्षी है-शिक्षार्थी और इसे उपलब्ध कराता है शिक्षक।

तीनों परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। एक के बगैर दूसरे का अस्तित्व नहीं। यहां शिक्षा व्यवस्था को संचालित करने वाली प्रबंधन इकाई के रूप में प्रशासन नाम की नई चीज जुड़ने से शिक्षा ने व्यावसायिक रूप धारण कर लिया है। शिक्षण का धंधा देश में आधुनिक घटना के रूप में देखा जा सकता है।
प्राचीनकाल की ओर देखें तब भारत में ज्ञान प्रदान करने वाले गुरु थे, अब शिक्षक हैं। शिक्षक और गुरु में भिन्नता है। गुरु के लिए शिक्षण धंधा नहीं, बल्कि आनंद है, सुख है। शिक्षक अतीत से प्राप्त सूचना या जानकारी को आगे बढ़ाता है, जबकि गुरु ज्ञान प्रदान करता है।

सूचना एवं ज्ञान में भी भिन्नता है। सूचना अतीत से मिलती है, जबकि ज्ञान भीतर से प्रस्फुटित होता है। गुरु ज्ञान प्रदान करता है और शिक्षक सूचना।

शिक्षा विकास की कुंजी है। विश्वास जैसे आवश्यक गुणों के जरिए लोगों को अनुप्रमाणित कर सकती है। विकसित एवं विकासशील दोनों वर्ग के देशों में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका समझी गई है। भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर समय-समय पर बहस होती रही है।
इसे विडंबना ही कहें कि हम आज तक सर्व स्वीकार्य शिक्षा व्यवस्था कायम नहीं कर सके। उल्लेखनीय है कि तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद आज 19 वर्ष की आयु समूह में दुनिया की कुल निरक्षर आबादी का लगभग 50 प्रतिशत समूह भारत में है। कहा जाता है कि तरुणाई देश का भविष्य है।
राष्ट्र निर्माण में युवा पीढ़ी की अहम भूमिका है। इस संदर्भ में भारत की स्थिति अत्यधिक शर्मनाक और हास्यास्पद ही मानी जा सकती है। देश में लगातार हो रहे नैतिक एवं शैक्षणिक पतन से हमारे युवा वर्ग पर सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
देश के विश्वविद्यालय प्रतिवर्ष बेरोजगार नौजवानों की फौज तैयार करते जा रहे हैं। किसी ने ठीक ही कहा है – “सत्ता की नाकामी राजनीतिक टूटन को जन्म देती है।” हमारी राजनीतिक पार्टियां, जातियों में विघटित हो रही हैं।
परिणामस्वरूप मानव समाज आत्म केंद्रित और स्वार्थ केंद्रित होता जा रहा है। आज देश की राजनीति में काम और योग्यता का मूल्यांकन न होकर धन, बल और बाहुबल का बोलबाला है। लोकतंत्र के गौरव और प्रतिष्ठा का प्रतीक हमारी संसद वैचारिक प्रवाह चिंतन मनन की जगह द्वेष, कलह, झूठी शान और दिखावे के स्वर उभरते नजर आते हैं।
देश के कर्णधारों की कथनी-करनी के बीच बढ़ते अंतर ने मानव-मानव के बीच आस्था और विश्वास का संकेत खड़ा कर दिया है। व्यावसायिकता की आंच से मानवीय संवेदनाएं ध्वस्त हो रही हैं और हमारी कथित भाग्य विधाता शिक्षक समाज राष्ट्र में व्याप्त इस भयावह परिस्थिति को निरीह और असहाय प्राणी बनकर मूकदर्शक की भांति देखने को विवश हैं।

दुर्भाग्य से हमारे देश में समाज के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और आदर प्राप्त “शिक्षक” की हालत अत्यधिक दयनीय और जर्जर कर दी गई है।

शिक्षक शिक्षण छोड़कर अन्य समस्त गतिविधियों में संलग्न हैं। वह प्राथमिक स्तर का हो अथवा विश्वविद्यालयीन, उससे लोकसभा, विधानसभा सहित अन्य स्थानीय चुनाव, जनगणना, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अथवा अन्य इस श्रेणी के नेताओं के आगमन पर सड़क किनारे बच्चों की प्रदर्शनी लगवाने के अतिरिक्त अन्य सरकारी कार्य संपन्न करवाए जाते हैं।

देश की शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षकों की मौजूदा चिंतनीय दशा के लिए हमारी राष्ट्रीय और प्रादेशिक सरकारें सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं, जिसने शिक्षक समाज के अपने हितों की पूर्ति का साधन बना लिया है। शिक्षा वह है, जो जीवन की समस्याओं को हल करे, जिसमें ज्ञान और काम का योग है?

आज विद्यालय में विद्यार्थी अध्यापक से नहीं पढ़ते, बल्कि अध्यापक को पढ़ते हैं। वर्षभर उपेक्षा और प्रताड़ना सहन करने वाले समाज के दीनहीन समझे जाने वाले आज के कर्मवीर, ज्ञानवीर पराक्रमी और स्वाभिमानी शिक्षकों को 5 सितंबर को राष्ट्रीय राजधानी सहित देशभर में सम्मान प्रदान कर सरकार शिक्षक दिवस की औपचारिकता पूरी करती है।

संभावना आज की असीमित एवं अपरिमित है। निष्क्रिय समाज सक्रिय दुर्जनों से खतरनाक है। किसी महापुरुष द्वारा व्यक्त यह कथन हमें भयावह परिदृश्य से उबारने की प्रेरणा दे सकता है।

(लेखक द हेरिटेज स्कूल में  शिक्षक हैं। आई०सी०एस०ई एवं आई०एस०ई० हिन्दी तथा पश्चिम बंगाल प्राथमिक तथा हिन्दी शिक्षकों की विभिन्न कार्यशालाओं का संचालन भी करते रहते हैं)

 

कहीं आप भी तो नहीं करते ये फैशन गलतियाँ!

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पुरुषों द्वारा की जाने वाली फैशन संबंधित आम गलतियां उनके दिनचर्या में इस तरह घुल-मिल गई हैं कि उन्हें इन सामान्य या आम गलतियों के प्रभाव का एहसास भी नहीं होता। स्वयं को इस श्रेणी में शामिल होने से बचाने के लिए, नीचे दिए गए सुझावों का पालन करें तथा स्वयं को इस शर्मिंदगी से बचाकर सबसे श्रेष्ठ दिखें।
गलत माप वाले कपड़े – ज्यादातर पुरुष अपने शरीर के माप से भी अधिक खुले कपड़े पहनते हैं। सही फिटिंग वाले कपड़े आपको एक अलग पहचान दे सकते हैं। बैगी पैंट, एक बड़ी कमीज़ के लटकते कंधे आपकी एक अच्छी तस्वीर नहीं दर्शाते। अगर आपको बाज़ार में उपलब्ध बने बनाए कपड़े ठीक नहीं आते तो आप अपना माप किसी दर्जी को देकर अपने लिए कपड़े सिलवा सकते हैं।

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आपकी पतलून की बाटम की लंबाई – आपकी पतलून की बाटम की लंबाई ना ज्यादा लंबी ना ज्यादा छोटी होनी चाहिए। अपनी चाइनो, खाकी पतलून या ड़ेनिम को बेवजह ना मोड़े, इसके बाटम को तभी मोड़े जब इस बेरंगी पतलून को पहने बिना आप रह नहीं पाते। आपकी पतलून, खाकी पतलून या चाइनो की लंबाई आपके जूते की एड़ी जितनी होनी चाहिए और जीन की लंबाई उससे और थोड़ी लंबी होनी चाहिए। पतलून इतनी लंबी नहीं होनी चाहिए कि वह फर्श को चूमती फिरे। आपकी पतलून या खाकी की लंबाई एक या आधी इंच कम होनी चाहिए, इतनी की आपकी पतलून का बाटम पूरे आपके पैरों तक पहुंचे। अगर आपकी पतलून का बाटम बड़ा है तो उसे किसी दर्जी से कटवाकर छोटा करा लें।
छोटी आस्तीन वाली कमीज़ के साथ टाई कभी ना पहनें – यकीन मानिए, यह पहनावे में की गई सबसे बड़ी गलती होगी। इस सामाजिक छवि को बिलकुल भी पसंद नहीं किया जाता है। टाई को हमेशा पूरी आस्तीन वाली कमीज़ के साथ ही पहने, और आराम करते समय आप अपनी आस्तीन को मोड़ सकते हैं।
पतलून के साथ पहने जाने वाले बेमेल रंग के मोजे – पहनावे का नियम यह है कि आपको जूतों के रंग से मेल खाते मोजे पहनने के बजाय आपकी पतलून के रंग से मेल खाते रंग के मोजे पहनने चाहिए। यह नियम औपचारिक पोशाक पर पूरी तरह लागू होता है और ड़ेनिम या अनौपचारिक पोशाक के साथ सफेद मोजे पहनें।

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सही एक्सेसरीज़ पहनें – आपकी घड़ी का पट्टा तथा बेल्ट का रंग एक दूसरे से मेल खान चाहिए। नियम के अनुसार, आपके बेल्ट का रंग, आपकी घड़ी का पट्टा और आपके जूते एक दूसरे के साथ पूरी तरह से मेल खाने चाहिए। इन एक जैसे दिखने वाले रंगों के थोड़े से अंतर को स्वीकार किया जा सकता है लेकिन यह भी रंगों के बीच के अंतर की मात्रा पर निर्भर करता है। रंगों में बहुत ज्यादा अंतर स्वीकार नहीं किया जाता। यही नियम इन वस्तुओं की बनावट और चमक पर भी लागू होता है। अगर आपने स्पोट्स जूते पहने हैं तो उसके साथ एक पतला बेल्ट पहनने के बजाय एक चौड़ा बेल्ट पहने। सैंड़ल के साथ मोजे…..नहीं! – इस तरह का बेमेल पहनावा कभी ना पहने।
आभूषणों से ना लदें – अगर आप एक रॉक स्टार नहीं हैं, तो एक साथ इतने सारे आभूषणों को कभी ना पहने। आदर्श रूप से पुरुषों के आभूषणों में घड़ी, शादी की अंगूठी और कफ की कड़ी शामिल हैं। आप चाहे तो एक ब्रेसलेट या गले में एक चेन पहन सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से इन्हें एक औपचारिक पहनावे के साथ ना पहने। साथ ही, एक साथ इन सारी चीजों को संभालना भी सीखें।
टाई की लंबाई – आपकी टाई आपके बेल्ट से थोड़ी सी ऊपर होनी चाहिए लेकिन ध्यान रहें कि आपकी टाई की नोक बिलकुल आपके बेल्ट के बकसुए के मध्य में हो। अपनी टाई की गांठ को ठीक से बांधना ना भूले, अगर आप अपनी टाई की गांठ को ठीक से ना बांध पाए तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप से पहनावे के बुनियादी नियम में कहीं चूक हो गई है। टाई की चौड़ाई बदलते फैशन पर निर्भर करती है।
बटुए के कारण कमीज़ की या पतलून की जेब का फूलना – फैशन की इस गलती को लगभग हर पुरुष करता है। इस गलती से यह पता चलती है कि या तो आपकी पतलून बहुत तंग है और इसलिए उसमें बटुए के लिए कोई जगह नहीं है जिसके कारण आपकी जेब फूल गई है, या फिर आपका बटुआ बहुत बड़ा या बहुत चौड़ा है। यकीन मानिए, यह गलती आपको एक ऐसे पुरुष के रुप में दर्शाती है जिसे पहनावे की कोई समझ नहीं है। अपने बटुए में से कुछ अतिरिक्त चीजों को निकालें और उसे थोड़ा सा हल्का बनाएं।

पहले पैरालिसिस अटैक फिर ब्रेस्ट कैंसर और अब साइकिलिंग में चैंपियन

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कहते हैं, दुनिया उम्मीदों पर कायम है। जिंदगी में चाहे लाख परेशानियां हो, उम्मीद का दामन नहीं छोडना चाहिए। जैसे कि रात कितनी भी स्याह और डरावनी क्यों न हो, उसका अंत एक खूबसूरत सुबह के साथ जरूर होता है। जिंदगी भी जिंदा दिली के साथ तभी जी जाती है, जब इसके हर लम्हें को जीने के लिए इंसान के पास चट्टान जैसे मजबूत हौसले और इरादे हों, जो उसे हर हाल में बेहतर कल के उम्मीदों से बांधे रखता है। गर्दिश की आंधियों में भी उसे थाम लेता है और उसे साहस देता है। उम्मीदों से भरे ऐसे लोग मुश्किल घड़ी को भी अपने बस में कर लेते हैं। हालात के थपेड़ो से लड़कर अपने लिए अलग राह और पहचान बनाते हैं, जो पूरे समाज के लिए एक नजीर बन जाता है। लोग उससे प्रेरणा लेकर जिंदगी में आगे बढ़ते हैं, और अपना भविष्य संवारते हैं। ऐसा ही कुछ किया है दिल्ली से सटे नोएडा के सेक्टर-39 में रहने वाली लज़रीना बजाज ने। उन्होंने साबित कर दिया है कि इंसान के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। बुलंद इरादों और पॉजिटिव अप्रोच से वह सबकुछ हासिल किया जा सकता है, जिसे लोग अप्राप्य मानकर अपने घुटने टेक देते हैं। पेशे से एचआर प्रोफेशनल मिसेज बजाज ने कई जानलेवा बीमारियों से लड़कर एक कामयाब साइकिलिस्ट का सफर तय किया है। वह उन तमाम लोगों के लिए एक मिसाल है, जो किसी शारीरिक बीमारी या अक्षमता के कारण अपने सपने पूरे नहीं कर पाते हैं। जिंदगी में दु:ख, दर्द और परेशानियां हमेशा दबे पांव दस्तक देती है। लज़रीना बजाज के साथ भी नौ साल पहले यही हुआ था। उस रात बस कुछ देर पहले तक सबकुछ सामान्य था। घर के लोग डिनर करने के बाद सोने की तैयारी में थे। लज़रीना भी अपने बेडरूम में सोने गईं थी। इतने में अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई। शरीर में ऐंठन, अजीब-सी बैचेनी और शरीर के अंगों का शिथिल सा पड़ते जाना। घर के लोगों के लिए कुछ समझ पाना मुशिकल था। आनन-फानन में उन्हें हॉस्पिटल ले जाया गया। डॉक्टरों ने चेकअप कर बताया कि ये पैरालिसिस अटैक है। डॉक्टर का ये शब्द झकझोर देने वाला था। खुद लज़रीना के लिए और उनके घर के लोगों के लिए भी। सभी के दिमाग में बस एक ही सवाल था, क्या वह फिर से सामान्य हो पाएंगी। एक आम इंसान की तरह फिर से चल फिर पाएंगी। अगर हां भी, तो कितना वक्त लगेगा। लज़रीना का महीनों तक ट्रीटमेंट चलता रहा। दवा के साथ वह खास एक्सरसाइज भी जो डॉक्टरों ने बताया था। धीरे-धीरे वह ठीक हो रही थीं। पैरालाइसिस से वह लगभग उबर चुकी थीं। वह इस बात से बेहद खुश थीं कि अब वह भी एक सामान्य इंसान की तरह खुद अपनी स्कूटी और कार ड्राइव कर अपना सारा काम करेंगी। मॉल जाएंगी, शॉपिंग करेंगी और थिएटर में फिल्मे देखेंगी। शायद ही किसी को पता था कि एक नई मुसीबत चुपके-चुपके उनका पीछा कर रही थी। पैरालाइसिस अटैक के ठीक दो साल बाद वर्ष 2009 में उन्हें ब्रेस्ट कैंसर ने अपनी चपेट में ले लिया। पैरालिसिस की दो साल की यंत्रणाओं से कुछ वक्त के लिए उबरने वाली लज़रीना एक बार फिर फिक्र के गहरे समंदर में समा चुकी थी। लगा जैसे सबकुछ खत्म हो रहा हो। जिंदगी एक बार फिर ऐसी राह पर खड़ी हो गई थी, जहां अनिश्चितताएं थीं। बदहवासी का एक आलम था। एक अजीब सी कशमकश थी। उम्मीदों पर टिकी जिंदगी थी। लेकिन लज़रीना ने अपना धैर्य नहीं खोया। वह एक बार फिर उसी हौसले, ताकत और जिजीविषा के साथ इस नई मुसीबत से लड़ने और उसपर काबू पाने में जुट गईं। दो साल तक चले इलाज के बाद लज़रीना ने इस लाईलाज जैसी बीमारी पर काबू पा लिया। लेकिन परेशानियां थी कि उनका पीछा ही नहीं छोड़ रही थी। एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी। अभी वो इस समस्या से निजात पाने की कोशिश में थीं कि  इस बार उन्हें मोटापा यानि ओबेस्टी ने घेर रखा था। लगातार चार सालों तक घर पर रहने, वर्कआउट नहीं करने और पैरालाइसिस और ब्रेस्ट कैंसर के दौरान चलने वाली दावाओं के साईड इफैक्ट की वजह से उनका वजन काफी बढ़ गया था। वह अपने सामान्य वजन 55 किग्रा से बढ़कर 96 किग्रा पर पहुंच गई थीं। मोटापा दूर करने के लिए काफी ट्रीटमेंट चला। लेकिन आयुर्वेद, होमियोपैथ, नैचरो थैरैपी और घरेलू नुस्खे से लेकर ब्रांडेड दवाएं तक सभी बेकार साबित हुई।
मोटापे की समस्या और साइकिल का साथ

बुलंद इरादों और हौसलों की मजबूत लज़रीना समझ चुकी थीं कि बढ़ा हुआ वजन कम करने के लिए उन्हें खुद ही कुछ करना होगा। डॉक्टरों से सलाह-मशविरा कर वर्कआउट तो उन्होंने पहले ही शुरू कर दिया था। लेकिन इस बार उन्होंने पसीने बहाकर ज्यादा कैलोरी बर्न करने की सोची और एक साइकिल खरीद लाईं। उन्होंने रोजाना सुबह शाम इसे चलाना शुरू किया। रफ्ता-रफ्ता वक्त गुजरता गया और उनका वेट भी कम होकर सामान्य हो गया। लेकिन इस बीच लज़रीना के साइकिलिंग की टाइमिंग और रोज़ाना तय होने वाले फासले बढ़ चुके थे। मजबूरी में चलाई गई साइकिल अब उनका शौक बन चुका था। इसके पीछे एक वजह ये भी थी कि वेट को मेंटेन रखने के लिए उन्हें इस बेहद सस्ते साधन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं दिख रहा था। अब वह अपनी साइकिल लेकर नोएडा की सीमाओं से निकलकर दिल्ली के इंडिया गेट तक पहुंच रही थी। कभी नोएडा से ग्रेटर नोएडा, नोएडा से दिल्ली तो कभी नोएडा से गाजियाबाद की जानिब जाने वाले सड़कों पर तेज रफ्तार साइकिलिंग कर इस शहर से संवाद करना उनका शगल बन चुका था।

नेहरू स्टेडियम का रास्ता, लाईफ का टर्निंग पॉइंट

ये वर्ष 2014 की दिल्ली की उमस भरी गर्मी की एक शाम थी। तेज रफ्तार गाड़ियां सड़कों पर सरपट भाग रही थी। लज़रीना रोज की तरह अपने दफ्तर से लौटकर अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को निपटाने के बाद साइकलिंग पर निकली थी। इस दिन उन्होंने नोएडा से इडिया गेट होते हुए साउथ दिल्ली का रास्ता माप दिया था। नेहरू स्टेडियम के पास पहुंचने पर उन्होंने कुछ साइकिल सवारों को स्टेडियम से निकलते तो कुछ को अंदर दाखिल होते हुए देखा। बस उन्होंने ने भी अपनी साइकिल का रुख उस तरफ मोड़ दिया। अंदर पहुंचने पर पता चला कि यहां दिल्ली खेल प्राधिकरण की तरफ से साइकिल की एक रेस आयोजित की जा रही है। प्रोफेशनल साइकिलिस्ट रेस में हिस्सा लेने के लिए फार्म भर रहे थे। लज़रीना कुछ समझ नहीं पा रही थी। उन्हें क्या करना चाहिए? क्या ऐसे रेस में उन्हें भी हिस्सा लेना चाहिए? लेकिन पहले तो कभी उन्होंने ऐसा किया नहीं है। पता नहीं कैसे करेंगी? पति से पहले पूछना होगा- जैसे इन्हीं सवालों से उनके कदम बार-बार ठिठक रहे थे। वह ऊहापोह की स्थिति में थीं। तभी किसी अजनबी ने उन्हें आवाज दी कि क्या आपको फार्म मिल गया है? लज़रीना ने नहीं में अपना सर हिला दिया। बस उस शख्स ने उन्हें फार्म लाकर दे दिया और लज़रीना ने वहीं फार्म भर कर उसे जमा कर दिया।

सफलता की नई शुरुआत

जून 2014 में दिल्ली में आयोजित राज्य स्तरीय 40 किमी की पलोटोन राइडर्स रेस में सारे प्रतिभागियों को पीछे छोड़ते हुए लज़रीना बजाज विनर बनी। ये उनके जीवन का एक शानदार अनुभव था। इस जीत ने भविष्य में उनके साइकिलिस्ट बनने का रास्ता और मंजिल दोनों दिखा दिया था। वह एक के बाद एक रेस जीतती गईं। फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। पिछले दो सालों में वह लगभग एक दर्जन मुकाबलों में हिस्सा लेकर रफ्तार की रेस जीत चुकी हैं। दिसंबर 2015 में गुड़गांव-दिल्ली ग्रैंड फांडो टाईम ट्रायल की 44 किमी रेस में उन्होंने प्रथम स्थान हासिल किया। साल 2016 की शुरूआत में हुए कई राष्ट्रीय स्तर के मुकाबले में बजाज ने दूसरा स्थान प्राप्त किया। अभी तक उन्होंने 6 गोल्ड और 3 सिलवर के साथ 10 से अधिक मेडल अपने नाम किया है। उनकी जीत की फहरिस्त और भी लंबी है।

भविष्य की योजनाएं

लज़रीना बजाज अपनी जीत के इस सिलसिले से अभी संतुष्ट नहीं है। उनका सपना है साइकिलिंग की दुनिया में सबसे टॉप पर पहुंचना। एशियन, ओलंपिक सहित अन्य वैश्विक मुकाबलों में देश के लिए मेडल जीतना। वह चाहती हैं कि लोग उन्हें एचआर प्रोफेशनल नहीं बल्कि एक साइकिलिस्ट के तौर पर जाने। पूरे देश में उनका नाम हो। वह चाहती हैं कि लोगों में साइकलिंग को लेकर जागरुकता लाई जाए। खास तौर पर उन महिलाओं के लिए जो ओबेसिटी की शिकार हो रही हैं। उन्हें नियमित तौर पर साइकिल चलानी चाहिए। इससे न सिर्फ मोटापा बल्कि डायबिटीज, रक्तचाप, आर्थराइटिस जैसे तमाम रोग दूर रहते हैं। उनका मानना है कि लड़कियों को प्रोफेशनल साइकिलिंग की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। उन्हें स्पोर्ट्स के इस क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए। इससे एक तरफ वह न सिर्फ शारीरिक तौर पर फिट रहेंगी बल्कि इससे उन्हें स्पोर्ट्स करिअर में भी आगे बढ़ने के मौके मिलेंगे।

बेटे को भी दिलवा रहीं ट्रेनिंग

लज़रीना खुद साइकिलिंग में आने के बाद अब अपने आठ साल के बेटे आकर्ष को भी प्रोफेशन ट्रेनर से साइकिलिंग की ट्रेनिंग दिलवा रहीं हैं। वह अपने बच्चे को भी एक कामयाब साइकिलिस्ट के तौर पर देखना चाहती हैं।

भगवान से नहीं कोई शिकायत

जिंदगी में काफी उतार-चढ़ाव देखने के बाद हर कोई टूट जाता है और शिकायती हो जाता है। लेकिन एक सफल साइक्लिस्ट बनने के बाद लज़रीना अपने आप से संतुष्ट हैं। उन्हें भगवान से भी कोई शिकायत नहीं है। वह मानती हैं कि ऊपर वाला जो भी करता है, सही करता है। परेशानियां और मुसीबत हमे परेशान करने नहीं बल्कि सक्षम और मजबूत बनाने के लिए होती है। हम हालात से लड़ना और लड़कर जीना सीखते हैं। ऊपर वाला हमारी क्षमताएं पहचानता है। सही समय आने पर हमें हमारी मंजिल तक पहुंचाता है। बस इंसान को उसपर भरोसा रखना चाहिए। कभी निराश नहीं होना चाहिए। हमेशा सकारात्मक सोच के साथ पुराने दिनों को भूलाकर आगे बढ़ना चाहिए।

(साभार – योर स्टोरी)

नए नाटक के साथ रंगमंच पर सतीश कौशिक की वापसी

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नयी दिल्लीप्रख्यात बॉलीवुड अभिनेता-निर्देशक सतीश कौशिक 17 और 18 सितंबर को यहां सैफ हैदर हसन के अगले व्यावसायिक निर्माण के साथ रंगमंच पर दोबारा वापसी करने की तैयारी में हैं।

‘मिस्टर एंड मिसेज मुरारीलाल’ शीषर्क के इस दो घंटे के नाटक में कौशिक, ‘ना आना इस देश लाडो’ से प्रसिद्ध हुई अभिनेत्री मेघना मलिक के साथ रोमांस करते दिखाई देंगे। इस नाटक में जीवन के विभिन्न पहलुओं- बुढ़ापा, दोस्ती और प्यार की सच्चाइयों को सामने लाया गया है।
हसन का कहना है, ‘‘ रंगमंच से अभिनय की यात्रा शुरू करने वाले सतीश इस नाटक के साथ रंगमंच पर दोबारा वापसी करने जा रहे हैं।’’ इससे पहले हसन ने ‘एक मुलाकात’ और ‘गर्दिश में तारे’ जैसे नाटक लिखे और उनका निर्देशन किया।
उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नाटक की विधा सीखने वाले कौशिक ने इस नाटक में गानों को भी अपनी आवाज दी है। इस नाटक का मंचन यहां श्री सत्य साई प्रेक्षागृह में किया जाएगा।

 

डिलीवरी ब्वॉय रघुननाथ ने शुरू कि‍या चाय बेचने का स्‍टार्टअप

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आपने पिज्‍जा ओर खाने की होम डिलीवरी तो सुनी होगी लेकिन जयपुर में चाय की होम डिलीवरी की चर्चा खूब हो रही है। आप भी जयपुर जाएं और चाय पीने का मन कर जाए तो एक कॉल कर या एप पर ऑर्डर कर आप चाय की चुस्की ले सकते हैं।

कभी कंधे पर सामान लेकर घर-घर बेचनेवाले रघुनाथ की एक मल्टीनेशनल कंपनी में डिलवरी ब्वाय की नौ हजार की नौकरी क्या लगी, रघुनाथ ने उसी कंपनी की तर्ज पर बिना पूंजी का स्टार्टअप शुरू किया और धीरे-धीरे एक लाख रुपए महीने कमाने लगे. आजकल लोगों के बीच रघुनाथ की चाय की खूब धूम है।

बेहद गरीब परिवार में जन्मे 24 साल के रघुनाथ महज नौ हजार रुपये की तनख्वाह पर अमेजन कंपनी में डिलीवरी ब्वाय का काम करते थे। एक दिन दौड़ते-दौड़ते थक कर चाय पी रहे थे, तभी उन्‍हें लगा कि जब किसी भी सामान को पहुंचाने के लिए कंपनी कमिटमेंट ओर निर्धारित समय में डिलीवरी की सुविधा दे रही है तो फिर चाय के मामले में ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं। यह आइडिया काम आया और रघुनाथ राजा ने बाजार के इस छोटे से कमरे में दो फोन एक किचन से तीन लड़कों के साथ बिना पूंजी का स्टार्टअप शुरू किया।

पहले आस-पास साइकिल पर चाय भेजते थे। अब बाइक खरीद ली है। इलाके के करीब सौ-डेढ़ सौ दुकानों और शो रूम से ऑर्डर दिन भर आते रहते हैं और वो चाय की डिलीवरी करते हैं। इसने शहर की दो बाजारों में अपना किचन खोल रखा है। एक दिन में एक सेंटर पर 500 से लेकर 700 तक की चाय के ऑर्डर दुकानों, शोरूम और घरों से आ जाते हैं।

रघुनाथ का कहना है कि लोग सड़क किनारे धूल-मिट्टी में या फिर नाले के किनारे बनी चाय को पीना पसंद नही करते हैं। चाय को खासतौर से मिनरल वॉटर से बनाया जाता है। अगर कोई पेड़ों के किनारे दोस्तों के साथ चाय पीना चाहता है तो वहां भी चाय भेजी जाती है।

दो साल पहले तक एक दिन में दस-दस किमी. तक पैदल सामान बेचने तक की नौकरी करने वाले रघुनाथ का सपना है कि पूरे जयपुर में उसके किचन से चाय की स्पलाई हो। रघुनाथ का कहना है कि लोग आकर हमारा किचन भी देख जाते हैं और उनका फीडबैक भी वह लेते रहते हैं.।इसके लिए टाइमिंग जरूरी है क्योंकि दुकानों पर ग्राहक के लिए भी चाय मंगाते हैं। फिलहाल पांच स्टाफ और चार बाइक का खर्चा है। रघुनाथ को ज्यादा आर्डर व्हाट्स अप पर आते हैं लेकिन जल्दी ही बेवसाइट के जरिए पूरे जयपुर में सेंट्रलाइज ऑर्डर शुरू किए जाएंगें।

 

झुलसे हुए चेहरे ने दुनिया को दिखाई खूबसूरती की एक नई तस्वीर

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झुलसे हुए चेहरे से उनके साथ हुई दरिंदगी साफ झलकती है। उन्हें देखकर इस बात का अंदाजा लगाना मुश्क‍िल नहीं है कि वो किस दौर को पार करके यहां खड़ी हैं लेकिन सिर्फ खड़ी नहीं हैं…पहचान बन चुकी हैं। न्यूयॉर्क फैशन वीक में जब रेशमा कुरैशी रैंप पर उतरीं तो सिर्फ तालियों की गूंज सुनाई दे रही थी। रेशमा इससे पहले भी कई शोज में हिस्सा ले चुकी हैं लेकिन ये पहला मौका था जब वो अंतरराष्ट्रीय मंच पर थीं।

रेशमा एक एसिड अटैक सर्वाइवर हैं। हालांकि जिस चेहरे को जलाकर उनकी पहचान को दाग बनाने की कोशिश की गई थी, अब वही चेहरा उनके साहस की कहानी बयान करता है। रेशमा के चेहरे पर एसिड किसी गैर ने नहीं बल्क‍ि अपनों ने ही फेंका था।  2014 में रेशमा के जीजा ने और उनके दोस्तों ने ही उनके चेहरे पर एसिड फेंका था.

एक लंबे मेडिकल ट्रीटमेंट के बाद जब रेशमा अपने पैरों पर खड़ी हुईं तो उनके पास एक जला हुआ चेहरा और बिखरे हुए सपने ही थे लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. पहली बार वो चर्चा में तब आईं जब मेक लव नॉट स्केयर्स नाम की संस्था से जुड़ीं। इसके तहत उन्होंने #EndAcidSale नाम की मुहिम का नेतृत्व भी किया। इसके बाद से वो लगातार सक्रिय हैं। न्यूयॉर्क फैशन वीक से पहले भी रेशमा कई फैशन शोज में जागरूकता फैलाने के लिए रैंप वॉक कर चुकी हैं।

 

6 बेटियां एक साथ दोनों हाथों से लिखती हैं हिंदी-अंग्रेजी, आइंस्टीन से प्रेरित हैं

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जींद.हरियाणा के उझाना गांव की छह लड़कियों के हुनर को देखकर हर कोई हैरान है। वे दोनों हाथों से एक साथ लिखती हैं। एक हाथ से हिंदी और दूसरे से अंग्रेजी। दोनों हाथों की लिखावट बिल्कुल एक जैसी है। इतनी सुंदर कि देखने वाले भी पहचान नहीं पाते कि दाएं हाथ से लिखा है या बाएं से। बेटियों ने ऐसा साइंटिस्ट अलबर्ट आइंस्टीन से प्रेरित होकर सीखा है। वो भी सिर्फ छह माह में।

सभी बेटियां गांव के ही स्वामी विवेकानंद स्कूल में 9th क्लास की छात्राएं हैं। इनके नाम पूजा, प्रिया, तमन्ना, मोनिका, ईशा और मन्नू हैं। वे बताती हैं, ”करीब छह महीने पहले टीचर कुलदीप सिंह क्लास में साइंस पढ़ा रहे थे। इसी दौरान रिलेटिविटी के सिद्धांत टॉपिक पर अलबर्ट आइंस्टीन का जिक्र आया।” ”टीचर ने आइंस्टीन के बारे में बताया कि वे दोनों हाथों से लिखते थे। ऐसा उन्होंने रोजाना की प्रैक्टिस से ही हासिल किया था। इस पर हमें काफी ताज्जुब हुआ।” ”उसी दिन हम लोगों ने ठान लिया कि वे भी हर रोज दोनों हाथों से लिखने की प्रैक्टिस करेंगी और ऐसा करके ही दम लेंगी। इसके बाद स्कूल में ही खाली रहने वाले एक पीरियड में रोजाना लिखने की प्रैक्टिस शुरू कर दी।”

”कुछ ही दिनों में खुद पर विश्वास हुआ कि अब वे ऐसा कर सकती हैं। दोनों हाथों से एक साथ लिखने की स्पीड बनने लगी।”

– ”लिखावट में भी सुधार आने लगा। फिर एक हाथ से हिंदी व दूसरे से अंग्रेजी लिखने की प्रैक्टिस शुरू कर दी।”

– छह महीने के बाद अब उन्हें दोनों हाथों से एक साथ लिखने में कोई परेशानी नहीं होती। चाहे हिंदी लिखें या अंग्रेजी। दोनों हाथों से लिखने में काफी मजा आता है। घरवाले और टीचर भी उनको इस तरह से लिखता देखकर काफी खुश होते हैं।

टीचर कुलदीप सिंह बताते हैं, “सभी छह बेटियां गांव के किसान परिवारों से ताल्लुक रखती हैं। वे पढ़ाई में भी काफी होशियार हैं। ”मैं जब कॉलेज स्टूडेंट था, तब मैंने भी दोनों हाथों से लिखने का प्रयास किया था। लेकिन ज्यादा सफल नहीं हो पाया। कुलदीप का कहना है कि वो भी आइंस्टीन से प्रेरित थे। इसलिए जब भी क्लास में आइंस्टीन का टॉपिक पढ़ाता हूं, तो बच्चों को आइंस्टीन की कहानी जरूर सुनाता हूं। ”मैंने इन लड़कियों को प्रेरित किया तो उन्होंने प्रैक्टिस करना शुरू कर दिया। इसमें उन्हें अब सफलता मिल गई है। वे काफी अच्छे तरीके से दोनों हाथों से लिखती हैं।”

 

एफबी पर साड़ियां पोस्ट कर स्मिता बनीं सफल बिजनेस विमेन

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जोधपुर. सोशल मीडिया आज दुनिया तक अपनी बात पहुंचाने का सबसे कारगर जरिया बनते जा रहा है। कोई यहां अपना बिजनेस खड़ा कर रहा है तो किसी ने इसे दूसरे प्रमोशन का जरिया बना रखा है। ऐसी ही हैं जोधपुर की स्मिता बोहरा। जिन्होंने महज 2 साल पहले अपनी कुछ साड़ियां और अन्य आईटम फेसबुक पर पेज बनाकर अपलोड किए थे। फिर इतना अच्छा रिस्पॉन्स मिला कि देखते ही देखते एक बड़ा व्यवसाय खड़ा हो गया। .

स्मिता बोहरा ने 2 साल पहले यहां की बंधेज की साड़ियों व अन्य आइटम फेसबुक पर पेज बनाकर अपलोड किए।  उन्होंने बताया कि पेज बनाते ही दूसरे दिन इन पर 100 से ज्यादा लाइक मिले और तीसरे दिन ऑर्डर। अब तक दो साल में 63 हजार बिजनेस कस्टमर बन गए।
उन्होंनें बताया कि फेसबुक बहुत आसान है तथा अगर कोई समस्या आती है तो इसके सॉल्यूशन भी मौजूद है।
स्मिता इथिनिव्या नाम की कंपनी चलाती हैं। जिसका एक ऑनलाइन स्टोर भी है। उनके ऑनलाइन स्टोर पर अब साड़ियों से लेकर गहने तक उप्लब्ध है। स्मिता का जन्म राजस्थान के जोधपुर शहर में हुआ है। उन्होंने अपनी पढ़ाई जोधपुर के ही जय नारायण व्यास कॉलेज से पूरी की है।  अब वे अपने पति सौरभ बोहरा के साथ बेंगलुरु में रहती हैं। सोशल मीडिया के जरिए फैला स्मिता का कारोबार दूसरों के लिए मिसाल बन गया है।

 

शिक्षक, शिक्षा और शिक्षार्थी

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किसी भी राष्ट्र का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। शिक्षा के अनेक आयाम हैं, जो राष्ट्रीय विकास में शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हैं। वास्तविक रूप में शिक्षा का आशय है ज्ञान, ज्ञान का आकांक्षी है-शिक्षार्थी और इसे उपलब्ध कराता है शिक्षक।

तीनों परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। एक के बगैर दूसरे का अस्तित्व नहीं। यहां शिक्षा व्यवस्था को संचालित करने वाली प्रबंधन इकाई के रूप में प्रशासन नाम की नई चीज जुड़ने से शिक्षा ने व्यावसायिक रूप धारण कर लिया है। शिक्षण का धंधा देश में आधुनिक घटना के रूप में देखा जा सकता है।

प्राचीनकाल की ओर देखें तब भारत में ज्ञान प्रदान करने वाले गुरु थे, अब शिक्षक हैं। शिक्षक और गुरु में भिन्नता है। गुरु के लिए शिक्षण धंधा नहीं, बल्कि आनंद है, सुख है। शिक्षक अतीत से प्राप्त सूचना या जानकारी को आगे बढ़ाता है, जबकि गुरु ज्ञान प्रदान करता है।
सूचना एवं ज्ञान में भी भिन्नता है। सूचना अतीत से मिलती है, जबकि ज्ञान भीतर से प्रस्फुटित होता है। गुरु ज्ञान प्रदान करता है और शिक्षक सूचना।
शिक्षा विकास की कुंजी है। विश्वास जैसे आवश्यक गुणों के जरिए लोगों को अनुप्रमाणित कर सकती है। विकसित एवं विकासशील दोनों वर्ग के देशों में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका समझी गई है। भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर समय-समय पर बहस होती रही है।
इसे विडंबना ही कहें कि हम आज तक सर्व स्वीकार्य शिक्षा व्यवस्था कायम नहीं कर सके। उल्लेखनीय है कि तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद आज 19 वर्ष की आयु समूह में दुनिया की कुल निरक्षर आबादी का लगभग 50 प्रतिशत समूह भारत में है। कहा जाता है कि तरुणाई देश का भविष्य है।
राष्ट्र निर्माण में युवा पीढ़ी की अहम भूमिका है। इस संदर्भ में भारत की स्थिति अत्यधिक शर्मनाक और हास्यास्पद ही मानी जा सकती है। देश में लगातार हो रहे नैतिक एवं शैक्षणिक पतन से हमारे युवा वर्ग पर सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
देश के विश्वविद्यालय प्रतिवर्ष बेरोजगार नौजवानों की फौज तैयार करते जा रहे हैं। किसी ने ठीक ही कहा है – “सत्ता की नाकामी राजनीतिक टूटन को जन्म देती है।” हमारी राजनीतिक पार्टियां, जातियों में विघटित हो रही हैं।
परिणामस्वरूप मानव समाज आत्म केंद्रित और स्वार्थ केंद्रित होता जा रहा है। आज देश की राजनीति में काम और योग्यता का मूल्यांकन न होकर धन, बल और बाहुबल का बोलबाला है। लोकतंत्र के गौरव और प्रतिष्ठा का प्रतीक हमारी संसद वैचारिक प्रवाह चिंतन मनन की जगह द्वेष, कलह, झूठी शान और दिखावे के स्वर उभरते नजर आते हैं।
देश के कर्णधारों की कथनी-करनी के बीच बढ़ते अंतर ने मानव-मानव के बीच आस्था और विश्वास का संकेत खड़ा कर दिया है। व्यावसायिकता की आंच से मानवीय संवेदनाएं ध्वस्त हो रही हैं और हमारी कथित भाग्य विधाता शिक्षक समाज राष्ट्र में व्याप्त इस भयावह परिस्थिति को निरीह और असहाय प्राणी बनकर मूकदर्शक की भांति देखने को विवश हैं।
दुर्भाग्य से हमारे देश में समाज के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और आदर प्राप्त “शिक्षक” की हालत अत्यधिक दयनीय और जर्जर कर दी गई है।
शिक्षक शिक्षण छोड़कर अन्य समस्त गतिविधियों में संलग्न हैं। वह प्राथमिक स्तर का हो अथवा विश्वविद्यालयीन, उससे लोकसभा, विधानसभा सहित अन्य स्थानीय चुनाव, जनगणना, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अथवा अन्य इस श्रेणी के नेताओं के आगमन पर सड़क किनारे बच्चों की प्रदर्शनी लगवाने के अतिरिक्त अन्य सरकारी कार्य संपन्न करवाए जाते हैं।
देश की शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षकों की मौजूदा चिंतनीय दशा के लिए हमारी राष्ट्रीय और प्रादेशिक सरकारें सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं, जिसने शिक्षक समाज के अपने हितों की पूर्ति का साधन बना लिया है। शिक्षा वह है, जो जीवन की समस्याओं को हल करे, जिसमें ज्ञान और काम का योग है?
आज विद्यालय में विद्यार्थी अध्यापक से नहीं पढ़ते, बल्कि अध्यापक को पढ़ते हैं। वर्षभर उपेक्षा और प्रताड़ना सहन करने वाले समाज के दीनहीन समझे जाने वाले आज के कर्मवीर, ज्ञानवीर पराक्रमी और स्वाभिमानी शिक्षकों को 5 सितंबर को राष्ट्रीय राजधानी सहित देशभर में सम्मान प्रदान कर सरकार शिक्षक दिवस की औपचारिकता पूरी करती है।
संभावना आज की असीमित एवं अपरिमित है। निष्क्रिय समाज सक्रिय दुर्जनों से खतरनाक है। किसी महापुरुष द्वारा व्यक्त यह कथन हमें भयावह परिदृश्य से उबारने की प्रेरणा दे सकता है।

(साभार – वेबदुनिया)

अब नहीं बदलोगे तो फिर कभी नहीं बदलोगे

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-सुषमा त्रिपाठी

शनिवार की रात थी। दफ्तर से घर के लिए लौट रही थी और एक अधेड़ व्यक्ति थोड़ी देर बाद बस पर चढ़ा। महिलाओं की खाली सीट को देकर उनके भाग्य को सराहते हुए उसने पुरुष होने की पीड़ा जाहिर की – हमारा क्या सीट खाली है, तब भी खड़े होकर जाएंगे। बेटी को सब बराबर बताते हैं। इतने दिन तक औरतों को मर्दों ने दबाया है, अब उसी की सजा भुगत रहे हैं। भुगतिए। शायद वह नशे में था और आस – पास सब हँस रहे थे। मुझे भी यही लग रहा था कि कब मेरा गन्तव्य आए और उसकी बकवास से पीछा छूटे और धीरे – धीरे असल दर्द छलका। बेटी को पढ़ाया, इंजीनियर बनाया, अब उसकी शादी के लिए लड़के वाले दहेज में 20 लाख रुपए माँग रहे हैं।

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मोदी कहते हैं कि बेटी पढ़ाओ मगर बेटी पढ़ाकर क्या होगा जब 20 लाख अलग से गिनने होंगे और कहाँ से आएगा, इतना पैसा। ये एक पिता का दर्द था, दहेज माँगने वाले या बेटों में इन्वेस्ट करने वाले भी कोई पुरुष ही होगा, स्त्रियाँ भी होती हैं। अब उस शक्स ने तो प्रधानमंत्री को चिट्ठी भी लिखी है, नहीं पता कि उस चिट्ठी का जवाब मिलेगा या नहीं, मगर जिस बेटी के लिए बाप ने अपनी यह हालत कर ली है और जिस बेटे के बाप की वजह से उस शख्स की यह हालत है, वे बहुत कुछ कर सकते हैं। क्या वह लड़का, जिसकी ब्रांड वैल्यू उसकी नौकरी और ओहदे के साथ बढ़ती जाती है, क्या इतना कमजोर होगा कि वह अपने दम पर 20 लाख न कमा सके या अपना घर न भर सके। सवाल लड़कों से है क्योंकि शादी के बाजार में बोली उनकी ही लगती है, दहेज उनके नाम पर ही माँगा जाता है और आखिरकार आप एक रीढ़ की हड्डीविहीन माँस का पुतला भर रह जाते हैं जिसकी नीलामी कोई और नहीं, उसके माँ – बाप करते हैं। एक बार खुद से पूछिए कि क्या ये आपका अपमान नहीं है? क्या ये आपके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाना नहीं है और अगर है तो क्यों आप अपने माता – पिता की गलतियों का साथ दे रहे हैं और वह भी उस परिवार के नाम पर जो आपकी ही नीलामी कर रहा है। माता – पिता के सम्मान का अर्थ उनके लालच का सम्मान करना कतई नहीं होता और लड़कियों से भी यही सवाल है कि आखिर क्यों उनको लगता है कि उनके मायके से जितना दहेज जाएगा, ससुराल में उनकी नाक उतनी ही ऊँची होगी। आपके माता – पिता ने अगर आपको पढ़ाया – लिखाया है तो आपकी यह जिद क्यों है कि आपकी शादी में जेवर से लेकर फर्नीचर तक आपके मायके से जाना चाहिए। अगर आप कमाती हैं तो यह तो आप अपनी कमाई से ही कर सकती हैं। आपके लिए अगर आपके पिता को दहेज लोभियों की ब्लैकमेलिंग का शिकार होना पड़ रहा है और आप तमाशा देख रही हैं तो माफ कीजिए गुनहगार आप भी हैं। वैसे भी, जो आपसे ज्यादा आपके मायके से मिलने वाले दहेज में रुचि रखता हो, वह घर शानदार हो सकता है मगर वहाँ प्यार और अच्छे जीवन साथी की उम्मीद आपको छोड़ देनी चाहिए। अभिभावक अगर बेटियों को पढ़ाते हैं तो उनमें इतना आत्मविश्वास होना चाहिए कि वे बेटियों को उनके फैसले करने दें क्योंकि शिक्षा का एक मकसद यह भी होता है। शादी नहीं हुई तो दुनिया नहीं लुटने वाली है मगर जिस एक पिता बेटियों की शादी से आगे देखने लगा, उस दिन समाज बदलने पर मजबूर जरूर होगा मगर बदलाव की बागडोर आप युवाओं को पहले थामनी होगी।