श्रावण माह विशेष – जानिए कांवड़ यात्रा का अर्थ, इतिहास, पद्धति, महत्व

कांवड़ यात्रा आरम्भ हो चुकी है । कांवड़ यात्रा हिंदू कैलेंडर के अनुसार श्रावण मास की प्रतिपदा तिथि से शुरू होकर सावन की चतुर्दशी यानी कि सावन शिवरात्रि तक होती है। कावड़ यात्रा भगवान शिव के भक्तों द्वारा प्रतिवर्ष मनाई जाती है। इस यात्रा को जल यात्रा भी कहा जाता है क्योंकि इस प्रथा में यात्रियों को कांवड़िया कहा जाता है और कांवड़ हिंदू तीर्थ स्थानों से गंगा जल लाने के लिए हरिद्वार जाते हैं और फिर प्रसाद चढ़ाते हैं। हर साल सावन माह में कांवड़ यात्रा की जाती है। दूर-दूर से कांवड़ यात्री देवभूमि आते हैं। गंगा से जल भरकर भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। इस दौरान देवभूमि उत्तराखंड में एक अलग ही रौनक देखने को मिलती है। पूरी देवभूमि केसरिया हो जाती है। कांवड़ यात्रा करने वाले भक्तजनों को कांवड़िया कहते हैं। पर क्या आप जानते हैं कि कांवड़ यात्रा का क्या अर्थ है। ये यात्रा हर साल क्यों की जाती है। तो आइये आज कांवड़ यात्रा के बारे में विस्तार से जाने से पहले हम कांवड़ यात्रा के इतिहास और इसके महत्तव के बारे में बताते हैं….

कांवड़ यात्रा का यह है अर्थ
कंधे पर गंगाजल लेकर भगवान शिव के ज्योतिर्लिंगों पर जलाभिषेक करने की परंपरा कांवड़ यात्रा कहलाती है।वहीं आनंद रामायण में भी यह उल्‍लेख किया गया है कि भगवान राम ने भी कांवड़िया बनकर बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया था।कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़ यात्री वही गंगाजल लेकर शिवालय तक जाते हैं और शिवलिंग का अभिषेक करते हैं।
कांवड़ यात्रा आरंभ होने की दो कथा
कहा जाता है कि भगवान परशुराम पहले कांवड़ियां थे। उन्होनें महादेव को प्रसन्न करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जल ले जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। तभी से हर साल कांवड़ यात्रा की शुरुआत की गई। हालांकि कुछ मान्यताओं के अनुसार, कांवड़ यात्रा की शुरुआत श्रवण कुमार ने त्रेता युग में की थी। श्रवण कुमार के अंधे माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान की इच्छा व्यक्त की। ऐसे में श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को कंधे पर कांवड़ में बिठा कर पैदल यात्रा की और उन्हें गंगा स्नान करवाया। लौटते समय अपने साथ गंगा जल लेकर आए जिसे उन्होंने भगवान शिव का अभिषेक किया। माना जाता है कि इसके साथ ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई।
शिवलिंग पर जलाभिषेक करने का कारण
पौराणिक काल में जब समुद्र मंथन किया गया था तो समुद्र मंथन से निकले विष को पान कर भगवान शिव ने दुनिया की रक्षा की थी। वहीं इस विष को पीने के काऱण उनका गला नीला पड़ गया था। कहते हैं इसी विष के प्रकोप को कम करने और उसके प्रभाव को ठंडा करने के लिए शिवलिंग पर जलाभिषेक किया जाता है। इस जलाभिषेक से प्रसन्न होकर भगवाना भक्‍तों की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
इस तैयारी के साथ आते हैं कांवड़ यात्री
कांवड़ बनाने में बांस, फेविकोल, कपड़े, डमरू, फूल-माला, घुंघरू, मंदिर, लोहे का बारिक तार और मजबूत धागे का इस्तेमाल करते हैं। कांवड़ तैयार होने के बाद उसे फूल- माला, घंटी और घुंघरू से सजाया जाता है। इसके बाद गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है। धूप-दीप जलाकर बम भोले के जयकारों ओर भजनों के साथ कांवड़ यात्री जल भरने आते हैं और भगवान शिव को जला जढ़ाकर प्रसन्‍न होते हैं।
कांवड़ यात्रा के लिए नियम
कांवड़ यात्रा में आने के लिए यात्रियों को कुछ नियमों का पालन करना होता है। जिसके लिए उन्हें बिना नहाए कांवड़ को नहीं छूना होता। तेल, साबुन, कंघी का प्रयोग वो यात्रा में नहीं करते। सभी कांवड़ यात्री एक-दूसरे को भोला या भोली कहकर बुलाते हैं। ध्‍यान रखना होता है कि कांवड़ जमीन से न छूए।
कई तरह से की जाती है कांवड़ यात्रा
सामान्य कांवड़में यात्री कहीं भी आराम कर सकता है। लेकिन इस दौरान उन्हें ध्यान रखना होता है कि आराम करने के दौरान उनमकी कांवड़ जमीन से नहीं छूनी चाहिए। इस दौरान कांवड़ स्टैंड पर रखी जाती है। वहीँ, दूसरी ओर डाक कांवड़ में यात्री शुरुआत से शिव के जलाभिषेक तक बगैर रुके लगातार चलते रहते हैं। वहीं इस दौरान शरीर से उत्सर्जन की क्रियाएं वर्जित होती हैं। इसके अलावा खड़ी कांवड़ में भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं। उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता रहता है। इसके विपरीत दांडी कांवड़ में भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। यह बेहद मुश्किल यात्रा होती है, जिसमें कई दिन और कभी-कभी एक माह का समय तक लग जाता है।
कांवड का इतिहास
भगवान परशुराम भगवान शिव के परम भक्त थे। मान्यता है कि वे सबसे पहले कांवड़ लेकर बागपत जिले के पास “पुरा महादेव”, गए थे। उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा का जल लेकर भोलेनाथ का जलाभिषेक किया था। उस समय श्रावण मास चल रहा था। तब से इस परंपरा को निभाते हुए भक्त श्रावण मास में कांवड़ यात्रा निकालने लगे।
कई प्रकार की होती है कांवड़ यात्रा
शुरुआत में कांवड़ यात्रा पैदल ही निकाली जाती थी। लेकिन समय के साथ इसके तमाम प्रकार और नियम कायदे सामने आ गए। जानिए उनके बारे में….
सामान्य कांवड़
सामान्य कांवर यात्रा के दौरान शिव भक्त जहां चाहे विश्राम करने के लिए स्वतंत्र होते हैं. इसके लिए सामाजिक संगठन के लोग कांवड़ियों के लिए पंडाल लगाते हैं, उनके लिए भोजन का प्रबंध करते हैं. विश्राम करने के बाद वह पुनः यात्रा शुरू करते हैं.
खड़ी कांवड़ यात्रा
खड़ी कांवड़ यात्रा सबसे कठिन होती है। इसमें भक्त कंधे पर कांवड़ लेकर पैदल यात्रा करते हुए गंगाजल लेने जाते हैं। इस कांवड़ के नियम काफी कठिन होते हैं। इस कांवड़ को न तो जमीन पर रखा जाता है और न ही कहीं टांगा जाता है। यदि कांवड़िये को भोजन करना है या आराम करना है तो वो कांवड़ को या तो स्टैंड में रखेगा या फिर किसी अन्य कांवडिये को पकड़ा देगा। लेकिन न तो जमीन पर रखेगा और न ही किसी पेड़ की टहनी पर टांगेगा।
झांकी वाली कांवड़
कुछ कांवड़िये झांकी लगाकर कांवड़ यात्रा करते हैं। ये किसी ट्रक, जीप या खुली गाड़़ी में शिव मूर्ति या प्रतिमा रखकर भजन चलाते हुए कांवड़ लेकर जाते हैं। इस दौरान भगवान शिव की प्रतिमा का श्रंगार किया जाता है और लोग भजन पर झूमते हुए यात्रा करते हैं। इस तरह की कांवड़ यात्रा को झांकी वाली कांवड़ कहा जाता है।
डाक कांवड़
डाक कांवड़ वैसे तो झांकी वाली कांवड़ जैसी ही होती है। इसमें भी किसी गाड़ी में भोलेनाथ की प्रतिमा को सजाकर रखा जाता है और भक्त शिव भजनों पर झूमते हुए जाते हैं। लेकिन जब मंदिर से दूरी 36 घंटे या 24 घंटे की रह जाती है तो ये कांवड़िए कांवड़ में जल लेकर दौड़ते हैं। ऐसे में दौड़ते हुए जाना काफी मुश्किल होता है। इस तरह की कांवड़ यात्रा को करने से पहले संकल्प करना होता है।
दांडी कांवड़
दांडी कांवड़ यात्रा के दरमियान शिव भक्त नदी तट से शिव धाम तक की यात्रा दांडी के सहारे पूरी करते हैं. यह सबसे कठिन यात्रा होती है, क्योंकि दांडी यात्रा में कभी-कभी महीनों लग जाते हैं.
कांवड़ यात्रियों के लिए नियम
बिना स्नान किये कांवड़ को स्पर्श नहीं करते.
यात्रा के दरम्यान तेल, साबुन, कंघी का प्रयोग नहीं किया जाता.
यात्रा में शामिल सभी कांवड़ यात्री एक-दूसरे को भोला, भोली अथवा भोले के नाम से पुकारते हैं.
कांवड़ को भूमि से स्पर्श नहीं करना चाहिए.
डाक कांवड़ यात्रा में शरीर से उत्सर्जन की क्रियाएं भी वर्जित होती हैं.
श्रवण कुमार थे पहले कांवड़ यात्री
मालूम हो कि सबसे पहले त्रेता युग में श्रवण कुमार ने ‘कांवड़ यात्रा’ शुरू की थी और तब से ही ‘कांवड़ यात्रा’ चली आ रही है। तो वहीं द्वापर युग में इसका जिक्र है। कहा जाता है कि अज्ञातवास के दौरान ही युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम ने हरिद्वार से गंगाजल लाकर भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए ये यात्रा प्रारंभ की थी।
काफी प्रसन्न होते हैं भोलेनाथ
आपको बता दें कि इस साल ये यात्रा 4 जुलाई से शुरू होकर 31 अगस्त तक चलने वाली है। माना जाता है कि कांवड़ के जरिए गंगा जल शिव भगवान को अर्पित करने से भोलेनाथ काफी प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों को सारे कष्टों से मुक्त कर देते हैं। कांवड़ यात्रा का जिक्र ‘वाल्मिकी रामायण’ में भी मिलता है।
कांवड़ यात्रा का महत्व
कांवड़ यात्रा एक पवित्र और कठिन यात्रा है जो पूरे भारत के भक्त विशेष रूप से उत्तर भारत में विभिन्न पवित्र स्थानों से गंगा जल लाने के लिए करते हैं, जो गौमुख, गंगोत्री, ऋषिकेश और हरिद्वार हैं। वे पवित्र गंगा में एक पवित्र डुबकी लगाते हैं और वे कांवड़ को अपने कंधों पर ले जाते हैं। कंवर बांस से बना एक छोटा सा खंभा होता है जिसके विपरीत छोर पर घड़े बंधे होते हैं। भक्त उन घड़े को गंगाजल से भर देते हैं और फिर पैदल चलकर अपनी कांवर यात्रा शुरू करते हैं और कुछ भक्त नंगे पांव भी देखे जाते हैं। हालांकि कुछ भक्त इस यात्रा को पूरा करने के लिए साइकिल, स्कूटर, मोटर साइकिल, जीप या मिनी ट्रक का भी उपयोग करते हैं। कांवड़ यात्रा में एक बहुत ही ध्यान देने वाली बात है कि इस यात्रा के दौरान ज्यादातर भक्त भगवा रंग की पोशाक पहनते हैं। पूजा के इस रूप का अभ्यास करके, कांवरिया आध्यात्मिक विराम लेते हैं और अपनी यात्रा के दौरान शिव मंत्र और भजनों का जाप करते हैं। कई एनजीओ और समूह कांवड़ियों को पानी, भोजन, मिठाई, फल, चाय, कॉफी प्रदान करने वाले शिविरों का आयोजन करते हैं और भक्तों के आराम करने की उचित व्यवस्था करते हैं। साथ ही भक्तों के लिए भी चिकित्सा सुविधाएं प्रदान करते हैं।

(साभार – समाचारनामा)

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