भारतीय चिकित्सा शास्त्र व शल्य चिकित्सा के जनक ऋषि सुश्रुत
दावा : वास्को डी गामा ने नहीं की भारत की खोज
बंधन बैंक का कुल कारोबार 11 प्रतिशत बढ़कर 2.88 लाख करोड़ रुपये हुआ
कोलकाता । बंधन बैंक ने वित्त वर्ष 2025-26 की पहली तिमाही के अपने वित्तीय परिणाम घोषित कर दिए हैं। बैंक का कुल कारोबार 11% बढ़कर 2.88 लाख करोड़ रुपये हो गया है। बैंक की कुल जमा राशि में खुदरा जमा की हिस्सेदारी अब लगभग 68% हो गई है। पहली तिमाही में यह वृद्धि बैंक के विस्तारित वितरण नेटवर्क, बेहतर परिचालन दक्षता और अनुकूल व्यावसायिक वातावरण के कारण हुई है। वित्त वर्ष 2025-26 की पहली तिमाही में बैंक का शुद्ध लाभ 372 करोड़ रुपये रहा है। बैंक अब भारत के 36 में से 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 6,350 से अधिक बैंकिंग आउटलेट के माध्यम से 3.14 करोड़ से अधिक ग्राहकों को सेवा प्रदान करता है। बंधन बैंक में कार्यरत कर्मचारियों की कुल संख्या लगभग 72,000 है। वित्त वर्ष 2026 की पहली तिमाही के दौरान, बैंक ने अपनी जमा राशि में 16% की साल-दर-साल वृद्धि दर्ज की और कुल जमा राशि अब 1.55 लाख करोड़ रुपये हो गई है। इसी अवधि के लिए कुल अग्रिम 1.34 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गए हैं। कुल जमा राशि में चालू खाता और बचत खाता (सीएएसए) का अनुपात 27.1% है। बैंक का पूंजी पर्याप्तता अनुपात (सीएआर), जो वित्तीय स्थिरता का एक प्रमुख संकेतक है, 19.4% पर मजबूत है, जो नियामक सीमा से काफी ऊपर है। बैंक के तिमाही वित्तीय प्रदर्शन पर बोलते हुए, एमडी और सीईओ पार्था प्रतिम सेनगुप्ता ने कहा, “बंधन बैंक ने वित्त वर्ष 26 की Q1 में पिछली तिमाही से क्रमिक रूप से बेहतर प्रदर्शन किया है, जो जमा राशि में मजबूत वृद्धि और खुदरा एवं थोक बैंकिंग में निरंतर गति द्वारा चिह्नित है। हालाँकि परिचालन परिवेश कुछ चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है, हमारा प्रदर्शन हमारे व्यवसाय की अंतर्निहित समुत्थान शक्ति और हमारी रणनीतिक दिशा की मज़बूती को दर्शाता है। हम विवेकपूर्ण जोखिम प्रबंधन, परिचालन दक्षता और अपने ग्राहकों एवं हितधारकों के लिए दीर्घकालिक मूल्य प्रदान करने पर केंद्रित हैं।”
पश्चिम बंगाल के शीतगृहों में 70.85 लाख मीट्रिक टन आलू का भंडारण
कोलकाता । पश्चिम बंगाल में कोल्ड स्टोरेज का एकमात्र सक्रिय संघ पश्चिम बंगाल कोल्ड स्टोरेज एसोसिएशन की ओर से संवाददाता सम्मेलन का आयोजन किया गया। जिसका उद्देश्य सरकारी उपभोक्ताओं और आम जनता का ध्यान पश्चिम बंगाल के थोक और खुदरा बाजारों में आलू की कीमतों में भारी अंतर और किसानों के साथ-साथ कोल्ड स्टोरेज उद्योग पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव की ओर आकर्षित करना था। प्रेस कॉन्फ्रेंस में सुनील कुमार राणा (अध्यक्ष, डब्ल्यूबीसीएसए), सुभाजीत साहा (उपाध्यक्ष, डब्ल्यूबीसीएसए) के साथ तरुण कांति घोष (पूर्व अध्यक्ष, डब्ल्यूबीसीएसए) के अलावा दिलीप चटर्जी, कौशिक कुंडू, (डब्ल्यूबीसीएसए की जिला समितियों के अध्यक्ष) और एस.के. जियाउर्रहमान (कार्यकारी समिति के सदस्य) के अलावा एसोसिएशन के अन्य प्रतिष्ठित सदस्य इस दौरान मौजूद थे। इस वर्ष पश्चिम बंगाल के शीतगृहों में 70.85 लाख मीट्रिक टन आलू का भंडारण किया गया है। पारंपरिक रूप से आलू उत्पादन का उपभोग 60:40 के अनुपात में होता रहा है, जिसमें 60% आलू राज्य के भीतर ही खपत हो जाता है और शेष 40% अन्य राज्यों के साथ व्यापार किया जाता है, लेकिन पिछले सीज़न में आलू की अंतर्राज्यीय आवाजाही पर प्रतिबंध के कारण, लगभग 10 लाख मीट्रिक टन अगेती किस्म के आलू भी शीतगृहों में संग्रहीत किए गए थे, यही कारण है कि शीतगृहों में रिकॉर्ड भरमार है। स्थिति को देखते हुए, राज्य सरकार ने किसानों के लिए 9 रुपये प्रति किलोग्राम का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है। सरकार की घोषणा से उत्साहित होकर, किसानों ने अपनी कटी हुई फसल बेच दी और भविष्य में बेचने के लिए अपना कुछ स्टॉक भी सुरक्षित रख लिया। इस सीज़न में संरक्षित स्टॉक का लगभग 75% से 80% हिस्सा किसानों का है। उतराई सत्र (25 मई के महीने में) की शुरुआत में, जारी स्टॉक सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य 15 रुपये प्रति किलोग्राम पर कारोबार कर रहा था, लेकिन 2 सप्ताह के भीतर धीरे-धीरे यह हुगली जिले में सिंगूर थोक बाजार में दाल की गुणवत्ता के लिए 11 से 12 रुपये प्रति किलोग्राम और बर्दवान, बांकुड़ा ,मेदिनीपुर जिलों और उत्तर बंगाल में कोल्ड स्टोरेज गेट (यानी थोक मूल्य) में 9 से 10 रुपये प्रति किलोग्राम (औसत गुणवत्ता के लिए) पर आ गया। यह स्थिति सीधे तौर पर किसानों को नुकसान पहुंचा रही है, क्योंकि उन्हें प्रति क्विंटल 400 से 500 रुपये का नुकसान हो रहा है। गंभीर आशंका है कि जब तक स्थिति में सुधार नहीं होता और किसानों को होने वाले नुकसान को रोका नहीं जाता, तब तक फसलों की खेती और उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और निकट भविष्य में मांग बनाम आपूर्ति में असंतुलन बना रहेगा। अंततः इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होगा और शीत भंडारण उद्योग को भी नुकसान होगा क्योंकि आलू के उत्पादन में गिरावट के परिणामस्वरूप शीत भंडारण स्थान का कम उपयोग होगा और भंडारण इकाइयों की व्यवहार्यता प्रभावित होगी । इस अवसर पर सुनील कुमार राणा (पश्चिम बंगाल कोल्ड स्टोरेज एसोसिएशन के अध्यक्ष) ने कहा, आलू की थोक और खुदरा कीमतों के बीच मौजूदा असमानता असहनीय है और इसका सीधा असर किसानों पर पड़ रहा है, जिन्होंने इस सीज़न में लगभग 80% फसल का भंडारण किया है, और शीत भंडारण उद्योग की व्यवहार्यता को भी खतरा है। हम सरकार से आग्रह करते हैं कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद और अंतर-राज्यीय व्यापार को बढ़ावा देने और मध्याह्न भोजन जैसी जनकल्याणकारी योजनाओं में आलू को शामिल करने जैसे सहायक उपायों के साथ तत्काल कदम उठाए। सही समय पर हस्तक्षेप न करने से न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा, बल्कि पश्चिम बंगाल में आलू की खेती और भंडारण का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र गंभीर संकट का सामना कर सकता है। इसमें सुधार के उपाय के रूप में सरकार ने आलू की खपत बढ़ाने और कीमतों को स्थिर करने के लिए मध्याह्न भोजन में आलू को शामिल करने और घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर संरक्षित स्टॉक का 15% खरीदने का प्रस्ताव रखा है। सरकार आलू के अंतर-राज्यीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देने की भी योजना बना रही है। इसके अतिरिक्त, बंगाल से बाहर आलू के व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए परिवहन सब्सिडी भी शुरू करने का फैसला लिया है।
शुभजिता दुर्गोत्सव 2025 : खूंटी पूजा के साथ पूजा की तैयारी शुरू
भवानीपुर 75 पल्ली की थीम होगी नटी बिनोदिनी
कोलकाता की सबसे प्रतिष्ठित और सांस्कृतिक रूप से जीवंत पूजा समितियों में से एक भवानीपुर 75 पल्ली ने नेताजी भवन मेट्रो स्टेशन के पास 1/1सी, देवेंद्र घोष रोड स्थित अपने परिसर में खूंटी पूजा संपन्न करने के साथ अपने 61वें वर्ष के दुर्गा पूजा समारोह के आयोजन की शुरुआत की। इस मौके पर समिति की ओर से इस वर्ष की बहुप्रतीक्षित थीम “बिनोदिनी” का अनावरण किया गया, जो बंगाली रंगमंच की अग्रणी हस्ती, नटी बिनोदिनी को मंडप के आकृति के ज़रिए हमारी ओर से श्रद्धांजलि है, यह थीम उनके साहस, गरिमा और रचनात्मक प्रतिभा का प्रतीक साबित होगा।इस अवसर पर समाज की कई प्रतिष्ठित हस्तियों में सोभनदेब चट्टोपाध्याय (कृषि मंत्री, पश्चिम बंगाल सरकार), कार्तिक बनर्जी (सामाजिक कार्यकर्ता), पापिया सिंह (पार्षद), संदीप रंजन बख्शी (पार्षद), आशिम बसु (पार्षद), काजोरी बनर्जी (पार्षद), देबलीना बिस्वास (पार्षद) के साथ सायन देब चटर्जी (पश्चिम बंगाल तृणमूल युवा कांग्रेस के राज्य सचिव) के अलावा समाज की कई अन्य प्रतिष्ठित हस्तियाँ इसमें शामिल हुए। इस मौके पर मीडिया से बात करते हुए सुबीर दास (क्लब सचिव) ने कहा कि इस वर्ष, ‘बिनोदिनी’ को अपनी थीम के रूप में रखते हुए, हम बंगाली रंगमंच की एक विस्मृत हस्ती को श्रद्धांजलि अर्पित करने जा रहे हैं, जिनका जीवन आज भी समाज को नई प्रेरणा देता है। इस आयोजन के जरिए हम अपनी कला, संस्कृति और सामुदायिक जुड़ाव के माध्यम से, हम गरिमा, समानता और स्मृति के बारे में महत्वपूर्ण बातचीत शुरू करने का प्रयास करते हैं।
हाजरा पार्क दुर्गोत्सव कमेटी ने की खूंटी पूजा
जतिन दास पार्क (हाजरा क्रॉसिंग) में स्थित हाजरा पार्क दुर्गोत्सव कमेटी ने को खूंटी पूजा का आयोजन कर शरदकालीन दुर्गापूजा के तैयारियों की शुरुआत की। अपने शानदार पंडाल थीम और प्रभावशाली सामाजिक पहल के लिए मशहूर हाजरा पार्क दुर्गोत्सव कमेटी शहर के प्रसिद्ध दुर्गापूजा कैलेंडर का एक प्रमुख आकर्षण बना हुआ है। इस साल कमेटी 83वें वर्ष में दुर्गोत्सव का आयोजन करने जा रही है, जो अत्याधुनिक प्रयोगों और समावेशिता के साथ अपनी विरासत को कायम रखेगी। इस अवसर पर समाज की कई प्रतिष्ठित हस्तियो में जनाब फिरहाद बॉबी हकीम (कोलकाता के माननीय मेयर), सोवनदेब चट्टोपाध्याय (कृषि मंत्री, पश्चिम बंगाल सरकार), देबाशीष कुमार (विधायक), दर्शना बानिक (अभिनेत्री), कार्तिक बनर्जी (सामाजिक कार्यकर्ता) एवं हाजरा पार्क दुर्गोत्सव समिति के संयुक्त सचिव सायन देब चटर्जी के साथ समाज की कई अन्य प्रतिष्ठित हस्तियां इस आयोजन में शामिल थे।
मोहम्मद अली पार्क में खूंटी पूजा
मोहम्मद अली पार्क यूथ एसोसिएशन की ओर से खूंटी पूजा के साथ शरदकालीन दुर्गापूजा के आयोजन की शुरुआत की गई। एमजी रोड मेट्रो स्टेशन के पास स्थित मोहम्मद अली पार्क में स्थित यूथ एसोसिएशन अपनी अभिनव अवधारणा और उत्सव शैली के लिए शहर की सबसे आकर्षक पूजा में से एक है। यह पूजा विशेष रूप से अपने पंडालों की अनूठी शैली के साथ ही समिति द्वारा पूरे वर्ष किए जाने वाले समाज सेवामूलक कार्यों के लिए प्रसिद्ध है। इस अवसर पर समाज की विभिन्न प्रतिष्ठित हस्तियों में स्मिता बख्शी (पूर्व विधायक), संजय बख्शी (पूर्व विधायक), रेहाना खातून (पार्षद एवं बोरो चेयरमैन), मीना देवी पुरोहित (पार्षद), विजय उपाध्याय (पार्षद) के साथ समाज की कई अन्य प्रतिष्ठित हस्ती इसमें शामिल हुए। खूंटी पूजा के साथ-साथ ढाक की मधुर ध्वनि में मोहम्मद अली पार्क यूथ एसोसिएशन ने समाज की इन विशिष्ट हस्तियों की उपस्थिति में दुर्गा पूजा के आयोजन की शुरुआत की। मोहम्मद अली पार्क यूथ एसोसिएशन इस वर्ष 57वें वर्ष में भव्यता और रचनात्मकता के साथ दुर्गापूजा का आयोजन कर रहा है। समिति ने हमेशा अवधारणा के माध्यम से पंडाल निर्माण, मूर्ति, माहौल, सुरक्षा और सांप्रदायिक सद्भाव जैसे उत्सव में जाने वाली विचार प्रक्रिया में विशिष्टता लाकर सभी समकालीन पूजाओं के बीच अपनी ए अलग जगह बनाने का प्रयास किया है। मोहम्मद अली पार्क यूथ एसोसिएशन पिछले कई वर्षों से दूर्गापूजा के आयोजन में अपनी अत्याधुनिक प्रस्तुति के लिए जाना जाता है। उम्मीद है कि इस साल यह और भी शानदार होगा। मीडिया से बात करते हुए मोहम्मद अली पार्क दुर्गापूजा आयोजन के महासचिव सुरेंद्र कुमार शर्मा ने कहा, इस वर्ष हमारा उत्सव 57वें वर्ष में प्रवेश कर रहा हैं। खुटी पूजा न केवल उत्सव की शुरुआत का प्रतीक है, बल्कि भक्ति, रचनात्मकता और एकता पर आधारित विरासत की निरंतरता का भी प्रमाण है।
भारत की पहली महिला सुपरस्टार कानन देवी
जब भी भारतीय सिनेमा में सुपरस्टार की बात होती है, तो अक्सर पुरुष कलाकारों का नाम लिया जाता है। लेकिन, इनके बीच एक ऐसी महिला थीं, जिन्होंने बंगाली सिनेमा में पहली सुपरस्टार का खिताब हासिल किया और उन्हें ‘मेलोडी क्वीन’ के नाम से जाना गया। यह कहानी है भारतीय सिनेमा की महान अभिनेत्री, गायिका और फिल्म निर्माता कानन देवी की। उनकी अद्भुत प्रतिभा, मधुर आवाज, भावपूर्ण अभिनय और साहसी व्यक्तित्व ने उन्हें दर्शकों के दिलों में अमर बना दिया।
कानन देवी ने न केवल अभिनय और गायिकी में नाम कमाया, बल्कि ‘श्रीमती पिक्चर्स’ और ‘सब्यसाची कलेक्टिव’ जैसी संस्थाएं स्थापित कर महिलाओं के लिए फिल्म निर्माण में नई राह बनाई। पद्मश्री और दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित कानन देवी की कहानी साहस, कला और समर्पण की मिसाल है।
पश्चिम बंगाल के हावड़ा में 22 अप्रैल, 1916 को जन्मीं कानन ने गरीबी से संघर्ष करते हुए प्रतिभा के दम पर सिनेमा जगत में शोहरत हासिल की। उनका बचपन बहुत गरीबी में बीता। हालांकि, पिता की मौत के बाद उन्हें और उनकी मां को मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
बताया जाता है कि उन्होंने अपने रिश्तेदारों के घर में नौकरानी के रूप में काम किया। जब कानन 10 साल की थीं तो उन्हें अपने एक दोस्त की मदद से मूक फिल्मों में काम करने का मौका मिला। उनकी पहली फिल्म जॉयदेव (1926) थी, जिसमें उन्हें केवल पांच रुपए मिले और यहीं से उनका फिल्मी सफर शुरू हुआ।
कानन ने मूक फिल्मों से शुरुआत की और बोलती फिल्मों में अपनी अदाकारी से छाप छोड़ी। उन्होंने अपने फिल्मी करियर में ‘जोरेबरात’ (1931), ‘मां’ (1934), और ‘मनोमयी गर्ल्स स्कूल’ (1935) जैसी फिल्में कीं, जिन्होंने उन्हें शोहरत दिलाई। उनकी लाइफ का टर्निंग प्वाइंट उस समय आया, जब वह कोलकाता के ‘न्यू थिएटर्स’ के साथ जुड़ीं। इससे उनकी शोहरत में और भी इजाफा हुआ।
‘मुक्ति’ (1937) और ‘विद्यापति’ (1937) जैसी फिल्मों में उनके अभिनय और गायन ने उन्हें सुपरस्टार बना दिया। ‘साथी’ (1938), ‘सपेरा’ (1939), ‘लगन’ (1941) और ‘जवाब’ (1942) जैसी फिल्मों में उनके अभिनय को बहुत सराहा गया। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि उन्हें भीड़ से बचाने के लिए सुरक्षा की जरूरत पड़ती थी।
कानन की आवाज उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। शुरू में बिना ट्रेनिंग के उन्होंने गायिकी में हाथ आजमाया, लेकिन बाद में उस्ताद अल्ला रक्खा और भीष्मदेव चटर्जी जैसे गुरुओं से संगीत सीखा। उन्होंने रवींद्र संगीत, नजरुल गीति और कीर्तन में महारत हासिल की। न्यू थिएटर्स के संगीतकार राय चंद बोराल ने उनकी हिंदी उच्चारण को बेहतर बनाने में मदद की। उनके गाने जैसे ‘है तूफान मेल’ (फिल्म जवाब, 1942) बहुत मशहूर हुए। उनकी आवाज में भारतीय और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का सुंदर मिश्रण दिखाई देता था, जिसने उन्हें प्लेबैक सिंगिंग की शुरुआती हस्तियों में से एक बनाया।
कानन देवी ने सिर्फ अभिनय और गायन तक खुद को सीमित नहीं रखा। उन्होंने ‘श्रीमती पिक्चर्स’ नाम से अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की और बाद में ‘सब्यसाची कलेक्टिव’ बनाया, जो बंगाली साहित्य पर आधारित फिल्में बनाता था। वह भारत की पहली महिला फिल्म निर्माता बनीं, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था। उस दौर में महिलाओं के लिए फिल्म निर्माण में कदम रखना बहुत बड़ी बात थी, लेकिन कानन देवी ने अपने काम से समाज में महिलाओं की स्थिति को मजबूत करने का प्रयास किया।
अपने तीन दशक लंबे सिने करियर में उन्होंने बंगाली के अलावा हिंदी फिल्में भी कीं। कानन देवी ने 1948 में मुंबई (बंबई) का रुख किया था और उसी साल उनकी हिंदी फिल्म ‘चंद्रशेखर’ रिलीज हुई थी।
कानन देवी को भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए 1968 में ‘पद्मश्री’ और 1976 में ‘दादासाहेब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
कानन देवी ने सिनेमा की चकाचौंध भरी दुनिया में अपार सफलता हासिल की, लेकिन उनकी शादीशुदा जिंदगी में कई उतार-चढ़ाव आए। उन्होंने दो शादियां कीं। उनकी पहली शादी 1940 में ब्रह्म समाज के प्रसिद्ध शिक्षाविद् हरम्बा चंद्र मैत्रा के बेटे अशोक मैत्रा से हुई, लेकिन उस दौर में अभिनेत्री का फिल्मों में काम करना समाज में अस्वीकार्य था, जिसके कारण इस शादी का तीव्र विरोध हुआ।
महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने जब कानन और अशोक को उपहार और आशीर्वाद दिया, तो ब्रह्म समाज ने उनकी भी कड़ी निंदा की। यह शादी 1945 में टूट गई, जिससे कानन को गहरा दुख हुआ। इसके बाद, उन्होंने हरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती से दूसरी शादी की, जिनसे उनका एक बेटा हुआ।
तीन दशक लंबे फिल्मी करियर में सफलता का स्वाद चखने वालीं कानन देवी का 17 जुलाई, 1992 को कोलकाता में उनका निधन हो गया।
( स्त्रोत- आईएएनएस)
कौन थीं राधा, सीता, और पार्वती जी की माँ
हमारे सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यहाँ हम चाहे सीता जी को माने, चाहे राधा जी को और चाहे पार्वती जी को माने या देवी मां के किसी भी रूप को माने, ये सभी हमारे जीवन में सभी प्रकार की सिद्धियां प्रदान करने वाली हैं और सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली हैं और ये सभी अनेक रूपों में एक ही हैं। भक्त उन्हें चाहें किसी भी रूप में माने ये उसी रूप में अपने भक्त की सदैव रक्षा करती हैं और उनका मंगल भी करती हैं।
लेकिन कभी आपने सोचा है कि क्या जगत जननी माँ पार्वती, माँ सीता जी और राधा जी ये एक दूसरे से किस प्रकार संबंधित है? और क्या है इनके जन्म की कथा?एक समय की बात है जब नारदजी ब्रह्मा जी से हिमालय की पत्नी मेना के श्राप के बारे में पूछते हैं तो ब्रह्मा जी बताते हैं कि मेरे पुत्र दक्ष की सभी कन्याओं में से एक स्वधा नाम की कन्या थी जिनका विवाह पितरों से हुआ था। स्वधा की तीन पुत्रियाँ थी जो अत्यंत सौभाग्यशालिनी, प्रतापी, परम योगिनी व धर्म की मूर्ति थी। उनमें से ज्येष्ठ पुत्री का नाम ‘मेना’, मँझली अर्थात् बीच वाली पुत्री का नाम ‘धन्या’ तथा सबसे छोटी पुत्री का नाम ‘कलावती’ था। यह सभी कन्याएं पितरों की मानस पुत्रियाँ थी अर्थात उनके मन से प्रकट हुई थी अर्थात उनका जन्म किसी माता के गर्भ से नहीं हुआ था। इनके सुन्दर नामों का स्मरण करने मात्र से ही मनुष्यों को इच्छित फल की प्राप्ति होती है। ये तीनों कन्याएँ अत्यधिक सुन्दर, परम योगिनी, तीनों लोकों में सर्वत्र जा सकने वाली तथा ज्ञान की निधि हैं।
एक समय वे तीनों बहनें भगवान विष्णु जी के श्वेतद्वीप नामक निवास स्थान में उनके दर्शन करने के लिए पहुंची । वहाँ कई सारे ऋषि-मुनि, साधु-संत, व देवता गण आए हुए थे। वहीं पर सनकादि मुनि भी विष्णु जी के दर्शन हेतु वहाँ पहुंचे, वे जब वहाँ पहुंचे तो उन्हें देख कर श्वेत द्वीप के सभी लोग उन्हें देखकर प्रणाम करते हुए उठ कर खड़े हो गए। परंतु वे तीनों बहिनें उन्हें देखकर नहीं उठी, तब उनकी इस बात से क्रोधित होकर सनत कुमारों ने उन्हें स्वर्ग से दूर होकर मनुष्य की स्त्री बनने का श्राप दे दिया। उनके इस श्राप से भयभीत होकर उन तीनों कन्याओं ने उनसे क्षमा माँगी और उन्हें माफ़ करने के लिए प्रार्थना करने लगी और उनसे स्वर्गलोक वापिस आने के लिए उपाय पूछने लगी।
तब उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर सनत्कुमार ने कहा कि ज्येष्ठ पुत्री मेना तुम भगवान विष्णु जी के अंश-भूत हिमालय की पत्नी होकर ‘पार्वती ‘ नामक कन्या को जन्म दोगी, जो भगवान शिव जी की कठोर तपस्या करके शिव जी को प्रसन्न कर उनकी पत्नी बनेंगी और उन्हीं पार्वती जी के वरदान से तुम अपने पति हिमालय के साथ उसी शरीर से कैलाश नामक परम पद को प्राप्त हो जाओगी। इसके बाद उन्होंने मॅंझली योगिनी अर्थात् धन्या से कहा कि तुम त्रेतायुग में राजा जनक की पत्नी बनोगी और महालक्ष्मी स्वरुपा ‘सीता जी ‘ को कन्या के रूप में जन्म दोगी। तुम्हारी पुत्री सीता भगवान राम जी की पत्नी बनकर लोकाचार का आश्रय लेकर अपने पति श्री राम जी के साथ विहार करेंगी। पुत्री धन्या तुम और तुम्हारे पति राजा जनक जिनको राजा सीरध्वज के नाम से भी जानते हैं अपनी पुत्री सीता के प्रभाव से बैकुंठ धाम में जाएंगे। इसके बाद उन्होंने तीसरी और सबसे छोटी पुत्री कलावती से कहा कि तुम द्वापर युग के अंतिम भाग में वृषभानु की पत्नी बनकर साक्षात गोलोक धाम में निवास करने वाली ‘राधा नामक सुन्दर पुत्री को जन्म दोगी जो कि श्री कृष्ण जी के साथ गुप्त स्नेह में बंध कर उनकी प्रियतमा बनेंगी और तुम्हारे कल्याण का कारण बनेंगी और तुम अपनी कन्या राधा के साथ गोलोक धाम में आ जाओगी।
इस प्रकार उन तीनों कन्याओं को उनके श्राप से मुक्ति मिली और वे तीनों अपने घर को चली गईं।
ये छोटी सी कथा ‘शिव महापुराण ‘ के ‘रुद्र संहिता ‘ से ली गई है और इस कथा से जो सबसे अच्छी सीख मिली वो ये है कि विपत्ति में पड़े बिना कहाँ किसी की महिमा प्रकट होती है। जीवन में संकट आने पर ही हम अपनी शक्ति को पहचानते हैं और तभी संकट से मुक्ति मिलने पर हमें दुर्लभ सुख की प्राप्ति होती है।
(साभार – सनातन जानकारी)
गीता दत्त की गायकी में छलकते थे जज्बात, दीवानी थीं लता मंगेशकर
गायकी सिर्फ सुर और ताल का खेल नहीं होती, बल्कि यह दिल से जुड़े एहसास का रूप होती है। जब कोई गायक अपनी आवाज में दिल की सच्ची भावनाएं डालता है, तो उसका गीत सीधे हमारे दिल तक पहुंच जाता है। गीता दत्त ऐसी ही गायिका थीं, जिनकी आवाज में सिर्फ संगीत नहीं, बल्कि उनके जज्बात भी छलकते थे। उनकी आवाज में एक खास तरह का दर्द, प्यार और खनक होती थी, जो सुनने वाले को अंदर तक छू जाती थी। यही वजह थी कि उस दौर की सबसे बड़ी गायिका लता मंगेशकर भी उनकी गायकी की दीवानी थीं। लता मंगेशकर ने कई बार कहा था कि गीता दत्त एक खास तरह की गायिका हैं, जिनकी गायकी में एक अलग ही प्यार और जुड़ाव था, जो उन्हें बहुत पसंद आता था। उन्होंने अपनी किताब ‘लता सुर गाथा’ में भी गीता दत्त का जिक्र किया था और उन्हें नेकदिल लड़की बताया था। अपनी किताब में उन्होंने उस पल को बयां किया, जब उन्हें गीता दत्त के निधन की खबर मिली थी।
किताब के जरिए लता मंगेशकर ने कहा, ”गीता दत्त को क्या हुआ कि मुझे मालूम ही नहीं चल सका कि उसकी मृत्यु हुई है। ताज्जुब की बात तो यह थी कि मुझे सलिल चौधरी जी का फोन आया और उन्होंने कहा, ‘लता, तुम तुरंत चली आओ, गीता के साथ ऐसे-ऐसे हुआ है।’ मुझे एकाएक धक्का लगा और मैं जब गई तो वे मुझे गीता के अंतिम दर्शन कराने लेकर गए। गीता से मेरी बहुत पटती थी और वह बहुत नेकदिल लड़की थी, इसलिए उसका अचानक यूं चले जाना कहीं भीतर निराश कर गया।”
गीता दत्त और लता मंगेशकर की पहली मुलाकात फिल्म ‘शहनाई’ के एक गाने ‘जवानी की रेल चली जाय रे’ की रिकॉर्डिंग के दौरान हुई थी। इस गाने में सुरों की दो रानियों ने अपनी मधुर आवाज दी थी। अपनी किताब में लता मंगेशकर ने गीता दत्त से जुड़ी एक दिलचस्प बात साझा की। उन्होंने बताया कि गीता दत्त का बोलने का तरीका पूरी तरह बंगाली था, जैसे बंगाल के लोग हिंदी बोलते हैं, वैसे ही। लेकिन जैसे ही गीता माइक के सामने आतीं, मानो कोई जादू हो जाता। उनका लहजा बदल जाता, उच्चारण बिल्कुल साफ-सुथरा हो जाता, और हिंदी इतनी सटीक हो जाती कि कोई सोच भी नहीं सकता कि ये वही बंगाली लड़की है जो अभी तक तो बंगालीनुमा हिंदी बोल रही थी।
उनके इस अनोखे अंदाज के चलते लता उनकी दीवानी थीं।
23 नवंबर 1930 को फरीदपुर (जो अब बांग्लादेश में है) में जन्मी गीता दत्त को बचपन से ही संगीत से खासा लगाव था। जब उनका परिवार कोलकाता से मुंबई आया, तब उनकी उम्र करीब 16 साल थी। यहीं से उनके संगीत सफर की शुरुआत हुई। उनकी मधुर आवाज ने जल्द ही सबका ध्यान खींचा और 1946 में उन्होंने पहली बार फिल्म ‘भक्त प्रह्लाद’ के लिए गाना गाया। उन्होंने अपने करियर में ‘जाने कहां मेरा जिगर गया जी’, ‘बाबू जी धीरे चलना’, ‘पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे’, ‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम’, ‘मुझे जान न कहो मेरी जान’, और ‘ये लो मैं हारी पिया’ जैसे अनगिनत हिट गाने दिए, जो आज भी लोगों के दिलों में बसते हैं। उन्होंने एस.डी. बर्मन, ओ.पी. नैय्यर, और हेमंत कुमार जैसे बड़े संगीतकारों के साथ काम किया।
गीता की जिंदगी में एक बड़ा मोड़ तब आया जब उन्होंने मशहूर निर्देशक और अभिनेता गुरु दत्त से शादी की। शादी के बाद उन्होंने कुछ समय तक फिल्मों से दूरी बना ली, लेकिन निजी जीवन की परेशानियों ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया। गुरु दत्त के असमय निधन और पारिवारिक तनाव ने गीता को गहरा झटका दिया। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया और 20 जुलाई 1972 को महज 41 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। बेशक गीता दत्त आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी भावनाओं में डूबी आवाज हमेशा अमर रहेगी।
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विश्व पटल पर भारतीय रंगमंच को स्थापित कर गये रतन
ओंकारेश्वर पांडेय
रतन थियम चले गए। दादा 23 जुलाई, 2025 को गए। मणिपुर रो रहा है। शांति की बात उन्होंने की। उनका रंगमंच चमका। वे कहते थे- “रंगमंच हमारी आत्मा है।” रचनात्मकता के हथियारों से युद्ध के खिलाफ युद्ध लड़ने वाला योद्धा नहीं रहा। अशांत मणिपुर को शांति का संदेश देते देते खामोश हो गये रतन थियम। रतन थियम भारतीय रंगमंच के एक विशाल पर्वत थे। उन्होंने मणिपुरी परंपराओं को विश्व के साथ जोड़ा। उनकी रचनाएँ—महाभारत त्रयी (उरुभंगम, चक्रव्यूह, कर्णभरम) और लैरेंबीगी ईशेई—युद्ध, पहचान और शांति पर गहरी सोच रखती थीं। मणिपुर के मैतेई-कुकी झगड़े से वे दुखी थे और शांति की आवाज़ बने। रतन एक रंगकर्मी या निर्देशक भर नहीं, वह रंग वैज्ञानिक थे, जिसने मणिपुर की आत्मा को वैश्विक कैनवास पर उकेरा। उनकी कला आज भी एकता की मिसाल है। उनका जाना भारत और दुनिया को झकझोर रहा है। 23 जुलाई, 2025 को रंगमंच की दुनिया एक अनमोल सितारे के बुझने से शोकाकुल हो उठी। रतन थियाम, वह दूरदर्शी नाटककार, निर्देशक और सांस्कृतिक दीपक, जिन्होंने 77 वर्ष की आयु में इम्फाल के रिम्स अस्पताल में अंतिम प्रणाम लिया। उनका निधन केवल भारतीय रंगमंच के लिए ही नहीं, अपितु वैश्विक मंच के लिए भी एक युग का अंत है, जहां उनके कार्य ने सीमाओं, भाषाओं और संस्कृतियों को लाँघकर मानव आत्मा की सार्वभौमिक पुकार को स्वर दिया। उन्हें केवल रंग कलाकार या निर्देशक कहना उनके अपार प्रतिभा को कमतर आंकना होगा; मैं कहूंगा कि वे एक रंग वैज्ञानिक थे—एक ऐसे महान रसायनज्ञ, जिन्होंने प्राचीन और समकालीन, स्थानीय और सार्वभौमिक, आध्यात्मिक और राजनैतिक तत्वों को सानंदित कर रंगमंच को एक अनुपम प्रयोगशाला बनाया। उनका मंच वह पवित्र स्थल था, जहाँ मणिपुर की परंपराएं, वैश्विक सौंदर्यबोध और मानवीय अनुभवों का कच्चा स्पंदन एक अनुपम सत्य और सौंदर्य के रूप में सानंदित हुआ।
रंगमंच को समर्पित जीवन
20 जनवरी, 1948 को मणिपुर के इम्फाल में जन्मे रतन थियाम एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, जिनकी रचनात्मक यात्रा चित्रकला और लेखन से प्रारंभ होकर रंगमंच में अपनी पराकाष्ठा तक पहुँची। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से 1974 में स्नातक होने के पश्चात, उन्होंने 1976 में इम्फाल के निकट कोरस रिपर्टरी थिएटर की स्थापना की, जो मणिपुर की संनादित संस्कृति और विश्व के साथ संवाद का एक पवित्र मंदिर बन गया। उनकी रंगमंचीय प्रस्तुतियाँ केवल नाटक नहीं थीं, अपितु युद्ध, पहचान और मानवता की अनंत खोज पर गहन चिंतन थीं।
रतन थियम की महाभारत त्रयी—उरुभंगम (1981), चक्रव्यूह (1984), और कर्णभरम (1989)—तथा उत्तर प्रियदर्शी और लैरेंबीगी ईशेई जैसे कार्य युद्ध, पहचान और मानवता की अनंत खोज पर गहन चिंतन थे। यह त्रयी, जो भास के संस्कृत क्लासिक्स और थियम के मूल चक्रव्यूह पर आधारित थी, प्रतीकात्मक रूप से एक व्यक्ति के संरचित हिंसा के विरुद्ध संघर्ष और उसकी अनिवार्य पराजय को चित्रित करती थी। उरुभंगम में दुर्योधन का टूटा शरीर और आत्मा, चक्रव्यूह में अभिमन्यु का करुणाजनक फँसना और कर्णभरम में कर्ण का अस्तित्वगत संकट विश्व के युद्धों के बीच उभरकर सामने आया। जैसा कि समीक्षक समिक बंद्योपाध्याय ने, डॉ. पिनाक शंकर भट्टाचार्य, बनेश्वर सरथीबाला महाविद्यालय के अंग्रेजी के सहायक प्रोफेसर, के हवाले से कहा, “1981 में भास के उरुभंगम से शुरूआत कर, 1984 में अपने चक्रव्यूह के साथ और 1989 में भास के कर्णभरम के साथ समापन करते हुए, रतन ने एक महाभारत त्रयी पूर्ण की, जो एक व्यक्ति के हिंसा के विश्वव्यापी प्रवाह के सामने अपनी पहचान पर प्रश्न उठाने की थीम से जुड़ी थी।”
थियम का 2014 का मैकबेथ, जिसे मैतेई संदर्भ में मणिपुरी संगीत और थांग-टा के साथ पुनर्रचित किया गया, ने शेक्सपियर के त्रासदी को एक सार्वभौमिक, और विशिष्ट रूप से स्थानीय महत्वाकांक्षा और विनाश की खोज में बदल दिया।
भारत में, थियम का रंगमंच बेजोड़ था, जो मणिपुर की परंपराओं को आधुनिक संवेदनाओं के साथ इस तरह मिश्रित करता था, जैसा कि बादल सरकार के शहरी यथार्थवाद या हबीब तनवीर के लोक प्रयोगों में भी नहीं दिखता।
थियम का मंच वह स्थान था जहाँ मणिपुर का सौंदर्यशास्त्र विश्व की रंगमंचीय परंपराओं से मिला, जिसने उनकी विरासत को बेजोड़ दूरदर्शी के रूप में स्थापित किया। उनके नाटक मणिपुर के अशांत सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य का दर्पण थे, जो जातीय संघर्षों, विद्रोहों और युद्ध के दागों को प्रतिबिंबित करते थे। जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा था, “युद्ध बच्चों को प्रभावित करता है। युद्ध महिलाओं को प्रभावित करता है; यह उन्हें वेश्या बना देता है। यह सब सामान्य नहीं है।” उनका रंगमंच युद्ध के खिलाफ एक युद्ध था, जो कला, सहानुभूति और अथक रचनात्मकता के हथियारों से लड़ा गया।
वैश्विक स्तर पर, उनकी रस्मी तीव्रता ने जेर्जी ग्रोटोव्स्की के आध्यात्मिक न्यूनतमवाद, पीटर ब्रूक के अंतर सांस्कृतिक दायरे और तदाशी सुजुकी की शारीरिक सटीकता के साथ समानताएँ खींचीं, फिर भी उनका कार्य मणिपुर की सानंदित संस्कृति में अनूठा रहा। उनकी प्रस्तुतियाँ, जैसे कि नॉर्वे के इब्सन उत्सव में व्हेन वी डेड अवेकन, ने अपनी अतियथार्थवादी सार्वभौमिकता से वैश्विक दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
उनका कार्य प्राचीन नाट्य शास्त्र, मणिपुरी मार्शल आर्ट थांग-टा और जापानी नोह व ग्रीक त्रासदियों जैसे वैश्विक रंगमंचीय रूपों के बीच एक सेतु था, जिसने उन्हें ग्रोटोव्स्की और ब्रूक जैसे महानायकों की तुलना में ला खड़ा किया।
थियम का रंगमंच औपनिवेशिक प्रभावों के खिलाफ एक विद्रोह था, जो भारत में उसके जड़ों को मिटाने का प्रयास करता था। “रंगमंच की जड़ों” के आंदोलन के अग्रणी व्यक्तित्व के रूप में, बी.वी. कारंत और के.एन. पाणिकर जैसे दिग्गजों के साथ, उन्होंने मणिपुर की परंपराओं—इसके नृत्य, संगीत और कथावाचन—को पुनर्जन्म देकर ऐसी कथाएँ बुनीं, जो सत्ता संरचनाओं और सामाजिक मानदंडों को चुनौती देती थीं। जीन एनौइल के एंटिगोने का उनका रूपांतरण लेंगशोन्नेई मणिपुर के राजनैतिक विफलताओं की आलोचना करता था, जबकि 2014 का मैकबेथ, मैतेई संदर्भ में, मानव महत्वाकांक्षा और त्रासदी की शाश्वतता को उजागर करता था। उनके नाटक मणिपुर के अशांत सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य का दर्पण थे, जो जातीय संघर्षों, विद्रोहों और युद्ध के दागों को प्रतिबिंबित करते थे। जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा था, “युद्ध बच्चों को प्रभावित करता है। युद्ध महिलाओं को प्रभावित करता है; यह उन्हें वेश्या बना देता है। यह सब सामान्य नहीं है।” उनका रंगमंच युद्ध के खिलाफ एक युद्ध था, जो कला, सहानुभूति और अथक रचनात्मकता के हथियारों से लड़ा गया।
वैश्विक समानताएँ: सीमाहीन रंगमंच
रतन थियम का कार्य वैश्विक प्रभावों का एक ताना-बाना था, फिर भी यह मणिपुर की मिट्टी में गहरे जड़ा हुआ था। समीक्षकों ने उन्हें ग्रोटोव्स्की के साथ रखा, जिनके न्यूनतम, रस्मी रंगमंच ने आध्यात्मिक उत्कर्ष की खोज की, और ब्रूक के साथ, जिनके अंतरसांस्कृतिक प्रयोगों ने आधुनिक प्रदर्शन को पुनर्परिभाषित किया। ग्रोटोव्स्की की तरह, थियम ने रंगमंच को इसकी भावनात्मक और आध्यात्मिक गहराई तक खंगाला, अनुशासित कोरियोग्राफी और मंत्रमुग्ध करने वाले सामूहिक संगीत का उपयोग कर प्राचीन सत्य को उजागर किया। ब्रूक की तरह, उन्होंने नाट्य शास्त्र, नोह, काबुकी और ग्रीक नाटकों से प्रेरणा लेकर एक ऐसी रंगमंचीय भाषा रची, जो ओस्लो के इब्सन उत्सव से लेकर सियोल के थिएटर ओलंपियाड तक विश्व भर के दर्शकों से संवाद करती थी। उनकी व्हेन वी डेड अवेकन (2010), इब्सन की मणिपुरी व्याख्या, ने अपनी अतियथार्थवादी सौंदर्यता और सामूहिक संगीत की तीव्रता से नॉर्वे के दर्शकों को स्तब्ध कर दिया, यह सिद्ध करते हुए कि थियम की दृष्टि किसी भी सांस्कृतिक संदर्भ में गूंज सकती थी।
थियम की स्थानीय और सार्वभौमिक को मिश्रित करने की क्षमता जापान के तदाशी सुजुकी के कार्य के समान थी, जिनके सुजुकी मेथड ने शारीरिकता और सांस्कृतिक स्मृति पर जोर दिया, ठीक वैसे ही जैसे थियाम ने थांग-टा और मैतेई रीति-रिवाजों का उपयोग किया। उनकी दृश्यात्मक रूप से भव्य प्रस्तुतियाँ, जिन्हें “काव्यात्मक और अतियथार्थवादी” कहा गया, एरियान म्नुश्किन के थिएट्रे डु सोलेइल की ओपेरा-जैसी भव्यता को प्रतिबिंबित करती थीं, जहाँ मिथक और इतिहास जीवंत दृश्यों में टकराते थे।
फिर भी, थियम अनूठे रहे—मणिपुर के एक सपूत, जिन्होंने इसकी कहानियों, संघर्षों और संनादित सौंदर्य को विश्व मंच तक पहुँचाया। जैसा कि उन्होंने कहा था, “मणिपुर अपनी संनादित संस्कृति के कारण सुंदर है… यह दृष्टिकोण हमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिला है और यही वह है जिसने हमारी कलाओं को महान बनाया।”
थियम का प्रभाव न केवल उनकी प्रस्तुतियों में, बल्कि उन लोगों के शब्दों में भी झलकता है, जिन्होंने उनकी कला को देखा। मणिपुर के पूर्व मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह ने उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा, “उनकी कला के प्रति अटूट समर्पण, उनकी दृष्टि और मणिपुरी संस्कृति के प्रति प्रेम ने न केवल रंगमंच की दुनिया को समृद्ध किया, बल्कि हमारी पहचान को भी।” रंगमंच विद्वान और समीक्षक समिक बंद्योपाध्याय ने उन्हें “मंच का कवि” कहा, जो अपने नाटकों में “विविध दृष्टिकोणों का तर्कसंगत और बहुआयामी विश्लेषण” करने की उनकी क्षमता को रेखांकित करता है। अभिनेत्री रोहिणी हट्टंगडी, थियम की एनएसडी सहपाठी, ने उन्हें “अध्ययनशील, जिज्ञासु और हमेशा ध्वनियों और गतियों के साथ प्रयोग करने वाला” बताया, जो उनकी अथक नवाचार की गवाही देता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, द ऑक्सफोर्ड कम्पैनियन टू थिएटर एंड परफॉर्मेंस ने उन्हें “भारत के सबसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त निर्देशक” के रूप में सराहा, जो “वैश्विक संस्कृति को प्रतिबिंबित करने वाली दृश्यात्मक रूप से भव्य प्रस्तुतियों” के लिए प्रसिद्ध थे।एक्स पर पोस्ट्स ने इस श्रद्धा को प्रतिबिंबित किया, जहाँ उपयोगकर्ताओं ने उन्हें “मणिपुरी रंगमंच का दिग्गज” और “दूरदर्शी प्रतीक” कहा, जिनके कार्य ने “प्रदर्शन में आधुनिकता लाई।” उनका अंतिम नाटक, लैरेंबीगी ईशेई, जो 17 फरवरी, 2025 को दिल्ली में प्रस्तुत हुआ, पर्यावरणीय सर्वनाश पर एक मार्मिक चिंतन था, जो मानवता के भविष्य के प्रति उनकी आजीवन चिंता का एक उपयुक्त समापन था।
एक देदीप्यमान विरासत
जब थियम जीवित थे और अपनी गर्जना से रंगमंच को जीवंत कर रहे थे, तब मीडिया ने उन्हें एक क्रांतिकारी के रूप में सराहा। द हिंदू (2018) ने उन्हें “प्रख्यात रंगमंच निर्देशक और कवि” के रूप में वर्णित किया, जिनके कार्य ने डिजिटल अलगाव से लेकर वैश्विक हिंसा तक “आधुनिकता के अंधेरे समय” से जूझा। द इंडियन एक्सप्रेस (2020) ने रंगमंच की जड़ों के आंदोलन में उनकी भूमिका की प्रशंसा की, यह उल्लेख करते हुए कि उनके नाटकों ने औपनिवेशिक रूढ़ियों को चुनौती दी और मणिपुरी सौंदर्यशास्त्र के माध्यम से भारतीय पहचान को पुनर्जनन दिया। इंडिया टुडे (2018) ने थियम के इस विश्वास को उद्धृत किया कि “विविध कला प्रथाएँ हमें मानव होने का तरीका सिखाती हैं और इस ब्रह्मांड में हमारा स्थान दिखाती हैं,” एक दर्शन जो 8वें थिएटर ओलंपिक्स में उनकी प्रस्तुतियों में स्पष्ट था।
उनके पुरस्कार—संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1987), पद्म श्री (1989), कालिदास सम्मान (1997), संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप (2012), और मणिपुर का लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड (2025)—उनकी उस विरासत के केवल मामूली पुष्टिकरण थे, जिसे मापना असंभव है।
रंगमंच वैज्ञानिक की विरासत का संरक्षण
रतन थियम का निधन एक शून्य छोड़ गया है, किंतु उनकी विरासत को मलिन नहीं होने देना चाहिए। इम्फाल में उनका कोरस रिपर्टरी थिएटर, एक सांस्कृतिक दीपस्तंभ, को उनके कार्य का जीवंत संग्रहालय बनाकर समर्थन देना चाहिए, जो भविष्य के कलाकारों को उनके अंतर्विषयी दृष्टिकोण में प्रशिक्षित करे। जैसा कि थियम ने जनवरी 2025 में निंगथम खुमहेई शुमंग लीला उत्सव में वकालत की थी, मणिपुर में एक विश्वस्तरीय सांस्कृतिक परिसर की स्थापना राज्य की कलात्मक विरासत को पोषित करने के लिए आवश्यक है।
उनके स्क्रिप्ट्स, रिकॉर्डिंग्स और प्रस्तुति नोट्स को डिजिटाइज कर विश्व भर के विद्वानों और अभ्यासियों के लिए सुलभ करना चाहिए, ताकि चक्रव्यूह और उत्तर प्रियदर्शी जैसे कार्य प्रेरणा देते रहें। शैक्षिक संस्थानों, विशेष रूप से एनएसडी, जहाँ थियम ने निदेशक (1987–88) और अध्यक्ष (2013–17) के रूप में सेवा दी, को उनकी पद्धतियों को पाठ्यक्रम में समाहित करना चाहिए, जो पारंपरिक और समकालीन रूपों के संनादन पर बल देता हो।
भारत रंग महोत्सव जैसे उत्सवों, जहाँ थियम के नाटकों को सराहा गया, को उनके कार्यों के लिए रेट्रोस्पेक्टिव समर्पित करने चाहिए, जो स्थानीय और वैश्विक दर्शकों से संवाद करने की उनकी क्षमता को प्रदर्शित करें। इसके अतिरिक्त, उनकी एकता की पुकार—“विविध सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में एकता का सार ही एकता ला सकता है”—को मणिपुर के जातीय विभाजनों को कला के माध्यम से जोड़ने के प्रयासों का मार्गदर्शन करना चाहिए।
रतन थियम केवल रंगमंच निर्माता नहीं थे; वे एक दार्शनिक, विद्रोही, स्वप्नदृष्टा थे, जिन्होंने रंगमंच को सामाजिक परिवर्तन और आध्यात्मिक जागरण का माध्यम माना। उनका मंच एक पवित्र स्थान था, जहाँ मणिपुर की कहानियाँ—उसका दर्द, उसका सौंदर्य, उसका संनादन—एक ऐसी आवाज बनकर उभरी, जो महाद्वीपों को पार कर गूँजी। जैसा कि उन्होंने एक बार विलाप किया था, “डिजिटल युग ने सुनिश्चित किया है कि अतीत मायने नहीं रखता,” फिर भी उनका कार्य सांस्कृतिक स्मृति की स्थायी शक्ति का एक विद्रोही प्रमाण है।
थियम को खोना एक मार्गदर्शक तारे को खोने जैसा है, किंतु उनकी रोशनी हर उस कलाकार में चमकती रहेगी जिसे उन्होंने प्रेरित किया, हर उस दर्शक में जिसे उन्होंने प्रभावित किया, और हर उस मंच पर जो उनके जितना साहसपूर्वक स्वप्न देखने का साहस करेगा।
श्रद्धांजलि ओजा पद्म श्रीरतन थियम। आपकी आत्मा शांति में विश्राम करे। आपका रंगमंच एक क्रांति था, आपका विज्ञान एक रहस्योद्घाटन, और आपकी विरासत एक शाश्वत ज्योति। जैसा कि एक एक्स उपयोगकर्ता ने मार्मिक रूप से लिखा, “नायक याद किए जाते हैं, किंतु किंवदंतियाँ कभी मरती नहीं। वे हमारे हृदय में सदा रहेंगे।”
(इम्फाल में ब्राउन नोंगमैथम के सहयोग से)
(साभार – प्रभासाक्षी)
10 साल का श्रवण बना सबसे कम उम्र का सिविल वॉरियर, सेना ने गोद लिया
जिस उम्र में बच्चे खेल-कूद में ज्यादा व्यस्त रहते हैं उस उम्र में फिरोजपुर के श्रवण सिंह ने बड़ा काम किया है। 10 साल का श्रवण सिंह पंजाब ही नहीं बल्कि देश का सबसे कम उम्र का सिविल वॉरियर बन चुका है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सरहद पर सैनिकों को खाने-पीन की सामग्री पहुंचाने वाले 10 साल के सिविल वॉरियर श्रवण सिंह को सेना ने गोद ले लिया है। सेना उसकी शिक्षा और इलाज का पूरा खर्च उठाएगी। फिरोजपुर में सेना की छावनी में एक समारोह के दौरान पश्चिमी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल मनोज कुमार कटियार ने तारा वाली (ममदोट) के रहने वाले श्रवण सिंह को फिर से सम्मानित किया। इसी समारोह में सेना ने श्रवण को गोद लेने की घोषणा की।
श्रवण सिंह छोटी सी उम्र में देश और हमारी सेना के लिए बहादुरी का काम किया है। लेकिन यह बच्चा बीमारी से भी पीड़ित है। श्रवण शुगर की बीमारी से पीड़ित है। उसके इलाज का खर्च भी अब सेना उठाएगी। बीमारी की परवाह किए बिना वह ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सैनिकों को ठंडा पानी, बर्फ, चाय, दूध व लस्सी पहुंचाता रहा। गांव तारा वाली से सरहद की दूरी दो किलोमीटर है। उसके साहस और उत्साह को देखते हुए भारतीय सेना की गोल्डन एरो डिवीजन ने उसकी शिक्षा का पूरा खर्च उठाने का संकल्प लिया है।बड़ा होकर सेना में भर्ती होना चाहता है
सरवन के पिता सोना सिंह ने बताया कि उनका बेटा इस समय चौथी कक्षा में पढ़ता है और बड़ा होकर सेना में भर्ती होना चाहता है। सैनिक उसे बहुत प्यार करते हैं। 18 जुलाई को ममदोट के स्कूल में सरवन का दाखिला करवाया गया।
7 मई को शुरू हुआ था ऑपरेशन सिंदूर
22 अप्रैल को जम्मू कश्मीर के पहलगाम में आतंकियों ने हमला किया था। इस हमले में निर्दोष और निहत्थे 26 पर्यटकों की आतंकियों ने जान ले ली थी। इस हमले के जवाब में भारतीय सेना की तरफ से ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया गया था। ऑपरेशन सिंदूर के तहत भारतीय सशस्त्र बलों ने 7 मई को तड़के पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में नौ आतंकी ठिकानों पर मिसाइल हमले किए थे। इन ठिकानों में जैश-ए-मोहम्मद का गढ़ बहावलपुर और लश्कर-ए-तैयबा का मुरिदके स्थित अड्डा शामिल था।