Sunday, December 21, 2025
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नवरात्र 2016 पर है इस बार कई अच्‍छे महासंयोग

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16 वर्ष बाद फिर नवरात्र में विशेष संयोग बन रहा है। दूज तिथि लगातार दो दिन होने के कारण शारदीय नवरात्र नौ की जगह 10 दिन का होगा। श्राद्ध पक्ष समाप्त होते ही, शारदीय नवरात्र आरंभ हो रहे हैं। 1 अक्टूबर से नवरात्र आरंभ होंगे। इस बार दुर्गा जी अश्व पर आएंगी और भैंसा पर बैठकर जाएंगी।

शारदीय नवरात्र अश्विन मास के शुक्ल पक्ष से आरंभ होंगे। इस बार गजकेशरी योग में शारदीय नवरात्र होंगी। ऐसा इसीलिए कि गुरु व चन्द्रमा एक साथ कन्या राशि में लग्न स्थान में होने से गजकेशरी महासंयोग बन रहा है।

शारदीय नवरात्र में शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा के नौ रूपों की आराधना की जाती है। 1 अक्टूबर से शुरू होकर शारदीय नवरात्र उत्सव 10 अक्टूबर तक रहेगा।

विशेष यह है कि इस बार मां दुर्गा का आगमन अश्व से होगा व गमन भैंसा पर होगा, जो अति शुभ है। देवीपुराण में उल्लेखित है कि नवरात्र में भगवती के आगमन व प्रस्थान के लिए वार अनुसार वाहन बताए गए हैं।

देवी भागवत में नवरात्र के प्रारंभ व समापन के वार अनुसार मां दुर्गा के आगमन प्रस्थान के वाहन इस प्रकार बताए हैं।

आगमन वाहन- रविवार व सोमवार को हाथी, शनिवार व मंगलवार को घोड़ा, गुरुवार व शुक्रवार को पालकी, बुधवार को नौका आगमन होता है।

प्रस्थान वाहन-रविवार व सोमवार भैसा, शनिवार और मंगलवार को सिंह, बुधवार व शुक्रवार को गज हाथी गुरुवार को नर वाहन पर प्रस्थान करती हैं।

शनिवार के दिन हस्त नक्षत्र में घट स्थापना के साथ शक्ति उपासना का पर्व काल शुरु होगा। शनिवार के दिन हस्त नक्षत्र में यदि देवी आराधना का पर्व शुरू हो, तो यह देवीकृपा व इष्ट साधना के लिए विशेष रूप से शुभ माना जाता है।

10 दिन विशेष, 11 अक्टूबर को मनेगा दशहरा

  • 1 अक्टूबर- घटस्थापना, गजकेशरी योग।
  • 2 अक्टूबर- द्वितीया, द्विपुष्करयोग
  • 3 अक्टूबर- द्वितीया,रवियोग
  • 4 अक्टूबर- तृतीया,रवियोग
  • 5 अक्टूबर- चतुर्थी,रवियोग, अमृतसिद्धियोग
  • 6 अक्टूबर- पंचमी षष्ठी, सर्वार्थ सिद्धियोग,रवियोग
  • 7 अक्टूबर- षष्ठी रवियोग
  • 8 अक्टूबर – पर्जन्य सप्तमी,सरस्वती पूजन
  • 9 अक्टूबर- महाष्टमी रवियोग सर्वार्थ सिद्धियोग
  • 10 अक्टूबर – महानवमी, रवियोग

 

कैदी गढ़ रहे हैं मां दुर्गा की प्रतिमा

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कोलकाता अलीपुर जेल के कैदी आगामी दुर्गा पूजा त्यौहार के लिए शक्ति की देवी दुर्गा की प्रतिमा को बनाने में लगे हुए हैं। दो पूजा आयोजकों द्वारा दिये गये समय के अनुसार प्रतिमा बनाने के कार्य को पूरा करने के लिए चंदन चंद्रा के नेतृत्व में जेल के कैदियों का दल पिछले एक माह से दिन-रात काम में लगा हुआ है।

अलीपुर जेल के अधीक्षक स्वरूप मंडल ने कहा, ‘‘हर साल हम लोग अपने जेल परिसर में दुर्गा पूजा का आयोजन करते हैं। पिछले वर्ष अलीपुर जेल के लिए चंदन और उनकी टीम द्वारा बनायी गयी प्रतिमा इतनी अच्छी थी कि कुछ आयोजकों ने उससे मूर्ति बनवाने का निर्णय किया।’’ चंदन और उनके दल के सदस्य अलीपुर जेल के लिए भी मूर्ति बनाने के काम में जुटे हैं।
मंडल के अनुसार चंदन को अलग वार्ड आवंटित किया गया है और प्रतिमा बनाने के लिए उपकरण और कच्चे माल मुहैया कराये गये हैं।
जेल अधिकारियों के अनुसार हत्या के एक मामले में दोषी ठहराया गया चंदन पश्चिमी मिदनापुर जिले का रहने वाला है और पिछले 10 वषरें से अधिक समय से जेल में है।
अधिकारियों के अनुसार कैदी बिना कोई शुल्क लिये काम कर रहे हैं और दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए उन्हें जो रूपये मिलेंगे, उसे कैदी कल्याण कोष में जमा किया जायेगा।

 

एक्जिम बैंक चालू वित्त वर्ष में बांड के जरिये जुटाएगा 1.5 अरब डालर

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नयी दिल्ली – भारतीय निर्यात-आयात बैंक :एक्जिम बैंक: मांग के अनुरूप विदेशी बाजार से फिर कोष जुटाने की योजना बना रही है। उसकी बांड के माध्यम से 1.5 अरब डालर जुटाने की योजना है।

एक्जिम बैंक के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक यदुवेन्द्र माथुर ने पीटीआई भाषा से कहा, ‘‘औसतन साल में हमें 2.0 से 2.50 अरब डालर जुटाने की जरूरत होती है। निश्चित रूप से हम इस साल फिर बाजार से पैसा जुटाएंगे लेकिन उसके समय और राशि के बारे में निर्णय बाजार की स्थिति पर निर्भर करेगा।’’ दीर्घकालीन कर्ज के जरिये निर्यात तथा विदेशों में निवेश को मदद के साथ रिण सुविधा पोर्टफोलियो के लिये बैंक पहले ही जुलाई में विदेशी बाजार से 1.0 अरब डालर जुटा चुका है।

उन्होंने कहा कि इसके अलावा एक्जिम बैंक की अगले महीने निर्यात सुविधा पोर्टल शुरू करने की योजना है। इसका मकसद लघु इकाइयों द्वारा निर्यात को बढ़ावा देना है। पोर्टल के अक्तूबर के मध्य से काम शुरू कर सकता है।

उरी हमला: मोदी ने 1965 जैसा आक्रोश बताया, सेना में विश्वास जताया

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उरी हमले को लेकर आक्रोश की तुलना 1965 के युद्ध के समय के आक्रोश से करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज कहा कि इस आतंकी हमले के लिए जिम्मेदार लोगों को निश्चित तौर पर दंडित किया जाएगा तथा उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सेना बोलती नहीं, बल्कि पराक्रम दिखाने में विश्वास रखती है।

कश्मीर के लोगों के लिए संदेश देते हुए मोदी ने कहा कि ‘शांति, एकता और सद्भाव’ के माध्यम से ही समस्याओं का समाधान किया जा सकता है और उन्होंने भरोसा जताया कि सभी मुद्दों का हल बातचीत के जरिए किया जा सकता है।

अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में मोदी ने संबोधन की शुरूआत 18 सितम्बर को हुए उरी हमले में शहीद 18 जवानों को श्रद्धांजलि देने के साथ की।

उन्होंने कहा, ‘‘यह कायरतापूर्ण कृत्य पूरे देश को झकझोरने के लिए काफी था। इसको लेकर देश में शोक और आक्रोश दोनों है।’’ प्रधानमंत्री ने कहा, ‘‘यह क्षति सिर्फ उन परिवारों की नहीं है जिन्होंने अपने बेटे, भाई और पति खोए हैं। यह क्षति संपूर्ण देश की है। इसलिए आज मैं वही कहूंगा जो मैंने उस दिन :घटना के दिन: भी कहा था और आज फिर दोहराता हूं कि दोषियों को निश्चित रूप से दंडित किया जाएगा।’’ भारतीय सेना में विश्वास प्रकट करते हुए मोदी ने कहा कि वह अपने पराक्रम से इस तरह के सभी षडयंत्रों को विफल कर देगी।

उन्होंने कहा, ‘‘ये :सैनिक: वे लोग हैं जो अदम्य साहस दिखाते हैं ताकि 125 करोड़ लोग शांतिपूर्ण ढंग से रह सकें।’’ मोदी ने कहा, ‘‘हमें अपनी सेना पर गर्व है। लोगों और नेताओं को बोलने के अवसर मिलते है और वे ऐसा करते भी हैं। परंतु सेना बोलती नहीं है। सेना अपना पराक्रम दिखाती है।’’ प्रधानमंत्री ने 11वीं कक्षा के एक छात्र का संदेश पढ़ा जिसने उरी की घटना को लेकर आक्रोश प्रकट किया था और इसको लेकर कुछ करने की इच्छा जताई थी। इस छात्र ने काफी सोचने के बाद यह संकल्प लिया कि वह रोजाना तीन घंटे अतिरिक्त पढ़ाई करेगा ताकि देश के लिए योगदान दे सके।

 

अंगिरा के चरित्र में स्त्री के आक्रोश को अभिनय से मुखर करता कल्पना का अभिनय

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  •  सूर्यकांत तिवारी

  • suryakantरंग प्रवाह नवीनतम प्रस्तुति  अंगिरा देखने का मौका मिला। वैसे इस नाटक के कलाकार तथा नेपथ्य कर्मियों मे से अधिकाँश मेरे बहुत ही करीबी हैं या यूँ कहें कि मेरे सहकर्मी है…वर्षों से इनके साथ काम करने का सौभाग्य रहा है। नाटक की पृष्ठभूमि नारी केन्द्रित है…आज के पुरूष शासित समाज में एक नारी का आक्रोश…

आज की नारी मैथिली शरण गुप्त की अबला नारी..”अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी” नहीं रह गयी है बल्कि वो अपने हक की लड़ाई लड़ना जानती है…प्रतिवाद और प्रतिशोध की ज्वाला उसके अन्दर भी धधकती है।
नाटक “अंगिरा” की कहानी एक नारी के अंतरद्वन्द की कहानी है..जिसके चरित्र पर बचपन से सामाजिक रूढवादी प्रवृत्तियाँ थोप दी जाती है..खाना, पहनना, उठना, बैठना सबकुछ…
एक ही घर में एक तय समय सीमा के भीतर एक लड़की और एक लड़का रहते है जो एक दूसरे से अपरिचित है…बचपन से अपने आस-पास तथा अपने घर में हुए..व्यवहार को अंगिरा भूल नहीं पाती है…और कभी-कभी तो उद्विगन हो उठती है…जैसे किसी दूसरे लोक की प्राणी हो…
अचानक एक दिन मोएज़ घर आता है..और अपनी कुर्सी पर अंगिरा को बैठे पाता है…आगे की कहानी विभिन्न नाटकीय मोड़ से गुज़रती हुई..
आगे बढ़ती है…नाटक के अंत में जब दरवाज़े पर दस्तक होती है….अंगिरा मोएज़ को रोक कर स्वयं आगे बढ़ती है..नारी चरित्र के विभिन्न रूप को दर्शाती अंगिरा…जहाँ…धधकती ज्वाला है…वही ज़रूरत पड़ने पर शीतल..निर्मल सरीता सी प्रवाहित हो सकती है….नाट्य रचना.. प्रो. गौतम चट्टोपाध्यायका है..और निर्देशन काशी वासी..जयदेव दास ने किया है..
एक संक्षिप्त वार्तालाप के दौरान यह पूछने पर की “अंगिरा” ही क्यों ?..कल्पना ने बताया कि जयदेव कुछ और नाटक भी लेकर आये थे लेकिन कुछ न कुछ समस्या आ जाती थी।

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नाटक कम पात्रों को लेकर करने का विचार था..अंत में “अंगिरा” का चयन सर्वसम्मति से हुआ….
अंगिरा के चरित्र में खुद कल्पना है..
एक नाट्य कर्मी होने के नाते नाटक तैयार करने और उनमें आने वाली परेशानियों से मैं पूरी तरह वाकिफ़ हूँ…
रिहर्सल की जगह, समय आदि…और जब बात एक Working lady की हो तो हम समझ सकते है..यह कितना दुरूह कार्य हो जाता है….घर, परिवार, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और अपना कार्य क्षेत्र…इन सबसे सामनजस्य बैठाकर नाटक में पूर्ण योगदान देना।
वाकई बहुत मुश्किल काम है…लेकिन प्रचलित कहावत के अनुसार..”जहाँ चाह वहाँ राह” जब कुछ करने की सच्ची लगन हो..रास्ते खुद ब खुद बनते चले जाते है…रिहर्सल के लिए कल्पना ने अपने घर में ही जगह दी..सुबह रिहर्सल के लिए था…शाम परिवार के लिए…इस प्रक्रिया में कल्पना के परिवार का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है…पति विक्रम झा जो इस नाटक के तकनीकी सलाहकार भी है संपूर्ण सहयोग किया है.. नाटक का प्रकाश संयोजन संजीव बन्द्योपाध्याय ने किया है..संजीव एक कुशल अभिनेता के रूप में जाने जाते है..प्रकाश संयोजक के रूप मे इनका पहला काम है..जो इन्होंने कुशलता पूर्वक किया है.. नृत्य संयोजन  पायल पॉल तथा ध्वनि संयोजन कोयल का है। पार्श्व ध्वनि रायपुर आकाशवाणी की प्रोग्राम प्रेजेंटर श्रीमती अनीता सिंह की है।
अंगिरा के रूप में कल्पना के नये अवतार को देखकर दर्शक कहीं खो जाते है….और नाटक समाप्त होने पर तंद्रा टूटती है….फिर पिछली दुनिया को टटोलने की कोशिश करते है जहाँ कुछ देर पहले हम सफर कर रहे थे….
अभिनय की बारीकियाँ कल्पना जानती है, समझती है..ये अभिनय जीवन में कई प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ काम कर चुकी है…विशेषकर रंगकर्मी ..उषा गांगुली के साथ..इनके पूर्व नाटक “रूदाली” “बदनाम मंटो” “काशीनामा” में भी इन्होंने अपने अभिनय की छाप छोड़ रखी है…अंगिरा का अभिनय इनके अभिनय जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव है..और हमेशा याद किया जाता रहेगा…जयदेव एक कुशल अभिनेता के साथ..साथ एक कुशल निर्देशक के रूप में अपने आप को स्थापित कर चुके हैं…इसमें कोई संदेह नहीं है…यह नाटक एक बार देखने के बाद एक बार और देखने की ललक बनी रहती है।

(लेखक वरिष्ठ रंंगकर्मी हैं)

 

 

बंगलुरु में शुरू हुआ एशिया का पहला फूड ट्रक, जिसमें सभी सदस्य हैं महिलाएँ

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आज कल भारत के कई शहरों में फूड ट्रक्स का प्रचलन जोरों पर है, क्योंकि यह आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, बगैर किसी मशक्कत के।ऐसे ही एक फूड ट्रक की शुरुआत पिछले सप्ताह बंगलुरु में की गयी, जिसका नाम ‘सेवेन्थ सिन’ रखा गया। इस फूड ट्रक की खासियत ये है, कि यह एशिया का पहला ऐसा फ़ूड ट्रक है,जिसकी सभी सदस्य महिलाएँ हैं।

‘सेवेन्थ सिन हॅास्पिटैलिटी सेवा’ की संस्थापिका अर्चना सिंह हैं। इस तरह के फूड ट्रक की स्थापना का ख्याल उनके दिमाग में दो साल पहले आया। उन्होंने इस हॅास्पिटैलिटी सेवा का नाम ‘सेवेन्थ सिन’, ईसाई धर्म के’ कार्डिनल सिन’ के नाम पर रखा और इसी आधार पर उनका मेनू भी है, जिसे देखकर ग्राहकों को भी कुछ शरारत जरूर सूझेगी। इस फूड ट्रक सर्विस के सभी कार्य, जैसे की, ट्रक चलाना, हिसाब किताब संभालना, साफ-सफाई और खाना पकाना महिलाओं द्वारा ही किया जाता है।

सेवेन्थ सिन की संस्थापिका अर्चना सिंह ने इण्डिया फूड नेटवर्क को बताया कि वह हमेशा ही से ऐसी इन्सान बनना चाहती थीं, जो महिलाओं को रोजगार उपलब्ध कराए। वे मानती है कि महिलाओं को आत्मनिर्भर होना चाहिए, चाहे वह किसी भी सामाजिक-आर्थिक परिवेश की हो।

उन्होंने अपने पकवानों का नाम “ग्लोकल” रखा है, जिसका मतलब है कि इस रसोई में आपको पूरी दुनिया का स्वाद मिलेगा, लेकिन भारतीय स्वाद के साथ लपेटकर। चिकन टिक्का पास्ता, मलाई वेजी रिसोटो, क्वेसडिला विद चेटीनाड साइड्स और इण्डो-पैन एशियन राइस जैसे व्यजंन उनके मेनू का हिस्सा हैं। अर्चना अपने काम के जरिए सामाजिक बदलाव के लिए प्रयासरत हैं। एक तरफ जहाँ सेवेन्थ सिन में नियुक्त किये गए शेफ्स (बावर्ची) जाने -पहचाने ब्राण्ड्स के साथ काम कर चुके हैं, वहीं अन्य महिला स्टाफ में ऐसी महिलाओं को नियुक्त किया गया है, जो समाज के कमजोर तबक़े से जुड़ी हैं।

वे सप्ताह में तीन दिन काम करती हैं और सातवें दिन मंदिर,गुरुद्वारे,चर्च और मस्जिद में नि:शुल्क  भोजन उपलब्ध कराती हैं। अपने नारी सशक्तिकरण के सूत्र को विस्तृत करने के लिए वे हर बुधवार को ‘महिला दिवस’ के रुप में मनाती हैं, जिसमें सामान्य दरों पर मेनू में कुछ खास व्यजंन भी दिए जाते हैं।

(साभार – द बेटर इंडिया)

माँ

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  • रेखा श्रीवास्तव

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स्मार्ट मोबाइल की तरह

बढ़ गई है माँ की जिम्मेदारियाँ भी

उसे अब केवल जन्म देकर

बच्चियों की संख्या नहीं बढ़ानी है

उसे देना है अपनी  बच्चियों को

समाज में जीने की सीख

अपने को मजबूत बनाने की सीख

केवल पढ़-लिख कर नहीं, हर क्षेत्र में

पहुँचने की सीख

सिंधु और साक्षी बनने की सीख

उसे देनी है केवल आगे बढ़ने की सीख नहीं

रोटी-रोजी की जुगाड़ के साथ

खुद को पहचानने की सीख

स्मार्ट मोबाइल की तरह

बढ़ गई है माँ की जिम्मेदारियाँ भी

बेटी को बताने के लिए कि

जिस हाथ में तुम पेंसिल पकड़ कर

लिखने की सीख सीखी थी

जरूरत पड़ने पर उसमें तीर-कमान

भी समायेंगे

जिस पाँव को तुमने ताल के साथ

नृत्य करने के लिए उठाया था

उसी से तुम हमला कर किसी को पटक सकती हो

अब तक बताया गया कि

तुम शारीरिक रूप से कमजोर हो

तुममें केवल जनने की क्षमता है

पर यह गलत है

हम अगर पैदा कर सकते हैं,

विकसित कर सकते हैं

तो हमें ही अधिकार है

कि हम ही ध्वंस करेंगे

पर हम ऐसा नहीं करेंगे

क्योंकि हमें खुद बढ़ना है

क्योंकि स्मार्ट मोबाइल की तरह

बढ़ गई है माँ की जिम्मेदारियाँ भी।।

(कवियत्री वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

बंधु, दर्द तो मर्द को भी होता है

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  • सुषमा त्रिपाठी

सेक्टर फाइव से हावड़ा जाने वाली बस में चढ़ी थी। एक मित्र से मुलाकात हो गयी और मजाक ही मजाक में महिलाओं की सीट पर बैठे उस मित्र को हटाकर मैं बैठ गयी। महिलाओं की सीट को लेकर अधिकार जताने का काम हममें से अधिकतर महिलाएं करती हैं, मैंने भी किया मगर इसी सोच के साथ एक और ख्याल जुड़ा कि अक्सर 2 – 3 घंटे का सफर पुरुष भी ऐसे ही तय करते हैं। कोलकाता के सॉल्टलेक सेक्टर फाइव जाने वाली बसें भले ही सियालदह से गुजरें या साइंस सिटी से, उनमें भीड़ बहुत होती है। इन बसों में चढ़ने वाले विद्यार्थी और प्रोफेशनल्स को देखकर आपको स्कूल जाते बच्चे याद आ सकते हैं क्योंकि दोनों के बैग लगभग बैगपैक ही लगते हैं और उम्र इसमें बाधा नहीं बनती। खचाखच भरी बस में कुछ मनचले भी चढ़ते हैं जो लड़कियों को छूने का एक भी मौका हाथ से नहीं जाने देते और कुछ ऐसे भी हैं जो किसी भी तरह सीट से हिलते भी नहीं हैं मगर इसके अलावा भी पुरुषों का एक बड़ा वर्ग है जो बसों के तमाम धक्कों के बावजूद किसी सिपाही की तरह भारी बैग लेकर तनकर खड़ा रहता है क्योंकि जरा सा स्पर्श उनको मनचलों की श्रेणी में ही ला देगा जो वे नहीं चाहते। आखिर इज्जत का मामला है तो जनाब लड़कियों को ही नहीं बल्कि लड़कों को भी अपने सम्मान का उतना ही ख्याल है।  आज हम ऐसे ही संवेदनशील पुरुषों को लेकर इसलिए बात कर रहे हैं क्योंकि महिला सशक्तीकरण के दौर में उनकी बात पीछे छूटती चली जा रही है और अधिकतर पुरुष इसलिए अपनी बात नहीं रखेंगे क्योंकि उनकी नजर में यह उनको कमजोर बनाता है। मैं महिला हूँ और महिला सशक्तीकरण में पुख्ता यकीन भी रखती हूँ मगर मेरा यह भी मानना है कि महिला सशक्तीकरण का अर्थ पक्षपात नहीं है और न ही यह लैंगिक समानता को सही तरीके से परिभाषित करता है। संवेदनशीलता लड़कियों के लिए ही नहीं लड़कों के लिए भी जरूरी है और जो भी घटनाएं पुरुषों की संवेदनहीनता के कारण हो रही हैं, वह इसलिए क्योंकि आपने उनको मजबूत बनने का ऐसा आवरण पहनाया है कि वे इंसान होना ही भूल गए हैं और मर्द होने का मतलब हिंसक होना समझ बैठे हैं। आपने उनको तकलीफ सहना सिखाया मगर खुलकर अपनी अभिव्यक्ति जाहिर करना भूल गए और नतीजा यह है कि जब वे तकलीफ जाहिर नहीं कर पाते तो या तो प्रतिशोध लेते हैं या फिर पत्थर बन जाते हैं। एक इंसान के तौर पर रोना मेरी नजर में कमजोरी नहीं है क्योंकि यह आपको कहीं न कहीं हल्का कर देता है और पुरुषों को यह छूट कभी नहीं दी गयी तो क्या यह असमानता नहीं है?  बहन भले ही कॉलेज में पढ़ रही हो मगर उसको छोड़ने और लेने उसका भाई ही जाएगा, फिर भले ही उसका ट्यूशन छूटे या क्लास छूटे और भले ही उसका इम्तहान हो और वह खुद बच्चा हो क्योंकि वह एक मर्द है। क्या यह असमानता नहीं है? आप लड़कियों पर इतना विश्वास रखकर उसे इतना सक्षम क्यों नहीं बनाते कि वह अपनी जिम्मेदारी खुद उठाए? मर्द होना तमाम इच्छाओं का मर जाना भी होता है क्योंकि बीबी भले ही शिक्षित हो, गुणी हो मगर जोरू का गुलाम कहे जाने के भय से वह उसे बाहर जाकर काम नहीं करने देगा, फिर भले ही ओवरटाइम करके बीमारियों का बोझ क्यों ही न बढ़ा ले। अगर रसोई में जाकर मदद करता है तो लोग कहेंगे कि बीबी ने उस पर जादू कर दिया है और नतीजा यह है कि बच्चों की परवरिश में हाथ बँटाकर उनके साथ वक्त बिताने की खुशी उसके हाथ से चली जाती है। आप थोड़ी देर के लिए क्यों नहीं मान सकते कि पुरुषों को भी महिलाओं की तरह घर की जरूरत है और घर की जिम्मेदारी उसकी भी है। वह अपनी बहन और माँ से लेकर पत्नी तक के ताने भी सुनता है क्योंकि वह उनकी बात कम सुनता है। अक्सर वह परिवार के लिए पैसे कमाने की मशीन से अधिक महत्व नहीं रखता औऱ ऐसे लोग ही अपराध के रास्ते पर बढ़ते हैं क्योंकि किसी भी तरह कमाने के चक्कर में वे भ्रष्टाचार और व्याभिचार, दोनों ही रास्तों पर चल पड़ते हैं। आप जरूरत नहीं समझते है कि लड़के कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं, किससे दोस्ती कर रहे हैं और होता यह है कि आवेश जैसे बच्चे गलत रास्ते पर चलकर जान गँवा बैठते हैं। लड़के किसी लड़की को छेड़कर आए या मारपीट कर के आएं तो भी परिवारों में उनके रुतबे पर खास असर नहीं पड़ता और नतीजा पार्क स्ट्रीट और निर्भया कांड में दिखता है। लड़कों को लड़का होने के कारण कुछ भी करने की छूट देना खुद लड़कों के साथ भी तो अन्याय ही है क्योंकि आपने उनसे एक अच्छा इन्सान बनने का मौका छीन लिया और उसकी परिणति यह हुई कि वह आगे चलकर एक अपराधी बन जाता है। ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता था अगर उनके घरों में ही उनकी गलतियों पर परदा नहीं डाला जाता मगर मोह में ऐसा नहीं हुआ तो लड़कों से अधिक बड़ा अपराध तो इन घरों में हुआ और हो रहा है। बसों में अक्सर देखती हूँ कि सीटें खाली रह जाती हैं और पुरुष खड़े होकर कई घंटे यात्रा करता हैं, बैग अगर भारी भी हुआ तो कोई हाथ नहीं बढ़ाता कि उसका बोझ थोड़ी देर के लिए उठा ले जिससे उसके कंधों को जरा सा आराम मिले, क्योंकि वह मर्द है और युवा भी है। क्या युवा पुरुष होना गुनाह है और क्या यह असमानता नहीं है?  हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि पुरुष या स्त्री ने जरा सा मदद का हाथ बढ़ाया नहीं कि लोग चक्कर ढूँढने बैठ जाते हैं और चरित्र का थर्मामीटर लेकर इश्क का बुखार उतारने वाले डॉक्टर बन जाते हैं। नतीजा यह है कि सड़क पर कोई मर भी जाए तो लोग सामने नहीं आएंगे और जिसने बेपरवाह होकर किसी लड़के या लड़की की मदद कर दी, वह निरा घनघोर चक्करबाज बना दिया जाता है और ऐसे समाज में आप संवेदनशीलता खोजेंगे तो वह दूरबीन लेकर ढूँढने से नहीं मिलने वाली है। यह सही है कि लड़कियों का शोषण होता है और उनका फायदा भी उठाया जाता है मगर यह भी सही है कि कुछ लड़कियाँ आगे बढ़ने के लिए शॉर्टकट अपनाती भी हैं और काम से अधिक अपने हाव – भाव और परिधानों से भी बॉस को आगे बढ़ने की सीढ़ी भी बनाती हैं। इसका खामियाजा भी उन लड़कियों को उठाना पड़ रहा है जो सचमुच काम करना चाहती हैं क्योंकि उपरोक्त देवियों की मेहरबानी से बॉस उनसे भी कुछ स्पेशल ट्रीटमेंट चाहने लगते हैं। ऑनर किलिंग का शिकार लड़के भी होते हैं और यकीन न हो तो जोड़ों में आत्महत्या करने वाले या फाँसी पर लटकाए जाने वाले युवाओं को याद कर लीजिए। रिजवानुर के मामले में भी यही हुआ क्योंकि उनकी मौत के बाद भी उसका इस्तेमाल भी उनके अपनों ने भी किया। आज सब अपनी – अपनी जगह पर हैं मगर जान तो रिजवानुर को गँवानी पड़ी। कई ऐसे लड़के हैं जिनकी ऐसी नियति हुई है और वह एक असफल विवाह को ढोकर अपनी और अपनी पत्नी का जीवन नष्ट कर रहे हैं क्योंकि उनकी खीझ और उनका गुस्सा घरेलू हिंसा, अवैध संबंध, हत्या और नशे के रूप में निकल रहा है। रैगिंग का शिकार भी अक्सर लड़के ही होते हैं और यकीन न हो तो आँकड़े यूजीसी से माँगकर देख लीजिए। हम तो चाहेंगे कि मोदी जी अगली बार सेल्फी विद् किड्स का नारा दें क्योंकि डॉटर अगर प्यारी है तो सन ने कोई गुनाह नहीं किया। कल्पना कीजिए कि 4 साल के बच्चे के सामने उसकी बहन की तस्वीर आप भेजकर सोशल मीडिया पर महान बनते हैं तो वह बच्चा अपनी बहन को दुश्मन नहीं समझेगा तो क्या समझेगा? क्या यह असंतुलन लाना नहीं है। कहने का मतलब यह है कि संवेदनशील होना पुरुषों की कमजोरी नहीं, ताकत है और बच्चों पर जबरन मर्दाना बोझ न लादकर इंसान बने रहने दीजिए, उसे एक सामान्य परवरिश दीजिए, अगर कोई तकलीफ है तो उनकी बात सुनिए और उसे खुलकर रोने और हल्का होने दीजिए क्योंकि ये इंसान होने के नाते उसका हक है और क्योंकि बंधु मानों या न मानो, दर्द तो मर्द को भी होता है और उसे स्वीकार कर आगे बढ़ना आपके साथ समाज की सेहत के लिए भी बहुत अच्छा होता है।

पैरालंपियन भी शीर्ष सम्मान और पुरस्कारों के हकदार : मिल्खा सिंह

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चंडीगढ़ – महान एथलीट मिल्खा सिंह का मानना है कि परालम्पिक एथलीट भी देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कारों और सम्मान के हकदार हैं।‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से मशहूर मिल्खा ने कहा, ‘‘ये एथलीट भी देश के सर्वोच्च सम्मान और पुरस्कार के हकदार हैं क्योंकि ये उदाहरण है कि समाज कड़ी मेहनत, दृढ़ निश्चय और प्रतिबद्धता से क्या क्या हासिल कर सकता है। ’’ मरियप्पन थांगवेलु ने रियो परालम्पिक खेलों में पुरूषों की टी42 उंची कूद स्पर्धा में स्वर्ण, वरूण भाटी ने इसी स्पर्धा में कांस्य पदक और दीपा मलिक ने महिलाओं की एफ53 गोलाफेंक स्पर्धा में रजत और देवेंद्र झाझरिया ने पुरूष एफ46 भाला फेंक स्पर्धा में स्वर्ण पदक अपने नाम किया है। इसके बाद मांग उठ रही है कि परालम्पिक पदकधारियों को भी राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाजा जाये।
ओलंपिक पदक जीतने वाला खिलाड़ी स्वत: ही ओलंपिक वर्ष के दौरान खेल रत्न पुरस्कार के लिये क्वालीफाई कर लेता है लेकिन पैरालम्पियनों के लिये इस तरह की कोई नीति नहीं है। मिल्खा सिंह 1960 रोम ओलंपिक में करीब से कांस्य पदक से चूक गये थे। उन्होंने रियो परालम्पिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों को उनके प्रयास और सफल प्रदर्शन के लिये बधाई दी।
उन्होंने कहा, ‘‘2014 में मुझे भारतीय परालम्पिक समिति ने ‘स्पोर्ट्स फॉर डेवलपमेंट रन’ को हरी झंडी दिखाने के लिये आमंत्रित किया था और मैं उस दिन वहां परालम्पिक एथलीटों से मिलकर उनके उत्साह से काफी हैरान था। ’’

 

दाना मांझी बोले- बेटियों को डॉक्टर- आईपीएस बनाऊंगा

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नई दिल्ली.ओडिशा के दाना मांझी अपनी एक बेटी को डॉक्टर और दूसरी को पुलिस अफसर बनाना चाहते हैं, ताकि वे गांव के गरीबों की मदद कर सकें। मांझी वही शख्स हैं, जिन्हें पत्नी की मौत के बाद उसकी डेड बॉडी को कंधे पर लादकर मजबूरन 13 किमी पैदल चलना पड़ा था। कालाहांडी के हॉस्पिटल ने इन्हें एम्बुलेंस देने से इनकार कर दिया था। मामला सामने आने के बाद काफी विवाद हुआ था। गुरुवार को मांझी फ्लाइट से दिल्ली पहुंचे। उन्हें बहरीन के किंग की ओर से 8.87 लाख रुपए का चेक सौंपा गया। इस मौके पर मांझी ने बेटियों को आगे पढ़ाने की इच्छा जाहिर की।

”मैं चाहता हूं कि मेरी एक बेटी डॉक्टर बने और गांव के गरीबों की सेवा करे। दूसरी को पुलिस अफसर (आईपीएस) बनाना चाहता हूं।’ हॉस्पिटल का वाकया याद कर इमोशनल हुए मांझी ने कहा, “मैं कई बार लोगों के सामने गिड़गिड़ाया, लेकिन किसी ने मेरी नहीं सुनी।” ”डॉक्टरों ने भी कोई मदद नहीं की, क्योंकि मेरे पास एम्बुलेंस के लिए पैसे नहीं थे।”

– ”ऐसी स्थिति में मेरे पास सिर्फ एक ही रास्ता था कि पत्नी की बॉडी कंधे पर उठाऊं और बेटी के साथ घर की ओर चल दूं।’ बता दें कि अगस्त में कालाहांडी के सरकारी हॉस्पिटल में मांझी की पत्नी की मौत हो गई थी। उसे टीबी की बीमारी थी।  मांझी जब पत्नी का शव कंधे पर लेकर चले, तो उस दौरान उनके साथ रोते-बिलखते हुए बेटी चांदनी भी थी।

यह मामला कई दिनों तक सुखिर्यों में रहा था। सोशल मीडिया में मांझी को भारी समर्थन मिला था।

भुवनेश्वर का कलिंगा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (KISS) मांझी की बेटियों चांदनी (13), सोबेई (7) और प्रमिला को फ्री एजुकेशन देगा।  ओडिशा से दिल्ली आने के लिए इंस्टीट्यूट ने ही मांझी की एयर टिकट का इंतजाम किया। प्रोग्राम के बाद मांझी बोले- मैं फ्लाइट से ओडिशा जाऊंगा। KISS के फाउंडर और सोशल वर्कर अचुत्य सामंता ने मांझी के केस को बहरीन के किंग के पास पहुंचाया था। मांझी को सुलभ इंटरनेशनल से भी 5 लाख रुपए की मदद मिली है। बेहद गरीब मांझी के पास सरकार की दी हुई थोड़ी जमीन है, जिसमें वे खेती कर गुजर-बसर करते हैं।