Tuesday, July 29, 2025
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‘नौसेना कैप्टन जो साथियों की जान बचाता रहा…’

भारतीय नौसेना में ऐसा कोई लिखित आदेश नहीं है कि अगर कोई युद्ध पोत डूब रहा हो, तो उसका कैप्टन भी उसके साथ जल समाधि ले. ये महज़ एक नौसैनिक परंपरा है और उसका हाल की नौसैनिक लड़ाइयों में कभी भी पालन नहीं किया गया है.

1982 के फ़ॉकलैंड युद्ध में ब्रिटेन और अर्जेन्टीना दोनों पक्षों के कुल सात युद्धपोत डुबोए गए, लेकिन सभी के कैप्टन न सिर्फ़ बच निकले बल्कि बाद में उन्होंने अपने संस्मरण भी लिखे। 23 मई, 1941 को लार्ड माउंटबेटन का पोत ‘एचएमएस केली’ नौसैनिक एक्शन में डूब गया, लेकिन वो अपने पोत के साथ समुद्र के गर्त में नहीं समाए लेकिन कैप्टन महेंद्रनाथ मुल्ला दूसरी मिट्टी के बने थे। 6 दिसंबर, 1971 के आसपास भारतीय नौसेना को संकेत मिले कि एक पाकिस्तानी पनडुब्बी दीव के तट के आसपास मंडरा रही है। नौसेना मुख्यालय ने आदेश दिया कि भारतीय जल सीमा में घूम रही इस पनडुब्बी को तुरंत नष्ट किया जाए और इसके लिए एंटी सबमरीन फ़्रिगेट आईएनएस खुखरी और कृपाण को लगाया गया. दोनों पोत अपने मिशन पर आठ दिसंबर को मुंबई से चले और नौ दिसंबर की सुबह होने तक उस इलाक़े में पहुँच गए, जहाँ पाकिस्तानी पनडुब्बी ‘हंगोर’ के होने का संदेह था।

लंबी दूरी से टोह लेने की अपनी क्षमता के कारण ‘हंगोर’ को पहले ही खुखरी और कृपाण के होने का पता चल गया. यह दोनों पोत ज़िग ज़ैग तरीक़े से पाकिस्तानी पनडुब्बी की खोज कर रहे थे. हंगोर ने उनके नज़दीक आने का इंतज़ार किया. पहला टॉरपीडो उसने कृपाण पर चलाया। हंगोर के कैप्टन लेफ़्टिनेंट कमांडर तसनीम अहमद याद करते हैं, “पहला टॉरपीडो कृपाण के नीचे से गुज़रा लेकिन फट नहीं पाया. इसे आप एक तरह की तकनीकी नाकामी कह सकते हैं. भारतीय जहाज़ों को हमारी पोज़ीशन का पता चल चुका था, इसलिए मैंने हाई स्पीड पर टर्न अराउंड करके खुखरी पर पीछे से फ़ायर किया. डेढ़ मिनट की रन थी और मेरा टॉरपीडो खुखरी की मैगज़ीन के नीचे जा कर फटा और दो या तीन मिनट के भीतर जहाज़ डूबना शुरू हो गया। “खुखरी में परंपरा थी कि सभी नाविक ब्रिज के पास इकट्ठा होकर रात आठ बजकर 45 मिनट के समाचार एक साथ सुना करते थे, ताकि उन्हें पता रहे कि बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है। समाचार शुरू हुए, “यह आकाशवाणी है, अब आप अशोक बाजपेई से समाचार…” समाचार शब्द पूरा नहीं हुआ था कि पहले टॉरपीडो ने खुखरी को हिट किया. कैप्टन मुल्ला अपनी कुर्सी से गिर गए और उनका सिर लोहे से टकराया और उनके सिर से ख़ून बहने लगा। दूसरा धमाका होते ही पूरे पोत की बत्ती चली गई. कैप्टन मुल्ला ने मनु शर्मा को आदेश दिया कि वह पता लगाएं कि क्या हो रहा है। मनु ने देखा कि खुखरी में दो छेद हो चुके थे और उसमें तेज़ी से पानी भर रहा था. उसके फ़नेल से लपटें निकल रही थींउधर सब लेफ़्टिनेंट समीर कांति बसु भाग कर ब्रिज पर पहुँचे. उस समय कैप्टेन मुल्ला चीफ़ योमेन से कह रहे थे कि वह पश्चिमी नौसेना कमान के प्रमुख को सिग्नल भेजें कि खुखरी पर हमला हुआ है। इससे पहले कि बसु कुछ समझ पाते कि क्या हो रहा है, पानी उनके घुटनों तक पहुँच गया था. लोग जान बचाने के लिए इधर उधर भाग रहे थे. खुखरी का ब्रिज समुद्री सतह से चौथी मंज़िल पर था. लेकिन मिनट भर से कम समय में ब्रिज और समुद्र का स्तर बराबर हो चुका था।

कैप्टेन मुल्ला ने बसु की तरफ़ देखा और कहा, ‘बच्चू नीचे उतरो.’ बसु पोत के फ़ौलाद की सुरक्षा छोड़ कर अरब सागर की भयानक लहरों के बीच कूद गए. समुद्र का पानी बर्फ़ से भी ज़्यादा ठंडा था और समुद्र में पाँच-छह फ़ीट ऊँची लहरें उठ रही थीं। उधर मनु शर्मा और लेफ़्टिनेंट कुंदनमल भी ब्रिज पर कैप्टेन मुल्ला के साथ थे. मुल्ला ने उनको ब्रिज से नीचे धक्का दिया. उन्होंने कैप्टन मुल्ला को भी साथ लाने की कोशिश की, लेकिन कैप्टन ने इनकार कर दिया। जब मनु शर्मा ने समुद्र में छलांग लगाई, तो पूरे पानी में आग लगी हुई थी और उन्हें सुरक्षित बचने के लिए आग के नीचे से तैरना पड़ा. थोड़ी दूर जाकर मनु ने देखा कि खुखरी का अगला हिस्सा 80 डिग्री का कोण बनाते हुए लगभग सीधा हो गया है. पूरे पोत मे आग लगी हुई है और कैप्टन मुल्ला अपनी सीट पर बैठे रेलिंग पकड़े हुए हैं। जब अंतत: खुखरी डूबा तो बहुत ज़बरदस्त सक्शन प्रभाव हुआ और वह अपने साथ कैप्टन मुल्ला समेत सैकड़ों नाविकों और मलबे को नीचे ले गया. कैप्टन मुल्ला की बेटी अमीता मुल्ला वातल, इस समय दिल्ली के मशहूर स्प्रिंगडेल स्कूल की प्रिंसिपल हैं. उस समय वो महज़ 15 साल की थीं।

अमीता बताती हैं, “उस समय हम दोनों बहनें शिमला के जीज़स एंड मैरी कॉन्वेंट में पढ़ा करते थे. हम लोग छुट्टियों में अपने माता पिता के पास मुंबई आए हुए थे. हम लोग 10 दिसंबर को अपने घर में बैठे हुए थे. कैप्टन कुंते, जो हमारे फ़ैमिली फ़्रेंड थे और बाद में एडमिरल बने, वो हमारे घर आए.।“उन्होंने मुझसे कहा अपनी माँ को बुलाओ. उन्होंने मेरी माँ से कहा हिज़ शिप हैज़ बीन हिट… ये सुनते ही मेरी माँ नीचे ज़मीन पर बैठ गईं. वो सोफ़े पर नहीं बैठीं. उनके मुंह से तुरंत निकला अब वो वापस नहीं आएंगे. इसके बाद वो अजीब तरह से कांपने लगीं. मैं अंदर से कंबल ले आई और उन्हें उढ़ाया. अगले दिन एडमिरल कुरविला की बीवी ने मेरी माँ से कहा कि बचने वालों में कैप्टेन मुल्ला नहीं हैं. उनको आख़िरी बार लोगों को बचाते हुए देखा गया था।”

जनरल इयान कारडोज़ो ने खुखरी के डूबने पर एक किताब लिखी है. जब बीबीसी ने उनसे पूछा कि क्या खुखरी को हंगोर से बचाया जा सकता था तो उनका कहना था, “अगर खुखरी की हिफ़ाज़त में लगे सी किंग हेलिकॉप्टर शाम साढ़े छह बजे के बाद वहाँ से हटा नहीं लिए गए होते. उन हेलिकॉप्टरों की कमान भी कैप्टेन मुल्ला के हाथ में नहीं थी।”“किसी भी नौसेना का ये क़ायदा होता है कि अगर किसी इलाक़े में पनडुब्बी होने का संदेह हो तो पोत ज़िगज़ैग बनाते हुए चलते हैं. खुखरी भी यही कर रहा था जिसकी वजह से उसकी रफ़्तार धीमी हो गई थी. उस समय खुखरी पर नए क़िस्म के सोनार का भी परीक्षण चल रहा था, जिससे उसकी रफ़्तार और धीमी हो गई थी. यही वजह थी कि हंगोर को उसे अपना निशाना बनाने में आसानी हुई.”

जिस समय कैप्टेन मुल्ला की मृत्यु हुई, उनकी पत्नी सुधा मुल्ला केवल 34 साल की थीं। सुधा याद करती हैं, “शादी के बाद मैंने महसूस किया कि ये इतने मेच्योर आदमी हैं कि मेरी बातें तो उन्हें मज़ाक़ लगती होंगीं। इनके जितने भी दोस्त थे सब इनसे उम्र में 15-20 साल बड़े थे।. ये अपनी उम्र वालों को बहुत सतही समझते थे. हालांकि वो मुझसे तेरह साल बड़े थे लेकिन मुझसे बहुत ठीक से पेश आते थे. मेरी किसी भी इच्छा को उन्होंने न नहीं किया. जब हमारी लंदन में पोस्टिंग हुई, तो मैंने कहा कि मैं सारा यूरोप देखना चाहती हूँ. उन्होंने कहा तुम फ़िक्र न करो, मैं बच्चों को देख लूँगा. बच्चे बहुत छोटे हैं. इन्हें घुमाने ले जाने का कोई तुक नहीं है. उन्होंने मुझे सारा यूरोप घुमाया।”कैप्टेन मुल्ला की सोच आम आदमियों जैसी नहीं थी. उन्हें ये क़तई पसंद नहीं था कि जन्मदिन के मौक़े पर उपहार दिए या लिए जाएं. अमीता याद करती हैं, “वो हमसे कहते थे आप जाएंगी जन्मदिन पर और ज़ोर से कहेंगी… हैपी बर्थ डे, मैं बिना गिफ़्ट के आई हूँ, क्योंकि आपने मुझे बुलाया है मेरे गिफ़्ट को नहीं. हमें बड़ी शर्म आती थी. मम्मी से जा कर कहते थे कि कुछ तो दे दो. लोग कहेंगे बहुत ही कंजूस बच्चे हैं. बेचारी मेरी माँ पीछे से टॉफ़ी का एक डिब्बा पकड़ाती थीं. लेकिन वो इस पर भी नज़र रखते थे. हमारे बैरे से पूछते थे कहीं बच्चे टॉफ़ी का डिब्बा तो नहीं ले जा रहे?”अमीता बताती हैं कि कैप्टेन मुल्ला उनका शब्दकोष बढ़ाने के लिए काफ़ी जतन करते थे. वे कहते हैं, “हमारे पिता हमारे साथ स्क्रैबल और क्रास वर्ड बहुत खेलते थे. उससे हम लोगों का शब्दकोष बहुत बढ़ा. उनकी दोस्ती बहुत यूनीक लोगों के साथ होती थी. बेगम अख़्तर हमारे यहाँ आती थीं. वो हारमोनियम बजाते थे और दोनों साथ गाते थे. ऐ मोहब्ब्त तेरे अंजाम पे रोना आया उनकी पसंदीदा ग़ज़ल हुआ करती थी.”“महर्षि महेश योगी भी हमारे यहाँ पधारते थे. एक बार वो अपने पूरे दल के साथ हमारे यहाँ आ कर रुके थे. फ़िल्म के हीरो ‘राज कुमार’ और याक़ूब से भी उनकी गहरी दोस्ती थी. उनका एक ब्रिज सर्किल हुआ करता था जिसमें बौद्धिक लोग भाग लिया करते थे. इससे हमारा रुझान कला, विविधता और तरह तरह के इंसानों से रिश्ता बनाने की तरफ़ बढ़ा.”।सुधा मुल्ला बताती हैं कि कैप्टेन मुल्ला अपना सारा वेतन उनके हाथ में रख देते थे और फिर थोड़ा पैसा अपना मेस बिल और सिगरेट कें ख़र्चे के लिए वापस ले लिया करते थे. मेरे साथ की अफ़सरों की बीवियाँ इस बात पर हैरत भी किया करती थीं. उनका प्रिय वाक्य हुआ करता था मुश्किल है लेकिन मुमकिन है. वो उनसे 6 दिसंबर, 1971 को आख़िरी बार मिली थीं जब वो उनसे मिलने के बाद फिर बाहर से वापस लौट कर आए थे और बोले मेरी पूरी बाँह वाली जर्सी निकाल दो क्योंकि डेक पर तेज़ हवा चलने से सर्दी लगती है।“जब मेरे दोस्त के पति ने आ कर बताया कि महेंद्र सरवाइवर्स में से हैं, तो मेरा माथा ठनका. मैं तभी समझ गईं कि अब ये वापस नहीं आएंगे. मैं ये कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि ये मुसीबत में घिरे अपने साथियों को छोड़ कर अपनी जान बचाएंगे. बाद में बचे हुए लोगों ने मुझे बताया कि उन्होंने किसी को लात मार कर नीचे समुद्र फेंका था ताकि उसकी ज़िंदगी बच जाए. उन्होंगे एक सेलर को अपनी लाइफ़ जैकेट भी दे दी.”

मुल्ला चाहते तो अपनी लाइफ़ जैकेट पहन कर अपनी जान बचा सकते थे लेकिन उन्हें मालूम था कि खुखरी के लोवर डेक पर सौ से ऊपर नाविक फ़ंसे हुए थे और वो उन्हें चाह कर भी नहीं बचा सकते थे. उन्होंने तय किया कि वो अपने साथियों और जहाज़ के साथ जल समाधि लेंगे। अमीता मुल्ला कहती हैं, “जिस तरह से वो गुज़रे हैं उसकी वजह से मैं बहुत अलग क़िस्म की इंसान बनी. वो इसके अलावा कुछ और कर ही नहीं सकते थे. उनका जो मिज़ाज था जो उनका वैल्यू सिस्टम था उसमें वो कोई ऐसी चीज़ कर ही नहीं सकते थे कि वो दूसरों को उनके हाल पर छोड़ कर अपनी जान बचा लें. अगर वो ऐसा नहीं करते तो वो पापा नहीं होते वो कोई और इंसान होता. उनके इस फ़ैसले से यह साफ़ हो गया कि ही वाज़ वाट ही सेड ही वाज़.”

 

(साभार – बीबीसी)

सेहत बनाएं सलाद के साथ

बेबीकॉर्न-मशरूम सलाद

baby corn mashroom salad

सामग्री – 250 ग्राम बेबी कॉर्न, 250 ग्राम मशरूम, 2 बारीक कटी लाल मिर्च, 2 बारीक कटे टमाटर, 3 बारीक कटी प्याज, 1 बारीक कटा बड़ा चम्मच अदरक, 1 बारीक कटा हुआ लहसुन, 2 बड़े चम्मच स्वीट चिली सॉस, 2 बड़े चम्मच सोया सॉस, 1 बड़ा चम्मच नींबू का रस , 1 बड़ा चम्मच चीनी , नमक स्वादानुसार 

विधि – एक भारी तले के पैन बेबी कॉर्न और मशरूम डालकर हल्‍का उबाल लें। इसका पानी छानकर इसे अलग रख दें। अब एक बाउॅल में लहसुन, अदरक, स्वीट चिली सॉस, सोया सॉस, नींबू का रस, नमक, चीनी और लाल मिर्च एक साथ अच्‍छी तरह मिलाकर अलग रख लें। अब उबाले गए बेबीकॉर्न और मशरूम को काटकर तैयार सामग्री में मिला दें। बेबीकॉर्न और मशरूम सलाद तैयार है।

fruit salad

फ्रूट सलाद

 सामग्री – 1 चौकोर टुकड़ों में कटा खीरा, 1 चौकोर टुकड़ों में कटा हुआ सेब, 1 कप अनार के दाने
1 कप चौकोर टुकड़ों में पपीता, 1 चम्मच बारीक हरा धनिया, 1 चम्‍मच नींबू का रस,1 कप अंकुरित स्‍प्राउट्स,
स्‍वादानुसार नमक, स्‍वादानुसार कालीमिर्च पाउडर।

विधि  कटे हुए फलों को एक बॉउल में निकाल कर रख लें। अब एक पैन में 2 मिनट के लिए अंकुरित स्‍प्राउट्स को थोड़े से पानी डालकर उबाल लें। 2 मिनट के बाद इसे पानी से निकालकर छान लें और ठंडा कर लें। उबले हुए स्‍प्राउट्स को फलों के साथ अच्‍छी तरह मिक्‍स कर लें। अब फ्रूट सलाद में नींबू का रस, नमक और काली मिर्च पाउडर डालकर फिर से अच्‍छी तरह मिला लें। फ्रूट सलाद तैयार हैं. इसे नाश्‍ते में या फिर स्‍नैक्‍स में सर्व करें

ध्‍यान दें। आप चाहें तो इसे पत्‍तागोभी के पत्‍तों से सजा सकते हैं और आप इसमें अपनी पसंद के फल भी डाल सकती हैं।

 

दलबीर कौर को रणदीप में दिखा अपना भाई सरबजीत

दलबीर कौर अपने भाई सरबजीत सिंह पर तब फिल्म बनाना चाहती थीं जब वे पाकिस्तान की जेल में थे, लेकिन यह अब संभव हो पाया है जब उन्हें मरे दो साल होने को हैं।

‘सरबजीत’ फिल्म में लीड रोल कर रहे रणदीप हुडा से जब दलबीर कौर ने मुलाकात की तो पाया वे उनके भाई के किरदार के लिए एकदम परफेक्ट हैं। ओमंग कुमार निर्देशित ‘सरबजीत’ उस भारतीय की कहानी है जिसकी मौत पाकिस्तानी जेल में साथ में बंद कैदियों से हुई झड़प में हो गई थी।

दलबीर का कहना है ‘रणदीप कमाल के हैं। उन्होंने मेरे भाई का किरदार बेहतरीन तरीके से निभाया। जब मैं पहली बार उनसे मिली तो मुझे उनमें मेरा भाई ही नजर आया। जब मैंने उन्हें देखा तो वे एक जेल में थे और मैं अपने आंसू रोक नहीं पाई थी। मैं बुरी तरह रोई थी। मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ गया था और लगभग बीमार हो गई थी। मेरे लिए वो लम्हे जबरदस्त रूप से भावुक कर देने वाले थे। मैंने उन्हें बताया था कि मुझे शक है कि मैं यह फिल्म देख पाऊंगी। अब मैं फिर भी ठीक महसूस कर रही हूं।’

पाकिस्तानी कोर्ट ने सरबजीत को आतंकवाद फैलाने और जासूसी का दोषी ठहराया था। उनकी मौत 49 साल की उम्र में हुई। ऐश्वर्या राय बच्चन इस फिल्म में दलबीर का किरदार निभा रही हैं। दलबीर ने अपने भाई की आजादी के लिए दो दशक तक लड़ाई लड़ी।

दलबीर ने बताया ‘मैं ऐश्वर्या से मिली और उन्हें बताया कि मैं बेहद खुश हूं कि वे मुझ पर आधारित रोल कर रही हैं। उन्होंने मुझपर काफी रिसर्च किया है। अपनी तरफ से पूरा न्याय किया, वे अद्भुत कलाकार हैं।’

उन्होंने बताया ‘जब सरबजीत जेल में थे तो कुछ लोग उन पर फिल्म बनाना चाहते थे। क्योंकि उन्हें लग रहा था कि इससे उन्हें छड़ाने के आंदोलन को हवा मिलेगी और सरकार पर भी दबाव बनेगा। लेकिन मैं उन दिनों उस मनोस्थिति में नहीं थी कि किसी को मंजूरी दे सकूं।’

उन्होंने आगे कहा ‘जब मैंने सुना कि ओमंग फिल्म बनाना चाहते हैं तो मैंने पूछा यह कौन है! मुझे बताया गया कि उन्होंने ‘मैरी कॉम’ बनाई है। मैंने मुलाकात की और अब मुझे खुशी है कि उनके जैसी हस्ती ने यह फिल्म बनाई।’ दलबीर की इच्छा है कि गलत इल्जामों के कारण जेल में बंद दोनों देश के बाशिंदों को इससे फायदा मिले।

 

अवसाद से जुड़े कुछ मिथक व कुछ तथ्य

इंसान का निराशाजनक स्थितियों से घिर जाना उसके पूरे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है। उस पर यदि ऐसी स्थितियों को ठीक से समझा न जाए या इन्हें इलाज करवाने की बजाय नजरअंदाज किया जाए तो तकलीफ और भी बढ़ सकती है। खासतौर पर मानसिक उलझनों को समझने में अक्सर लोग ऐसा ही रवैया अपनाते हैं। डिप्रेशन या अवसाद भी इसी श्रेणी में आता है। जानिए कुछ मिथक और कुछ तथ्य इसी संदर्भ में।

व्यस्तता तो सबसे अच्छा इलाज है

हर केस में नहीं। अक्सर लोग यह समझते हैं और राय भी देते हैं कि डिप्रेशन होने पर खुद को काम में सिर से पैर तक व्यस्त कर लेना बेहतर उपाय है। यह बात केवल डिप्रेशन के माइल्ड केसेस में कुछ हद तक मददगार हो सकती है लेकिन गंभीर या गहन डिप्रेशन के मामलों में यह उल्टा असर भी कर सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार बहुत ज्यादा काम करने लगना क्लीनिकल डिप्रेशन का लक्षण भी हो सकता है और ऐसे में मरीज के और भी निराशा में डूबते चले जाने की आशंका हो सकती है। खासतौर पर इस तकलीफ से पीड़ित पुरुषों में यह लक्षण देखा जाता है।

यह तो मन का वहम है

यह बात सबसे ज्यादा भारतीय परिवेश पर लागू होती है। हमारे यहां मानसिक उलझनों को लेकर हमेशा टालने वाला रवैया अपनाया जाता है और इन तकलीफों के इलाज को लेकर चुप्पी साध ली जाती है। मानसिक समस्याओं को बीमारी की श्रेणी में मानने और उसका इलाज करवाने वाले लोगों की संख्या उंगली पर गिनने लायक है। जबकि ठीक किसी अन्य बीमारी या तकलीफ की तरह ही डिप्रेशन के पीड़ित को भी दवाइयों और इलाज की आवश्यकता होती है। ब्रेन की स्कैनिंग में डिप्रेशन स्पष्ट दिखाई देता है। नर्व्स तक सिगनल्स ले जाने वाले ब्रेन के केमिकल्स असंतुलित हो जाते हैं। यह मन का वहम नहीं एक बीमारी है।

पुरुष अवसादग्रस्त नहीं होते

एक बहुत बड़ी भ्रान्ति जो दुनियाभर में लोगों के दिमाग में रहती है, लेकिन असल में डिप्रेशन का स्त्री-पुरुष से कोई लेना-देना नहीं होता। दोनों ही इसके शिकार हो सकते हैं। हां, चूंकि आदमी अपनी भावनाएं खुलकर प्रकट नहीं कर पाते, अत: उनमें डिप्रेशन के लक्षण गुस्से, चिड़चिड़ाहट, रेस्टलेस होने आदि के रूप में सामने आते हैं।

अवसाद के पीड़ित बहुत रोते हैं

यह भी हर केस के साथ जरूरी लक्षण नहीं होता। डिप्रेशन के पीड़ित कई लोग न तो रोते हैं न ही और कोई स्पष्ट लक्षण दर्शाते हैं। बल्कि वे स्थितियों को लेकर ब्लैंक हो जाते हैं और खुद को भीतर ही भीतर दूसरों पर बोझ समझकर जीने लगते हैं लेकिन सामने कुछ नहीं आने देते।

डिप्रेशन बढ़ती उम्र के कारण आता है

अगर ऐसा होता तो पूरी दुनिया में ढेर सारे टीनएजर और युवा इस तकलीफ से पीड़ित न होते। यह समस्या किसी भी उम्र के व्यक्ति को चपेट में ले सकती है। यह फैमिली हिस्ट्री में भी हो सकता है लेकिन सही इलाज, सकारात्मक माहौल, अच्छे दोस्तों या परिवार से संवाद, एक्सरसाइज और पोषक खान-पान और खुद पर विश्वास से लड़ाई जीती जा सकती है।

 

जानिए सिंहस्‍थ कुंभ में शामिल हुए किन्‍नर

सिंहस्थ महाकुंभ में पहली बार उज्जैन के दशहरा मैदान से किन्नर अखाड़े की पेशवाई निकाली गई. इसकी अगवानी किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी और सनातन गुरु अजय दास ने की। लक्ष्मी टीवी कलाकार, भरतनाट्यम नृत्यांगना और सामाजिक कार्यकर्ता हैं और किन्नरों के अधिकार के लिए काम करती हैं।

किन्नरों के बारे में कुछ रोचक जानकारी…

किन्नर अखाड़े का मुख्य उद्देश्य किन्नरों को भी समाज में समानता का अधिकार दिलवाना है। किन्नर अपने  आराध्य देव अरावन से सालमें एक बार विवाह करते है.।हालांकि ये विवाह मात्र एक दिन के लिए होता है. अगले दिन अरावन देवता की मौत के साथ ही उनका वैवाहिक जीवन खत्म हो जाता है। अगर किसी किन्नर की मृत्यु हो जाए तो उसका अंतिम संस्कार बहुत ही गुप्त तरीके से किया जाता है। ज्योतिष के अनुसार वीर्य की अधिकता से पुरुष (पुत्र) उत्पन्न होता है. रक्त (रज) की अधिकता से स्त्री (कन्या) उत्पन्न होती है. वीर्य और रज समान हो तो किन्नर संतान उत्पन्न होती है। किन्नरों का जिक्र धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है. महाभारत युद्ध को पाड़वों को जिताने का योगदान शिंखडी को भी जाता है। महाभारत के अनुसार एक साल के अज्ञातवास को काटने के लिए अर्जुन को एक किन्नर बनना पड़ा था। एक मान्यता है कि ब्रह्माजी की छाया से किन्नरों की उत्पत्ति हुई है. दूसरी मान्यता है कि अरिष्टा और कश्यप ऋषि से किन्नरों की उत्पत्ति हुई है। कुंडली में बुध, शनि, शुक्र और केतु के अशुभ योगों से व्यक्ति किन्नर या नपुंसक हो सकता है. फिलहाल देश में किन्नरों की चार देवियां हैं।

 

माँ पर मुनव्वर राणा की 2 कविताएं

munnavar anaकविता -1

हँसते हुए माँ बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते

हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं
सगी है या कि सौतेली है माँ बच्चे समझते हैं

हवा दुखों की जब आई कभी ख़िज़ाँ की तरह
मुझे छुपा लिया मिट्टी ने मेरी माँ की तरह

सिसकियाँ उसकी न देखी गईं मुझसे ‘राना’
रो पड़ा मैं भी उसे पहली कमाई देते

सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

भेजे गए फ़रिश्ते हमारे बचाव को
जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

तार पर बैठी हुई चिड़ियों को सोता देख कर
फ़र्श पर सोता हुआ बेटा बहुत अच्छा लगा

K. Prahalad-painting-of-child

कविता – 2

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं

अभी मस्जिद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं

कभी —कभी मुझे यूँ भी अज़ाँ बुलाती है
शरीर बच्चे को जिस तरह माँ बुलाती है

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ

मेरा खुलूस तो पूरब के गाँव जैसा है
सुलूक दुनिया का सौतेली माओं जैसा है

रौशनी देती हुई सब लालटेनें बुझ गईं
ख़त नहीं आया जो बेटों का तो माएँ बुझ गईं

वो मैला—सा बोसीदा—सा आँचल नहीं देखा
बरसों हुए हमने कोई पीपल नहीं देखा

काबुलीवाला 

tagore
रवींद्रनाथ टैगोर

 

मेरी पाँच वर्ष की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया होगा। उसके बाद से जितनी देर तक सो नहीं पाती है, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डाँट-फटकारकर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती है; किन्तु मुझसे ऐसा नहीं होता। मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है, कि मुझसे वह अधिक देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहता है।

सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्तरहवें अध्‍याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया, ”बाबूजी! रामदयाल दरबान कल ‘काक’ को कौआ कहता था। वह कुछ जानता ही नहीं, न बाबूजी?”

विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया, ”बाबूजी! भोला कहता था आकाश मुँह से पानी फेंकता है, इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।”

इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख कर, चट से धीमे स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी, “बाबूजी, माँ तुम्हारी कौन लगती है?”

मन ही मन में मैंने कहा – साली और फिर बोला, ”मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।”

तब उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुंह चलाकर ‘अटकन-बटकन दही चटाके’ कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्‍याय में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार में बन्दीगृह के ऊंचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।

मेरा घर सड़क के किनारे पर था, सहसा मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ”काबुलवाला, ओ काबुलवाला।”

मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बाँधे कन्धे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाए, हाथ में चमन के अंगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए यह बताना असम्भव है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कन्धे पर डाले, सर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्सतरहवाँ अध्‍याय आज अधूरा रह जाएगा।

किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा; त्यों ही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई। उसके छोटे-से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अन्दर ढूँढ़ने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्चियाँ निकल सकती हैं।

इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, वास्तव में प्रतापसिंह और कंचनमाला की दशा अत्यन्त संकटापन्न है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।

कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। खुद रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।

अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा, ”बाबूजी, आपकी बच्ची कहाँ गई?”

मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देना चाहा, पर उसने नहीं लिया और दुगुने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस प्रकार हुआ।

इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था। देखूँ तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी हुई काबुली से हँस-हँसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता है। मिनी को अपने पाँच वर्ष के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धैर्यवाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखा तो, उसका फिराक का अग्रभाग बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, ”इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना।” कहकर कुर्ते की जेब  से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली।

कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूं तो उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।

मिनी की माँ एक सफेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए डाँट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी, ”तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?”

मिनी ने कहा, ”काबुल वाले ने दी है।”

”काबुल वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?”

मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा, ”मैंने माँगी नहीं थी, उसने आप ही दी है।”

मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।

मालूम हुआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो बात नहीं। इस दौरान में वह रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से हृदय पर बहुत अधिकार कर लिया है।

देखा कि इस नई मित्रता में बँधी हुई बातें और हँसी ही प्रचलित है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसती हुई पूछती, ”काबुल वाला, ओ काबुल वाला, तुम्हारी झोली के भीतर क्या है? काबुली, जिसका नाम रहमत था, एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ उत्तर देता, ”हाँ बिटिया उसके परिहास का रहस्य क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।

उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता, ”तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?”

हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही ‘ससुराल’ शब्द से परिचित रहती हैं; किन्तु हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाती थी; इस पर भी किसी बात का उत्तर दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुद्ध था। उलटे, वह रहमत से ही पूछती, ”तुम ससुराल जाओगे?”

रहमत काल्पनिक श्वसुर के लिए अपना जबर्दस्त घूँसा तानकर कहता,  ”हम ससुर को मारेगा।”

सुनकर मिनी ‘ससुर’ नामक किसी अनजाने जीव की दुरवस्था की कल्पना करके खूब हँसती।

देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गई। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन ब्रह्माण्ड में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूँ, बाहरी ब्रह्माण्ड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता है। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।

इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सवेरे के समय अपने छोटे- से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण का काम निकाल लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़खाबड़, लाल-लाल ऊँचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे हुए ऊँटों की कतार जा रही है। ऊँचे-ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। किन्हीं के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।

मिनी की माँ बड़ी वहमी तबीयत की है। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं। उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया,तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।

रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं उसके शक को परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती, ”क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे का उठा ले जाना असम्भव है?” इत्यादि।

मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितान्त असम्भव हो सो बात नहीं पर भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सबमें समान नहीं होती, अत: मिनी की माँ के मन में भय ही रह गया लेकिन केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।

हर वर्ष रहमत माघ मास में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है,  फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती है। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के मध्य किसी षड्यंत्र का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूँ तो वह संध्या को हाजिर है। अँधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता है।

लेकिन, जब देखता हूं कि मिनी ‘ओ काबुल वाला’ पुकारती हुई हँसती-हँसती दौड़ी आती है और दो भिन्न-भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।

एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा, विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय राह में एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।

देखूँ तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशाई बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के ढीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा, ”क्या बात है?”

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपए उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।

रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में ”काबुल वाला! ओ काबुल वाला!” पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।

रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी। अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते के साथ ही उसने पूछा, ”तुम ससुराल जाओगे।”

रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा, ”हां, वहीं तो जा रहा हूं।”

रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा, ”ससुर को मारता, पर क्या करूँ, हाथ बँधे हुए हैं।”

छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।

रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धंधों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इन्सान कारागार की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं।

और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी वयोवृध्दि होने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगीं और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।

कितने ही वर्ष बीत गये। वर्षों बाद आज फिर शरद ऋतु आई है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी माँ-बाप के घर में अँधेरा करके ससुराल चली जाएगी।

सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की सँकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईंटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।

हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।

सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का ताँता बँधा हुआ है। आँगन में बाँसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़फानूस लटकाए जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। ‘चलो रे’, ‘जल्दी करो’, ‘इधर आओ’ की तो कोई गिनती ही नहीं है।

मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।

मैंने पूछा, ”क्यों रहमत, कब आए?”

उसने कहा, ”कल शाम को जेल से छूटा हूँ।”

सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आँखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया। मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो।

मैंने उससे कहा, ”आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूं। आज तुम जाओ, फिर आना।”

मेरी बात सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया। पर द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला, ”क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?”

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह ‘काबुल वाला, ओ काबुल वाला’ पुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी? यहाँ तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग-ताँगकर लेता आया था। उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।

मैंने कहा, ”आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी।”

मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।

मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा तो वह स्वयं ही आ रहा है।

वह पास आकर बोला, ”ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।”

मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, ”आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।” तनिक रुककर फिर बोला- ”बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।”

कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तहें खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उस अवस्था में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला, ”लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?”

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल हो उठे। उसने मुँह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जब रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन में एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।

मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।

मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, ”रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।”

रहमत को रुपए देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छाँटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।

 

‘साहित्यिकी’ पत्रिका को बिना पढ़े महसूस किया जा सकता है’

महानगर की संस्था साहित्यिकी की ओर से बुधवार की शाम भारतीय भाषा परिषद् सभागार में’साहित्यिकी’ पत्रिका के 25 वें अंक-‘सुलझे-अनसुलझे प्रसंग-(संपादक:सुषमा हंस,रेशमी पांडा मुखर्जी) की समीक्षा पर केंद्रित एक संगोष्ठी आयोजित की गयी।किरण सिपानी के स्वागत भाषण से गोष्ठी का समारंभ हुआ।संस्था द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित प्रत्रिका के प्रयास   की सराहना करते हुए डॉ इतु सिंह ने कहा  कि इस पत्रिका की  सबसे बड़ी खासियत है कि इसे बिना पढ़े महसूस किया जा सकता है।उन्होंने  कहा कि एक पृष्ठ में बात कहना बड़ी बात  है-यह गृहणियों की विशेषता है।विविधवर्णी पत्रिका  में राजनीति और व्यंग को भी स्थान मिलता तो बेहतर होता।

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डॉ आशुतोष  ने इस अनूठे प्रयास किसरहन करते हुE कहा कि 49 पन्नों की पत्रिका में कहीं भी बनावटीपन नहीं है,प्रमाणिकता है,अनुभवों का ताप है।कुछ रचनाओं के शिल्प और विषय की प्रशंसा करता हुए उन्होंने महत्वपूर्ण सुझाव दिए। सुषमा हंस ने संपादन के सन्दर्भ में अपने अनुभव,समस्याओं और सदस्याओं से मिले सहयोग पर अपना विस्तृत वक्तव्य रखा।अध्यक्षीय वक्तव्य में कुसुम जैन ने कहा कि संस्था’एकला चलो रे’ के सिद्धान्त में विश्वास नहीं रखती।मिलकर चलना-लिखना-पढ़ना हमारी ताकत है। संगोष्ठी का सञ्चालन विद्या भंडारी ने किया।

 

ये हैं सिंगल मदर वीरा, दिव्यांग बच्ची को दी नयी जिंदगी

लखनऊ की लोकप्रिय रेडियो जॉकी रहीं वीरा सिंगल मॉम बनकर नई मिसाल कायम कर रही हैं। एक तरफ वो बेटी के रूप में अपनी बूढ़ी मां की देखभाल करती हैं, वहीं दूसरी तरफ वो अपनी गोद ली हुई बेटी का ध्यान रखती हैं। वीरा ने अब तक शादी नहीं की है और न करना चाहती हैं। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अब बेटी वसु के नाम कर दी है।

दिव्यांग बच्ची थी वसु, वीरा ने दी नई जिंदगी…

वीरा बताती हैं, “मैंने वसु को वरदान शिशु केंद्र से अडॉप्ट किया था। तब वो महज 10 महीने की थी। वसु नॉर्मल बच्ची नहीं थी। उसका सिर एवरेज बच्चे से काफी बड़ा था।””डॉक्टर्स का कहना था कि वसु के सिर में फ्लूइड भरा है। इसी वजह से उसकी ग्रोथ नॉर्मल बच्चों जैसी नहीं थी। वह दिनभर लेटी रहती थी। न बैठ पाती थी, न पलट पाती थी। उंगलियां चलाने में भी उसे दिक्कत होती थी,” वीरा ने बताया। अक्सर जब लोग बच्चे अडॉप्ट करने जाते हैं तो वे बच्चों की खूबसूरती से आकर्षित होते हैं। वीरा ने खूबसूरती से पहले जरूरत को अहमियत दी।  वीरा बताती हैं, “वसु को अडॉप्शन से पहले कई लोगों ने रिजेक्ट किया। उसे पहली ही नजर में देखकर मुझे लगा कि यही मेरे दिल का टुकड़ा है। मैंने उसका इलाज अच्छे डॉक्टर्स के पास करवाया और अब वो पूरी तरह नॉर्मल है।”

दे रही हैं बेहतर जिंदगी

वीरा अपनी बेटी को लखनऊ के प्रतिष्ठित स्कूलों में शुमार ला मार्टीनियर स्कूल में पढ़ा रही हैं। 5 साल की वसु अपर प्रेप में पढ़ती है। वीरा अपना अधिकतर समय अपनी बेटी के साथ बिताती हैं।

इसलिए नहीं की शादी

वीरा ठाकुर परिवार से ताल्लुक रखती हैं।शादी न करने के डिसीजन के बारे में वीरा ने बताया, “कोई ऐसा मिला ही नहीं जो वीरा से प्यार करे।”
– “छोटी उम्र में ही मेरे सिर से पिता का साया उठ गया था। मेरी मां ने मुझे पाल कर बड़ा किया। जब शादी का समय आया तो मेरी मां ने एक से बढ़कर एक रिश्ते देखे, लेकिन सभी मुझसे ज्यादा दहेज को प्यार करते थे।” वीरा का मानना है कि जब लड़की शादी करके लड़के के घर जा रही है तो दहेज की क्या जरूरत, लड़की ही काफी होना चाहिए।  उनकी इसी सोच ने उनका शादी के बंधन से विश्वास उठा दिया। वीरा ने कहा, “दहेज़ की डिमांड की वजह से मैंने शादी से इंकार कर दिया। ठाकुरों में बेटी से ज्यादा दहेज़ को वरीयता दी जाती है।”

घर बसाने के लिए शादी नहीं है ज़रूरी

वीरा कहती हैं हर लड़की को इस ग़लतफहमी से बाहर आ जाना चाहिए की घर बसने के लिए शादी की ज़रूरत होती है। “मैं वसु और अपनी मां के साथ खुश हूं। क्या मेरा घर बसा हुआ नहीं है?”  वीरा ने कहा, “फरहान अख्तर, ऋतिक रोशन जैसे सितारों ने शादी के बाद लंबा समय अपने पार्टनर्स के साथ बिताया। एक दम से उन्हें महसूस हुआ कि वो एक दूसरे के लिए नहीं बने हैं। जो एक दूसरे को जितना बर्दाश्त करता है, उसका रिश्ता उतना ही लंबा चलता है। यह एक तरह का कॉम्प्रोमाइज ही है।”

 

ये हैं देश की तेजतर्रार आईपीएस मॉम

पानीपत./शिमला. हिमाचल के सोलन की एसपी अंजुम आरा की गिनती तेज-तर्रार IPS ऑफिसरों में की जाती है। उनकी छवि एक सख्त लेडी आईपीएस अफसर की है। बता दें कि अंजुम कानून व्यवस्था के साथ-साथ एक मां की जिम्मेदारी भी बखूबी निभा रही हैं। वे एक नन्हें बच्चे की मां है। ड्यूटी के साथ 2 साल के अपने बच्चे अरहान का ख्याल रखना चुनौती भरा काम है, लेकिन वो दोनों कामों में सामंजस्य बिठा लेती हैं।

अंजुम कहती हैं, एक एसपी की ड्यूटी के साथ अपने छोटे बच्चे के लिए वक्त निकालना मुश्किल होता है।  कई बार इसका बुरा भी लगता है, लेकिन हमेशा कोशिश रहती है कि ड्यूटी और मां की जिम्मेदारियों में सामंजस्य बनाए रखें।  उनका संदेश है कि लोगों को बेटा-बेटी को समान समझकर उनका भविष्य निर्माण करना चाहिए।  लड़कियों को भी पढ़ लिख कर आगे बढ़ने का मौका दिया जाना चाहिए।  लड़कियां किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़कर अपने माता-पिता का नाम रोशन कर सकती हैं।

इसलिए पुलिस सेवा को बनाया करियर
अंजुम आरा को देश की दूसरी महिला आईपीएस बनने का गौरव प्राप्त है। सोलन जिला की वह पहली महिला एसपी हैं।  वह लोगों के साथ सीधे संपर्क को समाज सेवा का बड़ा साधन मानती हैं। पुरुष प्रधान समाज की मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने पुलिस सेवा को चुना। अपनी इसी सोच और पुलिस वर्दी के प्रति आकर्षण ने ही उन्हें आईपीएस तक पहुंचाया। वे हिमाचल में सोलन जैसे बॉर्डर से जुड़े अति संवेदनशील जिला की कानून व्यवस्था संभाले हुए हैं।  उत्तर प्रदेश की लखनऊ से संबंध रखने वाली अंजुम 2011 बैच की आईपीएस अधिकारी हैं।priti chandra

डर की दहलीज से आईपीएस की मंजिल तक पहुंचाया : प्रीति चंद्रा

मेरी मां ने तो कभी हाथ में पेंसिल भी नहीं पकड़ी थी। लेकिन जिद की हम दो बहनों और एक भाई को पढ़ाने की। कॉलेज में आई तो रिलेटिव ने शादी का दबाव डालना शुरू किया। लेकिन मां चट्टान बनकर उनको डटकर जवाब देतीं। वो मुझ पर इतना भरोसा करती थीं कि जब घर से तीन किमी दूर खेतों में काम करने जातीं तो अक्सर घर की चाबियां वहीं भूल आती थीं। रास्ते में श्मशान पड़ता था। और बड़े भाई के होते हुए भी रात को 8 बजे मुझसे कहती जाओ, भागकर चाबियां लेकर आओ। बस इसी विश्वास ने मुझे आईपीएस ऑफिसर बनाया। हम दोनों बहनों ने इंटर कास्ट मैरिज की लेकिन वो हमारे सपोर्ट में खड़ी रहीं।

चैलेंजिंग कॅरिअर में सपोर्ट सिस्टम न हो तो चुनौतियां बढ़ जाती हैं। पति विकास पाठक के अलावा मेरे गांव की एक 22 साल की लड़की मेरा सपोर्ट सिस्टम है। आर्थिक स्थिति कमजोर होने की वजह से गांव में वो पढ़ नहीं सकती थी। इसलिए मैंने उसकी पढ़ाई से लेकर शादी का जिम्मा उठाया है। वो मेरी बड़ी बेटी की तरह है और जब मुझे कई दिन तक टूर पर जाना पड़ता है तो वो मेरे घर और बेटी का ध्यान रखती है। मैं भी अपनी बेटी को सिर्फ आजादी देना चाहती हूं जिससे वो बिना सरहदों के आसमां में पंख फैला सके।