Sunday, August 17, 2025
खबर एवं विज्ञापन हेतु सम्पर्क करें - [email protected]
Home Blog Page 120

आगरे का किला, अंग्रेजों ने मलबा डालकर किया था निर्माण, वहां निकलीं सीढ़ियां-दरवाजा

आगरा । आगरा किला के रहस्यों पर से एक बार फिर पर्दा उठा है। मुगल सल्तनत की बुलंदी की गवाही देते आगरा किला के अमर सिंह गेट पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) को काम के दौरान प्राचीन दरवाजा और सीढ़ियां मिली हैं। दरवाजे से होकर यह सीढ़ियां आगरा किला की प्राचीर पर पहुंचती हैं। यह निर्माण मुगल काल का है।
ब्रिटिश काल में यहां मलबा भरकर उसके ऊपर निर्माण कर दिया गया था। एएसआइ इसे मूल स्वरूप में सहेज रहा है। आगरा किला में पर्यटकों को अमर सिंह गेट से प्रवेश मिलता है। अमर सिंह गेट के अंदर की तरफ बाईं व दाईं तरफ ब्रिटिश काल में मलबा डालकर भर्त करा दी गई थी। आठ से नौ फीट ऊंचाई तक मलबा भर दिया गया था। उसके ऊपर पत्थर का फर्श कर गार्डन बना दिया गया था।
पत्थरों को हटाने के बाद मलबा निकाला
एएसआइ ने तीन वर्ष पूर्व बाईं तरफ के मलबे को हटाकर वहां के फर्श का स्तर रास्ते के बराबर किया था। गेट के दाईं तरफ के भाग को रास्ते के बराबर में करने को कुछ दिन पूर्व काम शुरू किया गया। पत्थरों को हटाने के बाद जब मलबा हटाया गया तो किले की दीवार में बना हुआ दरवाजा नजर आया। दरवाजे में अंदर की तरफ जब मलबा हटाना शुरू किया गया तो वहां सीढ़ियां मिलीं। किले की दीवार में बनी हुई सीढ़ियां, ऊपर की ओर जाता है।
लाल बालुई पत्थर लगाया जा रहा
एएसआइ ने जीने के ऊपर दीवार पर लगे पत्थरों को हटाकर इस रास्ते को पूरा खोल दिया है। यहां अब फर्श पर रेड सैंड स्टोन यानी लाल बलुई पत्थर लगाया जा रहा है। अधीक्षण पुरातत्वविद् डा. राजकुमार पटेल ने बताया कि आगरा किला में विभिन्न कालखंडों में अलग-अलग समय पर निर्माण किए गए हैं। अमर सिंह गेट के बराबर में मलबा हटाने पर मिले मुगलकालीन दरवाजे व जीने को मूल स्वरूप में सहेजा जाएगा।
लाखौरी ईंटों से चिनाई
दरवाजे के पास ब्रिटिश काल की भी सीढ़ियां मिलीं दरवाजे के पास किले की दीवार से लगी सीढ़ियां भी मलबे के नीचे दबी हुई मिली हैं। इसमें नीचे के भाग में मलबा भरा हुआ है और उसके ऊपर लाखौरी ईंटों की चिनाई है। दीवार के कुछ भाग में चूने का प्लास्टर भी है, लेकिन इस प्लास्टर में समौसम मिला हुआ है। ब्रिटिश काल में चूने में समौसम मिलाया जाता था, जिससे इसे निर्माण को ब्रिटिश काल में हुआ माना जा रहा है।
1999 में मिले थे तोप-गोले
एएसआइ को वर्ष 1999 में आगरा किला की खाई में दिल्ली गेट के समीप की गई सफाई में ब्रिटिशकालीन तीन तोपें मलबे में दबी मिली थीं। दिसंबर, 2020 में आगरा किला के दीवान-ए-आम परिसर में नीम का पेड़ गिर गया था। खोखले पेड़ की जड़ों में लोहे के बने दो भारी-भरकम गोले मिले थे। एक गोला लगभग 50 किग्रा का था।
सीढ़ियां में अंदर की तरफ हो रहा है चूने का प्लास्टर
सीढ़ी में अंदर की तरफ चूने के प्लास्टर का काम हो रहा है। इस तरह का प्लास्टर मुगल काल में किया जाता था। यह दरवाजा और सीढ़ी मुगल काल में ही बनाई गई थीं।

एसी मैकेनिक के बेटे ने ठुकराया 6 लाख का ऑफर, सीईटी में बटोरे 99.78 पर्सेन्टाइल

अहमदाबाद । भारतीय प्रबंधन संस्थानों में प्रवेश के लिए ली जाने वाली परीक्षा केट में 99.78 पर्सेंटाइल के साथ टॉपर्स में शामिल रजीन मंसूरी ने 6 लाख रुपये की नौकरी का ऑफर ठुकरा दिया। अहमदाबाद के एसी मैकेनिक के बेटे रजीन मंसूरी को इंजीनियरिंग की पढाई के बाद 6 लाख रुपये का सालाना पैकेज मिला था। पहली बार में केट परीक्षा में 96.20 फीसदी अंक के साथ आईआईएम उदयपुर में प्रवेश मिल रहा था, लेकिन उसने फिर से खुद को आजमाया और अब वह हार्वर्ड, स्‍टेनफोर्ड की तरह नामी संसथान आईआईएम कोलकाता में प्रवेश पाने में सफल रहा।
लक्ष्य पर रहे ध्यान
मन में दृढ़ता और एकाग्रचित्त होकर अपने लक्ष्‍य को पाने का प्रयास करते रहें तो कुछ भी असंभव नहीं है। अहमदाबाद के एयर कंडीशनर मैकेनिक इरफान मंसूरी के बेटे रजीन ने कॉमन एंट्रेंस एक्‍जाम केट में 99.78 पर्सेंटाइल हासिल कर खुद को साबित कर दिखाया है।
2021 में हुई केट परीक्षा में उसने 96.20 पर्सेंटाइल हासिल किए लेकिन उसने अपने पसंद के प्रबंधन संस्‍थान में प्रवेश लेने के लिए एक बार फिर मेहतन का रास्‍ता अपनाया। इस बार उसे आईआईएम बेंगलुरु व आईआईएम कोलकाता में प्रवेश के ऑफर मिला और उसने कोलकाता को चुना।
रजीन को आईआईएम अहमदाबाद में प्रवेश नहीं मिलने का मलाल अभी भी है। उसे आशा थी कि आईआईएम अहमदाबाद में एडमिशन मिल जाता तो अपने परिवार के करीब रहता। आईआईएम-सी में प्रबंधन से जुड़ी जानकारी सीखने के लिए उसने बेंगलुरु को छोड़कर कोलकाता संस्‍थान को चुना।
आईआईएम कोलकाता संस्‍थान की फीस 27 लाख रुपये है लेकिन वह स्‍कॉलरशिप को भविष्‍य के लिए सुरक्षित रख शिक्षा लोन के जरिए अपनी पढ़ाई करना चाहता है। रजीन ने बताया कि शेठ सी एन विध्‍यालय से स्‍कूली पढाई के बाद उसने अहमदाबाद विश्‍वविध्‍यालय से मई 2022 में ही इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की।
सालाना 6 लाख रुपये की नौकरी मिल रही थी लेकिन उसने प्रबंधन संस्‍थान में पढ़ने का मन बनाया। वह बताता है कि पिता की मासिक आय 25 हजार रुपये है। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्‍छी नहीं है। उसका परिवार अहमदाबाद के पालड़ी इलाके में रहता है।

बंद होने वाला है विंडोज 10! अब नहीं मिलेंगे सॉफ्टवेयर अपडेट

नयी दिल्ली । टेक दिग्गज माइक्रोसॉफ्ट अपने पॉपुलर विंडोज 10 ऑपरेटिंग सिस्टम को बंद करने वाला है। कंपनी ने एक ब्लॉग पोस्ट में इसकी घोषणा कर दी है। कंपनी ने कहा कि वह विंडोज 10 के लिए प्रमुख सॉफ्टवेयर अपडेट जारी नहीं करेगा और विंडोज 10 22H2 ही आखिरी अपडेट होगा, जिसे हाल ही में जारी किया गया था।
2025 तक बंद हो सकता है विंडोज
कंपनी ने कहा कि विंडोज 10 22H2 (Windows 10 22H2) इसका आखिरी ऑपरेटिंग सिस्टम अपडेट होगा। कंपनी अब इसके लिए कोई भी बड़ा अपडेट रोलआउट नहीं करेगी। लेकिन 14 अक्टूबर 2025 तक विंडोज 10 डिवाइस के लिए सिक्योरिटी अपडेट यानी सेफ्टी और बग फिक्स अपडेट मिलते रहेंगे। कंपनी ने कहा कि मौजूदा लॉन्ग-टर्म सर्विसिंग चैनल, या एलटीएससी, रिलीज अभी भी सपोर्ट डेट तक अपडेट प्राप्त करेंगे।
विंडोज 11 पर कर सकेंगे अपग्रेड
कोई नया विंडोज 10 फीचर अपडेट नहीं आने के साथ माइक्रोसॉफ्ट आपको विंडोज 11 में अपग्रेड करने की सिफारिश कर रहा है। लेकिन आप सपोर्ट डेट के बाद भी विंडोज 10 का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन उस समय के बाद अतिरिक्त सुरक्षा अपडेट मिलना भी बंद हो जाएंगे। ऐसे में आपका सिस्टम असुरक्षित हो जाएगा यानी विंडोज 11 में अपग्रेड करना ही सही विकल्प होगा। बता दें कि माइक्रोसॉफ्ट ने अक्टूबर 2021 में अपने लेटेस्ट ऑपरेटिंग सिस्टम Windows 11 को रोल आउट करना शुरू किया और मई 2022 में इसे सभी सपोर्टेड डिवाइस के लिए जारी कर दिया था। विंडोज 11 को कई नए फीचर्स और कस्टमाइजेशन के साथ पेश किया गया था।
विंडोज 11 के फीचर्स
विंडोज 11 के साथ डिजाइन, इंटरफेस और स्टार्ट मेन्यू को लेकर बड़े बदलाव किए गए हैं। विंडोज स्टार्ट साउंड में भी आपको बदलाव देखने को मिलेगा। विंडोज 11 के साथ वेलकम स्क्रीन के साथ Hi Cortana को हटा दिया गया है और लाइव टाइटल भी आपको नए विंडोज में देखने को नहीं मिलेगा।
ऐसे करें विंडोज 11 डाउनलोड
माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज 10 वाले यूजर्स को Windows 11 का अपडेट जारी कर दिया है, जिसे आप सिस्टम अपडेट में जाकर चेक कर सकते हैं। नए विंडोज के साथ आप माइक्रोसॉफ्ट पीसी हेल्थ एप भी डाउनलोड कर सकते हैं। सिस्टम अपडेट में आपको Download Now का एक बटन दिखेगा जिस पर क्लिक करके बताए गए स्टेप को फॉलो करते हुए आप अपने कंप्यूटर में Windows 11 डाउनलोड कर सकेंगे।

रख हौसला

आनंद श्रीवास्तव

रख हौसला
कि कोई तेरे लिए नहीं आएगा
ये जिंदगी है इसे सिर्फ तू ही अपने शर्तों पर जी पाएगा।
कितने भरोसे टूटे होंगे और हर बार तू टूट कर फिर जुटा होगा।
तोड़ने -जोड़ने की प्रक्रिया
उम्र भर चलेगी
तय तुझे करना है कि तू अपने सच के साथ कैसे आगे बढ़ेगा
धुंध में डूबी उन धूमिल सपनों की पहचान
जिसे कदम-कदम पर उपेक्षा की अग्निपरीक्षा देनी पड़ी,
हर नागवार उठती ऊंगली को झेलनी पड़ी
उन सब से इतर तेरा फैंटेसी वर्ल्ड है
जो तेरे सपनों को उड़ान देने के लिए
तुम्हें बुला रहा है
पंखों में आगाज़ लिए तू उड़
तिनको से साम्राज्य तुझे रचना होगा
सम्मान और स्वाभिमान के बीच
प्रेम की सीधी राह
तुझे चुनना होगा
रख हौसला कि साथ तेरे कोई नहीं
पर तेरा तू है
इसे तूझे चुनना होगा।
इसे तूझे चुनना होगा।।।

रानी बिड़ला गर्ल्स काॅलेज में संगोष्ठी

कोलकाता । रानी बिड़ला गर्ल्स कॉलेज के हिंदी विभाग की ओर से ‘भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा ‘ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया।कार्यक्रम की शुरुआत आंतरिक गुणवत्ता मूल्यांकन प्रकोष्ठ की समन्वयक प्रो. समर्पिता घोष राय के स्वागत वक्तव्य से हुई। इस अवसर पर उन्होंने हिंदी भाषा के महत्व के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए  कहा कि आज भूमंडलीकरण के इस दौर में हमारे लिए हिंदी भाषा की जानकारी जरूरी है। बतौर वक्ता खुदीराम बोस सेंट्रल कॉलेज की डॉ शुभ्रा उपाध्याय  ने अपने व्याख्यान में भाषा की उत्पत्ति, भाषा की विशेषता एवं परिवर्तनशीलता आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा किया।
उन्होंने कहा कि भाषा विज्ञान के अध्ययन के बिना हम भाषा की संरचना और अनुशासन को नहीं समझ सकते हैं।इस अवसर पर कॉलेज के विद्यार्थियों की उपस्थिति और भागीदारी अच्छी रही।
कार्यक्रम का सफल संचालन चतुर्थ सेमेस्टर की छात्रा पूजाश्री  दूबे ने किया। इस संगोष्ठी को सफल बनाने में विभाग की प्रो. विजया सिंह, सहायक प्रोफेसर प्रो.मंटू दास एवं हिंदी विभाग की छात्राओं की विशेष भूमिका रही। धन्यवाद ज्ञापन हिंदी विभाग की अध्यक्ष प्रो. पुष्पा तिवारी ने दिया।

मजदूर और प्रेम

आनंद श्रीवास्तव

मेरे फटे हुए हाथों में क्या तुम अपनी कोमल हथेली देकर आनंदित हो पाओगी?
क्या मेरे पसीने से लथपथ बदन से सटकर बैठना तुम्हें मंजूर होगा?
क्या मेरे जिस्म से आती गंध को बर्दाश्त कर पाओगी?
क्या मेरे फटे पुराने कपड़ों के साथ तुम्हें सहजता महसूस होगी?
मैं नहीं दे सकता तुम्हें
पांच सितारा होटल में कैंडल लाइट डिनर
मैं नहीं दिखा सकता किसी एरिस्टोक्रेट मॉल के मल्टीप्लेक्स में तुम्हें सिनेमा
मैं नहीं घुमा सकता समुंद्र के किनारे का रिजॉर्ट
मैं नहीं दे सकता आई फोन या कोई कीमती तोहफ़ा तुम्हें
बस दे सकता हूं सोने से भी शुद्ध और खरा प्यार तुम्हें
एक सुरक्षित हाथों का एहसास तुम्हें
मैंने ही रचा है ये पांच सितारा होटल
ये मॉल, ये मल्टीप्लेक्स
मैंने ही बनाया है
समुंद्र के किनारे का रिजॉर्ट
मेरे पास उपभोग के लिए कुछ भी नहीं
सिर्फ़ ये दोनों हाथ हैं
जो रच सकता है सारे कायनात की कारीगरी को ।
जो रच सकता है सृष्टि के हर आयाम को।
जो रच सकता है धरती के श्रृंगार को ।
मैं अपना हाथ तुम्हें देना चाहता हूं
अगर तुम करो स्वीकार तो
मैं तुम्हारे लिए
सपनों और उम्मीदों की आगाज़ रच सकता हूं।
तुम्हें बेपनाह प्यार कर सकता हूं।।।।।।

मशहूर पाकिस्तानी लेखक तारेक फतह का 73 साल की उम्र में निधन

ओटावा । मशहूर पाकिस्तानी पत्रकार और लेखक तारेक फतह का 73 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें कैंसर हो गया था और लंबे समय से बीमार थे। उनकी बेटी नताशा फतह ने उनके निधन की पुष्टि की है। इससे पहले शुक्रवार को उनके निधन की अफवाह सामने आई थी, जिसके बाद लोगों ने श्रद्धांजलि देना शुरू कर दिया था। देखते ही देखते ट्विटर पर तारेक फतह ट्रेंड करने लगा था। तारेक फतह से सीधे तौर पर जुड़े लोगों ने इसका खंडन किया था। हालांकि इस बार उनके निधन की पुष्टि सीधे तौर पर उनकी बेटी ने की है।तारेक फतह की बेटी ने अपने पिता के निधन पर ट्वीट किया, ‘पंजाब का शेर। भारत का बेटा। कनाडा का प्रेमी। सच बोलने वाला। न्याय के लिए लड़ने वाला। शोषितों और वंचितों की आवाज तारेक फतह ने अपनी मुहिम आगे बढ़ा दी है। उनकी क्रांति उन सभी के साथ जारी रहेगी जो उन्हें जानते और प्यार करते थे। क्या आप इसमें जुड़ेंगे?’ पाकिस्तानी पत्रकार आरजू काजमी ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी है।
पाकिस्तान में हुआ था जन्म
तारेक फतह का जन्म 20 नवंबर 1949 में पाकिस्तान के कराची में हुआ था। 1987 में वह कनाडा चले गए। उन्हें अपनी रिपोर्टिंग के लिए कई तरह के पुरस्कार भी मिल चुके हैं। कनाडा समेत दुनिया की कई प्रमुख पत्रिकाओं और अखबारों में उनके लेख छपते रहे हैं। भले ही उनका जन्म पाकिस्तान में हुआ हो, लेकिन वह पाकिस्तान की कमियों को उजागर करने में पीछे नहीं रहते थे। सेना और कट्टरपंथियों के खिलाफ उन्होंने मोर्चा खोल रखा था, जिसके कारण उनकी सोशल मीडिया पर लाखो फॉलोअर्स थे। 1970 में उन्होंने कराची सन के लिए एक रिपोर्टर के रूप में काम शुरू किया। 1977 में तारेक फतह पर देशद्रोह का आरोप लगा था। जिया-उल हक शासन ने उन्हें पत्रकारिता करने से रोक दिया था। उन्हे अरबी भाषा भी आती थी, और वह कुछ दिन सऊदी अरब में भी रहे।

फटे-पुराने कपड़ों को इको-फ्रेंडली बैग में बदली रही हैं 93 साल की दादी, 35,000 मुफ्त बांटे

नयी दिल्‍ली । बीते कई सालों से मधुकांता भट्ट फटे-पुराने कपड़ों को इको-फ्रेंडली बैग में बदल रही हैं। इसका मकसद प्‍लास्टिक बैग का विकल्‍प देना है। इससे इन फटे-पुराने कपड़ों का भी इस्‍तेमाल हो जाता है। मधुकांता की उम्र 93 साल हो चुकी है। उन्‍हें सिलाई करना बहुत पसंद है। वह अब तक 35,000 से ज्‍यादा कपड़ों के बैग मुफ्ट बांट चुकी हैं। 2015 से एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उन्‍होंने बैग न सिला हो। सुबह नहाकर पूजा और फिर ब्रेकफास्‍ट करने के बाद वह सीधे अपनी सिलाई मशीन पर बैठ जाती हैं। वह चाहती हैं कि धरती से प्‍लास्टिक का बोझ जितना कम हो सकता है हो। मधुकांता कहती हैं कि वह खाली नहीं बैठ सकती हैं।
शादी के बाद आ गई थीं हैदराबाद
मधुकांता का जन्‍म गुजरात के जामनगर में एक छोटे से गांव में 1930 में हुआ था। गांव में लड़कियों को स्‍कूल नहीं भेजा जाता था। लिहाजा, उन्‍हें भी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली। 18 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी। शादी के बाद वह पति के साथ हैदराबाद आकर रहने लगीं। उन्‍हें सिर्फ गुजराती ही बोलनी आती थी। ऐसे में उनका फोकस सिर्फ बच्‍चों पर हो गया। मधुकांता के चार बेटियां और एक बेटा है। उन्‍होंने बच्‍चों को पढ़ाने-लिखाने में कसर नहीं छोड़ी। सिलाई के प्रति उनका रुझान काफी पहले से था। लेकिन, उन्‍हें कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं मिली।
1955 में जोड़-बटोरकर खरीदी स‍िलाई मशीन
बच्‍चे स्‍कूल जाने लगे तो मधुकांता के बचपन की ख्‍वाहिशें हिलोरे मारने लगीं। 1955 में उन्‍होंने बचत करके सिलाई मशीन ली। तब इसकी कीमत 200 रुपये थी। जोड़-बटोरकर मशीन तो वह ले आईं लेकिन लंबी ट्रेनिंग लेने का उनके पास पैसा नहीं था। लिहाजा, उन्‍होंने एक महीने का कोर्स किया। इसमें मशीन रिपेयर करने और इसके कामकाज का तरीका सिखाया जाता था। सिलाई, कटाई और डिजाइनिंग उन्‍होंने दूसरों को देख-देखकर सीख लिया।
35,000 से ज्‍यादा बैग मुफ्त बांट चुकी हैं
कुछ ही महीनों में मधुकांता मशीन चलाने में बिल्‍कुल ट्रेंड हो गईं। फिर वह अपने और बच्‍चों के कपड़े सिलने लगीं। पड़ोसियों के ब्‍लाउज और पेटिकोट भी वह सिल दिया करती थीं। उनके बेटे नरेश कुमार भट्ट बताते हैं कि मधुकांता आसपास के दर्जियों और फर्नीचर बनाने वालों से कतरन और फटे-पुराने कपड़े जुटाती हैं। फिर इन कपड़ों से बैग बना देती हैं। वह अब तक 35,000 से ज्‍यादा बैग बना चुकी हैं। इन्‍हें मधुकांता ने निःशुल्क बांटा है। मधुकांता कहती हैं कि वह खाली नहीं बैठ सकती हैं। खाली बैठना उन्‍हें सबसे ज्‍यादा परेशान करता है।

रतन टाटा को ऑस्ट्रेलिया का सर्वोच्च नागरिक सम्मान

नयी दिल्ली । भारतीय उद्योगपति रतन टाटा ने एक बार फिर से वैश्विक मंच पर भारत का मान बढ़ाया है। रतन टाटा को ऑस्ट्रेलिया ने सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया है। ऑस्ट्रेलिया के राजदूत बैरी ओ फैरेल ने ट्विटर पर रतन टाटा के साथ तस्वीरें शेयर करते हुए इसकी जानकारी दी है। टाटा संस के मानद चेयरमैन रतन टाटा को सर्वोच्च सम्मान देते हुए ऑस्ट्रेलिया ने उन्हें उद्योग जगत और परोपकार जगत का दिग्गज बताया है। उन्होंने सम्मान लेते हुए रतन टाटा के संग फोटो शेयर की है। तस्वीरों में रतन टाटा के साथ टाटा संग के चेयरमैन एन चंद्रशेखरन भी नजर आए।
रतन टाटा को सम्मान
ऑस्ट्रेलिया ने रतन टाटा को कारोबार जगत में उनके काम और उनकी परोपकारिता के लिए ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया के सम्मान से सम्मानित किया गया है। रतन टाटा ने केवल भारत के लोगों पर ही नहीं बल्कि ऑस्ट्रेलिया के लोगों पर अपनी छाप छोड़ दी है। बिजनस जगत में उनके योगदान ने ऑस्ट्रेलिया पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। ऑस्ट्रेलिया के राजदूत बैरी ओ फैरेल ने उनके बारे में ट्वीट पर लिखा कि रतन टाटा ने केवल भारत के कारोबार और परोपकार के दिग्गज नहीं हैं, बल्कि उन्होंने अपने योगदान से ऑस्ट्रेलिया पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। उन्होंने भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच संबंधों को मजबूत करने के लिए लंबे वक्त तक काम किया है। उन्होंने बिना रुके लंबे वक्त तक भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच कारोबारी संबंधों को मजबूत करने के लिए काम किया है। उनके अहम योगदान को देखते हुए ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया ( सम्मान से सम्मानित किया गया। सोशल मीडिया पर इन तस्वीरों के अपलोड होते ही वो वायरल हो गया। लोग रतन टाटा की तारीफों के पुल बांध रहे हैं।

चांदनी बनी वॉयस ऑफ स्लम, बदल रही है बस्ती के बच्चों का जीवन

नयी दिल्ली । झुग्‍गी-झोपड़ी के बच्‍चे चांदनी को ‘चांदनी दी’ के नाम से जानते हैं। वह आज ‘वॉयस ऑफ स्‍लम’ की संस्‍थापक हैं। 2016 में 18 साल की उम्र में उन्‍होंने इस संस्‍था की शुरुआत की थी। यह एनजीओ झुग्‍गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्‍चों की शिक्षा के लिए काम करता है। चांदनी इन बच्‍चों के दर्द को दूसरों की तुलना में कहीं ज्‍यादा महसूस कर सकती हैं। वजह है कि चांदनी ने कभी खुद यह जिंदगी जी है। उनका ताल्‍लुक सड़क पर तमाशा दिखाने वाले परिवार से था। छह साल की उम्र में पिता के साथ वह गांव-गांव शहर-शहर यह काम करती थीं। किसी तरह पेट पल जाता था। दुख का पहाड़ तब टूटा जब अचानक चांदनी के सिर से पिता का साया उठ गया। तब वह 10 साल की भी नहीं थीं। उनके दो और छोटे भाई-बहन थे। पिता के गम में मां का हाल बुरा हो गया था। परिवार का पेट पालने की जिम्‍मेदारी चांदनी पर आ गई थी। उन्‍होंने कूड़ा बीनना शुरू कर दिया। फूल और भुट्टे बेचे। उन्‍होंने वह समय देखा है जब उनसे लोगों ने ‘ऐ लड़की!’ ‘ओ!’ ‘कितने पैसे लेगी तू मेरे साथ चलने के…’ यहां तक कहा। लेकिन, चांदनी इन सबको सहकर आगे बढ़ती गईं और कारवां बनता गया। आज अपनी संस्‍था के जरिये वह न केवल सैकड़ों बच्‍चों को पढ़ा रही हैं, बल्कि उनकी सशक्‍त आवाज भी हैं।
बहुत छोटी उम्र से चांदनी झुग्‍ग‍ी-बस्तियों में रहने वाले बच्‍चों के लिए काम कर रही हैं। 10 साल की उम्र में वह ‘बढ़ते कदम’ नाम के संगठन से जुड़ गई थीं। यह संगठन गरीब बच्‍चों की शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य की बुनियादी जरूरतें पूरी करता है। चांदनी के कड़वे अनुभव उन्‍हें इस संस्‍था के पास तक लेकर गए। चांदनी का जन्‍म 1997 में हुआ था। पिता सड़क पर तमाशा दिखाया करते थे। छह साल की उम्र में वह भी पिता के काम का हिस्‍सा बनी गई थीं। लेकिन, अचानक एक दिन पिता नहीं रहे। घर पर चूल्‍हा जलना बंद हो गया। करीब एक साल तक परिवार ने भरपेट खाना नहीं खाया। परिवार का पेट पालने के लिए चांदनी मां के साथ कूड़ा बीनने लगीं। घर में उनके दो और छोटे भाई-बहन भी थे।
सुबह तड़के कूड़ा बीनने न‍िकल पड़ती थीं
चांदनी सुबह तीन बजे तड़के सड़क पर कूड़ा बीनने निकलती थीं। वह ऐसा बिल्‍कुल करना नहीं चाहती थीं। लेकिन, परिवार चलाने के लिए यह जरूरी था। फिर कूड़ा बीनना छोड़ उन्‍होंने फूल बेचना शुरू किया। लोग बहुत गंदी तरीके से बात करते थे। इसी दौरान उन्‍होंने ध्‍यान दिया कि कुछ लोग सड़कों पर बच्‍चों को पढ़ाने के लिए आते हैं। वह वहां जाकर पढ़ने लगीं। उन्‍हें एहसास था कि बस यही एक चीज है जिससे जिंदगी को बदला जा सकता है। फूल बेचने का काम बंद करके उन्‍होंने भुट्टे बेचने का काम शुरू कर दिया। भुट्टा खरीदने के लिए उन्‍हें नोएडा से दिल्‍ली जाना पड़ता था। वह करीब 50 किलो भुट्टा लेकर आती थीं। इसके लिए उन्‍हें सुबह 4 बजे मंडी पहुंचना पड़ता था। कारण य‍ह था कि समय बढ़ने के साथ मंडी में भाव बढ़ते जाते थे। गाड़ी भी नहीं मिलती थी। इसी तरह एक भयावह हादसे के कारण वह कई दिनों तक घर से नहीं निकली ।
झुग्‍गी में रहने वाले बच्‍चों की बन गईं आवाज
चांदनी ने सोचा इस तरह से तो काम नहीं चलेगा। वह घर में बंद रहकर कैसे रह सकती हैं। उनका घर कैसे चलेगा। और लोग भी तो काम करते हैं। उन्‍हें क्‍या-क्‍या नहीं सहना पड़ता होगा। बाल अधिकार के बारे में उन्‍होंने और जानकारी हासिल की। जब चांदनी 18 साल की हुईं तो देव प्रताप सिंह के साथ ‘वॉयस ऑफ स्‍लम’ की शुरुआत की। 2016 में शुरू हुआ यह एनजीओ झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले बच्‍चों के लिए काम करता है। यह उन्‍हें अपनी बात कहने के लिए मंच भी मुहैया करता है। ‘बालकनामा’ के जरिये भी चांदनी इन गरीब बच्‍चों की बातों को सामने लाती हैं। ‘बालकनामा’ दिल्‍ली से प्रकाशित होने वाला अखबार है जो सड़क पर रहने वाले बच्‍चे निकालते हैं। इसमें उस तरह के सभी विषय उठाए जाते हैं जिनसे सड़क पर रहने वाले बच्‍चों की जिंदगी पर असर पड़ता है। चांदनी ने इस अखबार में रिपोर्टर से सम्पादक तक का सफर तय किया है।