Monday, September 15, 2025
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जानिए ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं का अन्तर

 जन औषधि स्टोर में दवाएं मिलती हैं 90 प्रतिशत तक सस्ती
नयी दिल्ली । सस्ता और महंगा का खेल दवाओं के बाजार  में भी स्पष्ट दिखता है। आमतौर पर ब्रांडेड दवाएं (पेटेंटेड दवाएं) महंगी होती हैं जबकि जेनेरिक दवाएं सस्ती। कई मामलों में तो जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड के मुकाबले 90 फीसदी तक सस्ती होती हैं। प्रधानमंत्री जन औषधि योजना में जेनेरिक दवाएं ही होती हैं। और, इनका दावा है कि जन औषधि स्टोर  में दवाएं 90 फीसदी तक सस्ती हैं। जेनेरिक दवाएं सस्ती होने के कारण लोग उसकी क्वालिटी और उसके पावर पर शक करने लगते हैं। डॉक्टरों का कहना है कि लोगों को महंगी दवाएं लिख दीजिए तो वह खुशी-खुशी इसे ले लेगा। लेकिन यदि सस्ती दवाएं लिखिए तो फिर उन्हें लगता है कि डॉक्टर साहब ने ठीक से देखा नहीं। उनका कहना है कि लोगों को जेनेरिक दवाओं की सच्चाई पता नहीं होती है। हम आपको बता रहे हैं इस बारे में सब कुछ..
क्या होती है जेनेरिक दवा?

फार्मेसी बिजनस में जेनेरिक दवाएं (Generic Medicine) उन दवाओं को कहा जाता है जिनका कोई अपना ब्रांड नाम नहीं होता है। वह अपने सॉल्ट नेम से मार्केट में बेची और पहचानी जाती है। जेनेरिक दवा बनाने वाली कुछ कंपनियों ने अपना ब्रांड नाम भी डेवलप कर लिया हे। तब भी ये दवाएं काफी सस्ते होते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि ये जेनेरिक दवाओं की श्रेणी में आते हैं। सरकार भी जेनेरिक दवाओं को प्रोमोट कर रही है। प्रधानमंत्री जन औषधी परियोजना इसी की कड़ी है। इस परियोजना के तहत देश भर में जेनेरिक दवाओं के स्टोर खोले जा रहे हैं।
क्या जेनेरिक दवाओं का असर कम होता है?

जेनरिक दवाओं का असर भी ब्रांडेड दवाओं के समान ही होता है। क्योंकि इन दवाओं में भी वही सॉल्ट होता है, जो ब्रांडेड कंपनियों की दवाओं में होता है। दरअसल जब ब्रांडेड दवाओं का सॉल्ट मिश्रण के फार्मूले और उसके प्रोडक्शन के लिए मिले एकाधिकार की अवधि समाप्त हो जाती है तब वह फार्मूला सार्वजनिक हो जाता है। उन्ही फार्मूले और सॉल्ट के उपयोग से जेनरिक दवाईयां बननी शुरू हो जाती है। यदि इसका निर्माण उसी स्टेंडर्ड से हुआ है तो क्वालिटी में यह कहीं भी ब्रांडेड दवाओं से कमतर नहीं होता है।
जेनेरिक दवाएं सस्ती क्यों होती हैं?

जानकारों का कहना है कि जेनेरिक दवाओं के सस्ती होने के कई कारण हैं। एक तो इसके रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए कंपनी ने कोई खर्च नहीं किया है। किसी भी दवा को बनाने में सबसे बड़ा खर्च आरएंडडी का ही होता है। यह काम दवा को खोजने वाली कंपनी कर चुकी है। इसके प्रचार प्रसार के लिए भी कोई खर्च नहीं करना होता है। इन दवाओं की पैकेजिंग पर कोई खास खर्च नहीं किया जाता है। इसका प्रोडक्शन भी भारी पैमाने पर होता है। इसलिए मास प्रोडक्शन का लाभ मिलता है।
जेनेरिक और ब्रांडेड (पेटेंटेड दवाईयों) में क्या अंतर है?

जेनेरिक दवाएं, पेटेंटेड या ब्रांडेड दवाओं की तरह ही होती हैं। कई मामलों में देखा गया है कि ब्रांडेड कंपनियों का भी एपीआई या रॉ मैटेरियल वहीं से आया है जहां से जेनेरिक दवाओं का। जेनेरिक दवाओं को अगर मूल दवाओं की तरह ही एक समान खुराक में, उतनी ही मात्रा और समान तरीके से लिया जाए तो उनका असर भी पेटेंट या ब्रांडेड दवा की तरह ही होगा। जेनरिक दवाओं का जैसे मूल दवाओं की तरह सकारात्मक असर होता है वैसे ही समान रूप से नकारात्मक असर भी समान रूप से हो सकता है। जेनरिक और ब्रांड नेम वाली दवाईयों में मुख्य रूप से ब्रांडिंग, पैकेजिंग, स्वाद और रंगों का अंतर होता है। इनकी मार्केटिंग स्ट्रेटजी में भी अंतर है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दवाईयों की कीमतों में भी बहुत अंतर होता है। आखिर ब्रांड की तो कीमत चुकानी ही होगी।
जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं को कैसे पहचानेंगे?

जेनेरिक दवाओं का अक्सर मूल दवाओं (पेटेंटेड दवाओं) के जैसा या अलग नाम होता है। केमिस्ट जेनेरिक दवाओं में प्रयोग होने वाले सॉल्ट्स की पूरी जानकारी रखते हैं और वे ग्राहकों को इसके बारे में बता भी सकते हैं। दवाई का नाम इनकी पहचान के लिए महत्वपूर्ण संकेतकों में से एक है। इसी तरह जेनेरिक दवाईयों की पहचान के लिए इंटरनेट पर सॉल्ट नेम के माध्यम से खोज की जा सकती है। इसके साथ ही जेनरिक दवाओं की कीमतें ब्रांडेड नाम वाली दवाओं की तुलना में बेहद कम होती हैं और उनका असर उतना ही होता है।
प्रधानमंत्री जन औषधि योजना की दवाएं सस्ती क्यों होती हैं?
प्रधानमंत्री जन औषधि योजना की दवाएं जेनेरिक ही होती हैं। उसकी पैकिंग साधारण होती है। इसके प्रचार प्रसार पर भी ज्यादा खर्च नहीं होता है। सबसे बड़ी बात कि इस योजना से जुड़े दुकानदारों को दवाओं की बिक्री पर मार्जिन भी कम होता है। इसलिए ग्राहकों के लिए जन औषधि स्टोर की दवाएं सस्ती पड़ती है।
(साभार – नवभारत टाइम्स)

कभी फीस न भर पाने के कारण छूट रही थी पढ़ाई, आज हिजाब पहन उड़ा रही हैं प्‍लेन

नयी दिल्‍ली । नाम है सैयदा सल्‍वा फातिमा। उम्र 34 साल। कभी पढ़ाई जारी रखने के लिए फीस भरने का पैसा नहीं था। स्‍कूल से नाम कटने वाला था। आज वही बेटी हिजाब पहनकर प्‍लेन उड़ा रही है। फातिमा के पापा प्‍यार से उन्‍हें ‘मिरैकल गर्ल’ बुलाते हैं। उनकी जिंदगी में ये म‍िरैकल होते भी रहे हैं। ईश्‍वर का दूत बनकर उनकी मदद के लिए कोई न कोई ‘फर‍िश्‍ता’ हर बार उतर आया। इससे न फातिमा की पढ़ाई छूटी और न ही उनका सपना टूटा। फातिमा की कहानी संघर्षों से भरी हुई है। पुराने हैदराबाद में पली-बढ़ी फातिमा इस शहर की पहली वुमन कमर्शियल पायलट हैं।
फातिमा का बचपन हैदराबाद के मोघलपुरा के उस इलाके में गुजरा जहां आज भी कई लोगों को पीने के पानी तक के लिए संघर्ष करना पड़ता है। फातिमा देश की उन चंद मुस्लिम महिलाओं में हैं जिनके पास कमर्शियल पायलट लाइसेंस है। उन्‍हें कभी इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि लोग उनके बारे में क्‍या कहते हैं। हिजाब पहनकर कॉकपिट में बैठने के बाद वो सिर्फ मंजिल तक पहुंचने के बारे में सोचती हैं। पिता सैयद अशफाक अहमद उन्‍हें प्‍यार से ‘मिरैकल गर्ल’ बुलाते हैं। इसके पीछे कारण भी हैं।
सेंट ऐन्‍स जूनियर कॉलेज में इंटरमीडिएट करते वक्‍त दोबारा पैसों की किल्‍लत फातिमा के सामने आई। कॉलेज की फीस जमा न होने के कारण फिर उनका नाम कटने को था। फीस न दे पाने वाले बच्‍चों की कतार में वह खड़ी हुई थीं। तभी एक टीचर की उन पर नजर पड़ी। उन्‍होंने फातिमा की फीस भरने का फैसला किया। इस तरह दूसरी बार उनकी जिंदगी में फरिश्‍ते की एंट्री हुई। फातिमा बताती हैं कि वह निजी तौर पर उन टीचर को जानती भी नहीं थीं। न ही कभी उन्‍होंने फातिमा को पढ़ाया था।
फिर शुरू हुआ आसमान छूने का सफर
इसके एक दशक बाद फातिमा ने तेलंगाना एविएशन अकैडमी में पहली बार सेसना स्‍कायहॉक उड़ाया। अभी वह एक टॉप एयरलाइन में फर्स्‍ट ऑफिसर के तौर पर एयरबस320 उड़ाती हैं। जल्‍दी ही वह ए380 विमान उड़ाने वाली हैं। एविएशन इंडस्‍ट्री ग्‍लैमर से भरी हुई है। इसमें ज्‍यादातर पैसेंजर भी खास वर्ग से होते हैं। लेकिन, हिजाब पहनकर प्‍लेन चलाने से वह कभी शर्मिंदा नहीं हुईं। वह कहती हैं, ‘उन्‍हें आसमान की ऊंचाई खींचती थी। वह हमेशा से एक पायलट बनना चाहती थीं। यह और बात है कि वह कभी भी प्‍लेन का टिकट नहीं खरीद सकती थीं। ये देखिए कि मेरी पहली फ्लाइट पैसेंजर सीट पर नहीं, कॉकपिट से हुई।’
दो बेट‍ियों की मां हैं फात‍िमा
फातिमा की शादी हो चुकी है। वह दो बेट‍ियों की मां हैं। छोटी बेटी छह महीने की है। किसी भी फ्लाइट को आसमान में ले जाते वक्‍त वह एक बात नहीं भूलती हैं। वह यह कि कॉकपिट में आते ही उन्‍हें सबकुछ भूल जाना है। पूरा फोकस प्‍लेन पर रखना है। वह कहती हैं कि उनके माता-पिता, पति और सास-ससुर हमेशा बहुत सपोर्टिव रहे हैं। यही कारण है कि वह अपने सपनों को जी सकीं। वह खुशनसीब थीं कि उन्‍हें कभी जेंडर या धार्मिक भेदभाव का भी सामना नहीं करना पड़ा। वह एयरलाइन की ओर से गिफ्ट किया गया हिजाब पहनती हैं। इसमें कोई भेदभाव नहीं होता है।
फातिमा कहती हैं कि बेटियों को पढ़ाना और हैदराबाद में अपना घर बनाना उनकी शीर्ष प्राथमिकता है। वह खूब मेहनत करेंगी ताकि उनकी बेटियों को वो सब न देखना पड़े जो उन्‍होंने देखा है। वह अपने पुराने शहर को भी नहीं छोड़ेंगी। यहीं से उनकी पहचान बनी है। यहीं से उन्होंने सबकुछ पाया है।

बरसाने की लठमार होली जैसी मशहूर है बिहार की छाता होली

समस्तीपुर । आमतौर पर रंगों का त्योहार होली का पर्व पूरे देश में मनाया जाता है। इस वर्ष भी होली को लेकर तैयारियां अंतिम चरण में है। वैसे, इस पर्व को मनाने को लेकर अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग परंपराएं भी देखने को मिलती हैं। ऐसे में बिहार के समस्तीपुर के एक गांव में अनोखी होली खेली जाती है, जिसमें आसपास के लोग भी हिस्सा लेने पहुंचते हैं। देश और दुनिया में जैसे मथुरा, ब्रज, वृंदावन की होली मशहूर है, वैसे ही समस्तीपुर के धमौन इलाके की छाता या छतरी होली प्रसिद्ध है। हालांकि इस छाता होली का उल्लास थोड़ा अलग होता है। इसकी तैयारी भी एक पखवाड़े पहले से ही शुरू हो जाती है।
बांस से तैयारी की जाती है छतरी
समस्तीपुर जिले के पटोरी अनुमंडल क्षेत्र के पांच पंचायतों वाले विशाल गांव धमौन में दशकों से पारंपरिक रूप से मनायी जानेवाली छाता होली को लेकर इस बार उत्साह दोगुना है। होली के दिन हुरिहारों की टोली बांस की छतरी तैयार करते हैं। इस बांस की छतरी के साथ फाग गाते निकलती है। पूरा इलाका रंगों से सराबोर हो जाता है। सभी टोलों में बांस के बड़े बडे़ छाते तैयार किए जाते हैं। इन्हें कागजों तथा अन्य सजावटी सामानों से आकर्षक ढंग से सजाया जाता है। धमौन में होली की तैयारी एक पखवाड़ा पूर्व ही शुरू हो जाती है। प्रत्येक टोले में बांस के विशाल, कलात्मक छाते बनाए जाते हैं।
पूरे गांव में तैयार होती हैं 30 से 35 छतरी
पूरे गांव में करीब 30 से 35 ऐसी ही छतरियों का निर्माण होता है। होली के दिन का प्रारंभ छातों के साथ सभी ग्रामीण अपने कुल देवता स्वामी निरंजन मंदिर परिसर में एकत्र होकर अबीर-गुलाल चढ़ाते हैं। इसके बाद ढोल की थाप और हारमोनियम की लय पर फाग के गीतों के साथ लोग गले मिलते हैं। दिनभर यही कार्यक्रम चलता है। ग्रामीण अपने टोले के छातों के साथ शोभा यात्रा में तब्दील होकर महादेव स्थान के लिए प्रस्थान करते हैं। परिवारों में मिलते-जुलते खाते-पीते यह शोभा यात्रा मध्य रात्रि महादेव स्थान पहुंचती है। जाने के क्रम में ये लोग फाग गाते हैं, लेकिन लौटने के क्रम में ये चैती गाते लौटते हैं। इस समय फाल्गुन मास समाप्त होकर चैत्र माह की शुरुआत हो जाती है।
छाता होली में शामिल होते हैं करीब 70 हजार लोग
ग्रामीण बताते हैं कि इस दौरान गांव के लोग रंग और गुलाल की बरसात करते हैं। कई स्थानों पर शरबत और ठंडाई की व्यवस्था होती है। ग्रामीणों का कहना है कि 5 पंचायत उत्तरी धमौन, दक्षिणी धमौन, इनायतपुर, हरपुर सैदाबाद और चांदपुर की लगभग 70 हजार आबादी इस छाता होली में हिस्सा लेती है। इसके लिए करीब 50 मंडली बनाई जाती है। एक मंडली में 20 से 25 लोग शामिल होते हैं। इस अनोखी होली की शुरूआत कब हुई इसकी प्रमाणिक जानकारी तो कहीं उपलब्ध नहीं है।
1930-35 में शुरू हुई थी छाता होली
गांव के बुजुर्ग हरिवंश राय बताते हैं कि इस होली की शुरुआत 8 दशक पहले करीब 1930-35 में बताई जाती है। अब यह होली इस इलाके की पहचान बन गई है। आसपास के क्षेत्र के सैकड़ों लोग इस आकर्षक और अनूठी परंपरा को देखने के लिए जमा होते हैं। ग्रामीण बताते हैं कि पहले एक ही छतरी तैयार की जाताी थी, लेकिन धीरे-धीरे इन छतरियों की संख्या बढ़ती चली गई। गांव के बुजर्ग मानते हैं कि आज के युवा भी इस परंपरा को जिंदा रखे हुए हैं। उनका मानना है कि इससे केल देवता प्रसन्न होते हैं और गांवों में एक साल तक खुशहाली बनी रहती है।

रियल एस्टेट में जमकर निवेश कर रहीं महिलाएं

नयी दिल्ली । महिलाएं अब गोल्ड, स्टॉक मार्केट और म्यूचुअल फंड में नहीं बल्कि रियल एस्टेट (Real Estate) में निवेश करना ज्यादा पसंद कर रही हैं। हाल ही में हुए एक सर्वे में यह बात सामने आई है। रियल एस्टेट कंसल्टेंट एनरॉक के एक सर्वे में पता चला है कि देश में 65 फीसदी महिलाएं अब निवेश के लिए रियल एस्टेट को ज्यादा पसंद कर रही हैं। जबकि 20 प्रतिशत महिलाएं शेयर बाजार और सिर्फ आठ प्रतिशत महिलाएं ही सोने में निवेश करना पसंद करती हैं। इस उपभोक्ता सर्वेक्षण के दौरान करीब 5,500 लोगों से सवाल किए गए, जिनमें से 50 प्रतिशत महिलाएं थीं। इसके आधार पर तैयार रिपोर्ट के अनुसार, कम-से-कम 65 प्रतिशत महिला प्रतिभागियों ने रियल एस्टेट में निवेश करना चाहती हैं जबकि 20 प्रतिशत महिलाओं ने शेयर बाजार में निवेश को तरजीह दी।
रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ आठ प्रतिशत महिलाओं ने सोना खरीदने और सात प्रतिशत ने सावधि जमाओं (एफडी) में निवेश को वरीयता दी। एनरॉक ने एक अन्य अध्ययन का जिक्र करते हुए कहा कि 83 प्रतिशत महिलाएं 45 लाख रुपये से अधिक कीमत का मकान तलाश रही हैं। करीब 36 प्रतिशत महिलाओं ने 45-90 लाख रुपये कीमत वाले मकान को वरीयता दी जबकि 27 प्रतिशत ने 90 लाख रुपये से 1.5 करोड़ रुपये के बीच के मकान को तरजीह दी। वहीं 45 लाख रुपये से कम कीमत के मकान खरीदने की इच्छा जताने वाली महिलाओं की संख्या कम थी।
एनारॉक ग्रुप के वाइस चेयरमैन संतोष कुमार के मुताबिक, पिछले एक दशक में, महिलाएं एक प्रमुख आवासीय रियल एस्टेट खरीदार के रूप में उभरी हैं। इसमें भी खासतौर पर शहरी क्षेत्रों की महिलाएं शामिल हैं। महिलाएं बड़े घरों से लेकर, रेडी-टू-मूव संपत्तियों और विशिष्ट बजट तक सभी सेक्टरों में खरीदारी कर रही हैं। सर्वे के मुताबिक, रियल एस्टेट में निवेश करने वाली महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। एनारॉक के मुताबिक, भारतीय महिलाएं अपने नाम पर संपत्ति खरीदने और पंजीकृत कराने के कई फायदे उठा सकती हैं।

10 साल की बेटी ने रुकवा दिया पिता का दूसरा ब्याह

पटना । ‘पापा दूसरा ब्याह करने जा रहे… हमारी देखभाल कौन करेगा, परिवार में हमें देखने वाला कोई नहीं है। इसलिए, कृपया इस शादी को रुकवा दीजिए।’ बिहार के शिवहर में 10 साल की एक बच्ची ने पुलिस में ये गुहार लगाई। यही नहीं बच्ची की इस अपील का असर हुआ, पुलिस टीम ने भी तुरंत एक्शन लेते हुए उस शख्स की दूसरी शादी नहीं होने दिया। इसके लिए पुलिस अधिकारी ने बाकायदा बच्ची के पिता से खास तौर पर बात की। उन्हें समझाया और फिर उन्हें दूसरी शादी नहीं करने के लिए राजी कर लिया। बच्ची ने थाने में लगाई गुहार
10 साल की एक बच्ची ने जिस बहादुरी से अपने पिता की दूसरी शादी को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए वो शहर में चर्चा का विषय बन गई। प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि वह बच्ची इसके लिए पुलिस स्टेशन पहुंची और अपने पिता का दूसरा ब्याह रुकवा कर ही दम लिया। जानकारी के मुताबिक, जो शख्स दूसरी शादी की तैयारी कर रहा था उसके पहले से 5 बच्चे हैं। इनमें चार लड़कियां हैं। इस शख्स का नाम मनोज कुमार राय है, जिसने दो साल पहले अपनी पहली पत्नी को खो दिया था। अब दूसरी शादी करने की तैयारी में था।बताया जा रहा कि जैसे ही 10 साल की बच्ची को पता चला कि उसके पिता मनोज एक मंदिर में किसी महिला संग शादी करने जा रहे तो वो परेशान हो गई। कुछ ग्रामीणों को साथ लेकर वो पिपराही थाने में पहुंची और पुलिस से पिता की दूसरी शादी रोकने की गुहार लगा दी। उसने पुलिस के सामने कहा कि ‘हमें सौतेली मां नहीं चाहिए, अगर पिता ने ये शादी की तो उनके लिए परेशानी का सबब बन सकता है।’
रोते हुए लड़की ने पुलिस को बताया कि कैसे उसके पिता होने वाली पत्नी को अपनी सभी 15 कट्ठा जमीन, जायदाद और दूसरी चीजें देने की तैयारी कर चुके हैं। अगर उन्होंने ऐसा किया तो हम 5 भाई-बहनों का क्या होगा। हमारी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। लड़की ने पुलिस से गुहार लगाई कि अगर मेरे पिता ने अपनी सारी जमीन-जायदाद महिला को गिफ्ट में दे दी तो हम कैसे जीवित रहेंगे? परिवार में हमारा ख्याल रखने वाला कोई नहीं है। इसलिए, प्लीज सर इस शादी को रोक दें। बच्ची के साथ-साथ उसके साथ आए ग्रामीणों ने भी पुलिस से यही अपील की।

80 साल के बुजुर्ग ने यूपी गवर्नर के नाम कर दी करोड़ों की जमीन

मुजफ्फरनगर । नालायक औलाद से आहत 80 साल के एक बुजुर्ग ने अपनी सारी संपत्ति की वसीयत राज्यपाल के नाम कर दी। वसीयत में यह भी घोषणा की कि उसकी मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार में भी उसकी नालायक औलाद शामिल न हो। ये मामला यूपी के मुजफ्फरनगर का है।
मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना तहसील के गांव बिराल निवासी 80 वर्षीय बुजुर्ग तत्थू सिंह का भरा पूरा परिवार है। पत्नी की 20 साल पहले बीमारी के चलते मौत हो चुकी है। नत्थू सिंह अपने हाथों से दो बेटों और चार बेटियों का विवाह कर चुके हैं। एक बेटे की मृत्यु हो चुकी है, जबकि दूसरा बेटा सहारनपुर में सरकारी शिक्षक है। पिछले 5 माह से नत्थू सिंह वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर हैं। बताया कि यह हालात तब बने, जब उन्हें रोटी भी नसीब होना मुश्किल हो गई। बेटे और पुत्रवधू के व्यवहार से आहत नत्थू सिंह ने बताया कि वह अपने हाथों से रोटी बनाते हैं और खाते हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने अपनी करोड़ों रुपये की लगभग 18 बीघा जमीन की वसीयत प्रदेश के राज्यपाल के नाम कर दी है। वह अपने बेटे को अपनी संपत्ति से बेदखल कर चुके हैं।
‘चाहे गोली मार दो एक बिस्सा ज़मीन नहीं दूंगा’
बेटे की नालायकी से आहत बुजुर्ग नत्थू सिंह ने कहा कि वह अदालत में भी जज के सामने कह चुका है कि चाहे उसे गोली मार दी जाए। एक बिस्सा जमीन किसी को नहीं देगा।
समाज के सामने पेश की है नजीर
80 वर्षीय बुजुर्ग नत्थू सिंह ने बताया कि नालायक औलाद को संपत्ति से बेदखल कर सारी जमीन की वसीयत राज्यपाल के नाम कर दी है। कहते हैं कि समाज के सामने उन्होंने यह एक नजीर पेश की है। आगे कहा कि पूरी चौबीसी में देख लिया जाए, क्या किसी की औलाद इतनी नालायक है? उन्होंने संपत्ति से बेटे को बेदखल कर आदर्श प्रस्तुत किया है, ताकि दूसरों की नालायक औलाद इस बात को समझ ले और प्रेरणा ले कि उनके साथ भी ऐसा हो सकता है।
बेटे बहू पर लगाए गंभीर आरोप
नत्थू सिंह ने कहा कि कई बार उनकी हत्या का प्रयास किया गया। आरोप लगाया कि उन्हें कमरे में बंद कर गला दबाने की कोशिश की गई। किसी तरह बच गए। बताया कि वह अपनी पुत्रवधू को बेटी की तरह मानते थे। हमेशा उसे बेटी कहकर पुकारते थे। आरोप लगाया कि उसने भी उनके साथ गलत व्यवहार किया।

 

नालंदा में 3 बहुओं के साथ परीक्षा में शामिल हुई सास

नालंदा । बिहार के नालंदा में बेहद अजब मामला सामने आया, जब 3 बहुओं के साथ सास भी परीक्षा में शामिल हुईं। अक्षर आंचल योजना के तहत चलाए जा रहे बुनियादी साक्षरता केंद्रों की नवसाक्षर महिलाओं की परीक्षा का आयोजन किया गया था। जिसमें चंडी के एक केंद्र का नजारा ही कुछ अलग था। यहां पर तीन बहुओं के साथ सास परीक्षा देते देखी गई। डीपीओ अनिल कुमार ने बताया कि जिले में संकुल स्तर पर 105 परीक्षा केंद्रों पर परीक्षा ली गई। इनमें 10 हजार 980 नवसाक्षर महिलाओं को शामिल होना था। लेकिन, नौ हजार 698 महिलाओं ने ही परीक्षा दी।
चंडी में 3 बहुओं के साथ सास ने दी परीक्षा
चंडी मध्य विद्यालय केंद्र पर तीन बहुओं के साथ सास ने परीक्षा दी। केआरपी ने बताया कि प्रखंड में 740 नवसाक्षर महिलाओं को परीक्षा में शामिल होना था। लेकिन, 547 ने ही परीक्षा दी। परीक्षा दे रहीं तीन बहुओं की सास स्वारती देवी ने कहा कि अपना हस्ताक्षर करने और हिन्दी पढ़ने-लिखने का ज्ञान हासिल हो चुका है। इस परीक्षा में शामिल होकर काफी खुशी हो रही।

अफगान की युवती ने सूरत की यूनिवर्सिटी में रही अव्वल

कहा – 3 साल से घर नहीं जा पाई, यह मेरा तालिबान को जवाब

सूरत । अफगान महिला रजिया मुरादी ने गुजरात की एक यूनिवर्सिटी से एमए (पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन) में स्वर्ण पदक जीतकर तालिबान को करारा जवाब दिया है। गोल्ड मेडल जीतने वाली रजिया ने कहा, ‘मैं तालिबान को बताना चाहती हूं कि अगर मौका दिया जाए तो महिलाएं किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर सकती हैं।’ रजिया ने तालिबान में महिलाओं के अधिकारों और स्वतंत्रता को लेकर और महिला छात्रों को स्कूलों और विश्वविद्यालयों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाने के लिए अफगानिस्तान के शासकों पर निशाना साधा।
रजिया मुरादी ने 8.6 संचयी ग्रेड हासिल किए हैं। यह औसत उनके विषय में सबसे ज्यादा स्कोर है। सूरत में वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय में सोमवार के दीक्षांत समारोह का आयोजन किया गया। इस दौरान रजिया को गोल्ड मेडल मिला तो वह सबसे बड़ा आकर्षण रहीं।
यूनिवर्सिटी से ही कर रहीं पीएचडी
रजिया ने बताया कि उन्होंने 2022 में अपने एमए की डिग्री पूरी की। अभी वह यूनिवर्सिटी में ही पढ़ रही हैं और लोक प्रशासन में पीएचडी कर रही हैं। अपने विभाग में टॉप करने वाली रजिया को स्वर्ण पदक के अलावा, शारदा अम्बेलाल देसाई पुरस्कार भी मिला है। वह इस मौके पर खुश भी थीं और उदास भी।
3 साल से नहीं गईं अपने घर
रजिया ने कहा कि 2020 में भारत आने के बाद से वह अपने घर नहीं गई हैं। उन्होंने कहा, ‘मैं पदक के लिए खुश हूं, लेकिन तीन साल से अपने परिवार से नहीं मिल पाने का दुख है।’ स्वर्ण पदक मिलने की खुशी वह अपने परिवार के साथ फोन पर ही शेयर करेंगी। रजिया ने कहा कि अफगानिस्तान से भारत आने के बाद उनका देश काफी बदल गया है। 2021 में तालिबान की सत्ता में वापसी हुई है।
तालिबानी शासन के नियम
तालिबान ने इस्लामिक कानून की अपनी सख्त व्याख्या को व्यापक रूप से लागू किया है। महिलाओं के लिए औपचारिक शिक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया है। महिलाओं को अधिकांश रोजगार से प्रतिबंधित है। उन्हें सार्वजनिक रूप से सिर से पैर तक के कपड़े पहनने का आदेश दिया गया है।
लौटना चाहती हैं अफगानिस्तान
रजिया ने कहा, ‘मैं अफगानिस्तान की महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हूं। मुझे यह अवसर प्रदान करने के लिए मैं भारत सरकार, आईसीसीआर, वीएनएसजीयू और भारत के लोगों का आभारी हूं।’ रजिया मुरादी का सपना अपनी जन्मभूमि पर लौटना और वहां काम करना है।
भारत में पढ़ रहे 14000 अफगानी छात्र
अफगानिस्तान के लगभग 14,000 छात्र भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और अन्य संस्थानों की छात्रवृत्ति सहायता से भारत में अध्ययन कर रहे हैं। पुरुषों सहित उनमें से अधिकांश ने तालिबान शासन के कारण भारत में अपना प्रवास बढ़ा दिया है।
तालिबानी हरकत को बताया शर्मनाक
रजिया ने कहा, ‘मैंने नियमित रूप से लेक्चर अटेंड किए और अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित किया। मैंने परीक्षा से कुछ दिन पहले रिवीजन किया।’ तालिबान पर निशाना साधते हुए वह कहती हैं कि यह शर्मनाक है कि उन्होंने लड़कियों और महिलाओं को औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। मुरादी दो साल के एमए प्रोग्राम के लिए भारत आई थीं, लेकिन वापस नहीं लौट सकीं क्योंकि तालिबान ने उनके देश पर कब्जा कर लिया।

एक दिन में 3500 लोगों को खाना खिलाती हैं केरल की ये महिलाएं

त्रिशूर । कैटरिंग का काम स्कूलों से ड्रॉपआउट गरीब महिलाएं अधेबा स्वयं सहायता समूह प्रशिक्षण लेकर विभिन्न संस्थानों में कैटरिंग का काम बखूबी संभाल रही हैं । स्कूलों से ड्रॉपआउट गरीब महिलाएं अधेबा स्वयं सहायता समूह प्रशिक्षण लेकर विभिन्न संस्थानों में कैटरिंग का काम बखूबी संभाल रही हैं (फोटो: के ए शाजी)

कोई पंद्रह साल पहले केरल की तीर्थनगरी गुरुवायुर की स्कूल शिक्षिका रति कुन्नीकृष्णन ने जमीनी स्तर पर स्वयं-सहायता समूहों (एसएचजी) के माध्यम से गरीबी उन्मूलन और महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से आरंभ की गई राज्य सरकार की प्रमुख योजना कुदुंबश्री से संपर्क किया था। उनका उद्देश्य मामूली ग्रामीण महिलाओं को बड़े पैमाने पर खाना पकाने और कैटरिंग जैसों से कामों में प्रशिक्षित करना था। हालांकि रती खुद पेशेवर नहीं थी और उनके पास एक स्पष्ट योजना भी नहीं थी।

49 वर्षीया रति का कहना है “अधिकतर ग्रामीण महिलाएं बढ़िया खाना पकाती हैं, और अपने इस हुनर में प्रयोग करने को लेकर भी वे बहुत उत्सुक रहती हैं । लेकिन उनके पास अवसर नहीं थे।” बहरहाल अब इन महिलाओं ने कुछ अलग कर दिखाया है। रति मध्य केरल के त्रिशूर में ए.आई.एफ.आर.एच.एम. या “अधेबा” इंस्टिट्यूट ऑफ फूड रिसर्च हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट नाम से एक अनोखा स्वयं-सहायता समूह संचालित करती हैं। “अधेबा” का क्या अर्थ होता है? रति फौरन इस सवाल का जवाब देती हैं, यह ‘अतिथि देवो भव’ का संक्षिप्त रूप है।

“अधेबा” की शुरुआत कुदुंबश्री की स्थापना के केवल दस वर्ष बाद ही हुई थी । आज कुदुंबश्री अपनी स्थापना का पच्चीसवां साल पूरा कर चुकी है । इस अवधि में इसने केरल में 3.09 लाख स्वयं-सहायता समूहों की स्थापना की है जो आज पूरे राज्य में सुसंगठित और व्यवस्थित रूप से सक्रिय हैं । इन स्वयं-सहायता समूहों में “अधेबा” इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह कुदुंबश्री से संबद्ध प्रत्येक स्वयं-सहायता समूह से उन औरतों का चयन करती है जो भोजन बनाने की कला में दक्ष हों।

आज कुदुंबश्री दूसरे काम के अलावा देश भर में महिला कैटरर्स के सबसे बड़े नेटवर्क को संचालित करती है । ये महिलाएं शीघ्र सूचना के आधार पर किसी भी बड़े आयोजन के लिए खाना पका सकती हैं, चाहे वह अनेक दिनों तक चलने वाले राष्ट्रीय खेल हों अथवा कोई अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन। महिलाएं किसी भी तरह का भोज मसलन चीनी व्यंजन, भूमध्यसागरीय, यूरोपीय, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय या स्थानीय बना सकती हैं।

“हम कैटरिंग की आधुनिकतम तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं और बहुत कम कीमत पर भोजन उपलब्ध कराते हैं। अर्जित पैसों को निर्धन परिवारों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में खर्च किया जाता है। रती बताती हैं शुरुआत में “अधेबा” में महज सात सदस्य थे, आज यह विस्तृत होकर 3000 सदस्यों का एक विशाल समूह बन चुका है। 200 महिलाओं को सीधा रोजगार देने के अलावा पूरे राज्य में 3500 महिला रसोइयों और कैटर्स के नेटवर्क को संचालित करता है। इसके प्रशिक्षित स्टाफ आंध्रप्रदेश और झारखण्ड के कुछ इच्छुक महिला एसएचजी को यही प्रशिक्षण देने का काम भी करते हैं ।

एक साल से भी अधिक की अवधि तक कुदुंबश्री के आउटरीच शाखा में प्रतिनियुक्त प्रो. मैना उमैबान के अनुसार, एक सुरक्षित भविष्य के लिए इच्छुक महिलाओं को सहारा देने और उन्हें प्रशिक्षित करने की दृष्टि से “अधेबा” की भूमिका दुर्लभ है । इसी भूमिका से प्रभावित होकर प्रो. उमैबान इस समूह को अपनी सेवा के लिए प्रेरित हुईं। अपनी शुरुआत के बाद के सालों में अधेबा ने 35,000 महिलाओं को भोजन पकाने और कैटरिंग के कामों में बुनियादी प्रशिक्षण देने का काम किया है। एक पखवाड़े के इस सघन प्रशिक्षण कार्यक्रम का पूरा खर्च राज्य सरकार ने उठाया। प्रशिक्षुओं में से 15,000 को चयनित कर उन्हें विविध विशेज्ञता में प्रशिक्षित किया गया ताकि उन्हें स्थानीय स्तर पर छोटे कैटरिंग इकाइयों को चलाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।
विगत वर्षों 3500 सदस्यों का एक अति दक्ष समूह विकसित हो चुका है जो अब “अधेबा” की रीढ़ की हड्डी के रूप में काम कर रहा है । भोजन तैयार करने के अतिरिक्त “अधेबा” आज के दिन महिलाओं को भोजन सर्व करने, बुनियादी साफ-सफाई और हिसाब-किताब रखने जैसे काम भी सिखा रहा है । इस योजना की लाभुकों में एक वीके शेरीबा बताती हैं कि वे ग्राहकों की मांग के मुताबिक किसी भी प्रचलित क़िस्म का कोई भी व्यंजन बनाने में सक्षम हैं । अभी एक महीना पहले जब कोच्चि अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे के निकट पंचायती राज पर एक राष्ट्रीय कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिसमें भारत के सभी राज्यों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। शेरीबा ने बताया “हमने तीन दिन तक प्रतिदिन 15,000 लोगों को खाना देने की व्यवस्था की थी, और वे सभी लोग अलग-अलग स्वाद और आहार-संबंधी आदतों वाले लोग थे । हमने उन सबके लिए उत्तर भारतीय, चीनी व्यंजन, पूर्वोत्तर और दक्षिण भारतीय खाने की व्यवस्था की थी और हमारे द्वारा की गई व्यवस्था के लिए अतिथियों ने हमें खूब सराहा।
मैना बताती हैं कि “अधेबा” की शुरुआत से पहले कैटरिंग कर व्यवसाय में गिनी-चुनी महिलाएं ही थीं । जब रती और उनकी टीम ने अपनी योजना के साथ कुदुंबश्री से संपर्क किया, तब एजेंसी ने उन पर “औषधि” का प्रभार संभालने और उसकी कैंटीन चलाने की जिम्मेदारी सौंपी । “औषधि” त्रिशूर में सार्वजनिक क्षेत्र की एक दवा बनाने वाली कंपनी है जिसमें लगभग 2,000 लोग काम करते हैं ।
रति बताती हैं कि “औषधि” के पास सभी जरूरी बुनियादी और वित्तीय सुविधाएं उपलब्ध थीं, ऐसे में हमारे लिए शुरुआत करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था । इसलिए हमने “औषधि” में मिलने वाली सुविधाओं का इस्तेमाल अपनी महिलाओं को खाना बनाने और कैटरिंग का काम करने के लिए प्रशिक्षित करने करने में किया । साथ ही हमने कंपनी के स्टाफ की भोजन-संबंधी जरूरतों को पूरा करना भी जारी रखा।
फिलहाल यह संस्था केरल सरकार के एक विशाल भोजनालय को संभालती है जिसमें कोच्चि के निम्न-आय वर्ग के कर्मचारियों को केवल 20 रुपए में भरपेट भोजन कराया जाता है । 3500 से भी अधिक लोग इस रेस्टोरेंट में खाना खाते है जिसमें सरकार भोजन की हर थाली के बदले 10 रुपये का अनुदान देती है । बाकी खर्च के लिए पैसे “अधेबा” मछलियों की किस्में, मटन की किस्में और दूसरे मूल्य-संवर्धित उत्पादों की बिक्री से कमाती हैं ।
यह मलप्पुरम के सिविल स्टेशन की कैंटीन भी संचालित करती हैं, जहां लगभग 400 लोग इससे लाभान्वित होते हैं । “अधेबा” में विभिन्न कामों में समन्यव करने वाले अजय कुमार के अनुसार, केरल में जब कभी राष्ट्रीय खेलों का आयोजन होता है तब “अधेबा” ही इस आयोजन का आधिकारिक कैटरर्स होगी ।
वे बताते हैं “अभी तक राष्ट्रीय खेलों के आयोजनों में हमने तीन मौकों पर खानपान की व्यवस्था संभाली है जिनमें बड़ी तादाद में दूसरे राज्यों से आए भागीदार शामिल हुए हैं । हम शादी-विवाह की पार्टियों, अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशनों और अन्य उच्चस्तरीय आयोजनों के लिए भी आर्डर लेने का काम करते हैं।
हमारी ग्रामीण महिलाएं इन मौकों पर पेशेवर परिधान पहनती हैं और उनकी सेवाएं गुणात्मकता की दृष्टि से उच्चस्तरीय होती हैं। राठी कहती हैं “यदि आप केरल के 14 जिलों में कहीं भी कोई आयोजन करते हैं तो हमसे संपर्क कर सकते हैं, और हमारी सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं । हम अपनी गुणवत्ता, कीमत, स्वाद और स्वच्छता के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ,” उनकी यह पहल लाभ पर आधारित नहीं है क्योंकि इससे होने वाली आमदनी को संबद्ध परिवारों में बांट दिया जाता है ।

वायुसेना में पहली बार फ्रंटलाइन कॉम्बैट यूनिट की कमान महिला को

ग्रुप कैप्टन शालिजा धामी ने रचा इतिहास
भारतीय वायुसेना ने ग्रुप कैप्टन शालिजा धामी को वेस्टर्न सेक्टर में फ्रंटलाइन कॉम्बैट यूनिट की कमान सौंपकर महिलाओं की बंदिशों को तोड़ दिया है । भारतीय वायुसेना के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब किसी महिला को ये जिम्मेदारी मिली है । सेना ने मेडिकल स्ट्रीम से बाहर निकलते हुए महिला अधिकारियों को कमान सौंपने की शुरुआत कर दी है । इनमें से 50 महिलाएं ऐसी होंगी जो नॉर्दर्न और ईस्टर्न ऑपरेशनल एरिया में यूनिट्स को लीड करेंगी ।
अंग्रेजी न्यूज वेबसाइट एनडीटीवी के मुताबिक, ग्रुप कैप्टन धामी को साल 2003 में हेलिकॉप्टर पायलट के रूप में नियुक्त किया गया था । शालिजा के पास 2 हजार 800 घंटे से ज्यादा की उड़ान का अनुभव है । वो एक क्वालीफाइड फ्लाइंग इंस्ट्रक्टर हैं । उन्होंने वेस्टर्न एरिया में हेलिकॉप्टर यूनिट के फ्लाइट कमांडर के रूप में भी काम किया है । भारतीय सेना में एक ग्रुप कैप्टन की रैंक सेना के कर्नल के बराबर होती है ।
कौन हैं शालिजा धामी?
शालिजा का जन्म पंजाब के लुधियाना में शहीद करतार सिंह सराभा गांव में हुआ था । यहां से उनमें देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा आया । इस गांव का नाम देश की आजादी में सराहनीय योगदान देने वाले शहीद के नाम पर रखा गया। शालिजा के माता-पिता सरकारी नौकरी करते थे. पिता हरकेश धामी बिजली बोर्ड में अधिकारी रहे और मां देव कुमारी जल आपूर्ति विभाग में रहीं । शालिजा की शुरुआती पढ़ाई सरकारी स्कूल से हुई और बाद में उन्होंने घुमार मंडी के खालसा कॉलेज से बीएससी की ।
ग्रेजुएशन की पढ़ाई करते-करते ही उनका सिलेक्शन फ्लाइंग एयरफोर्स में हो गया। हालांकि उनकी लम्बाई को लेकर कुछ असमंजस की स्थिति बनी थी लेकिन बाद में उन्हें वायुसेना में भर्ती कर लिया गया। इस मामले पर वायुसेना के अधिकारी का कहना है कि धामी को एयर ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ की ओर से दो बार कमांड किया जा चुका है। फिलहाल वो एक फ्रंटलाइन कमांड हेडक्वार्टर के ऑपरेशन ब्रांच में तैनात हैं ।