Wednesday, September 17, 2025
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस थे आज़ाद हिंद सरकार के प्रधानमंत्री

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक महापुरुषों ने अपना योगदान दिया था जिनमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम पहली पंक्ति में है । सुभाष चंद्र बोस ने भारत के लिए पूर्ण स्वराज का सपना देखा था । भारत को गुलामी की बेड़ियों से आजाद कराने के उन्होंने कई आंदोलन किए और इसकी वजह से नेताजी को कई बार जेल भी जाना पड़ा । उन्होंने अपने वीरतापूर्ण कार्यों से अंग्रेज़ी सरकार की नींव को हिलाकर रख दिया था । जब तक नेताजी रहे, तब तक अंग्रेज़ी हुक्मरान चैन की नींद नहीं सो पाए । ऐसे तो हमें अंग्रजी हुकूमत से आज़ादी 15 अगस्त 1947 को मिली, लेकिन करीब 4 साल पहले ही सुभाष चंद्र बोस ने हिन्दुस्तान की पहली सरकार का गठन कर दिया था । इस लिहाज से 21 अक्टूबर 1943 का दिन हर भारतीय के लिए बेहद ही खास और ऐतिहासिक है ।
आजादी से पहले हिन्दुस्तान की पहली सरकार
उस वक्त भारत पर अंग्रेजों का राज था, लेकिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्बूर 1943 को वो कारनामा कर दिखाया जिसे अब तक किसी ने करने के बारे में सोचा तक नहीं था । उन्होंने आजादी से पहले ही सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार की स्थापना की । नेताजी ने इस सरकार के जरिए अंग्रेजों को साफ कर दिया कि अब भारत में उनकी सरकार का कोई अस्तित्व नहीं है और भारतवासी अपनी सरकार चलाने में पूरी तरह से सक्षम हैं । आजाद हिंद सरकार के बनने से आजादी की लड़ाई में एक नए जोश का संचार हुआ । करीब 8 दशक पहले 21 अक्टूबर 1943 को देश से बाहर अविभाजित भारत की पहली सरकार बनी थी । उस सरकार का नाम था आजाद हिंद सरकार. अंग्रेजी हुकूमत को नकारते हुए ये अखंड भारत की सरकार थी । 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर के कैथे भवन में हुए समारोह में रासबिहारी बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान सुभाष चंद्र बोस के हाथों में सौंप दी । इसके बाद 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद सरकार की स्थापना हुई । आज़ाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सुभाष चन्द्र बोस ने स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई।
आज़ाद हिन्द को 9 देशों ने दी थी मान्यता
जापान ने 23 अक्टूबर 1943 को आज़ाद हिंद सरकार को मान्यता दी । जापान ने अंडमान और निकोबार द्वीप आजाद हिंद सरकार को दे दिए । सुभाष चंद्र बोस उन द्वीपों में गए और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप और निकोबार का स्वराज द्वीप रखा गया । 30 दिसंबर 1943 को ही अंडमान निकोबार में पहली बार सुभाष चंद्र बोस ने तिरंगा फहराया था । ये तिरंगा आज़ाद हिंद सरकार का था । सुभाष चंद्र बोस भारत की पहली आज़ाद सरकार के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री थे. वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को और महिला संगठन कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया । आज़ाद हिंद सरकार को 9 देशों की सरकारों ने अपनी मान्यता दी थी जिसमें जर्मनी, जापान फिलीपींस जैसे देश शामिल थे । आजाद हिंद सरकार ने कई देशों में अपने दूतावास भी खोले थे ।
आज़ाद हिंद सरकार में हर क्षेत्र के लिए योजना
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्‍व में आज़ाद हिंद सरकार ने हर क्षेत्र से जुड़ी योजनाएं बनाई थीं । इस सरकार का अपना बैंक था , अपनी मुद्रा थी, अपना डाक टिकट था, अपना गुप्तचर तंत्र था । नेताजी ने देश के बाहर रहकर, सीमित संसाधनों के साथ, शक्तिशाली साम्राज्‍य के खिलाफ व्‍यापक तंत्र विकसित किया । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने बैंक और स्वाधीन भारत के लिए अपनी मुद्रा के निर्माण के आदेश दिए । आजाद हिंद सरकार का अपना बैंक था जिसका नाम आजाद हिंद बैंक था । आजाद हिंद बैंक ने दस रुपये के सिक्के से लेकर एक लाख रुपये का नोट जारी किया था । एक लाख रुपये के नोट पर सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर छपी थी । सुभाष चंद्र बोस ने जापान और जर्मनी की मदद से आजाद हिंद सरकार के लिए नोट छपवाने का इंतजाम किया था । जर्मनी ने आजाद हिन्द सरकार के लिए कई डाक टिकट जारी किए थे जिन्हें आजाद डाक टिकट कहा जाता था । ये टिकट आज भारतीय डाक के स्वतंत्रता संग्राम डाक टिकटों में शामिल हैं । आजाद हिंद सरकार सशक्त क्रांति का अभूतपूर्व उदाहरण था । नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजी हुकूमत यानी एक ऐसी सरकार के खिलाफ लोगों को एकजुट किया जिसका सूरज कभी अस्‍त नहीं होता था, दुनिया के एक बड़े हिस्‍से में जिसका शासन था ।
नेताजी थे आज़ाद हिंद सरकार के प्रधानमंत्री
आज़ाद हिंद सरकार ने राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगा को चुना था । रवींद्र नाथ टैगोर रचित ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रगान बनाया था । एक दूसरे से अभिवादन के लिए जय हिंद का प्रयोग करने की परंपरा शुरू की गई थी । 21 मार्च 1944 को ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ आज़ाद हिंद सरकार का हिंदुस्तान की धरती पर आगमन हुआ । आजाद हिंद सरकार के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेते हुए नेताजी ने ऐलान किया था कि लाल किले पर एक दिन पूरी शान से तिरंगा लहराया जाएगा । आजाद हिंद सरकार ने देश से बाहर अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी और आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी । इस सरकार ने अंग्रेजों को बता दिया कि भारत के लोग अब अपनी जमीन पर बाहरी हुकूमत को किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे ।आजाद हिंद सरकार की स्थापना के 75वीं वर्षगांठ पर 2018 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से तिरंगा झंडा फहराया था ।
‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’
‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा बुलंद करने वाले महान देशभक्त सुभाष चंद्र बोस एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने न सिर्फ देश के अंदर बल्कि देश के बाहर भी आज़ादी की लड़ाई लड़ी । राष्ट्रीय आंदोलन में नेताजी का योगदान कलम चलाने से लेकर आज़ाद हिंद फौज का नेतृत्व कर अंग्रेज़ों से लोहा लेने तक रहा है । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपने कॉलेज के शुरुआती दिनों में ही बंगाल में क्रांति की वो मशाल जलाई, जिसने भारत की आज़ादी की लड़ाई को एक नई धार दी ।
फॉरवर्ड अखबार के संपादक के तौर पर काम
सुभाष चंद्र बोस अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ वो एक बुलंद और सशक्त आवाज़ थे । आईसीएस की नौकरी छोड़कर लंदन से भारत लौटने के बाद नेताजी की मुलाकात देशबंधु चितरंजन दास से हुई । उन दिनों चितरंजन दास ने फॉरवर्ड नाम से एक अंग्रेज़ी अखबार शुरू किया हुआ था और अंग्रेज़ों के जुल्मों-सितम के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी । सुभाष चन्द्र बोस से मिलने के बाद चितरंजन दास ने उन्हें फॉरवर्ड अखबार का संपादक बना दिया । नेताजी उस अखबार में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ ज़ोर-शोर से लिखकर अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ माहौल तैयार कर रहे थे। कलम से शुरू की गई इस मुहिम की वजह से नेताजी को साल 1921 में छह महीने की जेल भी हुई।
1939 में मतभेद की वजह से कांग्रेस से हुए अलग
चितरंजन दास के साथ स्वराज्य पार्टी के लिए काम करते हुए और उसके बाद भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जेल आने-जाने का सिलसिला ज़ारी रहा । नेताजी ने साल 1928 में कलकत्ता की सड़कों पर सेना की वर्दी में दो हजार भारतीय युवकों के साथ परेड कर ब्रिटिश खेमे को हिला कर रख दिया था। 1938 में हुए हरिपुरा अधिवेशन में नेताजी कांग्रेस के प्रमुख बनाए गए । नेताजी ने कांग्रेस को आज़ादी की तारीख़ तय करने के लिए कहा. तय तारीख़ तक आज़ादी नहीं मिलने पर सुभाष चन्द्र बोस अंग्रेज़ों के खिलाफ़ ज़ोरदार आंदोलन छेड़ना चाहते थे लेकिन महात्मा गांधी इसके लिए तैयार नहीं हुए । आखिरकार उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर 1939 में फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की और अंग्रेज़ी साम्राज्य के खिलाफ नए सिरे से मोर्चा खोल दिया ।
नेताजी ने भारतीय युद्ध बंदियों से मुक्ति सेना बनाई
क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से प्रभावित होकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ादी की लड़ाई के लिए विदेशी मदद जुटाने की ठान ली थी । कलकत्ता में पुलिस की नज़रबंदी को चकमा देकर नेताजी काबुल के रास्ते जर्मनी पहुंचे । जर्मनी में उनकी मुलाकात हिटलर से हुई जिसने ब्रिटिश हुकूमत को कमज़ोर करने के लिए नेताजी को हर संभव मदद मुहैया कराने का वादा किया । नेताजी का ये विश्वास था कि भारत की आज़ादी तभी संभव है जब ब्रिटेन पर दूसरे विश्व युद्ध के वक्त ही निशाना साधा जाए । इसी कड़ी में उन्होनें इटली और जर्मनी में कैद भारतीय युद्ध बंदियों को आज़ाद करवा कर एक मुक्ति सेना भी बनाई ।
1943 में आज़ाद हिंद फौज़ का नेतृत्व संभाला
साल 1943 में नेताजी जब जापान पहुंचे, तब उन्हें कैप्टन मोहन सिंह की ओर से स्थापित आज़ाद हिंद फौज़ का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी गयी । उनका चुनाव खुद रासबिहारी बोस ने ही किया था । 1943 में ही नेताजी ने आजाद हिंद फौज की सेना की सलामी लेने के बाद दिल्ली चलो और जय हिंद का नारा दिया । नेताजी के कमान संभालने से पहले आजाद हिंद फौज में सिर्फ चार विभाग थे लेकिन सुभाष चंद्र बोस ने उन चार विभागों को बल प्रदान करने के लिए सात नए विभागों का गठन किया ।
महिलाओं के लिए झांसी की रानी रेजीमेंट
आजाद हिंद फौज यानि इंडियन नेशनल आर्मी का मुख्य आधार एकता, त्याग और निष्ठा रखा गया और इसी भावना से संगठन में नए आदर्शों की भावना का विकास किया गया । इसके साथ ही महिलाओं के लिए झांसी की रानी रेजीमेंट का गठन किया गया जिसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन (लक्ष्मी सहगल) को सौंपी गयी ।
आज़ाद हिंद फौज़ ने ब्रिटिश सेना पर हमला किया
आज़ाद हिंद फौज़ ने साल 1944 की फरवरी में ब्रिटिश सेना पर हमला कर दिया । इस फौज़ ने पलेल और तिहिम समेत कई भारतीय प्रदेशों को अंग्रेज़ों से मुक्त करा दिया था । सितंबर 1944 में शहीदी दिवस के भाषण में ही नेताजी ने आज़ाद हिंद सैनिकों को कहा था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा । ये सुभाष चंद्र बोस का ही असर था, जिसने अंग्रेज़ी फौज़ में मौजूद भारतीय सैनिकों को आजादी के लिए विद्रोह करने पर मजबूर कर दिया था ।
23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में जन्म
‘जय हिन्द’ का नारा देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में हुआ । बोस के पिता का नाम ‘जानकीनाथ बोस’ और माँ का नाम ‘प्रभावती’ था । जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे । सुभाष चंद्र बोस 14 भाई-बहन थे जिसमें 6 बहनें और 8 भाई थे. सुभाष चंद्र अपने माता-पिता की नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे । संपन्न बंगाली परिवार में जन्मे नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में की । इसके बाद उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेज़िडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई । देशभक्ति की भावना का उदाहरण तो उनके शुरुआती जीवन में ही देखने को मिल गया था । बचपन में उन्होने अपने शिक्षक के भारत विरोधी बयान पर घोर आपत्ति जताई थी और तभी सबको अंदाजा लग गया था कि वो गुलामी के आगे सिर झुकाने वालों में से नहीं है ।
आईसीएस की नौकरी छोड़ आजादी की लड़ाई में कूदे
सुभाष चंद्र बोस एक मेधावी छात्र थे जो हमेशा परीक्षा में अव्वल आते थे । 1919 में उन्होने स्नातक किया । भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया । अंग्रेज़ी शासन के जमाने में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था लेकिन उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा न सिर्फ पास की बल्कि चौथा स्थान भी हासिल किया । स्वतंत्र विचारों वाले सुभाष का मन अंग्रेजों की नौकरी में कहां लगने वाला था । भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया । सिविल सर्विस छोड़ने के बाद वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए । उनके मन में पहले से ही एक मजबूत और निडर व्यक्तित्व था । वे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दासता से भारत का उद्धार चाहते थे । दिसंबर 1927 में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के बाद 1938 में उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया लेकिन नेता जी के क्रांतिकारी विचारों और आकर्षण की वजह से अपने ही वरिष्ठ नेता उनकी निंदा करने लगे । विचारों में मतभेद और बोस की लोकप्रियता पार्टी के कई नेताओं को नहीं भा रही थी । इसे भांपते हुए सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी अलग पार्टी बनाई ।
महात्मा गांधी के विचारों से असहमति
सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों से सहमत नहीं थे. वास्तव में महात्मा गांधी उदार दल का नेतृत्व करते थे, वहीं सुभाष चंद्र बोस जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय थे । महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार अलग-अलग थे लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गांधी और उनका मक़सद एक है यानी देश की आज़ादी. नेता जी के मन में गांधी जी के लिए अपार श्रद्धा थी. तभी तो सबसे पहले गांधीजी को राष्ट्रपिता कह कर नेताजी ने ही संबोधित किया था । हालांकि गांधीजी के विरोध के चलते इस ‘विद्रोही अध्यक्ष’ ने त्यागपत्र देने की आवश्यकता महसूस की । गांधी के लगातार विरोध को देखते हुए उन्होंने स्वयं कांग्रेस छोड़ दी ।
जर्मनी पहुंचकर बनाई रणनीति
जब दूसरा विश्व विश्व युद्ध के शुरू हुआ तब बोस का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आज़ादी हासिल की जा सकती है । उनके विचारों को देखते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में नज़रबंद कर दिया लेकिन वे अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से वहां से भाग निकले । वह अफगानिस्तान और सोवियत संघ होते हुए जर्मनी जा पहुंचे ।
हिटलर से भी मिले थे सुभाष चंद्र बोस
सुभाष चंद्र बोस ने 1937 में अपनी सेक्रेटरी और ऑस्ट्रियन युवती एमिली से शादी की । उन दोनों की एक अनीता नाम की एक बेटी भी हुई. विदेशी प्रवास के दौरान नेताजी हिटलर से भी मिले । उन्होंने 1943 में जर्मनी छोड़ दिया. वहां से वे जापान पहुंचे , फिर जापान से सिंगापुर पहुंचे । 18 अगस्त 1945 को टोक्यो (जापान) जाते समय ताइवान के पास एक हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया लेकिन उनका शव नहीं मिल पाया। नेताजी की मौत का सही कारण आज तक पता नहीं चल पाया है. नेताजी सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्र भारत की अमरता का जयघोष करने वाला राष्ट्रप्रेम की दिव्य ज्योति जलाकर अमर हो गए ।

गणतंत्र दिवस पर प्रदर्शित होगी ‘गांधी गोडसे, एक युद्ध’ 

कोलकाता । राजकुमार संतोषी द्वारा निर्देशित बहुचर्चित फिल्म ‘गांधी गोडसे, एक युद्ध’ के ट्रेलर इन दिनों एक तरफ आम जनता तो दूसरी तरफ आलोचकों के बीच जबरदस्त चर्चा का विषय बना हुआ है। नाथूराम गोडसे और महात्मा गांधी के एक-दूसरे के आमने-सामने होने पर आधारित इस फिल्म की अनोखी सोच ने पूरे देश में कई सारी चर्चाओं को जन्म दे दिया है। यह फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता निर्देशक राजकुमार संतोषी द्वारा निर्देशित है। इस गणतंत्र दिवस पर दर्शक अपने इलाके के प्रसिद्ध सिनेमाघरों में इस फिल्म को देखकर पूरी कहानी का लुत्फ उठा सकेंगे।

फिल्म की कहानी महात्मा गांधीजी पर नाथूराम गोडसे के हमले से बचे रहने और उनके साथ आमने-सामने आने पर दोनों की बेहद विपरीत विचारधाराओं पर चर्चा और ‘विचारों के युद्ध’ की कल्पना को दर्शाती है। इस फिल्म में नाथूराम गोडसे की भूमिका चिन्मय मंडलेकर ने और महात्मा गांधी की भूमिका दीपक अंतानी ने निभाई है।

फिल्म के निर्देशक राजकुमार संतोषी ने फिल्म के बारे में बात करते हुए कहा, “यह मेरे 9 साल बाद इस इंडस्ट्री में वापस आने के बारे में नहीं बल्कि यह फिल्म यह दर्शाएगा कि मैं 9 साल के बाद इस इंडस्ट्री में अपने दर्शकों और प्रशंसकों के लिए क्या ला रहा हूं। किसी भी फिल्म को बनाने से पहले, मैं हमेशा सबसे पहले खुद से यह पूछता हूं कि मेरी फिल्म में दर्शकों के लिए नया क्या होगा और इससे फिल्म प्रेमियों को क्या फर्क पड़ेगा। इसका सटीक जवाब मिलने के बाद ही मैं इसे शुरू करता हूं। ‘गांधी गोडसे एक युद्ध: मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म है, मुझे उम्मीद है, कि दर्शक इस फिल्म में कई सारी रोचक जानकारी और इसमें दिखाई गई यह रखनेवाली कहानी को देखेंगे और कुछ पल के लिए इसे लेकर सोचने पर मजबूर होंगे।

अभिनेता चिन्मय मंडलेकर ने कहा, ‘राजकुमार संतोषी और दीपक अंतानी के साथ जुड़ना मेरे लिए खुशी की बात है। नाथूराम गोडसे का किरदार निभाना मेरे लिए बेहद मुश्किल था, क्योंकि यह एक नेगेटिव किरदार था। मेरा हमेशा से यह मानना रहा है, कि जब दर्शक मेरे द्वारा निभाए गए इस किरदार को बखूबी समझने लगे, तभी सच में मैं मानूंगा कि मैंने अपना काम अच्छी तरह से किया है।’
अभिनेता दीपक अंतानी ने कहा, मैंने हमेशा अबतक यह प्रार्थना की थी कि, एक महान निर्देशक गांधीजी पर एक फिल्म बनाएं और मुझे कास्ट करें। ‘मैं गांधी गोडसे एक युद्ध’ फिल्म के साथ अपने उस सपने को सच होता देख रहा हूँ। इस फिल्म के जरिए उनसे मैंने अभिनय, निर्देशन और यह भी सीखा है कि एक बेहतर इंसान कैसे बनें। मैं इस फिल्म का हिस्सा बनकर बन काफी खुश हूं। मुझे उम्मीद है कि दर्शक इस फिल्म को और सभी के अभिनय को काफी ज्यादा पसंद करेंगे।
इस फिल्म में पवन चोपड़ा, अनुज सैनी और तनीषा संतोषी ने भी प्रमुख भूमिकाओं को सफलतापूर्वक निभाया हैं।
संतोषी प्रोडक्शंस एलएलपी और पीवीआर पिक्चर्स द्वारा प्रस्तुत, राजकुमार संतोषी द्वारा निर्देशित, एआर रहमान के संगीत और मनीला संतोषी द्वारा निर्मित यह फिल्म 26 जनवरी 2023 को सिनेमाघरों में दर्शकों के लिए रिलीज हो रही है।

महिला क्लब “द फेयरिस – स्प्रेड योर विंग्स एंड फ्लाई ” आरम्भ

कोलकाता । महिला क्लब “द फेयरिस – स्प्रेड योर विंग्स एंड फ्लाई’ की यात्रा आरम्भ हो गयी है । यह क्लब एक दूसरे के साथ खड़े होने और खुशियां मनाने के लिए एक साथ आने वाली महिलाओं का एक अनूठा क्लब है। इस भव्य आयोजन में ‘द फेयरिस’ क्लब का उद्घाटन मशहूर बॉलीवुड अभिनेता इमरान खान ने किया।
इस मौके पर विधाननगर की पार्षद तुलसी सिन्हा रॉय , टेक्नो इंडिया ग्रुप की सह अध्यक्ष मनोशी रॉय अतिथि के रूप में मौजूद थी। गोल्डन ट्यूलिप होटल के निदेशक आशीष मित्तल ने अपने विचार साझा करते हुए कहा कि, “महिलाओं के बीच खुशी और एकता फैलाने के उद्देश्य से ‘द फेयरिस’ क्लब की स्थापना की गई है”। एक महिला होने के नाते काम के व्यस्ततम जीवन और घर के बीच संतुलन बनाए रखना एक महिला के लिए काफी मुश्किल हो जाता है। इसके बावजूद महिलाएं इस मानसिक दबाव को संतुलित कर अपने जीवन में जो कुछ भी चाहती हैं, उसे सफलता पूर्वक प्राप्त कर रही हैं। द फेयरिस क्लब 11 स्तंभों से बना है – जिनमे अंजू बेरिया, अनु शर्मा, बबीता एन अग्रवाल, बनिता अग्रवाल, बिल्किस परवीन चटर्जी, मोनिका झुनझुनवाला, रिंकू माधोगढ़िया, संगीता भुवालका, शालिनी मित्तल, विनीता मजीठिया और विनीता सराफ इन स्तंभ टीम में शामिल हैं। इस समूह का प्राथमिक मिशन हर महिला की ताकत को पहचानना और सभी क्षेत्रों में उसकी वकालत करना है। यह क्लब सामाजिक, सांस्कृतिक, धर्मार्थ आदि विभिन्न गतिविधियों पर काम करेगा।

 

कोरोना काल में जमा स्‍कूल फीस का 15 प्रतिशत हो माफ – इलाहाबाद हाईकोर्ट 

प्रयागराज । इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सोमवार को एक बडे़ फैसले में कहा है कि कोरोना काल में बच्चों से ली गई स्‍कूल फीस का 15 फीसदी माफ होगा। कोर्ट का यह फैसला कोरोना के बाद से आर्थिक तंगी से जूझ रहे अभिभावकों के लिए बड़ी राहत की होगी। हाईकोर्ट का यह आदेश राज्‍य के सभी स्‍कूलों पर लागू होगा। उन्‍होंने साल 2020-21 में जो फीस ली होगी उसमें से 15 पर्सेंट माफ करना होगा। कोर्ट ने माफ की गई इस फीस को अगले सेशन में एडजस्‍ट करने या फीस वापस लौटाने के लिए स्‍कूलों को दो महीने का समय दिया है।
यह फैसला चीफ जस्टिस राजेश बिंदल और जस्टिस जेजे मुनीर की बेंच ने दिया। यह आदेश बच्‍चों के अभिभावकों की याचिका पर दिया गया। इस याचिका पर 6 जनवरी को सुनवाई हुई। बच्‍चों के अभिभावकों ने दलील दी थी कि साल 2020-21 में कोरोना की वजह से लॉकडाउन लगा था। इस दौरान स्‍कूल बंद रहे और बच्‍चों की केवल ऑनलाइन पढ़ाई ही हुई है। चूंकि बच्‍चे स्‍कूल गए नहीं इसलिए उन्‍हें स्‍कूलों में मिलने वाली सुविधाएं भी नहीं मिलीं। पर इसके बाद भी स्‍कूल हर महीने पूरी फीस ही वसूलते रहे।
‘केवल ऑनलाइन पढ़ाई हुई’
बच्‍चों के माता-पिता ने कहा था कि स्‍कूलों ने केवल ऑन लाइन पढ़ाई ही करवाई है कोई दूसरी सुविधा नहीं दी। इसलिए ट्यूशन फीस के अलावा एक भी रुपया लेना उचित नहीं है। याचिका दायर करने वालों ने इंडियन स्‍कूल जोधपुर बनाम राजस्‍थान सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया। इसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बिना सुविधाएं दिए फीस लेना मुनाफाखोरी और शिक्षा के व्‍यावसायीकरण करने जैसा है।
इस तरह मिलेगी फीस
अब सवाल यह उठता है तो यह फीस कैसे माफ होगी या अभिभावकों को कैसे वापस मिलेगी। इसके लिए हाईकोर्ट ने आदेश दिया है कि साल 2020-21 में स्‍कूलों ने जितनी फीस ली होगी उसका 15 प्रतिशत अगले सेशन में एडजस्‍ट किया जाएगा। यहां यह भी सवाल उठता है कि अगर बच्‍चे ने स्‍कूल बदल दिया हो तो उस स्थिति में क्‍या होगा। इसके जवाब में हाईकोर्ट ने कहा है कि जो बच्‍चे स्‍कूल छोड़कर जा चुके हैं उनको 2020-21 में वसूली गई फीस का 15 प्रतिशत वापस करना होगा। कोर्ट ने माफ की गई इस फीस को अगले सेशन में एडजस्‍ट करने या फीस वापस लौटाने के लिए स्‍कूलों को दो महीने का समय दिया है।

25 साल की हुई देश की पहली स्वदेशी हैचबैक कार ‘इंडिका’

नयी दिल्ली । भारतीय कारोबार जगत के भीष्म पितामह कहे जाने वाले रतन टाटा कितने इमोशनल हैं ये हम सब जानते हैं। टाटा को बुलंदियों पर पहुंचाने वाले रतन टाटा ने अपनी ड्रीम कार के लिए एक बार फिर से इमोशनल पोस्ट लिखा है। टाटा की ये ड्रीम कार 25 साल की हो गई। है इंडिका (Indica) कार के 25 साल पूरे होने पर रतन टाटा ने अपने दिल की बात लिखी। उन्होंने पुराने दिनों को याद करते हुए लिखा तुम मेरे दिल के बेहद करीब हो।
रतन टाटा ने लिखी दिल की बात
टाटा इंडिका कार के 25 साल पूरे हो गए हैं। ये कार रतन टाटा के दिल के बेहद करीब है। उन्होंने इस कार के लॉन्च के दिनों को याद करते हुए कहा कि यह कार उनके दिल के बेहद पास है। उसके लिए उनके दिल में खास जगह हैं। रतन टाटा ने अपने इंस्टाग्राम पेज पर पोस्ट लिखा। इस कार के साथ अपनी एक फोटो भी शेयर की। उन्होंने टाटा इंडिका के लॉन्च के दिनों को याद करते हुए कहा कि 25 साल पहले भारत की पहली स्वदेशी कार का जन्म हुआ था। आज भी यह कार मेरे लिए अच्छी यादों का खजाना है। मेरे दिल में इस कार के लिए खास जगह है। रतन टाटा के इस पोस्ट को लोग खूब पसंद कर रहे हैं। 29 लाख से ज्यादा लोगों ने लाइक्स किया है। इससे पहले रतन टाटा ने अपने भाई जिमी टाटा के साथ अपने बचपन की फोटो शेयर की थी।
देश की पहली स्वदेशी हैचबैक कार
टाटा की इंडिका कार देश की पहली इंडियन हैचबैक कार थी। टाटा के पैसेंजर व्हीकल्स सेक्शन में इंडिया सबसे पॉपुलर कार रही। साल 1998 में टाटा ने इस कार को पूरी स्वदेशी कार बताते हुए लॉन्च किया। लंबे अरसे तक इस कार ने खूब धूम मचाई है। 5 सीटर ये कार मिडिल क्लास के बीच खूब पॉपुलर हुई। रतन टाटा हमेशा से ऐसी कार बनाना चाहते थे, जो आम लोगों तक पहुंच सके। टाटा की पहचान ट्रांसपोर्ट व्हीकल्स, जैसे ट्रक, बस बनाने वाली कंपनी के तौर पर होती थी। साल 1991 में जब उन्होंने टाटा की कमान संभाली तो उन्होंने पैसेंजर व्हीकल्स पर जोर दिया। 30 सितंबर क1998 को उन्होंने पूरी तरह से स्वदेशी पैसेंजप कार टाटा इंडिका लॉन्च कर दी। आपको जानकर हैरानी होगी एक हफ्ते के भीतर ही 1.15 लाख कारों की बुकिंग हो गई। इंडिका की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि लगातार दो सालों तक वो कार अपने सेगमेंट में नंबर 1 पर बनी रही।

सम्राट ललितादित्य….चीन तक विस्तृत था जिनका साम्राज्य

भारत में ऐसे कई राजा-महाराजा रहे हैं जिन्होंने दुश्मनों के छक्के छुड़ाए और एक ऐसे राज्य की स्थापना की जिसकी चर्चा किए बिना इतिहास पूरा नहीं हो पाएगा। ऐसे ही कश्मीर के एक राजा थे ललितादित्य मुक्तपीड़ । लेकिन इतिहास में इस राजा का उतना जिक्र नहीं मिलता है जितना इनके समकालीन या बाद के राजाओं का। ललितादित्य ने कश्मीर में 724 से 760 ईस्वी तक राज किया था। इस राजा के शासनकाल में जिसने भी कश्मीर की तरफ आंख उठाने की कोशिश की उसे करारा जवाब मिला। इनके शासनकाल में कश्मीर का राज विदेशों तक फैला था। आज एनबीटी सुपर ह्यूमन सीरीज में हम आपको इस महान राजा के बारे में जानकारी देंगे।
कार्कोट राजवंश के राजा ललितादित्य ने अपने करीब 37 साल के राज में कश्मीर के राज को मध्य एशिया से लेकर गंगा के मैदानी इलाके तक फैला चुके थे। उन्हें कश्मीरी इतिहास का सिंकदर भी कहा जाता है। उन्होंने अपने शासनकाल के दौरान तुर्क, तिब्बत और बाल्टिस्तान तक विजय हासिल की थी। कश्मीरी इतिहास पर लिखी संस्कृत पुस्तक ‘राजतरंगिणी’ में ललितादित्य के शासनकाल का जिक्र मिलता है। इस पुस्तक में कश्मीर के इस महान राजा के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है।
कार्कोट राजवंश की स्थापना 625 ई में राजा दुर्लभवर्धन ने की थी। ललितादित्य इनके पौत्र थे। आठवीं शताब्दी में भारत कई छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। सभी राज्य एक-दूसरे से लड़ते रहते थे। ऐसी स्थिति में ललितादित्य के लिए अपने राज्य का विस्तार करने के लिए सुनहरा मौका था। उन्होंने इसे पूरा भी किया और तुर्क से लेकर गंगा के मैदानी इलाके तक उन्होंने कश्मीर का राज स्थापित किया।
कहा जाता है कि राजा ललितादित्य ने अपनी सेना में चीन के किराए के सैनिक और रणनीतिकारों की भी भर्ती की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि ललितादित्य की सेना में कई तुर्क भी शामिल रहे थे। अपनी इसी क्षमता और ताकतवर सेना के बल पर उन्होंने दुनिया में एक महान राज की स्थापना की। उनका पहला आक्रमण और जीत राजा यशोवर्मन के खिलाफ थी। ललितादित्य के सामने यशोवर्मन ने समर्पण कर दिया और उनके साथ शांति समझौता किया। इस जीत के बाद यमुना और कलिका के बीच की भूमि कश्मीर राज में आ गई। ऐसे ही ललितादित्य ने कई बड़े राज्यों पर जीत दर्ज की। कहा जाता है कि उन्होंने सिल्क रूट के कुछ हिस्सों पर भी जीत हासिल की थी। माना जाता है कि तुर्फान और कुचान शहरों पर कब्जा किया था, जो आज के चीन का हिस्सा हैं। तिब्बत पर ललितादित्य ने जीत दर्ज की थी।
सम्राट ललितादित्य ने अपने शासनकाल में कई शहरों का निर्माण किया था। उन्होंने राज्य के अलग-अलग हिस्सों में पानी पहुंचाने के लिए कई नहरों का भी निर्माण किया था। यही नहीं, ललितादित्य काफी धार्मिक भी रहे थे। उन्होंने लगभग हर शहर में देवी-देवातओं के मंदिरों का निर्माण किया था। उन्होंने विष्णु, शिव, सूर्य और बुद्ध की मूर्तियां स्थापित की थी।
ललितादित्य ने मार्तंड सूर्य मंदिर का भी निर्माण किया था। हालांकि, ललितादित्य के समय के बनाए गए कोई भी मंदिर या मूर्ति अब मौजूद नहीं हैं। पर मर्तांड मंदिर के अवशेष आज भी मौजूद है। इस मंदिर के अवशेष को देखकर पता चल जाता है कि ललितादित्य कितने कला प्रेमी रहे होंगे।
ललितादित्य ने अपना ज्यादातर वक्त सैन्य अभियानों में ही बिताया। अपने राज में बेहतर शासन व्यवस्था के लिए उन्होंने अपने बड़े पुत्र कुवल्यापीड़ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। ललितादित्य के निधन को लेकर अलग-अलग बातें कहानियां प्रचलित हैं। कुछ रिपोर्ट में कहा जाता है कि बर्फबारी के कारण ललितादित्य का निधन हुआ जबकि एक अन्य रिपोर्ट में दावा किया जाता है कि वह एक महान सम्राट के तौर पर मरना चाहते थे और उन्होंने खुद को आग के हवाले कर दिया था।

अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली महान स्वतंत्रता सेनानी महारानी वेलू नचियार

भारतीय आजादी की लड़ाई में देश की महिलाएं और पुरुष बराबर भागीदारी के साथ मैदान में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए थे। अंग्रेज जब भारत में अपनी पैठ बनाने की कोशिश में थे तो ऐसे ही एक महायोद्धा महारानी थीं जिन्होंने ब्रिटिश सेनाओं को भारतीय नारी की वीरता से परिचय कराया था। एनबीटी सुपर ह्यूमन सीरीज में आज हम आपको दक्षिण भारत की महान महारानी वेलू नचियार  से परिचय कराने वाले हैं। रानी ने न केवल अंग्रेजों को परास्त किया बल्कि पहली भारतीय महिला स्वतंत्रता सेनानी का तमगा भी हासिल किया। 1730 में पैदा हुईं नचियार को ‘वीरामंगाई’ (बहादुर महिला) के नाम से भी जाना जाता था। नचियार का खुफिया दस्ता इतना बेजोड़ था कि उन्होंने इसके दम पर अंग्रेजों को ध्वस्त कर दिया था।
युद्ध का दांव पेच से दुश्मन खाते थे खौफ
नचियार राजा चेलामथाऊ विजयरघुनाथ और रानी सकंदीमुथुल के घर में पैदा में हुई थीं। वह अपने माता-पिता की एकलौती संतान थीं। उनके माता-पिता नचियार का पालन-पोषण एक लड़के की तरह की। वह मर्दों की तरह बाल रखती थीं। उन्होंने घुड़सवारी, तीरंदाजी और मार्शल आर्ट्स की ट्रेनिंग ली थी। यही नहीं, वह कई भाषाओं में पारंगत थी। वह इंग्लिश, फ्रेंच और उर्दू फर्राटे के साथ बोलती थीं। 16 साल की उम्र में नचियार की शादी शिवगंगाई के राजकुमार मुथुवेदूगनाथौर उदयथेवर के साथ की हुई थी। दोनों की एक लड़की भी हुई जिसका नाम वेलाची था। 1772 में अंग्रेजों ने नचियार के पति उदयथेवर की हत्या कर दी। ब्रिटिश सैनिकों ने शिवगंगाई पर हमला बोला और ‘कालियार कोली युद्ध’ में उदयथेवर शहीद हो गए थे।
अंग्रेजों से लड़ाई के लिए बड़ी तैयारी
पति की मौत के बाद नचियार घायल शेरनी हो गईं। पर अपनी छोटी बच्ची की परवरिश के लिए वह अपना राजपाट छोड़ डिंडिगुल में जाकर शरण ली। वे यहां करीब 8 साल तक रहीं। यहां रहने के दौरान नचियार मैसूर के सुल्तान हैदर अली से मिलीं। हैदर अली नचियार की उर्दू और उनकी साहस से काफी प्रभावित हुए थे। उन्होंने नचियार के रहने की जगह पर एक मंदिर बनवाया। ये दोनों की दोस्ती का प्रतीक था। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में नचियार का साथ मांगा। हैदर अली ने उन्हें रानी की तरह सम्मान दिया और उनकी आर्थिक सहायता भी की। हैदर अली ने उन्हें 400 पाउंड, 5 हजार पैदल सैनिक और इतना ही घुड़सवार दस्ता उनकी मदद के लिए भेजा। ये सभी सैनिक बेहतरीन हथियार से लैस थे। इसके जरिए नचियार ने खुद को मजबूत किया और अंग्रेजों को भगाने के लिए पूरी ताकत लगा दी।
नचियार ने अंग्रेजों को धो डाला
नचियार ने इस दौरान जमकर तैयारी की थी। 1780 में नचियार ने अंग्रेजों को अपनी बेहतरीन युद्धकौशल और रणनीति से ध्वस्त कर डाला। नचियार के ट्रेंड गुप्तचरों ने अंग्रेजों के शस्त्र डिपो का पता लगाकर उसे उड़ा दिया। इसके बाद नचियार ने अपने सैनिकों के साथ हमला कर दिया और अंग्रेजों के कब्जे से अपना राज्य छुड़ा लिया। नचियार के इस युद्ध में महिला सैनिकों ने उनका जमकर साथ दिया था। कहा तो ये भी जाता है कि इसी युद्ध में पहली बार आत्मघाती हमलावर का इस्तेमाल किया गया था। कहा जाता है कि नचियार की सेनापति कुयिली (Kuyili) ने अंग्रेजों के आयुध डिपो में आत्मघाती हमला किया था। कहा जाता है कि कुयिली ने खुद को घी में डूबोकर आग लगा लिया और अंग्रेजों के शस्त्र डिपो में घुस गईं। उन्होंने अंग्रेजों के सभी शस्त्रों को खत्म कर दिया।
एक दशक तक किया शासन
अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने के बाद नचियार ने शिवगंगेई पर करीब एक दशक तक शासन किया। उन्होंने अपनी बेटी वेलाची को अपनी सत्ता सौंपी थी और अपने सहयोगी मारुधू के भाइयों को राज्य की प्रशासनिक कमान सौंपी थी। हैदर अली की मदद के प्रति आभार जताने के लिए नचियार ने सारंगनी में एक मस्जिद का भी निर्माण किया था। इस महायोद्धा महारानी का निधन 1796 में हो गया था।

विदेशी आक्रांताओं को भयभीत करने वाले महान सम्राट खारवेल

भारतीय इतिहास में वीरों की कमी नहीं रही है। कुछ राजा तो ऐसे हुए जिनके डर से विदेशी आक्रामणकारी इलाका छोड़कर भाग जाते थे। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद एक ऐसा ही राजवंश का कलिंग में उदय हुआ था। इसका नाम था चेदि राजवंश इसी राजवंश के महापराक्रमी राजा थे खारवेल । सम्राट अशोक के हाथों बुरी तरह पराजय के बाद कलिंग ने खारवेल के जरिए महान राज्य का तमगा हासिल कर लिया। खारवेल का शासनकाल ईसा पूर्व 193 से 170 तक रहा था। ऐसा कहा जाता है कि ग्रीक आक्रमणकारी डिमिट्रियस खारवेल का नाम सुनकर भाग गया था। एनबीटी सुपर ह्यूमन सीरीज में आज इसी प्रतापी राजा की कहानी।
कलिंग का अपराजेय सम्राट
हाथीगुम्फा के अभिलेख से खारवेल के बारे में दुनिया को जानकारी मिली थी। 2000 साल तक इस महान राजा के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी। ओडिशा के भुवनेश्वर के उदयगिरी की पहाड़ियों में मिली इस गुफा के अभिलेख में खारवेल के बारे में जानकारी मिली है। खारवेल ने कलिंग की सेना को इतना मजबूत बनाया था कि दुश्मन राजा उसके नाम से कांपने लगते थे। खारवेल ने कई बड़े युद्धों को जीता। इसमें मगध, अंग, सातवाहन और पांड्यन साम्राज्य (मौजूदा में तमिलनाडु) पर विजय हासिल की और कलिंग को एक अपराजेय साम्राज्य बना दिया।
अशोक के वंशज को दी मात
अशोक ने जहां कलिंग में खारवेल के पूर्वज को हराकर विजय हासिल की थी। वहीं खारवेल ने अशोक के वंश को हराया था। मगध साम्राज्य के राजा पुष्यमित्र सुंगा ने खारवेल की पराधीनता स्वीकार की थी और कलिंग के साथ हो गए थे। इसके साथ ही पुष्यमित्र ने जैन तीर्थंकर महावीर की एक मूर्ति को कलिंग को वापस की थी। करीब दशक के अपने शासनकाल में खारवेल ने कई बड़े युद्ध जीते थे। उन्होंने इस दौरान उत्तर-पश्चिम भारत से लेकर सुदूर दक्षिण तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था।


बड़ी समुद्री ताकत बना कलिंग
खारवेल के समय में कलिंग बड़ी समुद्री ताकत भी था। समुद्र के रास्ते इसका श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, वियतनाम, कंबोडिया, मलेशिया जैसे देशों के साथ कारोबारी रिश्ते भी थे। सत्ता मिलने के दूसरे साल ही महाराजा खारवेल ने सातकर्णी राजाओं की परवाह किए बिना पश्चिम के राज्यों पर कब्जा करने के लिए बड़ी संख्या घोड़े, हाथी, पैदल सेना को भेज दिया था। अपने शासनकाल के आठवें साल में उन्होंने मगध पर आक्रमण किया था। खारवेल खुद को सभी धर्मों को मानने वाले बताते थे। गुफा में मिले अभिलेख के अनुसार, खारवेल एक उदारवादी धार्मिक राजा थे। हाथीगुम्फा में मिले शिलालेखों के अलावा उदयगिरी और खांडगिरी में ब्राह्मी लिपी और प्रकृति भाषा लिखे में कुछ शिलालेख मिले हैं जिसमें खारवेल के बारे में जानकारी है। माना जाता है कि अपने शासनकाल के अंतिम दिनों में उन्हें अपने पुत्र कुदेपसिरी को सत्ता सौंप दी थी।
डरकर भाग गया था ग्रीक आक्रमणकारी डिमिट्रियस!
खारवेल के बारे में कहा जाता है कि उसके शौर्य के किस्से सुनकर विदेशी आक्रमणकारी भाग गया था। हाथीगुम्फा के शिलालेख में लिखी शब्द को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। लेकिन शिलालेख की 8वीं पंक्ति में ग्रीक आक्रमणकारी डिमिट्रियस के मथुरा भाग जाने का जिक्र जरूर है। दरअसल, खारवेल के साहस और वीरता के किस्से डिमिट्रियस सुन चुका था। जैसे ही उसे भनक लगी कि खारवेल मथुरा की तरफ चढ़ाई के लिए आ रहे हैं। वह बिना युद्ध किए ही भाग गया।
महान राजा थे खारवेल
खारवेल के शासनकाल में कलिंग में कई बड़े निर्माण कार्य का भी जिक्र हाथीगुम्फा के शिलालेख में है। इसमें सिंचाई के लिए नहरें, युद्ध, संगीत, नृत्य आदि का बड़ा जिक्र मिलता है। हाथीगुम्फा पुरात्तत्व महत्व काफी अहम माना जाता है। अभिलेख के अनुसार कलिंग पर चेदि राजवंश का शासन हुआ करता था। इस अभिलेख के अनुसार, चेदि वंश के पहले शासक राजा महामेघवाहन थे। इसी राजवंश के तीसरे शासक थे खारवेल। इस महान राजा के बारे में अभी कम लोगों को जानकारी है। लेकिन खारवेल ने ईसा पूर्व दूसरी सदी में जिस तरह का शासन किया था वो न केवल बेहतरीन था बल्कि इतिहास के दस्तावेज में भी उसका खूब जिक्र है। वो इतिहास का दस्तावेज है हाथीगुम्फा के शिलालेख।

रूढ़ियों को तोड़ती आगे बढ़ी, स्वर्ण पदक जीतने वाली काजल

हापुड़ । कुछ कर गुजरने की चाहत हो तो कोई भी लक्ष्य मुश्किल नहीं होता। लक्ष्य पाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है। अगर आप परिश्रम की कठिनाई को देखने बैठेंगे तो सफलता संभव नहीं है। लेकिन, आप और आपके परिश्रम के बीच समाज की रूढ़िवादिता आ जाए तो फिर मुश्किलें अधिक बढ़ती हैं। काजल ने जब ट्रैक पर अपने कदम बढ़ाए तो बेड़ियां कदमों में जकड़ी। लेकिन, लड़की को कहां इसकी परवाह थी। लक्ष्य को मन में लिए मेहनत करती रही। आज उसकी सफलता को हर कोई सलाम कर रहा है। ट्रैक पर दौड़ती स्टीपचेज गर्ल काजल उन उपहासों को करारा जवाब दे रही थी, जिसने उसके कदमों को जकड़ने का प्रयास किया। उन रूढ़िवादिता को तोड़ने का प्रयास किया, जिसने उसे ट्रैक पर उतरने से रोकने की कोशिश की। स्टीपलचेज में बाधाएं दौड़ का हिस्सा होती हैं। उन्हें पार करने वाला ही विजेता होता है। काजल ने इसे अपनी जिंदगी में उतारा और जीत गई।
गोल्ड मेडलिस्ट बनी काजल शर्मा
हापुड़ की काजल शर्मा को लखनऊ यूनिवर्सिटी के 21 जनवरी को होने वाले दीक्षांत समारोह में पिरी मेमोरियल गोल्ड मेडल से सम्मानित किया जाएगा। विश्वविद्यालय के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी को इस सम्मान से सम्मानित किया जाता है। काजल ने खेलो इंडिया 2022, क्रॉस कंट्री नेशनल 2020 एवं 2021 और 3 किलोमीटर की स्टीपलचेज प्रतियोगिताओं में विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। स्टीपलचेज प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के जरिए उसने विश्वविद्यालय का नाम रोशन किया। अब उसे विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से सम्मानित किया जा रहा है।
किसान की बेटी के लिए सफर नहीं था आसान
काजल शर्मा हापुड़ जिले के कंडोला गांव के एक छोटे किसान की बेटी है। उसके गांव में स्कूल नहीं था। सड़क और बिजली का अभाव था। लेकिन, मन में जुनून था, कुछ कर गुजरने का। पिता ने साथ दिया। जब काजल 10 साल की थी, तो पिता देवेंद्र शर्मा ने उन्हें प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया था। लेकिन, पिता और बेटी को समाज के तानों को सहना पड़ा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में रूढ़ियों को तोड़ना उनके लिए चुनौती थी।
काजल कहती हैं कि हमारे पिता ने कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा। उन्हें अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और गांव के लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा। लोग कहते थे कि बेटी लड़कों के साथ दौड़ रही होगी और बाप यहां बैठा हुआ है। उनके किसान होने और बेकार बैठने को लेकर ताने मारते थे। पिता ने परवाह नहीं की। बेटी को आगे बढ़ाया।
सुबह करती थी प्रैक्टिस
काजल कहती हैं कि मैं सुबह 4 बजे जग जाती थी। हर रोज 3 घंटे सुबह 7 बजे तक दौड़ती थी। काजल ने बताया कि कई मौकों पर जब मैं अंधेरे में अभ्यास करती थी तो कुत्ते मेरा पीछा करते थे। सुबह 8 बजे वह एक सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए 4 किलोमीटर साइकिल चलाकर दूसरे गांव जाती थी। वहां उसकी मुलाकात प्रशांत से हुई। उसने काजल को बताया कि केडी सिंह बाबू स्टेडियम लखनऊ की ओर से हॉस्टल के लिए ट्रायल चल रहा है। सेलेक्शन होने की स्थित में पढ़ाई और प्रशिक्षण मिलने की बात कही गई। ट्रायल में काजल पहुंची और स्टीपलचेज की पहली बाधा को यहां पार करने में सफल रही। करीब 15 साल की उम्र में उसका चयन हो गया। वह दो साल तक हॉस्टल में रही।
प्रशांत ने दिया पूरा साथ
राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में भाग लेने से पहले उसने अपनी स्कूली पढ़ाई को पूरा किया। इसके बाद वर्ष 2020 की प्रतियोगिता में उसने गोल्ड मेडल जीता। इस आधा पर उसका लखनऊ यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया। पिता के बाद प्रशांत ने उसके करियर को आकार दिया। उसने अपना करियर छोड़ा और काजल का करियर बनाने पर पूरा फोकस किया। प्रशांत के प्रोत्साहन ने उसे आगे बढ़ने का प्रेरित किया। काजल अब प्रशांत की मंगेतर है। वह कहती हैं कि मैं यह पदक अपने पिता और मंगेतर प्रशांत को समर्पित करती हूं। काजल अपने भविष्य की योजनाओं को बताती हैं। वे कहती हैं कि मेरा अगला लक्ष्य एशियाई खेलों और राष्ट्रमंडल खेलों में बेहतर प्रदर्शन करने का है।

शाहजहांपुर के इस पक्षी प्रेमी ने बसाया पक्षियों का संसार

शाहजहांपुर । उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में पक्षी प्रेमी की चर्चा हो रही है। पक्षी प्रेमी पंकज बाथम ने देशी-विदेशी पक्षियों का एक अभयारण्य बनाया है, जो कई लोगों को आकर्षित कर रहा है। बाथम को यह प्रेरणा अपनी दादी से मिली। उनका पक्षियों से विशेष नाता था। वह पक्षियों को पालती थीं और अक्सर उनसे ‘बातें’ भी करती थीं। पंकज कहते हैं कि जब हम छोटे थे, तब हमारी दादी सुमति देवी बाथम चिड़ियों को पालती थीं। उनसे बातें करती थीं और दादी की मौत के बाद अब उनके इस शौक को मैंने आगे बढ़ाया। मोहम्मदपुर में अपने चार एकड़ के फार्म हाउस में 28 प्रजाति की विदेशी और अन्य सैकड़ों देसी चिड़ियों का संसार बसा रखा है।
पंकज बाथम बताते हैं कि उनके फार्म हाउस में पल रही पक्षियों की कुछ विदेशी नस्लों में लेडी अमरांता (मलेशिया), रिंगनेट (पोलैंड), योकोहामा (वियतनाम), सिल्की (अमेरिका) और व्हाइट कैप (हॉलैंड) शामिल हैं। इसके अलावा कड़कनाथ नस्ल के मुर्गे और मसकली किस्म के कबूतर भी हैं। बाथम ने बताया कि इन पक्षियों के लिए घोंसले बनाए गए हैं, ताकि उन्हें पर्याप्त मात्रा में हवा मिल सके। समय-समय पर पक्षियों को विटामिन और एंटीबायोटिक पाउडर दिया जाता है, ताकि वे स्वस्थ रहें। पंकज ने कहा कि मैं भोजन करने से पहले खुद अपने फार्म हाउस में घूमता हूं। देखता हूं कि कोई चिड़िया अस्वस्थ तो नहीं है। उन्होंने बताया कि इस काम के लिए दो कर्मचारी तैनात हैं, जो चिड़ियों को भोजन- पानी की व्यवस्था करते हैं। पहरेदारी भी करते हैं कि कहीं कोई चिड़िया अस्वस्थ तो नहीं हो रही है।
ऑनलाइन मिलते हैं विदेशी नस्ल के पक्षी
पंकज बाथम ने बताया कि उन्हें ऑनलाइन माध्यम से विदेशी नस्ल के पक्षी मिलते हैं। ये पक्षी विदेशों से प्रवास के लिए केरल आते हैं। फिर इन्हें ट्रेन से लखनऊ पहुंचाया जाता हैं। वहां से वे इन पक्षियों को लेकर आते हैं। उन्होंने कहा कि एक विदेशी नस्ल के पक्षी की कीमत लगभग 25,000 रुपये है। बाथम के फार्म हाउस में फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ में नजर आ चुके मसकली कबूतर मौजूद दिखे। ये कबूतर मोर की तरह नाचते हैं। इनकी लंबाई छह इंच है। इसके अलावा तीन इंच लंबा ऑस्ट्रेलियाई तोता भी यहां मौजूद है। बाथम ने बताया कि उनके इस आशियाने में रोजाना सुबह करीब 9 बजे सैकड़ों पक्षी आते हैं, जिन्हें वह दाना डालते हैं। उन्होंने दावा किया कि खेत के कुछ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में पक्षियों का कोई शिकार नहीं होता है। पंकज ने यह भी दावा किया कि उन्होंने कई पक्षियों को इन्हें बेचने वालों से मुक्त कराया है।
जलवायु के आधार पर खुद को ढालने की क्षमता
स्वामी सुखदेवानंद कॉलेज में जंतु विज्ञान के आचार्य डॉ. रमेश चंद्र ने कहा कि विदेशी नस्ल के पक्षियों का व्यवहार अलग होता है। वे जिस तरह की जलवायु होती है, उसी वातावरण में खुद को ढाल लेते हैं। एक निजी कॉलेज की प्राचार्य शैल सक्सेना ने कहा कि हमारे कॉलेज के करीब 100 छात्र अपने शिक्षकों के साथ विदेशी नस्ल के पक्षियों को देखने के लिए बाथम के फार्म हाउस गए थे। सक्सेना ने कहा कि पक्षियों के बारे में उन्हें जो जानकारी मिली, वह उत्साहजनक थी।
पशु-पक्षियों पर काम करने वाली संस्था (पृथ्वी) के धीरज रस्तोगी ने बताया कि 1993 तक साइबेरियाई पक्षी शाहजहांपुर के बहादुरपुर इलाके में पड़ाव डालते थे। हालांकि, वहां निर्माण होने से ऐसे पक्षियों का आना बंद हो गया है। उन्होंने कहा कि जिले में तालाबों और झीलों के सूखने के कारण भी साइबेरियाई पक्षी जिले में नहीं आ रहे हैं।