Sunday, December 21, 2025
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सैकड़ों साल पुरानी कुप्रथा तोड़, किन्नरों का पिंडदान करेंगे बनारस के 151 पंडित!

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दुनियां बदल रही है! देश आजादी के 70 सालों के बाद नई उम्मीदों की ओर बढ़ रहा है। आज़ाद भारत में लाख निराशाओं के मुद्दों पर बहस हो रही है। लेकिन कहीं कहीं बिखरीं आज़ादी की छींटे हमें आशा से भर देती हैं, कि आने वाला वक़्त भेदभाव की परम्पराओं से ऊपर उठकर इंसानियत के कंधे से कंधा मिलकर चलने की होड़ में है।

ट्रांसजेंडर समूह का संघर्ष हाल के कुछ वर्षों में रंग लाया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के इन्हें थर्ड जेंडर का दर्जा देने के बाद, हर क्षेत्र में आज कहीं न कहीं कोई ऐसा सितारा उभर रहा है। पिछले दिनों उज्जैन कुम्भ में किन्नर अखाडा बनने की घटना से धार्मिक क्षेत्रों में भी किन्नरों का हस्तक्षेप बढ़ गया और अब देश की धार्मिक और सांस्कृतिक नगरी बनारस से एक और ऐतिहासिक पहल ने जन्म लिया है। वाराणसी के 151 ब्राहमण पहली बार ट्रांसजेंडर मृतकों का पिंडदान करेंगे।

किन्नरों के हित में काम करने वाली संस्था ‘किन्नर अखाडा’ एक ऐतिहासिक आयोजन करने जा रही है, जिसमें हाल के वर्षों में स्वर्ग सिधारे किन्नरों का पिंडदान संस्कार किया जायेगा।

पिंडदान संस्कार एक हिन्दू प्रथा है, जिसमें स्वर्ग सिधारे पूर्वजों को श्राद्ध अर्पित किया जाता है। सितम्बर महीने में पितृपक्ष जिसे पितरों का पक्ष (पखवारा) भी कहा जाता है, 17 दिनों का होता है। इन 17 दिनों के पितृपक्ष मे श्राद्ध एवं पिंडदान करने का विशेष महत्व है। ऐसी मान्यता है कि इस पुण्य क्षेत्र में पिता का श्राद्ध करके पुत्र अपने पितृऋण (पितृदोष) से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है।

सैकड़ों वर्षों से किसी भी धर्म के किन्नरों का धार्मिक अंतिम संस्कार नहीं किया गया है। इतना ही नहीं ज्यादातर किन्नरों को कब्रिस्तान के बजाय कहीं सुनसान में जलाया जाता रहा है। हिन्दू पंडित उनके म्रत्यु बाद के कर्मकांड करने से मना कर देते हैं और इसीलिए हर साल पितृपक्ष में मृतक परिजनों को दिया जाने वाला श्राद्ध भी कभी नहीं होता। लेकिन इस वर्ष मृतक किन्नरों को पिंडदान देने की शुरुआत हो रही है, जो उन्हें समाज में बराबरी का दर्जा मिलने के संघर्ष में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

किन्नर अखाडा के संस्थापक सदस्य ऋषि अजय ने ‘द एशियन एज‘ को बताया कि,“हिन्दू धर्म में जन्मा प्रत्येक मनुष्य 16 कर्मकांडो का अधिकारी हो जाता है, जिनमें जन्म के समय किये जाने वाले संस्कारों सहित नाम संस्कार, मुंडन संस्कार, जनेहू संस्कार, विवाह संस्कार और अंतिम संस्कार शामिल हैं। लेकिन किन्नरों को अब तक शुरू से लेकर अंतिम संस्कार तक हर अधिकार से दूर रखा गया। हम ये सुनिश्चित कर रहे हैं कि अब ऐसा और न हो। “

किन्नर अखाडा की महामंडलेश्वर लक्ष्मी त्रिपाठी कहती हैं, “हम तीन सौ वर्ष पुरानी कुप्रथा को तोड़ रहे हैं, जिसमें किन्नरों को म्रत्यु पश्चात कर्मकांड करने की इजाजत नहीं है। हम अब से किन्नरों के अंतिम संस्कार की परंपरा भी शुरू करेंगे। “‘किन्नर अखाडा’, बनारस के गंगा किनारे पिंडदान संस्कार समारोह 24 सितम्बर को आयोजित करेगा। जिसमें 151 ब्राह्मणों का समूह अन्य संतो के साथ श्राद्ध प्रक्रिया पूरी करेंगे।

इस समारोह की अध्यक्षता कर रहे आचार्य बद्री नारायण ने बताया कि, “ये ऐतिहासिक मिसाल है और एक सबूत भी कि वक़्त बदल रहा है। किन्नर भी मनुष्य हैं और उन्हें भी सभी धार्मिक संस्कारों का समान अधिकार है। ये पहल उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने में भी मदद करेगी। “हमारा समाज बदल रहा है। हम सारे विभेदों को भुलाकर इंसानियत की ओर कदम बढा रहे हैं। बदलते वक़्त के साथ भारत भी नए आयाम गढ़ रहा है। इंसान को इंसान से जोड़ने की ओर मिसाल बन रही ऐसी पहलों को सलाम!

(साभार – द बेटर इंडिया)

‘ एक साँझ कविता की-2 और बंगाल का नीलांबरी जादू

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नीलांबर ने हावड़ा के शरत सदन में ‘ एक साँझ कविता की-2 ’ का आयोजन किया । कार्यक्रम के दौरान कविताओं को आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करते हुए प्रस्तुत किया गया साथ ही इसमें नृत्य और माइम का भी समावेश किया गया । इस अवसर पर भोपाल से आशुतोष दूबे, इंदौर से हेमंत देवलेकर, कानपूर से वीरू सोनकर और तथा कोलकाता से राज्यवर्द्धन, निशांत, उमा झुनझुनवाला तथा कल्पना ठाकुर ने अपनी-अपनी कविताओं का पाठ किया । दिल्ली की कवयित्री रश्मि भारद्वाज किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से नहीं आ सकीं थीं, उनकी कविताओं को ऑडियो विडियो के माध्यम से प्रस्तुत किया गया । आमंत्रित कवियों की कविता पर ममता पांडेय, पूनम सिंह, नीलू पाण्डेय, मधु सिंह और प्रियंका सिंह ने अद्भूत कोलाज प्रस्तुत किया। अजय राय जी के गाए निराला के गीतों पर नृत्य की प्रस्तुति हुई । वहीं उदय प्रकाश की कविता ‘औरतें’ पर सुशान्त दास द्वारा निर्देशित हृदय स्पर्शी माइम प्रस्तुत किया गया, इसमें चार वर्षीय स्नेहा ने अपने अभिनय से सभी का दिल जीत लिया । मंगलेश डबराल की कविता ‘तानाशाह’ का विडियो फिल्म प्रस्तुत हुआ । नीलांबर के इस आयोजन का लक्ष्य है कि हिन्दी साहित्य को विभिन्न विधाओं के साथ युक्त करके उन्हें लोकप्रिय बनाना। सोशल मीडिया पर नीलांबर के इस कार्यक्रम के बारे लोग उत्सुकता से चर्चा कर रहे है।

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राहुल शर्मा, अवधेश साह, पंकज सिंह, प्रदीप तिवारी, विशाल पांडेय, अभिषेक पांडेय एवं सुजीत राय ने अपने अपने योगदान से कार्यक्रम को संचालित किया। कार्यक्रम के बारे में बोलते हुए  प्रो. शंभुनाथ ने अपने अध्यक्षीय भाषण में इसे“अद्भुत और मार्गदर्शक” बताया । कवयित्री कल्पना ठाकुर ने कार्यक्रम पर टिप्पणी करते हुए कहा कि“अद्भुत तैयारी थी नीलाम्बर की। ग़ज़ब का टीम वर्क है। एक एक चीज़ करीने से सजाया हुआ।” कवि वीरू सोनकर ने इस कार्यक्रम की रूपरेखा के बारे में कहा कि ‘ हिन्दी बहुल क्षेत्र में इस तरह का सर्मपण हिन्दी कविताओं को लेकर नदारद है, नीलांबर का प्रयास अतुलनीय है और मैं बार बार इस कार्यक्रम में आना चाहूँगा।’ भोपाल के प्रसिद्ध ‘विहान ड्रामा वर्क्स’ के संस्थापक और कवि हेमंत देवलेकर ने कहा- ‘ये अनुभव को जिन्दगी भर के सहेज लिया है।’ राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात कवि आशुतोष दूबे ने कहा ‘नीलांबर द्वारा संजोयी गई कविता की इस दूसरी सांझ में काव्यानुभव एक कंपोज़िट अनुभव बनता है। यह बंगाल का नीलाबंरी जादू है।’नीलांबर के अध्यक्ष विमलेश त्रिपाठी ने कहा कि संस्था इसी तरह साहित्य के विभिन्न विधाओं पर नये तकनीकों के साथ साहित्य के लोकप्रियकरण हेतु प्रयास करता रहेगा। ज्ञात हो कि नीलांबर को बाहर से कोई आर्थिक सहयोग या अनुदान नहीं मिलता है, संस्थापक सदस्यों और सहयोगी सदस्यों के अनुदान पर ही सारे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। अंत में संजय जायसवाल ने सभी अतिथियों और श्रोता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया।

जातीय अभिव्यक्ति की भाषा है हिंदी

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मिदनापुर, विद्यासागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की ओर से हिंदी दिवस के अवसर पर भारतेन्दु जयंती और ‘हिंदी और जातीय एकता’ विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. दामोदर मिश्र ने किया। इस अवसर पर पंकज सिंह, प्रियंका गुप्ता, सुजाता सिंह, मेधा, रूपल साव, के. अनुशा, गायत्री, प्रियंका अग्रवाल ने आलेख प्रस्तुत किया तथा राहूल शर्मा, मिथिलेश, चंदना मंडल, प्रकाश त्रिपाठी, अनिल सरोज, रेशमी, सुजाता सिंह, खुशबू यादव, सुनील कुमार, शारदा ने स्वचरित कविताओं का पाठ किया। इसके साथ ही हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता का भी आयोजन किया गया था, जिसमें पहला स्थान सुनील कुमार का रहा और दूसरे स्थान पर के. अनुशा रही। डॉ. स्वाती वर्मा ने हिंदी की संवैधानिक स्थिति पर प्रकाश डाला। प्रो. प्रियंका मिश्र ने कहा कि हिंदी को दैनिक जीवन में शामिल किया जाना चाहिए तभी सही मायने में हिंदी का विकास होगा। डॉ. संजय जायसवाल ने कहा कि हिन्दी ने जातीय एकता को बल प्रदान किया है। नवोनीता दास ने काव्य संगीत की प्रस्तुति की। कार्यक्रम का सफल संचालन पंकज सिंह ने किया। धन्यवाद ज्ञापन मौसमी गोप ने किया।

दुर्गापूजा पर बीएफएस ने बच्चों को दिया मुस्कान का तोहफा

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बेस्ट फ्रेंड्स सोसायटी (बीएफएस) ने हाल ही में रिफ्यूज के जरूरतमंद बच्चों को चादरें, तकिए और तकिए के कवर प्रदान किए। यह संस्था की स्वस्थ जीवनशैली परियोजना का अंग है। बीएफएस के प्रेसिडेंट राजीव लोढ़ा ने यह इन बच्चों को नींद और स्वस्थ जीवन देने में मददगार होगा। रिफ्यूज के बासुदेव ने संस्था के प्रयास की सराहना की।

साइंस्टिला 2016 का आयोजन

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साइंस्टिला 2016 का आयोजन हाल ही में कलकत्ता विश्वविद्यालय में किया गया। गत 7 वर्षों से विज्ञान के प्रसार के उद्देश्य से युवा वैज्ञानिकों के इस फोरम विज्ञान पर आधारित प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती रही हैं। हर साल की तरह इस बार भी पोस्टर चित्रांकन, स्लोगन, लेखन और भाषण प्रतियोगिता और साइंस क्विज का आयोजन किया गया।

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साइंस्टिला 2016 ईश्वर चंद्र विद्यासागर की 125वीं पुण्यतिथि और डेवी सेफ्टी लैम्प के 200 साल की पूर्ति को समर्पित था। विभिन्न शिक्षण संस्थानों के 200 विद्यार्थियों ने इन प्रतिभागियों ने भाग लिया। साइंस क्लब के प्रवक्ता भास्कर बसु ने बताया कि यह आयोजन विज्ञान के प्रति विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करेगी, ऐसी उनकी उम्मीद है।

लायंस क्लब ऑफ कोलकाता ने प्रदान किए गुरुकुल अवार्ड्स

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शिक्षा के क्षेत्र में लायंस क्लब ऑफ कोलकाता, डिस्ट्रिक्ट 322बी2 का गुरुकुल अवार्ड्स काफी उल्लेखनीय है। हाल ही यह पुरस्कार समारोह आयोजित किया गया जिनमें विभिन्न बोर्डों के मेधावी विद्यार्थियों, प्रिंसिपलों तथा शिक्षाविदों को सम्मानित किया गया। फेसेस के सहयोग से आयोजित इस पुरस्कार समारोह में फेसेस के प्रेसिडेंट इमरान जाकी, मिसेज इंडिया इंटरनेशनल ऋचा शर्मा, बेलारूस के कौंसुल जनरल सीताराम शर्मा के अतिरिक्त गुरुकुल अवार्ड्स के संस्थापक तथा चेयरमैन आशीष झुनझुनवाला भी उपस्थित थे। संस्था मेधावी विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति भी देती है।

तस्वीरों में दिखी शोर से मुक्त कोलकाता की चाह

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आधुनिक कोलकाता शोर से भरी जिंदगी का शहर है मगर कोलकाता को शोर नहीं चाहिए और वाहनों के हॉर्न से मुक्त कोलकाता की चाह दिखी एक चित्र प्रर्दशनी में।

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यह प्रदर्शनी एक्रोपॉलिस मॉल की ओर से लगायी गयी थी जिसका उद्घाटन राज्य के परिवहन मंत्री शुभेन्दु अधिकारी ने चित्रकार तथा सांसद जोगेन चौधरी की मौजूदगी में किया।

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यह अपनी तरह की पहली प्रदर्शनी थी जिसमें हॉर्न के दुष्प्रभावों को 21 तस्वीरों के जरिए पेश किया गया और जागरूकता लाने की कोशिश की गयी।

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इस प्रदर्शनी के क्यूरेटर वड़ोदरा के सचिन कलुस्कर थे।

एक शाम: महाश्वेता देवी के नाम    

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हाल ही मेंं इंडियन वीमेन प्रेस क्लब ने प्रसिद्ध लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता  महाश्वेता देवी की स्मृति में एक भव्य आयोजन किया. इस अवसर पर अलग अलग क्षेत्र की नामी हस्तियों ने महाश्वेता देवी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अपनी मुलाकातों और यादों को साझा किया। वरिष्ठ साहित्यकार नासिरा शर्मा, सांत्वना निगम, अपूर्वानंद, सोहेल कपूर, अंतरा देवसेन और अमिति सेन ने अपने अपने अनुभव सुनाये. महाश्वेता देवी के जीवन कला में रिकॉर्ड किये गए उनके बंगला इंटरव्यू का विडियो दिखाया गया, जिसें अंग्रेज़ी के सब-टाइटल्स थे.

 एक महान हस्ती जिसने अपने जीवन कला में कई सामाजिक बंधन तोड़े और साथ ही नए आयाम खड़े किये. यानी उन्होंने जो तोडा उसके विघटन से हुए नुकसान की (अगर कोई नुकसान हुआ हो तो) भरपूर भरपाई भी की.

उनके अपने ही शब्दों में,” मैंने बहुत काम किया है. मैंने ढेरों ढेर कपडे धोये हैं, बहुत बहुत जनों के लिए खाना पकाया है, बड़े-बड़े और ढेरों ढेर बर्तन मांजे और धोये हैं.”लेखन उनके लिए इसी तरह का एक काम ही था. जिसे वे बेहद लगन और प्रेम के साथ करती थी. जीवन जीने के कई ज़रूरी तत्वों की तरह, जैसे सांस लेना और भोजन करना.

 महाश्वेता देवी ने एक सामान्य मध्यवर्गीय जीवन जिया. उसे पूरी तरह जिया. उसे पूरी तरह स्वीकार किया. और फिर उसकी लाचार और नाकारा बंदिशों को तोड़ कर समाज को ख़ास कर स्त्री को एक नयी राह दिखाई. एक ऐसी राह जिस पर वे खुद चलीं. उसके कांटो से अपने पांवों को बिधवाया, पीड़ा सही, बहते खून को खुद ही साफ़ किया और साथ ही कई और जीवन सवारे.

  उन्होंने अपने रोज़मर्रा के जीवन से स्त्री की आज़ादी को बहुत खूबसूरती से परिभषित किया. अपनी पहली शादी के नाकाम हो जाने के बाद वे कहती हैं, “मैं अब आज़ाद हूँ. और मुझे बड़ा अच्छा लगता है. कोई बंदिश नहीं. किसी को यह बताने की पाबंदी नहीं कि कहाँ गयी थी, क्यूँ गयी थी, किसके साथ गयी थी.”पुरुषों के लिए जो बाते सामान्य होती हैं उन्हें पाने के लिए स्त्रियों को कितना कड़ा संघर्ष करना पड़ता है इसकी वे जीवंत उदाहरण थी.

 साधारण कद की साधारण दिखने वाली बेहद असाधारण व्यक्तित्व की स्वामिनी महाश्वेता देवी ने हज़ार चौरासी की माँलिख कर  जो ख्याति हासिल की वह हज़ार चरौसी की माँने जो आयाम खड़े किये उसके मुकाबले में शायद कम ही रही होगी। उनके पोते तथागत जो स्वयं एक पत्रकार है, ने भी अपने कई संस्मरण इस मौके पर साँझा किये. किस तरह एक दादी माँ अपने पोते को लाड करती थी. किस तरह जब  जवाबदेही का वक़्त आता था तो कठोर अभिभावक का रूप धारण कर लेती थी. कि किस तरह उनके आख़िरी वक़्त में उनकी क्षीण देह को देख कर पूरा परिवार दुःख और लाचारी से जूझता रहा। अपूर्वानंद का अनुसार कैसे एक मध्यवर्ग की महिला मध्यवर्ग के  तथाकथित संस्कारों को अस्वीकार करती है, लेकिन उसी मध्यवर्ग के कई आयामों को अपना संबल बना कर आगे बढ़ती है. और इस प्रक्रिया में समाज को बहुत कुछ नया दे कर जाती है. कैसे एक पढ़े  लिखे परिवार की पढ़ी लिखी सुसंस्कृत महिला आदिवासिओं के जीवन को बेहद करीब से देख कर उनमें से एक हो कर, उन पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ पूरे सिस्टम और सरकार के खिलाफ खडी हो  जाती है. ये एक महाश्वेता देवी ही कर सकती थी. उन सा दूसरा उदाहरण खोजने से भी नहीं मिलेगा।

 

 

 

बाजार को अपनाकर भी हिन्दी अपनी पहचान मजबूत कर सकती है

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  • सुषमा त्रिपाठी

एक युवा और कर्मठ साहित्य व संस्कृतिप्रेमी से बात हो रही थी। वो प्रोफेशनल हैं और एक कॉरपोरेट कम्पनी में काम करते हैं, तनख्वाह भी अच्छी है मगर उनको एक ही परेशानी है। दरअसल, यह परेशानी तो हर सृजनात्मक व्यक्ति की है जो कुछ अलग और दूसरों के लिए करना चाहता है। यहाँ हम यह बता दें कि कुछ करने का मतलब सिर्फ कम्बल, चश्मा औऱ पाठ्यपुस्तकें या छात्रवृत्ति बाँटना नहीं होता। हालाँकि इसका भी अपना महत्व है औऱ यह जरूरी भी है मगर यह काफी नहीं है क्योंकि दान किसी को सक्षम नहीं बनाता। खैर, हम तो साहित्य और संस्कृति की बात कर रहे हैं जिसे हम बाजार के हाथ में छोड़ने को तैयार नहीं हैं मगर इस सच्चाई को भी हम दरकिनार नहीं कर सकते कि किसी काम को सुचारू रखना हो तो आप बाजार को नजरअंदाज नहीं कर सकते। किसी भी कार्यक्रम और योजना को चलाना हो तो आर्थिक सम्बल भी जरूरी होता है और इसके लिए सामाजिक और सांस्कृतिक जागरुकता भी जरूरी है। बस, हमारी बात का जो मुद्दा है, वह यही है क्योकिं हिन्दी को चाहने वालों और सराहने वालों की समस्या यहीं से शुरू होती है क्योंकि वे हिन्दी पर खर्च नहीं करते। उनके पास रेस्तरां, कॉन्वेंट स्कूल, मल्टीप्लेक्स समेत हर चीज पर खर्च करने की कूबत है मगर हिन्दी की किताबें, नाटक या किसी कार्यक्रम पर खर्च करना बोझ लगता है। वह तारीफ जी भरकर करेंगे, अच्छी – अच्छी बातें करेंगे मगर उसका उत्साह बढ़ाने के लिए टिकट या खरीदने की बात उनके दिमाग में नहीं आएगी। ये समस्या बांग्ला और अँग्रेजी के साथ नहीं है क्योंकि वहाँ लोग टिकट खरीदते हैं। पुस्तक मेले में बांग्ला व अन्य भाषाओं के स्टॉल पर उमड़ने वाली भीड़ उस रुचि को दर्शाती है और बुकसेलर्स एंड पब्लिशर्स गिल्ड का कारोबार साहित्य के साथ आयोजकों को भी ऊर्जा देता है कि वे लगातार तीन दशक से इतना भव्य आयोजन करते आ रहे हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि हिन्दी को बाजार को अछूत क्यों मानना चाहिए और बाजार के माध्यम से अगर हिन्दी का प्रचार करें तो क्या बुराई है? तालाब को साफ करना हो तो तालाब में घुसकर ही उसे साफ किया जा सकता है और अगर आप बाजार को तालाब समझते हैं तो आप उसमें घुसना होगा। जब आप बाजार में घुसेंगे तो उससे रोजगार जुड़ेगा और रोजगार जुड़ेगा तो जनता भी जुड़ेगी, ये तय है। अगर आप किसी कार्यशाला या प्रशिक्षण पर शुल्क लगाते हैं तो उसके जरिए होने वाली आय भले ही कम हो मगर उत्साह जरूर बढ़ाएगी। जब लोग खर्च करेंगे तो उस कार्यक्रम में गहराई से जुड़ेंगे और अगर कोई कमी हुई तो आपको बताएंगे क्योंकि उनकी कमाई का एक अंश इस कार्यक्रम से जुड़ा है। जो आय होती है, उससे आप किसी प्रतिभा को सामने लाने में मदद कर सकते हैं और यकीन मानिए हिन्दी से बाहर भी लोग हें जो रुचि रखते हैं। अगर साहित्य और इतिहास से जुड़े विषयों को ऑडियो – विजुअल माध्यम शिक्षण संस्थानों और बाजार में कुछ शुल्क लेकर पहुँचाया जाए तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। मुकाबला करना हो तो वही हथियार आजमाना पड़ता है जो आपका शत्रु इस्तेमाल कर रहा है। हम मानते हैं कि अँग्रेजी हमारी शत्रु नहीं है मगर यह तो मानना होगा कि उसके पास बाजार की ताकत है और यही उसे मजबूत बना रही है। अगर सुल्तान के साथ हरिवंश राय बच्चन की सीडी रहती है तो क्या हर्ज है, कोई एक तो खरीदेगा। अगर प्रेमचंद की कहानियाँ सीडी या ऐप्स पर उपलब्ध हैं तो कोई क्यों नहीं इस्तेमाल करेगा। हिन्दी से प्रेम है तो पहले खरीद कर पढ़ने की आदत डालिए और किसी भी आयोजक, लेखक या प्रकाशक से, सिर्फ इसलिए कि आप समाज में स्थान रखते हैं, ये उम्मीद करना छोड़िए कि आप तक हर चीज निःशुल्क पहुँचे क्योंकि हर आयोजन पर मेहनत होती है और हर प्रकाशन में खर्च होता है। जब तक वह लागत नहीं निकलती या लाभ नहीं होता, ऐसे आयोजन लाभ में नहीं बदल सकते और लाभ नहीं होगा तो किसी भी युवा में इतनी ऊर्जा नहीं बचेगी कि दोबारा इस सृजन में उसी उत्साह से जुड़े क्योंकि उसको साहित्य के साथ घर भी चलाना है। अगर आय होगी तो घर भी प्रोत्साहित करेगा वरना यह वक्त की बर्बादी भर ही रहेगी और एक समय के बाद पत्रिका, प्रकाशन और आयोजन बंद हो जाएंगे जैसे कि आज हो रहे हैं। हम हिन्दी शिक्षण अथवा आयोजनों अथवा साहित्य को लेकर ऐप्स तैयार क्यों नहीं कर सकते? प्रतियोगिता बढ़ेगी तब लोग अपनी रचनाओं पर और मेहनत करेंगे जिससे सृजन और बेहतर होगा और जब प्रसार होगा तो साहित्य और संस्कृति, दोनों का विस्तार होगा और वह वहाँ पहुँचेगी, जहाँ आप चाहते हैं इसलिए खरीदने और खर्च करने की संस्कृति भी बेहद जरूरी है।  डिजिटल इंडिया को हिन्दी में लागू करने की जरूरत है और जनता तक पहुँचना है तो हिन्दी को बाजार को अछूत मानना छोड़ना होगा। बाजार को अपनाकर भी हिन्दी अपनी पहचान मजबूत कर सकती है।

साड़ी पहनते वक्त भूलकर भी न करें ये गलत‌ियां

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पूजा सामने आ रही है और पूजा में साड़ी तो पहननी है। साड़ी ऐसा पहनावा है जो पारंप‌रिक होते हुए भी आपको हॉट लुक दे सकता है। सलीके से पहनी गई साड़ी जहां खूबसूरत फिगर को निखार सकती है वहीं आपके फिगर की कम‌ियों को छिपा भी सकती है।दूसरी ओर, साड़ी बांधना एक ऐसी कला है जिसमें हुई छोटी सी चूक भी आपके लुक को बिगाड़ सकती है। जानिए, साड़ी पहनने के दौरान हमें किन गलतियों से बचना चाहिए।
सबसे पहले बात करते हैं साड़ी पहनते वक्त आपकी चप्पल कौन सी है। आपको जिस मौके के हिसाब से साड़ी पहननी है, उसमें आप कितनी हील पहनेंगी, इसका संबंध आपकी साड़ी के लुक से है।
साड़ी पहनते वक्त आप वहीं चप्पल पहनें जिसे पहनकर आप बाहर निकलेंगी। इससे साड़ी की लंबाई आपकी लंबाई से मेल खाएगी और साड़ी अधिक ग्रेसफुल लगेगी। हम यहाँ जो साड़ियाँ दिखाने जा रहे हैं वे अस्मित गारमेंट्स मेंं उपलब्ध हैे जो कि  पत्रकार शिल्पी सिन्हा का कलेक्शन हैं। शिल्पी फिलहाल घर से ही ये काम कर रही हैं मगर उनकी हैंडप्रिंटेड साड़ी या टसर या सिल्क साड़ी आपका लुक एथेनिक बना सकती हैे –

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ज्वेलरी और एसेसरीज

आप साड़ी बांधने के दौरान अगर बहुत अधिक पिन का इस्तेमाल करती हैं तो यहां आपसे चूक हो सकती है। साड़ी पिन लगाते वक्त यह सामने न आए, इसका ध्यान रखना जरूरी है। कोशिश करें कि सभी पिन साड़ी में ही छिप जाएं।
बहुत पतले फैब्रिक की साड़ी पर अधिक पिन लगाने से बचें क्योंकि इससे कपड़ा फटने का डर बना रहता है।
इतना ही नहीं, साड़ी के साथ आप अगर जी भर कर ज्वेलरी पहन रही हैं तो यह भी आपके लुक को खराब करने के लिए काफी है।
ज्वेलरी का चुनाव करते वक्त यह ध्यान रखना जरूरी है कि किस साड़ी पर हेवी ज्वेलरी चलेगी और किस पर लाइट। हल्की साड़ी पर थोड़ी हेवी ज्वेलरी फबती है जबकि हेवी साड़ी को आप बिना ज्वेलरी या हल्की ज्वेलरी के साथ पहनें तो बेहतर होगा।

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बहुत अधिक प्रयोग

साड़ी पहनने में अगर आप निपुण हैं तो यकीनन अलग-अलग मौकों के हिसाब से साड़ी के साथ प्रयोग करती होंगी। ऐसे में साड़ी के साथ आप जितना अधिक प्रयोग करेंगी, गलत‌ियों का रिस्क उतना ही बढ़ेगा।
ऐसे में आप जिस तरह से साड़ी बांधने में माहिर हों, उसी के साथ प्रयोग करें। हो सके तो आप किसी तीसरे से जरूर राय ले लें।
आजकल साड़ी के साथ ब्लाउज में भी कई तरह के प्रयोगों का चलन है। ऐसे में आप किस साड़ी के साथ कौन सा ब्लाउज पहनेंगी, उसपर जरूर ध्यान दें। हेवी साड़ी के साथ सिंपल ब्लाउज, लाइट साड़ी के साथ हेवी और स्टाइलिश ब्लाउज बेहतर चुनाव हो सकता है।

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