Monday, April 21, 2025
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पीएम ने युवाओं से की राजनीति में आने की अपील

नयी दिल्ली । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से युवाओं से खास खास अपील करते हुए राजनीति में आने को कहा। उन्होंने एक लाख युवाओं को राजनीति में जन प्रतिनिधियों के रूप में लाने का आह्वान किया, विशेष रूप से उन परिवारों के युवाओं को, जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि न हो। उन्होंने कहा कि इस कदम से जातिवाद और वंशवाद की राजनीति को समाप्त करने में भी मदद मिलेगी।
78वें स्वंतत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से देशवासियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे युवा जरूरी नहीं कि एक ही पार्टी में शामिल हों, वे अपनी पसंद की किसी भी पार्टी में शामिल हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि देश में राजनीति के क्षेत्र में, हम एक लाख जनप्रतिनिधि चाहते हैं। हम एक लाख ऐसे युवाओं को जोड़ना चाहते हैं जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है। मोदी ने कहा कि उनके माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, भतीजे किसी भी पीढ़ी में राजनीति में कभी नहीं रहे हैं। ऐसे प्रतिभाशाली युवा, नया खून। और, चाहे वह पंचायत, नगरपालिका के लिए हों, जिला परिषद के लिए हों या विधानसभा के लिए हों या लोकसभा के लिए हों। उस परिवार की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं होनी चाहिए ताकि जातिवाद और वंशवाद की राजनीति से छुटकारा मिल सके।”
प्रधानमंत्री ने कहा कि यह कदम नए विचारों और क्षमताओं के साथ राजनीति में ‘नया खून’ लाएगा। उन्होंने कहा कि जब 40 करोड़ देशवासी गुलामी की जंजीरों को तोड़कर देश को आजाद कर सकते हैं तो आज 140 करोड़ ‘परिवारजन’ इसी भाव से समृद्ध भारत भी बना सकते हैं।
उन्होंने कहा कि ‘विकसित भारत 2047’ सिर्फ भाषण के शब्द नहीं हैं बल्कि इसके पीछे कठोर परिश्रम जारी है और देश के सामान्य जन से सुझाव लिए जा रहे हैं। आजादी के आंदोलन में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्होंने देशवासियों को स्वतंत्रता की सांस लेने का सौभाग्य दिया है और यह देश उनका ऋणी रहेगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि आज यह समय है देश के लिए जीने की प्रतिबद्धता का और अगर देश के लिए मरने की प्रतिबद्धता आजादी दिला सकती है तो देश के लिए जीने की प्रतिबद्धता समृद्ध भारत भी बना सकती है। प्रधानमंत्री ने इस बात पर प्रसन्नता जताई कि देश के करोड़ों नागरिकों ने विकसित भारत के लिए अनगिनत सुझाव दिए हैं और इसमें हर देशवासी का सपना उसमें प्रतिबिंबित हो रहा है, हर देशवासी का संकल्प झलकता है। प्रधानमंत्री ने जातिवाद और भाई-भतीजावाद से भारतीय राजनीति को मुक्त करने के लिए अपने जोर को दोहराया।

15 अगस्त की रात आजादी मिलने के बाद सेंट्रल हॉल में सबसे पहले बजाया गया था शंख

नयी दिल्ली । 14 अगस्त 1947 की आधी रात को संसद के सेंट्रल हॉल में देश के सभी बड़ी शख्सियत और नेता एकजुट थे 12 बजने से 5 मिनट पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू ने खड़े होकर अपना भाषण शुरू किया था. उनके भाषण के कुछ मिनटों बाद जैसे ही घड़ी की सुई 12 पर पहुंची थी, सेंट्रल हॉल में आजादी का शंखनाद शुरू हो गया था। बता दें शंख वो पहला वाद्य यंत्र था, जो आजादी के मौके पर सबसे पहले सेंट्रल हॉल में बजाया गया था। इसके बाद सेंट्रल हॉल में मौजूद लोग एक-दूसरे के गले लगकर बधाईयां दे रहे थे।
सेंट्रल हॉल में सभी लोग एक दूसरे से मिलकर आजादी की बधाईयां दे रहे थे. उस वक्त बधाइयों का दौर जारी ही था, लेकिन सुचेता कृपलानी खड़े होकर सबसे पहले अल्लामा इकबाल का गीत सारे जहां से अच्छा गया और फिर बंकिम चंद्र चटर्जी का वंदे मातरम गाया था। बता दें कि 60 के दशक में उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री भी सुचेता कृपलानी बनी थी। सुचेता कृपलानी भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख महिला चेहरा थी. इसके अलावा वह देश की पहली महिला मुख्यमंत्री भी थीं। उनका जन्म 25 जून 1908 को हरियाणा में हुआ था। उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी. उन्होंने लाहौर और दिल्ली में अपनी शिक्षा पूरी की थी। सुचेता कृपलानी ने महात्मा गांधी के साथ मिलकर भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था और कई बार जेल गई थीं। वह कांग्रेस पार्टी की बड़ी महिला नेता थीं और उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा दिया था। स्वतंत्रता के बाद सुचेता कृपलानी भारत की संविधान सभा की सदस्य भी बनी थीं। वहीं साल 1963 में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने के साथ ही वह स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री के नाम पर दर्ज हो गया था।1 दिसंबर 1974 को सुचेता कृपलानी का निधन हो गया था।

याचना नहीं, अब रण होगा….

सुषमा त्रिपाठी कनुप्रिया

जस्टिस फॉर निर्भया..
जस्टिस फॉर पार्क स्ट्रीट
जस्टिस फॉर कामदुनी..
जस्टिस फॉर संदेशखाली..
अब
जस्टिस फॉर आर जी कर

क्या हम जस्टिस ही मांगते रहेंगे। आंखें खोलिए क्योंकि अपराधियों को बचाने वाली और स्त्री का चरित्र हनन करने वाली भी खुद स्त्रियां ही हैं..इस राज्य की मुख्यमंत्री भी एक स्त्री ही है….हमारे आपके घरों में अपराधियों को बढ़ाने और बचाने वाली भी स्त्री है जो दुष्कर्म करने वाले अपने बेटे..पति …पिता या भाई को गर्म रोटियां बनाकर खिला रही होती है…इनका बचाव कर रही होती है..। पूरा सिस्टम अपराधियों को बचा रहा है…परिवारों में…दफ्तरों में…समाज में बचा रहा है…हमारी लड़ाई सिर्फ अपराधी से नहीं पूरे सिस्टम से होनी चाहिए….जो अपराधी को बचाए…बहिष्कार उनका कीजिए…वर्ना पत्ते उखाड़ कर कोई लाभ नहीं…। एक रात को सड़क पर उतरिए पर ये काफी नहीं…इस कार्य संस्कृति में महिलाओं के हस्तक्षेप की सख्त जरूरत है…। आज जब लिख रही हूँ तो अन्दर से कुछ टूट रहा है और कुछ खौल भी रहा है..। पत्रकारिता के क्षेत्र में जब कदम रखा था तो एक स्कूली छात्रा से दुष्कर्म व हत्या का मामला सामने था। इसी को लेकर रिपोर्टिंग की शुरुआत हुई। तब अलीपुर सेंट्रल जेल में 14 अगस्त 2004 में धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई थी। चटर्जी ने 14 वर्षीय हेतल पारिख के साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी थी। इसके बाद 2012 में निर्भया कांड सामने आया जिसने पूरे देश को हिला दिया। स्थिति ऐसी हो गयी थी कि जब भी किसी पुरुष को देखती, अनायास ही क्रोध उमड़ जाता। उस दौरान न चाहते हुए बहुतों से उलझ पड़ती थी। निराशा, खीझ, हताशा…का यह दौर रुका नहीं….देश में अलग – अलग जगहों पर इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं। पार्क स्ट्राट कांड जब हुआ तो उस महिला के चरित्र की छीछालेदर करने वाले खड़े हो गये…यह कहा गया रात को घूमने वाली, नशा करने वाली महिला थी, उसके साथ यही होना था। इसके बाद कामदुनी कांड और फिर रूह कंपा देने वाले संदेशखाली कांड का उजागर होना और उस पर हो रही राजनीति ने मन में वितृष्णा भर दी। खुद अपने साथ और अपने आस- पास इस तरह का व्यवहार देखा और मन में खटास तब भर आती है जब अपराधियों की सामाजिक प्रतिष्ठा पर कोई असर नहीं पड़ता, परिवार में उनकी जगह जस की तस बनी रहती है। उनकी हिफाजत के लिए घर की ही स्त्रियां ध्वज लेकर खड़ी होती हैं और जिसने सहा है, चरित्र हनन उसी का किया जाता है। 20 साल के पत्रकारिता के कॅरियर में आने से पहले भी महिला उत्पीड़न और उससे जुड़े दोगलेपन को जीने के बाद अनुभवों का दायरा बहुत विस्तृत हो गया है। आखिर कब तक हम अपने हिस्से की आजादी खैरात की तरह लेते रहेंगे? क्यों बांधती हो ऐसे भाइयों की कलाई पर राखी, जिनको राखी बांधना ही रक्षाबंधन की पवित्रता को गाली देना है। बचपन से ही पिता, भाई और बाद में पति व बेटे से मार खाते, गालियां सहते हुए यही विरासत छोड़ते हुए क्या लज्जा नहीं आती तुम्हें? पुरातन पीढ़ी और आज की पीढ़ी की लड़कियां आजादी के नाम पर हो -हल्ला तो खूब मचा रही हैं मगर क्या उनको आजादी का सही अर्थ पता है? गुड़िया बनकर किसी को जब आप रिझाने चलती हैं..वहीं आपकी आजादी खत्म हो जाती है और दूसरी लडकियों के लिए आप एक घिनौनी राह विरासत में देती हैं…यही बात लड़कों के लिए है…कोई जरूरत नहीं किसी के लिए अपनी अच्छाई और सादगी को छोड़ने की
असली साहस और बोल्ड होना…हर उस प्रस्ताव को डंके की चोट पर खारिज करना है जो आपकी गरिमा को चोट पहुंचाता हो…न करना सीखो…भले ही इसके बाद घर और बाहर तुम्हारी जिंदगी नर्क बना दी जाये…मगर तुम खुद को बचा ले जाओगे…ये कठिन है..असंभव नहीं है…ऐसे लोगों को झाड़ना सीखो और सबसे सामने झाड़ दो…घुटना नहीं नहीं है…अगर किसी बेवड़े या अपराधी के साथ हो…सीधे बहिष्कार करो । जो नशे में खुद को नहीं सम्भाल सकता वो किसी को क्या सुरक्षा देगा या देगी? जिसे अपने कपड़ों का होश नहीं..वो तुम्हारी गरिमा को क्या मान देगा या देगी? जो व्यक्ति अपने घर को छोड़कर तुमसे प्रेम का दावा कर रहा/रही है…किसी और के आने पर तुमको नहीं छोड़ेगा…इसकी क्या गारन्टी है??
रिश्ते निभाने के लिए आदर और स्नेह काफी है…इससे ज्यादा की तो जरूरत ही नहीं. .प्यार करना है..खुद से करो. ..अपने आत्मसम्मान से..अपने भविष्य से. ..अपनी रुचियों से. .अपने लक्ष्य से..अपनी किताबों से..
अपने दोस्तों से करो. ..तुम्हारे लिए सबसे बड़ा संबल तुम खुद हो. ..क्योंकि हर बार तुम्हारे जीवन का युद्ध खुद तुमको लड़ना है…तुम्हारा सबसे बड़ा सहारा. ..सबसे बड़ी शक्ति तुम खुद हो और वो जो ऊपर है. ..वही है. .सारथी उसे बनाओ. ..रास्ते खुद ही खुल जायेंगे । लडकियों रक्षा बंधन आ रहा है और ये तुम ही कर सकती हो….अगर तुम्हारे भाई ऐसे हैं तो दूसरी बहनों के बारे में सोचो और अपने साथ उनकी भी सुरक्षा का वचन लो…लड़के भी ऐसा ही करें…जो गलत राह पर जाने से रोके…असली संबंध वही है…हर गलत को न कह सको …असली आज़ादी..असली साहस वही है पर इसकी शुरुआत खुद से होगी । पहले आजादी का मतलब समझो और समझाओ ।
आखिर इतनी नृशंसता आती कहां से है? ये कौन से संस्कार परवरिश के नाम पर बच्चों को दिए जा रहे हैं जहाँ भटकाव के अतिरिक्त कुछ नहीं। क्या शराबखोरी को महिमामंडित करके आप अपराध कम कर सकते हैं? क्या मां – बहनों के नाम की गाली देकर आप समाज में स्त्री स्वाधीनता को प्रतिष्ठित कर सकते हैं? ऐसा क्यों है कि हर एक स्त्री आपके लिए सिर्फ एक देह बनकर रह जाती है? स्वाधीनता दिवस का उत्सव सारा देश मना रहा है मगर उत्सव जैसा कुछ लगे तब तो हम उत्सव मनाएं। क्या 15 अगस्त और 26 जनवरी पर झंडा फहराकर और दो – चार देशभक्ति गीत गा लेना ही स्वाधीनता का मतलब रह गया है।
इस देश में माताओं को बड़ा आदर दिया जाता है, जरा माताएं पूछें खुद से कि अपने बेटों को कैसे संस्कार दे रही हैं ? क्या परवरिश का मतलब प्यार में अंधा होकर समाज को अपराधी देना भर रह गया है? क्या आप अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पा रही हैं और अगर नहीं कर पा रही हैं तो आपको सम्मान मिलना ही क्यों चाहिए? क्या मुफ्तखोर संस्कृति हम पर इतनी भारी है कि हम सच को सच कहने का साहस नहीं जुटा पा रहे ..क्या यही वह बंगाल है जहां प्रीतिलता वादेदर, बाघा जतीन, खुदीराम बोस, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने जन्म लिया ? क्या कैसा बंगाल है जो अपने पूर्वजों के अपमान पर चन्द रुपयों के लालच में चुप्पी साधे रहा । हम सब जानते हैं कि संदेशखाली में किस तरह की बर्बरता की गयी, सब जानते हैं कि किस प्रकार वहाँ पर गुंडों ने आतंक मचाया…क्या यह वही ममता हैं जो तापसी मलिक की लाश लेकर राजनीति करती रही हैं। निर्भया कांड में सवाल उठे कि रात को वह क्या कर रही थी, पार्क स्ट्रीट में इस सवाल के साथ चरित्र हनन भी जोड़ दिया गया। सब जानते हैं कि आरजी कर कांड में सत्ता का वरदहस्त प्राप्त अपराधी शामिल हैं मगर कोई कुछ नहीं कह रहा है, सबके मुंह पर ताले पड़ गये हैं ।
आरजी कर मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में महिला डॉक्टर के साथ हुई हैवानियत का सच सामने आ गया है। यहां चेस्ट विभाग में पीजी के दूसरे साल की छात्रा का शव सेमिनार हॉल में मिला था।शव को देखते हुए दुष्कर्म के बाद हत्या की आशंका जताई गई थी और पोस्टमार्टम रिपोर्ट में इसकी पुष्टि हुई है। रिपोर्ट में सामने आया है कि गला घोंटकर महिला की हत्या की गई। इस दौरान लगातार उसका मुंह और गला दबाए रखा ताकि उसकी आवाज न निकले। इसी वजह से महिला के गले की हड्डी भी टूट गई। चार पन्ने की रिपोर्ट में बताया गया है कि महिला के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध जबरन बनाए गए। इसी वजह से उसके प्राइवेट पार्ट्स से खून निकल रहा था। महिला डॉक्टर की हत्या और दुष्कर्म 9 अगस्त को तड़के 3 बजे से 5 बजे के बीच हुआ था। आरोपी ने महिला का मुंह और नाक बंद करके उसका सिर दीवार से सटा दिया ताकि वह चीख चिल्ला न सके। महिला के चेहरे पर खरोंच के निशान हैं, जो आरोपी के नाखूनों से बने हैं। इससे साफ होता है कि महिला ने खुद को बचाने और लड़ने की पूरी कोशिश की थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि महिला की दोनों आखों, मुंह और प्राइवेट पार्ट से खून निकल रहा था। हालांकि, आंखों से खून निकलने की वजह पोस्टमार्टम में नहीं पता चल पाई है। आरोपी ने स्वीकार किया है कि वह बॉक्सर रह चुका है और जब उसने महिला के चेहरे पर मुक्का मारा तो चश्मे का कांच उसकी आंखों में चला गया। इसी वजह से आंख से खून निकला था। आरोपी अस्पताल में ही काम करता था। उसके पास सभी विभागों में आने-जाने की अनुमति थी। सीसीटीवी फुटेज में वह सुबह 4 बजे सेमिनार हॉल में जाता दिखा था। इसके बाद पुलिस ने उसे गिरफ्तार करके पूछताछ की। महिला के शव के पास ब्लूटूथ इयरफोन भी मिले थे, जो आरोपी के फोन से कनेक्ट हो गए। ऐसे में पुलिस का शक यकीन में बदल गया। आरोपी ने भी दुष्कर्म और हत्या की बात स्वीकार की है। हाईकोर्ट ने मामले की जांच सीबीआई को सौंप भले दी हो मगर सबूतों को मिटाने का प्रयास आरम्भ हो गया है। वैसे भी सीबीआई के पास पहले से ही इतने मामले हैं..एक के बाद एक मामले जुड़ते रहेंगे पर क्या इससे कोई ठोस समाधान निकलेगा? कल्पना कीजिए कि देश के सुदूर देहात में क्या स्थिति होगी और वहां की मीडिया के लिए काम करना कितना कठिन होगा..एक अजीब सी घुटन और एक अजीब सी संड़ाध इस पूरे वातावरण में है…
क्या अपने सम्मान..अस्तित्व की रक्षा करते हुए आगे बढ़ना क्या इतना बड़ा अपराध है कि बार – बार हर जगह लड़कियों को औकात ही दिखाई जाती रहती है? क्या एक स्वस्थ समाज की रचना और उसे सहेजना इतना कठिन है कि हम आने वाली पीढ़ी को कुछ दे ही न सकें। क्यों नहीं ..स्त्री – पुरुष एक दूसरे की उपस्थिति को सम्मान दे पा रहे हैं। आजादी के बीच आजादी का सही अर्थ तलाशने की जरूरत है कि हम भारतीय होने के नाते आने वाली पीढ़ी को एक सशक्त भारत दे सकें।

लंगड़ी दुनिया और हम

डॉ. विजया सिंह

शुक्रवार (9 अगस्त) को कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की पोस्ट ग्रैजुएशन कर रही महिला ट्रेनी डॉक्टर की रेप के बाद नृशंस हत्या कर दी गई। समय गुजरने के साथ ऐसे ब्यौरे सामने आ रहे है कि मन अस्थिर और भयाकुल हो रहा है। जीवन में आगे बढ़नेवाली, संघर्ष करनेवाली नई युवा पीढ़ी की लड़कियों के लिए समाज का यह चेहरा खौफ़ज़दा करने वाला है। हम जानना चाहते हैं कि क्या ये दुनिया हमारी नही है? आगे बढ़ने की महत्वाकांछा, आनंद करने के मौके और खुश रह कर गुजारा जानेवाला समय, अच्छे दोस्त और बेहतर मानसिकता क्या इतनी मुश्किल है? दुख होता है कहते हुए, किंतु भारतीय समाज में ये आज भी सच है जहां हर कोई ऐरा -गैरा जब चाहे लड़कियों को साइज़ कर देने के उपक्रम में रहता है। हालत यह है कि जितनी लड़कियां आगे आ रही है ऐसे लोगों की असुरक्षा बढ़ रही है, वे तेजी से सनक रहे है, बीमार हो रहे है , हिंसक और अत्याचारी भी। ऐसी गैरवाजिब आक्रामकता वैयक्तिक, पारिवारिक, सांस्थानिक और सामाजिक ही नहीं मानसिक भी है। अच्छे पढ़ें लिखे भले मानुषों से भी हमारा पाला पड़ता है जो स्त्री पुरुष के मध्य स्पष्टतः सार्वजनिक और वैयक्तिक भेद को स्वीकार करते हैं। इनका मानना है कि अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए स्त्री को स्वतः उन सब कार्यों, भूमिकाओं और आनंद की जगहों से दूर हो जाना चाहिए जहां लेशमात्र भी खतरे की भनक हो। न तो ये दुनिया बदलेगी और न ही पुरुष। यानी स्त्री की सुरक्षा उसकी प्रत्युत्पन्न मति और खतरे को कोसों दूर से सूंघ लेने वाले विवेक पर आधारित है।
ऐसी ही बेहद केयरफुल किंतु बैसाखी युक्त बातों ने स्त्रियों का साथ न देकर उनका नुकसान किया है। पहली बात, यहां स्त्री की निजी इच्छा और आकांछा का कोई मोल नहीं दिखता। स्त्री को पहले हाड़ मांस के मनुष्य के रूप में देखे तभी उनके प्रति न्याय और सम्मान की बात हो पाएगी। दूसरी बात, कि क्या यह दुनिया अकेले किसी एक लिंग, जाति या वर्ग की है? नहीं, इस पर सबका समान अधिकार है, तो औरतों को भी अपने अधिकार की जमीन, खुला आकाश और मुक्त हवा मिलनी चाहिए। यहां उसके होने, न होने या कितना होने की शर्तों को लागू करने का अधिकार किसी को नहीं है। केयर और प्यार के नाम पर उसे श्रृंखलाएं नहीं खुला, स्वस्थ स्पेस चाहिए।
इसी से जुड़ा एक अनुभव साझा करना चाहूंगी। एक शॉर्ट विडियो से मेरा भी साबका पड़ा। मित्र ने दिखाया कि किसी गेम का हिस्सा बनी लड़की की सहायता के लिए वहां उपस्थित दो वॉलिंटियर्स में से एक जब उसे ऊपर उठाता है तो वह उसे गलत तरीके से छूता है। यह काम वह इतनी सहजता और क्षिप्रता से करता है कि खेल की गति में लड़की को इसका आभास भी नहीं हो पाता कि उसके साथ कोई ऐसी अवांछित हरकत की गई है। यह सब कुछ बाकायदा वीडियो रिकॉर्डिंग में दर्ज होता जाता है। यहां मेरी मित्र का कहना है कि ऐसी जगह पर लड़कियों को जाना ही नहीं चाहिए या उनकी हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यहां सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं है। ऐसी बातें हैं निश्चित रूप से काफी बेचैन करने वाली है कि क्या दुनिया, दुनिया की विविधता, खेल,मनोरंजन आनंद, ज्ञान, आर्थिक उपार्जन के अवसर क्या स्त्रियों के लिए नहीं हैं? क्या संसार, साधन और अवसर एक ध्रुवीय हैं? क्या वहां हम स्त्रियों की कोई हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए क्योंकि हमेशा वहां कुछ ऐसे पुरुष मौजूद होंगे जो उन स्थितियों का फायदा लेकर औरतों के साथ अनुचित व्यवहार करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ेंगे। ऐसी अर्द्ध विकसित लंगड़ी दुनिया लेकर हम क्या करेंगे? ऐसे में तो पार्क, सड़कें, स्कूल, कॉलेज, बाजार, यात्रा, अस्पताल, मॉल, फिल्म …सबसे औरतें वंचित रह जाएंगी और ये सब तो होने से रहा। यहां दिक्कतलब ऐसी मानसिकता है जो सुरक्षा के नाम पर बार बार महिलाओं को बंदी बनाना चाहती है। नया जागरूक समाज ही समाज के लंपट तत्त्वों के खिलाफ खड़ा हो सकता है। यह मानसिकता अंततः लड़की को जिम्मेदार मानती है। इससे लंपट लोगों की हौसला अफजाई होती है और यह कतई उचित नहीं है।
तीसरी और बेहद ख़ास बात कि दृश्य श्रव्य माध्यमों में सॉफ्ट पोर्न के रूप में जो जहर परोसा जा रहा है, उसके कारण लड़कियां ही नहीं लड़के भी असुरक्षित हुए है। तयशुदा लिंगीय अस्मिता से इतर लोगों का जीना मुश्किल हुआ है। यानी संकट के घेरे में केवल लड़कियां ही नहीं और भी समूह आ गए है क्योंकि कुछ लोगों के लिए ये मनुष्य नहीं मनोरंजन के औजार हैं। यूज़ एंड थ्रो की नीति ही यहां सर्वोत्तम है। सॉफ्ट पोर्न के लगातार अबाधित प्रस्तुतीकरण ने इसे न केवल सहज बल्कि जायज़ जैसा बना दिया है।
स्थितियां आसान नहीं कठिन हुई हैं। काम और हिंसा के कोहरे में आनंद लेता भटकता बेसुध समाज अपने ही नागरिकों की बलि ले रहा है। समाज की सनक और पागलपन से परे लड़कियों ने अपने पंख खोल लिए है। उन्हें पता है कि जो कुछ आसान नहीं, उसका इलाज संघर्ष और विरोध है। उन्हें इस मुश्किल का जवाब लक्ष्य के प्रति अपने जुनून से देना है। इस कुरूप हो आई दुनिया के ज़ख्मों पर मलहम लगाना है। इसे जीने लायक बनाना है।

कार्यस्थल पर जेंडर समानता एक मिथक है

शिवांशी तनु
जी, आपने सही सुना है, किसी भी प्रोफेशन में लड़कियां सुरक्षित नहीं होती हैं। न मेडिकल, न मीडिया, न ही किसी भी और प्रोफेशन में। पर ज्यादातर समय लड़कों को बहुत ज्यादा परेशानी नहीं होती (हां, कुछ मामले ऐसे भी जरूर हुए है या होते हैं जब एक लड़के को भी उतनी ही या उस तरह की समस्याएं झेलनी पड़ती है, जितनी किसी लड़की को)
वेतन के लिहाज से तो समानता होती ही नहीं है… क्योंकि लड़कों को तो घर चलाना होता है.. इसलिए उन्हें ज्यादा और टाइम पर सैलरी दी जाती है (पर्सनल एक्सपीरियंस है भई)
सेक्सुअल हैरेसमेंट… काम करना है तो बर्दाश्त करना सीखो… और अगर किसी से शिकायत भी कर दिए तो ये भी सुनने के लिए तैयार रहो कि लड़की ने ही प्रोवोक किया था… अगर एक्शन लिया गया तो ये सुनो कि लड़की ने उस लड़के का कॅरियर बर्बाद कर दिया।
पर इन सब में क्या किसी ने कभी भी उस लड़की के बारे में सोचा, जो रात दिन एक करके लड़कों के बराबर काम करती है या शायद कभी लड़कों से भी ज्यादा। क्योंकि जब एक लड़की अपने प्रोफेशन लाइफ में काम करने आती है तब वो ये भूल जाती है कि वो लड़की है… उसकी लिमिट्स क्या है…वो कितनी देर या कौन सा काम कर सकती है। एक लड़की सिर्फ अपना 100% देकर काम करती है।
और सेक्सुअल हैरेसमेंट, तो जनाब जब आप अपने ऊपर किसी और का हुकुम चलाना पसंद नहीं करते तो एक लड़की को उसकी मर्जी के बिना छूने की हिम्मत कैसे कर लेते हैं?

हमारी आज़ादी भी मुकम्मल हो जाएगी, अगर

डॉ. आनंद श्रीवास्तव

आज़ादी, कहने को 78 साल गुजर गये हैं, हमारे देशभक्तों के द्वारा दिए गए बलिदान और उस बलिदान के बदले मिली आज़ादी को‌ । हमने आंखों में स्वतंत्रता के सपने भरकर जीवन के एक पूरे पहलू को काट लिया है । स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व की भीत पर खड़ी आज़ादी का मूल मंत्र हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा और सुरक्षा भरा आत्मविश्वास रहा है। आज वर्ष 2024 में ऐसा लगता है कि आज़ादी का पुनर्मूल्यांकन जरूरी है। हम वास्तव में आज़ाद हुए हैं भी या नहीं? मानवीय मूल्यों की सुरक्षा क्या सचमुच बची हुई है? वर्षों से हमने सुना है कि हम स्वतंत्र हैं पर क्यों महसूस नहीं कर पाते हैं हमलोग इस स्वतंत्रता को? दलतंत्र और नेता तंत्र ने आज़ादी को एजेंडा बना लिया है। आज हर कार्यक्रम के केंद्र में दलगत प्रचार सम्मिलित है पर केंद्र में राष्ट्रहित की अपेक्षा दलगत हित ही सर्वोपरि है। राजनेता जो आज़ादी दिखाते हैं, यह उनकी दृष्टि है, हमने जब स्वयं को केन्द्र में रखकर सोचा तो पता चला हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां अभिव्यक्ति कीआज़ादी भी सम्भव नहीं है, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है । इतिहास गवाह है कि अभिव्यक्ति पर मौन के पहरे पहले भी बैठाएं गए हैं। आज़ादी के 78 साल बाद भारत की जनता को क्या मिला है ? बेरोज़गारी,असुरक्षा, तिरस्कार, अपमान, शोषण, उत्पीड़न ने ही अपने पैर पसारा है। धर्म निरपेक्ष होकर भी हम धर्म के नाम पर लड़ते हैं, बहुभाषी समाज का हिस्सा होकर भी भाषा -विवाद में फंसे हैं, नौकरशाही ने हमें गुलाम बना रखा है। प्रगतिशीलता के नाम पर हम और अधिक नंगे और अधिक खोख़ले ही हुए हैं। हम विवाद कर सकते हैं पर समाधान नहीं निकाल सकते क्योंकि समाधान हमारे अधिकार से परे है। युवा पीढ़ी शिक्षित बेरोज़गारी की शिकार हैं । उनको दया की भीख दिखाकर राजनीति के दलदल में खींचने की कोशिश की जाती है और वे फंसते भी हैं। यही वजह है कि एक मानसिक बेचैनी और अवसाद से घिरी युवा पीढ़ी न्याय और अन्याय के बीच का फर्क भूल जाती हैं। हमारे नेता सभाओं से कहते हैं कि हम नागरिकों को मुफ़्त राशन दे रहे हैं, प्रश्न तो यह है कि अगर हमारा देश प्रगति करता तो जनता इतनी सफल होती कि उसे मुफ़्त की जरूरत ही ना पड़ती। हम ए. आई तकनीक की बात करते हैं और राशन मुफ़्त में चाहिए। वोटबैंक की राजनीति ऐसी है कि हम अपने मौलिक अधिकारों को बेच देते हैं चंद रुपये की लालसा (जो नेताओं के द्वारा दान के रूप में दी जाती है) ने हमारे विवेक को निगल लिया है। हम उचित-अनुचित तक पहुंचना ही नहीं चाहते। हत्या, अपराध और तो और जहां बलात्कार पर भी राजनीति होती है, वहां हम किस आज़ादी की बात करते  हैं । चोरी दलाली ने सबकुछ अपने नाम कर लिया है। बलात्कार पर भी बोली लगती है, दलगत राजनीति  के लिए बलात्कार भी एजेंडा बनाया जाता है । क्या ऐसे असुरक्षित समाज की परिकल्पना के साथ हमलोग बड़े हुए थे? नहीं हमने तो सुरक्षा भाव को ही जीवन का अभिन्न अंग माना था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति ने भारत में कब़्जा जरूर किया था पर उनसे चुनौती देने के क्रम में हमने अपने विवेक और विचारों को जगाया था।हम शिक्षित और संगठित बने थे, इतने भटकाव के शिकार तो हम तब नहीं थे जब भारत की जनता को आज़ादी का मूल मंत्र तक पता नहीं था। आज़ादी की लड़ाई में जाति, धर्म और भाषा की दीवार नहीं थी पर आज़ाद मुल्क पर इस विभाजन का पहरा है। मुक्ति की आकांक्षा सबमें है पर पंख काटकर उड़ान भरने की कला नहीं सिखाईं जा सकती,कबीले से राज्य और राज्य से राष्ट्र बने कई वर्ष बीत गए पर आज भी बल सिद्धांत ज्यों का त्यों हैं, ताकतवर से लोहा लेने का साहस किसी में नहीं हैं, हम सिर्फ़ मोमबत्ती जलाकर और सोशल मीडिया पर ब्लैक डे मनाकर प्रतिवाद कर अपने को संतुष्ट कर लेते हैं। मेरा सवाल उन नेताओं से है जो चुनाव के दौरान दरवाज़े – दरवाज़े घूमकर वोट मांगते वक्त हमारी सुरक्षा का दावा करते हैं और जब कोई आपराधिक घटना घटजाती है तब उनकी भूमिका अपनी कुर्सी बचाने में लग जाती है। हरबार एक परिवार किसी अपने को खोता है और दलतंत्र उसमें अपने मुनाफे का गुणा-भाग लेकर बैठ जाता है। सोचनीय प्रश्न है कि जिस समाज में चारों ओर बौद्धिक विवाद हो रहे हैं, हाशिए और केंद्र की बात की जा रही है वहीं इतना असुरक्षित महसूस करना क्या हमें आज़ाद घोषित करता है? क्या सचमुच हम आज़ाद हैं? पता चलेगा एक खोखला स्वांग भरते हुए हम आज भी अस्तित्व की लड़ाई  लड़ रहे हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन निजी स्वार्थ की वेदी पर हर दिन बलि चढ़कर हो रहा है। शर्मसार मानवता मुंह खोलने से भी डरती है । फिर भी हम आज़ाद हैं। आत्महंता की स्थिति में हैं फिर भी हम आज़ाद हैं। पदाधिकारी नेतागण चौंकने की नहीं सोचने की जरूरत है आपके दिखाए सपने पर आस्था रखकर हम ऐसे दोराहे पर खड़े हैं जहां से ना आगे बढ़ पा रहे हैं और ना ही पीछे लौट पा रहे हैं। लोकतंत्र काअर्थ ही सुरक्षा है पर असुरक्षा और भय ने जनता को आतंक से भर दिया है । क्या ऐसी त्रासद स्थिति हमारे जनप्रतिनिधियों को नहीं दिखती । याद रहे आपके हाथों में ही आम जनता का भविष्य है, आसान नहीं भावनाओं को ठगना, आंदोलन, हड़ताल और नारे तो लगते रहेंगे पर जिस दिन हम आत्मसफल और सुरक्षित हो जाएंगे उसी दिन हमारी आज़ादी भी मुकम्मल हो जाएगी। हमारे छाता बनने के लिए ही आपको चुना गया है पर इतने छेद के साथ अगर आप हमारे सिर पर विराजेंगे तो बरसात ही हर बूंद हमें भींगाते रहेगी। समता तब भी लहुलुहान थी आज भी लहुलुहान है। हमने सिर्फ़ बंटवारे की राजनीति की है। कभी भाषा,कभी जाति,कभी धर्म के नाम पर टुकड़ों में बांटकर हमआज़ाद नहीं हो सकते।आज़ादी काअर्थ ही आत्मसुरक्षा के साथ आगे बढ़ना ।

हर एक गलत को डंके की चोट पर खारिज करना, न कहना ही असली आजादी है

ईश्वर ने रात और दिन का बँटवारा जेंडर देखकर नहीं किया…इसलिए दिन और रात सभी के हैं…। लड़कियों रात को सुरक्षा के साथ काम करना हक है तुम्हारा..छा जाओ। ये समझ में आ गया ये अपराध आगे बढ़ने वाली लडकियों को पीछे धकेलने के लिए हैं तो जितनी लड़कियां सड़क पर होंगी अंकुश उतना ही लगेगा मगर लडकियों आज़ादी का मतलब दारू पीकर बेवड़ा बनना नहीं है…अपनी देह दिखाना और खुलेआम देह में डूबना नहीं है…शॉर्टकट के लिए किसी को पटाकर प्रोमोशन पाना नहीं है. इससे आप वही कर रही हैं जो पुरुष चाहता रहा है..
गुड़िया बनकर किसी को जब आप रिझाने चलती हैं..वहीं आपकी आजादी खत्म हो जाती है और दूसरी लडकियों के लिए आप एक घिनौनी राह विरासत में देती हैं…यही बात लड़कों के लिए है…कोई जरूरत नहीं किसी के लिए अपनी अच्छाई और सादगी को छोड़ने की
असली साहस और बोल्ड होना…हर उस प्रस्ताव को डंके की चोट पर खारिज करना है जो आपकी गरिमा को चोट पहुंचाता हो…न करना सीखो…भले ही इसके बाद घर और बाहर तुम्हारी जिंदगी नर्क बना दी जाये…मगर तुम खुद को बचा ले जाओगे…ये कठिन है..असंभव नहीं है…ऐसे लोगों को झाड़ना सीखो और सबसे सामने झाड़ दो…घुटना नहीं नहीं है…अगर किसी बेवड़े या अपराधी के साथ हो…सीधे बहिष्कार करो । जो नशे में खुद को नहीं सम्भाल सकता वो किसी को क्या सुरक्षा देगा या देगी? जिसे अपने कपड़ों का होश नहीं..वो तुम्हारी गरिमा को क्या मान देगा या देगी? जो व्यक्ति अपने घर को छोड़कर तुमसे प्रेम का दावा कर रहा/रही है…किसी और के आने पर तुमको नहीं छोड़ेगा…इसकी क्या गारन्टी है??
रिश्ते निभाने के लिए आदर और स्नेह काफी है…इससे ज्यादा की तो जरूरत ही नहीं. .प्यार करना है..खुद से करो. ..अपने आत्मसम्मान से..अपने भविष्य से. ..अपनी रुचियों से. .अपने लक्ष्य से..अपनी किताबों से..अपने दोस्तों से करो. ..तुम्हारे लिए सबसे बड़ा संबल तुम खुद हो. ..क्योंकि हर बार तुम्हारे जीवन का युद्ध खुद तुमको लड़ना है…तुम्हारा सबसे बड़ा सहारा. ..सबसे बड़ी शक्ति तुम खुद हो और वो जो ऊपर है. ..वही है. .सारथी उसे बनाओ. ..रास्ते खुद ही खुल जायेंगे । लडकियों रक्षा बंधन आ रहा है और ये तुम ही कर सकती हो….अगर तुम्हारे भाई ऐसे हैं तो दूसरी बहनों के बारे में सोचो और अपने साथ उनकी भी सुरक्षा का वचन लो…लड़के भी ऐसा ही करें…जो गलत राह पर जाने से रोके…असली संबंध वही है…हर गलत को न कह सको …असली आज़ादी..असली साहस वही है पर इसकी शुरुआत खुद से होगी । पहले आजादी का मतलब समझो और समझाओ

‘ रहिमन पानी ’

डॉ. किरण सिपानी

तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिये लड़ा जाएगा, इस बात के आसार अब नज़र आने लगे हैं। बांग्लादेश, पाकिस्तान से नदी जल बंटवारे को लेकर जब-तब गर्मा–गर्मी होती रहती है। इसी तरह तिब्बत में चीन एक बहुत बड़ा बांध बना रहा है। उसके उत्तर-पूर्व में बहने वाली नदियाँ तो सुख ही जाएंगी, साथ ही अधिकतर देशों में भयंकर सुखा पड़ेगा। चीन की विस्तारवादी नीति को देखते हुए चीन इस बाँध के पानी का प्रयोग भारत में ‘पानी बम’ के रूप में कर सकता है। एकदम पानी छोड़ देने से उत्तर-पूर्व के जलमग्न होकर डूबने का खतरा है। देश के भीतर के हालात भी पानी को लेकर कम खतरनाक नहीं हैं। स्वार्थी राजनेता कुर्सी के चक्कर में क्षेत्रवाद की राजनीति करते हैं। पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, आंध्र, कर्नाटक, आदि प्रांत पानी के बंटवारे से संतुष्ट नहीं हैं । नदी जल-वितरण का कोई ऐसा सर्वमान्य ‘फॉर्मूला’ भी नहीं बनाया गया। नहर के जल से सिंचाई को लेकर किसान जब आपस में लड़ते हैं तो खून-खराबा आम बात है। वे जब आपस में लड़ते हैं तो पानी खून से महंगा हो जाता है। गर्मियों के मौसम में पीने के पानी को लेकर जैसी त्राहि-त्राहि मचती है, वह भी कोई छुपी हुई बात नहीं है। अभी भी अगर नहीं जागे तो इसका कितना मूल्य चुकाना पड़ सकता है, इसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती।

कहावत है कि दिवाला निकाला हुआ व्यापारी (बनिया) पुराने बही-खाते संभालने लगता है। यह बात यहाँ भी लागू होती है। पुराने जमाने में न तो इस भाँति नहरों के जाल थे, और न ही इतने ट्यूबवेल और न ही वाटर वर्क्स आदि। फिर आज की तरह पानी की किल्लत नहीं थी। इसका क्या कारण था ? इस बात का दुबारा चिंतन-मनन करने की जरूरत है। पहली बात तो यह है कि उन लोगों ने ‘रहिमन पानी राखिए’ के मंत्र को पूरी तरह आत्मसात कर रखा था। पानी के मामले में वे किसी सरकार पर आश्रित नहीं थे, बल्कि उनके खुद के साधन थे। वे वर्ष के पानी की एक-एक बूँद का उपयोग करना जानते थे। वर्षा की ऋतु में वे अपने लिये इतना पानी सहेज लेते थे कि आने वाले समय में इस बात की चिंता उन्हें नहीं सताती थी। घर-घर या मुहल्ले-मुहल्ले में चाहे नलें नहीं लागि हुई थी, पर जैसे कुएं, बावड़ी, जोहड़ आदि थे, वे सार्वजनिक थे और उनका ध्यान भी सब लोग रखा करते थे। कुएं, जोहड़, बावड़ी आदि के पास गंदगी फैलाना पाप और दंडनीय अपराध था। आजादी  के बाद जब सरकार ने लोगों को पानी की सुविधा देनी शुरु की तो लोग पारंपरिक जलस्रोतों को उपेक्षित छोड़ भूल गए। आज  वे अपनी बदतर हालत में नष्ट होने की कगार पर खड़े हैं। पानी को व्यवहार में लाने के लिये पुराने जमाने में कुछ नियम हुआ करते थे। सबसे पहली बात तो यह कि पानी को लेकर वे लापरवाह नहीं थे। एक कहावत प्रचलित थी कि आग कभी नहीं बुझनी चाहिए और पलींडे (पानी रखने का स्थान) में कभी पानी खत्म नहीं होना चाहिए। आज घरों में पलींडे रहे ही नहीं। शहरों के घरों में तो एक घड़ा भी मिल जाए तो गनीमत समझिए। पानी के मामले में लोग कितने किफायती थे- मेरे दादाजी ने बताया कि एक बार वे नोहर के किसी गाँव में बारात में गए। बारात के डेरे पर दो कुंड थे। एक बाराती पानी की दो बाल्टियाँ भर कर नहाने लगा तो घर का मालिक हाथ जोड़कर बोले- “ सगा जी ! (समधीजी) यह मीठा पानी पीने के लिये है। मैं दूसरा पानी मँगवा दूंगा। आप चाहे तो दूसरे कुंड में घी है, आप उससे नहा लें, पर पानी मत बर्बाद कीजिए।” आज, पानी के लिये क्या ऐसी चेतना लोगों में है?

पानी को लेकर जैसी भावना या संस्कार पुरानी पीढ़ी में थी, वह नई पीढ़ी में नहीं है। पुरानी पीढ़ी का आप यह अंधविश्वास मान सकते हैं कि वे जल को देवता मानते थे। आज पानी उपभोक्ता-वस्तु है, इसलिए दुरुपयोग भी बढ़ गया है। पश्चिमी देशों की जीवनशैली को अपनाने के कारण भी पानी का दुरुपयोग बढ़ा है। पहले लोग बाल्टी लेकर खुले में बैठकर नहा लिया करते थे। अब बाथ टब या फव्वारे से नहाने के कारण पानी तो ज्यादा लगेगा ही। इसी कारण वाशिंग मशीन में कपड़ा धोने के कारण सुख तो मिलने लगा, पर पानी का खर्च बढ़ गया। ‘फ्लश टॉयलेट’ में जितना पानी बर्बाद होता है वह पीने का पानी होता है। पहले हमारे यहाँ बर्तन राख से माँजे जाते थे। एक शब्द हुआ करता था राखुंड़ा अर्थात जहाँ राख से बर्तन माँजे जाते थे।   अब तो गाँव तक में रसोई गैस पँहुच गई है। राख होगी तो राखुंड़ा होगा। आने वाले समय में राखुंड़ा शब्द किसी किसी शब्दकोश में ही मिलेगा। बर्तन धोने का रिवाज भी नहीं था। बर्तन माँज दिए और सूखे कपड़े से पोंछ दिए। आँगन भी कच्चे और गोबर से लीपे हुए होते थे। झाड़ू दिया और सफाई हो गई। चूल्हे-चौके की शुद्धता के लिये स्त्रियाँ रोज सुबह उठकर चौका लीपती थीं। अब फर्श पर धोने के लिये जितना पानी लगता है, उतने से एक छोटे परिवार के पीने के पानी का काम चल जाता है। इस तरह पानी का खर्च तो बढ़ गया, पर उसकी एक हद है। कहाँ से आएगा इतना पानी ?

प्राचीन भारतीय जीवन शैली प्रकृति से तालमेल बनाकर चलती थी। प्रकृति से अनुचित फायदा लेना या दोहन करना वे (पुराने लोग) पाप समझते थे। प्रकृति से जितना कुछ भी लेते उतना वापस लौटाने की कोशिश भी करते थे। अनाज हो या पानी, हर एक चीज में किफ़ायत करते थे। जीवन जीने में प्रदर्शन का भाव नहीं था। जरूरत के अनुसार ही किसी चीज का उपयोग करते थे। घर फालतू चीजों का कबाड़खाना नहीं था। आज पानी की बचत को लेकर या भंडारण के लिये जो तरीके सुझाए जाते हैं, वे पहले भी थे, पर लोग उन पर अमल नहीं करते थे।

आज इतने प्रचार-तंत्र के बावजूद लोग लापरवाह हैं क्योंकि उन्हें पानी आसानी से मिल जाता है। पहले कुएं से पानी लेकर घर पहुंचना युद्ध जीतने जैसा था। इस संदर्भ में एक कविता प्रस्तुत है –

सात-सात कोस

जाते थे चल के

करते थे सारी-सारी रात काली

कुएं की डोर खींचते-खींचते

ज़िंदगी को

साँसे छोटी पड़ गईं

भागते-भागते

पीछे के पीछे।

प्राकृतिक संसाधनों की भी एक हद होती है। प्रकृति मनुष्य की जरूरत तो पूरी कर सकती है, पर उसके लालच को पूरा नहीं कर सकती। जिस तरह आज मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर उसकी कोख सूनी करता जा रहा है, आप सोचिए, क्या प्रकृति कभी बदल नहीं लेगी ? राजस्थान के बत्तीस जिलों में धरती के भीतर के पानी को लेकर तीन चौथाई से ज्यादा ‘डार्क ज़ोन’ में है। सबसे ज्यादा पानी की जरूरत खेती-बाड़ी और कारखानों में होती है। अपने देश की फसलें ज्यादातर मानसून पर आश्रित हैं। मानसून कब और कितना बरसेगा, यह किसी के वश में नहीं है। मानसून के काम बरसने पर बांध पानी से नहीं भर पाएंगे तो नहरें कैसे चलेंगी ? नहरें नहीं चलेंगी तो फसलों की सिंचाई खटाई  में। अब बच गया धरती से पानी लेना। खींच लाओ। दिनोंदिन ‘वाटर लेवल’ गिरता जा रहा है। वैसे भी पानी नहीं होगा तो बिजली कैसे बनेगी ? सब कुछ ठप्प। पेट्रोलियम पदार्थों की एक हद है तो पानी की भी है।

पानी को लेकर बड़े देश और बड़े आदमी दोनों ही लापरवाह हैं क्योंकि जिनके पाँव में बिवाई नहीं फटी, वे क्या ही जाने पीर पराई ? बागवानी, गाड़ी धोना, छिड़काव, फ्लश टॉयलेट, स्नान घर, रसोई, आदि में बड़े लोगों के पचास घरों में जितना पानी लगता है, उतने पानी से गाँव के दो सौ घरों का काम चल सकता है। हालांकि पानी को लेकर गाँव के लोगों में भी पहले जैसी चेतना नहीं है, इसके बावजूद खेती के अलावा यहाँ पानी की लागत कम है। पानी के संदर्भ में लोगों की लापरवाही इस बात में देखी जा सकती है कि खुली नलें चलती रहती हैं और अमृत सरीखा पानी गंदी नालियों मेन बहता राहत है। आज बाजार मेंपीनेका साफ पानी दूध से भी ज्यादा महंगा पड़ता है।

दरअसल पानी के प्रबंधन के सिलसिले में देशों और राज्य की सरकारों को जिस दिशा  में ध्यान देना चाहिए था, नहीं दिया गया। अपने देश में तो हालात यह है कि एक तरफ तो अकाल में लोग प्यासे मर रहे हैं और दूसरी तरफ बाढ़ में डूब रहे हैं। यदि बाढ़ के उस पानी का प्रबंधन ठीक से किया जाए तो बाढ़ और सूखा दोनों समस्याओं से निजात मिल सकती है। कौन करे ? राहत के काम दामों तरफ चलते हैं। कहावत है कि लड्डू टूटेगा तो दाने तो बिखरेंगे ही। अगर देश की सारी नदियां आपस में जुड़ जाए तो काफी हद तक सूखे और बाढ़ की समस्या हल हो जाएगी।

मनुष्य की नादानी और लालच के कारण ‘ग्लोबल वार्मिंग’ और पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्याएं आज लगातार डरावनी होती जा रही हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण शिखरों की बर्फ पिघल कर समुद्र में जा रही है। पर्यावरणविदों के अनुसार आने वाले पचास-साठ वर्षों में गंगा नदी सूख सकती है।  इसी तरह बारह महीने बहने वाली नदियाँ जो ग्लेशियरों से जुड़ी हुई हैं, उन पर भी खतरा मंडरा रहा है।  समुद्र में पानी बढ़ने के कारण बांग्लादेश, मालदीवजैसे देश और समुद्र किनारे बसे मुंबई जैसे महानगरों पर भी खतरे मंडरा रहे हैं।  पानी का यह डरावना रूप धरती पर प्रलय ला सकता है।  पर्यावरण प्रदुषण के कारण और धरती पर अल्ट्रा वायलेट किरणों के पड़ने के कारण जो खतरनाक बीमारियाँ और खतरे मंडरा रहे हैं, उन सबका मुकाबला करने में मनुष्य  अभी तक पूर्ण रूप से सक्षम नहीं है।  उसकी भलाई ‘बचाव और सिर्फ बचाव’ में ही है।

इतने बड़े ब्रह्माण्ड में प्रकृति अपनी लीला में व्यस्त है।  निर्माण और विनाश की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। पता नहीं सूरज, धरती, चाँद, तारे इस ब्रह्माण्ड में बने हैं, ख़त्म हुए हैं और बनते रहेंगे। इस बात से प्रकृति को तो कोई फर्क नहीं पड़ता कि ‘हिम युग’ है या ‘गर्म युग’; पर मनुष्य को ज़रूर पड़ेगा।  अपने साथ-साथ मनुष्य जिव-सृष्टिकी कब्र भी खोदता जा रहा है।  धरती, आकाश, पानी, समीर और आग सबका आपस में एक खास संतुलन है, इसलिए यह जिंदगी है, हरियाली है। संतुलन बिगड़ने पर क्या होगा, यह तो भविष्य ही बता सकता है। इसधरती पर जीवों के रहने लायक वातावरण बनने में करोड़ोंवर्ष लग गए, पर ख़त्म होने के लिए एक पल काफी है।  इसलिएसावधानरहनाज़रूरी है।

धरती के दो तिहाई हस्सेमें समुद्र है।  परपीने वाले पानी और सिंचाई के सन्दर्भ में कह सकते है- ‘पानी बिच मीन पियासी’।  इस हालातों को देखते हुए ख़बरदार हो जाना चाहिए। सबसे पहले पुराने परम्परागत जलस्रोतोंकी खैर-खबर ली जानी चाहिए।  उनमेंसुधार कर उनको पानी के भण्डारण योग्य बनाना चाहिए।  सिंचाई के चालू तरीकों को छोड़कर नए तरीके ईजाद किये जाएं जिनमें कम से कम पानी का ज्यादा से ज्यादा उपयोगकिया जा सके। ऐसेबीजोंकी खोज कीजाये जो कम पानी में तैयार हो जाएं। हर एक शहर, कस्बे या गाँव में पानी को पुनर्चक्रित (Recycle)करबारी-बारी से उपयोग में लाया जाये।  सबकी सहमति से राष्ट्रीय जल नीति बनाई जाये।  और भी बहुत उपाय है जिनको अपनाकर भविष्य में जल-संकट का समना किया जा सकता है। वरना, ‘बिन पानी सब सून। ’ रहीम तो पहले ही कह चुके हैं।  इसलिए सिर पर मंडराते खतरे को देखते हुए आज समाज को अपना रहन-सहन और जीवनशैली बदल लेनी चाहिए।

  मूल : डॉ.  मंगत बादल,‘बातरी बात’

     राजस्थानी निबंध संग्रै से साभार

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टंकण सहयोग – विवेक तिवारी (छात्र )

 

 

7.28 करोड़ आयकर रिटर्न दाखिल, 7.5 फीसदी अधिक 

नयी दिल्ली । देश में इस बार करदाताओं ने आयकर रिटर्न फाइल करने का नया रिकॉर्ड बनाया। असेसमेंट ईयर 2024-25 के लिए आईटीआर फाइलिंग की आखिरी तारीख 31 जुलाई 2024 थी। वित्त मंत्रालय की ओर से शुक्रवार को इस साल टैक्स रिटर्न फाइलिंग की जानकारी दी गई है। इसके मुताबिक, 31 जुलाई तक कुल 7.28 करोड़ आईटीआर दाखिल हुए। यह पिछले साल के मुकाबले 7.5 फीसदी अधिक हैं, असेसमेंट ईयर 2023-24 में कुल 6.77 करोड़ रिटर्न फाइल हुए थे।
5.27 करोड़ ने न्यू रिजीम का विकल्प चुना – मंत्रालय ने यह भी बताया है कि इस साल करदाताओं के न्यू टैक्स रिजीम (नई कर व्यवस्था) चुनने के प्रति रुझान बढ़ा है। इस बार फाइल हुए 7.28 करोड़ आईटीआर में से 5.27 करोड़ ने न्यू रिजीम का ऑप्शन चुना है, जबकि ओल्ड टैक्स रिजीम के तहत सिर्फ 2.01 करोड़ रिटर्न दाखिल हुए हैं। इस साल कुल 58.57 लाख आईटीआर पहली बार फाइलिंग करने वालों ने दाखिल किए हैं।
31 तारीख को भरे गए करीब 70 लाख आईटीआर रिटर्न – 31 जुलाई 2024 को नौकरीपेशा करदाता – और नॉन टैक्स ऑडिट केस वाले इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने की आखिरी तारीफ थी और इस दिन बड़ी संख्या में टैक्स रिटर्न दाखिल किए गए। एक ही दिन में 69.92 लाख रिटर्न भरे गए। इसके साथ ही ई-फाइलिंग पोर्टल पर शाम 7 से रात 8 बजे के बीच रिटर्न दाखिल करने की प्रति घंटे दर 5.07 पहुंच गई। वित्त मंत्रालय ने कहा है कि सरकार की ओर से करदाताओं को नए और पुराने रिजीम के प्रति जागरूक करने के लिए अभियान चलाए गए। इस दौरान उन्हें FAQs और वीडियो के जरिए ई-फाइलिंग पोर्टल पर अलग-अलग भाषाओं में जानकारी प्रदान की गई। साथ ही इनकम टैक्स इंडिया के सोशल मीडिया हैंडल्स से भी टैक्सपेयर्स को समय पर आईटीआर दाखिल करने के लिए प्रेरित किया गया। मंत्रालय ने बताया कि इस साल फाइल हुए 6.21 करोड़ रिटर्न ई-वेरिफाइड हो चुके हैं। इनमें से 5.81 करोड़ आईटीआर आधार बेस़्ड ओटीपी (करीब 94%) के जरिए ई-वेरिफाइ किए गए। ई-फाइलिंग हेल्पडेस्क टीम ने टैक्सपेयर्स के करीब 11 लाख सवालों के जबाव दिए। ताकि उन्हें समय पर रिटर्न फाइल करने में कोई परेशानी न आए।
इसके साथ ही वित्त मंत्रालय ने आईटीआर दाखिल करने वाले सभी करदाताओं से अपील की है कि वे फाइलिंग के 30 दिनों के भीतर रिटर्न को ई-वेरिफाई जरूर करें। साथ ही जो करदाता किसी कारणवश तय समय पर आईटीआर नहीं भर पाए, वे भी जल्दी इस प्रक्रिया को निपटाएं।

35 बार सरकारी नौकरी की परीक्षा में हुए असफल, अब हैं आईएएस अधिकारी

नयी दिल्ली ।  कहते हैं न कि जो हारकर भी जीत जाता है वही बाजीगर होता है. कुछ ऐसी ही कहानी हरियाणा के एक शख्स की है। वह किसी भी सरकारी नौकरी की परीक्षा में सफल नहीं हुए लेकिन देश की सबसे कठिन परीक्षा यूपीएससी को पास करने में सफल रहे। इतनी असफलताओं के बावजूद भी हौसला बनाए रखा और फिर से सफलता हासिल करने के लिए उठ खड़े होते. उन्हें खुद पर भरोसा था कि वह कामयाब होंगे और उनकी दृढ़ता ने रंग दिखाया और अब वह एक आईएएस अधिकारी हैं. उनका नाम विजय वर्धन है।
आईएएस विजय वर्धन हरियाणा के सिरसा में पले-बढ़े, जहां उनका जन्म हुआ था. उन्होंने हिसार से इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की है। इसके बाद वह यूपीएससी की तैयारी के लिए दिल्ली चले गए. विजय हर परीक्षा में असफल रहे। वह 35 बार सरकारी नौकरी की परीक्षाओं में शामिल हुए लेकिन एक भी परीक्षा को पास नहीं कर पाए. साथ ही उन्हें कई बार यूपीएससी में भी हार का सामना करना पड़ा लेकिन आशावादी होने की वजह से डटे रहे। आखिरकार वह वर्ष 2018 में यूपीएससी की परीक्षा को पास करने में सफल रहे और 104वीं रैंक हासिल की।
दो बार क्रैक किया यूपीएससी
वर्ष 2018 में यूपीएससी की परीक्षा में 104वीं रैंक लाने पर विजय वर्धन का चयन आईपीएस ऑफिसर के तौर पर हुई. लेकिन वह इससे नाखुश थे क्यों उन्हें आईएएस ऑफिसर बनना था। इसके बाद फिर से वर्ष 2021 में यूपीएससी की परीक्षा में शामिल हुए और आईएएस बनने के अपने सपने को पूरा करने में कामयाब रहे। उन्होंने वर्ष 2018 और 2021 में दो बार यूपीएससी परीक्षा पास कीय़ युवाओं के लिए वह कहते हैं कि खुद पर कभी भरोसा मत खोना। उन्होंने एक बार कहा था कि उम्मीदवार ही उनका सबसे बड़ा शिक्षक होता है।
गलतियों से सीखें – विजय वर्धन ने बार-बार असफल होने से निराश होने के बजाय ‘अपनी गलतियों से सीखा। प्रत्येक असफलता के बाद उन्होंने ईमानदारी से अपने प्रदर्शन का मूल्यांकन किया। हालांकि शुरुआत में उन्हें एक आईपीएस अधिकारी के रूप में चुना गया था, लेकिन वे अपनी स्थिति से असंतुष्ट होकर आगे के प्रयास करते रहे। आखिरकार उन्होंने आईएएस अधिकारी बनकर अपना लक्ष्य हासिल करने में सफल रहे।