Wednesday, September 17, 2025
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हाईवे के बीच आ रहा 134 साल पुराना मंदिर, नींव समेत किया जाएगा स्थानांतरित

नयी दिल्ली । लखनऊ-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग को फोरलेन बनाने का काम चल रहा है। इस हाईवे पर कछियानी खेड़ा के एक 134 साल हनुमान मंदिर बीच में आ रहा है। अब इस मंदिर को अत्याधुनिक तकनीक से हाईवे पर पीछे की ओर खिसकाया जाएगा। इसके लिए एनएचएआई ने एक कंपनी से अनुबंध किया है। इंजीनियर मशीनों और जैक के जरिए पूरे मंदिर परिसर को इस तरह हटाएंगे कि मंदिर और वहां लगे विशाल पेड़ का मूलस्वरूप यथावत बना रहे। ऐसा करने में करीब 2 महीने का समय लगेगा। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये काम किस तरह किया जाता है। मंदिर ही नहीं मकानों को भी एक जगह से दूसरी जगह पर उठाकर रखवाया जा सकता है। आखिर इस काम को कौन से लोग करते हैं और इसमें कितना खर्च आता है। चलिए आपको बताते हैं।
इस तरह एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित की जाती हैं इमारत
इस तरह के काम अभी देश में कुछ प्राइवेट कंपनियां कर रही हैं। इसमें आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जाता है। इस काम में सावधानी बेहद जरूरी है। ये काफी धैर्य का काम है। इसमें जैक के जरिए पहले बिल्डिंग को ऊपर उठाया जाता है। इसमें 20 दिन से लेकर एक महीने तक का समय लग जाता है। इसके बाद जाकर बिल्डिंग तीन से चार फीट ऊपर उठ पाती है। बिल्डिंग को नींव सहित उठाया जाता है। एक्सपर्ट बताते हैं कि इससे बिल्डिंग की मजबूती पर कोई असर नहीं पड़ता है। बिल्डिंग को ऊपर उठाने के बाद उसे मशीनों की मदद से धीरे-धीरे खिसकाया जाता है।
कितना आता है खर्च
इस काम को करने में खर्च काफी कम आता है। अगर आप मकान या बिल्डिंग को गिराकर दूसरी जगह बनवाएंगे तो खर्चा काफी आता है। इस तरह से अगर आप मकान को शिफ्ट कराते हैं तो खर्चा काफी कम आता है। मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक, जो प्राइवेट कंपनियां इस काम का ठेका लेती हैं वो मकान को कितनी दूर शिफ्ट करना है उस हिसाब से रुपये चार्ज करती हैं। एक्सपर्ट बताते हैं कि कंपनियां पुराने मकान को एक से तीन फीट तक लिफ्ट करने के लिए करीब 200 से 250 रुपये प्रति वर्गफीट के हिसाब से ठेका लेती हैं। इससे ऊपर मकान लिफ्ट कराने पर प्रति वर्गफीट 50 रुपए फीट के हिसाब से अतिरिक्त चार्ज देना होता है।
चार-पांच मंजिला मकान भी हो सकता है लिफ्ट
एक्सपर्टस के मुताबिक, अगर मकान का नीचे का लैंटर मजबूत हो और दीवारें दो ईंट की चौड़ाई की हों तो चार-पांच मंजिला मकान भी अधिकतम पांच-छह फीट तक शिफ्ट व लिफ्ट किया जा सकता है। खुले में बने मकान को लिफ्ट करने में आसानी होती है। इसमें खर्च भी कम आता है। अगर मकान को अपने स्थान से खिसकाकर अन्य जगह शिफ्ट किया जाएगा तो खर्च बहुत आता है। शिफ्टिंग में तकनीक ज्यादा इस्तेमाल होती है, खर्च बढ़ता है जो कि कभी-कभी मकान की लागत से ज्यादा हो सकता है। इसलिए उसे ज्यादा दूर तक शिफ्ट नहीं कराया जाता।
ऐसे लिफ्ट किया जाता है मकान
इसमें सबसे पहले मकान को खाली कराकर अंदर के फर्श को खोदा जाता है और नींवों को साइड से उखाड़कर दासे की पटिया के नीचे लोहे के एंगल फंसाए जाते हैं। इसके बाद समूचे एंगलों को वेल्डिंग करके एक समान बेस तैयार किया जाता है और उसके नीचे जैक लगाए जाते है। मकान के साइज के हिसाब से जैक लगाए जाते हैं। सामान्य साइज के मकान में 200 से 300 जैक लगाए जाते हैं। इसके बाद इन्हें एक साथ आधा-आधा इंच उठाना शुरू किया जाता है। जैक के लीवर को उठाने के लिए मजदूर भी लगाए जाते हैं। इन मजदूरों को हेड मिस्त्री कमांड देता है। ये मजदूर कमांड मिलने के बाद एक साथ सभी जेक को आधा-आधा इंच ऊपर उठाते हैं। जब सभी जैक आधा इंच ऊपर आ जाते हैं तब दोबारा से फिर एक-एक करके सभी जैक लीवर के सहारे आधा इंच उठाए जाते हैं। यह प्रक्रिया दिन भर चलती है।

(साभार – नवभारत टाइम्स)

धोबिया नाच… पीढ़ियों की विरासत जिंदा रखे हुए है गाजीपुर का यह कलाकार

गाजीपुर । देश में बहुत सी ऐसी विधाएं हैं, जो कि समय के साथ विलुप्त होती जा रही है। ऐसी ही एक मंचीय कला धोबिया नाच  है, जिसके कलाकार इस विधा को बचाने के लिए चिंतित है। गाजीपुर के सलटू राम विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके, मंचीय कला धोबिया नाच को संरक्षित करने की जद्दोजहद में लगे हैं। एक वक्त था कि लगभग सभी मांगलिक कार्यों पर धोबिया नाच का आयोजन सामान्य रवायत का हिस्सा था। लेकिन, कालांतर में ब्रास बैंड और उसके बाद डीजे ने धोबिया नाच के कलाकारों को हाशिए पर ठेल दिया।
सलटू ने एनबीटीऑनलाइन को बताया कि यह विधा पिछले तीन पीढ़ियों से उनके परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रही है। अब वह अपने बेटे को धोबिया नाच का हुनर सीखा रहे हैं। सलटू के दादा मुसन राम त्रिनिदाद टोबैगो के साथ अफ्रीकी देशों में अपने परफॉर्मेंस दे चुके हैं। सलटू अपने दादा की विदेशी यात्राओं के हवाई जहाज के टिकट और तस्वीरों को संरक्षित करके रखे हुए हैं।
बचपन की यादों में खो गए सलटू राम
सलटू अपने बचपन की यादों को ताजा करते हुए बताते हैं कि, एक दौर था जब लगभग हर मांगलिक अवसरों पर धोबिया नाच का परफॉर्मेंस होता था। धीरे-धीरे ब्रास बैंड और उसके बाद डीजे ने धोबिया नाच की विधा को हाशिए पर धकेल दिया। सलटू आगे बताते हैं कि उनके बाबा मुसन राम जब मंच पर चढ़कर वीर रस में आजादी की लड़ाई से जुड़ी घटनाओं का वर्णन अपनी मंचीय कला धोबिया नाच के माध्यम से वर्णित करते थे, तो मानो पूरा माहौल जीवंत हो जाता था। सलटू बताते हैं कि अब इस विधा के कुछ गिने-चुने कद्रदान ही रह गए हैं।
मॉरीशस के पीएम के स्‍वागत में धोबिया नाच
गाजीपुर के मरदह ब्लाक के पांडेपुर राधे गांव के रहने वाले सलटू बताते हैं कि कभी-कदार उनसे लोग संपर्क करते हैं और उनसे परफॉर्म करने के लिए कहते हैं। कभी कुछ संस्थाओं के तरफ से भी कार्यक्रम करने का निमंत्रण मिलता है। सलटू ने पिछले दिनों मॉरीशस के प्रधानमंत्री के वाराणसी आगमन पर उनके स्वागत में धोबिया नाच का परफॉर्मेंस दिया था। वाराणसी में भी सलटू को परफॉर्म करने का मौका मिला था।
कैसे यह कला आगे बढ़े, यह सबसे बड़ी चिंता
सलटू की चिंता यह है कि जिस विधा को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे जाना चाहिए, वह विलुप्त होने की कगार में है।अब धोबिया नाच के गिने-चुने कलाकार ही रह गए हैं। सलटू बताते हैं कि जहां लोग डीजे ऑर्केस्ट्रा को महंगे दरों पर बुक करते हैं, वही धोबिया नाच के कलाकारों को कुछ पैसों की ही आमदनी इस परफार्मिंग आर्ट से हो पाती है। सलटू की मंडली में कुल 15 कलाकार हैं। प्रतिदिन 1200 से 2000 रुपए की आमदनी हर कलाकार को हो पाती है। धोबिया नाच का कार्यक्रम 1 दिन से लेकर 4 दिन तक के होते हैं। यह आयोजक के ऊपर निर्भर है कि वह कितने दिनों का कार्यक्रम रखते है।
जल्‍द सिंगापुर में करेंगे धोबिया नाच
सलटू अब तक दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, पूना, पटना, हैदराबाद के साथ ही दक्षिण कोरिया में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। सलटू ने यह भी बताया इसी साल जून के महीने में इंडियन काउंसिल आफ कल्चरल रिलेशन के जरिए उन्हें सिंगापुर में भी धोबिया नाच के परफॉर्मेंस करने का मौका मिल सकता है।
सलटू की इच्‍छा, आगे चलती रहे यह मंचीय कला
सलटू चाहते है कि उनको विरासत में मिली यह मंचीय कला आगे भी चलती रहे। अपने गांव और आसपास के गांव के युवाओं को इस मंचीय कला की बारीकियों को सीखा रहे हैं। उनसे फिलहाल मुन्नी लाल, लवकेश, लबटु, अमलेश आदि युवा धोबिया नाच सिख रहें है। सलटू के शागिर्द मुन्नी लाल ने बताया कि वह इस कला को सिर्फ आजिविका के साधन के तौर पर नहीं देख रहे हैं। उन्हें इस मंचीय कला से भावनात्मक जुड़ाव है। किसी दौर में यह कला बड़े फक्र के साथ मंचित की जाती है। उनके बाप,दादा बड़े ही चाव से इसको देखते थे। इसमें सामाजिक सरोकारों के मुद्दों की बात होती थी। ऐसे में इस कला से साथ आमजन मानस का जुड़ाव बन जाना स्वाभाविक ही था। वह चाहते है कि यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहे।
रिपोर्ट – अमितेश कुमार सिंह
(साभार – नवभारत टाइम्स)

 लावारिसों को अपनों सा सम्‍मान दे रहीं मुजफ्फरनगर की शालू

मुजफ्फरनगर । कोविड महामारी महामारी अपने चरम पर थी। मुजफ्फरनगर में एक कोविड मरीज का शव लावारिस पड़ा था। लावारिस… शायद इसलिए कि उस बुजुर्ग शख्‍स के परिवार के पास अंतिम संस्‍कार के लायक पैसा नहीं था या फिर शायद इतना साहस नहीं बचा था कि कोविड संक्रमण का खतरा मोल ले सकें। दिन भर शालू सैनी (Shalu Saini) ने उस शव को खुले में पड़े देखा, फिर उनसे रहा नहीं गया। शालू घर से बाहर निकलीं और खुद उसका अंतिम संस्‍कार किया। उसके बाद से पूरी महामारी में शालू सैनी (37) अपने दम पर 200 से ज्‍यादा कोविड से जान गवां चुके मरीजों का अंतिम संस्‍कार किया। आज तक वह करीब 500 से ज्‍यादा शवों का अंतिम संस्‍कार करा चुकी हैं। ये शव या तो लावारिस होते हैं या फिर इनके परिजनों के पास इतना पैसा नहीं होता कि अंतिम संस्‍कार का खर्च उठा सकें।
‘कम से कम अंतिम संस्‍कार तो इज्‍जत से हो’
दो बच्‍चों की सिंगल मदर लेकिन शालू कहती हैं, ‘इंसान पैदा होने से लेकर अपनी आख‍िरी सांस तक संघर्ष करता है। कम से उसका इतना तो हक बनता है कि उसका क्रियाकर्म सम्‍मान के साथ हो। यह हमारा फर्ज है।’ लेकिन एक अकेली मां के लिए यह सब इतना आसान भी नहीं था। शालू बताती हैं कि कोविड साल 2020 में जब अपने चरम पर था उस समय एक अंतिम संस्‍कार करने पर पांच हजार रुपयों तक का खर्च आता था। परिवार असहाय हो चुके थे, उनका रोजगार बंद हो गया था, लकड़ी की भी कमी थी।’
अब लोग भी मदद करने लगे
धीरे-धीरे कोविड की आपदा कम हुई लेकिन जब भी कहीं किसी को कोई लावारिस शव दिखाई देता वह शालू को इसकी जानकारी देता। इस समय भी अंतिम संस्‍कार पर चार हजार से कम नहीं खर्च होता, और यह भी काफी बड़ी रकम है। लेकिन शालू मुस्‍करा कर कहती हैं, ‘धीरे-धीरे लोगों को मेरे बारे में पता चला तो अनजान लोग भी पैसों की मदद करने लगे।’
लावारिस लाशों के लिए आते हैं कॉल
अब शालू गरीबों और लावारिस शवों के लिए ‘भगवान’ सरीखी हैं। वह बताती हैं, ‘मेरे पास मुर्दाघर, पुलिस, एनजीओ, झुग्गियों, श्‍मशान घरों से कॉल आने लगे हैं। लेकिन मेरे लिए यह आध्‍यात्मिक मसला है, मैं यह सब करके खुद को ईश्‍वर के और निकट पाती हूं।’
बच्‍चों की प्रेरणा है
शालू की एक छोटी सी गारमेंट्स की शॉप है। अपने परिवार के बारे में बताती हैं, ‘मैं साल 2013 से अकेली रह रही हूं। मैंने अपने जीवन में बहुत झेला है।’ उनके दो बच्‍चे हैं, साक्षी (15) और सुमित (17) और दोनों के दिल में उनकी मां के इस अनोखे काम की बहुत इज्‍जत है।
प्रशासन ने भी की तारीफ
मुजफ्फरनगर के एडीएम नरेंद्र बहादुर सिंह ने भी शालू की तारीफ की। वह कहते हैं, ‘शालू हमारी कई तरह से मदद करती हैं। अकसर वह सामाजिक मुद्दों पर जनता के बीच जागरुकता फैलाती हैं।’ मुजफ्फरनगर के एक श्‍मशानघाट के इंचार्ज कल्‍लू यादव बताते हैं, ‘शालू कोरोना के समय से ही यहां आ रही हैं। जैसे ही उन्‍हें किसी लावारिस लाश के बारे में पता चलता है वह यहां आने वाली पहली शख्‍स होती हैं। इसके बाद वह अंतिम संस्‍कार की पूरी तैयारी करती हैं और खुद अंतिम संस्‍कार भी करती हैं।’ शालू आजकल शवों की अस्थियों का विसर्जन भी करती हैं।
इनके लिए शालू बनीं देवदूत
हरियाणा, रोहतक के निवासी निखिल जांगरा के लिए वह किसी देवदूत से कम नहीं हैं। निखिल के पिता का शालू ने उस समय अंतिम संस्‍कार किया जब वह इस साल कांवड़ यात्रा में वापस लौट रहे थे। उस घटना के बारे में निखिल बताते हैं, ‘मेरे पिता (55) घर लौटते समय मुजफ्फरनगर में एक सड़क हादसे का शिकार हो गए। उनकी उस समय शिनाख्‍त नहीं हो सकी थी। ऐसे में शालू ने ही उनका अंतिम संस्‍कार किया।’
आसान नहीं था संघर्ष
पर शालू के लिए यह सब बहुत आसान नहीं है। वह बताती हैं, एक अकेली औरत के लिए यह सब बहुत आसान नहीं था। ऐसे भी दिन थे जब मेरे रिश्‍तेदार मुझे अंतिम संस्‍कार करने से यह कहकर रोकते थे कि मैं महिला हूं और मुझे यह सब नहीं करना चाहिए। महिलाओं को तो श्‍मशानघाट के पास भी नहीं जाने दिया जाता।’
(साभार – नवभारत टाइम्स)

कब्र में सोया वो आदमी

डॉ. वसुंधरा मिश्र

रात की कालिमा में मैंने खिड़की के बाहर पलंग पर सोये सोये कुछ देखने की कोशिश की। गूलर के पेड़ से सटा हुआ था वह कब्रिस्तान। वहां कल ही एक कब्र दफनाई गई थी। सन्नाटे की चादर ओढ़े पूरा अंधेरा किसी चमगादड़ों की छाया से कम नहीं लग रहा था। मैं उस अंधेरे को पढने की कोशिश कर रही थी। वहाँ कोई सुराग नहीं मिल रहा था जिससे मैं कब्र में सोये व्यक्ति को देख सकूं। डर भी लग रहा था कि वह कहीं उठ के वहाँ घूमने न लग जाए।
क्या ऐसा होता है कि मरा हुआ आदमी मरने के बाद भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हो।
मैं जानती हूं कि वह कैंसर जैसी भयानक बीमारी से जूझ रहा था। क्या घर वालों के साथ वह भी अपने आप से ऊब चुका था? क्या वह वाकई में जीवन नहीं जीना चाहता था?
घर वालों के लिए भी उसकी अहमियत ख़त्म हो गई थी । अपनी जवानी में उसने मल्टीनेशनल कंपनियों में काम किया। अपने जीवन के स्वर्णिम दौर में ढेर सारा रुपया कमाया। अपनी पत्नी और बच्चों को सुरक्षा दी। सुख सुविधाएं दीं।
रोग लगने के साथ ही घर वालों के साथ बाहर वाले भी धीरे-धीरे उससे अलग होते चले गए। वह दुनिया में दस सालों से अलग-थलग रह रहा था। जीवन की सभी रंगीनियाँ उसकी नहीं रही। पत्नी भी साथ रहकर भी साथ नहीं रहती। वह चाह कर भी कुछ कह नहीं पाता। उसे इस बात का अहसास था कि वह अब उसका प्रेम भी टुकडों में बांट दिया गया है।
पत्नी का चेहरा भी उदासी को झेलते- झेलते यंत्रवत हो चला था। वह दूसरी लगने लगी थी। वह प्यार से नहीं, बोझिल नजरों से देखती। रूपयों की कमी न भी रही हो तो भी जीवन में जीवन नहीं बचा था। कहते हैं न जीते जी मरी हुई लाश की तरह जिंदगी घसीट रही थी।
आनंद फिल्म में राजेश खन्ना के अभिनय ने कैंसर रोगी के भीतर भी जान डाल दी थी। वह कितना खुश रहता था। अकेलेपन को भी जीता था। कैंसर कितना जानलेवा है न जीने देता है और न मरने देता है।
कभी-कभी लगता है कि आत्महत्या करना अच्छा है जिसमें एक बार ही पूरी दुनिया से छुटकारा।
खैर, मैं सोच रही थी कि कैसे एक व्यक्ति जीवन से मृत्यु और मृत्यु के बीच भी अपने आप को संतुलित करने का नाटक करता है। मरने के बाद किसने देखा।
उस कब्र में वही हँसता मुस्कुराता और सुंदर हैंडसम कबीर था जिसे मैं अक्सर खिड़की से देखा करती थी। वह रात कालिमा से भरी थी। धीरे-धीरे मेरी आंखें नींद से कब बोझिल हो गईं पता ही नहीं चला। खिड़की से आती धूप की पहली किरण ने मेरी खिड़की पर दस्तक दी। फिर उस दुनिया की हलचलें सुनाई पड़ने लगीं।

हिन्दी दिवस पर आभासी माध्यम पर परिचर्चा आयोजित

कोलकाता । गूगल मीट पर हिंदी दिवस पर एक परिचर्चा आयोजित की गयी। इस कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में शुभ सृजन नेटवर्क की प्रमुख सुषमा त्रिपाठी कनुप्रिया और शिक्षिका सीमा साव उपस्थित थीं।।कार्यक्रम में कई लोगों ने स्वरचित कविता पाठ, काव्य संगीत, काव्य आवृति और वक्तव्य के माध्यम से हिंदी की सक्रियता पर अपने विचार रखें।।। प्रगति पांडे ने स्वरचित कविता हिंदी हमें रचती है,अनामिका सिंह ने मां, निखिता पांडे ने जवान, अर्चना सिंह ने हिंदी की दशा, विद्योतमा प्रसाद ने मोबाइल, सूफिया ने हिंद देश के वासी, मेघना साव ने बच्चे, आयना ने पानी से घिरे हुए लोग और अदिति ने रश्मिरथी तृतीय सर्ग की प्रस्तुति की। इसके अलावा अंकित सिंह, अमन कुमार, राम नारायण, पूजा महतो ने कबीर के दोहों पर गीत गाकर कार्यक्रम को सफल बनाया। संचालन आनन्द श्रीवास्तव ने किया और इस संकल्प के साथ कि हिंदी दिवस पर ही हिंदी की चर्चा हम नहीं करेंगे बल्कि हर दिन हर पल अपनी पढ़ने- लिखने की कला के माध्यम से इसका विस्तार करेंगे। सुषमा त्रिपाठी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए हिंदी के साथ आने वाली और चल रही चुनौतियों पर विशेष टिप्पणी की साथ ही सुंदर भविष्य गढ़ने की प्रेरणा दी।

दक्षिण कोलकाता तेरापंथ विंग के युवा परिषद ने आयोजित किए 35 से अधिक रक्तदान शिविर

विश्व के सबसे बड़े रक्तदान शिविर का आयोजन

कोलकाता । दक्षिण कोलकाता तेरापंथ विंग के युवा परिषद द्वारा “रक्तदान में इतिहास” बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम बढ़ाते हुए “मेगा ब्लड डोनेशन ड्राइव” (एमबीडीडी) अभियान के तहत पूरे महानगर में 36 रक्तदान शिविरों का आयोजन किया गया। इस रक्तदान शिविर का उद्घाटन जय तुलसी फाउंडेशन के मुख्य ट्रस्टी श्री तुलसी दुगड़ ने किया। इस स्वर्णिम कार्य में दक्षिण कोलकाता तेरापंथ युवा परिषद के अध्यक्ष रोहित दुगड़, कमल सेठिया, कमल कोचर, शैलेंद्र बोरार, प्रवीण सिरोहिया, मनोज दुगड़, संदीप सेठिया, सौरव श्यामसुखा 108 एसडीपी डोनर, मनीष सेठिया, मनोज नाहटा, नरेंद्र सिरोहिया, मोहित दुगड़, अमित पुगलिया, संदीप मनोत, आनंद मनोत, आनंद बर्दिया, अंकित दुगड़ , अनिल सिंघी, भूपेंद्र दुगड़, अजय कोचर के साथ समाज की कई अन्य प्रख्यात हस्तियां मौजूद थे।

दक्षिण कोलकाता तेरापंथ युवा परिषद की ओर से महानगर के इन स्थानों पर ने रक्तदान शिविर का आयोजन किया: सीईटीए, इजरा स्ट्रीट; आरोग्य मैटरनिटी होम, न्यू अलीपुर उद्यान, न्यू अलीपुर, टाटा मेडिकल सेंटर, बगुईहाटी सांस्कृतिक सेवा सदन, बाबोसा भक्त मंडल, इको पार्क, व्योम, तेरापंथ भवन, भवानीपुर तेरापंथ भवन, भवानीपुर में बीएनआई एपिक नीलकंठ, कैमक स्ट्रीट इलेक्ट्रो पावर, बारासात बालाजी ट्रेडर्स, मध्यमग्राम ईस्ट एंड गार्डन, मेफेयर रोड एक्वाटेरा, तेरापंथ भवन, भवानीपुर सिंधी औषधालय, मिर्जा गालिब स्ट्रीट, स्प्रिंग क्लब, हाइजीनिक पॉलिमर, दानकुनी, महावीर सेवा सदन, ग्रीनफील्ड सिटी, दादपुर मोटर्स, बालाजी रोटोमोल्डर्स प्राइवेट लिमिटेड, सिद्ध वेस्टन, आईसीए एडुस्किल्स, सेक्टर 5, फ्लोरा फाउंटेन, फ्लोरा फाउंटेन आरसीटीसी, रेसकोर्स आईसीएआई भवन, रसेल सेंट पीएस ग्रुप, ईएम बाईपास, हेल्थ प्वाइंट क्लिनिक, सोदपुर, कलकत्ता चैंबर ऑफ कॉमर्स, पार्क सेंट, रोवलैंड पैलेस, रोलैंड रोड, विक्टोरिया मेमोरियल, बीच टी एस्टेट, हासीमारा, कमांड अस्पताल अलीपुर, अपोलो अस्पताल, चितरंजन अस्पताल, मानिकतल्ला दादाबाड़ी में इस शिविर का आयोजन किया गया।

इस मौके पर दक्षिण कोलकाता तेरापंथ युवा परिषद के अध्यक्ष श्री रोहित दुगड़ ने कहा, महानगर के कई जगहों पर जिनमे दक्षिण कोलकाता में विक्टोरिया मेमोरियल, सीए इंस्टीट्यूट रसेल स्ट्रीट, आरसीटीसी रेस कोर्स पद्दोपुकुर में तेरापंथ भवन और ऐसे कई स्थान में अलग से कई प्रतिष्ठित स्व-प्रेरित रक्तदान शिविर आयोजित किए जा रहे हैं,एल। हम अपने सभी सहयोगियों, दाताओं और विशेष रूप से साउथ सभा, महिला मंडल और टीपीएफ दक्षिण कोलकाता का इस महोत्सव के आयोजन का समर्थन के लिए बहुत आभारी हैं। हमारा उद्देश्य न केवल रक्तदान के माध्यम से रक्त एकत्र करना है, बल्कि एक डेटा-बैंक बनाना और इसे देश को समर्पित करना है, जिससे भविष्य में आपातकालीन स्थितियों में रक्तदाताओं को फिर से जोड़ा जा सके और रक्त की आवश्यकताओं को पूरी तरह से पूरा किया जा सके। रक्तदान जरूरतमंदों के लिए जीवनदान है।

कोरोना महामारी के ब से स्वैच्छिक रक्तदान करनेवाले लोगों की भारी कमी हो गई है, जिसके कारण ब्लड बैंकों में खून की कमी होना आम बात है। रक्त का कोई विकल्प नहीं है। भारत में लगभग 52 करोड़ स्वस्थ लोगों और योग्य रक्तदाताओं के साथ 135 करोड़ से अधिक की आबादी है। अगर वे स्वेच्छा से रक्तदान करते हैं, तो देश के ब्लड बैंकों में रक्त की कभी कमी नहीं होगी। भारत में रक्तदान नियमों के अनुसार, 18 से 65 वर्ष की आयु के बीच कोई भी स्वस्थ व्यक्ति हर तीन महीने में स्वेच्छा से रक्तदान कर सकता है। प्रत्येक मानव शरीर में नए रक्त निर्माण की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है, अर्थात पुरानी रक्त कोशिकाएं लगभग 120 दिनों का अपना जीवन काल पूरा करने के बाद नए रक्त के लिए जगह बनाती हैं। हमारे शरीर की नसों में लगभग 5 से 6 लीटर खून हमेशा बहता रहता है। रक्तदान करना एक बड़ा पुण्य कार्य माना जाता है। हर मानव को बढ़-चढ़ कर इस पुण्य कार्य में आगे आना चाहिए |

प्रतिभा सिंह तीसरी बार बनीं वीरांगना प्रदेश कार्यकारिणी की अध्यक्ष

कोलकाता । अंतरराष्ट्रीय क्षत्रिय वीरांगना फाउंडेशन पश्चिम बंगाल की समस्त इकाइयों की नयी कार्यकारिणी का गठन लिलुआ में आयोजित एक बैठक में सर्वसम्मति से किया गया। जिनमें से कुछ पदों पर मामूली हेरफेर हुआ और कुछ नये पदाधिकारी व सदस्य बनाये गये।  प्रदेश कार्यकारिणी में फिर से अध्यक्ष प्रतिभा सिंह, उपाध्यक्ष रीता राजेश सिंह, महासचिव प्रतिमा सिंह, कोषाध्यक्ष पूजा सिंह, संयुक्त सचिव ममता सिंह, संगठन सचिव किरण सिंह व सुमन सिंह और जनसम्पर्क सचिव पूनम सिंह बनायी गयीं। प्रख्यात गायिका प्रतिभा सिंह तीसरी बार वीरांगना प्रदेश अध्यक्ष बनायी गयी हैं। कोलकाता महानगर इकाई की सरंक्षक गिरिजा दारोगा सिंह व गिरिजा दुर्गादत्त सिंह, अध्यक्ष मीनू सिंह, उपाध्यक्ष ललिता सिंह, महासचिव इंदु सिंह, कोषाध्यक्ष संचिता सिंह,  सचिव विद्या सिंह, संयुक्त सचिव सुनीता सिंह व सरोज सिंह, सदस्य रेखा सिंह, मीरा सिंह, पूनम सिंह बनायी गयीं। सोदपुर इकाई की अध्य़क्ष सुनीता सिंह, उपाध्यक्ष सुलेखा सिंह, महासचिव आशा सिंह, कोषाध्यक्ष रीता सिंह, सचिव मंजू सिंह, संयुक्त सचिव जयश्री सिंह, बालीगंज इकाई की अध्यक्ष रीता सिंह, उपाध्यक्ष मीरा देवी सिंह तथा महासचिव दीपमाला सिंह, सदस्य शैला सिंह और नारी शक्ति वीरांगना की सदस्य अनीता साव, अनिशा मुखर्जी, शकुंतला साव, काजल गुप्ता, मीनू तिवारी, सुनीता शर्मा, स्तुति शर्मा, बेबीश्री बनायी गयीं।

ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का निधन

लंदन । महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का निधन हो गया।  .वह 96 साल की थीं और कुछ समय से चिकित्सा निगरानी में थीं। उन्होंने स्कॉटलैंड में अपने निवास बालमोराल कासल में अंतिम सांस ली। सबसे लंबे समय तक ब्रिटेन की गद्दी पर बैठने वाली महारानी की तबियत गत गुरुवार को खराब हो गयी। बकिंघम पैलेस के बयान में कहा गया है कि अब महारानी के उत्तराधिकारी प्रिंस चार्ल्स राजा हैं और उनकी पत्नी कैमिला पार्कर रानी हैं। वे अभी बालमोराल में ही हैं और सुबह लंदन लौटेंगे।

एलिजाबेथ भाग्यवश बनीं महारानी
एलिजाबेथ द्वितीय का जन्म 21 अप्रैल 1926 को यॉर्क के ड्यूक परिवार में हुआ था। जन्म के समय उनके राजगद्दी पर आने की कोई संभावना नहीं थी। एलिजाबेथ के जन्म के दस साल बाद उनके चाचा एडवर्ड ने राजगद्दी को प्यार के लिए ठुकरा दिया और एलिजाबेथ के पिता जॉर्ज ने गद्दी संभाली। इसके बाद उनकी बड़ी बेटी एलिजाबेथ क्राउन प्रिंसेस बनी।

भारत की आजादी के कुछ ही महीनों बाद 20 नवंबर 1947 को एलिजाबेथ ने ग्रीस के प्रिंस फिलिप से शादी की. एक साल बाद बेटे चार्ल्स का जन्म हुआ, अगस्त 1950 में बेटी ऐन का, 1960 में एंड्र्यू और 1964 में बेटे एडवर्ड का।

महारानी ने किया 16 प्रधानमंत्रियों के साथ काम
1952 में एलिजाबेथ कॉमनवेल्थ देशों की यात्रा पर थीं, जब उन्हें पिता किंग जॉर्ज VI के निधन की खबर मिली और 25 साल की उम्र में राजगद्दी की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई. एक साल के शोक के बाद 2 जून 1953 को उनकी ताजपोशी हुई।
महारानी एलिजाबेथ यूनाइटेड किंगडम के अलावा ऑस्ट्रेलिया समेत 15 देशों की राष्ट्र प्रमुख थीं। संवैधानिक राजशाही में महारानी के रूप में उनकी जिम्मेदारी सांकेतिक थी। शुरू में अनुभवहीन महारानी अपनी शासन के शुरुआती दिनों से ही हर हफ्ते प्रधानमंत्री से मिलती और देश दुनिया की स्थिति पर चर्चा करतीं। 70 साल के कार्यकाल में उन्होंने 16 प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया जिनमें तीन महिला प्रधान मंत्री शामिल हैं।

पिछले साल ही हुआ था पति प्रिंस फिलिप का निधन
आम तौर पर महारानी को बहुत रिजर्व और कम संवेदनशील माना जाता था, लेकिन फिर भी वह जनता के बीच बहुत लोकप्रिय थी। संचार और लोगों से संपर्क के मामले में वह हमेशा समय के साथ रहीं और हाल में सोशल मीडिया का भी इस्तेमाल किया। महारानी ने ग्रीस के कुमार प्रिंस फिलिप से शादी की। दोनों का साथ 73 साल तक रहा. 99 की उम्र में प्रिंस फिलिप का पिछले साल ही निधन हुआ था।

89.08 मीटर के थ्रो के साथ नीरज चोपड़ा ने जीती डायमंड लीग

खिताब जीतने वाले पहले भारतीय
ओलंपिक चैंपियन भाला फेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा ने शुक्रवार को एक और ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल कर ली है। नीरज चोपड़ा लुसाने डायमंड लीग 2022 जीतने वाले पहले भारतीय बन गए हैं। नीरज चोपड़ा ने 89.08 मीटर के अपने पहले थ्रो के साथ लुसाने डायमंड लीग जीती है।
हाल ही में नीरज ने भारत को वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में रजत पदक दिलाया था। अंजू बॉबी जॉर्ज (2003) के बाद वह ऐसा करने वाले सिर्फ दूसरे एथलीट बने। फाइनल में नीरज ने 88.13 मीटर दूर तक भाला फेंका था और रजत पदक अपने नाम किया था।
कॉमनवेल्थ गेम्स में नहीं हुए थे शामिल
वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में जेवलिन फाइनल के दौरान नीरज चोपड़ा को चोट लगी थी। फाइनल में नीरज अपनी जांघ पर पट्टी लपेटते भी नजर आए थे। अब उसी चोट की वजह से नीरज कॉमनवेल्थ गेम्स में हिस्सा नहीं ले पाए थे। 2018 कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक अपने नाम करने वाले नीरज चोट की वजह से 2022 में भाग नहीं ले पाए थे।
डायमंड लीग का ताज जीतने वाले पहले भारतीय
हरियाणा में पानीपत के पास खंडरा गांव का रहने वाले नीरज चोपड़ा डायमंड लीग का ताज जीतने वाले पहले भारतीय बन गए हैं। वहीं चोपड़ा से पहले, डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ा डायमंड लीग मीटिंग में शीर्ष तीन में रहने वाले एकमात्र भारतीय हैं। गौड़ा दो बार 2012 में न्यूयॉर्क में और 2014 में दोहा में दूसरे और 2015 में शंघाई और यूजीन दो मौकों पर तीसरे स्थान पर रहे थे। टोक्यो ओलंपिक के रजत पदक विजेता जैकब वाडलेज्च 85.88 मीटर के सर्वश्रेष्ठ थ्रो के साथ दूसरे स्थान पर रहे, जबकि यूएसए के कर्टिस थॉम्पसन 83.72 मीटर के सर्वश्रेष्ठ प्रयास के साथ तीसरे स्थान पर रहे।
चोपड़ा ने 7 और 8 सितंबर को ज्यूरिख में डायमंड लीग फाइनल के लिए भी क्वालीफाई किया। वह ऐसा करने वाले पहले भारतीय भी बने। उन्होंने बुडापेस्ट, हंगरी में 2023 विश्व चैंपियनशिप के लिए भी 85.20 मीटर क्वालीफाइंग मार्क को तोड़कर क्वालीफाई किया।

ऑस्कर की दौड़ में शामिल हुई असमिया लघु फिल्म

दूर्बा घोष

गुवाहाटी । पंद्रह मिनट की असमिया लघु फिल्म ‘मुर घुरार दुरंतो गोटी’ (स्वर्ग का घोड़ा) ने ऑस्कर पुरस्कार की लघु फिल्म (कथा) श्रेणी में भारतीय प्रवृष्टि के रूप में शामिल होने की अर्हता प्राप्त कर ली है। लघु फिल्म के निर्देशक महर्षि तुहीन कश्यप ने यह जानकारी दी।
‘मुर घुरार दुरंतो गोटी’ एक ऐसे व्यक्ति की कहानी बयां करती है, जिसे लगता है कि उसके पास दुनिया का सबसे तेज रफ्तार घोड़ा है और वह शहर में होने वाली हर दौड़ में जीतना चाहता है। लेकिन उस व्यक्ति के पास वास्तव में कोई घोड़ा नहीं, बल्कि एक गधा होता है।
सत्ताइस वर्षीय कश्यप ने कहा, “अब जबकि हम भारतीय प्रवष्टि के रूप में शामिल होने के लिए अर्हता प्राप्त करने में सफल हो गए हैं तो यह एक सपने के सच होने जैसा है।”
‘मुर घुरार दुरंतो गोटी’ का निर्माण कोलकाता स्थित सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट (एसआरएफटीआई) में एक छात्र प्रोजेक्ट के रूप में किया गया था। यह लघु फिल्म हाल ही में आयोजित बेंगलुरु अंतरराष्ट्रीय लघु फिल्म महोत्सव (बीआईएसएफएफ) में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवॉर्ड जीतने में कामयाब रही थी। बीआईएसएफएफ ऑस्कर पुरस्कार में भारतीय प्रवृष्टि के रूप में भेजी जाने वाली फिल्मों के चयन के लिए एक क्वालिफाइंग फिल्म महोत्सव है।
फीचर फिल्मों के विपरीत एक लघु फिल्म को ऑस्कर में भेजे जाने के लिए उसका ऑस्कर से जुड़े एक क्वालिफाइंग फिल्म महोत्सव में पुरस्कार जीतना जरूरी होता है। बीआईएसएफएफ भारत में एकमात्र ऐसा फिल्मोत्सव है, जो अंतरराष्ट्रीय और भारतीय स्पर्धा की अपनी विजेता फिल्मों को ऑस्कर की लघु फिल्म (फिक्शन) श्रेणी में नामांकन के लिए भेजने के पात्र है।
बीआईएसएफएफ के निदेशक आनंद वरदराज ने कहा, “हमें यह घोषणा करते हुए खुशी हो रही है कि महर्षि कश्यप द्वारा निर्देशित ‘मुर घुरार दुरंतो गोटी’ बेंगलुरु अंतरराष्ट्रीय लघु फिल्म महोत्सव-2022 की भारतीय स्पर्धा श्रेणी की विजेता है और यह ऑस्कर की लघु फिल्म (फिक्शन) श्रेणी में प्रवृष्टि के लिए पात्र होगी।”
‘मुर घुरार दुरंतो गोटी’ के निर्माण दल में एसआरएफटीआई के अंतिम वर्ष के छात्र शामिल हैं। इस लघु फिल्म के ज्यादातर हिस्से एसआरएफटीआई परिसर और संस्थान के स्टूडियो में फिल्माए गए हैं, जबकि कुछ हिस्सों की शूटिंग कोलकाता के बाहरी इलाके में की गई है।
कश्यप ने बताया कि एक छात्र के रूप में वे उस लंबे सफर के बारे में ज्यादा नहीं जानते, जिससे कोई फिल्म गुजरती है और उन्हें विशेषज्ञों से मदद व मार्गदर्शन मिलने की उम्मीद है।
कश्यप, जिन्होंने फिल्म की पटकथा भी लिखी है, उन्होंने अपनी कहानी सुनाने के लिए असम की कहानी बयां करने वाली 600 साल पुरानी कला ‘ओजापाली’ का सहारा लिया है। ‘ओजापाली’ कलाकार गानों, नृत्य, इशारों और दर्शकों के साथ मजेदार संवाद का इस्तेमाल कर पौराणिक कथाओं से जुड़ी कहानियां सुनाते हैं।
कश्यप कहते हैं, “मुझे लगा कि फिल्म में हमारी कहानी को बयां करने के लिए यह कला बहुत दिलचस्प हो सकती है। यह कहानी कहने की पारंपरिक कला ‘ओजापाली’ को सिनेमा में पेश करने का एक औपचारिक प्रयास है।”