उपेक्षा, हिंसा, राजनीति और हिंसक आन्दोलन में फँसा विकास को तरसा पहाड़

भारत बेहद खूबसूरत देश है और इस देश की खूबसूरती इसकी विविधता में है। विविधता में एकता का संदेश इस देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण है मगर आज इस संदेश को कोई समझने को तैयार नहीं है। कश्मीर में पत्थर चल रहे हैं तो अब तक बंगाल का हिस्सा रहा दार्जिलिंग जल रहा है। पहाड़ मुस्कुराना चाहता था मगर ऐसा लगता है जैसे वह अपनी अंतिम लड़ाई लड़ रहा है और यह लड़ाई हिंसक हो उठी है। जरा से सामंजस्य से जिस मसले को सुलझाया जा सकता था, वह सियासत की मेहरबानी से नासूर बन चुका है। देश की रक्षा में जान देने वाले गोरखा आज आत्मदाह की बात कर रहे हैं। अब वे गोरखालैंड की माँग पर दिल्ली में आमरण प्रदर्शन की तैयारी कर रहे हैं। देखा जाए तो आन्दोलन के तरीके की आलोचना की जा सकती है मगर इसके लिए जिम्मेदार सरकार ही नहीं कहीं न कहीं भारत की मुख्यधारा वाली मानसिकता ही है जो हर गोरखा को नेपाली समझती है। उत्तर – पूर्वी राज्यों के हमारे भाई – बहन, बहादुर, चाउमिन, चीनी, मैगी जैसे नामों से पुकारे जाते हैं। याद है कि पिंक में उत्तर – पूर्वी भारत की एक किरदार कहती है कि उसे किस तरह विकसित कहे जाने वाले शहरों में उत्तर – पूर्वी होने के कारण मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। यह एक कटु सत्य है कि उत्तर – पूर्वी और पहाड़ जैसे क्षेत्रों में न तो विकास पूरी तरह पहुँचा है और न ही उनको वैसी स्वीकृति है, जो कि भारत के अन्य राज्यों में प्राप्त है।

जहाँ तक मेरी समझ है तो इस समस्या की जड़ ही यही है कि हमने कभी भी इन क्षेत्रों की संस्कृति, भाषा और जीवनशैली का सम्मान नहीं किया। किसी भी राज्य की अपनी पसन्द या नापसन्द हो ही सकती है मगर उसे कोई अधिकार नहीं है कि वह अपनी मान्यता को उन क्षेत्रों पर जबरन थोपे जो उनकी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं। क्षमा कीजिए मगर मैं इस तर्क से सहमत नहीं हूँ कि बंगाल में होने के कारण मुझे बांग्ला या कोई और भाषा समझनी चाहिए जो मेरे मानस में नहीं है। ये सही है कि किसी भी भाषा की जानकारी सम्बन्धित राज्य में रहते – रहते हो जाती है, जीवनशैली और अपनी आवश्यकता के आधार पर भाषा सीखी जा सकती है मगर कोई मेरी भाषा की उपेक्षा कर बलात अपनी संस्कृति थोपना चाहेगा तो वह स्वीकार नहीं किया जा सकता।<strong> अपराजिता की पड़ताल इस बार इसी गोरखालैंड की माँग को लेकर है जो समस्या बना दी गयी है।  </strong>भाषा का प्रसार होना अच्छी बात है मगर आप उसे थोप नहीं सकते, उसे इस लायक बनाइए कि वह अपनी स्वीकृति खुद प्राप्त करे। गोरखालैंड और गोरखालैंड आन्दोलन का इतिहास बहुत पुराना है। अगर इस देश में विकास और भाषा का हवाला देकर छत्तीसगढ़, झारखंड और तेलगांना जैसे राज्य नहीं बनते तो गोरखालैंड की माँग अनुचित कही जा सकती थी मगर इस देश में ये सारे राज्य सिर्फ भाषायी और सांस्कृतिक राजनीति के आधार पर बने। गोरखालैंड की माँग उठती नहीं बल्कि खत्म हो सकती थी, अगर उसे समानता, विकास और भाषायी स्वतंत्रता के साथ रहने का अवसर दिया जाता मगर ऐसा नहीं हुआ। जरूरत इस बात की है कि वहाँ के लोगों के साथ राजनीति नहीं की जाए बल्कि उनको समझाया जाए क्योंकि अलग होना विकास की गारंटी नहीं है। इसके लिए आपको अपनी नीति बदलनी होगी, नजरिया बदलना होगा और इस समस्या को सुलझाने के तरीके बदलने होंगे। बांग्ला को थोपने की जिद छोड़नी होगी। दीदी, आप अपनी खुन्नस का ठीकरा चीन और पाकिस्तान के सिर पर नहीं मढ़ सकतीं क्योंकि ये सब आपकी विभाजक राजनीति के कारण हुआ है। जातियों के आधार पर अलग – अलग बोर्ड बनाकर आपने पहाड़ को बाँटा मगर गोरखा आपकी राजनीति समझ गए और एक गलती का नतीजा पूरा बंगाल भुगत रहा है। जरूरी है कि बंगाल और समूचे देश के बुद्धिजीवी, संस्थाएँ और खुद सरकार गोरखाओं को सम्मान दें जिसके वे हकदार हैं।

सीएम ममता कहती हैं कि  गोरखालैंड आदोलन को चीन का समर्थन प्राप्त है मगर उनके इस बयान को गोजमुमो (गोरखा जनमुक्ति मोर्चा) के महासचिव विनय तमाग ने सिरे से खारिज करते हुए सरकार की बौखलाहट बताया। उन्होंने कहा कि आदोलन का एकसूत्री एजेंडा गोरखालैंड राज्य का गठन है। इसके लिए हम किसी तरह के समझौते को तैयार नहीं हैं। इसको लेकर प. बंगाल सरकार में बौखलाहट है। इसकी पुष्टि मुख्यमंत्री के बयान से होती है। केंद्र सरकार हमारे आदोलन पर नजर रखे है। हंमारी सेना में गोरखा रेजिमेंट है, गोरखाओं के आन्दोलन के तरीके की आलोचना हो सकती मगर हम उनको अलगाववादी नहीं कह सकते और न ही कश्मीर के पत्थरबाजों से उनकी तुलना कर सकते हैं। यदि मुख्यमंत्री के बयान में तनिक सच्चाई होती तो हमारे उपर अभी तक कार्रवाई हो चुकी होती। हम भारतीय हैं। गोरखा राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर हैं। उन पर राष्ट्रद्रोही होने का आरोप मुनासिब नहीं है। गोरखालैण्ड की मांग करने वालों का तर्क है कि उनकी भाषा और संस्कृति शेष बंगाल से भिन्न है। गोरखालैण्ड की यह मांग हड़ताल, रैली और आंदोलन के रूप में भी समय-समय पर उठती रहती है।गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में गोरखालैंड के लिए दो जन आंदोलन (१९८६-१९८८) में हुए। इसके अलावा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में (२००७ से अब तक) कई आंदोलन हुए। इस बार भी यह आन्दोलन हिंसक हो चुका है। सरकारी सम्पत्तियों को लगातार नुकसान पहुँचाया जा रहा है। विरोधी पार्टियों के कार्यालय फूँके जा रहे हैं जिसका समर्थन कतई नहीं किया जा सकता। इस समस्या की जड़ तक जाने के लिए जरूरी है कि इस क्षेत्र और गोरखालैंड की माँग का इतिहास समझा जाए।

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उपेक्षा, हिंसा, राजनीति और हिंसक आन्दोलन में फँसा विकास को तरसा पहाड़

सुषमा त्रिपाठी

भारत बेहद खूबसूरत देश है और इस देश की खूबसूरती इसकी विविधता में है। विविधता में एकता का संदेश इस देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण है मगर आज इस संदेश को कोई समझने को तैयार नहीं है। कश्मीर में पत्थर चल रहे हैं तो अब तक बंगाल का हिस्सा रहा दार्जिलिंग जल रहा है। पहाड़ मुस्कुराना चाहता था मगर ऐसा लगता है जैसे वह अपनी अंतिम लड़ाई लड़ रहा है और यह लड़ाई हिंसक हो उठी है। जरा से सामंजस्य से जिस मसले को सुलझाया जा सकता था, वह सियासत की मेहरबानी से नासूर बन चुका है। देश की रक्षा में जान देने वाले गोरखा आज आत्मदाह की बात कर रहे हैं। अब वे गोरखालैंड की माँग पर दिल्ली में आमरण प्रदर्शन की तैयारी कर रहे हैं। देखा जाए तो आन्दोलन के तरीके की आलोचना की जा सकती है मगर इसके लिए जिम्मेदार सरकार ही नहीं कहीं न कहीं भारत की मुख्यधारा वाली मानसिकता ही है जो हर गोरखा को नेपाली समझती है। उत्तर – पूर्वी राज्यों के हमारे भाई – बहन, बहादुर, चाउमिन, चीनी, मैगी जैसे नामों से पुकारे जाते हैं। याद है कि पिंक में उत्तर – पूर्वी भारत की एक किरदार कहती है कि उसे किस तरह विकसित कहे जाने वाले शहरों में उत्तर – पूर्वी होने के कारण मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। यह एक कटु सत्य है कि उत्तर – पूर्वी और पहाड़ जैसे क्षेत्रों में न तो विकास पूरी तरह पहुँचा है और न ही उनको वैसी स्वीकृति है, जो कि भारत के अन्य राज्यों में प्राप्त है।

जहाँ तक मेरी समझ है तो इस समस्या की जड़ ही यही है कि हमने कभी भी इन क्षेत्रों की संस्कृति, भाषा और जीवनशैली का सम्मान नहीं किया। किसी भी राज्य की अपनी पसन्द या नापसन्द हो ही सकती है मगर उसे कोई अधिकार नहीं है कि वह अपनी मान्यता को उन क्षेत्रों पर जबरन थोपे जो उनकी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं। क्षमा कीजिए मगर मैं इस तर्क से सहमत नहीं हूँ कि बंगाल में होने के कारण मुझे बांग्ला या कोई और भाषा समझनी चाहिए जो मेरे मानस में नहीं है। ये सही है कि किसी भी भाषा की जानकारी सम्बन्धित राज्य में रहते – रहते हो जाती है, जीवनशैली और अपनी आवश्यकता के आधार पर भाषा सीखी जा सकती है मगर कोई मेरी भाषा की उपेक्षा कर बलात अपनी संस्कृति थोपना चाहेगा तो वह स्वीकार नहीं किया जा सकता। अपराजिता की पड़ताल इस बार इसी गोरखालैंड की माँग को लेकर है जो समस्या बना दी गयी है।  भाषा का प्रसार होना अच्छी बात है मगर आप उसे थोप नहीं सकते, उसे इस लायक बनाइए कि वह अपनी स्वीकृति खुद प्राप्त करे। गोरखालैंड और गोरखालैंड आन्दोलन का इतिहास बहुत पुराना है। अगर इस देश में विकास और भाषा का हवाला देकर छत्तीसगढ़, झारखंड और तेलगांना जैसे राज्य नहीं बनते तो गोरखालैंड की माँग अनुचित कही जा सकती थी मगर इस देश में ये सारे राज्य सिर्फ भाषायी और सांस्कृतिक राजनीति के आधार पर बने। गोरखालैंड की माँग उठती नहीं बल्कि खत्म हो सकती थी, अगर उसे समानता, विकास और भाषायी स्वतंत्रता के साथ रहने का अवसर दिया जाता मगर ऐसा नहीं हुआ। जरूरत इस बात की है कि वहाँ के लोगों के साथ राजनीति नहीं की जाए बल्कि उनको समझाया जाए क्योंकि अलग होना विकास की गारंटी नहीं है। इसके लिए आपको अपनी नीति बदलनी होगी, नजरिया बदलना होगा और इस समस्या को सुलझाने के तरीके बदलने होंगे। बांग्ला को थोपने की जिद छोड़नी होगी। दीदी, आप अपनी खुन्नस का ठीकरा चीन और पाकिस्तान के सिर पर नहीं मढ़ सकतीं क्योंकि ये सब आपकी विभाजक राजनीति के कारण हुआ है। जातियों के आधार पर अलग – अलग बोर्ड बनाकर आपने पहाड़ को बाँटा मगर गोरखा आपकी राजनीति समझ गए और एक गलती का नतीजा पूरा बंगाल भुगत रहा है। जरूरी है कि बंगाल और समूचे देश के बुद्धिजीवी, संस्थाएँ और खुद सरकार गोरखाओं को सम्मान दें जिसके वे हकदार हैं।

सीएम ममता कहती हैं कि  गोरखालैंड आदोलन को चीन का समर्थन प्राप्त है मगर उनके इस बयान को गोजमुमो (गोरखा जनमुक्ति मोर्चा) के महासचिव विनय तमाग ने सिरे से खारिज करते हुए सरकार की बौखलाहट बताया। उन्होंने कहा कि आदोलन का एकसूत्री एजेंडा गोरखालैंड राज्य का गठन है। इसके लिए हम किसी तरह के समझौते को तैयार नहीं हैं। इसको लेकर प. बंगाल सरकार में बौखलाहट है। इसकी पुष्टि मुख्यमंत्री के बयान से होती है। केंद्र सरकार हमारे आदोलन पर नजर रखे है। हंमारी सेना में गोरखा रेजिमेंट है, गोरखाओं के आन्दोलन के तरीके की आलोचना हो सकती मगर हम उनको अलगाववादी नहीं कह सकते और न ही कश्मीर के पत्थरबाजों से उनकी तुलना कर सकते हैं। यदि मुख्यमंत्री के बयान में तनिक सच्चाई होती तो हमारे उपर अभी तक कार्रवाई हो चुकी होती। हम भारतीय हैं। गोरखा राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर हैं। उन पर राष्ट्रद्रोही होने का आरोप मुनासिब नहीं है। गोरखालैण्ड की मांग करने वालों का तर्क है कि उनकी भाषा और संस्कृति शेष बंगाल से भिन्न है। गोरखालैण्ड की यह मांग हड़ताल, रैली और आंदोलन के रूप में भी समय-समय पर उठती रहती है।गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में गोरखालैंड के लिए दो जन आंदोलन (१९८६-१९८८) में हुए। इसके अलावा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में (२००७ से अब तक) कई आंदोलन हुए। इस बार भी यह आन्दोलन हिंसक हो चुका है। सरकारी सम्पत्तियों को लगातार नुकसान पहुँचाया जा रहा है। विरोधी पार्टियों के कार्यालय फूँके जा रहे हैं जिसका समर्थन कतई नहीं किया जा सकता। इस समस्या की जड़ तक जाने के लिए जरूरी है कि इस क्षेत्र और गोरखालैंड की माँग का इतिहास समझा जाए।

 गोरखालैंड की माँग का इतिहास

सिक्किम अधिराज्य की स्थापना १६४२ ई० में हुई थी, तब दार्जीलिंग सिक्किम अधिराज्य का एक क्षेत्र हुआ करता था। जब ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में अपना पैर पसार रहा था, उसी समय हिमालयी क्षेत्र में भी गोरखा नामक अधिराज्य पड़ोस के छोटे-छोटे राज्यों को एकीकरण कर अपना राज्य विस्तार कर रहा था। 1770 तक गोरखाओं के बड़ामहाराजाधिराज कहे जाने वाले पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल की घाटी और काठमांडू (वर्तमान नेपाल की राजधानी), ललितपुर (पाटन) तथा भक्तपुर जीते थे। गोरखाली साम्राज्य का विस्तार 1816 तक होता रहा।  सन १७८० में गोरखाओं ने सिक्किम पर अपना प्रभुत्व जमा लिया और अधिकांश भाग अपने राज्य में मिला लिया जिसमें दार्जीलिंग और सिलीगुड़ी शामिल थें। गोरखाओं ने सिक्किम के पूर्वी छोर तिस्ता नदी तक और इसके तराई भाग को अपने कब्जे में कर लिया था। उसी समय ईस्ट इंडिया कम्पनी उत्तरी क्षेत्र के राज्यों को गोरखाओं से बचाने में लग गए और इस तरह सन १८१४ में गोरखाओं और अंग्रेजों के बीच एंग्लो-गोरखा युद्ध हुआ।

गोरखा साम्राज्य के बड़ामहाराजाधिराज पृथ्वीनारायण शाह

इस युद्ध में गोरखाओं कि हार हुई फलस्वरूप १८१५ में वे एक संधि जिसे सुगौली संधि कहते हैं पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर हो गए। सुगौली संधि के अनुसार गोरखाओं को वह सारा क्षेत्र ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंपना पड़ा जिसे गोरखाओं ने सिक्किम के राजा चोग्याल से जीता था। गोरखाओं को मेची से टिस्टा नदी के बीच के सारे भू-भाग ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपना पड़ा।

बाद में १८१७ में तितालिया संधि के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी ने गोरखाओं से लिये सारे भू-भाग सिक्किम के राजा चोग्याल को वापस सौंप दिए और उनके राज्य के स्वाधीनता की गारंटी दी।बात यहीं खत्म नही हुई। १८३५ में सिक्किम के द्वारा १३८ स्क्वायर मील (३६० किमी²) भूमि जिसमें दार्जीलिंग और कुछ क्षेत्र शामिल थे को ईस्ट इंडिया कंपनी को अनुदान में सौंप दिया गया। इस तरह दार्जीलिंग १८३५ में बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा हो गया। नवम्बर १८६४ में भूटान और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच सिंचुला संधि हुई जिसमें बंगाल डुआर्स जो असल में कूच बिहार राज्य के हिस्से थें जिसे युद्ध मे भूटान ने कूच बिहार से जीत लिया था के साथ-साथ भूटान के कुछ पहाड़ी क्षेत्र और  कालिम्पोंग  को सिंचुला संधि के अंतर्गत ईस्ट इंडिया कंपनी को देने पड़े।

१८६१ से पहले और १८७०-१८७४ तक दार्जीलिंग जिला एक अविनियमित क्षेत्र (Non-Regulated Area) था अर्थात यहां अंग्रेजों के नियम और कानून देश के दूसरे हिस्से की तरह स्वतः लागू नही होते थें, जबतक की विशेष रूप से लागू नहीं किया जाता था। १८६२ से १८७० के बीच इसे विनियमित क्षेत्र (Regulated Area) समझा जाता रहा। १८७४ में इसे अविनियमित क्षेत्र से हटाकर इसे अनुसूचित जिला (Schedule district) का दर्जा दे दिया गया और १९१९ में इसे पिछड़ा क्षेत्र (Backward tracts) कर दिया गया। १९३५ से लेकर भारत के आजादी तक यह क्षेत्र आंशिक रूप से बाहरी क्षेत्र (Partially Excluded area) कहलाया। भारत के आजादी के बाद १९५४ में एक कानून पास किया गया “द अब्जॉर्बड एरियाज (कानून) एक्ट १९५४” जिसके तहत दार्जीलिंग और इस के साथ के क्षेत्र को पश्चिम बंगाल में मिला दिया गया।

अलग प्रशासनिक इकाई की मांग

दार्जीलिंग में अलग प्रशासनिक इकाई की मांग १९०७ से चली आ रही है, जब हिलमेन्स असोसिएशन ऑफ दार्जीलिंग ने मिंटो-मोर्ली रिफॉर्म्स को एक अलग प्रशासनिक क्षेत्र बनाने के लिए ज्ञापन सौंपा।

१९१७ में हिलमेन्स असोसिएशन ने चीफ सेक्रेटरी, बंगाल सरकार, सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ऑफ इंडिया और वाइसरॉय को एक अलग प्रशासनिक इकाई बनाने के लिए ज्ञापन सौंपा जिसमें दार्जीलिंग जिला और जलपाईगुड़ी जिले को शामिल करने के लिए कहा गया था।

१९२९ में हिलमेन्स असोसिएशन ने फिर से उसी मांग को सायमन कमिशन के समक्ष उठाया।

१९३० में हिलमेन्स असोसिएशन, गोर्खा ऑफिसर्स असोसिएशन और कुर्सियांग गोर्खा लाइब्रेरी के द्वारा एक जॉइंट पेटिशन भारत राज्य के सेक्रेटरी सैमुएल होर के समक्ष एक ज्ञापन सौंपा गया था जिसमें कहा गया था इन क्षेत्रों को बंगा प्रेसिडेंसी से अलग किया जाय।

१९४१ में रूप नारायण सिन्हा के नेतृत्व में हिलमेन्स असोसिएशन ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ऑफ इंडिया, लॉर्ड पथिक लॉरेन्स को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें कहा गया था दार्जीलिंग और साथ के क्षेत्रों को बंगाल प्रेसिडेंसी से निकाल कर एक अलग चीफ कमिश्नर्स प्रोविन्स बनाया जाय।

१९४७ में अनडिवाइडेड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने एक ज्ञापन कांस्टिट्यूट असेम्बली जिसमें से एक प्रति जवाहर लाल नेहरू, दी वाईस प्रेसिडेंट ऑफ द अंतरिम गवर्नमेंट और लियाक़त अली खान, फाइनेंस मिनिस्टर ऑफ अंतरिम गवर्नमेंट को सौंपा जिसमें सिक्किम और दार्जीलिंग को मिलाकर एक अलग राज्य गोरखास्थान निर्माण की बात कही गई थी।

स्वतन्त्र भारत में अखिल भारतीय गोरखा लीग वह पहली राजनीतिक पार्टी थी जिसने पश्चिम बंगाल से अलग एक नये राज्य के गठन के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू को एनबी गुरुंग के नेतृत्व में कालिम्पोंग में एक ज्ञापन सौंपा था।

१९८० में इंद्र बहादुर राई (दार्जीलिंग के प्रांत परिषद) के द्वारा तत्प्रकालीन धानमंत्री इंदिरा गांधी को लिखकर एक अलग राज्य की गठन की बात कही।

१९८६ में मोर्चा गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति के द्वारा एक हिंसक आंदोलन की शुरुआत हुई जिसका नेतृत्व सुभाष घीसिंग के हाथ में था। इस आंदोलन के फलस्वरूप १९८८ में एक अर्द्ध स्वायत्त इकाई का गठन हुआ जिसका नाम था “दार्जीलिंग गोरखा हिल परिषद”।

२००७ में फिर से एक नई पार्टी गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के द्वारा एक अलग राज्य की मांग उठाई गई। २०११ में गोर्खा जन मुक्ति मोर्चा ने एक त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसमें गोरखा जन मुक्ति मोर्चा, बंगाल सरकार और केंद्र सरकार शामिल थी। इस समझौते ने पुराने दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद को नए अर्द्ध स्वायत्त इकाई गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन में परिवर्तित कर दिया। गोरखा  मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में २०१७ में भी ८ जून से फिर से गोरखालैंड की मांग की आवाज़ उठ खड़ी हुई है।

अब तक हो चुके हैं कई आन्दोलन

गोरामुमो द्वारा आंदोलन और दागोहिप का गठन – 1980 में सुभाष घीसिंग द्वारा अलग किन्तु भारत के अंदर ही एक राज्य बनाने की मांग उठी जिसमें दार्जीलिंग के पहाड़ी क्षेत्र, डुआर्स और सिलिगुड़ी के तराई क्षेत्र और दार्जीलिंग के आस-पास के क्षेत्र सम्मिलित हों। मांग ने एक हिंसक रूप धारण कर लिया, जिसमें 1200 लोग मारे गयें। यह आंदोलन 1988 में तब समाप्त हुआ जब दार्जीलिंग गोरखा हिल परिषद (दागोहिप) का गठन हुआ। दागोहिप ने 23 वर्षों तक दार्जीलिंग पहाड़ी पर कुछ स्वायत्तता के साथ शासन किया।

2004 में चौथी दागोहिप का चुनाव नहीं हुआ। यद्यपि, सरकार ने निश्चय किया कि चुनाव नहीं कराया जाएगा और सुभाष घीसिंग हि दागोहिप के सर्वेसर्वा होंगे जबतक कि नई छठी अनुसूचित जनजातीय परिषद का गठन नहीं हो जाता। इस कारण दागोहिप के भूतपूर्व सभासदों में नाराजगी तेजी से बढ़ी। बिमल गुरुंग जो घीसिंग के विश्वसनीय सहायक थें ने निश्चय किया कि वह गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा छोड़ देंगे। दार्जीलिंग के प्रशांत तामांग जो इंडियन आइडल के एक प्रतियोगी थें के समर्थन में बिमल गुरुंग ने इस का फायदा उठाया और घीसिंग को दागोहिप के कुर्सी से हटाने में सफल रहें। उन्होंने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का गठन किया और फिर से अलग राज्य गोरखालैंड के मांग में जुट गयें।

गोजमुमो के नेतृत्व में आंदोलन – 2009 के आम चुनाव से पहले, भारतीय जनता पार्टी ने फिर से अपनी नीति का उद्घोष करते हुए कहा था वे छोटे राज्यों के पक्ष में हैं और अगर आम चुनाव जीतते हैं तो दो नए राज्य तेलंगाना और गोरखालैंड के गठन में सहयोग करेंगे। गोजमुमो ने भाजपा के उम्मीदवार जसवंत सिंह का समर्थन किया, जो दार्जीलिंग लोक सभा सीट से विजयी हुयें उनके पक्ष में 51.5% मत पड़े थें। संसद के जुलाई 2009 के बजट अधिवेशन में, तीन सांसद— राजीव प्रताप रूडी, सुषमा स्वराज और जसवंत सिंह— ने गोरखालैंड बनाने पर जबरदस्त समर्थन किया था।

अखिल भारतीय गोरखा संघ के नेता मदन तामांग की हत्या के कारण गोरखालैंड की मांग ने एक नया मोड़ ले लिया। उन्हें कथित रूप से गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के समर्थकों ने 21 मई 2010 को दार्जीलिंग में चाकू मारकर हत्या कर दिया था, जिसके फलस्वरूप दार्जीलिंग पहाड़ के तीन तहसील दार्जीलिंग, कालिम्पोंग और कुर्सियांग बंद रहेँ। मदन तामांग के हत्या के पश्चात, पश्चिम बंगाल सरकार ने गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के खिलाफ कार्रवाई की धमकी दी, जिनके वरिष्ठ नेताओं के नाम एफआईआर में नामित थें, इस बीच गोरखा पार्टी के साथ अंतरिम व्यवस्था पर चल रहे वार्ता को समाप्त करने का संकेत देते हुए कहा गया कि हत्या के बाद इन लोगों ने लोकप्रिय समर्थन खो दिया है।  8 फरवरी 2011 को, गोजमुमो के तीन कार्यकर्ताओं की गोली मारकर हत्या कर दी गई, जिनमें से एक की मृत्यु पुलिस के द्वारा चोट पहुंचाने की वजह से बाद में हो गई, जब वे पदयात्रा पर थें। यह पदयात्रा बिमल गुरुंग के नेतृत्व में गोरुबथान से जयगांव जा रही थी। यह घटना तब घटित हुई जब वे पदयात्रा के दौरान जलपाईगुड़ी जिले में प्रवेश कर रहे थें। इस घटना की वजह से दार्जीलिंग पहाड़ में हिंसा उत्पन्न हो गई और शहर में अनिश्चित काल के लिए गोजमुमो के द्वारा बंद का आह्वान किया जो 9 दिनों तक चलता रहा। 18 अप्रैल 2011 को पश्चिम बंगाल राज्य विधानसभा चुनाव, 2011 में, गोजमुमो के उम्मीदवारों ने तीन दार्जिलिंग पहाड़ी विधानसभा सीटें जीतीं जिससे साबित हो गया कि दार्जीलिंग में अभी भी गोरखालैंड की मांग है। गोजमुमो उम्मीदवार त्रिलोक देवन ने दार्जिलिंग निर्वाचन क्षेत्र, में जीत दर्ज की। हरका बहादुर क्षेत्री ने कालिम्पोंग निर्वाचन क्षेत्र से, और रोहित शर्मा ने कुर्सियांग निर्वाचन क्षेत्र से जीत दर्ज की।  विल्सन चम्परामरी जो एक स्वतंत्र उम्मीदवार और जिन्हें गोजमुमो का समर्थन था, ने भी डुआर्स में कालचीनी निर्वाचन क्षेत्र से जीत दर्ज की।

विमल गुरुंग और उनकी राजनीति

विमल गुरुंग सुभाष घीसिंग के जमाने में युवा नेता हुआ करते थे, उनके पास पहाड़ी क्षेत्र की ट्रांसपोर्ट यूनियन की देखभाल की जिम्मेदारी हुआ करती था। लेकिन साल 2005 में सुभाष घीसिंग को दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल के प्रमुख के रूप में 20 साल बिताने के बाद केयर टेकर बनाया गया। इसके बाद से सुभाष घीसिंग और विमल गुरुंग के गुटों के बीच दूरी बढ़ती गई। फिर, साल 2006-07 में विमल गुरुंग ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नाम से पार्टी लॉन्च कर दी।

पहाड़ी क्षेत्र में जनप्रिय नेता बनने के पीछे कारण ये है कि उन्होंने अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिता में कोलकाता पुलिस के एक कांस्टेबल को जिताने के लिए पहाड़ में काफी प्रचार किया। इससे उन्हें काफी फायदा हुआ।

इसके बाद 2007-08 में वह पहाड़ के प्रमुख नेता बनकर स्थापित हुए और सुभाष घीसिंग की जमीन उनके हाथ से निकालते रहे। फिर, उन्होंने गोरखालैंड राज्य की मांग की. और, साल 2011 के जुलाई महीने में जीटीए अग्रीमेंट पास हुआ।

गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन

गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन जो कि दार्जीलिंग पहाड़ी की एक अर्ध-स्वायत्त प्रशासनिक निकाय है के गठन के लिए समझौते के ज्ञापन पर 18 जुलाई 2011 को हस्ताक्षर किया गया था। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव (2011) अभियान के समय ममता बनर्जी ने कहा था दार्जीलिंग बंगाल का अविभाज्य हिस्सा है, जबकि ममता ने निरूपित किया कि यह गोरखालैंड आंदोलन का अंत होगा, वहीं बिमल गुरुंग ने दोहराया कि यह राज्य प्राप्ति का दूसरा कदम है। दोनो ने सार्वजनिक रूप से एक हि स्थान से यह वक्तव्य दिया जब दोनों सिलीगुड़ी के नजदीक पिनटेल गांव में त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर करने जमा हुए थें। गोरखालैंड प्रशासनिक क्षेत्र बनाने के लिए पश्चिम बंगाल विधान सभा में 2 सिंतबर 2011 को विधेयक पारित हुआ। पश्चिम बंगाल सरकार ने गोरखालैंड प्रशासनिक क्षेत्र अधिनियम के लिए 14 मार्च 2012 को गोरखालैंड प्रशासनिक क्षेत्र के लिए चुनाव कि तैयारी करने का संकेत देते हुए एक राजपत्र अधिसूचना जारी किया। 29 जुलाई 2012 को गोरखालैंड प्रशासनिक क्षेत्र के लिए हुए मतदान में, गोजमो के उम्मीदवारों ने 17 निर्वाचन क्षेत्रों पर जीत हासिल किया और सभी 28 सीटों पर निर्विरोध रहें।

]30 जुलाई 2013 को गुरुंग ने गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि इसमें पश्चिम बंगाल सरकार का हस्तक्षेप अधिक है और फिर नये सिरे से गोरखालैंड आंदोलन शुरू कर दिया।

30 जुलाई 2013 को कांग्रेस कार्य समिति ने सर्वसम्मति से आंध्र प्रदेश से एक अलग तेलंगाना राज्य के गठन की सिफारिश करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया। इसके परिणामस्वरूप पूरे भारत में अलग राज्य के लिये अचानक से मांग बढ़ गई, उनमें से प्रमुख थे पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड और असम में बोडोलैंड राज्य की मांग। गोजमो ने तीन दिन के बंद का आह्वान किया, फिर गोजमो ने 3 अगस्त से अनिश्चितकाल तक के लिए बंद का आह्वान किया। पृष्ठभूमि में बड़े पैमाने पर शांतिपूर्ण, राजनीतिक विकास हुआ। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने आदेश देकर कहा बन्द का आह्वान करना अवैद्य है, इस आदेश के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने अपना रुख कड़ा करते हुए अर्धसैनिक बल की कुल 10 कंपनियां दार्जीलिंग भेजीं ताकि हिंसक विरोध को दबाया जा सके और गोजमो के बड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जा सके। प्रतिक्रिया में गोजमो ने विरोध का एक अनोखा विकल्प निकाला ‘जनता बंद’ जिसमें ना तो किसी धरने पर बैठना था ना हि किसी बल का प्रयोग करना था, इस में पहाड़ के लोगों से स्वेक्षा से 13 और 14 अगस्त को अपने अपने घरों में रहने के लिए कहा गया था।यह सरकार के लिए एक बड़ी सफलता और शर्मिंदगी साबित हुई।

इस भाग-दौड़ के बाद, 16 अगस्त को गोजमो के द्वारा दार्जीलिंग में एक सर्व-दलीय मीटिंग बुलाई गई, जिसमें गोरखालैंड को समर्थन करने वाली पार्टियों ने अनौपचारिक रूप से गोरखालैंड संयुक्त कार्रवाई समिति का गठन किया और संयुक्त रूप से आंदोलन जारी रखने का फैसला किया और अलग अलग नामों से बन्द को निरंतर जारी रखने का फैसला किया।

106 सालों में पहली बार पहाड़ कि सभी बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ एक साथ आने को सहमत हुईं और संयुक्त रूप से आंदोलन को आगे बढ़ाने का निर्णय किया।

केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के मांग के साथ, GJAC ने फैसला किया कि 18 अगस्त के बाद भी विभिन्न कार्यक्रमों के तहत जैसे कि ‘घर भित्र जनता’ (घर के अंदर जनता), मशाल जुलूस और काले पट्टी के साथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर विशाल मानव श्रृंखला के द्वारा बंद जारी रखी जायेगी।

ये थी सीएम ममता की रणनीति 

2013 में एकबार फिर तृणमूल कांग्रेस गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बीच मतभेद बढ़ गया। 2 जून 2014 को तेलंगाना के गठन के बाद हालात और खराब हो गए। इस इलाके में ‘जनता कर्फ्यू’ लग गया।’जनता कर्फ्यू’ यानी लोग अपने घरों से बाहर नहीं निकलेंगे।

इस आंदोलन में तृणमूल ने लेपचा और दूसरी पिछड़ी जातियों को समर्थन दिया। ममता बनर्जी की इस रणनीति से इलाके में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की लोकप्रियता घट गई। पहाड़ी इलाकों के हुए चुनाव में तृणमूल  कुछ सीटें भी हासिल करने में कामयाब रही। साथ ही सुभाष घीसिंग की पार्टी गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा भी पहाड़ों पर लौटने लगी थी। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा एनएच 55 को बंद कर देते हैं, जिससे इस आंदोलन का असर पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों पर भी पड़ता है। इस बार गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने 12 जून से अनिश्चितकालीन हड़ताल का ऐलान किया है। अब देखना है कि इस बार उनका आंदोलन हिंसक हो चुका है।

ममता से बिदकी गोरखा जन मुक्ति मोर्चा

हाल ही में पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा था कि राज्य के सभी सरकारी स्कूलों में बांग्ला भाषा पढ़ाई जाए। इस फैसले के बाद एकबार फिर विरोध की चिंगारी सुलग गई। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का आरोप है कि ममता बनर्जी सरकार उन पर बांग्ला थोप रही है।

हालांकि इस मामले में ममता बनर्जी की अलग दलील है। उनका कहना है कि वह बांग्ला को तरजीह नहीं दे रही हैं बल्कि राज्य में त्रिभाषा फॉर्मूले को लागू कर रही हैं। ममता ने यह भी कहा कि उनकी सरकार ने ही प्रदेश सरकार की नौकरियों में भर्तियों के लिए नेपाली को आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया है।

 समाधान के रास्ते तलाशती सरकार

ये स्पष्ट है कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के जनाधार को काफी नुकसान पहुंचा है। बीते महीने हुए नगर निगम चुनाव में तृणमूल के प्रतिनिधि चुने गए। इससे साफ है विमल गुरुंग ने काफी जनसमर्थन खो दिया है इसलिए वे काफी डरे हुए हैं. उनकी कोशिश है कि इस प्रदर्शन में वह बुहत आगे जा सकें। सरकारी दफ्तरों के बंद का ऐलान किया गया है और निजी संस्थान खुले हुए हैं। वे जानना चाह रहे हैं कि उनको कितना समर्थन मिल सकता है. वहीं ममता बनर्जी सीधे टकराव के संकेत दे चुकी हैं। राज्य सरकार गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन और गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के अधीन रहे नगर निगमों में आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों के बाद ऑडिट करा रही है।

जीटीए के ऑफिस को भी अगले दो महीने के लिए सील कर दिया गया है। ऐसे में जीटीए का कोई सदस्य ऑडिट को देख भी नहीं सकता है। सुभाष घीसिंग के समर्थकों के साथ तृणमूल कांग्रेस का समझौता हुआ है। ये लोग विमल गुरुंग के विरोधी रहे है। इनकी मदद से ही ममता बनर्जी पहाड़ी क्षेत्र में पकड़ बनाने की कोशिश कर रही हैं मगर उनकी एक गलती ने गोररखा नेताओं को राजनीति चमकाने का मौका दे दिया है। ये बात समझनी होगी गोरखालैंड की माँग पर चल रही हिंसा और राज्य की विभाजनकारी रणनीति समस्या का समाधान नहीं है। अलग राज्य बनकर भी इलाके का विकास आसान नहीं है, गोरखा संस्कृति, भाषा को सम्मान और विकास ही समस्या का समाधान है। इसके लिए गोरखा जनता का विश्वास फिर से जीतना होगा।

चाय बागानों पर मार, 2 लाख बेरोजगार, होटलों पर ताले

दार्जिलिंग में अनिश्चितकालीन बंद का यहां के प्रसिद्ध चाय बागानों पर खासा असर देखने को मिल रहा है और उच्च गुणवत्ता वाली दूसरी फसल की चाय पत्तियां बेकार हो रही हैं जिससे बागान मालिकों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।इससे दो लाख चाय बागान मजदूरों की आजीविका पर भी संकट खड़ा हो गया है।

दार्जिलिंग में 87 चाय बागान हैं और अभी चल रहे बंद की वजह से ये बंदी के कगार पर पहुंच गए हैं. चाय बागान मालिकों को लगता है कि उन्हें इस बंद से सालाना राजस्व के 45 फीसदी का नुकसान होगा।

बंद में फँसेे परेशान पर्यटक

 

 

गुडरिक ग्रुप लिमिटेड के प्रबंध निदेशक अरुण सिंह ने बताया, ‘ये दूसरी फसल का मौसम है जो बेहद उच्च गुणवत्ता वाली चाय की पत्तियां देता है. इस मौसम में होने वाला चाय का उत्पादन कुल राजस्व का करीब 40 फीसदी होता है. हम इसे पूरी तरह खो देंगे क्योंकि पत्तियां बड़ी हो जाएंगी।

 

 

 

 

 

 

गोरखाओं का योगदान

भारत के निर्माण में भारत के गोरखाओं का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन इतिहास का अन्याय देखिए कि इस देश की स्मृतियों में उनकी इस भूमिका को भुला दिया और गोरखा को ‘बहादुर’ ‘साब जी’ जैसे अपमानित करने वाले जुमलों का पर्यायवाची बना दिया गया।आकाशवाणी के पूर्व अधिकारी स्वर्गीय मणी प्रसाद राई की एक महत्वपूर्ण कृति ‘वीर जातिको अमर कहानी’ है में स्वतंत्रता आंदोलन में गोरखा समुदाय को लेखक ने अपने निजी प्रयासों और संसाधनों से दर्ज करने की कोशिश की गयी है। 64 अध्यायों वाली इस पुस्तक में भारत के उन गोरखाओं के बारे में बताया गया है जिन्होने आजादी की लड़ाई में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से योगदान किया।पुस्तक में कप्तान रामसिंह ठाकुर के बारे में बताया गया है कि 15 अक्टूबर 1943 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने रामसिंह ठाकुर को गुरूदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर के ‘जन गण मन’ को हिन्दी में रूपांतरित कर संगीतबद्ध करने का आग्रह किया। 21 अक्टूबर 1943 को अस्थायी आजाद हिन्द सरकार के गठन के समय शपथ ग्रहण से पूर्व राष्ट्रीय ध्वज फहराए जाने के समय रामसिंह की धुन में कौमी तराना बजाया गया। आजाद भारत के राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ में इसी धुन का प्रयोग किया गया है।

शायद यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि भारत के जिन भूभाग में आज गोरखा समुदाय का बाहुल्य है उनमें से अधिकांश भूभाग 1815-16 तक गोरखा साम्राज्य का हिस्सा था। धर्मशाला, देहरादून-मसूरी, शिमला और पूर्वोत्तर में दार्जिलिंग और अन्य भाग गोरखा साम्राज्य का हिस्सा थे जो एंगलो-नेपाल युद्ध के बाद अंग्रेज भारत में मिला लिए गए। गोरखाओं की संस्कृति की जानकारी हमें गोरखा लोगों द्वारा चलाई जा रही कई वेबसाइटों पर भी मिल रही है।

इस युद्ध में गोरखाओं की बहादुरी के कायल हुए अंग्रेजों ने हारे हुए गोरखाओं को अपनी सेना में सम्मानित स्थान दिया और 1857 के पहले स्वतंत्रता युद्ध के बाद सेना में उन्हें सिक्ख और अन्य जातियों की तरह जो इस आंदोलन में उनकी वफादार बनी रहीं अधिक सम्मान दिया जाने लगा। आज भी हमारी सेना में गोरखा रेजिमेंट हैं। हकीकत तो यह है कि गोरखाओं को बाहर से आ कर इस क्षेत्र में बसे लोगों की तरह देखना और उनको अलगाववादी बताना गोरखाओं के साथ अन्याय ही नहीं बल्कि इतिहास का  मजाक उड़ाना है। हमें राजनीति से परे उनको वह सम्मान देना होगा जिसके वे हमेशा से हकदार हैं।

(नोट – लेख में इनपुट इंटरनेट पर उपलब्ध विभिन्न अखबारों, वेबसाइटों और पत्रिकाओं से लिए गए हैं )

 

 

 

 

 

 

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