Friday, October 17, 2025
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* श्री सरस्वती षोड़श नाम स्तोत्र *

सरस्वत्यां प्रसादेन, काव्यं कुर्वन्ति मानवाः।
तस्मान्निश्चल-भावेन, पूजनीया सरस्वती ।।

श्री सर्वज्ञ मुखोत्पन्ना, भारती बहुभाषिणी।
अज्ञानतिमिरं हन्ति, विद्या-बहुविकासिनी ।।

सरस्वती मया दृष्टा, दिव्या कमललोचना।
हंसस्कन्ध-समारूढ़ा, वीणा-पुस्तक-धारिणी ।।

प्रथमं भारतीय नाम, द्वितीयं च सरस्वती।
तृतीयं शारदादेवी, चतुर्थ हंसगामिनी ।।

पंचमं विदुषां माता, षष्ठं वागीश्वरी तथा।
कुमारी सप्तमं प्रोक्ता, अष्टमं ब्रह्मचारिणी ।।

नवमं च जगन्माता, दशमं ब्राह्मिणी तथा।
एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं वरदा भवेत् ।।

वाणी त्रयोदशं नाम, भाषा चैव चतुर्दशं।
पंचदंश श्रुतदेवी च, षोडशं गौर्निगद्यते ।।

एतानि श्रुतनामानि, प्रातरूत्थाय यः पठेत्।
तस्य संतुष्यदि माता, शारदा वरदा भवेत् ।।

सरस्वती नमस्तुभ्यं, वरदे कामरूपिणि।
विद्यारंभं करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु में सदा ।।

लोकप्रिय जासूसी किरदारों की धमक, ब्योमकेश से फेलूदा तक दिखे

कोलकाता में दुर्गा पूजा की धूम शुरू हो चुकी है। महानगर के पंडालों में ऐतिहासिक धरोहरों, सामाजिक सरोकारों और धार्मिक प्रतिकों के साथ-साथ मनोरंजन से जुड़े विषयों को भी उभारा गया है। इसी क्रम में कुछ पंडाल बंगाल के लोकप्रिय जासूसी साहित्य और फिल्मों की झलक भी प्रस्तुत कर रहे हैं। शर्दिन्दु बंद्योपाध्याय के सत्यान्वेषी ब्योमकेश बक्शी से लेकर सत्यजीत रे के फेलूदा और अन्य कालजयी किरदारों के माध्यम से श्रद्धालुओं और दर्शकों को रहस्य, रोमांच की दुनिया की सैर कराने की पूरी तैयारी की गई है। दमदम पार्क तरुण संघ ने इस वर्ष प्रसिद्ध जासूस ब्योमकेश बक्शी को केंद्र में रखा है। डिजाइनर अनिर्बाण दास द्वारा सजाए गए इस पंडाल में 1950 और 60 के दशक की पॉप आर्ट शैली को जीवंत किया गया है। विशाल कॉमिक स्ट्रिप जैसे माहौल में आगंतुकों को ‘श्रीश्री दुर्गा मंदिर कंठहार रहस्य’ की काल्पनिक कहानी दिखाई देती है, जिसमें पूजा के दौरान देवी का हार चोरी हो जाता है। पंडाल में “ब्योमकेशेर डायरी” का मंचन भी हो रहा है, जिसमें ‘पथेर कांटा’ की कहानी पर नाट्य रूपांतरण दिखाया गया है। ब्योमकेश के साथी अजीत और पत्नी सत्यवती के प्रसंग पंडाल को और नाटकीयता प्रदान करते हैं। बालीगंज 71 पल्लि ने सत्यजीत रे की फिल्म ‘सोनार केल्ला’ के 50 वर्ष पूरे होने पर उसे थीम बनाया है। डिजाइनर राजू सरकार ने जैसलमेर किले की भव्य प्रतिकृति खड़ी की है। पंडाल और आसपास की सजावट में फेलूदा, तोपसे और जटायु के रोमांचक सफर को दर्शाया गया है। युवा मुकुल की कल्पनाशीलता को दर्शाते हुए मां दुर्गा की मूर्ति को गुड़िया जैसे रूप में गढ़ा गया है। फिल्म के प्रसिद्ध संगीत और संवाद पंडाल में गूंजते हैं, जिससे आगंतुकों को मानो आधी सदी पुरानी सिनेमाई यात्रा दोबारा जीने का अवसर मिलता है। कांकुड़गाछी चालंतिका क्लब ने ‘टिक-टिकी’ थीम के अंतर्गत बंगाल के दिग्गज जासूसों को समर्पित पंडाल बनाया है। ‘हीरेर हाथ बदल’ शीर्षक कहानी पर आधारित यह सजावट एक काल्पनिक हीरे की चोरी को दर्शाती है। यहां फेलूदा, पांडव गोयेंदा, मितिन मासी और किरीटी जैसे लोकप्रिय जासूसों के साथ-साथ कई कुख्यात अपराधियों की झलक भी है। पुराने कोलकाता के घरों की प्रतिकृतियां, दुर्घटनाओं के दृश्य और चमकदार रोशनी दर्शकों को रहस्य और अपराध की दुनिया में खींच ले जाती हैं। मां दुर्गा की मूर्ति के ऊपर एक छिपकली को जाल काटते हुए दिखाया गया है, जो अपराध का पर्दाफाश करने वाले जासूसों का प्रतीक है। लाल और नीले रंगों का संयोजन अच्छाई और बुराई के संघर्ष को उजागर करता है। इन कलात्मक प्रस्तुतियों, प्रतीकों और नाटकीय सजावटों के माध्यम से इस बार कोलकाता के पंडाल न केवल पूजा का माहौल बना रहे हैं, बल्कि बंगाल की लोकप्रिय जासूसी किरदारों को भी जीवंत कर रहे हैं।

 

आध्यात्मिक उर्जा व माता के प्रति कृतज्ञता बोध है गरबा व डांडिया

आज के समय में गरबा और डांडिया सिर्फ गुजरात तक सीमित नहीं है। यह नृत्य अब भारत के हर कोने में और यहां तक कि विदेशों में भी धूमधाम से खेले जाते हैं। हर साल नवरात्रि के नौ दिनों में जगह-जगह पंडाल सजते हैं, लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर ग्रुप बनाकर नृत्य करते हैं और देर रात तक उत्सव का माहौल बना रहता है। कॉलेजों से लेकर सोसाइटीज़, बड़े क्लबों से लेकर पांच सितारा होटलों तक हर जगह गरबा और डांडिया का आयोजन देखने को मिलता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह नृत्य क्यों खेले जाते हैं और इनका असली महत्व क्या है? गरबा और डांडिया में सबसे पहले बात करते हैं गरबा की। “गरबा” शब्द संस्कृत के गर्भ से निकला है, जिसका अर्थ है गर्भ या जीवन। इसी से “गरबो” शब्द बना, जिसका मतलब है मिट्टी का घड़ा जिसमें अंदर दीया जलाया जाता है। नवरात्रि के दौरान यह दीया ईश्वर की अनंत शक्ति और देवी के प्रकाश का प्रतीक होता है। जब लोग इस घड़े या दीपक के चारों ओर गोल घेरा बनाकर नृत्य करते हैं तो उसका अर्थ केवल नाचना-गाना नहीं होता। इस गोल घेरे का मतलब है जीवन का चक्र, जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म। यानी सब कुछ बदलता रहता है, लेकिन बीच में रखा दीपक या देवी शक्ति हमेशा स्थायी रहती है। इसीलिए गरबा केवल मनोरंजन नहीं है, बल्कि यह नृत्य एक पूजा है, जिसमें ताली, कदम और ताल के माध्यम से देवी को समर्पित किया जाता है। गरबा और डांडिया में दूसरा नृत्य है डांडिया। इसे डांडिया रास भी कहा जाता है।

इसमें लकड़ी की डंडियों का इस्तेमाल होता है और आज कल तो लोग रंग बिरंगी सजी हुई डंडियों का इस्तेमाल करते है। उन डंडीयो को देवी दुर्गा की तलवार का प्रतीक माना जाता है। जब लोग डंडियों को आपस में टकराते हैं तो यह मां दुर्गा और राक्षस महिषासुर के बीच हुए युद्ध की याद दिलाता है। यह केवल खेल नहीं, बल्कि अच्छाई और बुराई की लड़ाई का भी प्रतीक है। परंपरा के अनुसार, गरबा आमतौर पर आरती से पहले खेला जाता है, जबकि डांडिया आरती के बाद। इसका मतलब है पहले शांति और भक्ति का माहौल, फिर जोश और उत्सव का आनंद। गरबा और डांडिया भले ही अपने तरीके से अलग हो, लेकिन दोनों का मकसद एक ही है, देवी की शक्ति को सम्मान देना। गरबा जीवन चक्र और स्त्री शक्ति का प्रतीक है, जबकि डांडिया मां की तलवार और उनके बुराई के ऊपर विजय का प्रतीक है। इस उत्सव के लिए अलग अलग जगह और कल्चर्स के लोग एक जगह इकट्ठे होते है और गरबा और डांडिया खेलते है। यह त्यौहार बताता है कि भक्ति और उत्सव सबको जोड़ने की ताकत रखते हैं।

 

समय के साथ गरबा और डांडिया ने आधुनिक रूप भी ले लिया है। पहले जहां केवल ढोल और पारंपरिक गीतों पर नाच होता था, वहीं अब बॉलीवुड गाने और रिमिक्स बीट्स भी शामिल हो चुके हैं। पहले सिर्फ पारंपरिक घाघरा-चोली और कढ़ाईदार कपड़े पहने जाते थे, अब डिज़ाइनर आउटफिट्स और नए फैशन ट्रेंड्स भी दिखते हैं। गरबा और डांडिया अब सिर्फ नृत्य नहीं बल्कि आज की युवा पीढ़ी के लिए एक ट्रेंड बन चुका है। गुजरात या मंदिरों तक सीमित रहने के बजाय अब बड़े स्टेडियम, क्लब होटल और सोसाइटीज़ में इसके विशाल कार्यक्रम आयोजित होते हैं। यह नृत्य अब केवल धार्मिक परंपरा नहीं रहे। विदेशों में बसे भारतीय भी बड़े पैमाने पर गरबा और डांडिया का आयोजन करते हैं और अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं।
(साभार – न्यूजग्राम)

प्रेरणादायक है रानी भवानी का जीवन

रानी भवानी, आठवीं शताब्दी की नाटौर (अब बांग्लादेश का एक भाग) की ज़मींदार, जिन्होंने खुद को एक उदार ज़मींदार के साथ-साथ एक सामाजिक प्रभावक और सुधारक भी साबित किया। वह उन चंद ज़मींदारों में से एक थीं जिन्होंने सिराजुद्दौला को पदच्युत करने के लिए ब्रिटिश सेना की सहायता करने से इनकार कर दिया था। उन्होंने यह तब किया जब सिराज ने उनकी विधवा बेटी का अपमान करने की कोशिश की थी। उन्हें लगा कि सिराज और ब्रिटिश शासकों के बीच, देश के कल्याण के लिए सिराज ही बेहतर था।रानी भवानी (1716-1795) ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान वर्तमान राजशाही बांग्लादेश में एक ज़मींदार थीं। उन दिनों एक महिला का ज़मींदार होना अत्यंत दुर्लभ था। लेकिन रानी भवानी ने चार दशकों से भी अधिक समय तक विशाल राजशाही ज़मींदारी को अत्यंत प्रभावी और कुशलतापूर्वक प्रबंधित किया। उनका जीवन और समाज में उनका योगदान किसी भी महिला के लिए एक सबक हो सकता है। प्लासी के युद्ध से पहले, रानी भवानी ने राजा कृष्ण चंद्र और बंगाल के सभी अन्य ज़मींदारों से क्लाइव की मदद न करने का आग्रह किया। रानी भवानी को सबसे पहले यह एहसास हुआ कि अगर सिराज हार गया तो यह बंगाल के लोगों के लिए असीमित मुसीबतें लाएगा। उसने पहले ही सोच लिया था कि सत्ता का जाल और बंगाल के लोग उनके गुलाम बन जाएंगे। रानी भवानी ने प्लासी के युद्ध में नवाब की मदद के लिए सेना भेजी।
जन्म – रानी भवानी का जन्म 1716 को चटिमग्राम गांव, एडमदिघी, उपजिला, बोगुरा जिले में एक ब्रामह्ण परिवार में हुआ था। माता-पिता: भवानी के पिता का नाम आत्माराम चौधरी था, जो एक ज़मींदार थे। भवानी की माँ का नाम भी आत्माराम चौधरी था, जो एक कुलीन परिवार से थीं। जय दुर्गा के पिता हरिदेव ठाकुर, पाकुड़िया के राघव ठाकुर के दूसरे पुत्र थे।
पति -रानी भवानी के पति, राजा रामकांत राय, राजा रामजीबन के दत्तक पुत्र थे क्योंकि उनकी कोई पुत्र संतान नहीं थी। उन्होंने रास्की राय, जो कुलश्रेष्ठ ब्राह्मण माने जाते थे और सिंगरा थाना अंतर्गत चौग्राम गाँव के निवासी थे, के सबसे छोटे पुत्र रामकांत राय को गोद ले लिया। उन्होंने रसिक राय को रंगपुर जिले के अंतर्गत चौग्राम परगना और इस्लामाबाद दे दिया ताकि वह रामकांत राय को दत्तक पुत्र के रूप में अपना सकें। रामजीबन ने दत्तक पुत्र रामकांत राय को पूरी संपत्ति विरासत में दे दी।
शादी – रामकांत राय को अपनी परिपक्वता का एहसास हुआ और उन्होंने तुरंत रानी भवानी से विवाह का प्रस्ताव रखा। विवाह के समय भवानी केवल 15 वर्ष की थीं और रामकांत 18 वर्ष के। इस अवसर पर रामजीबन चटियांग्राम नामक गाँव में उपस्थित थे। भवानी के पिता आत्माराम चौधरी ने विवाह के दहेज के रूप में गाँव का एक हिस्सा दान में दे दिया। विवाह के समापन पर एक शुभ दिन, नवदंपति के साथ सभी लोग नाटोरे स्थित मुख्यालय लौट आए। तब से भवानी देवी रानी रबानी के नाम से प्रसिद्ध हुईं। राजा रामकांत एक सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। दूसरी ओर, रानी भवानी असाधारण प्रतिभा की धनी थीं। 1748 में राजा रामकांत राय की मृत्यु के बाद रानी भबानी जमींदारी की एकमात्र मालिक बन गईं। अलीवर्दी खान ने रानी भवानी को जमींदारी के प्रशासन का कार्यभार सौंपा। रानी भवानी ने भी जमींदारी प्रशासन को अपनी योग्यता और योग्यता का परिचय दिया।
रानी भवानी का निजी जीवन – महारानी भवानी निजी जीवन में अत्यंत धर्मपरायण थीं। उन्होंने अपना जीवन अत्यंत कठोर और अनुशासित तरीके से बिताया। हर रात, रात होने से 1 घंटा 36 मिनट पहले, वह बिस्तर से उठकर अपनी प्रार्थना पूरी करती थीं। उसके बाद, रात होने से 12 मिनट पहले, वह अपने पुष्प उद्यान में जातीं और अपने हाथों से फूल तोड़तीं। इसके बाद, वह गंगा में स्नान करतीं, नदी तट पर बैठकर पुनः प्रार्थना करतीं और सूर्योदय के 48 मिनट बाद तक शिव को अर्घ्य अर्पित करतीं। इसके बाद, वह मंदिर के देवी-देवताओं को पुष्प अर्पित करतीं और घर लौटकर शिव और “इष्ट” (इच्छा) की पूजा करते हुए, पुन्नों की कथाएँ सुनतीं। फिर वह स्वयं भोजन बनातीं और सबसे पहले अपने परिवार के 10 ब्राह्मणों को भोजन कराया और हबीस हन्ना (चावल और मक्खन को एक साथ उबालकर बनाया गया) खाया। वह अपने स्वभाव को त्यागने से पहले हर चीज़ की अच्छी तरह जाँच करतीं। अपने पति के प्रति उनके मन में गहरा प्रेम और सम्मान था। एक महिला होने के बावजूद, उन्होंने ज़मींदारी का प्रशासन चलाने में अपनी योग्यता सिद्ध की।
राजनीतिक जीवन – एक बड़ी ज़मींदारी की मालकिन होने के बावजूद, उन्हें अपने जीवन के उत्तरार्ध में सरकारी वजीफे पर निर्भर रहना पड़ा। इस वजीफे की राशि धीरे-धीरे कम होती गई और अंत में केवल 1000 रुपये रह गई। उन्होंने नाटोरे के गौरवशाली दिन भी देखे और अपने पतन का दिन भी। नाटोरे का पतन ही नहीं हुआ, बल्कि 1802 में अधिकांश प्रतिष्ठित राज परिवार (ज़मींदार परिवार) भी बर्बाद हो गए। इस प्रतिष्ठित महिला ने 79 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली। उनकी उदारता ने उन्हें समाज में सम्माननीय बना दिया। संपत्ति के प्रशासन में उनकी बुद्धिमत्ता और कुशलता ने उन्हें और भी गौरवान्वित कर दिया। रानी भवानी की मृत्यु के साथ ही नाटोरे राज परिवार का गौरव भी समाप्त हो गया।
एक प्रशासक के रूप में जीवन -1748 में अपने पति की मृत्यु के बाद, रानी भवानी नटौर की जागीर की कानूनी मालिक बन गईं और जागीर का प्रशासन बखूबी चला रही थीं। उनके प्रशासनिक कर्तव्यों के निर्वहन में उनकी पुत्री तारासुंदरी और दीवान दयाराम राय ने उनकी हर संभव मदद की। यह कहा जा सकता है कि रानी भवानी ने अपनी जागीर का प्रशासन सफलतापूर्वक चलाया। इस दौरान, तीन प्रकार के लगान वसूले जाते थे: कब्जे वाली ज़मीन के लिए वैध राजस्व, अपराध सिद्ध होने पर दंड के रूप में जुर्माना या अतिरिक्त शुल्क और अन्य।
धार्मिक योगदान
बारानगर में भवानी मंदिर – रानी भवानी न केवल एक सफल प्रशासक थीं, बल्कि अपनी प्रजा के धार्मिक उत्थान के लिए भी उतनी ही चिंतित थीं। उन्होंने संस्थागत धर्म के प्रसार पर विशेष ध्यान दिया और ज़मींदारी के विभिन्न हिस्सों और उसके बाहर मंदिरों की स्थापना को प्रोत्साहित किया। उन्होंने अपने जन्मस्थान की स्मृति में एक सुंदर मंदिर भी बनवाया। मंदिर का नाम “जय दुर्गा मंदिर” था। मंदिर “जय दुर्गा मंदिर” रानी भवानी के गृहनगर की याद में बनाया गया है। मंदिर के अंदर एक मूर्ति भी स्थापित की गई थी।
उन्होंने दसुरिया के पास मामी कालिकापुर, नौगांव जिले के मंडपुकुर में रघुनाथ मंदिर में और अधिक मंदिरों का निर्माण कराया। नटोर का तारकेश्वर शिव मंदिर। बारानगर में भवानीश्वर मंदिर, रानी भवानी की एक बड़ी उपलब्धि है
विधवा विवाह – रानी भवानी एक दूरदर्शी महिला थीं। उन्होंने सबसे पहले यह महसूस किया कि हिंदू विधवाओं का पुनर्विवाह होना चाहिए। रानी भवानी की पुत्री तारासुंदरी कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं। शायद इसीलिए उन्होंने विधुरों के विवाह की पहल की, क्योंकि उनकी पुत्री भी विधवा हो गई थी। रानी भवानी और राज बल्लभ ने अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव पंडितों के समक्ष रखा। रानी भवानी विधवाओं के प्रति काफी दयालु थीं। उन्होंने कई विधुरों को मासिक वजीफा देने की पेशकश की। रानी भवानी ने गंगा नदी के किनारे विधवाओं के लिए एक आश्रय स्थल बनवाया और उनके भरण-पोषण की व्यवस्था की।
(साभार – हिस्ट्री विला)

बंगाल की रानी भवशंकरी, जिन्हें अकबर ने कहा था रायबाघिनी

वह भूरिश्रेष्ठ साम्राज्य की शासक थीं, जिसका शासन आधुनिक हावड़ा, हुगली, बर्दवान और मिदनापुर के बड़े हिस्से तक फैला हुआ था। रानी भवशंकरी पठानों और मुगलों के लिए इतनी आतंकित थीं कि बादशाह अकबर ने भी उन्हें रायबाघिनी नाम दिया था। भवशंकरी एक ब्राह्मण परिवार से थीं। उनके पिता दीनानाथ चौधरी पेंडो किले के सेनापति के अधीन नायक थे। दीनानाथ एक लंबे-चौड़े और हट्टे-कट्टे सैनिक थे, जो युद्धकला में अत्यंत कुशल थे। वह स्वयं एक हज़ार से ज़्यादा सैनिकों की एक टुकड़ी का नेतृत्व करते थे। उनके पास एक विशाल जागीर थी और वे अपनी प्रजा को युद्धकला में प्रशिक्षित होने के लिए प्रोत्साहित करते थे। दीनानाथ भूरिश्रेष्ठ के सम्मानित कुलीनों में गिने जाते थे। भवशंकरी का जन्म पेंडो में हुआ था, जो दीनानाथ की दो संतानों में से पहली संतान थीं। जब वह छोटी थीं, तो उनके छोटे भाई को जन्म देते समय उनकी माँ का देहांत हो गया था। हालाँकि उनके भाई का पालन-पोषण एक पालक माँ ने किया, लेकिन उनका बचपन अपने पिता के सानिध्य में बीता। कम उम्र से ही उनके पिता ने उन्हें घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और तीरंदाज़ी का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था। वह भी सैन्य कवच पहनकर अपने पिता के साथ घुड़सवारी करती थीं। वह भूरिश्रेष्ठ राज्य की एक बहादुर युवा सैनिक के रूप में बड़ी हुईं। फिर उन्होंने युद्ध, कूटनीति, राजनीति, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र और यहाँ तक कि धर्मशास्त्र की भी शिक्षा ली। अपनी युवावस्था में भवशंकरी दामोदर नदी से सटे जंगल में शिकार के लिए जाती थीं। एक बार हिरण का शिकार करते समय उन पर जंगली भैंसों ने हमला कर दिया और उन्होंने अकेले ही उन्हें मार गिराया। उसी समय भूरिश्रेष्ठ के राजा रुद्रनारायण वहाँ से गुज़र रहे थे। एक युवती को भाले से एक जंगली भैंसे को मारते देखकर वे मोहित हो गए। वह उससे विवाह करना चाहते थे और राजपुरोहित हरिदेव भट्टाचार्य ने उनका विवाह तय कर दिया।
रानी भवशंकरी ने शुरू में ही यह निश्चय कर लिया था कि वह उसी पुरुष से विवाह करेंगी जो उन्हें तलवारबाज़ी में हरा देगा। हालाँकि, चूँकि राजा के लिए किसी आम आदमी के साथ नकली तलवारबाज़ी करना संभव नहीं था, इसलिए उसे अपना संकल्प बदलना पड़ा। उसने प्रस्ताव रखा कि राजा को भूरिश्रेष्ठ की संरक्षक देवी राजबल्लवी के सामने एक ही वार में एक जोड़ी भैंसों और एक भेड़ की बलि देनी होगी।
विवाह के बाद, भवशंकरी गढ़ भवानीपुर किले के ठीक बाहर, नवनिर्मित महल में रहने लगीं। राजा की पत्नी के रूप में, वह राजा के राजकीय कर्तव्यों में उनकी सहायता करने लगीं। उन्होंने राज्य के सैन्य प्रशासन में विशेष रुचि ली। वह नियमित रूप से प्रशिक्षु सैनिकों से मिलने जाती थीं और सैन्य ढाँचे के उन्नयन और आधुनिकीकरण की व्यवस्था करती थीं। वह प्रत्येक प्रजा को सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने लगीं। उन्होंने भूरिश्रेष्ठ की सीमाओं पर नए गढ़ किले बनवाए और मौजूदा किलों का जीर्णोद्धार करवाया।
उनकी कुलदेवी राजवल्लभी थीं, जो माँ चंडी का अवतार थीं और उनकी मूर्ति अष्टधातु से बनी थी। भवशंकरी उनकी पूजा करती थीं और एक बार उन्होंने कामना की कि कोई भी पुरुष उन्हें युद्ध में पराजित न कर सके। दो दिनों तक उपवास करने के बाद, तीसरे दिन उनकी प्रार्थना अंततः सुनी गई और उनकी मनोकामना पूरी हुई। जयदुर्गा ने उन्हें अपनी शक्ति का आशीर्वाद दिया और उन्हें एक तलवार दी जो गढ़ भवानीपुर स्थित राजमहल के पास झील के तल में रखी थी। भक्ति से ओतप्रोत भवशंकरी ने झील में स्नान करते समय तलवार स्वीकार कर ली। भवशंकरी की कुलदेवी आज भी पूरे हावड़ा जिले में अमता की मेलई चंडी, मकरदाह की माँ मकरचंडी, डोमजूर के पास एक गाँव जयचंडी ताला की माँ जया चंडी और बेतई की बेतई चंडी के रूप में पूजी जाती हैं।
बशुरी का युद्धक्षेत्र, रायबाघिनीपाड़ा – उन्होंने तारकेश्वर के पास छौनापुर में किले की सीमावर्ती खाई के ठीक बाहर एक मंदिर बनवाया। यह मंदिर एक सुरंग द्वारा निकटवर्ती किले से जुड़ा था जो एक पलायन मार्ग था। उन्होंने बशुरी गाँव में एक भवानी मंदिर भी बनवाया। इस काल में, भूरिश्रेष्ठ कृषि और व्यापार में समृद्ध होने लगा। वस्त्र और धातुकर्म जैसे स्वदेशी उद्योग फलने-फूलने लगे। शीघ्र ही भवशंकरी ने राजकुमार प्रतापनारायण को जन्म दिया। राजा रुद्रनारायण ने विद्वानों को भूमि और सोना तथा चाँदी, वस्त्र और भोजन प्रदान किया। हालाँकि, रुद्रनारायण की मृत्यु तब हुई जब प्रतापनारायण केवल पाँच वर्ष के थे। गौड़ और पांडुआ के पठान नवाबों के शासन के दौरान भूरिश्रेष्ठ राज्य अधिकांशतः तटस्थ रहा। हालाँकि, कालापहाड़ के धर्मांतरण के कारण, रुद्रनारायण ने संभावित आक्रमण की आशंका में व्यापक युद्ध की तैयारी शुरू कर दी थी। मुगलों से पराजित होने के बाद, बंगाल के पठानों ने उड़ीसा में शरण ली। उड़ीसा में अपने ठिकाने से, उस्मान खान के नेतृत्व में पठान बंगाल पर आक्रमण करने की योजना बना रहे थे। भवशंकरी ने राज्य के मामलों का भार राजस्व मंत्री दुर्लभ दत्ता और सेनापति चतुर्भुज चक्रवर्ती को सौंपा।
सशस्त्र सेना लेकर राजकुमार प्रतापनारायण के साथ कस्तसंग्रह के लिए रवाना हो गई थीं। उनके पास महिला अंगरक्षक थीं। हालाँकि, वह दिन के अधिकांश समय युद्ध पोशाक में रहती थीं और अपनी तलवार और बन्दूक साथ रखती थीं। इस बीच, चतुर्भुज चक्रवर्ती ने पठान सेनापति उस्मान खान के साथ एक गुप्त समझौता किया, जिसके अनुसार वह अपनी सेना के साथ मुगलों के खिलाफ लड़ाई में पठान सेना में शामिल होंगे और पठानों की जीत पर वह भूरिश्रेष्ठ के नए शासक बनेंगे। चतुर्भुज चक्रवर्ती से मिली खुफिया जानकारी से पोषित पठान सेना भवशंकरी और उनके बेटे को जीवित पकड़ने के लिए निकल पड़ी। उस्मान खान स्वयं अपने बारह प्रशिक्षित, अनुभवी और सबसे भरोसेमंद सैनिकों के साथ हिंदू भिक्षुओं के वेश में प्रवेश किया। 200 पठान सैनिकों की एक और टुकड़ी भेष बदलकर उनका पीछा करेगी। हालाँकि, उस्मान की अग्रिम सेना को अमता में देखा गया और जैसे ही यह खबर रानी तक पहुँची, उन्होंने निकटतम गैरीसन से 200 रक्षकों की एक टुकड़ी बुलाई। रात होने पर, उन्होंने अपने कवचधारी वस्त्रों के ऊपर श्वेतपट्टा धारण किया और पूजा-अर्चना में लीन हो गईं। उनकी महिला अंगरक्षकों ने मंदिर के बाहर पहरा दिया और सैनिक जंगलों में फैल गए।
जब एक पठान सैनिक ने सुरक्षा व्यवस्था भंग करके मंदिर परिसर में घुसने की कोशिश की, तो युद्ध छिड़ गया। महिला अंगरक्षकों ने तुरंत कार्रवाई की और तलवारबाज़ी शुरू हो गई। जल्द ही शाही रक्षक भी युद्ध में शामिल हो गए। पठान बुरी तरह पराजित हुए और जब उन्होंने भागने की कोशिश की, तो शाही रक्षकों ने उनका पीछा करके उन्हें मार डाला। यहाँ तक कि उस्मान भी भाग गया। वहीं, मुगल सम्राट अकबर, जो बंगाल में पठानों के पुनरुत्थान से हमेशा सावधान रहते थे, ने भूरिश्रेष्ठ के साथ गठबंधन को मजबूत करने का फैसला किया। उन्होंने मान सिंह को रानी भवानीशंकरी के पास भेजा और एक विशेष समारोह में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर किए गए। इस संधि के माध्यम से, भूरिश्रेष्ठ की संप्रभुता को मुगल साम्राज्य द्वारा औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। संधि के अनुसार, भूरिश्रेष्ठ को संधि के प्रतीक के रूप में एक स्वर्ण मुद्रा, एक बकरा और एक कंबल भेजना आवश्यक था। महारानी भवशंकरी को रायबाघिनी की उपाधि दी गई थी और मुगलों ने कभी भी उनके राज्य में हस्तक्षेप नहीं किया।
(साभार – गेट बंगाल डॉट कॉम)

 

 

यंग बॉयज क्लब ने “ऑपरेशन सिंदूर” थीम पर बनाया दुर्गापूजा मंडप

कोलकाता । मध्य कोलकाता के बहुचर्चित दुर्गापूजा कमेटियों में एक “यंग बॉयज क्लब” दुर्गा पूजा कमेटी ने इस वर्ष “ऑपरेशन सिंदूर” थीम के जरिए भारत के सशस्त्र बलों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित कर अपनी स्थापना के 56वें वर्ष का जश्न मनाने की तैयारी कर रहा है। तारा चंद दत्ता स्ट्रीट और सेंट्रल एवेन्यू को रवींद्र सरणी से जोड़ने वाले एक ऐतिहासिक स्थल में बने भव्य थीम पर यह जीवंत पूजा मंडप, हज़ारों लोगों को इसकी भव्यता को देखने के लिए अपनी ओर आकर्षित करेगा। कलाकार देबशंकर महेश द्वारा डिज़ाइन किए गए इस मनमोहक पंडाल में कई आकर्षक कलाकृतियाँ हैं, जो थीम को जीवंत बनाती हैं। इस मंडप में दर्शकों को भारतीय सेना के टैंकों और मिसाइलों की जीवंत प्रतिकृतियाँ देखने को मिलेंगी। इस थीम का मुख्य आकर्षण भारतीय सेना का सिर गौरव से ऊंचा करनेवाली देश की वो दो वीर बेटियां, महिला अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह का सम्मान हैं। उनकी प्रतिकृतियाँ सेना में महिलाओं की शक्ति और नेतृत्व के सशक्त प्रतीक के रूप में खड़ी हैं। यंग बॉयज क्लब के मुख्य आयोजक राकेश सिंह ने कहा, दुर्गा पूजा हमारे लिए एक उत्सव से कहीं बढ़कर है। यह एक भावना है, जो लोगों को एक साथ बांधती है। हर साल हम एक ऐसी थीम प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं, जो न केवल आगंतुकों को आकर्षित करे, बल्कि अपने मंडप के जरिए एक गहरा संदेश भी दे। इस अवसर पर यंग बॉयज़ क्लब के युवा अध्यक्ष विक्रांत सिंह ने कहा, ऑपरेशन सिंदूर के माध्यम से, हम अपने उन सैनिकों के साहस और बलिदान को सलाम करना चाहते हैं, जो अटूट समर्पण के साथ हमारे देश की रक्षा करते हैं। यंग बॉयज़ क्लब के सह-आयोजक विनोद सिंह ने कहा, हर साल हमारा लक्ष्य एक ऐसी दुर्गा पूजा का आयोजन करना है, जो न केवल भव्यता के माध्यम से, बल्कि सार्थक कहानियों के माध्यम से भी एक अमिट छाप छोड़े। मूर्तिकार कुशध्वज बेरा ने देवी दुर्गा की मूर्ति बनाई है। पंडाल की थीम देशभक्ति से ओतप्रोत है। वहीं दुर्गा प्रतिमा अपनी पारंपरिक शैली को बरकरार रखते हुए पुराने और नए का सामंजस्यपूर्ण मिश्रण प्रस्तुत करती है। यह अनूठा डिज़ाइन न केवल देवी का सम्मान करता है, बल्कि भारतीय सेना की वीरता को भी नमन करता है।

दिल्ली हाईकोर्ट में बैलेट पेपर से चुनाव कराने वाली याचिका खारिज

नयी दिल्ली । चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के बदले बैलेट पेपर के जरिए चुनाव कराने वाली याचिका को दिल्ली हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए खारिज यह याचिका उपेंद्र नाथ दलाई नाम के व्यक्ति ने दायर की थी, जिसमें उन्होंने मांग की थी कि देश में होने वाले सभी चुनाव केवल बैलेट पेपर (मतपत्र) के माध्यम से कराए जाएं, न कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के जरिए। याचिका में दावा किया गया था कि ईवीएम पर जनता का विश्वास नहीं रहा है और इससे निष्पक्ष चुनाव पर सवाल खड़े होते हैं। दलाई ने अदालत से अनुरोध किया था कि वह चुनाव आयोग को निर्देश दे कि भविष्य में केवल बैलेट पेपर से ही वोटिंग कराई जाए। हालांकि, दिल्ली हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए साफ शब्दों में कहा कि ऐसा कोई आधार नहीं है, जिस पर कोर्ट इस याचिका को स्वीकार करे। अदालत ने कहा कि ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर चुनाव आयोग ने समय-समय पर पारदर्शिता और सुरक्षा को लेकर जरूरी कदम उठाए हैं। साथ ही, वोटर वेरिफाएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) मशीनों के जरिए भी वोटिंग प्रक्रिया को अधिक विश्वसनीय बनाया गया है। चुनाव आयोग का भी हमेशा यही कहना रहा है कि ईवीएम एक भरोसेमंद और पारदर्शी व्यवस्था है, जिससे चुनाव प्रक्रिया तेज, निष्पक्ष और निष्कलंक बनती है।

रेलवे कर्मचारियों को मिलेगा 78 दिनों का दिवाली बोनस

– बिहार के लिए 6 हजार करोड़ रुपये की परियोजनाओं को मंजूरी
नयी दिल्‍ली । केंद्रीय कैबिनेट में बुधवार को 10.90 लाख रेलवे कर्मचारियों को उत्पादकता आधारित बोनस (पीएलबी) को मंजूरी दे दी। यह बोनस दिवाली से पहले कर्मचारियों के अकाउंट में भेजा जाएगा। इसके लिए 1865 करोड़ 68 लाख रुपये के भुगतान को स्‍वीकृति दी गई है। केंद्रीय कैबिनेट ने बिहार के बख्तियारपुर-राजगीर और झारखंड के तिलैया के बीच 104 किलोमीटर की रेल दोहरीकरण परियोजना को भी मंजूरी दी है। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बुधवार को कैबिनेट के इस फैसले की जानकारी देते हुए बताया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आज 10 लाख 91 हजार 146 रेलवे कर्मचारियों को 78 दिनों के उत्पादकता से जुड़े बोनस (पीएलबी) के रूप में 1865 करोड़ 68 लाख रुपये के भुगतान को स्‍वीकृति दी। रेलवे कर्मचारियों के बेहतर कामकाज को मान्‍यता देते हुए यह मंजूरी दी गई है।उन्होंने बताया कि केंद्रीय कैबिनेट ने बिहार के बख्तियारपुर-राजगीर और झारखंड के तिलैया के बीच 104 किलोमीटर की रेल दोहरीकरण परियोजना को भी मंजूरी दी है। इस पर करीब 2,192 करोड़ रुपये की लागत आएगी। केंद्रीय कैबिनेट ने बिहार के लिए लगभग छह हजार करोड़ रुपये की योजनाओं को मंजूरी दी है। केंद्रीय मंत्री ने बताया कि यह बोनस रेलवे कर्मचारियों के 78 दिनों के वेतन के बराबर है। हर साल दुर्गा पूजा, दशहरा की छुट्टियों से पहले पात्र रेल कर्मचारियों को पीएलबी का भुगतान किया जाता है। उन्‍होंने कहा कि इस वर्ष लगभग 10 लाख 91 हजार अराजपत्रित रेल कर्मचारियों को 78 दिनों के वेतन के बराबर पीएलबी राशि का भुगतान किया जा रहा है। पिछले साल सरकार ने रेल कर्मचारियों के लिए 2,029 करोड़ रुपये के बोनस को मंज़ूरी दी थी। इससे 11,72,240 कर्मचारियों को लाभ हुआ था।उन्‍होंने कहा कि रेलवे के समग्र प्रदर्शन में सुधार के लिए रेल कर्मचारियों को प्रेरित करने के लिए प्रोत्साहन के रूप में पीएलबी भुगतान किया जाता है। प्रत्येक पात्र रेल कर्मचारी के लिए 78 दिनों के वेतन के बराबर अधिकतम देय पीएलबी की राशि 17 हजार 951 रुपये है। यह राशि विभिन्न श्रेणियों के रेल कर्मचारियों जैसे ट्रैक मेंटेनर, लोको पायलट, ट्रेन मैनेजर (गार्ड), स्टेशन मास्टर, सुपरवाइजर, तकनीशियन, तकनीशियन हेल्पर, पॉइंट्समैन, मंत्रालयिक कर्मचारी और अन्य ग्रुप-सी कर्मचारियों को दी जाएगी। रेल मंत्रालय ने जारी एक बयान में कहा कि वित्त वर्ष 2024-25 में रेलवे का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा। रेलवे ने रिकॉर्ड 1614.90 मिलियन टन माल ढुलाई की और लगभग 7.3 बिलियन यात्रियों को गंतव्‍य स्‍थल तक पहुंचाया।

नवरात्रि विशेष : बंगाल में मां के 12 चमत्कारी धाम, जहां हर कण में शक्ति का वास

पश्चिम बंगाल शाक्त धर्म का प्रमुख केंद्र रहा है। यहां पर आदिकाल से ही शक्ति उपासना की परंपरा विद्यमान रही है। शाक्त साधना के लिए बंगाल को विशेष महत्व प्राप्त है। प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में वर्णित 51 शक्तिपीठों में से 12 पवित्र शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल में स्थित हैं। नवरात्रि और दुर्गापूजा के अवसर पर यहां विशेष धार्मिक आयोजन होते हैं और लाखों श्रद्धालु दर्शन करने पहुंचते हैं। आइए विस्तार से जानते हैं इन 12 शक्तिपीठों के बारे में…

बहुला शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले से लगभग 8 किलोमीटर दूर केतुग्राम के निकट अजय नदी के तट पर बहुला शक्तिपीठ स्थित है। मान्यता है कि यहां माता सती का बायां हाथ या भुजा गिरी थी। इस स्थान पर देवी बहुला के रूप में पूजी जाती हैं और भैरव को भीरुक कहते हैं।
मंगल चंद्रिका शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले के उजानी गांव में यह शक्तिपीठ स्थित है। यहां माता की दाईं कलाई गिरी थी। इस स्थान पर माता को मंगल चंद्रिका रूप में पूजा जाता है। साधक और भक्त यहां विशेषकर मंगलवार और नवरात्रि पर दर्शन करने आते हैं।
त्रिस्रोता-भ्रामरी शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी जिले के सालबाड़ी ग्राम स्थित त्रिस्रोत स्थान पर माता का बायां पैर गिरा था। यहां देवी भ्रामरी के रूप में पूजी जाती हैं और शिव को अंबर या भैरवेश्वर कहा जाता है। भ्रामरी को मधुमक्खियों की देवी माना जाता है। देवी महात्म्य और देवी भागवत पुराण में उनकी महिमा का वर्णन मिलता है।
युगाद्या शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले के खीरग्राम (क्षीरग्राम) में युगाद्या शक्तिपीठ स्थित है। यहां माता सती के दाहिने पैर का अंगूठा गिरा था। यहां की शक्ति युगाद्या या भूतधात्री कहलाती हैं और शिव को क्षीरखंडक कहते हैं। यहां देवी युगाद्या की भद्रकाली मूर्ति विशेष आकर्षण है।
कालीपीठ (कालीघाट): पश्चिम बंगाल के कोलकाता का कालीघाट शक्तिपीठ सबसे प्रसिद्ध स्थानों में से एक है। यहां माता के बाएं पैर का अंगूठा गिरा था। देवी यहां कालिका रूप में विराजमान हैं और भैरव को नकुशील कहा जाता है। कालीघाट मंदिर विश्वविख्यात है और लाखों श्रद्धालु प्रतिवर्ष यहां दर्शन के लिए आते हैं।
वक्रेश्वर शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में दुबराजपुर स्टेशन से लगभग 7 किलोमीटर दूर वक्रेश्वर में यह पीठ स्थित है। पापहर नदी के तट पर यहां माता का भ्रूमध्य (मन:) गिरा था। यहां देवी महिषमर्दिनी के रूप में पूजी जाती हैं और भैरव वक्रनाथ कहलाते हैं।
देवगर्भा शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के बोलारपुर स्टेशन के निकट कोपई नदी के तट पर देवगर्भा शक्तिपीठ है। यहां माता की अस्थि गिरी थी। देवी यहां देवगर्भा के रूप में पूजी जाती हैं और भैरव रुरु नाम से विख्यात हैं।
विभाष शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के पूर्वी मेदिनीपुर जिले के तामलुक गांव (ताम्रलुक) में विभाष शक्तिपीठ स्थित है। यहां रूपनारायण नदी के तट पर माता का बायां टखना गिरा था। देवी कपालिनी (भीमरूप) कहलाती हैं और शिव शर्वानंद नाम से पूजित होते हैं। यहां वर्गभीमा का विशाल मंदिर आकर्षण का केंद्र है।
अट्टहास शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले के लाभपुर स्टेशन से लगभग दो किलोमीटर दूर अट्टहास स्थान पर माता का अधरोष्ठ (नीचे का होंठ) गिरा था। यहां देवी फुल्लरा के रूप में पूजी जाती हैं और शिव विश्वेश कहलाते हैं। यह स्थान शक्ति उपासना का महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता है।
नंदीपुर शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के सैंथिया स्टेशन के समीप नंदीपुर गांव में यह शक्तिपीठ स्थित है। यहां माता का गले का हार गिरा था। यहां की शक्ति नंदिनी और भैरव नंदिकेश्वर कहे जाते हैं।
रत्नावली शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में रत्नाकर नदी के तट पर यह शक्तिपीठ स्थित है। यहां माता का दाहिना कंधा गिरा था। देवी कुमारी रूप में पूजी जाती हैं और शिव भैरव कहलाते हैं। इस शक्तिपीठ को रत्नावली या देवी कुमारी पीठ भी कहा जाता है।
नलहाटी शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के नलहाटी स्टेशन के पास यह पीठ स्थित है। यहां माता के पैर की हड्डी गिरी थी। यहां देवी कालिका रूप में पूजी जाती हैं और भैरव योगेश कहलाते हैं।

नवरात्रि विशेष : भारत की 5 दिव्य गुफाएं जहां होते हैं माता के अद्भुत दर्शन

हिंदू धर्म में शारदीय नवरात्रि का पर्व अत्यंत धूमधाम और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस नौ दिवसीय उत्सव के दौरान भक्त मां दुर्गा के नौ विभिन्न रूपों की पूजा-अर्चना करते हैं और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। नवरात्रि में हर मंदिर और गली-मोहल्लों में माता रानी के जयकारों की गूंज सुनाई देती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भारत में कुछ पवित्र गुफाएं ऐसी हैं, जहां नवरात्रि के समय मां दुर्गा प्रकट होती हैं या अपनी दिव्य ऊर्जा से भक्तों को आशीर्वाद देती हैं। ये गुफाएं शक्ति पीठों से जुड़ी हैं और लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करती हैं। आइए जानते हैं भारत की ऐसी 5 प्रमुख गुफाओं के बारे में, जहां नवरात्रि में मां दुर्गा के दर्शन होते हैं।

1. वैष्णो देवी गुफा – जम्मू और कश्मीर

त्रिकुटा पर्वत की ऊँचाइयों में स्थित यह गुफा माता वैष्णो देवी का अत्यंत पवित्र धाम है। यहां मां की तीन पिंडियां – महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती – विराजमान हैं। मान्यता है कि नवरात्रि और अन्य शुभ अवसरों पर माता भक्तों को दर्शन देकर आशीर्वाद प्रदान करती हैं। गर्भगृह (मुख्य गुफा) तक पहुँचने के लिए श्रद्धालु लगभग 12 किलोमीटर की तीर्थयात्रा करते हैं, जो पैदल यात्रा के लिए चुनौतीपूर्ण लेकिन आध्यात्मिक अनुभव से भरपूर होती है। यात्रा के दौरान भक्तों को रास्ते में अनेक मंदिर, धाम और प्राकृतिक झरने देखने को मिलते हैं। माता के दर्शन के पश्चात भक्तों का अनुभव इतना दिव्य होता है कि लोग इसे जीवन का अविस्मरणीय अनुभव मानते हैं। वैष्णो देवी गुफा सिर्फ नवरात्रि में ही नहीं, बल्कि पूरे साल श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है।

2. कामाख्या गुफा मंदिर – असम, गुवाहाटी

नीलाचल पर्वत पर स्थित यह गुप्त गुफा शक्ति और तांत्रिक रूपों का अद्भुत केंद्र है। यहां मां कामाख्या की पूजा उनके योनि रूप में की जाती है, मूर्ति के रूप में नहीं। अम्बुबाची मेला (जून) के अलावा नवरात्रि के दौरान भी भक्त यहां आते हैं। मान्यता है कि गुफा में देवी कामाख्या की दिव्य ऊर्जा न केवल महिलाओं के जीवन में बल देती है बल्कि पुरुषों और बच्चों को भी सुरक्षा और समृद्धि प्रदान करती है। गुफा के भीतर की गहराई और रहस्यमय वातावरण श्रद्धालुओं को आध्यात्मिक रूप से जोड़ता है। यहां आने वाले भक्तों का अनुभव अक्सर इतना दिव्य होता है कि लोग इसे जीवन की उच्चतम आध्यात्मिक यात्रा मानते हैं।

3. हरसिद्धि माता गुफा मंदिर – गुजरात, पोरबंदर के पास

द्वारका से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह गुफा मां हरसिद्धि को समर्पित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान कृष्ण ने यहीं मां की पूजा की थी। नवरात्रि में श्रद्धालु यहां माता के अद्भुत रूपों के दर्शन के लिए आते हैं। गुफा में मौजूद ऊर्जा इतनी प्रबल मानी जाती है कि भक्तों का मन और आत्मा दोनों ही शुद्ध हो जाते हैं। यहां का वातावरण शांत और आध्यात्मिक है, और नवरात्रि के समय विशेष पूजन, भजन और आरती के आयोजन होते हैं। यात्रा के दौरान आसपास की प्राकृतिक सुंदरता, हरियाली और समुद्र के नज़ारे भी श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

4. अंबाजी गुफा – गुजरात-राजस्थान सीमा

51 शक्ति पीठों में शामिल अंबाजी मंदिर की यह गुफा अत्यंत पवित्र मानी जाती है। यहां माता की पूजा यंत्र रूप में की जाती है और कोई मूर्ति नहीं रखी गई है। नवरात्रि के दौरान गरबा और डांडिया की रंगीन रौनक के बीच लाखों भक्त दर्शन के लिए आते हैं। मान्यता है कि इस गुफा में माता की उपस्थिति महसूस होती है और यहां होने वाले भक्ति कार्य जीवन में सुख, समृद्धि और शांति लाते हैं। गुफा के भीतर का वातावरण इतना दिव्य और शांत है कि भक्त यहां घंटों बैठकर ध्यान, भजन और आरती करते हैं। इसके अतिरिक्त, आसपास की पहाड़ियाँ और प्राकृतिक झरने यात्रियों को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अनुभव से जोड़ते हैं।

5. ज्वाला देवी गुफा – हिमाचल प्रदेश, कांगड़ा

हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी में स्थित यह गुफा अपनी प्राकृतिक अग्नि ज्वालाओं के लिए प्रसिद्ध है। यहां मूर्ति के बजाय पृथ्वी की गहराइयों से निकलती ज्वालाओं की पूजा होती है। 51 शक्तिपीठों में से एक के रूप में यह गुफा श्रद्धालुओं के लिए विशेष महत्व रखती है। नवरात्रि में यहां आने वाले भक्त देवी की ऊर्जा का अनुभव करते हैं और अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति की प्रार्थना करते हैं। गुफा के चारों ओर हरियाली, पहाड़ों की छाँव और ठंडी हवा यात्रियों के अनुभव को और अधिक आध्यात्मिक बनाती है। मान्यता है कि ज्वाला देवी की कृपा से जीवन में संकट दूर होते हैं और मानसिक शांति मिलती है।

(स्रोत – लाइफ बेरी डॉट कॉम)