Sunday, December 21, 2025
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जीवन पर बनी फिल्म गुणगान नहीं, मेरा सफर दिखाती है: धोनी

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न्यूयार्क,: महेंद्र सिंह धोनी चाहते थे कि उनके जीवन पर बनी फिल्म में उनकी यात्रा को दिखाया जाए लेकिन उनका गुणगान नहीं किया जाए और फिल्म के निर्देशक नीरज पांडे को ‘एमएस धोनी-द अनटोल्ड स्टोरी’ के शुरूआती चरण के दौरान भारत के सीमित ओवरों के कप्तान ने यही बात कही थी।

पत्नी साक्षी और निर्माता अरूण पांडे , जिनकी कंपनी धोनी का प्रबंधन करती है,  के साथ अपनी फिल्म का प्रचार करने अमेरिका आए धोनी ने अपने जीवन और एक छोटे शहर के प्रतिभावान लड़के से भारत के सबसे सम्मानित कप्तानों में से एक बनने के बदलाव पर बात की। यह फिल्म दुनियाभर में 30 सितंबर को रिलीज होगी।

धोनी ने यहां फिल्म के प्रचार कार्यक्रम के दौरान कहा, ‘‘एक चीज मैंने पांडे :निर्देशक नीरज: को कही कि इस फिल्म में मेरा गुणगान नहीं होना चाहिए। यह पेशेवर खिलाड़ी के सफर के बारे में है और इसे यही दिखाना चाहिए।’’ असल जीवन में वर्तमान में जीने वाले धोनी के लिए यह मुश्किल था कि वह अपने जीवन में पीछे जाएं और फिल्म के लिए कहानी नीरज को सुनाएं।

धोनी से जब यह पूछा गया कि क्या वह चिंतित हैं कि फिल्म देखने के बाद एक व्यक्ति और क्रिकेटर के रूप में दुनिया उन्हें किस तरह देखेगी तो उन्होंने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है।

उन्होंने कहा, ‘‘शुरूआत में जब फिल्म की धारणा रखी गई तो मैं थोड़ा चिंतित था लेकिन एक बार काम शुरू होने के बाद मैं चिंतित नहीं था क्योंकि मैं सिर्फ अपनी कहानी बयां कर रहा था।’’ जारी

 

कल्पना झा की तीन कविताएं

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kalpana di

चिरशिशु

उन पर कविताएँ नहीं लिखी जाती
उन्हें तोहफे नहीं दिए जाते
उनसे किसी बात की माफी नहीं माँगी जाती कभी
उन्हें संपत्ति का हिस्सा नहीं दिया जाता
आगंतुकों के साथ नहीं बिठाया जाता
उन्हें न्योते नहीं दिए जाते

उनके सफ़र का कोई हमसफ़र नहीं होता
उनकी कमीज में जेब नहीं होती
उनकी पतलून में पर्स नहीं रहता
उन्हें कोई रोज़गार नहीं देता
उनकी खबरें अख़बारों और टेलीविज़न पर नहीं आती
उनकी कोई मांग नहीं होती
उनके मुद्दों पर संसद में चर्चा नहीं होती

उन्हें कैलेंडर के पन्ने पलटने आते हैं
पर दिन गिनने नहीं आते
उन्हें सिर्फ भूख लगती है
पेट की और स्नेह की
उन्हें आकर्षित करते हैं कागजों के रंगीन चित्र
उन्हें अचरज होता है देख कर
अपने हम उम्रों को किताबों में सर घुसाये

उन्हें अपने कान नाक मुंह गले का दर्द बताना नहीं आता
उन्हें दवाइयों के नाम नहीं आते

उन्हें आता है तो सिर्फ
बारिश की बूंदों को खिड़की से हाथ निकाल कर छूना
रंगों पर लोटना
आँधियों को अपलक निहारना
अनबोले शब्दों को आँखों से पढ़ना
उन्हें आता है हाथ मिलाना
आता है दया और प्यार में फ़र्क़ करना
आता है अंतहीन प्रतीक्षा करना

उन्हें जीवन के फलसफे नहीं मालूम होते
उन्हें पता होता है तो सिर्फ अपने खाने का वक़्त
और ये
कि अतिथियों के आने पर
उन्हें घर के किस कोने में जाकर बैठ जाना है

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घर सजा कर

घर सजा कर
खिड़कियां बंद कर देने का रिवाज़
ख़त्म करते हैं
तेज़ हवा के झोंके सजावटी गमले न गिरा दें
यह डर दफ़्न करते हैं

खोलते हैं उन खिड़कियों को
जिनसे कहीं पास की झोपड़ियों के भात की खुशबू आती है
चूल्हे का धुंआ दाखिल होता है

उन धमाकों की आवाज़ें आने देते हैं
जो आये दिन हुआ करते हैं कहीं न कहीं
कुछ क्षण के लिए दिल दहल जाने देते हैं,
आशंकित होने देते हैं मन को कभी
उन बंदूकों की आवाज़ों से
जो चलती रहती हैं हर रोज़ कहीं न कहीं

खिड़कियां बंद कर लेने से
बाहर का शोर नहीं बंद हो जाता
झिलमिलाती रौशनी और परदों के पीछे से
थोड़ा थोड़ा सच घुस जाने देते हैं भीतर

चलो थोड़ा थोड़ा डरते हैं
उससे
जो अभी तक खिड़कियों के बाहर डरा रहा है दूसरों को
और किसी भी वक़्त दरवाज़ा तोड़ कर भीतर घुस सकता है

आओ
थोड़ा सा आक्रोशित होते हैं उस पर
जिसने अब तक हमला नहीं किया हम पर
पर पैरों के नीचे की ज़मीन काँप रही है जिसके पदचाप से
शायद कहीं पास ही
रौंदी जा रही है हरी घास
और उससे रिस रहा खून
थोड़ा थोड़ा बह रहा है इस ओर

आने देते हैं दूर से आ रही उन चीत्कारों को अपने पास
जज़्ब कर लेते हैं उस आर्तनाद को
पलने देते हैं गुस्सा अपने भीतर
हाथों की मुट्ठी भींच कर रखते हैं
और आँखों की नसों में खून उतर जाने देते हैं

तैयार रहते हैं उस युद्ध के लिए
जिसका एक पक्ष
किसी भी वक़्त हम बन सकते हैं

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और मुस्कुराती है मोनालिसा !

यहाँ मूंगफली बेचते हैं बच्चे
गाड़ियों के शीशे साफ़ करते हैं
बसों में पत्थर बजाते फ़िल्मी गाने  गाते हैं
मासूम कन्धों पर एक और मासूम देह लटकाए
बेचारगी से गाड़ियों के पीछे भागते हैं
दूध और चॉकलेट के लिए नहीं,
पेट भर खाने के लिए
और मुस्कुराती है मोनालिसा

यहाँ बच्चे कुदाल और फावड़ा चलाते हैं
ईंट पत्थर तोड़ते हैं
कूड़ा बीनते हैं और चुन लेते हैं उसमें से कुछ खेलने लायक कूड़ा
यहाँ बच्चे मंडी जाते हैं
सड़कों पर घूम घूम कर गुब्बारे बेचते हैं
और हाथों के फफोलों से रिसते पानी से
तक़दीर पर जमी मैल पोंछते हैं
और मोनालिसा मुस्कुराती है ड्राइंग रूम में

यहाँ सड़क किनारे चिथड़े बिछा
उसपर छोटे बच्चे को सुला
अपाहिज बनने का नाटक कर
भीख मांगती है औरतें
और शाम को चिल्लर समेट बस में चढ़ जाती हैं रात की रोटी सेकने
और मुस्कुराती है मोनालिसा

यहाँ घर से बेघर बूढ़े
दो चार सब्ज़ियों की दूकान लगा
बेचते हैं हर रोज़ आंसू
और मोल भाव करते लोग दो चार रुपये उनसे भी बचा लेते हैं
और मोनालिसा मुस्कुराती है ड्राइंग रूम में

यहाँ गाड़ियों के सामने आ जाते हैं पागल
अधनंगे, बालों का जट फैलाए
पहले से ही मरे हुए ये पागल
रोज़ बचते हैं मौत से
और रोज़ सुनते हैं दुर्दुराहट
पर और ज़्यादा पागल नहीं होते
नहीं हो सकते,
हंस कर, कुछ बड़बड़ा कर निकल जाते हैं
मुर्दा आँखों से ताकते हुए

और मुस्कुराती है मोनालिसा
सुन्दर घर के सुन्दर कमरे की दीवार पर।

(कवियत्री प्रख्यात रंगकर्मी तथा गायिका हैं। फिलहाल एक केन्द्रीय संस्थान में वरिष्ठ अनुवादक के रूप में कार्यरत)

चश्मा पहनती हैं तो ये मेकअप टिप्स जरूर अपनाएं

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चश्मा पहनना भले ही स्टाइलिश कहा जाता हो मगर सच तो यही है कि लड़कियाँ आज भी यही मानती हैं कि यह उनकी खूबसूरती बिगाड़ देता है। हालांंकि ऐसा नहीं है मगर चश्मा आपकी जरूरत भी है और जब यह जरूरत है तो आप इसे भी अपनी तरह स्टाइलिश तरीके से पहन सकती हैं और इसके लिए आजमाइए ये मेकअप टिप्स –

कुछ लेंस आंखों को छोटा दिखाते हैं जबकि असली में ऐसा होता नहीं है। इससे बचने के लिए पिंक आय-लाइनर यूज करें। इसे नीचे वाली लैश-लाइन पर लगाएं जिससे आंखें ज्यादा खुली नजर आएं।

फ्रेम ही आइब्रोज पर फोकस बनाते हैं। इसलिए इन्हें हमेशा वेल-ग्रूम्ड रखें। ब्रो-पेन्सिल या पाउडर लगाने के पहले आइब्रोज के लिए ब्रो-कोम्ब यूज करें।

चश्मा आपके अंडर-आय सर्कल को हाइलाइट कर सकते हैं। फाउंडेशन से कंसीलर का शेड थोड़ा लाइट होना चाहिए। इसे इनर-कॉर्नर और अंडर-आईज में यूज करें तभी पूरा एरिया ब्राइट और लिफ्ट-अप दिखाई देगा।

 

कभी दुकान में मरम्मत करते थे सेलफोन, आज हैं करोड़ों की कंपनी के मालिक

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नई दिल्ली. मोटरकोट्स इंडिया द्वारा कारों को ग्लैमरस बनाने के बिजनेस में कदम रखने वाले हरमीत सिंह की कहानी उनके हाथ से एक सेलफोन के टूटने से शुरू हुई थी। यह सेलफोन उनके दोस्त का था। फरीदाबाद के एनआईटी मोहल्ले में जन्मे हरमीत सिहं एक लोअर मीडिल सिख फैमली से हैं। उनके पिता फरीदाबाद में एक वर्कशॉप चलाते थे। हरमीत ने अपने बचपन में कई बार पिता के इस वर्कशॉप में काम किया। आज उनकी अलग-अलग कंपनियों में लगभग 200 लोग काम कर रहे हैं।

घर की आर्थिक स्थितियां कुछ ऐसी थीं कि हरमीत अपनी पढ़ाई 10वीं से आगे नहीं बढ़ा पाए। दिल्ली के करोलबाग मार्केट में एक छोटी सी मोबाइल रिपेयरिंग शॉप में नौकरी भी करनी पड़ी। हरमीत ने एक इंटरव्यू में बताया था कि ‘मेरे हाथ से एक दोस्त का सीमन्स का काफी महेंगा सेलफोन टूट गया। पूरा फरीदाबाद घूमा, लेकिन वह बन नहीं पाया।  इसके बाद किसी ने बताया कि दिल्ली के करोलबाग में मोबाइल रिपेयरिंग की दुकानें हैं। दिल्ली गया तो वहां मेकैनिक ने दो हजार रुपए मांगे। इतने पैसे मेरे पास थे नहीं, लेकिन मोबाइल बनवाना भी जरूरी था।  पिताजी से इतने रुपए मांग नहीं सकता था, क्योंकि जानता था कि उनके पास भी एक साथ इतने पैसे नहीं मिल पाएंगे।
इधर-उधर से रुपए जमा करने के लिए 20 दिन लग गए। मोबाइल तो बन गया, लेकिन उसी दिन से ठान लिया कि अब कोई मोबाइल खराब होगा तो खुद ही बनाऊंगा।’

– घटना के बाद से ही हरमीत को धुन सवार हो गई कि वे मोबाइल टेक्नोलॉजी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करें।  वे दोस्तों के खराब मोबाइल लेते उन्हें खोलते और इसके बारे में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करते। कई बार ऐसा होता कि थोड़ी बहुत धूल साफ करने से मोबाइल की खराबी दूर हो जाती।  इस दौरान एक दोस्त का सेलफोन खराब हो गया तो उन्हें एक आइडिया सूझा। उन्होंने आईसी पर कुछ खास निशान लगाए और फिर उसे मेकैनिक को दिया। जब सेलफोन बनकर आया तो वे जान गए कि उसमें क्या बदला गया है।  उनकी दिलचस्पी देखकर एक जान पहचान वाले ने उन्हें जालंधर में अपनी दुकान खोलने के लिए कहा। इस तरह उनकी पहली दुकान जालंधर में खुली, जहां उस समय काफी एनआरआई आया करते थे। दिल्ली के करोलबाग में उनका आना जाना काफी बढ़ गया था। यहां उन्हें एक दुकान में नौकरी मिल गई। जालंधर की अपनी दुकान एक दोस्त को देकर वे दिल्ली चले आए।  इस दौरान उन्होंने किस्तों पर एक कंप्यूटर भी खरीद लिया और अलग-अलग तरह के सॉफ्टवेयर डाउनलोड करने के बारे में जानकारी मिलने लगे।
हरमीत करोलबाग में फोन अनलॉक करने के वाले स्पेशलिस्ट के तौर पर जाने लगे। सेलफोन के बाद उन्होंने सीसीटीवी कैमरा, ड्रोन और अब कारकोटिंग में कदम रखा। हरमीत ने मोबाइवाला.कॉम और जीएसएमफादर.कॉम पर उन्होंने अपना कारोबार चलाया। उन्होंने दिल्ली के बाद हैदराबाद में अपना स्टूडियो खोला है। इस दौरान उन्होंने दिल्ली में वो मकान को खरीदा, जहां पर वो किराए पर रहा करते थे।

 

एक गांव, जहां भैंसों संग प्रैक्टिस करके चैम्पियन हैं बेटियां

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रियो ओलंपिक में देश को बेटियों ने मेडल जिताए। क्या आप जानते हैं कि देश में एक गांव ऐसा है, जहां बेटियां भैंसों के साथ प्रैक्टिस करके चैम्पियन बनी हैं। बात हो रही है, हरियाणा के भिवानी जिले के गांव अलखपुरा की। यहां का दौरा करेंगे तो खेल के प्रति बेटियों का जज्बा नजर आ जाएगा।

बिना किसी साधन सुविधा और ग्राउंड के, इस गांव की लड़कियां फुटबाल की प्रैक्टिस करती हैं और इसी तरह प्रैक्टिस कर कर के वे अब तक राज्य और नेशनल स्तरीय खेलों में हिस्सा ले चुकी हैं। इस गांव की लड़कियां साल 2009 से अंडर 14, अंडर 17 और अंडर 19 के चैम्पियन हैं।

2012 में हुए सुब्रतो मुखर्जी इंटरनेशनल टूर्नामेंट में इस गांव के खिलाड़ी तीसरे नंबर पर रहीं। 2013 में दूसरे नंबर पर और 2015 में उन्होंने मणिपुर को हराकर टूर्नामेंट अपने नाम किया था। यहां तक कि खिलाड़ी नवंबर 2016 में होने वाले सुब्रतो कप में अंडर 17 कैटेगरी में भी क्वालीफाई हो चुकी हैं, लेकिन प्रैक्टिस करने के नाम पर कोई सुविधा नहीं।

तालाब के किनारे प्रैक्टिस करती हैं लड़कियां

ऐसे में लड़कियां गांव के बीचों बीच बने तालाब के किनारे प्रैक्टिस करती हैं, वो भी नहा रही भैंसों के साथ। उधर भैंसे तालाब में नहा रही होती हैं और उधर खिलाड़ी तालाब के किनारे फुटबाल का अभ्यास कर रहे होते हैं। न कोई नेट और न कोई लाइन। बॉल तालाब में चली जाए तो उसे भी तैरकर बाहर निकालना पड़ता है। मजदूरों और कारीगरों की इन बेटियों ने अब इसी जुगाड़ के मैदान को अपनी किस्मत मान लिया है, जिसका परिणाम चैम्पियनों के रूप में सभी के सामने है।

गांव में कोई जिम भी नहीं है। ऐसे में लड़कियां रेत के मैदान में दौड़ लगाकर ही खुद को वार्मअप करती हैं। एक्सरसाइज करके खुद को एक्टिव रखती हैं। इन खिलाड़ियों को स्पोर्ट्स किट और शूज फिजिकल ट्रेनिंग इंस्ट्रक्टर गोर्धन दास उपलब्ध कराते हैं। इसके लिए वे गांव-गांव घूमकर चंदा इकट्ठा करते हैं। इन्होंने 2006 में लड़कियों के लिए फुटबाल की शुरूआत की थी।

 

इंटरनेट पर किस्सागोई : सुनकर आनंद लीजिए मशहूर हिन्दी कहानियों का

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नयी दिल्लीजीवन की आपाधापी, सिकुड़ते वक्त और किताबों के अस्तित्व पर मंडराते खतरे की चर्चा के बीच इंटरनेट पर हिन्दी साहित्य की कालजयी और भूली बिसरी कृतियों को आडियो स्वरूप में डालकर प्रौद्योगिकी की मदद से किस्सागोई की नयी पहल हो रही है। इनमें प्रेमचंद, चंद्रधरशर्मा गुलेरी, सुदर्शन से लेकर कमलेश्वर, स्वयं प्रकाश और आधुनिक कहानीकारों की रचनाएं शामिल हैं। अमेरिका में रहने वाले अनुराग शर्मा स्वयं कहानीकार हैं और पिछले कुछ वषरें से ऐसे ही प्रयासों में संलग्न हैं। उन्होंने प्रेमचंद, भीष्म साहनी सहित विभिन्न हिन्दी रचनाकारों की 250 से अधिक कहानियों के आडियो स्वरूप को आर्काइव डाट काम तथा अन्य प्लेटफार्म पर डाला है। इन कहानियों को कोई भी व्यक्ति सुन सकता है और डाउनलोड भी कर सकता है। उन्होंेने बताया कि कहानियों के इन आडियो संस्करण पर अच्छी प्रतिक्रिया मिली है।

अनुराग ने  कहा कि वाचिक परम्परा बीच बीच में टूटती है। किन्तु यही परंपरा पुल भी बनाती है। मसलन, विदेश में पाकिस्तान के पाठक हिन्दी साहित्य और हिन्दी के पाठक उर्दू साहित्य को लिपि बाधा के कारण प्राय: पढ़ने में दिक्कत महसूस करते हैं। पर यदि इन भाषाओं के साहित्य को वे जब आडियो स्वरूप में सुनते हैं तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती।
उन्होंने बताया कि पुरानी कहानियों को सुनने के साथ इनके बारे में जानने की इच्छा पैदा होती है।

 

खर्च ज्यादा हो रहा है तो जरा ध्यान दें

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पैसा हाथ में तो अक्सर उसे बचाकर रखना मुश्किल महसूस होता है। जब आप बेहद खुले हाथ से खर्च कर रही हैं तो यह और भी कठिन हो सकता है। इन टिप्स को अपनाकर कुछ फायदा उठाने की कोशिश करें…

– अपने पास नकद ज्यादा नहीं रखें। जेब के लिए पांच सौ रूपए तक काफी होंगे। नकदी पास होने पर हम अक्सर ज्यादा खर्चे कर देते हैं।

– सिक्के खर्च नहीं करने चाहिए। ये जितने ज्यादा होंगे उतना अच्छा आप  महसूस करेंगी। खरीदी के लिए नकदी इस्तेमाल करें। रोज के जमा हुए सिक्के एक चेंज यानि चिल्लर पाउच में रखते चले जाएं। इसी तरह हर दिन के आखिर में अपने चिल्लर को एक गुल्लक में डालते चले जाएं। हर छह महीने बाद इस गुल्लक को खाली करें तो बेहद खुशी मिलेगी और नोट भी!

– बिल देने वाले भी इंसान ही होते हैं। इनसे जल्दबाजी में गलती हो जाना स्वाभाविक सी बात है इसलिए ग्रॉसरी शॉपिंग के बाद एक बार खुद अपना बिल जरूर जाँच लें। कई बार गलती होने पर ग्रोसरी स्टोर आपको डिस्काउंट देते हैं या आइटम को फ्री कर देते हैं।

– लोग एटीएम से अनावश्यक पैसे निकाल लेते हैं और फिर पता भी नहीं चलता कि ये पैसे खर्च कहां हो गए। हिसाब लगाएं कि इस हफ्ते आपको कितने पैसों की जरूरत है और फिर एटीएम से उतने ही निकालें। जब आपके वॉलेट में पैसे नहीं होंगे तो आप फिजूल खर्च भी नहीं कर पाएंगे।

 

आईएस की यौन दासता से मुक्त हुई नादिया संयुक्त राष्ट्र की सद्भावना दूत नामित

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इस्लामिक स्टेट के आतंकियों की कैद में बलात्कार और प्रताड़नाएं झेलने के बाद वहां से बच निकलने में सफल रही एक इराकी युवती को मानव तस्करी के चंगुल से बचने वाले लोगों के सम्मान में संयुक्त राष्ट्र का सद्भावना दूत बनाया गया है।नादिया मुराद बसी ताहा नामक 23 वर्षीय यजीदी युवती ने कल जिहादी समूह के पीड़ितों के लिए इंसाफ का आह्वान किया और कहा कि 2014 में यजीदी लोगों पर किए गए हमले को जनसंहार करार दिया जाना चाहिए।
नादिया को इराक के उत्तरी शहर सिंजर के पास स्थित उनके गांव कोचो से अगस्त 2014 में उठा कर आईएस के नियंत्रण वाले मोसुल में ले आया गया था। वहां उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसे कई बार खरीदा-बेचा गया।
नादिया ने संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय पर आयोजित एक समारोह में कहा, ‘‘वे जिस तरह चाहते थे, उस तरह से मेरा इस्तेमाल करते थे। मैं अकेली नहीं थी।’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैं शायद सौभाग्यशाली थी। समय बीतने के साथ, मैंने भाग निकलने का रास्ता खोज लिया जबकि हजारों अन्य ऐसा नहीं कर पाईं। वे अब भी बंधक हैं।’’ कांपती आवाज में नादिया ने उन लगभग 3200 यजीदी महिलाओं और लड़कियों की रिहाई का आह्वान किया, जो अब भी आईएस के आतंकियों की यौन दासियों के रूप में कैद हैं। नादिया ने यह भी आह्वान किया कि उन्हें बंदी बनाने वाले आतंकियों को न्याय के कटघरे में लाया जाए।

 

सिंगल मदर और तलाकशुदा के टैग को धोकर अपनी पहचान बना रही है शिल्पी

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वह पत्रकार है मगर आम महिला पत्रकारों के बीच रहकर भी काफी अलग। जब आप शिल्पी से मिलते हैं तो अनायास ही उसकी हँसी आपका ध्यान खींच लेती है। वह खुश रहना चाहती है और हमेशा खुश रहती है क्योंकि उसे खुश रहना और जिंदगी को जीना आता है। वह कभी किसी की सहानुभूति नहीं माँगती, सहायता भी नहीं माँगती मगर सहयोग भी बहुत कम माँगती है। शिल्पी दूसरों की तरह होकर भी काफी अलग है क्योंकि वह एक माँ है, सिंगल मदर। शादी के साल भर बाद ही तलाक हो गया और हमारे आस – पास के नुमाइंदे औऱ शुभचिंतक (जिनमें महिलाएं भी जरूर होंगी) एक तलाकशुदा औरत को अछूत समझते हैं और ताने सुनाते हैं, शिल्पी के साथ भी हुआ।

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वह पूर्व मिदनापुर के छोटे से गाँव में पली – बढ़ी थी और जाहिर सी बात है कि उसने ताने भी सुने मगर वह कमजोर नहीं थी क्योंकि उसे जीना था, उसे कुछ करना था। 4 साल के बच्चे को अपने माता – पिता की गोद में छोड़कर वह महानगर कोलकाता की ओर निकल पड़ी, नौकरी तलाशने के लिए मगर गँवई संस्कृति में पली शिल्पी के लिए नौकरी पाना इतना आसान नहीं था। कुछ दिनों तक छोटी – मोटी नौकरी की और वापस गाँव आ गयी मगर कुछ करने का जुनून कुछ ऐसा था कि वह शिल्पी को वापस महानगर ले आया।

उसने पत्रकारिता की पढ़ाई की और पत्रकार बनी मगर सिंगल मदर का टैग हो समाज एक अलग ही नजर से देखता है। ताने और अपमान दोनों शिल्पी को सहने पड़े मगर अब उसे हारना नहीं था, लोगों के मुँह बंद करने थे। शिल्पी कहती है कि तलाकशुदा औरत और सिंगल मदर को समाज एक अलग ही नजर से देखता है। बहुत सारी गंदी – गंदी बातें मुझे सुननी पड़ी मगर जो अपमान मुझे मिला, उसे मैंने मकसद बनाया कि अब मुझे जवाब देना है। मीडिया में कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने उसका साथ दिया। शिल्पी की लड़ाई सिर्फ उसकी लड़ाई नहीं थी, उसे अपने बच्चे को एक अच्छी परवरिश और एक अच्छा भविष्य देने के लिए आगे बढ़ना था। शिल्पी के माता – पिता और भाइयों ने भी उसका साथ दिया।

शिल्पी कई चैनलों में काम कर चुकी है और अपराध जैसे क्षेत्र की पत्रकारिता पर भी उसकी पकड़ है जिसे सराहा भी गया है और अब शिल्पी ने नयी उड़ान भरी है अपने बुटिक के साथ। शोरूम खोलने के लिए पैसे नहीं हैं इसलिए वह फिलहाल घर से ही काम कर रही है। अपने बेटे अस्मित के नाम पर अस्मित गारमेंट्स शुरु किया है और माँग होने पर शिल्पी के अनुसार वह सारी दुकान उठाकर ले जाती है मगर आज वह अपने बेटे के साथ काफी खुश है। शिल्पी के साहस और जज्बे को अपराजिता का सलाम।

गरीबी से लेकर अपंगता भी को हरा कर स्वर्ण पदक ले आए मरियप्पन

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हम असफलता के बहाने खोजते हैं, कभी अपनी रूकावट का दोष परिस्थितियों को, तो कभी हादसों के सिर मढ़ते रहते हैं। परिस्थितियों और हादसों से लड़कर मंजिलें पाने वालों को देखकर हमें एहसास होता है कि इनके मुकाबले हमारी परिस्थितियां तो कुछ भी नहीं थीं। ऐसी ही कहानी है हमारे नायक मरियप्पन की जिन्होंने पैरालंपिक में भारत को एतिहासिक पदक दिलाया।

रियो में चल रहे दिव्यांगों के ओलम्पिक में भारत के लिए हाई जम्प में पहला गोल्ड जीतने वाले मरियप्पन थंगावेलु की कहानी हमें जीने के साथ जीतने की प्रेरणा भी देती है।

भारत ने 32 साल बाद एक ही ईवेंट में दो मैडल जीते हैं, हाई जम्प में मरियप्पन ने स्वर्ण पदक जीता है, उनके साथ वरुण भाटी ने देश को कांस्य पदक दिलाया।

मरियप्पन का जन्म तमिलनाडु के सलेम में हुआ। जब वे पांच साल के थे तो एक दिन स्कूल जाते वक़्त एक हादसे ने उनकी ज़िन्दगी बदल दी। सड़क पर एक तेज बस ने उनका दायां पैर कुचल दिया। इस हादसे ने उन्हें हमेशा के लिए दिव्यांग बना दिया। मरियप्पन की माँ ने 17 साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी तब जाकर उन्हें बेटे के पैर का मुआवजा मिल पाया।

बचपन में ही पिता ने परिवार छोड़ दिया। माँ घर चलाने के लिए ईंट ढोने का काम करने लगीं। लेकिन सीने में दर्द बढ़ने की वजह से उन्हें काम छोड़ना पड़ा। पिता के छोड़ने के बाद उनके परिवार को किसी ने किराए पर रहने के लिए मकान नहीं दिया। माँ ने 500 रूपये उधार लेकर सब्जी बेचने का काम शुरू किया और परिवार का पेट पालने लगीं। मरियप्पन के इलाज के लिए 3 लाख का कर्जा लेकर बेटे की सलामती के लिए लड़ती रहीं। उनके इलाज के लिए लिया गया कर्जा उनकी माँ अभी तक चुका नहीं पाईं है।

मरियप्पन ने 14 साल की उम्र में स्कूल टूर्नामेंट में सामान्य प्रतियोगियों से मुकाबला कर हाई जम्प का सिल्वर जीता, तब उनकी ओर कोच सत्यनारायण का ध्यान गया। मरियप्पन वॉलीबॉल के खिलाडी थे लेकिन कोच सत्यनारायण के कहने पर वे हाई जम्प की प्रतियोगिताओं में खेलने लगे।

मरियप्पन इसी वर्ष मार्च में तब चर्चा में आए जब उन्होंने IPC ग्रांड प्रिक्स में 1.78 मीटर की हाई जम्प लगाई, जो उनके रियो पैरालंपिक में प्रवेश का आधार बनी।