Saturday, March 15, 2025
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बसन्त पंचमी पर बनिए बसंत से मनोरम

बसन्त ने कदम रख दिया है और प्रकृति कर रही है मनोरम श्रृंगार। मनुष्य मात्र के मन में तरंग उठ रही है। यह वह मौसम है जब मन झूम रहा है। यह वह मौसम है जब वीणापाणी ने धरती को अपनी कृपा से सजा दिया और दे दिए सुर, स्वर और रंग। दे दी है विवेक और चेतना …यही वह मौसम है जब फूल और भी सुन्दर दिखने लगे हैं तो भला आप क्यों न दिखें मनोरम। बस कुछ बातों का ख्याल रखिए और बन जाइए बसन्त से मनोरम
कुर्ता-पजामा लुक – बसंत पंचमी के मौके पर पारंपरिक कुर्ता-पजामा पहनना हमेशा से एक बेहतरीन विकल्प रहा है। इस बार पीले रंग के सूती या रेशमी कुर्ते को चुनें, जो त्योहार के मिजाज के साथ पूरी तरह मेल खाता हो। कुर्ते पर बारीक कढ़ाई या जरी का काम हो तो लुक और भी आकर्षक बन जाएगा। साथ में सफेद या क्रीम रंग का पजामा और मोजरी जूते पहनकर आप एक परफेक्ट ट्रेडिशनल लुक क्रिएट कर सकते हैं। इस आउटफिट के साथ स्टाइलिश स्टोल या दुपट्टा भी एड किया जा सकता है।
इंडो-वेस्टर्न फ्यूजन – अगर आप पारंपरिकता के साथ आधुनिकता का संगम चाहते हैं तो इंडो-वेस्टर्न फ्यूजन आउटफिट आपके लिए बेस्ट रहेगा। पीले रंग के नेहरू जैकेट को सफेद या बेज रंग की शर्ट और चूड़ीदार पजामा के साथ पेयर करें। इस लुक के साथ कोलोनियल जूते या ऑक्सफोर्ड शूज पहनकर आप एक स्टाइल स्टेटमेंट बना सकते हैं। यह आउटफिट न केवल आरामदायक है, बल्कि त्योहार के मौके पर आपको खास भी बनाता है।
डेनिम जैकेट के साथ काजू कुर्ता – अगर आप यंग और ट्रेंडी लुक पसंद करते हैं, तो काजू कुर्ता और डेनिम जैकेट का कॉम्बिनेशन आपके लिए परफेक्ट है। पीले या गोल्डन शेड के काजू कुर्ते को नीले डेनिम जैकेट के साथ स्टाइल करें। इस लुक के साथ सफेद स्नीकर्स या जूतियां पहनकर आप एक कैजुअल येट स्टाइलिश लुक क्रिएट कर सकते हैं। यह आउटफिट न केवल आपको त्योहार के मिजाज के साथ जोड़ेगा, बल्कि आपकी पर्सनैलिटी को भी निखारेगा।
पीले रंग का शेरवानी लुक – बसंत पंचमी के मौके पर अगर आप किसी शादी या पार्टी में शामिल होने वाले हैं, तो पीले रंग का शेरवानी लुक आपके लिए बेस्ट रहेगा। गोल्डन या मस्टर्ड शेड के शेरवानी को सफेद या क्रीम रंग के चूड़ीदार पजामा के साथ पेयर करें। शेरवानी पर जरी का काम या बारीक कढ़ाई हो तो लुक और भी शानदार बन जाएगा। इस आउटफिट के साथ मोजरी जूते और स्टाइलिश ब्रोच पहनकर आप एक रॉयल लुक क्रिएट कर सकते हैं।
कैजुअल टी-शर्ट और ट्राउजर लुक – अगर आप त्योहार के मौके पर कैजुअल और कम्फर्टेबल लुक पसंद करते हैं, तो पीले रंग की टी-शर्ट और सफेद या बेज रंग के ट्राउजर का कॉम्बिनेशन आपके लिए बेस्ट रहेगा। इस लुक के साथ स्नीकर्स या सैंडल पहनकर आप एक यंग और एनर्जेटिक लुक क्रिएट कर सकते हैं। इस आउटफिट के साथ स्टाइलिश सनग्लासेस और एक ट्रेंडी वॉच पहनकर आप अपने लुक को और भी निखार सकते हैं।
स्टाइलिंग के लिए अपनाएं ये टिप्स – पीले रंग के साथ सफेद, क्रीम या बेज रंग का कॉम्बिनेशन बेहद खूबसूरत लगता है। आउटफिट के साथ मैचिंग एक्सेसरीज जैसे स्टोल, टोपी या बैग का इस्तेमाल करें।जूते चुनते समय कम्फर्ट और स्टाइल दोनों का ध्यान रखें। हेयरस्टाइल और ग्रूमिंग पर भी ध्यान दें, ताकि आपका लुक परफेक्ट बन सके।

शांति, संस्कृति एवं शिक्षा का महापर्व है बसंत पंचमी

ललित गर्ग
बसंत पंचमी या श्री पंचमी हिन्दुओं का प्रमुख सांस्कृतिक एवं धार्मिक त्यौहार है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती, कामदेव और विष्णु की पूजा की जाती है। यह प्रकृति के सौंदर्य, नई शुरुआत, और सकारात्मकता का उत्सव भी है। इस दिन देवी सरस्वती की पूजा से मन में शांति और ज्ञान का संचार होता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि जीवन में शिक्षा, कला, सौन्दर्य और प्रकृति का सम्मान करना कितना महत्वपूर्ण है। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है। प्राचीन भारत और नेपाल में पूरे साल को जिन छह ऋतुओं में बांटा जाता था उनमें बसंत लोगों का सबसे मोहक, मनोरम एवं मनचाहा मौसम था। बसंत पंचमी मन की, जीवन की, संस्कृति की, साहित्य की, संगीत की, प्रकृति की असीम कामनाओं का अनूठा एवं सौन्दर्यमय त्योहार है, जो हर वर्ष माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मनाया जाता है। दूसरे शब्दों में बसंत पंचमी का दूसरा नाम सरस्वती पूजा भी है। माता सरस्वती को ज्ञान-विज्ञान, सूर-संगीत, कला, सौन्दर्य और बुद्धि की देवी माना जाता है। कहा जाता है कि देवी सरस्वती ने ही जीवों को वाणी के साथ-साथ विद्या और बुद्धि दी थी। इसलिए वसंत पंचमी के दिन हर घर में सरस्वती की पूजा की जाती है, मां सरस्वती की पूजा करने से मां लक्ष्मी और देवी काली भी प्रसन्न होती हैं। बसंत पंचमी के 40 दिन बाद होली का पर्व मनाया जाता है, इसलिए बसंत पंचमी से होली के त्योहार की शुरुआत मानी जाती है।
मान्यता है कि बसंत पंचमी को देवी सरस्वती का जन्म हुआ था। इसी दिन वह हाथों में पुस्तक, वीणा और माला लिए श्वेत कमल पर विराजमान होकर प्रकट हुई थीं। कहा जाता है कि देवी सरस्वती की पूजा सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण ने की थी। मां सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। देवी भागवत में उल्लेख है कि माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी को ही संगीत, काव्य, कला, शिल्प, रस, छंद, शब्द, स्वर व शक्ति की प्राप्ति जीव-जगत को हुई थी। इसीलिये मां सरस्वती को प्रकृति की देवी की उपाधि भी प्राप्त है। पद्मपुराण में मां सरस्वती का रूप प्रेरणादायी है। धर्मशास्त्रों के अनुसार मां सरस्वती का वाहन सफेद हंस है। यही कारण है कि देवी सरस्वती को हंसवाहिनी भी कहा जाता है। देवी सरस्वती विद्या की देवी हैं। देवी का वाहन हंस यही संदेश देता है कि मां सरस्वती की कृपा उसे ही प्राप्त होती है जो हंस के समान विवेक धारण करने वाला होता है। केवल हंस में ही ऐसा विवेक होता है कि वह दूध का दूध और पानी का पानी कर सकता है। हंस दूध ग्रहण कर लेता है और पानी छोड़ देता है। इसी तरह हमें भी बुरी सोच को छोड़कर अच्छाई को ग्रहण करना चाहिए।
सफेद रंग शांति और पवित्रता का प्रतीक है। यह रंग शिक्षा देता है कि अच्छी विद्या और अच्छे संस्कारों के लिए आवश्यक है कि आपका मन शांत और पवित्र हो। सभी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। मेहनत के साथ ही माता सरस्वती की कृपा भी उतनी आवश्यक है। मां सरस्वती हमेशा सफेद वस्त्रों में होती हैं। इसके दो संकेत हैं पहला यह कि हमारा ज्ञान निर्मल हो, विकृत न हो, अहंकारमुक्त हो। जो भी ज्ञान अर्जित करें वह सकारात्मक हो। दूसरा संकेत हमारे चरित्र को लेकर है। कोई दुर्गुण हमारे चरित्र में न हो। मां ने शुभ्रवस्त्र धारण किए हैं, ये शुभ्रवस्त्र हमें प्रेरणा देते हैं कि हमें अपने भीतर सत्य, अहिंसा, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, प्रेम व परोपकार आदि सद्गुणों को बढ़ाना चाहिए और क्रोध, मोह, लोभ, मद, अहंकार आदि का परित्याग करना चाहिए। मां सरस्वती को पीले रंग प्रिय है, मान्यतानुसार पीला रंग सुख-समृद्धि और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। पीला रंग बसंत पंचमी का मुख्य प्रतीक है। पीले रंग को सरस्वती मां का प्रिय रंग भी कहा जाता है। पीले फूलों को मां पर अर्पित किया जाता है, पीले रंग की साज-सज्जा की जाती है और पीले रंग के चावल माता को भोग में चढ़ाने शुभ माने जाते हैं। बसंत पंचमी एक उत्सव ही नहीं बल्कि एक प्रेरणा भी है। बसंत पंचमी सिखाती है कि पुराने के अंत के साथ ही नए का सृजन भी होता है। असल में अंत और शुरुआत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। बसंत ऋतु के आने से पहले पतझड़ का उदास मौसम होता है, लेकिन बसंत पंचमी के साथ ही बसंत ऋतु भी दस्तक देती है और बसंत ऋतु में पतझड़ से खाली हुए पेड़ पौधों में फिर से एक चमक, एक सुंदरता उतर आती है। जीवन का दस्तूर भी कुछ ऐसा ही है। पतझड़ की तरह खालीपन आता है लेकिन सब्र का दामन ना छोड़ें तो बसंत की बहार भी आती है। पूरे मन एवं आस्था से सरस्वती की पूजा एवं साधना करें ताकि आपकी वाणी मधुर हो, स्मरण शक्ति तीव्र हो, सौभाग्य की प्राप्ति हो, विद्या की प्राप्ति हो। सरस्वती पूजा से पति-पत्नी और बंधुजनों का कभी वियोग नहीं होता है तथा दीर्घायु एवं निरोगता प्राप्त होती है। इस दिन भक्तिपूर्वक ब्राह्मण के द्वारा स्वस्ति वाचन कराकर गंध, अक्षत, श्वेत पुष्प माला, श्वेत वस्त्रादि उपचारों से वीणा, अक्षमाला, कमण्डल, तथा पुस्तक धारण की हुई सभी अलंकारों से अलंकृत सरस्वती का पूजन करें।
बसंत पंचमी के साथ, बसंत ऋतु की शुरुआत होती है, जो फसलों की कटाई के लिए एक अच्छा समय है। फाग के राग की शुरुआत भी इसी दिन होती है। फाल्गुन का अर्थ ही है मधुमास। वो ऋतु जिसमें सर्वत्र माधुर्य ही माधुर्य हो, सौन्दर्य ही सौन्दर्य हो। वृ़क्ष नये पत्तों से सज गये हो, कलियां चटक रही हों, कोयल गा रही हो, हवाएं बह रही हो। ऐसे मधुर मौसम में सरस्वती पूजन वसंत की शुचिता एवं सिद्धि का प्रतीक है, एक ऊर्जा है, एक शक्ति है, एक गति है। लोकमन के आह्लाद से मुखरित वसंत ही महक और फाल्गुनी बहक के स्वर इसका लालित्य है, यही इस त्योहार की परम्परा का आह्वान है, यही इसका अलौकिक सौन्दर्य है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन ब्रह्मांड का निर्माण किया था। सृष्टि की रचना करके जब उन्होंने संसार में देखा तो उन्हें चारों ओर सुनसान निर्जनता एवं नीरसता ही दिखाई दी। वातावरण बिल्कुल शांत एवं नीरस लगा जैसे किसी की वाणी ही न हो। यह सब देखने के बाद ब्रह्माजी संतुष्ट नहीं थे तब ब्रह्माजी ने भगवान विष्णुजी से अनुमति लेकर अपने कमंडल से पृथ्वी पर जल छिड़का। जल छिड़कने के बाद एक देवी प्रकट हुई। देवी के हाथ में वीणा थी। भगवान ब्रह्मा ने उनसे कुछ बजाने का अनुरोध किया ताकि पृथ्वी पर सब कुछ शांत न हो। परिणामस्वरूप, देवी ने कुछ संगीत बजाना शुरू कर दिया। तभी से उस देवी को वाणी, वीणा और ज्ञान की देवी सरस्वती के नाम से जाना जाने लगा। उन्हें वीणावादिनी के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि देवी सरस्वती ने वाणी, बुद्धि, बल और तेज प्रदान किया। इसीलिये बसंत पंचमी का सांस्कृतिक और धार्मिक दोनों ही महत्व है। यह ज्ञान, संगीत, कला, सौंदर्यशास्त्र की देवी सरस्वती का त्योहार है। महाभारत के शांति पर्व में उन्हें वेदों की माता कहा गया है। वह अज्ञानता, अविद्या और अंधकार को दूर कर गर्मी, चमक, प्रकाश, माधुर्य, सद्भाव, पवित्रता और प्रसन्नता का संचार करती है।
(साभार – प्रभासाक्षी)

प्रकृति और ज्ञान के संगम का पर्व बसन्त पंचमी

रमेश सर्राफ धमोरा
वसंत शब्द का अर्थ है बसंत और पंचमी का पांचवें दिन। इसलिये माघ महीने में जब वसंत ऋतु का आगमन होता है तो इस महीने के पांचवे दिन यानी पंचमी को वसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी के नाम से भी जाना जाता है।
बसंत पंचमी, प्रकृति और ज्ञान के संगम का पर्व है। यह त्योहार वसंत ऋतु के आगमन पर मनाया जाता है। इस दिन मां सरस्वती की पूजा की जाती है। बसंत पंचमी पर प्रकृति का खिलना और नई फसल आना भी देखा जाता है। बसंत पंचमी एक बहुआयामी त्योहार है जो वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक है और समृद्ध परंपराओं, कृषि महत्व और आध्यात्मिक प्रथाओं से भरा हुआ है। यह एक ऐसा दिन है जब प्रकृति की जीवंतता, देवी सरस्वती की भक्ति और कृषि समुदाय का जीवन उत्सव की एक खूबसूरत तस्वीर में एक दूसरे से जुड़ जाता है।
वसंत शब्द का अर्थ है बसंत और पंचमी का पांचवें दिन। इसलिये माघ महीने में जब वसंत ऋतु का आगमन होता है तो इस महीने के पांचवे दिन यानी पंचमी को वसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी के नाम से भी जाना जाता है। बसन्त उत्तर भारत तथा समीपवर्ती देशों की छह ऋतुओं में से एक ऋतु है। जो फरवरी मार्च और अप्रैल के मध्य इस क्षेत्र में अपना सौंदर्य बिखेरती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माता सरस्वती जिन्हें विद्या, संगीत और कला की देवी कहा जाता है। है। उनका अवतरण इसी दिन हुआ था और यही कारण है कि भक्त इस शुभ दिन पर ज्ञान प्राप्त करने के लिए उनकी पूजा करते हैं। साथ ही इसे सरस्वती पूजा के नाम से भी जाना जाता है।
सभी शुभ कार्यों के लिए बसन्त पंचमी के दिन अत्यंत शुभ मुहूर्त माना गया है। बसन्त पंचमी को अत्यंत शुभ मुहूर्त मानने के पीछे अनेक कारण हैं। यह पर्व अधिकतर माघ मास में ही पड़ता है। माघ मास का भी धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इस माह में पवित्र तीर्थों में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। दूसरे इस समय सूर्यदेव भी उत्तरायण होते हैं। इसलिए प्राचीन काल से बसन्त पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा की जाती है अथवा कह सकते हैं कि इस दिन को सरस्वती के जन्म दिवस के रुप में मनाया जाता है।
भारत में पतझड़ ऋतु के बाद बसन्त ऋतु का आगमन होता है। हर तरफ रंग-बिरंगें फूल खिले दिखाई देते हैं। इस समय गेहूं की बालियां भी पक कर लहराने लगती हैं। जिन्हें देखकर किसान हर्षित होते हैं। चारों ओर सुहाना मौसम मन को प्रसन्नता से भर देता है। इसीलिये वसन्त ऋतु को सभी ऋतुओं का राजा अर्थात ऋतुराज कहा गया है। इस दिन भगवान विष्णु, कामदेव तथा रति की पूजा की जाती है। इस दिन ब्रह्माण्ड के रचयिता ब्रह्मा जी ने सरस्वती जी की रचना की थी। इसलिए इस दिन देवी सरस्वती की पूजा भी की जाती है।
बसन्त पंचमी का दिन भारतीय मौसम विज्ञान के अनुसार समशीतोष्ण वातावरण के प्रारंभ होने का संकेत है। मकर सक्रांति पर सूर्य के उत्तरायण प्रस्थान के बाद शरद ऋतु की समाप्ति होती है। हालांकि विश्व में बदलते मौसम ने मौसम चक्र को बिगाड़ दिया है। पर सूर्य के अनुसार होने वाले परिवर्तनों का उस पर कोई प्रभाव नहीं है। हमारी संस्कृति के अनुसार पर्वों का विभाजन मौसम के अनुसार ही होता है। इन पर्वो पर मन में उत्पन्न होने वाला उत्साह स्वप्रेरित होता है। सर्दी के बाद गर्मी और उसके बाद बरसात फिर सर्दी का बदलता क्रम देह में बदलाव के साथ ही प्रसन्नता प्रदान करता है। बसन्त पंचमी का दिन सरस्वती जी की साधना को अर्पित ज्ञान का महापर्व है। शास्त्रों में भगवती सरस्वती की आराधना व्यक्तिगत रूप में करने का विधान है। किंतु आजकल सार्वजनिक पूजा-पाण्डालों में देवी सरस्वती की मूर्ति स्थापित कर पूजा करने का रिवाज चल पड़ा है। मां सरस्वती का प्रिय रंग पीला है। इसलिए उनकी मूर्तियों को पीले वस्त्र, फूल पहनाए जाते हैं। देश में लोग बसंत पंचमी पर पीले कपड़े पहन कर विद्या की देवी मा सरस्वती कि वंदना मंत्र का उच्चारण कर उनकी पूजा करते हैं।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना॥
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥
माना गया है कि माघ महीने की शुक्ल पंचमी से बसन्त ऋतु का आरंभ होता है। फाल्गुन और चैत्र मास बसन्त ऋतु के माने गए हैं। फाल्गुन वर्ष का अंतिम मास है और चैत्र पहला। इस प्रकार हिंदू पंचांग के वर्ष का अंत और प्रारंभ बसन्त में ही होता है। इस ऋतु के आने पर सर्दी कम हो जाती है। मौसम सुहावना हो जाता है। पेड़ों में नए पत्ते आने लगते हैं। सरसों के फूलों से भरे खेत पीले दिखाई देते हैं। अतः राग रंग और उत्सव मनाने के लिए यह ऋतु सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।
ग्रंथों के अनुसार देवी सरस्वती विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्विनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघमास की पंचमी तिथि निर्धारित की गयी है। बसन्त पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है। ऋग्वेद में सरस्वती देवी के असीम प्रभाव व महिमा का वर्णन है। मां सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। कहते हैं जिनकी जिव्हा पर सरस्वती देवी का वास होता है। वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं।
प्राचीन कथाओं के अनुसार ब्रह्मा जी ने विष्णु जी के कहने पर सृष्टि की रचना की थी। एक दिन वह सृष्टि को देखने के लिए धरती पर भ्रमण करने के लिए आए। ब्रह्मा जी को सृष्टि में कुछ कमी का अहसास हो रहा था। लेकिन वह समझ नहीं पा रहे थे कि किस बात की कमी है। उन्हें पशु-पक्षी, मनुष्य तथा पेड़-पौधे सभी चुप दिखाई दे रहे थे। तब उन्हें आभास हुआ कि क्या कमी है। वह सोचने लगे कि एसा क्या किया जाए कि सभी बोले और खुशी में झूमे। ऐसा विचार करते हुए ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डल से जल लेकर धरती पर छिडका। जल छिडकने के बाद श्वेत वस्त्र धारण किए हुए एक देवी प्रकट हुई। इस देवी के चार हाथ थे। एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में कमल, तीसरे हाथ में माला तथा चतुर्थ हाथ में पुस्तक थी। ब्रह्मा जी ने देवी को वरदान दिया कि तुम सभी प्राणियों के कण्ठ में निवास करोगी। सभी के अंदर चेतना भरोगी, जिस भी प्राणी में तुम्हारा वास होगा वह अपनी विद्वता के बल पर समाज में पूज्यनीय होगा। ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम्हें संसार में देवी सरस्वती के नाम से जाना जाएगा।
कडकड़ाती ठंड के बाद बसंत ऋतु में प्रकृति की छटा देखते ही बनती है। पलाश के लाल फूल, आम के पेड़ों पर आए बौर, हरियाली और गुलाबी ठंड मौसम को सुहाना बना देती है। यह ऋतु सेहत की दृष्टि से भी बहुत अच्छी मानी जाती है। मनुष्यों के साथ पशु-पक्षियों में नई चेतना का संचार होता है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का विशेष महत्व है। देश के कई स्थानो पर पवित्र नदियों के तट और तीर्थ स्थानों पर बसंत मेला भी लगता है। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में तो बसंत पंचमी के दिन से ही लोग समूह में एकत्रित होकर रात में चंग ढफ बजाकर धमाल गाकर होली के पर्व का शुभारम्भ करते है।
बसन्त पंचमी के दिन विद्यालयों में भी देवी सरस्वती की आराधना की जाती है। भारत के पूर्वी प्रांतों में घरों में भी विद्या की देवी सरस्वती की मूर्ति की स्थापना की जाती है और वसन्त पंचमी के दिन उनकी पूजा की जाती है। उसके बाद अगले दिन मूर्ति को नदी, तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। देवी सरस्वती को ज्ञान, कला, बुद्धि, गायन-वादन की अधिष्ठात्री माना जाता है। इसलिए इस दिन विद्यार्थी, लेखक और कलाकार देवी सरस्वती की उपासना करते हैं। विद्यार्थी अपनी किताबें, लेखक अपनी कलम और कलाकार अपने संगीत उपकरणो और बाकी चीजें मां सरस्वती के सामने रखकर पूजा करते हैं।

(साभार – प्रभासाक्षी)

फायदेमंद है गर्म पानी पीना

पानी इंसान के शरीर की सबसे बड़ी जरुरत है। पानी से हमारा शरीर पूरे दिन तरोताजा रहता है। अगर पानी को गर्म करके पीते हैं, तो यह और भी ज्यादा फायदेमंद है। रोजाना सुबह खाली पेट गर्म पानी पीने से शरीर के कई रोग यूं ही मिट जाते हैं। ये हैं गर्म पानी पीने के फायदे

मेटाबॉलिज्म और पाचन तंत्र में सुधार – सुबह-सुबह गर्म पानी पीने से शरीर में रक्त प्रवाह बेहतर होता है, जिससे मेटाबॉलिज्म और पाचन तंत्र में सुधार होता है।

शरीर को करता है डिटॉक्स –आप इसे बॉडी में फिल्टरेशन भी कह सकते हैं। गर्म पानी शरीर का तापमान बढ़ाता है, जिससे पसीने के जरिए शरीर से गंद बाहर आता है और फिर शरीर की अंदरूनी सफाई से स्किन ग्लो करती है।

 ब्लड सर्कुलेशन में सुधार – गर्म पानी पीने से शरीर में ऑक्सीजन का प्रवाह तेज होता है, जिससे ब्लड सर्कुलेशन बेहतर होता है।इससे हार्ट संबंधी बीमारियों का खतरा कम होने लगता है।

शरीर रहता है हाइड्रेट – शरीर में पानी की कमी भी महसूस नहीं होती है। साथ ही बॉडी टेंपरेचर कंट्रोल में रहता है, जिससे दिनभर थकान और आलस्य महसूस नहीं होती है।

वजन कम करने में मददगार  -गर्म पानी मेटाबॉलिज्म में सुधार करता है, जिससे कैलोरी बर्न होती है।

चेहरे पर आता है निखार –अगर आप गर्म पानी रोजाना पिएंगे, तो इससे आपके चेहरे पर नूर सा निखार आने लगेगा।

गर्म पानी से बॉडी से विषाक्त बाहर जाता है और फिर इससे पेट साफ होता है। पेट साफ होने से शरीर में कोई रोग नहीं पैदा होता है।

भवानीपुर कॉलेज ने स्वतंत्रता सेनानी प्रफुल्ल चाकी को दी श्रद्धांजलि

कोलकाता । भवानीपुर एजूकेशन सोसाइटी कॉलेज ने 76वें गणतंत्र दिवस समारोह में स्वतंत्रता सेनानी प्रफुल्ल चाकी को श्रद्धांजलि अर्पित की। कॉलेज के इन-एक्ट कलाकार स्वागत ने प्रफुल्ल चाकी के साहस और शोर्य को अपने अभिनय द्वारा जीवंतता प्रदान की ।झंडा फहराने के लिए मैनेजमेंट के पदाधिकारियों में उपाध्यक्ष श्री मिराज डी शाह, अध्यक्ष श्री रजनीकांत दानी, रेणुका भट्ट, शालीनी शाह, नलिनी पारेख, प्रदीप सेठ, सोहिला भाटिया, राजू जी , उमेद ठक्कर आदि बड़ी संख्या में उपस्थित रहे। इस अवसर पर तिरंगे रंगों के गुब्बारे उड़ाए गए ।स्कूल के बच्चों ने और कॉलेज की एनसीसी जल थल और वायु की टीम ने झंडे को सलामी दी। अध्यक्ष रजनीकांत दानी ने सभी शिक्षक और शिक्षिकाओं एवं विद्यार्थियों को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं दी।उपाध्यक्ष श्री मिराज डी शाह, रेक्टर और डीन प्रो दिलीप शाह और अतिथि एनसीसी अधिकारियों ने एनसीसी के प्रमुख कैडट विद्यार्थियों को बैच पहनाकर बधाई दी ।डॉ वसुंधरा मिश्र ने बताया कि कॉलेज और स्कूल के छात्र छात्राओं द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। सर्वश्रेष्ठ वेशभूषा से सुसज्जित विद्यार्थियों और शिक्षकों को सम्मानित किया गया। प्रो मीनाक्षी चतुर्वेदी ने गणतंत्र दिवस से संबंधित प्रश्नों द्वारा सभी का ज्ञानवर्धन किया ।इस अवसर पर सभी के लिए नाश्ते का प्रबंध रहा।

सत्यजित राय फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टीट्यूट में नुक्कड़ नाटक

कोलकाता । गणतंत्र दिवस के अवसर पर सत्यजीत राय फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टिट्यूट में चित्रांकन एवं स्वच्छता पर केंद्रित नुक्कड़ नाटक की प्रस्तुति हुई।इस अवसर पर विभिन्न शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थियों ने चित्रांकन प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा स्थापित संस्कृति नाट्य मंच की ओर से स्वच्छता अभियान पर नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत किया गया। इस अवसर पर सत्यजित राय फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट के नोडल अधिकारी प्रो. हितेश कुमार ने नाटक के निर्देशक डाॅ.इबरार खान, वरिष्ठ आलोचक मृत्युंजय श्रीवास्तव एवं
विद्यासागर विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के प्रो. संजय जायसवाल का स्वागत किया। सभी अतिथियों ने स्वच्छता अभियान पर बल देते हुए यह संकल्प लिया कि हमें अपने घर की तरह अपने परिवेश को भी स्वच्छ रखना चाहिए।इस नाटक में विशाल कुमार साव, प्रज्ञा झा, फरहान अजीज, संजना जयसवाल, आदित्य तिवारी, अभिषेक यादव, सुषमा कुमारी, काजल हेला, शिखा सिंह, महिमा केशरी, मो. अरबाज, मो. सरफराज खान, सोहेल खान, अनुश्री साव ने अभिनय किया।इस अवसर पर सभी कर्मचारियों के साथ दर्शक भी मौजूद थे। कार्यक्रम का सफल संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन संस्था के राजभाषा अधिकारी संजय दास ने किया।

महात्मा गांधी और दरभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह

भवनाथ झा

महात्मा गांधी के हृदय में मिथिला के प्रति सदैव अपार स्नेह और भक्ति थी। मेरा अनुमान है कि महात्माजी जब बारह या तेरह वर्ष के रहे होंगे, तब उन्हें मिथिला के स्वर्णिम अतीत का ज्ञान हो गया होगा। उन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा में लिखा है:“जब मैं शायद बारह या तेरह साल का था, मेरे पिता पोरबंदर सुदामापुरी में बीमार थे। उस समय रामभक्त लड्ढा महाराज उनके पलंग के पास बैठकर प्रतिदिन तुलसीकृत रामायण का पाठ करते थे। उनकी आवाज़ उनकी भक्ति भावना की तरह ही मधुर थी। जब उन्होंने दोहा और चौपाई गाना शुरू किया तो उन्होंने श्रोताओं को आसानी से मंत्रमुग्ध कर दिया। वे स्वयं रामायण पढ़ने की कृपा से कुष्ठ रोग से मुक्त हो गये थे। उस समय उनकी रामायण भक्ति का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा। आज मैं तुलसीकृत रामायण को साधना साहित्य का सर्वोत्तम ग्रन्थ मानता हूँ।”

और मैं जानता हूं कि अपनी किशोरावस्था के उसी अमिट प्रभाव के कारण गांधीजी ने अपने लेखों और भाषणों में अनेक स्थानों पर विदेह जनक, विदेहभूमि और सती सीता के प्रति अपनी अपार श्रद्धा को खुलकर व्यक्त किया है।

हालाँकि, यह त्रेतायुग की गौरवशाली विदेह भूमि का स्वप्न ज्ञान था, जिसे गांधीजी ने नेतल (नेतल, दक्षिण अफ्रीका) में अपने प्रवास के दौरान आंशिक रूप से साकार करना शुरू किया। यह अब कोई दबा हुआ सत्य नहीं है कि दक्षिण अफ्रीका में महात्माजी के सत्याग्रह संघर्ष को सफल बनाने में दरभंगा के महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह बहादुर और खंडबाला के कुलदीप का भी कम योगदान नहीं था। यद्यपि राजनीतिक विडम्बना के फलस्वरूप मिथिला का वास्तविक इतिहास कुछ शताब्दियों तक जानबूझ कर या उपेक्षित रूप से अन्धकार में रखा गया, फिर भी संतोष की बात है कि कुछ वर्षों तक डॉ. जगदीश चन्द्र झा, डॉ. जटाशंकर झा तथा डॉ. उपेन्द्र ठाकुर प्रतिष्ठित इतिहासकारों द्वारा विशेष जांच की जा रही है। इस बीच, पटना की स्थिति ‘मुझे पूरी उम्मीद है कि महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह स्मारक समिति के तत्वावधान में किए गए जांच कार्य से निकट भविष्य में कई लंबे समय से भूले हुए ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आएंगे।

इस बीच, उक्त समिति के कार्यालय सचिव पंडित श्री राजेश्वर झाजी द्वारा प्रस्तुत पुस्तिका ‘महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह’ (पृष्ठ 27) से कुछ उद्धरणों का मैथिली अनुवाद मैं नीचे दे रहा हूँ। इससे यह स्पष्ट होता है कि महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह बहादुर ने न केवल श्री ह्यूम (कांग्रेस) को निरन्तर आर्थिक सहायता दी, बल्कि महात्मा गांधी को भी उदारतापूर्वक धन दिया। मिथिलेश की उदारता और देशभक्ति से उत्साहित होकर महात्मा गांधी ने जुलाई 1897 में निम्नलिखित आशय का एक पत्र लिखा:

‘मैं आपका ध्यान संसद के ‘भारत विरोधी विधेयक’ से संबंधित प्रति की ओर आकर्षित करना चाहता हूं, जिसे भारतीयों के अनुरोध पर महामहिम चैंबर लेन को भेजा गया है। यद्यपि राज्यपाल ने विधेयक पर अपनी सहमति दे दी है, और यह अब अधिनियमित हो गया है, फिर भी सम्राट को किसी भी औपनिवेशिक कानून को पलटने का अधिकार है। नेटाल में भारतीयों की पीड़ा और उनकी दयनीय स्थिति में तब तक सुधार नहीं हो सकता जब तक आप अपने प्रयास दुगुने नहीं कर देते।

महाराजा ने उन्हें कितनी तत्परता से प्रोत्साहित किया, इसका अनुमान 12 अगस्त 1897 की निम्नलिखित तालिका से स्वतः ही लगाया जा सकता है:
“मैं श्री गांधी को सभी कागजात भेजने के लिए धन्यवाद देता हूं और उन्हें सूचित करता हूं कि समय-समय पर मुझे पत्र और कागजात भेजने के लिए मैं उनका बहुत आभारी हूं। उनसे पूछिए कि नेटाल सिचुएशन के भारतीयों के बचाव के लिए उन्होंने क्या कार्यक्रम निर्धारित किया है, उन्हें मुझसे सहायता मिलती रहेगी।

महात्मा गांधी और राज दरिभंगा के बीच ऐसा ही रिश्ता था। यह संभव है कि जांच के परिणामस्वरूप कई और भूले हुए तथ्य सामने आ सकें।

हालाँकि, ये मिथिला के बारे में गांधीजी की खुशी भरी भावनाएँ थीं। लेकिन मिथिला में उनका पहला पदार्पण 1917 में हुआ जब मिथिला के चंपारण निवासी राजकुमार शुक्ल ने उनसे गांधीजी को कलकत्ता से पटना और मुजफ्फरपुर होते हुए चंपारण लाने का आग्रह किया, जिसका उद्देश्य लोगों को तिनकठिया प्रथा के शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति दिलाना था। निलहा साहब. महात्माजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं

‘चंपारण राजा जनक की भूमि है। चूंकि यह शहर आम के पेड़ों से भरा हुआ था, अतः 1917 ई. के नवम्बर तक यह नील की खेती से प्रभावित हो गया। मैं स्वीकार करता हूं कि मुझे चंपारण का नाम और उसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में जानकारी नहीं थी, इसलिए मैं इसे आसानी से नहीं समझ पाया। यह भी अज्ञात था कि नील की खेती कैसे की जाती है। उन्होंने कहा, “राजकुमार शुक्ल भी एक शोषित किसान थे और हजारों शोषित किसानों के उद्धार के लिए चंपारण से नील की खेती का कलंक मिटाने के लिए मुझे यहां लाए थे।”

अपनी आत्मकथा में उन्होंने चंपारण की आर्थिक, सामाजिक और प्राकृतिक परिस्थितियों के बारे में बहुत कुछ लिखा है, जिससे मिथिला के प्रति उनका नजरिया स्पष्ट होता है। उन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए किस प्रकार प्राथमिक विद्यालय खोले, स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए क्या अभियान चलाए तथा अपने सत्याग्रह के फलस्वरूप किस प्रकार मिथिला को नील के कलंक से मुक्त कराने में सफल हुए, इसकी यहां विस्तार से चर्चा नहीं की जा सकती। इसलिए, यह इंगित करना पर्याप्त प्रतीत होता है कि महात्मा अपने अंतिम दिनों तक दरभंगा के महाराजा डॉ. सर कामेश्वर सिंह बहादुर और उनके राज्य प्रबंधक (अब बुजुर्ग) पंडित श्री गिरिंद्रमोहन मिश्र के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे।

1934 के भूकंप के बाद जब महात्मा जी सरोजिनी नायडू के साथ मिथिला आए तो उन्होंने मिथिलेश का आतिथ्य स्वीकार किया। उस दिन की मधुर स्मृति आज बार-बार पूछ रही है, ‘वह दिन कहां चला गया?’ लेकिन इतिहास चुपचाप उत्तर देता है, ‘समय ऐसा कहता है।’ इसलिए, प्रसिद्धि अमर है। बस यही संतुष्टि है। अब, ‘न तो वह शहर, न ही वह स्थान’। हालाँकि, सहजानंद सरस्वती के जीवन से कुछ पंक्तियाँ इस तरह उद्धृत की जा सकती हैं जिससे स्वाभाविक निबंध को कुछ मजबूती मिले। वह अमर पंक्ति है:

“महात्मा गांधी से शिकायत की गई थी कि दरिभंगा राज में रैयतों पर अत्याचार हो रहा है। यहां तक ​​कि कर वसूली में बहुओं की इज्जत भी तार-तार हो जाती है।’ महात्मा गांधी को यह बात अतिशयोक्तिपूर्ण लगी। उन्होंने कहा कि जहां तक ​​मैं महाराजा के बारे में जानता हूं, मैं कह सकता हूं कि यदि उन्हें यह बात पता होती तो वे इसका समाधान कर देते, विशेषकर तब जब उनके पास श्री गिरिन्द्रमोहन मिश्र जैसे प्रबंधक हों। यह स्वर्गीय मिथिलेश एवं श्रद्धेय पंडित महात्मा गांधी की गिरीन्द्र मोहन मिश्र पर अटूट विश्वास!!

इसके अलावा, महात्मा जी के दरभंगा आगमन के अवसर पर, जब दरभंगा के मिश्रटोला के वरिष्ठ मैथिली साहित्यकार पंडित श्री शशिनाथ चौधरी ने महात्मा जी को दक्षिणी अनाची के गड्ढे में बंधी एक जोड़ी जनऊ दी, तो सुई की सहायता से एक धागे से नौ अलग-अलग धागे निकाले गए। महात्मा जी मिथिला की इस अनूठी हस्तकला से मोहित हो गये। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा, ‘धन्य है यह मिथिला, जहां आज भी शिल्पकला को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

इसी प्रकार रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर अयाची संग्रहालय के संस्थापक एवं मैथिली के प्रख्यात कार्यकर्ता पंडित श्री जयगोविंद मिश्र, ग्राम विष्णुपुर, झंझारपुर मधुबनी, शुद्ध मैथिली पंडित के वेश में महात्मा जी के समक्ष उपस्थित हुए थे। महात्माजी को सूत का एक टुकड़ा दिया और मैथिली में अपनी भेंट प्रस्तुत की। महात्माजी मंत्रमुग्ध हो गए और उन्होंने मिथिला, मैथिली संस्कृति और मिथिला की महिलाओं की शिल्पकला की प्रशंसा की। महात्मा हिन्दी में बोल रहे थे और मिश्र मैथिली में। महात्मा जी मैथिली की मिठास से प्रभावित हुए। मैंने यह बात श्री मिश्रा से सीखी।

इस संबंध में यह ध्यान रखना प्रासंगिक प्रतीत होता है कि उक्त मलमल थान को कांग्रेस प्रदर्शनी में सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया था। श्री जयगोविंद मुझसे मिलने गांव में आये। मैंने सुझाव दिया कि यह मलमल का थान मैथिली साहित्य परिषद को दे दिया जाए। मैं भी उस समय परिषद से विशेष रूप से जुड़ा हुआ था। और उस समय परिषद के मंत्री श्री भोलालाल दास। दासजी ने इस मलमल थान को ले लिया था और इसे स्वर्गीय मिथिलेश महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह बहादुर के हाथों समर्पित कर दिया था। मिथिलेश ने श्री भोलालाल दासजी को वस्त्रों के उस अमूल्य उपहार के बदले में जो सामग्री दी थी, उससे परिषद ने रघुवंश का मैथिली में अनुवाद (मूलतः कालिदास द्वारा संस्कृत में) बाबू अच्युतानंद दत्त द्वारा प्रकाशित करवाया। यह ऐतिहासिक प्रकाशन आज भी मैथिली साहित्य जगत को अपनी अमर कहानी सुना रहा है। हाँ, सुनने के लिए श्रवण की आवश्यकता है, कृतज्ञता के लिए स्मृति की आवश्यकता है और महात्मा जी के मिथिला प्रेम के विशेष मूल्यांकन के लिए मिथिला के निष्पक्ष इतिहास की आवश्यकता है। मुझे नहीं पता कि यह व्यापक मूल्यांकन कब तक और कैसे संभव होगा।

प्रस्तुति : डॉ रमानंद झा रमण, मैथिली साहित्यकार, पटना
स्रोत: मिथिला-मिहिर, 28 सितंबर, 1969/ लक्ष्मीपति सिंह रचना संचयन

नोट : यह आलेख मूल रूप से मैथिली भाषा में हैं। हिंदी के पाठकों के लिए एआई की मदद से ट्रांसलेट किया गया है। असमंजस की स्थिति में मूल आलेख को एक बार देख लिया जाए

(लेख सौजन्य – भवनाथ झा)

कहां लुप्त हो गयी सरस्वती नदी

त्रिवेणी यानी तीन नदियों का संगम गंगा , यमुना , सरस्वती । प्रयागराज में गंगा ,यमुना का मिलन सभी देखते हैं लेकिन सरस्वती का दर्शन नहीं होता ,जबकि सरस्वती को वैदिक सभ्यता की सबसे बड़ी और मुख्य नदी माना जाता है ।कुछ लोगों की मान्यता है कि सरस्वती विलुप्त हो गई है या यमुना से मिलकर अदृश्य रूप से आगे बढ़ी है ।शास्त्रों के अनुसार सरस्वती को पाताल में लुप्त होने की कथा रही है ,महाभारत में भी इस नदी का उल्लेख है । सरस्वती जिस स्थान पर लुप्त हो जाती है उस स्थान को विनाशना तथा उपमज्जना के नाम से संबोधित किया गया है ।
महाभारत में इसे वेद स्मृति ,वेदवती नाम से बुलाया गया है । ये भी उल्लेखित है कि बलराम ने द्वारिका से मथुरा तक की यात्रा इसी नदी से होकर की थी । कर्ण ने सरस्वती नदी के तट पर ही अपना अंतिम दान दिया था । ऋग्वेद में भी इस नदी का उल्लेख मिलता है, इसे यमुना के पूरब  और सतलुज के पश्चिम बहते बताया गया है ।
एक पौराणिक कथा के अनुसार महर्षि वेदव्यास सरस्वती नदी के तट पर गणेश जी को महाभारत को कथा सुना रहे थे ,कथा में कोई बाधा उपस्थित ना हो इसलिए उन्होंने सरस्वती नदी को धीरे बहने का आदेश दिया था पर सरस्वती इस आदेश को ना मानकर अपने वेग को तीव्र गति से आगे बढ़ाती रही क्रोधवश गणेश जी ने सरस्वती नदी को पाताल से बहने का श्राप दे दिया ताकि आगे धरती पर उसका बहाव ही ना रहे ।
परिणामतः सरस्वती विलुप्त हो गई । अब विज्ञान की बात करें तो भौगोलिक आधार पर भौगौलिक परिवर्तन( जलवायु और टेक्टोनिक बदलाव) के कारण 5000 बी.पी में इस नदी के गायब होने का उल्लेख मिलता है । शोधकर्ता माइकल डैनिनो (इतिहासकार) ने अपनी शोध में एक छोटी नदी घग्घर का नाम उल्लेख किया है जिसे सरस्वती कहा है और इसे विलुप्त माना है ।
अब अगर उद्गम और प्रवाह की बात करें तो सरस्वती का उद्गम उत्तराखंड के बद्रीनाथ से निकलकर उसकी प्रवाह  हरियाणा,पंजाब , राजस्थान और गुजरात से होकर बहते हुए अंत में अरब सागर में मिलने का उल्लेख मिलता है ।
कुछ लोग यह भी मानते हैं कि थार के रेगिस्तान के नीचे अभी भी सरस्वती नदी का अस्तित्व शेष है । सवाल यह उठता है कि प्रयागराज के संगम में सरस्वती क्या सिर्फ़ एक परिकल्पना है या सचमुच यमुना की धारा में इसे मिला हुआ मान लिया जाए पर सरस्वती का अस्तित्व क्यों सिमटकर और विलुप्त होकर ही रह गया , यह एक पहेली है जिसकी अलग -अलग व्याख्या की गई है ।

लिटिल थेस्पियन और विद्यार्थी मंच के संयुक्त तत्वावधान में 28वाँ रंग अड्डा

कोलकाता / हावड़ा । पश्चिम बंगाल में हिंदी और उर्दू रंगमंच के लिए विख्यात नाट्य संस्था लिटिल थेस्पियन ने विद्यार्थी मंच के सहयोग से 28वें रंग अड्डा का आयोजन रविवार 19 जनवरी 2025 को हावड़ा स्थित विद्यार्थी मंच के कार्यालय में किया। इस अवसर पर विद्यार्थी मंच की अध्यक्ष एवं मुक्तांचल त्रैमासिक पत्रिका की संपादक डॉ. मीरा सिन्हा और लिटिल थेस्पियन की अध्यक्ष उमा झुनझुनवाला उपस्थित थी। सर्वप्रथम उत्तरपाड़ा यूनियन गर्ल्स हाई स्कूल के हिंदी के अध्यापक प्रकाश कुमार त्रिपाठी (प्रकाश प्रियांशु) ने आलेख पाठ किया। फ्रांसीसी लेखक और नाट्यकार मोलियर के नाटक तरतूफ़ को केंद्र में रखकर उन्होंने अपना आलेख प्रस्तुत किया। उनके आलेख का शीर्षक तरतूफ़ नाटक की प्रासंगिकता; थी। हिंदी विश्वविद्यालय (हावड़ा) की प्राध्यापिका डॉ. रेखा कुमारी त्रिपाठी ने;जयशंकर प्रसाद के नाटकों की नायिकाओं के प्रेम और ईर्ष्या में आंतरिक द्वंद्व; नामक शीर्षक से अपने आलेख का पाठ किया। युवा कवयित्री एवं लेखिका प्रिया श्रीवास्तव ने मोहन राकेश के नाटकों की स्त्री पात्रों के केंद्र में रखकर अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उनके आलेख का शीर्षक 'मल्लिका, सुंदरी और सावित्री : स्त्री जीवन की त्रासद नायिकाएँ ’ था। आशुतोष कुमार राउत ने विजय तेंदुलकर के नाटकों को केंद्र में रखकर अपना आलेख प्रस्तुत किया। उनके आलेख का शीर्षक था मैं खुरदुरे यथार्थ के साथ ही ठीक हूँ: विजय तेंदुलकर। इन चार आलेखों के वाचन के बाद मोहन राकेश कृत नाटक आधे अधूरे; के उत्तरार्द्ध; का अभिनयात्मक पाठ लिटिल थेस्पियन के रंगकर्मियों द्वारा प्रस्तुत किया गया। इस अभिनयात्मक पाठ में मो. आसिफ़ अंसारी, इंतेखाब वारसी, एनी दास, राधा कुमारी ठाकुर, नव्या शंकर, गुंजन अज़हर और पार्वती कुमारी शॉ ने सहभागिता की। इसके बाद आलोचना सत्र में वरिष्ठ नाटककार एवं रंगकर्मी महेश जायसवाल,विवेक लाल और डॉ. विजया सिंह (प्राध्यापिका, रानी बिरला गर्ल्स कॉलेज) ने इन सभी प्रस्तुत किए गए आलेखों का अपनी-अपनी आलोचनात्मक दृष्टि से विश्लेषण किया। महेश जैसवाल ने पश्चिम बंगाल में
हिंदी और उर्दू नाटक के प्रचार और प्रसार के लिए एस. एम. अज़हर आलम और उमा झुनझुनवाला तथा लिटिल थेस्पियन द्वारा किए गए कार्यों एवं प्रयासों की प्रशंसा की। इस पूरे आयोजन का कुशलतापूर्वक
संचालन लिटिल थेस्पियन की रंगकर्मी पार्वती कुमारी शॉ ने किया। इस अवसर पर विभिन्न विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के कई छात्र और शिक्षक एवं नाट्यप्रेमी उपस्थित थे। जिनमें सुजाता
साहा, डॉ. अनिता कुमारी ठाकुर (मटियाबुर्ज कॉलेज), सुशील पांडेय, विनोद यादव (जवाहरलाल नेहरू विद्यापीठ बॉयज़ हाई स्कूल), प्रतिमा शुक्ला, रवि श्रीवास्तव, राव्या श्रीवास्तव, उपदेश दर्जी, सरिता खोवाला,
बलराम साव, स्वराज पांडेय, अमित कुमार साव, शिव प्रकाश चौबे आदि प्रमुख व्यक्ति थे। अंत में डॉ. मीरा सिन्हा ने धन्यवाद ज्ञापन किया।

भारत के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 7.93 प्रतिशत की कमी : रिपोर्ट

नयी दिल्ली । जलवायु पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की चौथी द्विवार्षिक अपडेट रिपोर्ट (बीयूआर-4) के अनुसार, भारत जलवायु लचीलेपन की दिशा में अपनी यात्रा में महत्वपूर्ण प्रगति कर रहा है और 2019 की तुलना में 2020 में ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन में 7.93% की कमी दर्ज की गई है। यह कटौती टिकाऊ और कम कार्बन वाले भविष्य के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है, जो 2021 में पार्टियों के 26वें सम्मेलन (सीओपी26) के दौरान की गई 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन हासिल करने की अपनी प्रतिज्ञा के अनुरूप है। यह जानकारी पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने दी। यह उपलब्धि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक प्रगति को सार्थक जलवायु कार्रवाई के साथ जोड़ने की प्रतिबद्धता को दर्शाती हैं।

दरअसल जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान ने पृथ्वी पर जीवन के लिए गंभीर संकट पैदा कर दिया है। जिससे जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए देशों को पेरिस समझौते के तहत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) प्रस्तुत करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इसके जवाब में भारत ने 2021 में कॉप 26 के सम्मेलन में 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन हासिल करने का संकल्प लिया। भारत की चौथी द्विवार्षिक अपडेट रिपोर्ट (बीयूआर-4) में 2019 की तुलना में 2020 में जीएचजी उत्सर्जन में 7.93 प्रतिशत की कमी पर प्रकाश डाला गया है।

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप21) का 21वां सत्र 2015 में पेरिस में हुआ था, जहां 195 देशों ने पेरिस समझौते को अपनाया था। समझौते का उद्देश्य पूर्व-औद्योगिक स्तरों से ऊपर वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे तक सीमित करना है। साथ ही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को जल्द से जल्द करने के प्रयासों को आगे बढ़ाना है। यह 4 नवंबर, 2016 को लागू हुआ, जिसके तहत देशों को अपने जलवायु लक्ष्यों को रेखांकित करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) प्रस्तुत करने की आवश्यकता हुई।

प्रगति पर नजर रखने के लिए हर दो साल में भारत यूएनएफसीसीसी को द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट (बीयूआर) प्रस्तुत करता है। भारत ने 30 दिसंबर 2024 को यूएनएफसीसीसी को अपनी चौथी द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट (बीयूआर-4) सौंपी। भारत ग्लोबल वार्मिंग में न्यूनतम योगदान देने के बावजूद, अपनी बड़ी आबादी और विकासात्मक आवश्यकताओं के कारण महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रहा है। देश अपनी अनूठी परिस्थितियों को पूरा करते हुए कम कार्बन उत्सर्जन और जलवायु आत्मनिर्भरता के निर्माण को लेकर प्रतिबद्ध है।

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अनुसार 1850 और 2019 के बीच दुनिया की लगभग 17 प्रतिशत आबादी होने के बावजूद बढ़ती वैश्विक जीएचजी उत्सर्जन में भारत की ऐतिहासिक हिस्सेदारी वार्षिक 4% है। 2019 में भारत की प्रति व्यक्ति वार्षिक प्राथमिक ऊर्जा खपत 28.7 गीगाजूल (जीजे) थी, जो विकसित और विकासशील दोनों देशों की तुलना में काफी कम है।