भाषिक समन्वय के लिए अनुवाद की भूमिका महत्वपूर्ण : प्रो. चन्द्रकला पांडेय

कोलकाता । कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग एवं केंद्रीय हिंदी संस्थान (शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार) आगरा के संयुक्त तत्वावधान में ‘सामासिक संस्कृति के संवाहक : हिंदी भाषा और साहित्य’ विषयक दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन 27 और 28 फरवरी को विश्वविद्यालय से संबद्ध राजाबाजार साइंस कॉलेज प्रांगण के मेघनाद साहा और एन.आर. सेन सभागार में किया गया। इस संगोष्ठी का सफल संयोजन डॉ. राम प्रवेश रजक ने किया। उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि प्रो. सुनील बाबूराव कुलकर्णी (निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा) ने कहा कि साहित्य का दायित्व समाज का प्रतिबिंबन करना होता है। संगोष्ठी की महत्ता यह है कि इससे वाचन, श्रवण, लेखन आदि जैसे 12 कौशलों का विकास होता है। कलकत्ता विवि की पूर्व प्रो. चंद्रकला पांडेय भारत को विविध संस्कृतियों का देश मानती हैं तथा भाषिक समन्वय के लिए अनुवाद को महत्वपूर्ण मानती हैं। पूर्व प्रो. शंभुनाथ ने हिंदी को भारतीय भाषाओं का आंगन कहकर उसके महत्व को रेखांकित किया। प्रो. राजश्री शुक्ला ने कहा कि विश्वग्राम के युग में भी सामासिक संस्कृति का प्रतिनिधि भूमि केवल विश्वगुरु भारत ही हो सकता है। हिंदी भवन, विश्वभारती के पूर्व प्रो. रामेश्वर मिश्र ने कहा कि हिंदी में सामासिक संस्कृति की प्रतिनिधि भाषा बनने के सभी गुण मौजूद हैं। त्रिभुवन विश्वविद्यालय, नेपाल से डॉ. श्वेता दीप्ति ने कहा कि सामासिक संस्कृति के कारण ही भारत भूमि नेपाल की धरती से अलग नहीं महसूस होती है ।  कार्यक्रम में कुल 9 तकनीकी सत्र, 8 समानांतर सत्र तथा शोध-पत्र वाचन हेतु 9 ऑनलाइन सत्र की अध्यक्षता प्रो. वशिष्ठ अनूप (बी.एच.यू.), प्रो. महेश एस. (कालीकट विवि), प्रो. शकुंतला मिश्र (विश्वभारती), प्रो. अरुण होता, डॉ. कमलेश पांडेय, डॉ. सत्या उपाध्याय, डॉ. शुभ्रा उपाध्याय, प्रो. एस. आर. जयश्री (केरल विवि), प्रो. विवेक शुक्ल (डेनमार्क), प्रो. शिवकुमार सिंह (पुर्तगाल), डॉ. मणिकांठन सी. सी. (कन्नूर विवि), प्रो. संजय मदार, प्रो. विजय कुमार साव, डॉ. गीता दुबे, डॉ. राजीव कुमार रावत (खड़गपुर प्रौद्योगिकी संस्थान), डॉ. संजय जायसवाल, डॉ. मनीषा त्रिपाठी, डॉ. कमल कुमार, ने किया। सम्मानित मुख्य एवं विशिष्ट वक्तागण में प्रो. अमरनाथ, प्रो. तनुजा मजूमदार, प्रो. हितेंद्र कुमार मिश्र (शिलांग), प्रो. विवेक मणि त्रिपाठी (चीन), बिहार से डॉ. सुशांत कुमार, डॉ. प्रफुल्ल कुमार, डॉ. प्रवीण कुमार (म. प्र.), डॉ. मुकेश कुमार मिरोठा (नई दिल्ली), डॉ. विनोद कुमार, डॉ. दिनेश कुमार साहू (सिक्किम) आदि ने अपना सारगर्भित वक्तव्य प्रस्तुत किया। 60 प्रतिभागियों ने प्रत्यक्ष और लगभग 200 ने आभासी माध्यम से शोध-पत्र का वाचन किया। लगभग 30 विश्वविद्यालयों से प्राध्यापकों और शोधार्थियोँ ने प्रपत्र वाचन किया। वक्ताओं तथा प्रपत्र वाचकों के वक्तव्य का सार यह है कि भारतीय संस्कृति मनुष्य को श्रेष्ठ बनाने में सहायता करती है। वह मनुष्य के विकास में सहयोगिनी बनकर उसे ऊंचाई के शिखर पर ले जाती है। संस्कृति की सामासिकता ही हमें विश्वबंधुत्व के धरातल पर ले जाती है। हिंदी साहित्य अनेक संभावनाओं से भरा है। इसमें 8वीं शती से अब तक विविध संस्कृतियों और भाषाओं का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। हिंदी भाषा एक व्यापक संस्कृति की वाहिका है। दूसरे दिन के अंतिम सत्र में छात्राओं द्वारा सांस्कृतिक नृत्य की प्रस्तुति की गई। कार्यक्रम का आरंभ एम.ए. की प्रीति, निकिता, अलका द्वारा सरस्वती वंदना एवं आनंद, जुलियेटरोनी के दीप-प्रज्वलन गीत से हुआ। कार्यक्रम का कुशल संचालन डॉ. रामप्रवेश रजक (विभागाध्यक्ष), डॉ. इतु सिंह, डॉ. ममता त्रिवेदी, डॉ. रेशमी पांडा मुखर्जी, प्रीतम रजक, दीक्षा गुप्ता, अर्चना सिंह, परमजीत पंडित, प्रियंका सिंह, शुभांगी उपाध्याय ने किया। देश-विदेश के विभिन्न शिक्षा प्रतिष्ठानों के प्राध्यापकों, शोधार्थियों, विद्यार्थियों, साहित्यकारों आदि की गरिमामयी उपस्थिति रही। इस संगोष्ठी में लगभग 20 विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की। कार्यक्रम को सफल बनाने में विश्वविद्यालय परिवार तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान परिवार एवं महानगर के अन्यान्य कॉलेजों, विश्वविद्यालयों की महती भूमिका रही। इस कार्यक्रम के संयोजक डॉ. राम प्रवेश रजक ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए संगोष्ठी को संपन्न किया।
 (साभार – सपना खरवार  एवं दीक्षा गुप्ता )

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