Sunday, April 20, 2025
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टूटा 9 दशकों का कीर्तिमान, शतरंज ओलंपियाड में भारत ने जीते स्वर्ण

बुडापेस्ट ।  ओलंपियाड शतरंज प्रतियोगिता ने भारत ने पहली बार स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया। ग्रैंडमास्टर डी गुकेश, अर्जुन एरिगेसी और आर प्रज्ञानानंदा ने स्लोवेनिया के खिलाफ 11वें दौर में अपने अपने मैच जीत लिए। विश्व चैम्पियनशिप चैलेंजर गुकेश और अर्जुन एरिगेसी ने एक बार फिर अहम मुकाबलों में अच्छा प्रदर्शन किया जिससे भारत को ओपन वर्ग में अपना पहला खिताब जीतने में मदद मिली। भारतीय महिलाओं ने अजरबेजान को 3.5-0.5 से हराकर देश के लिए गोल्ड मेडल हासिल किया। डी हरिका ने पहले बोर्ड पर तकनीकी श्रेष्ठता दिखाई और दिव्या देशमुख ने एक बार फिर अपने प्रतिद्वंद्वी को पछाड़कर तीसरे बोर्ड पर अपना व्यक्तिगत स्वर्ण पदक पक्का किया। आर वैशाली के ड्रा खेलने के बाद वंतिका अग्रवाल की शानदार जीत से भारतीय टीम ने गोल्ड मेडल सुनिश्चित किया। ऐसे में आइए जानते हैं कौन हैं भारत के ये चाणक्य।
भाई-बहन हैं प्रज्ञानानंदा और वैशाली – ओलंपियाड शतरंज प्रतियोगिता में प्रज्ञानानंदा और वैशाली ने अपनी बिसात से पूरी दुनिया को हैरान कर दिया। तमिलनाडु के रहने वाले प्रज्ञानानंदा और वैशाली दोनों भाई-बहन हैं। भारत के ये ग्रैंडमास्टर कई बड़े इंटरनेशनल टूर्नामेंट में एक साथ हिस्सा ले चुके हैं। इन दोनों ने ओलंपियाड शतरंज प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और अपने दमदार खेल से भारत को पहली बार गोल्ड मेडल दिलाने में अहम भूमिका निभाई।
कमाल के ग्रैंडमास्टर हैं डी गुकेश -17 साल के ग्रैंडमास्टर डी गुकेश भी ओलंपियाड शतरंज प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। तमिलनाडु के रहने वाले गुकेश कैंडिडेट्स शतरंज टूर्नामेंट के चैंपियन बने थे और उन्होंने भारत को ओलंपियाड में गोल्ड मेडल दिलाया। गुकेश का जन्म 29 मई 2006 को हुआ था। उन्होंने सिर्फ सात साल की उम्र में शतरंज खेलना शुरू कर दिया था।
अर्जुन ने मचाया है तहलका- 21 साल के ग्रैंडमास्टर अर्जुन एरिगैसी ने शतरंज की दुनिया में तहलका मचा रखे हैं। ओलंपियाड से पहले उन्होंने इंटरनेशनल चेस फेडरेशन की वर्ल्ड रैंकिंग लिस्ट में 9वां स्थान हासिल किया था। वारंगल के रहने वाले अर्जुन ने प्रज्ञानानंदा और गुकेश के साथ मिलकर भारत को ओलंपियाड में गोल्ड मेडल में दिलाने में अहम भूमिका निभाई।
पद्मश्री से सम्मानित हैं डी हारिका – द्रोणावल्ली हरिका भारत की एक ऐसी महिला शतरंज खिलाड़ी हैं, जिन्होंने फिडे का खिताब अपने नाम किया है। उन्होंने साल 2012, 2015 और 2017 में महिला विश्व शतरंज चैंपियनशिप में तीन ब्रॉन्ज मेडल अपने नाम किए। साल 2022 में गर्भ अवस्था में होने के बावजूद ओलंपियाड में भाग लिया था और इस बार उन्होंने दमदार खेल दिखाते हुए भारत को गोल्ड मेडल दिलाने में अहम भूमिका निभाई। शतरंज में उनके खेल के लिए अर्जुन और पद्मश्री पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया जा चुका है।
पांच साल की उम्र में से शतरंज खेल रही हैं दिव्या – 18 साल की दिव्या देशमुख महाराष्ट्र के नागपुर की रहने वाली हैं। दिव्या कुछ ही सालों में शतरंज के खेल में खूब चर्चित हो गई हैं। दिव्या ने सिर्फ 6 साल की उम्र में शतरंज खेलने शुरू कर दिया था। हालांकि, उनकी फैमिली नहीं चाहती थी कि वह शतरंज में अपना करियर बनाए। उनके मात-पिता की चाहत थी कि वह बैडमिंटन की में आगे बढ़े, लेकिन दिव्या मन शतरंज में लग गया। कम उम्र में ही दिव्या ने शतरंज में कई बड़े मैच जीतकर सबको हैरान कर दिया था। वहीं अब उन्होंने देश को ओलंपियाड में गोल्ड दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

भारतीय शतरंज में प्रगति के जनक: ‘स्वर्णिम पीढ़ी’ को तराशने में आनंद की भूमिका

नयी दिल्ली । विश्वनाथन आनंद को भरोसा था कि भारत इस बार शतरंज ओलंपियाड में स्वर्ण पदक जीतने की स्थिति में होगा और भारतीय शतरंज में कुछ सबसे प्रतिभाशाली युवाओं को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस दिग्गज ग्रैंडमास्टर को उस समय बहुत खुशी हुई होगी जब देश ने हंगरी के बुडापेस्ट में 45वें शतरंज ओलंपियाड में पुरुष और महिला दोनों वर्गों में स्वर्ण पदक जीता। विश्व चैंपियनशिप के चैलेंजर डी गुकेश, आर प्रज्ञानानंदा, अर्जुन एरिगेसी, विदित गुजराती और पी हरिकृष्णा की मौजूदगी वाली भारतीय पुरुष टीम ने ओपन वर्ग में स्वर्ण पदक जीता और शीर्ष वरीयता प्राप्त अमेरिका और उज्बेकिस्तान को पीछे छोड़ा।
हरिका द्रोणावल्ली, आर वैशाली, दिव्या देशमुख, वंतिका अग्रवाल और तानिया सचदेव ने महिलाओं के वर्ग में कजाखस्तान और अमेरिका की टीमों को पछाड़कर भारत को स्वर्ण पदक दिलाया। भारत की दोनों टीमों ने पहली बार स्वर्ण पदक जीता और देश के पहले शतरंज सुपरस्टार आनंद की इसमें भूमिका रही।

दोनों टीमों ने चेन्नई में घरेलू सरजमीं पर हुए पिछले ओलंपियाड में कांस्य पदक जीते थे। आनंद को पता था कि उस समय वे स्वर्ण पदक जीतने के करीब पहुंचे थे लेकिन अंतिम चरण में पिछड़ गए। हालांकि ओलंपियाड से पहले ‘पीटीआई’ को दिए साक्षात्कार में पांच बार के विश्व चैंपियन आनंद ने बुडापेस्ट में दोनों टीमों की खिताब जीतने की क्षमता पर भरोसा जताया था और यह यह सोने पर सुहागा था कि वह हंगरी की राजधानी में इन टीमों द्वारा बनाए गए इतिहास को देखने के लिए वहां मौजूद थे।

उन्होंने कहा था, ‘‘आप जानते हैं, अगर मुझे पासा फेंकना पड़े, तो ये अच्छी टीमें हैं (दांव लगाने के लिए)।’’गुकेश, प्रज्ञानानंदा, एरिगेसी और वैशाली ने वेस्टब्रिज आनंद शतरंज अकादमी में ट्रेनिंग ली है जिसे 54 वर्षीय आनंद ने चार साल पहले चेन्नई में स्थापित किया था।

18 वर्षीय गुकेश और 19 वर्षीय प्रज्ञानानंदा ने अक्सर कहा है कि वे ‘विशी सर’ के बिना उस मुकाम पर नहीं पहुंच पाते जहां वे हैं इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि अंतरराष्ट्रीय शतरंज महासंघ (फिडे) ने उन्हें ‘भारतीय शतरंज में प्रगति के जनक’ के रूप में संबोधित किया।

इससे पहले महान ग्रैंडमास्टर गैरी कास्परोव ने आनंद की सराहना करते हुए कहा था कि ‘विशी आनंद के शिष्य धूम मचा रहे हैं’। उन्होंने गुकेश के अप्रैल में कैंडिडेट्स टूर्नामेंट जीतकर सबसे कम उम्र में विश्व खिताब का चैलेंजर बनने के बाद यह बात कही थी।
आनंद इसका श्रेय खिलाड़ियों के माता-पिता और प्रारंभिक प्रशिक्षकों के साथ साझा करना पसंद करते हैं लेकिन उनका कहना है कि शतरंज अकादमी के उनके विचार ने भी अपनी भूमिका निभाई जो तीन दशक से भी अधिक समय पहले सोवियत संघ में देखे गए स्कूलों से प्रेरित था।
ओलंपियाड के दौरान फिडे के साथ बातचीत में आनंद ने स्वीकार किया था कि वे गुकेश और प्रज्ञानानंदा जैसे खिलाड़ियों की प्रगति से आश्चर्यचकित हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘मैंने उन सभी युवाओं को लिया जो 14 वर्ष की आयु से पहले ग्रैंडमास्टर बन गए थे। ईमानदारी से कहूं तो मेरा विचार उन्हें शीर्ष जूनियर से लेकर विश्व विजेता बनने तक समर्थन करना था।’’आनंद ने कहा, ‘‘मेरे शुरुआती समूह में प्रज्ञानानंदा और गुकेश था, अर्जुन कुछ समय बाद शामिल हुआ। लड़कियों में वैशाली भी थी। क्या मुझे उम्मीद थी कि ये इतनी तेजी से आगे बढ़ेगा? वास्तव में नहीं। क्या मुझे उम्मीद थी कि ऐसा हो सकता है? हां। लेकिन यह अविश्वसनीय है।’’
(साभार – द प्रिंट)

वाणी प्रवाह 2024 – पुस्तक समीक्षा- जानकीदास तैजपाल मैनशन

नाम- सौरभ कुमार सिंह स्नातकोत्तर शिक्षण संस्थान – प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी कोलकाता ईमेल आईडी– [email protected]

किसी भी उपन्यास की समीक्षा करना तभी संभव है, जब पता हो कि वह उपन्यास किस घटना पर लिखा गया है और वह कौन से समय का उपन्यास है? कोई भी साहित्यकार अपने युग की घटनाओं और समस्याओं से अछूता नहीं रह सकता। वह अपने युग की समस्याएं और घटनाओं से प्रभावित होकर ही उपन्यास की रचना करता है। दूसरी बात यह है कि कोई भी उपन्यास पाठक के मानस पर क्या प्रभाव डालता है और कितना प्रभाव डालता है? यह उसकी सकारात्मकता का स्तर तय करता है। किसी भी उपन्यास का प्रभाव पाठक पर कितनी अवधि तक रहता है, यह उपन्यास की कला की सुंदरता को दर्शाता है। पात्रों को पाठक के साथ एकाकार हो जाना उपन्यासकार की यह मूर्तिकला होती है। कोई भी उपन्यासकार कागज के पात्रों को अपनी शिल्प की कला से जिंदा इंसान बना देता है। देश की महान उपन्यासकार अलका सरावगी ने भी अपने उपन्यासों में अपनी मूर्तिकला के माध्यम से कागज के पात्रों को जिंदा इंसान बनाया है और पाठक के हृदय तक पहुंचाया है।

एक सशक्त उपन्यासकार के रूप में स्थापित हो चुकीं अलका सरावगी का पहला उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ 1996 प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के पात्रों को अपने शिल्प की कला से जिंदा इंसान बना देती है। इन्हें इस उपन्यास पर साहित्य अकादमी सम्मान (2001) भी मिला है। उसके बाद इनके और तीन उपन्यास प्रकाशित हुए हैं- ‘शेष कादम्बरी’, ‘कोई बात नहीं’ , ‘एक ब्रेक के बाद’। 2008 के बाद अलका सरावगी का नया उपन्यास अब आया है, जिसका नाम है “जानकी दास तेजपाल मैनशन”। इसका प्रकाशन वर्ष 2015 है।

उपन्यास को कथानक और कथावस्तु के ढांचे में देखें तो यह घटनाओं, चरित्रों तथा वर्णनो को आपस में बांधता है।

उपन्यास का कथानक पूरी तरह कलकाता में विकसित हुआ है। कलकत्ता के सेंट्रल एवेन्यू के पास ‘जानकी दास तेजपाल मैनशन’ नाम की एक बड़ी कोठी है। इसमें अस्सी परिवार रहते हैं। यह प्राचीन कोठी इस देश की तरह है, जिसे तोड़े जाने की कोशिश पैदा होते देखकर दर्द होता है। यही भावनाओं की कहानी है यह ‘जानकी दास तेजपाल मेनशन’।

एक अच्छे कथानक की पहचान उसके ‘अनुपात’ और ‘गति’ से मानी जाती है। इस उपन्यास में घटनाओं या वर्णनों और चरित्रों का अनुपात भरकर देखने को नहीं मिलता। वह  घटनाएं चाहे कलकत्ता में घटी हों, चाहे बम्बई में घटी हों या अमेरिका में घटी हों। पाठक सभी चरित्रों और घटनाओं के साथ संगति बैठा पाता है और उपन्यास का आस्वादन करने में उसे समस्या नहीं आती।

बहुदा पाठक को उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लगता है कि घटनाएं बहुत तेज गति के साथ आगे बढ़ता है। लेकिन जानकी दास तेजपाल मेनशन का कथानक किसी भी साहित्यप्रेमी पाठक को बोरियत महसूस करा ही नहीं सकता, क्योंकि उपन्यास का हर एक अध्याय दूसरे अध्याय से जुड़ा हुआ है।

अलका सरावगी ने स्वयं कहा है कि “ इस उपन्यास को लिखने में मुझे सात साल लगे। पहला अध्याय लिखने के बाद उसी को पढ़कर आगे का लिखती थी।“

इस उपन्यास में लेखिका ने संबंध निर्वाह को जिस तरह से जोड़ा है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। दूसरे शब्दों में कहें तो जानकीदास तेजपाल मेंशन एक उपन्यास नहीं बल्कि दो उपन्यास है। इसको हम पहले अध्याय और दूसरे अध्याय को आधारित बनाकर समझ सकते हैं। पहला अध्ययन में अलकाजी ने हिंदी उपन्यास के कथ्य में बिल्कुल नया अंदाज और अत्यंत प्रभावशाली प्रयोग किया है। दूसरा अध्ययन शुरू होने के साथ ही पाठक खुद को नई दुनिया में पाता है। दूसरा अध्याय पढ़ते समय पता चलता है कि पहला अध्याय आत्मकथा है-

जयगोविन्द ने हाथ के लिखे हुए चालीस में चार कम यानी छत्तीस पन्नों के पहले अध्याय को एक साँस में पढ़कर वापस उसी पीले फोल्डर में डाल दिया। दो साल पहले उसने ‘जयदीप‘नाम से एक आत्मकथात्मक उपन्यास लिखना शुरू किया था।“

उपन्यास के अंदर उपन्यास कथानक में इस तरह का प्रयोग 21वीं सदी में ही किया जा सकता है। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि अलका सरावगी 21वीं सदी की लेखिका हैं। पाठक को हमेशा इस तरह का कथ्य पढ़ना अच्छा लगता है जिसमें उपन्यासकार ने अपने परिवेश तथा घटनाओं को शामिल करता है और ऐसी उपन्यास जिसमें पाठक संपूर्णता में जुड़ाव महसूस करे। जानकीदास तेजपाल मेंशन 184 पन्नों में एक लंबी कलावरी को समेटे  हुए हैं। इसका पता पृष्ठभूमि के परिवर्तन से ही चलता है।

अलका सरावगी का कथन है-

“मुझे ऐसी कथा लिखना बहुत उबाऊ लगता है जो जान बूझकर यौवन अवस्था, यौवन से प्रौढ़ावस्था और प्रौढ़ा से मरने तक का हो।”

इस प्रकार उपन्यास की कथावस्तु विश्वसनीय और प्रमाणिक लगती है।

भारत के उपन्याससम्राट प्रेमचंद का कथन है“बिना उद्देश्य की रचना हो ही नहीं सकता”। 1950 ई. के बाद के साहित्य में उद्देश्य का महत्व कम हुआ है। जब यथार्थवाद इतना सघन हो गया है कि अधिकांश लेखक सिर्फ यथार्थ का वर्णन करना चाहते हैं। अलका सरावगी ने भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए जानकीदास तेजपाल मेंशन को यथार्थ के ढांचे में ही रचा है। लेखिका ने यथार्थ से जुड़े अनेक मुद्दों को इस उपन्यास में उठाया।

कहा जाता है कि कोई भी नया निर्माण देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाता है। भारत में मेट्रो रेल की सेवा पहली बार कलकत्ता में शुरू हुई थी। पहली बार यह नया निर्णय हो रहा था और यह फैसला किया गया था कि अंडरग्राउंड लाइन बिछाई जाएगी। लेखिका लिखती है –

“देश की पहली भूगर्भ मेट्रो रेल के जब कलकत्ता में बनने की शुरुआत हुई , तो सबसे खुश हुए थे बड़ाबाजार के लोग। कहावत थी कि बिना पाँव वाला आदमी रेंगकर भी जल्दी पहुँच जाता है, पर बड़ाबाजार के ट्रैफिक में गाड़ी में आदमी बैठा का बैठा रह जाता है। तब लगा था कि अब कलकत्ता के और खासकर सेंट्रल एवेन्यू के पुराने दिन लौट आएँगे।“

लेकिन जिन्होंने उसे शुरू होने का वक्त देखा है, कोलकाता के मेट्रो रेल के सुरंगो को बनने के दौरान क्या हुआ होगा? अलका सरावगी ने इसका बड़ा ही सटीक चित्रण अपने इस उपन्यास में किया है। यह निर्माण बड़ा ही घातक साबित हुआ क्योंकि कलकत्ता जैसे पुराने देश में पहली बार मकान के नीचे सुरंग बनाकर मेट्रो लाइन बिछाना आसान काम नहीं था। इसका परिणाम यह हुआ कि मेट्रो लाइन बिछाने के कारण ऊपर की कोठरियाँ और मकान हिलने लगे। कई लोगों को अपने घर से बेघर होना पड़ा। लेखिका ने इस उपन्यास में सबसे पुरानी बिल्डिंग सेंट्रल एवेन्यू के जानकीदास तेजपाल मेनशन को केंद्र बनाया है। इस मेनशन के पास वाले सड़क पर जब बस गुजरती है तो जानकीदास तेजपाल मेनशन हिलता हुआ नज़र आता है। लेखिका कहती हैं-

“सड़क पर गुजरती हर बस के साथ हिलता जानकीदास तेजपाल मैनशन ‘एक नया अर्थ – संकेत है- पूरे देश का,जिसका ढहाया जाना तय है। राजनीति, प्रशासन , पुलिस और पूँजी के बीच बिचौलियों का तंत्र सबसे कमजोर को सबसे पहले बेदखल करने में लगा हुआ है। “

किस तरह से प्रशासन, पुलिस, राजनीति के बीच बिचौलियों का तंत्र सबसे कमजोर को दबाता है उसका सटीक चित्रण लेखिका ने किया है। जयगोविंद 1970 के दशक में अमेरिका से पढ़कर कोलकाता लौट आया है और वह एक कंप्यूटर इंजीनियर है जो इधर का रहता है और ना ही उधर का रह पाता है। वह जहां भी नौकरी मांगने जाता है उसको नीचा दिखाकर दबाने की कोशिश की जाती है। इसका एक प्रसंग देख सकते हैं-

“अमेरिका से पढ़कर लौटे हो। यहाँ काम कर सकोगे?“–‘घुरघुर‘ बोला था। कम्पनी नम्बर दो या नम्बर तीन आदमी और ऐसी आवाज? ………. उसने जवाब दिया था- काम करने के पहले कैसे बताया जा सकता है !“ अनजाने ही उसकी आवाज जवाब देते समय कुछ फटी हुई – सी निकली थी। ……जयदीप जानता था कि उसे आदरपूर्वक कहना चाहिए था— “ सर , एक मौका मिले तो करके ही बता सकता हूँ। “ पर घुरघुर के शब्दों में ही सिर्फ अविश्वास नहीं था , उसकी पूरी ‘ बॉडी लैंग्वेज ‘ यानी हाव – भाव से यह साफ था कि वह यकीनन जानता है कि जयदीप वहाँ काम नहीं कर सकेगा”

जिस तरह से जयदीप यह सारा कुछ सह जाता है। लेकिन एक वाक्य आता है-

अनजाने में ही उसकी आवाज जवाब देती हुई फटी हुई सी निकली थी। यह सब कुछ कह देता हैयहां पर लेखिका का वह दर्द देखने को मिलता है।

लेखिका ने बहुत ही कुशलता के साथ आज़ादी के बाद का यह चित्रण प्रस्तुत किया है। किस तरह बंगाल में नक्सलवाद पैदा हुआ, बड़ा और अंत में कैसे खत्म हुआ। यह आगे चलकर समझ आता है कि नक्सलवादियों के परिवारों पर क्या गुजरी होगी। भारत से अमेरिका पढ़ने जाने वाले लोग और जो उनमें से ज़्यादातर वही बस गये। उसके साथ वियतनाम के अमेरिकी आक्रमण का उन पर क्या प्रभाव पड़ा होगा जो लोग वहां पढ़ने गए थे। इसका बड़ा ही सटीक चित्रण अलका सरावगी ने इस उपन्यास में किया है।

लेखिका लिखतीहैं-

“अमेरिका से एडवोकेट बाबू ने बुला लिया , तो क्या ? उसे खुद मालूम है कि अमेरिका उसके लिए ठौर नहीं बन सकता था। वह तो मन ही मन तरस खाता है उन लोगों पर जो वहीं रह गए और अब चाहकर भी वापस नहीं आ सकते। उनके बीवी – बच्चे ही तैयार नहीं होंगे – ‘ हीट एंड डस्ट ‘ और ‘ इनफेक्शन ‘ भरी इस धरती पर लौटने के लिए।“

जिस जयदीप को अमेरिका इतना पसंद था अब वह खुश है। सोचता है कि अच्छा हुआ मैं अमेरिका से वापस आ गया। क्योंकि उसके जितने एन.आर. आई. दोस्त हैं वह इंडिया आने के लिए तड़पते हैं पर इनफेक्शन के डर से नहीं आ पाते। कहा जाता है कि अपना घर अपना ही होता है हम दुनिया के जिस भी कोने में चले जाएं पर वह सुकून अपने ही घर में वापिस आकर मिलता है। लेखिका ने इस मुहावरे का बड़ा ही सटीक उदाहरण जयदीप और उसके दोस्तों के माध्यम से दिया है। जयदीप का दोस्त विजय को देख सकते हैं कि कैसे वह अपने देश में लौटने के लिए बेचैन है। वह कहता है-  “ विजय के चेहरे की बेचारगी और भी गहरी हो गई थी— “ मैं अपने देश में मरना चाहता हूँ।

लेखिका ने इस उपन्यास में कुछ और संदेश को भी दिखाती है। जैसे उपन्यास में प्रेम से उपजा भरोसा भी है और उस भरोसे का टूटना भी “जाने यह प्रेम क्या चीज है कि बाकी सारी बातें बेमानी हो जाती हैं। पर ऐसा प्रेम भी कितनों के नसीब में होता है!”

लेखिका लिखतीहै-

जयगोविंद को अफसोस है कि वह दीपा को वह प्रेम नहीं दे पाया जो दीपा ने उसे दिया था। उसको दीपा के प्रेम से उपजा भरोसा तो मिला। उसे लगता है कि वह दीपा के उस प्रेम के भरोसे को तोड़ दिया।

लेखिका इसके पीछे के कारण को बताते हुए लिखती हैं कि- “दरअसल जयगोविन्द जैसे बड़ा हुआ , जैसी जिन्दगी उसने आस – पास देखी , जिस तरह के रिश्तों को जाना , उसमें कोई प्रेम जैसी चीज कभी . नजर नहीं आई।”

लेखिका ने अपने इस उपन्यास में कलकत्ता के मारवाड़ी समाज को भी चित्रित किया है। कलकत्ता में रहते हुए मारवाड़ी समाज को बहुत करीब से देखा है। मारवाड़ी समाज के साथ-साथ अन्य सभी समाजों के बीच के संबंधों को दिखाया हैं। इन संबंधों को पूरी तरह से जगह नहीं दे पाई है पर फिर भीइ इतने कम पन्नों में उन्हें लिखा भी नहीं जा सकता।

अंत में कहा जा सकता है कि मुख्यतः लेखिका ने जानकीदास तेजपाल मेनशन को वह रूपक बनाया है, जो दिखाता है कि कैसे आधुनिकता और विकास इतिहास को नष्ट करता है। कैसे एक ईमानदार इंसान व्यवस्था के कारण बेईमान बन जाता है।

कोई भी रचनाकार यदि कथा के माध्यम से अपनी बात कहना चाहता है तो उसे कुछ पात्र या चरित्र गढ़ने पड़ते हैं ताकि उसकी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के माध्यम से अपने भाव का संप्रेषण कर सके। अलका जी ने भी अनेक चरित्र गढ़े हैं। जयगोविंद या जयदीप, एडवोकेट बाबू, दीपा, रोहित और जयदीप की मां। यह सब सहभागी चरित्र के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। दूसरी तरफ जयदीप के अमेरिका के एन. आर. आई. दोस्त और भारत के सारे दोस्त और उसके दफ्तर के लोग हैं। यह सब प्रेक्षक चरित्र के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। जो मुख्यकथा को आगे बढ़ाने में अपना सहयोग देते हैं।

लेखिका ने अपने इस उपन्यास में चरित्र के माध्यम से एक नया प्रयोग किया है।  लेखिका कहती हैं“ कलकत्ता मेरे उपन्यासों में पात्र के रूप में मौजूद रहता है । ”

इसका उदाहरण लेखिका के ही उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ में देख सकते है। इस उपन्यास में लेखिका ने दिखाया है कि किस तरह शहर का इतिहास आदमी के इतिहास से जुड़ा हुआ है। उसे अलग-अलग नहीं देखा जा सकता। उन्होंने जानकीदास तेजपाल मेनशन में भी इसका प्रयोग किया है। जयदीप को उन्होंने इस उपन्यास का नायक बनाया है। जयदीप के चरित्र से कोलकाता और अमेरिका के प्रसंग को इस तरह से लेखिका ने जोड़ा है कि उसको अलग करके नहीं देखा जा सकता। जयदीप जो अमेरिका से पढ़कर आया है, एक ऐसे हिलते हुए मकान में जीवन जी रहा है और उसकी लड़ाई लड़ रहा है। उसके पीछे उसकी कौन सी प्रेरणा है? कौन सी मानसिकता है? यह कौन सी दुनिया है? और यह कौन सी व्यवस्था है? यह सब भूलकर वह लड़ने में दम लगाए हुए हैं। यह सारा परिदृश्य उपन्यास में उभरता है। यह सारा उपन्यास में पिरोया हुआ है।

इतना ही नहीं यह सारा एक खास समय में कैसे उभरता है। वियतनाम मे आंदोलन चल रहा था और उस समय में यह अमेरिका जाता है। यहां नक्सलवाद शुरू हो गया है। इसमें भी इसकी भागीदारी है, पर यह उसका हिस्सा नहीं बनता है। वह लौटकर आता है और फिर मकान को बचाने के लिए जान लगाए रहता है। यह एक ऐसा पात्र है जो अपने आप में अपने पूरे समय को समेटे हुआ है।

एक अच्छे पात्र की पहचान होती है कि वह लेखक के हाथों कठपुतली ना बना रहे, बल्कि वह स्वतंत्र रूप में चले। अच्छाई और बुराई दोनों को धारण करता हो। लेखिका ने पात्र को स्वतंत्र बनाया है वह अपने अनुसार चलता है और निर्णय लेता है। इस कहानी का पात्र अपनी कहानी को लिखने के साथ-साथ अगर उसको सही ना लगे, तो उससे असहमत भी होता है। उसमें अपनी अनकही कथाएं जोड़ते चलता है। हमारा जीवन भी ऐसे ही चलता है – विचारों को छोड़ते हैं और नए विचारों को अपनाते हैं। यह एक स्वतंत्र पात्र की पहचान है। लेखिका लिखती है-

“मेरे लिए शिल्प इसलिए अलग है क्योंकि मैं खुद ऊब ना जाऊं। मुझे कथारस ना मिले तो मैं अभी से हजार झमेलों में लिखूं क्यों।”

इस तरह के पात्रों का चयन करना तभी संभव है जब लेखक की सोच में ऊंचाई के साथ-साथ उतनी गहराई भी हो। तभी ऐसी कृति लिखी जा सकती है। इस तरह का पात्र रचा जा सकता है।

लेखक चरित्र के सिर्फ बाहरी पक्षों का वर्णन नहीं करता बल्कि लेखक उसके मन के भीतर प्रविष्ट होकर मनोवैज्ञानिक स्थितियों का भी सूक्ष्म अंकन करता है। लेखिका ने जयदीप के माध्यम से इसका बड़ा ही सुंदर चित्रण किया है। वह उन सभी अस्थापनाओं से असहमत होता है जो उसने पहले अपने जीवन में अपनाएं थे। इसके साथ वह अपनी कही हुई बातों को भी खारिज करता रहता है। समय की परिवर्तनशीलता के साथ-साथ वह खुद में भी परिवर्तन लाता है ताकि वह समय के सा ताल से ताल मिलाकर चल सके। लेखिका ने उसके बाहरी पक्षों के साथ उसके मन के भीतर प्रविष्ट होकर मनोवैज्ञानिक स्थितियों का सूक्ष्म आकलन किया है।

अलका सरावगी ने चरित्र योजना में साधारण जीवन के पात्रों को लिया। जो हमारे आसपास होते हैं । लेखिका ने अपनी शिल्पकला के माध्यम से कागज के पात्रों को जिंदा इंसान बनाया है और पाठक के हृदय तक पहुंचाया है।

कहा जाता है कि भाषा का गद्य रूप उपन्यास में व्यक्त होता है। हर रचना अपने काल के अनुसार भाषा ग्रहण करती है। जानकीदास तेजपाल मेनशन उत्तर आधुनिकता की रचना होने के कारण इसमें बहुत से अंग्रेजी और हिंदी शब्द आए हैं। जैसे – जादवपुर यूनिवर्सिटी, अटैच्ट बाथरूम, सेंट्रल एवेन्यूआदि।

मुहावरे और लोकोक्ति के प्रयोग से उपन्यास की रचना और आकृष्ट बनती है ।जानकीदास तेजपाल मेनशन में कहावतें और मुहावरे का प्रयोग देखने को मिलता है जो निम्नलिखित है-

  1. कहावत थी कि बिना पाँव वाला आदमी रेंगकर भी जल्दी पहुँच जाता है , पर बड़ाबाजार के ट्रैफिक में गाड़ी में आदमी बैठा का बैठा रह जाता है।
  2. कहा कि सेठजी , अगर आदमी को ईमान से पेट भरना हो , तो उतने ही पाँव फैलाने चाहिए , जितनी उसकी चादर हो।

3.जयदीप मन की बात मन में रखने की उक्ति – ‘ पेट में रखो तो लाख की मुँह से निकले तो खाक की ‘ – का इरमिज कायल नहीं था।

4“बूँद – बूँद से घड़ा भरता है, “वह अपने हजारों मुहावरों से एक जब – तब निकाल लेता- “ घोड़ा घास से यारी करेगा , तो खाएगा क्या ? है कि नहीं ? “ – कहकर वह जोर का .. ठहाका लगाता।

भाषा के अंतर्गत यह भी देखा जाता है कि क्या लेखक ने प्रतीकों, बिम्बों तथा उपमानों की भाषा का प्रयोग किया है? इन तत्वों के प्रयोग से भाषा की प्रभाव – क्षमता काफी बढ़ जाती है। उपन्यास में इनके प्रयोग अनेक जगह देखने को मिलते हैं-

1.उपन्यास का नाम ही प्रतीकात्मक है। लेखिका ने जानकीदास तेजपाल मेनशन नाम एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया है। यह प्रतीक है पूरे देश का जिसका ढ़हाया जाना तय है। राजनीति, प्रशासन और पुलिस के बीच बिचौलियों का तंत्र सबसे कमजोर को सबसे पहले बेदखल करने में लगा हुआ है।

2.लेखिका ने जानकीदास तेजपाल मेनशन को उपमा के रूप में भी प्रयोग किया। इस मेनशन को जिस तरह नष्ट किया जा रहा है, ठीक उसी के समान कैसे आधुनिकता और विकास इतिहास को नष्ट करता है। कैसे एक ईमानदार इंसान इस व्यवस्था के कारण बेईमान बन जाता है।

3.यहां पर देख सकते हैं कि आदमी की उपमा घोड़े के साथ दी गयी है- उच्छल घोड़ा – यानी उछलने वाला घोड़ा। यानी कि वह गया- गुजरा आदमी , जो बेवजह उछलता है और अन्त में गिरकर हाथ – पैर तोड़ लेता है।

4.लेखिका ने बिम्बों का भी बहुत ही सुंदर प्रयोग इस उपन्यास में किया है। पूरा उपन्यास कलकत्ता की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। उपन्यास को पढ़ते समय हमें बड़ाबाजार, सेंट्रल एवेन्यू, जादवपुर विश्वविद्यालय का बिम्ब दिखाई देता है।

लेखिका ने व्यंग्य का प्रयोग बड़े ही सटीक तरीके से किया है। इसके प्रयोग से समाज की विकृतियों पर जोरदार तरीके से चोट करना संभव होता है। कोलकाता का बंगाली समाज सोचता है कि वह प्रवासी होकर भी वह दूसरों पर अहसान करता है। लेखिका का कथन है- कलकत्ता के बंगालियों को तो देखकर ऐसा ही लगता है। पर मजे की बात कि बंगाली भले ही दिल्ली में रहे या पेरिस या न्यूयॉर्क में , ऐसे रहता है जैसे वह प्रवासी होकर भी दूसरों पर अहसान कर रहा हो। एकाध रवीन्द्रनाथ या सत्यजीत राय क्या हो गए , हर बंगाली को लगता है कि उसकी संस्कृति का साम्राज्य दुनिया भर में फैला है।

लेखिका ने उपन्यास में फ्लैशबैक शैली का अत्यंत रमणीय और रोचक प्रयोग किया है। जिसमें देखने को मिलता है कि कैसे वह कहानी लिखते-लिखते तुरंत फ्लैशबैक में बार-बार चली जाती है।

उपन्यास की भाषा शैली आकर्षक, रोचक, सहज और सरल है। भाषा में मुहावरे, लोकोक्तियां, कहावतों के साथ-साथ व्यंग्य का बड़ा ही सुंदर प्रयोग किया गया है, जिससे भाषा की प्रभाव क्षमता काफी बड़ी है।

किसी भी रचना की संवाद योजना उतनी ही महत्वपूर्ण होती है, जितनी रचना की भाषा। चरित्रों के मध्य सीधी बातचीत कराई जाए तो प्रभाव क्षमता बढ़ जाती है और पाठक सीधे चरित्रों से रूबरू होता है।

अलका सरावगी ने इसका पूरी तरह ख्याल रखा है। उपन्यास की पहली लाइन से ही वे पाठक को खींच लेती हैं- चलते रहो। चलते रहो। पीछे मुड़कर मत देखो। तेज मत चलो। ऐसे चलो जैसे कुछ हुआ ही न हो तुम हाँफ क्यों रहे हो ? चलते जाओ ‘ – अपने से बात करता जयदीप उसी तरह चलता रहा। उसने रुककर पीछे मुड़कर देखा और न अपनी चाल तेज की।

उपन्यास के प्रारंभ होते ही पाठक को ऐसा महसूस होता है कि वह स्वयं से बात कर रहा हो।

हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह का कथन है- अलका जी 21वीं सदी की लेखिका हैं। इनकी लेखनी का शिल्प आकृष्ट इस तरह से करता है कि अतीत और वर्तमान की आवाजाही होती रहती है। लेखक और मुख्य पात्र के बीच एक मुख्य संवाद चलता रहता है।

लेखिका ने संवाद को छोटे-छोटे, कसा हुआ, चुस्त और गतिशील रखा है। जिससे शैली और बेहतर हो गई है और कथानक को भी गति देने में सहायता मिली है।

एक अच्छी रचना में ‘देश व काल’ संबंधित सूचनाएं मौजूद रहती है। यह सूचनाएं तत्कालीन परिस्थितियों के द्वारा भी दी जाती हैं ताकि रचना उस काल के साथ-साथ वर्तमान काल में भी प्रासंगिक बनी रहे। जानकीदास तेजपाल मेनशन में एक भी तिथि या वर्ष से संबंधित सूचना तो नहीं मिलती लेकिन 1970 के दशक परिस्थितियों की झलक देखने को मिलती है। जब भारत में पहली बार मेट्रो रेल की पटरियां बिछानी शुरू हुई थी। इसके अलावा अमेरिका में जो परिस्थितियां थीं उसका भी बड़ा ही सटीक चित्रण किया गया है। लेकिन देश संबंधित सूचनाओं में कलकत्ता शहर का नाम आता है, बल्कि यह उपन्यास पूरी तरह से कलकत्ता शहर की पृष्ठभूमि पर रचा गया है। इसीलिए जानकीदास तेजपाल मेनशन काल का अतिक्रमण तो कर पाता है लेकिन देश का अतिक्रमण करने में यह उपन्यास सफल नहीं हुआ है क्योंकि इसकी पूरी कथा कलकत्ता की पृष्ठभूमि पर ही आधारित है।

जहां तक वातावरण को देखें। यह उपन्यास अपने समय के वातावरण का पूरा सटीक चित्रण करता है। 1970 के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वातावरण का चित्रण देखने को मिलता है। उस समय की राजनीति के बीच बिचौलियों का तंत्र सबसे कमजोर को सबसे पहले बेदखल करने में कैसे लगा हुआ है। इसका बड़ा ही मार्मिक चित्रण लेखिका ने तेजपाल मेनशन नामक कोठी के ढह जाने के संकेत से दिया है। लेखिका ने परिवेश को इतना जीवंत बना दिया है कि पाठक स्वयं को उसी वातावरण के भीतर महसूस करने लगता है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अलका सरावगी जी ने “जानकीदास तेजपाल मेनशन” की रचना बड़े ही मार्मिक तरीके से की है, जिसमें कलकत्ता शहर केंद्र में रहता है। कलकत्ता की अपनी एक खास रूमानियत है। मारवाड़ी और बंगाली इन दोनों संबंधों का अनोखा संगम इस उपन्यास में देखने को मिलता है। इस उपन्यास पर अशोक सेकसरिया की टिप्पणी बड़ी गहरी है। उन्होंने अपनी छोटी सी टिप्पणी में पूरे उपन्यास को समेट दिया है। कहते हैं- “जो सतह पर दिखता है , वह अवास्तविक है। कलकत्ता के सेंट्रल एवेन्यू पर ‘ जानकीदास तेजपाल मैनशन ‘ नाम की अस्सी परिवारों वाली इमारत सतह पर खड़ी दिखती है , पर उसकी वास्तविकता मेट्रो की सुरंग खोदने से ढहने और ढहाए जाने में है। अंग्रेजी में एक शब्द चलता है ‘ अंडरवर्ल्ड ‘ जिसका ठीक प्रतिरूप हिन्दी में नहीं है। अंडरवर्ल्ड गैरकानूनी ढंग से धन कमाने , सौदेबाजी और जुगाड़ की दुनिया है। इस दुनिया के ढ़ेर सारे चरित्र हमारे जाने हुए हैं, पर अक्सर हम नहीं जानते कि वे किस हद तक हमारे जीवन को चलाते हैं और कब हमें अपने में शामिल कर लेते हैं। तब अपने बेदखल किए जाने की पीड़ा दूसरों को बेदखल करने  में आड़े नहीं आती।

हिन्दी दिवस विशेष – हिन्दी पर हिन्दी के कवियों की कुछ पंक्तियां

-भारतेंदु हरिश्चंद्र
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।
………
~मैथिलीशरण गुप्त
मेरी भाषा में तोते भी राम राम जब कहते हैं,
मेरे रोम रोम में मानो सुधा-स्रोत तब बहते हैं ।
सब कुछ छूट जाय मैं अपनी भाषा कभी न छोड़ूंगा,
वह मेरी माता है उससे नाता कैसे तोड़ूंगा ।।
……………..
– अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
पड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा
हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा
बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती
कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती
आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नाम ही
इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही
जिसने जग में जन्म दिया औ पोसा, पाला
जिसने यक यक लहू बूँद में जीवन डाला
उस माता के शुचि मुख से जो भाषा सीखी
उसके उर से लग जिसकी मधुराई चीखी
जिसके तुतला कर कथन से सुधाधार घर में बही
क्या उस भाषा का मोह कुछ हम लोगों को है नहीं
…………………..
– गोपाल सिंह नेपाली
दो वर्तमान का सत्य सरल,
सुंदर भविष्य के सपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो
यह दुखड़ों का जंजाल नहीं,
लाखों मुखड़ों की भाषा है
थी अमर शहीदों की आशा,
अब जिंदों की अभिलाषा है
मेवा है इसकी सेवा में,
नयनों को कभी न झंपने दो
हिंदी है भारत की बोली
तो अपने आप पनपने दो
…………..
– गिरिजा कुमार माथुर
उच्चवर्ग की प्रिय अंग्रेजी
हिंदी जन की बोली है
वर्ग भेद को खत्म करेगी
हिंदी वह हमजोली है,
सागर में मिलती धाराएँ
हिंदी सबकी संगम है
शब्द, नाद, लिपि से भी आगे
एक भरोसा अनुपम है
गंगा कावेरी की धारा
साथ मिलाती हिंदी है
……………
– अटल बिहारी वाजपेयी
गूंजी हिंदी विश्व में
गूंजी हिन्दी विश्व में, स्वप्न हुआ साकार
राष्ट्र संघ के मंच से, हिन्दी का जयकार
हिन्दी का जयकार, हिन्दी हिन्दी में बोला
देख स्वभाषा-प्रेम, विश्व अचरज से डोला
कह कैदी कविराय, मेम की माया टूटी
भारत माता धन्य,स्नेह की सरिता फूटी।
…………………
~गिरिजा कुमार माथुर
एक डोर में सबको जो है बाँधती
वह हिंदी है,
हर भाषा को सगी बहन जो मानती
वह हिंदी है।
भरी-पूरी हों सभी बोलियां
यही कामना हिंदी है,
गहरी हो पहचान आपसी
यही साधना हिंदी है
………………..
– केदारनाथ सिंह
जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई-अड्डे की ओर
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा।

हिन्दी दिवस विशेष – सबसे शुद्ध और विज्ञान सम्मत भाषा है हिन्दी

हिन्दी आज भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के विराट फलक पर अपने अस्तित्व को आकार दे रही है। आज हिन्दी विश्व भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। अब तक भारत और भारत के बाहर सात विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं। पिछले सात सम्मेलन क्रमश: नागपुर (1975), मॉरीशस (1976), नई दिल्ली (1983), मॉरीशस (1993),त्रिनिडाड एंड टोबेगो (1996), लंदन (1999), सूरीनाम (2003) में हुए थे। अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन 2007 में न्यूयार्क में होगा।

वर्तमान में आर्थिक उदारीकरण के युग में बहुराष्ट्रीय देशों की कंपनियों ने अपने देशों (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन आदि) के शासकों पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है ताकि वहां हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार तेजी से बढ़े और हिन्दी जानने वाले एशियाई देशों में वे अपना व्यापार उनकी भाषा में सुगमता से कर सकें। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की प्रगति यदि इसी प्रकार होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ में एक अधिकारिक भाषा का रूप हासिल कर लेगी। वर्तमान में मातृभाषियों की संख्या के दृष्टिकोण से विश्व की भाषाओं में मंदारिन [चीनी] भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है। चीनी भाषा के बोलने वालों की संख्या हिन्दी भाषा के बोलने वालों से अधिक है। परन्तु मंदारिन भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की तुलना में सीमित है और अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा अधिक है किन्तु हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या अंग्रेज़ी भाषियों से अधिक है।

अंग्रेजी के मूल क्षेत्र माने जाने वाले देशों की वर्तमान जनसँख्या देखें तो अमेरिका की जनसंख्या 31 करोड़, ग्रेट-ब्रिटेन की जनसंख्या 6.50 करोड़, कनाडा की जनसंख्या 3.6 करोड़, आस्ट्रेलिया की जनसंख्या सवा दो करोड़), आयरलैंड की जनसंख्या 65 लाख और न्यूजीलैंड की जनसंख्या 50 लाख है। इनकी कुल जनसंख्या वर्तमान में 44.25 करोड़ के आस-पास है। जबकि इसी वर्ष भारत की जनसंख्या 131 करोड़ से अधिक है। भारत के लगभाग 70 प्रतिशत लोग राजकाज, जनसंचार, शिक्षा, व्यापार या घर के बाहर संपर्क के लिए हिन्दी का उपयोग करते हैं। इस आधार पर हिन्दी का व्यवहार करने वालों की संख्या 90 करोड़ हो जाती है। जो विश्व भर में अंग्रेजी के गढ़ वाले देशों की देशों की कुल जनसंख्या के लगभग दो गुना से भी अधिक है। यदि भारत में आधे लोगों को भी हिन्दी व्यवहार करने वालों में गिना जाए तब भी अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी का ही पलड़ा भारी पड़ता है और हिन्दी विश्व की दूसरी प्रमुख भाषा बन जाती है। किन्तु अगर इसमें मारीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, पड़ोसी नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश विश्व के अन्य देशों में बसे हिन्दी बोलने, जानने वालों की संख्या भारतवंशियों जोड़ दें तो हिन्दी मंदारिन को पछाड़कर विश्व की सबसे बड़ी भाषा है।

आज वैश्विक स्तर पर यह सिद्ध हो चुका है कि हिन्दी भाषा अपनी लिपि और ध्वन्यात्मकता (उच्चारण) के लिहाज से सबसे शुद्ध और विज्ञान सम्मत भाषा है। हमारे यहां एक अक्षर से एक ही ध्वनि निकलती है और एक बिंदु (अनुस्वार) का भी अपना महत्व है। दूसरी भाषाओं में यह वैज्ञानिकता नहीं पाई जाती। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्राह्य भाषा अंग्रेज़ी को ही देखें, वहां एक ही ध्वनि के लिए कितनी तरह के अक्षर उपयोग में लाए जाते हैं जैसे ई की ध्वनि के लिए ee (see) i (sin) ea (tea) ey (key) eo (people) इतने अक्षर हैं कि एक बच्चे के लिए उन्हें याद रखना मुश्किल हैं, इसी तरह क के उच्चारण के लिए तो कभी c (cat) तो कभी k (king)। ch का उच्चारण किसी शब्द में क होता है तो किसी में च। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण आश्चर्य की बात है कि ऐसी अनियमित और अव्यवस्थित, मुश्किल अंग्रेजी हमारे बच्चे चार साल की उम्र में सीख जाते हैं बल्कि अब तो विदेशों में भी हिंदुस्तानी बच्चों ने स्पेलिंग्स में विश्व स्तर पर रिकॉर्ड कायम किए हैं, जबकि इंग्लैंड में स्कूली शिक्षिकाएं भी अंग्रेज़ी की सही स्पेलिंग्स लिख नहीं पातीं।

हमारे यही अंग्रेजी भाषा के धुरंधर बच्चे कॉलेज में पहुंचकर भी हिन्दी में मात्राओं और हिज्जों की गलतियां करते हैं और उन्हें सही हिन्दी नहीं आती जबकि हिन्दी सीखना दूसरी अन्य भाषाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा आसान है। ऐसे में हिन्दी की उपेक्षा और उसके राष्ट्रभाषा न बन पाने के कारणों का त्वरित और गम्भीरता पूर्वक अध्ययन कर समाप्त कर हिन्दी को हिन्दुस्तान के मस्तक पर सजाना होगा। वेब, विज्ञापन, सिनेमा और बाजार के क्षेत्र में हिंदी की मांग जिस तेजी से बढ़ी है, वैसी किसी और भाषा में नहीं। विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैकड़ों छोटे-बड़े केंद्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध स्तर तक हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई है। विदेशों में 35 से अधिक पत्र-पत्रिकाएं लगभग नियमित रूप से हिंदी में प्रकाशित हो रही हैं। यूएई में ‘हम एफ-एम’ हिन्दी रेडियो प्रसारण सेवा है, इसी प्रकार बीबीसी, जर्मनी के डायचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। विदेशों में चालीस से अधिक देशों के 600 से अधिक विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है।

दो हिन्दी अंतर्जाल पत्रिकाएं जो विश्व में प्रतिमाह 6,000 से अधिक लोगों द्वारा 120 देशों में पढ़ी जाती हैं। अभिव्यक्ति व अनुभूति www.abhivykti-hindi.org तथा www.anubhuti-hindi.org के पते पर विश्वजाल (इंटरनेट) पर मुफ्त उपलब्ध हैं। ब्रिटेनवासियों ने हिन्दी के प्रति बहुत पहले से रुचि लेनी आरंभ कर दी थी। गिलक्राइस्ट, फोवर्स-प्लेट्स, मोनियर विलियम्स, केलाग होर्ली, शोलबर्ग ग्राहमवेली तथा ग्रियर्सन जैसे विद्वानों ने हिन्दीकोष व्याकरण और भाषिक विवेचन के ग्रंथ लिखे हैं। लंदन, कैंब्रिज तथा यार्क विश्वविद्यालयों में हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था है। यहां से प्रवासिनी, अमरदीप तथा भारत भवन जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है। बीबीसी से हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। फिज़ी में ‘रेडियो नवरंग’ एकमात्र ऐसा रेडियो स्टेशन है, जो 24 घण्टों तक हिंदी कार्यक्रम पेश कर रहा है। फिज़ी सरकार सूचना मंत्रालय के माध्यम से ‘नव ज्योति’ नामक त्रैमासिक पत्रिका भी निकालती है।

आइये देखते हैं विश्व में हिन्दी के पठन-पाठन से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण जानकारी-

विश्व के मानचित्र में फ्रांस का एक विशेष स्थान है। फ्रांस के पेरिस शहर में सौरबेन विश्वविद्यालय में 3 वर्ष के पाठ्यक्रम के अलावा पीएचडी के लिए शोध की भी व्यवस्था है। ‘’पेरिस के प्राच्य भाषाओं एवं सभ्यताओं के राष्ट्रीय संस्थान’’ में हिंदी में 2 वर्ष का सर्टिफिकेट कोर्स, 3 साल का डिप्लोमा, 4 साल में उच्च डिप्लोमा, 5 साल और 6 साल के उच्च अध्ययन के शिक्षण की भी व्यवस्था है।

जापान: जापान के टोक्यो और ओसाका विश्वविद्यालयों में हिंदी का छह वर्षीय कोर्स है। इसके अलावा अन्य विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों में हिंदी वैकल्पिक विषय के रूप में द्वितीय एवं तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है। सन 1992 के करीब जापान का एक हिंदी स्कॉलर काफी समय तक भारत में रहने के उपरांत शिकागो गया और वहां पर हिंदी का एक वृहत् पुस्तकालय देखकर उस जापानी विद्वान ने भारत में अपने एक मित्र प्रोफ़ेसर को पत्र लिखा था कि यहां के हिंदी पुस्तकालय को देखकर दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को शर्मिंदा होना पड़ेगा। तो ऐसी है हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी।

कनाडा: कनाडा की यूनिवर्सिटी आफ ब्रिटिश कोलंबिया में हिंदी का 2 वर्ष का पाठ्यक्रम है। मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय में प्रारंभिक स्तर पर और अटावा शहर में बने मुकुल हिंदी हाई स्कूल में 1971 से सभी कक्षाओं में और टोरंटो शहर के कुछ स्कूलों में भी हिंदी पढ़ाई जाती है।

संयुक्त राज्य अमेरिका। संयुक्त राज्य अमेरिका के 30 विश्वविद्यालयों में उच्च, इंटरमीडिएट एवं प्रारंभिक स्तर पर एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में येन विश्वविद्यालय में 1815 से ही हिन्दी की व्यवस्था है। 1875 में कैलाग ने हिन्दी भाषा का व्याकरण तैयार किया था। अमरीका से हिन्दी जगत प्रकाशित होती है। कैलिफोर्निया, कोलंबिया, विस्कॉन्सिन, पेनसिलवेनिया, वर्जीनिया, टेक्सास, वाशिंगटन और शिकागो आदि विश्व विद्यालयों में हिंदी का भाषा केंद्रित अध्यन होता है।

नार्वे: नार्वे के ओसलो विश्वविद्यालय में मास्टर डिग्री के लिए हिंदी का पठन-पाठन किया जाता है तथा कुछ अन्य शहरों में भी प्राथमिक स्तर के स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाती है। स्वीडन के स्काटहोम विश्वविद्यालय में हिंदी का आधारभूत पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है. उप्पसला विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाई जाती है।

दक्षिण अफ्रीका: दक्षिण अफ्रीका के यूनिवर्सिटी आफ डरबन में [डरबन शहर] में स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री के लिए हिन्दी पठान की व्यवस्था है। 50 विद्यालयों में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की परीक्षाओं के लिए हिंदी पढ़ाई जाती है।

चीन: चीन के बीजिंग विश्वविद्यालय में ‘’पूर्वी भाषाएं और साहित्य विभाग’’ में स्नातक डिग्री के लिए हिंदी की पढ़ाई होती है।

ब्रिटेन: ब्रिटेन के लंदन विश्वविद्यालय एवम कैंब्रिज विश्वविद्यालय में बीए एम्ए. के स्तर पर ‘’भाषा विज्ञान’’ विषय के रुप में हिंदी के अध्यापन की व्यवस्था है।

जर्मनी: जर्मनी के हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय, बर्लिन स्थित फ्री विश्वविद्यालय, बर्लिन स्थित ही लीपजिंग विश्वविद्यालय, मार्टिनलूथर विश्वविद्यालय, बान विश्वविद्यालय, हाईडेलबर्ग विश्वविद्यालय, और हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में नियमित रुप से हिंदी पढ़ाई जाती है। यहां के अन्य कई विश्वविद्यालयों में भी हिंदी पढ़ाई जाती है।

रूस: रूस में मास्को स्थित ‘’प्राच्य अध्ययन संस्थान’’ और पेतेरबर्ग स्थित ‘’प्राच्य भाषा संस्थान’’ में 1920 से हिंदी पढ़ाई जा रही है। व्लादिवोस्तोक स्टेट यूनिवर्सिटी में भी हिंदी पढ़ाई जाती है।

स्विट्ज़रलैंड: स्विट्ज़रलैंड में लवसाने और ज्यूरिख के विश्वविद्यालयों में हिंदी के प्रारंभिक पाठ्यक्रम पढ़ाये जाते हैं।

इटली: इटली के नेपल्स और वेनिस विश्वविद्यालयों में इन्डोलाजी एंड फॉरईस्ट विभागों में हिंदी के उच्च स्तरीय पठन की व्यवस्था है। मिलान इंस्टिट्यूट फॉर मिडिल ईस्ट, मिलानविश्वविद्यालय और ट्यूरिन विश्वविद्यालय के ‘’आधुनिक आर्य परिवार की भाषाओं का विभाग’’ में हिंदी की शिक्षा दी जाती है।

हालैंड: हालैंड के लायडन विश्वविद्यालय में हिंदी का 4 वर्षीय शिक्षण पाठ्यक्रम है। इसके अलावा निजी संगठन भी हिंदी सिखाते हैं।

ऑस्ट्रेलिया: ऑस्ट्रेलिया के कैनबरा स्थित विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर ऐच्छिक विषय के रूप में हिंदी का अध्ययन होता है। लात्रोवे, मोनाश तथा क्वींसलैंड के विद्यापीठों में भी हिंदी पढ़ाई जाती है, अन्य देशो जैसे डेनमार्क, पोलैंड, चेक गणराज्य, हंगरी, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको, क्यूबा, बेल्जियम, ऑस्ट्रिया, फिनलैंड, रोमानिया, क्रोशिया गणराज्य, मंगोलिया, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, तुर्की, थाईलैंड, रीयूनियम, अर्जेंटीना, सऊदी अरेबिया, ओमान, बहरीन, मलेशिया, ताइवान, सिंगापुर, केन्या, कुवैत, इराक, ईरान, तंजानिया, जांबिया, बहरीन, बोत्सवाना और इंडोनेशिया के स्कूलों में हिंदी का अध्यापन होता है।

हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान के कराची लाहौर विश्वविद्यालय तथा इस्लामाबाद की स्कूल ऑफ मॉडर्न लैंग्वेजेस में सर्टिफिकेट और डिप्लोमा स्तर पर हिंदी पढ़ाई जाती है। श्रीलंका में डिग्री कोर्स तक हिंदी पढ़ाई जाती है। हमारे पड़ोसी नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर और पीएचडी तक की हिंदी सुविधा है। बांग्लादेश में हिंदी का 4 वर्षीय कोर्स है। भूटान के 8 स्कूलों तथा बर्मा के मंदिरों, धर्मशालाओं व गैर सरकारी स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाती है। तो यह है हमारे पड़ोसी देशों में हिंदी की स्थिति। कुछ ऐसे भी देश हैं, जहां बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं और वहां भाषा के साथ साथ भारतीय संस्कृत को भी आगे बढ़ा रहे हैं। वहाँ हिंदी में पत्र पत्रिकाएं भी निकलती हैं। जैसे मारीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो।

मारीशस: मारीशस के लगभग 350 गैर सरकारी स्कूलों में सांध्यकालीन पढ़ाई होती है। माध्यमिक पढ़ाई के करीब 30 सरकारी और 100 गैर सरकारी विद्यालयों में 25000 विद्यार्थी प्रतिवर्ष हिंदी पढ़ते हैं। यह आंकड़ा बढ़ गया है। महात्मा गांधी संस्थान में डिप्लोमा कोर्स, अध्यापकों के लिए पीजी डिप्लोमा कोर्स 3 वर्ष का, हिंदी में बीए ऑनर्स कोर्स, फिजी में पहली व दूसरी कक्षा में हिंदी शिक्षा का माध्यम है तीसरी कक्षा से हिंदी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। विश्वविद्यालयों में भी हिंदी पढ़ाई जाती है। सूरीनाम में सबसे ज्यादा विश्व विद्यालयों में हिंदी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। सन 1977 से हिंदी परिषद द्वारा आयोजित पाठ्यक्रमों में तकरीबन एक हजार से ज्यादा छात्र हिंदी की परीक्षाएं देते हैं। भारतीय संस्कृति के केंद्र में भी हिंदी पढ़ाई जाती है। त्रिनिदाद एवं टोबैगो यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टइंडीज और नीहस्ट में दो प्रोफेसर हिंदी पढ़ाते हैं। वेस्टइंडीज विश्वविद्यालय में हिंदी पीठ की स्थापना की गई है। यहां के अनेक विद्यालयों में हिंदी का पठन-पाठन होता है तथा हिंदी के अध्यापकों को प्रशिक्षित किया जाता है। गुयाना में ‘’हिंदी प्रचार’’ सभा द्वारा यहां के मंदिरों में लगभग सब पाठशालाएं हिंदी की प्राथमिक और माध्यमिक परीक्षा की व्यवस्था करती हैं। कुछ माध्यमिक स्कूलों में 6:00 से 8:00 तक हिंदी पढ़ाने का बंदोबस्त है।

हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है अगर हिंदी के विकास में कोई बाधा है, तो स्वयं हम भारतीय। जो अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पाते। हम स्वयं हिंदी की उपेक्षा करते हैं। हमारे घर में हमारी ही मां उपेक्षित है और दूसरे की मां अंग्रेजी को हम माँ-माँ कहकर चिल्लाते हैं। जो हमें मौसी जैसा भी भाव नहीं देती। किसी विद्वान ने कहा था कि– ‘अगर किसी को गुलाम बनाना है तो पहले उसकी भाषा व संस्कृति को नष्ट कर दो’ वह खुद गुलाम हो जाएगा। वही अंग्रेजों ने किया। हमारी भाषा व संस्कृत को विकृत कर दिया। वह जाते-जाते अपना काम कर चुके थे। अंग्रेजी अपना पैर पसार चुकी थी और आज अंग्रेजी की क्या स्थिति है सब जानते हैं। सबसे ज्यादा अप्रवासी भारतीयों का हिंदी के विकास में योगदान है। हमारे देश में मध्यवर्गीय परिवारों के लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाते हैं हिंदी माध्यम से पढ़ाने में खुद को हीन महसूस करते हैं। इसमें भारत सरकार की कमजोरी है। हर सरकारी कार्यालयों में ज्यादातर कार्य अंग्रेजी में ही किए जाते हैं। जहां भी नौकरी के लिए जाइये पहला सवाल यही होता है- अंग्रेजी आती है कि नहीं? अगर नहीं, तो समझो नौकरी नहीं मिलेगी। इसलिए हिंदी वालों के मन में हीन भावना घर कर गई। आज हर गरीब-अमीर आदमी अपने बच्चे को कान्वेंट स्कूल में भेजना चाहता है। यही कारण है कि आजादी के 70 सालों बाद भी हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। इस मामले में हमें चीन से सबक लेने की जरूरत है जो अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति कटिबद्ध है। अंग्रेजों ने जैसे अंग्रेजी को अंतराष्ट्रीय भाषा बनाया उसी तरह अगर हम हिंदी का प्रयोग खुलकर हर जगह करें, पढ़े-पढ़ाएं, हिंदी के प्रति समर्पण, प्रेरणा लें और दें। फिर वह दिन दूर नहीं, जब दुनिया वाले हिंदी के पीछे भागेंगे और हिंदी एक स्थापित अंतर्राष्ट्रीय भाषा होगी। जरूरत है तो अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति दृढ़निश्चयी होना, प्रेम होना, हिन्दी को लेकर निराश नहीं होना और उत्साही होना।

(स्रोत साभार – प्रभा साक्षी)

………………..
 भारतीय भाषाओं की वर्णमाला विज्ञान से भरी है। वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर तार्किक है और सटीक गणना के साथ क्रमिक रूप से रखा गया है। इस तरह का वैज्ञानिक दृष्टिकोण अन्य विदेशी भाषाओं की वर्णमाला में शामिल नहीं है। जैसे देखे
क ख ग घ ड़ – पांच के इस समूह को “कण्ठव्य” कंठवय कहा जाता है क्योंकि इस का उच्चारण करते समय कंठ से ध्वनि निकलती है। उच्चारण का प्रयास करें।
च छ ज झ ञ – इन पाँचों को “तालव्य” तालु कहा जाता है क्योंकि इसका उच्चारण करते समय जीभ तालू महसूस करेगी। उच्चारण का प्रयास करें।
ट ठ ड ढ ण – इन पांचों को “मूर्धन्य” मुर्धन्य कहा जाता है क्योंकि इसका उच्चारण करते समय जीभ मुर्धन्य (ऊपर उठी हुई) महसूस करेगी। उच्चारण का प्रयास करें।
त थ द ध न – पांच के इस समूह को दन्तवय कहा जाता है क्योंकि यह उच्चारण करते समय जीभ दांतों को छूती है। उच्चारण का प्रयास करें।
प फ ब भ म – पांच के इस समूह को कहा जाता है ओष्ठव्य क्योंकि दोनों होठ इस उच्चारण के लिए मिलते हैं। उच्चारण का प्रयास करें।
(स्रोत साभार – फेसबुक)

वाणी प्रवाह 2024 – रचनात्मक लेखन (काव्य)

जिंदा प्रेत
-अजीत कुमार साव
रात काली, बादल भी काली,
झर- झराने वाली थी ।
उससे पहले हम दोनों,
एक दूसरे पर झर झरा बैठे
उनका सुझाव को,
मैं अपना अपमान समझ बैठा,
दुर्योधन बन, बादल से भी,
 तेज गरज बैठा
वे गिरधारी बने, शांति से समझाते रहे।
मैं तो ठहरा दुर्योधन, कहां समझने वाला था।
गर गर गर गर गरजे जा रहा था,
सारी सीमाओं को लाघे जा रहा था
तब गिरधारी ,सुदर्शनधारी बन
यथार्थ गीत सुनाने लगे
अपना दिव्य रूप दिखाने लगे
उनकी दिव्य प्रकाश से अंधकार भी छटने लगा।
भूत, वर्तमान भविष्य
सब एक क्षण  में देख लिया
पूरा ब्रह्मांड एक क्षण में घूम लिया
कुछ भी सत्य बचा नहीं।
बादल फटा, दुर्योधन से मैं बना
वे भी भौकाल रूप त्यागे,
आंखें नम थी, चेहरा लाल था
मेरे वाणी के वान से, उनका ह्रदय कैहरा रहा था।
यह देख मेरा हृदय चीख उठा
आत्मा चीख चीख कर,
मेरा अपराध गिनाने लगी,
मुझे उनका स्मरण कराने लगी।
आंखें खुली थी फिर भी,
 स्मृतियों का स्वप्न चलने लगी।
क्षमा मांगने का भाव उठा
पर हिम्मत न हुई।
सूरज उठी ,पृथ्वी प्रकाश से जगमगाई।
पर आंखें देखने को तैयार ही नहीं थी
टूटक टूटक  कर बाते हुई,
 पर नजरें चुरा चुरा कर
आंखें अब नहीं मिलती,
 सर अब नहीं उठता
ह्रदय और मन की व्याकुलता
अब जीने नहीं देती
जिन्होंने मुझे जीना सिखाया,
 मैं उन्हीं को बातों से मारा।
अब जिंदा प्रेत बना बैठा हूं
क्योंकि जीना बताने वाले को,  मैं मार दिया।
मुझे लगा, मैं अकेला जिंदा प्रेत हूं
पर नहीं,
सो नहीं, लाख नहीं, करोड़ों है।
मैं तो इस दुनिया में बेहद तुच्छ हूं
जीना सिखाने वाले को,
मैं अकेला, मारने वाला नहीं हूं
मैं अकेला, जिंदा प्रीत नहीं हूं
पृथ्वी तो मनुष्य से ज्यादा, प्रेत से ही भरी पड़ी है।
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नीतिराज
मैंने जाना आज एक शब्द ‘ नीतिराज ‘
राजनीति का मुखौटा ओढ़े करता सब पर राज
नेता मंत्री सब हो रहे मालामाल ,
नीतिराज को अपना
 नीतिराज से त्रस्त हुए, जनता करती त्राहिमाम – त्राहिमाम
मान मर्यादा सब बाजार में,
 गौरव भी कतार में
लग रही बोलियां स्वाभिमान की,
बिक रही संस्कृति परंपरा
साथ में मुफ्त में भाषा,
नीति के राज में
हिंसा इसकी सोच है
विनाश इसकी प्रवृत्ति है
मनुष्यता इसकी दुश्मन है
अराजकता इसकी मित्र है
तभी तो हर राक्षस का मूल मंत्र है ‘ नीतिराज’
ये राजनीति का मुखौटा ओढ़े नीतिराज का राज है

गणेश चतुर्थी पर बनाएं स्वादिष्ट मोदक

चॉकलेट मोदक 
सामग्री : 1 कप चावल का आटा, 1/2 कप मैदा, 2 चम्मच घी, एक चुटकीभर नमक, देशी घी। भरावन सामग्री : 1 कप मावा, 1/2 कप शक्कर, 1/2 कप किसी हुई चॉकलेट, चॉकलेट सॉस (अंदाज से)।
विधि : सबसे पहले एक कढ़ाई में मावा हल्का-सा भून लें एवं ठंडा कर लें। अब उसमें चॉकलेट व शक्कर मिलाकर अलग रख लें। तत्पश्चात कवर सामग्री मिलाकर गूंथ लें। 10-15 मिनट पश्चात उसकी पूरियां बेल कर भरावन भरें।
मोदक का आकार दें और गरम घी में मोदक धीमी आंच पर सुनहरे होने तक तल लें। लीजिए तैयार है स्वादिष्ट चॉकलेट मोदक। अब इस खास व्यंजन को भगवान श्री गणेश को नैवेद्य के रूप में चढ़ाएं।
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केसरयुक्त कोकोनट मोदक
कवर और भरावन सामग्री : 1 कप चावल का आटा , 1/2 कप मैदा, 2 टी स्पून देशी घी, चुटकी भर नमक। भरावन हेतु 2 कप किसा ताजा नारियल, पाव कप काजू दरदरा पिसा हुआ, पाव कप पिस्ता कतरन, 1 टी स्पून इलायची पाउडर, 1/2 कप दूध, केसर 4-5 लच्छा, 1 कप शकर।
विधि : सबसे पहले एक कढ़ाई में, नारियल, काजू, पिस्ता व शकर डालें तथा दूध डाल कर पकाते रहें। मावा जैसा गाढ़ा होने लगे तो आंच से उतारें व इलायची मिला लें। अब चावल के आटे में मैदा, घी व नमक मिलाकर गूंथ लें व पतली-पतली छोटी-छोटी पूरियां बेल लें। भरावन सामग्री थोड़ी-थोड़ी भरकर मोदक तैयार कर लें। फिर एक कढ़ाई में घी गर्म करें व धीमी आंच पर मोदक सुनहरे होने तक लें। अब केसर को दूध में घोटें व मोदक पर बिंदी लगाकर सजाएं और पेश करें।
(साभार – वेबदुनिया)
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पेरिमेनोपॉज खत्म होने से पहले दिखते हैं ये लक्षण

पेरिमेनोपॉज के दौरान महिलाओं में कई प्रकार के शारीरिक बदलाव आते हैं। यह वह समय है जब महिलाओं को हर महीने आने वाले पीरियड्स यानी मासिक धर्म धीरे-धीरे समाप्त होने लगते हैं और शरीर मेनोपॉज की ओर बढ़ता है। दरअसल, पेरिमेनोपॉज के दौरान, महिलाओं के शरीर में हार्मोनल बदलाव होने लगते हैं, जिससे मासिक धर्म अनियमित हो जाता है और कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक लक्षण दिखने लगते हैं। आमतौर पर पेरिमेनोपॉज 40 से 50 वर्ष की उम्र के बीच शुरू होता है और यह अवधि कुछ महीनों से लेकर कई सालों तक हो सकती है। लेकिन महिलाओं के लिए यह समझना थोड़ा मुश्किल हो सकता है कि पेरिमेनोपॉज का अंत कब हो रहा है। हालांकि, शरीर में पेरिमेनोपॉज खत्म होने से पहले कुछ लक्षण दिखने लगते हैं। इस लेख में क्लाउड 9 हॉस्पिटल नोएडा की फर्टिलिटी डिपार्टमेंट की एसोसिएट डायरेक्टर, प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉक्टर राखी से जानें पेरिमेनोपॉज से पहले महिलाओं में यह लक्षण दिखते हैं?
1. पीरियड्स में लंबा अंतराल – पेरिमेनोपॉज का समय खत्म होने का सबसे पहला लक्षण है मासिक धर्म के बीच लंबा अंतराल होना। जैसे-जैसे पेरिमेनोपॉज का समय आता है, मासिक धर्म यानी पीरियड्स के बीच के अंतराल बढ़ने लगते हैं। पहले यह अंतराल कुछ सप्ताह का होता था, लेकिन अब यह महीने या उससे अधिक का हो सकता है। यह इस बात का संकेत हो सकता है कि आपका शरीर मेनोपॉज की ओर बढ़ रहा है। मासिक धर्म की अनियमितता के कारण बहुत सी महिलाएं इसे सामान्य समझती हैं, लेकिन यह इस बात का संकेत हो सकता है कि पेरिमेनोपॉज का समय खत्म होने वाला है।
2. सिरदर्द का कम होना – पेरिमेनोपॉज के दौरान हार्मोनल उतार-चढ़ाव के कारण अक्सर महिलाओं को होती है। लेकिन जब पेरिमेनोपॉज खत्म की ओर होता है, तो सिरदर्द की समस्या कम होने लगती है। यह इस बात का संकेत है कि आपके शरीर में हार्मोनल स्थिरता आ रही है और पेरिमेनोपॉज खत्म हो रहा है।
3. मूड में स्थिरता – पेरिमेनोपॉज के दौरान एक आम समस्या होती है। हार्मोनल बदलावों के कारण महिलाएं अक्सर तनाव, चिंता और डिप्रेशन जैसी समस्याओं का सामना करती हैं। लेकिन जब महिलाएं पेरिमेनोपॉज के आखिरी फेज में होती हैं, तो मूड में स्थिरता आने लगती है। यह इस बात का संकेत है कि आपके शरीर में हार्मोनल स्तर स्थिर हो रहे हैं और यह पेरिमेनोपॉज के खत्म होने का लक्षण है।
4. बार-बार हॉट फ्लैशेज का अनुभव – पेरिमेनोपॉज के दौरान महिलाओं को हॉट फ्लैशेज की समस्या बहुत होती है। यह तब होता है जब शरीर का तापमान अचानक बढ़ जाता है, जिससे गर्मी और पसीने का अनुभव होता है। जब महिलाएं पेरिमेनोपॉज के आखिरी फेज में होती हैं, तो हॉट फ्लैशेज की समस्या ज्यादा बढ़ सकती है। यह इस बात का संकेत है कि पेरिमेनोपॉज समाप्त हो रहा है और आपका शरीर मेनोपॉज की ओर बढ़ रहा है।
5. नींद में कमी – नींद की समस्याएं पेरिमेनोपॉज के दौरान काफी आम होती हैं। हार्मोनल बदलावों के कारण कई महिलाओं को अनिद्रा और रात को पसीने की शिकायत होती है। लेकिन जब पेरिमेनोपॉज समाप्त होने की ओर होता है, तो नींद की समस्याएं ज्यादा बढ़ सकती हैं। यह इस बात का संकेत है कि आपके शरीर में हो रहे बदलावों के कारण नींद की क्वालिटी में गिरावट आ रही है और पेरिमेनोपॉज खत्म होने वाला है।

श्री गणेशोत्सव और छत्रपति शिवाजी महाराज का है विशेष संबंध

10 दिवसीय गणेशोत्सव महापर्व ‘गणेश चतुर्थी’ सनातन धर्म में विशेष महत्व रखता है। इस वर्ष ‘गणेश चतुर्थी’ 7 सितंबर 2024, शनिवार से शुरू हो गया। गणेश उत्सव पूरे 10 दिनों तक चलते हुए 17 सितंबर 2024 को समाप्त होगा। यूं तो गणेश जी की पूजा हर माह में दो बार पड़ने वाली चतुर्थी तिथि को पूरे विधि-विधान से की जाती है। लेकिन, इसका महत्व हर साल भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली चतुर्थी तिथि को बहुत ज्यादा बढ़ जाता है क्योंकि, मान्यता है कि इसी दिन गौरी पुत्र गणेश का जन्म हुआ था।
महाराष्ट्र और गुजरात में गणेशोत्सव को बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है। भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को ‘मुख्य गणेश चतुर्थी’, ‘विनायक चतुर्थी’, ‘कलंक चतुर्थी’ और ‘डंडा चौथ’ के नाम से भी जाना जाता है। गणेशोत्सव के पर्व के मौके पर चारों तरफ उत्सव की माहौल रहता हैं और हर किसी के मन में गणपति से अपनी मनोकामना की पूर्ति की अभिलाषा होती है। गणों के अधिपति श्री गणेश जी प्रथम पूज्य हैं सर्वप्रथम उन्हीं की पूजा की जाती है, उनके बाद अन्य देवताओं की पूजा की जाती है। किसी भी कर्मकांड में श्री गणेश की पूजा-आराधना सबसे पहले की जाती है क्योंकि, गणेश जी विघ्नहर्ता हैं, और आने वाले सभी विघ्नों को दूर कर देते हैं। आइए जानें श्री गणेशोत्सव का इतिहास और महत्व-
श्री गणेशोत्सव का इतिहास
1- धर्म गुरु के अनुसार, श्री गणेश उत्सव का महापर्व का इतिहास बहुत ही पुराना है। गणेश जी को विघ्नहर्ता माना जाता है। इसका पौराणिक एवं आध्यात्मिक महत्व है। इस उत्सव का प्रारंभ छत्रपति शिवाजी महाराज जी के द्वारा पुणे में हुआ था। शिवाजी महाराज ने गणेशोत्सव का प्रचलन बड़ी उमंग एवं उत्साह के साथ किया था, उन्होंने इस महोत्सव के माध्यम से लोगों में जन-जागृति का संचार किया।
2- इसके बाद पेशवाओं ने भी गणेशोत्सव के क्रम को आगे बढ़ाया। गणेश जी उनके कुलदेवता थे इसलिए वे भी अत्यंत उत्साह के साथ गणेश पूजन करते थे। पेशवाओं के बाद यह उत्सव कमजोर पड़ गया और केवल मंदिरों और राज परिवारों में ही सिमट गया। इसके पश्चात 1892 में भाऊसाहेब लक्ष्मण जबाले ने सार्वजनिक गणेश उत्सव प्रारंभ किया।
3- स्वतंत्रता के पुरोधा लोकमान्य तिलक, सार्वजनिक गणेशोत्सव की परंपरा से अत्यंत प्रभावित हुए और 1893 में स्वतंत्रता का दीप प्रज्वलित करने वाली पत्रिका ‘केसरी’ में इसे स्थान दिया। उन्होंने अपनी पत्रिका ‘केसरी’ के कार्यालय में इसकी स्थापना की और लोगों से आग्रह किया कि सभी इनकी पूजा-आराधना करें, ताकि जीवन, समाज और राष्ट्र में विघ्नों का नाश हो।
4-उन्होंने श्री गणेश जी को जन-जन का भगवान कहकर संबोधन किया। लोगों ने बड़े उत्साह के साथ उसे स्वीकार किया, इसके बाद गणेश उत्सव जन-आंदोलन का माध्यम बना। उन्होंने इस उत्सव को जन-जन से जोड़कर स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु जन चेतना जागृति का माध्यम बनाया और उसमें सफल भी हुए। आज भी संपूर्ण महाराष्ट्र इस उत्सव का केंद्र बिन्दु है, परंतु देश के प्रत्येक भाग में भी अब यह उत्सव जन-जन को जोड़ता है।
भाद्रपद चतुर्थी के दिन गणपति महाराज की स्थापना से आरंभ होकर चतुर्दशी को होने वाले विसर्जन तक गणपति जी विविध रूपों में पूरे देश में विराजमान रहते हैं। उन्हें मोदक तो प्रिय हैं ही, परंतु गणपति अकिंचन को भी मान देते हैं, अतः दूर्वा, नैवेद्य भी उन्हें उतने ही प्रिय हैं। गणपति महोत्सव जन-जन को एक सूत्र में पिरोता है।
अपने धर्म और संस्कृति का यह अप्रतिम सौंदर्य भी है, जो सबको साथ लेकर चलता है। श्रावण की पूर्णता, जब धरती पर हरियाली का सौंदर्य बिखेर रही होती है, तब मूर्तिकार के घर -आँगन में गणेश प्रतिमाएं आकार लेने लगती हैं। प्रकृति के मंगल उद्घोष के बाद मंगल मूर्ति की स्थापना का समय आना स्वाभाविक है।
(साभार नवभारत)

भगवान श्रीकृष्ण की ‘बेट द्वारका’ का होगा विश्व स्तरीय कायाकल्प

– तीन चरणों में होगा विकास, पहले चरण के लिए 150 करोड़ आवंटित
– गुजरात पर्यटन निगम ने बनाया विकास का मास्टर प्लान
द्वारका । बेट द्वारका में ‘सुदर्शन सेतु’ के निर्माण के बाद यात्रियों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। इसी तरह तीर्थस्थल और आस्था के साथ पौराणिक महत्व रखने वाले भगवान श्रीकृष्ण की ‘बेट द्वारका’ के विश्व स्तरीय कायाकल्प के लिए पर्यटन मंत्री मूलुभाई बेड़ा के मार्गदर्शन में गुजरात पर्यटन निगम ने मास्टर प्लान तैयार किया है। इस प्लान के तहत तीन चरणों में मंदिर परिसर, बीच और उसके आसपास के क्षेत्रों का विकास किया जाएगा। इसके पहले चरण के लिए राज्य सरकार ने 150 करोड़ रुपये की बड़ी राशि आवंटित की है। गुजरात पर्यटन निगम के अनुसार इस द्वीप के पहले चरण के विकास के लिए राज्य सरकार ने 150 करोड़ रुपये की बड़ी राशि आवंटित की गई है, जिसकी टेंडरिंग प्रक्रिया वर्तमान में चल रही है। आने वाले समय में इस द्वीप के फेज-2 और 3 के विकास कार्य शुरू किए जाएंगे। पर्यटन निगम की एक रिपोर्ट के अनुसार बेट द्वारका विकास परियोजना के फेज-1 में द्वारकाधीशजी मंदिर का विकास, सड़क सुंदरीकरण, हेरिटेज स्ट्रीट का विकास, शंखनारायण मंदिर और तालाब का विकास, नॉर्थ बीच विकास, सार्वजनिक बीच, पर्यटक विजिटर सेंटर और हाट बाजार और हिल्लॉक पार्क के साथ व्यूइंग डेक का निर्माण किया जाएगा।
फेज-2 व 3 के तहत किए जाने वाले विकास कार्य – बेट द्वारका पुनर्विकास परियोजना के फेज-2 में दांडी हनुमान मंदिर और बीच विकास, अभय माता मंदिर और सनसेट पार्क, नेचर और मरीन इंटरप्रिटेशन सेंटर, स्किल डेवलपमेंट सेंटर, कम्युनिटी लेक विकास और रोड एवं साइन का निर्माण किया जाएगा। इसी तरह बेट द्वारका विकास परियोजना के फेज-3 में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट सिस्टम, कम्युनिटी लेक विकास और लेक अराइवल प्लाजा तैयार किया जाएगा। भविष्य में यात्री सुविधाओं के लिए बीच से मंदिर तक शटल सेवा, ई-वाहन, डॉल्फिन देखने के लिए फेरी सेवा, ऑडियो-विजुअल प्रदर्शन, स्किल डेवलपमेंट और गाइड ट्रेनिंग आदि सुविधाएं विकसित की जाएंगी।
बेट द्वारका द्वीप विकास के फेज-1 के मुख्य आकर्षण – मंदिर परिसर और उसके आसपास के क्षेत्रों का विकास बेट द्वारका विकास के मास्टर प्लान के अनुसार किया जाएगा। मंदिर परिसर में यात्रियों की सुविधा के लिए चार दिशाओं में प्रवेश द्वार बनाए जाएंगे। जिसमें सुदामा सेतु से बेट द्वारका गांव की ओर जाने वाली सड़क, समुद्री मार्ग से मुख्य प्रवेश द्वार तक का रास्ता बनाया जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मंदिर में भीड़ न हो इसके लिए पुरुष और महिलाओं की दर्शन लाइनें अलग-अलग बनाई जाएंगी और दिव्यांगों को कोई असुविधा न हो इसके लिए इस मास्टर प्लान को डिज़ाइन किया गया है। मंदिर परिसर में यात्रियों को सूचित करने के लिए साइन बोर्ड, पानी के हौज, कचरा पेटी और बैठने के लिए बेंच की व्यवस्था होगी। यात्रियों की यात्रा को यादगार बनाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की घटनाओं के चित्र या मूर्तियों का प्रदर्शन करने की भी योजना बनाई गई है।
नॉर्थ-पद्म बीच पर विकसित हाेंगी सुविधाएं – बेट द्वारका का यह नॉर्थ बीच सर्दियों के मौसम में ‘डॉल्फिन’ देखने के लिए प्रसिद्ध है। यहां एक अनोखा ‘पद्म’ नामक शंख मिलता है, इसलिए इस बीच को ‘पद्म बीच’ भी कहा जाता है। मास्टर प्लान के अनुसार इस बीच पर पार्किंग, खाने-पीने के स्टॉल, बच्चों के खेल उपकरण, बैठने की सुविधा और टॉयलेट जैसी सुविधाएं विकसित की जाएंगी। इस नॉर्थ बीच पर पर्यटक मनोरंजन और सूर्यास्त का शानदार दृश्य का आनंद ले सकेंगे।
पर्यटक विजिटर सेंटर – बेट द्वारका विकास योजना के अनुसार यहां पर्यटक विजिटर सेंटर वर्तमान में सुदामा सेतु से मंदिर परिसर जाने के रास्ते में बनाया जाएगा। जिसमें मंदिर की ऐतिहासिक जानकारी व विभिन्न गतिविधियों की जानकारी दी जाएगी। इतना ही नहीं यहां वेटिंग एरिया, टॉयलेट्स, लॉकर सुविधा, गुजराती फूड का आनंद लेने के लिए एक रेस्टोरेंट और हाट बाजार भी बनाए जाएंगे।
हेरिटेज स्ट्रीट विकास – मास्टर प्लान में बेट द्वारका में कई ऐतिहासिक मंदिरों को जोड़ने वाली हेरिटेज स्ट्रीट में मुख्य रूप से द्वारकाधीश मंदिर, शंखनारायण मंदिर और हनुमान दांडी मंदिर को शामिल किया गया है। इन मंदिरों को जोड़ने वाले रास्तों को ‘हेरिटेज’ थीम पर विकसित किया जाएगा। इस स्ट्रीट में भित्तिचित्र, म्यूरल, चबूतरा, लैंडस्केपिंग, लाइट और बैठने की सुविधाएं विकसित की जाएंगी।
हिल्लॉक पार्क पर देख सकेंगे सूर्योदय – यहां से यात्री ‘सूर्योदय और सूर्यास्त’ का शानदार दृश्य देख सकेंगे। मास्टर प्लान के अनुसार, इस स्थान को ‘पब्लिक पार्क’ के रूप में विकसित किया जाएगा। यहां से सुदामा सेतु का शानदार दृश्य देखने को मिलेगा। इस पार्क में भी खाने-पीने के स्टॉल, विशेष लैंडस्केप, बोर्डवॉक, वॉकवे और कॉमन टॉयलेट जैसी सुविधाएं विकसित की जाएंगी।