Sunday, July 27, 2025
खबर एवं विज्ञापन हेतु सम्पर्क करें - [email protected]
Home Blog Page 806

 रखें अपने लेदर शूज का खास ध्यान

लेदर शूज़ से एक क्लास झलकता है और जाहिर है क्लासी चीज़ें महंगी होंगी ही. किसी के लिए भी ये मुमकिन नहीं कि आए दिन वो महंगे लेदर शूज़ खरीदे। ये भी सच है कि चाहे ये लेदर शूज़ कितने भी महंगे क्यों ना आते हैं, हर लड़के के पास इसका एक पेयर ज़रूर होता है।

जैसे हर महंगी चीज़ को काफी देखभाल की ज़रूरत पड़ती है ऐसा ही इन शूज़ के साथ भी है। इनका अच्छी तरह ध्यान न रखने पर ये जल्दी खराब हो जाते हैं। यहां जानिए कैसे आप अपने पसंदीदा और महंगे लेदर शूज़ की देखभाल करें और इसे लंबे समय तक इन्हें खराब होने से बचाकर रखें –

leathershoesbrown 1

जब कभी आप बाहर से आएं तो अपने जूते खोलने के साथ ही इसे बंद करके वॉर्डरोब में ना रखें इसे थोड़ा सांस लेने दें। इसके लिए पहले अपने जूतों के लेस को खोल लें और इसके टंग (जूतों के लेस के ठीक नीचे की पट्टी) को एक घंटे के लिए बाहर निकाल कर रख दें. लेदर शूज़ आमतौर पर लेदर लाइनिंग और इनसोल के साथ आते हैं, जो पैरों में आने वाले पसीने को सोख लेते हैं।ये लेदर शूज़ को काफी नुकसान पहुंचाते हैं क्योंकि पानी के संपर्क में आने से लेदर का टेक्सचर डैमेज हो जाता है। पसीने से शूज़ के टेक्सर को खराब होने से बचाने के लिए जब कभी बाहर से आएं तो इसे अपने वॉर्डरोब में रखने से पहले एक घंटे खुले में ज़रूर रखें।
लेदर शूज़ की देखभाल से मतलब सिर्फ इनके लेदर से नहीं होता है, बल्कि उनकी बनावट से भी होता है. इसलिए इनका शेप में रहना भी बहुत ज़रूरी है। यकीन मानें, अच्छी देखभाल की बदौलत आप किसी भी जूते को लंबे समय तक खराब होने से बचा सकते हैं। पहनने के बाद आप अपने जूतों को किसी बॉक्स में रखें और शू ट्री का इस्तेमाल करें। शू ट्री पैर के पंजे की तरह होता है और इसलिए जूतों का शेप बना रहता है और जूते लूज़ नहीं होते हैं। शू ट्री आपको मार्केट के कई शू स्टोर में मिल जाएंगे। अगर आपके पास शू ट्री नहीं है, एक सॉफ्ट पेपर को कोनिकल शेप में रोल करके इसे जूतों के अंदर भर दें। अगर आपके पास लंबे लेदर बूट्स हैं, तो सॉफ्ट पेपर की जगह मैगज़ीन का इस्तेमाल करें।

जूतों को बॉक्स में सिर्फ इसलिए नहीं पैक किया जाता ताकि कस्टमर्स इसे आसानी से घर ले जा सकें, बल्कि इन बॉक्स को इस तरह तैयार किया जाता है कि जूतों को इनमें अच्छी तरह स्टोर किया जा सके। जूते के बॉक्स को फेंकने की बजाय इन्हें संभाल कर रखें। इन बॉक्स में हवा के आने-जाने के लिए भी पर्याप्त जगह होती है और साथ ही जूते भी पूरे स्पेस के साथ रखे जा सकते हैं। अगर जगह की कमी की वजह से आपने बॉक्स को फेंक भी दिया। ध्यान रखें कि आप अपने जूते ऐसी जगह रखें जहां इन्हें पर्याप्त जगह मिले और इनपर किसी तरह का दबाव ना पड़े।

लेदर शूज़ पर कभी भी लिक्विड-बेस्ड पॉलिश का इस्तेमाल ना करें। लिक्विड आपके लेदर शूज़ को नुकसान पहुंचाएगा। इसके ज़्यादा इस्तेमाल पर आपके जूते सामान्य जूतों की तरह दिखने लगेंगे इसलिए लेदर शूज़ के लिए हमेशा वैक्स-बेस्ड पॉलिश का इस्तेमाल करें।

अपने लेदर जूतों को ऐसी जगहों पर ही पहनकर जाएं जो इनके लिए बने हो। महंगे लेदर शूज़ को बारिश के दिनों में पहनकर निकलने या धूल-मिट्टी या गंदगी भरी जगहों पर जाने में बिल्कुल समझदारी नहीं है।

 

और अपनी जिद से बदल दी दुनिया की सोच

 

समाज की बनी बनाई सोच से अलग चलकर नई मिसाल कायम करना कोई आसान काम नहीं है। जानिए ऐसी महिलओं के बारे में जिन्‍होंने रुढ़िवादी सोच को अपने हुनर और फैसलों के दम पर चुनौती ही नहीं दी बल्कि दुनिया की सोच भी बदल डाली –

इरोम शर्मिला: सैन्य बल विशेषाधिकार कानून के विरोध में करीब 15 साल से भूख हड़ताल कर रही मणिपुर की सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला की कहानी किसी को भी झकझोर कर सकती हैं। अफस्पा 22 मई 1958 को लगाया गया था। इरोम शर्मीला अफस्पा के खिलाफ भूख हड़ताल कर रही हैं और अधिकारी उन्हें रबर पाइप की मदद से नाक के जरिये विटामिन, खनिज, प्रोटीन सहित अन्य सामग्री देने पर मजबूर हैं।

 सुहासिनी मुले: सुहासिनी मुले एक सशक्त अभिनेत्री होने के साथ ही वो एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता भी है, जिसके लिए उन्‍हें 4 बार राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। इन सबसे इतर सुहासिनी 60 साल की उम्र में शादी करके उन तमाम रुढ़‍ियों को दरकिनार कर दिया जो औरत को महज एक हाउसवाइफ बने रहने देना चाहती हैं।

 नंदिता दास: औरत होने का मतलब सिर्फ सुंदरता और गोरा रंग होता है।  इस परिभाषा को नंदिता ने अपने हुनर के दम पर पूरी तरह खारिज कर दिया। डार्क एंड ब्‍यूटीफुल के स्‍लोगन को सार्थक करने वाली नंदिता ने फेयरनेस क्रीम के एडवरटीजमेंट करने से भी साफ मना कर दिया। उनका मानना है कि सुंदरता दिखावे की नहीं होती है।

सुष्मिता सेन: बोल्‍ड एंड ब्‍यूटीफुल अभिनेत्रियों में शुमार सुष्मिता ने बच्‍ची को गोद लेने का सहासिक कदम उठाते हुए सभी को हैरान कर दिया था। इसके लिए सुष्मिता को लंबी कानूनी लड़ाई भी लड़नी पड़ी. उन्‍होंने रिनी को कंपनी देने के लिए दूसरी बच्‍ची अलीशा को भी गोद लिया। आज सुष्मिता मिस यूनिवर्स, अभिनेत्री होने के साथ प्राउड सिंगल मदर भी हैं.

 सुनीता कृष्णन: भले ही कद काठी में सुनीता कृष्णन आपको छोटी लगे लेकिन उनके इरादे और हौसले पहाड़ जैसे हैं. उनके साथ महज 15 साल की उम्र में हुई गैंग रेप की घटना ने कभी उन्‍हें तोड़कर रख दिया था लेकिन आज वे यौन-दासत्व में फंसे औरतों और बच्चों को बचाने का काम करती हैं। 1996 में उन्होंने ब्रदर जोस वेटि्टकेटिल के साथ मिलकर हैदराबाद में ‘प्रज्वला’ नाम की संस्‍था बनाई, जो महिलाओं और बच्‍चों के लिए काम करती है।

शांति टिग्‍गा: भारतीय सेना में कभी किसी औरत के होने की कल्‍पना करना भी संभव नहीं था। इस असंभव से दिखने वाले काम को शांति ने पूरा कर दिखाया। बतौर जवान भारतीय सेना में शामिल होने के दौरान वह दो बच्चों की मां थी। शारीरिक परीक्षण के दौरान इन्होंने अपने सभी पुरुष साथियों को हरा दिया था। इस उपलब्धि को उन्‍होंने 35 वर्ष की उम्र में यह हासिल किया था। आपको बता दें कि उन्‍हें अपनी ट्रेनिंग के दौरान बेस्ट ट्रेनी का अवार्ड भी मिला था.

 नीना गुप्‍ता: सिर्फ बिंदास बातें करना ही काफी नहीं होता उसे जिंदगी में किस तरह उकेरा जाता है ये फिल्म अभिनेत्री नीना गुप्ता ने बखूबी कर दिखाया। क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स के साथ अपने प्रेम-प्रसंग और फिर बिना शादी किए उनकी बेटी मासबा को जन्म देना कोई आसान राह नहीं थी। नीना ने उस राह को चुना और आज मासबा ने बतौर फैशन डिजाइनर अपनी पहचान बना ली है।

लक्ष्मी तब 15 साल की थीं, जब एक 32 साल की उम्र के आदमी ने अपने दो साथियों के साथ उनके ऊपर तेजाब फेंक दिया था। लक्ष्मी पर तेजाबी हमला केंद्रीय दिल्ली में स्थित तुगलक रोड पर हुआ था। इस हादसे के बाद लक्ष्‍मी के जीवन में अंधेरा छा गया था लेकिन हिम्‍म्‍त हारे बिना लक्ष्‍मी ने अपना मुकाम बनाया। आज उनका परिवार भी है और एक प्यारी सी बेटी भी है।

 

आत्मसम्मान के लिए आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है

महिलाओं को आगे बढ़ाने के दावों के बीच सबसे अधिक असमानता का शिकार महिलाओं को होना पड़ता है। खासकर शादी के बाद तो घरेलू जिम्मेदारियों को निभाने के लिए कई महिलाएं के सपने अधूरे रह जाते हैं। दूसरी तरफ कार्यस्थल पर शादी के बाद अगर बच्चे हो जाएं तो आपको कमतर आँका ही नहीं जाता बल्कि उम्मीद की जाती है कि आप परिस्थिति से समझौता कर लें और अधिकतर मामलों में महिलाएं समझौता कर भी लेती हैं। यही स्थिति जब पत्रकार ऋतुस्मिता विश्वास के सामने आयी तो उनके लिए हैरत में डालने वाली घटना जरूर थी मगर इस अपराजिता ने हार नहीं मानी और आज वह एक नहीं दो कम्पनियाँ चला रही हैं। यह हम सभी के लिए सीखने वाली बात है कि मंजिलें अगर मुश्किल हो तो रास्तों को अपने हिसाब से मोड़ लेना चाहिए, मंजिल खुद आपके पास चलकर आएगी। वर्डस्मिथ राइटिंग सर्विसेज और डिजिटल ब्रांड्ज प्राइवेट लिमिटेड की प्रमुख ऋतुस्मिता विश्वास से अपराजिता ने खास तौर पर बातचीत की, पेश हैं प्रमुख अंश –

rtusmitA BISWAS

प्र. अपने बारे में बताइए?

उ. मेरे पिता झारखंड में कार्यरत थे और 18 साल तक वहीं रही और मेरी बुनियाद भी वहीं तैयार हुई। बचपन में कभी एहसास ही नहीं हुआ कि लैंगिक विषयमता या जेंडर डिस्क्रिमिनेशन होता क्या है। इकलौती बेटी थी। जादवपुर विश्वविद्यालय से साहित्य खासकर तुलनात्मक साहित्य पढ़ा तो थोड़ा – बहुत पता चला मगर इस दौरान भी मेरे सामने इस प्रकार की स्थिति नहीं आयी थी। उस दौरान पता चला कि मेरे साथ नहीं मगर दूसरी लड़कियों को पक्षपात से गुजरना पड़ता है। ससुराल में भी बहुत प्रोत्साहन मिला और पति ने भी हमेशा साथ दिया।

प्र. पत्रकारिता में कैसे आना हुआ?

उ. मैंने एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म से पढ़ाई की है औऱ एशियन एज से बतौर सब एडिटर शुरुआत की। बाद में रिर्पोटिंग में आयी और फीचर खास तौर पर करती थी। एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका रेडी टू गो में काम किया। मैकमिलन पब्लिशर्स और आईसीएफएआई में भी रह चुकी हूँ। अब अक्सर कई ऱाष्ट्रीय और विश्वस्तरीय पत्रिकाओं में लिखती हूँ जिसमें बोहेमिया (सिंगापुर), डेकन हेराल्ड, द स्टेट्समेन, सहारा टाइम्स जैसे अखबार भी शामिल हैं।

प्र. पहली बार असमानता का शिकार आपको खुद कब और कैसे होना पड़ा?

उ. मैं संस्था का नाम नहीं लेना चाहूँगी मगर मेरी बेटी के जन्म के बाद जब मैं वापस काम पर लौटी तो मुझसे कहा गया कि मैं अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे सकूँगी क्योंकि मैं शादीशुदा हूँ और मेरी बेटी काफी छोटी है। वे मुझे काम देना चाहते थे मगर यह पहले की तरह महत्वपूर्ण नहीं था। यह मेरे साथ असमानता की पहली घटना थी क्योंकि मुझमें विश्वास था कि मैं पहले की तरह अच्छा काम कर सकती हूँ मगर माँ होने के कारण मुझे कमतर समझा जा रहा था। यहाँ मेरी क्षमता पर संदेह किया जा रहा था।

प्र. आपकी एजेंसी की शुरुआत कैसे हुई?

उ. मैं लिखती थी और ब्लॉग भी लिखती थी, मेरे पूँजी मेरा लेखन ही था। इस घटना ने मुझे चुनौती दी और मैंने तय किया कि घर पर तो मुझे बैठना नहीं है। मैंने देखा कि मेरे आस – पास बहुत सी महिलाओं के साथ ऐसा हुआ है और मैंने 2005 में शुरू की वर्डस्मिथ राइटिंग सर्विसेज, जिसमें आज ज्यादातर शादीशुदा महिलाएं ही अपनी सेवाएं दे रही हैं। हमारे कई ओवरसीज क्लाइंट हैं। 2010 – 2011 में क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर लाडली मीडिया पुरस्कार जीता और वह मैंने अपनी बेटी के साथ लिया। 2014 में द यूएस हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में मुझे आमंत्रित कर सम्मानित किया गया। इसके बाद सोशल मीडिया पर मार्केटिंग के लिए डिजिटल ब्रांड की शुरुआत की और इसे भी काफी सफलता मिली। आज मैं अपनी बेटी को भी बताती हूँ कि वह भाग्यशाली है क्योंकि उसे जो मिल रहा है, वह बहुत सी लड़कियों को नहीं मिल पाता।

प्र. महिला होने के नाते किस प्रकार का अनुभव हुआ?

उ. भारतीय महिलाएं तनाव में जी रही हैं। यहाँ लड़कियों के लिए हर काम और हर चीज के लिए उम्र तय कर दी गयी है। महिलाओं को सामाजिक तौर पर जागरूक होने की जरूरत है।। अगर वह कुछ अच्छा भी करे तो यह कहा जाता है कि उसे महिला होने का फायदा मिला मगर सच यह है कि उसे पुरुषों की तरह ही और कई बार उनसे अधिक मेहनत करनी पड़ती है।

प्र. आपकी भावी योजना क्या है?

उ. वेब पोर्टल पर कामकाजी महिलाओं के लिए नेटवर्क तैयार करना चाहती हूँ। अन्य गृहिणी महिलाओं को भी साथ लाने का इरादा है।

प्र. महिलाओं को क्या कहना चाहेंगी?

उ. मेरे पापा ने सिखाया है कि शादी हो या न हो, महिलाओं के लिए आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है और यही संदेश मेरा भी है। अपने आत्मसम्मान के लिए खुद कमाना सीखें और हमेशा आत्मनिर्भर रहें।

महज मनोरंजन नहीं दहला देने वाला सच दिखाती है सरबजीत

 

rekha-रेखा श्रीवास्तव

फिल्म देखने जाने का मतलब होता है, इंटरनेटमेंट। मनोरंजन। पर सरबजीत फिल्म वैसी फिल्म नहीं है। बिल्कुल अलग। मनोरंजन का तो नामो निशान नहीं, पर कई दृश्य में रोंगटे खड़े जरूर हुए, कई दृश्यों पर आँखों से अपने आप आँसू बहने लगे, कई दृश्यों पर समाज, कानून व्यवस्था पर थू-थू करने का मन किया। चाहे भारत हो या पाकिस्तान या कोई भी देश, अगर किसी को इस तरह से सजा देता है, तो सही में कानून व्यवस्था अंधी है। गलती किसी ने की हो, और उसकी सजा किसी और को मिली। ऐसा ही कुछ होता है सरबजीत के साथ। वास्तव में वह शराब के नशे में धूत होने के कारण पाकिस्तान की सीमा को लांघ गया, और उसकी यह एक गलती उसे जिंदा मरने के लिए छोड़ दिया। फिल्म में जिस तरह से दिखाया गया है कि कैदियों को किस तरह काल कोठरी में रखा जाता है। उसे यातनाएँ दी जाती है, दिल को हिला दिया। गुनाह करने वाला किस तरह आजाद घूमता है, और जबरन पकड़ कर किसी बेगुनाह को आरोपी कैसे बना दिया जाता है। यह दिखाया गया है इस फिल्म में। और आखिर में जब सरबजीत की बहन दलबीर आरोपी मंजीत सिंह को खोजने में कामयाब होती है और उसे कोर्ट तक खींच ले आती है तो वह खुलेआम कहता है कि मैं तो अपनी मर्जी से आया हूँ और मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। और ठीक वैसा ही हुआ। उसका कुछ नहीं बिगड़ा, उल्टे वर्षों से काल कोठरी में पड़े कैदी सरबजीत पर हमला करवा कर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है। जिस काल कोठरी में उसके परिवार वालों को जाने के लिए पूरी तरह से जाँच-पड़ताल से गुजरना पड़ा वहाँ हथियार सहित बदमाश आकर उस पर हमला बोलकर चले गये और कोई कुछ नहीं कर पाया। यह वास्तव में फिल्म की कहानी नहीं है, बल्कि सच्ची घटना पर बनाई गई है। लाहौर में हुए बम विस्फोट के मामले में लिप्त आरोपी मंजीत की तलाश थी, और उसी समय सरबजीत पाकिस्तान की सीमा में घुस गया, तो बस पाकिस्तान वाले  ने उसको आरोपी मानकर पकड़ लिया और उस पर हमला, सजा  और कष्ट देना शुरू कर दिया। जबरन उसे सरबजीत से मंजीत सिंह बना दिया गया। इस फिल्म से बस केवल एक उम्मीद की जा सकती है कि अब ऐसी गलती नहीं होनी चाहिए, और किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलना चाहिए। यहाँ सरबजीत के साथ –साथ उसके परिवार वाले भी सजा काटे। 23 सालों तक इंतजार करने के बाद सरबजीत तो भारत पहुँचा नहीं, बल्कि उसका शव लाया गया।

2 मई 2013 को  पाकिस्तान के जेल में सजा काट रहे कैदी सरबजीत की मौत होती है और ठीक तीन साल बाद मई 2016 में ही सरबजीत को लेकर एक फिल्म रिलीज हुई।  सरबजीत का किरदार रणदीप हुड्डा ने बखूबी निभाया है और उसकी बहन का किरदार ऐश्वर्या राय बच्चन ने। दोनों ने ही काम बेहतर किया है। ऐश्वर्य राय बच्चन ने तो सफेद बाल और आँखों पर चश्मा लगाकर भी अपनी सुंदरता और अभिनय में चांद लगाया। वहीं  सरबजीत की पत्नी का किरदार निभा रही  रिचा चड्ढा ने भी अमिट छाप छोड़ी है। उसकी आँखें, उसका डॉयलॉग डिलीवरी का तरीका काफी अच्छा लगा। वकील का किरदार दर्शन कुमार ने बखूबी निभाया। उमंग कुमार की निर्देशित फिल्म मनोरंजन की दृष्टि से नहीं, पर वास्तवकिता की दृष्टि से सफल जरूर है।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार तथा समीक्षक हैे)

खिदिरपुर कॉलेज में राष्ट्रवाद और रवींद्रनाथ पर संगोष्ठी का आयोजन

खिदिरपुर कॉलेज ने अपने स्वर्ण जयंती के अवसर पर एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन  भारतीय भाषा परिषद सभागार में किया।  इस संगोष्ठी का विषय था – राष्ट्रवाद : पश्चिम और पूर्व, संदर्भ टैगोर।  इस संगोष्ठी का उद्बोधन मुख्य अतिथि,  सुप्रसिद्ध इतिहासकार और बुद्धिजीवी प्रो.  भारती राय के कर कमलों से हुआ।  उन्होंने रवींद्रनाथ के व्यक्तित्व की विराटता को रेखांकित करते हुए उनके विचारों को  नए सिरे से व्याख्यायित करने की बात कही।  कॉलेज की भार प्राप्त अध्यक्षा डा. दीबा हाशमी ने कॉलेज के स्वर्ण जयंती के कार्यक्रम और गुरुदेव के महत्व की चर्चा की।  बीज भाषण देते हुए प्रो.  सुकांत चौधुरी ने राष्ट्रवाद और देशभक्ति में पार्थक्य बताया  तथा रवीन्द्रनाथ को सच्चा मानवतावादी माना। दूसरे सत्र में प्रो कृष्णा सेन,  प्रो. रामकृष्ण भट्टाचार्य और प्रो. सुप्रिया  चौधरी ने अपने विचार रखे।  तीसरे सत्र में प्रो विश्वनाथ और डा विश्वजीत ने रवीन्द्रनाथ के राष्ट्रवाद संबंधी विचारों की सारगर्भित समीक्षा की। अंतिम सत्र में पैनल चर्चा थी जिसमें  विविध कला क्षेत्र के विद्वानों ने शिरकत की।  अध्यक्षता प्रो. रामकुमार मुखोपाध्याय ने की तथा प्रो सुशोभन अधिकारी, प्रो सुजातो भद्र,  श्री फे सिन इजाज, स्वपन सोम तथा प्रो.  शेखर कुमार समादार प्रतिभागी थे।  इस सत्र में कला के विविध क्षेत्रों में व्यक्त रवीन्द्रनाथ के राष्ट्रवाद संबंधी विचारों की रोचक व्याख्या की गई।  विभिन्न कॉलेज के शिक्षकों एवं शोध छात्रों ने कार्यक्रम में सक्रिय रूप से भाग लिया।

दुनिया को धरती और आकाश, दोनों की जरूरत है

वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है और हर बदलाव के पीछे उम्मीद होती है कि कुछ अच्छा होगा। कुछ अच्छा होने के पहले जो था, वह उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा और उतरा भी तो उससे बेहतर की उम्मीद होती है। यही कहानी एक आम आदमी की है और व्यवस्था की भी। परीक्षाओं के बाद जब नतीजे घोषित होते हैं तो परीक्षार्थी को भी उम्मीद होती है कि अच्छे अंक से पास हुआ तो नौकरी या दाखिला पक्का है और जब ऐसा नहीं होता, तो कहीं न कहीं या तो टूटने लगता है या फिर उदासीन हो जाता है। व्यवस्था की बात करें तो यह विकल्पहीनता की स्थिति है और जो कम बुरा है, वही अच्छा मान लिया जाता है।

TMC-hopes-to-win-big-300x224

बंगाल में शायद कुछ ऐसा ही हुआ है। अपार बहुमत के बावजूद तृणमूल की सीटें कम होना और नोटा का अधिक प्रयोग सम्भवतः इसी का परिचायक है और यह विफलता तमाम राजनीतिक पार्टियों की विफलता है। जो भी हो, बंगाल में एक बार फिर त़ृणमूल सरकार है और एक बार फिर ममता बनर्जी यानि दीदी से लोगों की उम्मीदें जुड़ गयी हैं। जून यानि आधा साल बीत गया, हमारी और आपकी दोस्ती भी अब लगभग 6 महीने पुरानी हो चुकी है। मई का महीना माँ के नाम तो जून का महीना पिता के नाम होता है, फादर्स डे इसी महीने में पड़ता है और पर्यावरण दिवस भी। देखा जाए तो इन दोनों रिश्तों का प्रकृति से तारतम्य है क्योंकि तभी तो माँ को धरती और पिता को आकाश या समन्दर देखा जाता है। हमारे देश में पुरुषों को इतना मजबूत मान लिया जाता है कि उनको न तो रोने की इजाजत है और न ही खुलकर जिंदगी से वे जुड़ ही पाते हैं। वह हारने से और टूटने से डरते हैं इसलिए घुटते हैं मगर अपने मन की बात अपने मन में ही रखते हैं। क्या सभी पुरुष और उनमें छिपा पिता एक सा हो सकता है? पिता का मतलब अनुशासन की ऐसी छड़ी जो बच्चों को डराने के काम आती रही है जिससे बच्चे बात करने से भी कतराते हैं मगर वक्त बदला है तो पुरुष और उसमें छिपा पिता बदला है। वह पत्नी के साथ अपने बच्चों की परवरिश दोस्ताना तरीके से करता है। कई बार वह महिलाओं से भी अधिक संवेदनशील साबित हुआ है इसलिए यह मामला तो व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। यह फर्क आप विज्ञापन से लेकर फिल्मों में देख सकते हैं। समाज से लेकर साहित्य तक का फलसफा औरतों को समझने और उसे फटकारने में गुजर गया मगर पुरुषों को भी समझे जाने की जरूरत है, यह ख्याल किसी को नहीं आया। स्त्री शिक्षा की तरह ही पुरुषों को भी शिक्षित और मानसिक रूप से समझदार होने की जरूरत है। अपराजिता संतुलन पर जोर देती है और उसका मानना है कि स्त्री और पुरुष, अगर दोनों को समझा जाए और विकास के लिहाज से दोनों को साथ लेकर चला जाए, तो बेहतर समाज बन सकता है जहाँ कुँठा नहीं होगी तो स्वस्थ परिवेश बनेगा। बात अगर सेल्फी विद् डॉटर की हो तो सेल्फी विद् सन क्यों नहीं हो सकता? यह सही है कि हमारे देश में महिलाओं का अनुपात सही नहीं है मगर स्थिति को बेहतर बनाने के लिए बच्चों के साथ भेदभाव जरूरी है? बच्चे तो बच्चे ही होते हैं, बचपन से ही उनमें स्त्री और पुरुष होने का भाव भरा ही क्यों जाए। सेल्फी विद् सन एंड डॉटर हमारी समझ से एक बेहतर विकल्प हो सकता है। संसार को धरती औऱ आकाश, दोनों की जरूरत है इसलिए लड़कियों के साथ लड़कों को भी हर क्षेत्र में मानसिक रूप से संतुलित परिवेश देने की जरूरत है। यही संतुलन पर्यावरण में होना चाहिए। दरअसल, अपनी जीवनशैली में थोड़ा सा बदलाव लाकर भी पर्यावरण की हिफाजत की जा सकती है। प्रकृति ने हमें काफी कुछ दिया है तो हमारा भी फर्ज बनता है कि उसकी हिफाजत करें वरना बाढ़, सूखा और भूकम्प जैसी आपदा हम सबकी किस्मत बन सकती है। एक अनुरोध, यह कि अगर आप इस पत्रिका  में कुछ सुझाव देना चाहते हैं तो संतुलित तरीके से दे सकते हैं और रचनात्मक सहयोग भी।

दृष्टिहीन अनामिका को सीबीएसई में मिले 86 प्रतिशत 

ग्वालियर।अनामिका को भले ही आंखों से दिखाई नहीं देता, लेकिन उनका उत्साह हिमालय से ऊंचा है। आखिर ऐसा क्यों नहीं हो, उन्होंने सीबीएसई-12 में 86 प्रतिशत मार्क्स हासिल करके एक मिसाल कायम की है। वो भी ह्यूमिनटी जैसे कठिन विषयों में। अनामिका ने पूरी स्टडी सामान्य बच्चों के स्कूल में की है। बनना चाहती हैं टीचर……

-इस अनामिका से वो स्टूडेंट्स प्रेरणा ले सकते हैं, जो जरा सी असफलता मिलते ही सुसाइड जैसे कदम उठाते हैं।

-अनामिका को दोनों आंखों से दिखाई नहीं देता, लेकिन वे स्टडी में किसी से पीछे नहीं हैं।

-अनामिका ने इस साल सीबीएसई 12 की परीक्षा में 86 प्रतिशत अंक हासिल किए। वो भी ह्यूमिनिटी से जुड़े विषयों में, जिसमें स्कोरिंग करना बहुत मुश्किल काम होता है।

-अनामिका कहती हैं कि मुझे उस समय बहुत दुख होता है, जब फेल होने पर आत्महत्या जैसा कदम उठाता है। भला परीक्षा के लिए जिंदगी क्यों खत्म की जाए।

-अनामिका चाहती हैं कि वे शिक्षिका बनें और निराश होने वाले बच्चों को सही दिशा दिखाना चाहती हैं।

सामान्य बच्चों के साथ पढ़ी अनामिका

-अनामिका ने ग्वालियर के उस केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ाई की है, जहां पर उनका मुकाबला सामान्य बच्चों से होता था।

-स्कूल की प्रिसिंपल रेखा सक्सेना बताती हैं कि अनामिका स्टडी में कभी पीछे नहीं रही औऱ न ही उसके मन में यह विचार आया कि वह देख सकती है।

-अनामिका के पिता कृष्ण मोहन मिश्रा स्वयं टीचर हैं और उन्होंने अनामिका के लिए स्वयं ब्रेल लिपि सीखी और फिऱ पढ़ाया।

 

संसार के पहले संवाददाता हैं नारद मुनि

नारायण! नारायण! की स्तृति करने वाले नारद मुनि भगवान विष्णु के न केवल परम भक्त माने जाते हैं, बल्कि उन्हें संसार के पहले संदेशवाहक के रूप में भी पहचाना जाता है। देवों और दानवों के परामर्शदाता भी। देवलोक से भूलोक तक, देवताओं से दानवों तक संदेश और गोपनीय संदेश महर्षि नारद की भूमिका आज भी प्रासंगिक हैं।

सृष्टि के प्रथम संदेशवाहक, संगीत, कला और साहित्य के ज्ञाता नारद को भी सभी विधाओं में महारत हासिल थी। ब्रम्हा पुत्र नारद ने जन कल्याण को प्राथमिकता दी और लोकहित में समस्त कार्य किए। यही वजह है कि हर वर्ष ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष माह में आज भी नारद मुनि की जयंती को लोग हर्ष और उल्लास से मनाते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन नारद मुनि का जन्म हुआ था और उनके भक्तों के लिए यह दिन विशेष महत्व रखता है।

भले ही नारद को देवऋषि कहा गया हो लेकिन उनका कार्य केवल देवताओं तक ही संदेश पहुंचाना नहीं था बल्कि दानवों और मनुष्यों के भी वे संदेशवाहक और मित्र थे। और वे आगामी खतरों को लेकर लोगों को पहले ही सचेत कर दिया करते थे।

संतों के साथ रमता था उनका मन

नारद जी बचपन से ही अत्यंत सुशील थे। वे खेलकूद छोड़कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा भी बड़े मन से किया करते थे। संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो वे तन्मय होकर सुना करते थे। संत लोग उन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिए दे दिया करते थे।

ब्रम्हा के सात मानस पुत्रों में से एक

हिंदू शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि ब्रम्हा के सात मानस पुत्रों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रम्हार्षि पद प्राप्त किया। वे भगवान विष्णु के प्रिय भक्तों में से एक माने जाते हैं। वे प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए हमेशा सर्वत्र विचरण किया करते थे। इनकी वीणा भगवज्जप-महती के नाम से ख्यात है। उससे नारायण-नारायण की ध्वनि निकलती रहती है।

कई विद्वानों के गुरु रहे हैं नारद मुनि

पौराणिक कथाओं के अनुसार देवर्षि नारद व्यास, वाल्मीकि और महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भगावत जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ है और रामायण्ा देवर्षि नारद की प्रेरणा से ही हमें प्राप्त हो सके हैं।

जब नारद ने मानी अपनी गलती

एक बार नारद पृथ्वी का भ्रमण कर रहे थे। तब उन्हें उनके एक खास भक्त जो नगर का सेठ था ने याद किया। अच्छी सत्कार के बाद सेठ ने नारद जी से प्रार्थना की- आप ऐसा कोई आर्शीवाद दें कि कम से कम एक बच्चा तो हो जाए।

नारद ने कहा कि तुम लोग चिंता न करो, मैं अभी नारायण से मिलने जा रहा हूं। उन तक तुम्हारी प्रार्थना पहुंचा दूंगा और वे अवश्य कुछ करेंगे। नारद विष्णु ध्ााम विष्णु से मिलने गए और सेठ की व्यथा बताई। भगवन् बोले कि उसके भाग्य में संतान सुख नहीं है इसलिए कुछ नहीं हो सकता।

उसके कुछ समय बाद नारद ने एक दीये में तेल ऊपर तक भरा और अपनी हथेली पर सजाया और पूरे विश्व की यात्रा की। अपनी निर्विघ्न यात्रा का समापन उन्होंने विष्णु धाम आकर ही संपन्न किया।

इस पूरी प्रक्रिया में नारद को बड़ा घमंड हो गया कि उनसे ज्यादा ध्यानी और विष्णु भक्त कोई ओर नहीं। अपने इसी घमंड में नारद पुन: पृथ्वी लोक पर आए और उसी सेठ के घर पहुंचे। इस दौरान सेठ के घर में छोटे-छोटे चार बच्चे घूम रहे थे।

नारद ने जानना चाहा कि ये संतान किसकी हैं तो सेठ बोले- आपकी हैं। नारद इस बात से खुश नहीं थे। उन्होंने कहा- क्या बात है, साफ-साफ बताओ।

सेठ बोला- एक साधु एक दिन घर के सामने से गुजर रहा था और बोल रहा था कि एक रोटी दो तो एक बेटा और चार रोटी दो तो चार बेटे। मैंने उन्हें चार रोटी खिलाई। कुछ समय बाद मेरे चार पुत्र पैदा हुए।

नारद आग-बबूला हुए और विष्णु की खबर लेने विष्णु धाम पहुंचे। नारद को देखते ही भगवान अत्यध्ािक पीड़ा से कराह रहे थे। उन्होंने नारद को बोला- मेरे पेट में भयंकर रोग हो गया है और मुझे जो व्यक्ति अपने हृदय से लहू निकाल कर देगा उसी से मुझे आराम होगा।

नारद उल्टे पांव लौटे और पूरी दुनिया से विष्णु की व्यथा सुनाई, पर कोई भी आदमी तैयार नहीं हुआ। जब नारद ने यही बात एक साधु को सुनाई तो वो बहुत खुश हुआ, उसने छुरा निकाला और एकदम अपने सीने में भौंकने लगा और बोला- मेरे प्रभु की पीड़ा यदि मेरे लहू से ठीक होती है, तो मैं अभी तुम्हें दिल निकालकर देता हूं।

जैसे ही साधु ने दिल निकालने के लिए चाकू अपने सीने में घोपना चाहा, तभी विष्णु वहां प्रकट हुए और बोले- जो व्यक्ति मेरे लिए अपनी जान दे सकता है, वह किसी व्यक्ति को चार पुत्र भी दे सकता है। साथ ही नारद से यह भी कहा कि तुम तो सर्वगुण संपन्न् ऋषि हो। तुम चाहते तो उस सेठ को भी पुत्र दे सकते थे। नारद को अपने घमंड पर पश्चाताप हुआ।

 

जब एक बस ड्राइवर का बेटा लंदन का मेयर बना

लंदन से आने वाली यह खबर भी ऐतिहासिक संदर्भ रखती है। वहां बीते दिनों पाकिस्तानी मूल के सादिक खान को लंदन का मेयर चुन लिया गया है।

खास बात यह है कि इस पद तक पहुंचने वाले वह पहले अप्रवासी मुसलमान हैं। उनका दुनिया के सबसे खूबसूरत और सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध शहर का मेयर चुना जाना सुकून तो देता ही है। बता दें कि वे ब्रिटेन की लेबर पार्टी के सदस्य व नेता हैं।

सादिक के पिता बस ड्राइवर थे…
सादिक का परिवार कभी बेहद गरीबी और संघर्ष के दिनों से गुजरा है। उनके पिताजी एक बस ड्राइवर थे और मध्यम वर्गीय परिवार में मौजूद सात भाई-बहनों के लिए दो जून की रोटी जुगाड़ करना कोई आसान काम नहीं था। उनका परिवार एक अप्रवासी परिवार था और उन्हें ब्रिटेन के प्रजातांत्रिक ढाचे से काफी सहूलियतें मिलीं। उस दौर में उन्होंने राज्य द्वारा वित्त प्रदत्त स्कूलों में पढ़ाई की और अच्छे नंबर लाकर विश्वविद्यालयों का रुख किया।

सादिक कट्टरपंथ के सख्त खिलाफ हैं.
सादिक पूरी दुनिया और खास तौर पर ब्रिटेन के भीतर बढ़ने वाले कट्टरपंथ पर कहते हैं कि उनकी पहली प्राथमिकता लंदन को सुरक्षित रखने की होगी – चाहे वह हिंसक अपराधी हों या असामाजिक तत्व। वे कहते हैं कि उन्हें इसमें संकोच नहीं है कि वे ब्रिटिश मुसलमान हैं और कट्टरपंथ के खिलाफ लड़ाई लड़ने को प्रतिबद्ध हैं।

 

गर्मियों में बालों को चाहिए खास देखभाल

गर्मियों के मौसम में त्वचा की तरह ही बालों को भी खास देखभाल की जरूरत होती है. इस चिपचिपे मौसम में भी आप अपने बालों को खूबसूरत बनाए रख सकती हैं। जानिए गर्मी के मौसम में भी बालों को हेल्दी रखने के ये पांच टिप्स.

बढ़ते तापमान के साथ बालों में तेल की जगह हेयर सीरम लगाएं. यह कम चिपचिपा होता है.।

घर से बाहर जाने पर अपने बालों को स्कार्फ, टोपी या स्टोल से ढककर रखें।

अपने बालों को कलर करने के लिए अमोनिया फ्री हेयर कलर्स का इस्तेमाल करें। ये इनके दुष्प्रभाव से बचाते हैं और बालों को पोषण देते हैं।

बालों को ज्यादा कसकर न बांधें. इससे बाल खराब हो सकते हैं और उनके झड़ने की संभावना बढ़ जाती है। गर्मी के मौसम के अनुरूप हेयर स्टाइल्स रखें. अपने बालों की चोटी या ढीला टॉप नॉट बनाएं।