Saturday, March 15, 2025
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उसने कहा था

 – चंद्रधर शर्मा गुलेरी
(एक)
बडे-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जवान के कोड़ो से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़-बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, ‘बचो खालसाजी। “हटो भाईजी।”ठहरना भाई जी।”आने दो लाला जी।”हटो बाछा।’ – कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पडे़। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं – ‘हट जा जीणे जोगिए’; ‘हट जा करमा वालिए’; ‘हट जा पुतां प्यारिए’; ‘बच जा लम्बी वालिए।’ समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दूकान पर आ मिले।उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बडि़यां। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।

“तेरे घर कहाँ है?”

“मगरे में; और तेरे?”

“माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?”
“अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।”

“मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ , उनका घर गुरूबाजार में हैं।”

इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्करा कर पूछा, “तेरी कुड़माई हो गई?”

इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।

दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘तेरी कुडमाई हो गई?’ और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरूध्द बोली, “हाँ, हो गई।”

“कब?”

“कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।”

लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।

(दो)

“राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाडा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं – घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है।

इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का ज़लज़ला सुना था, यहाँ दिन में पचीस ज़लज़ले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।”

“लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ आ जायेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में – मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो , मेरे मुल्क को बचाने आये हो।”

“चार दिन तक पलक नहीं झपपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े – संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था – चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो… ”

“नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?” सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कराकर कहा – “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बडे अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?”

“सूबेदारजी, सच है,” लहनसिंह बोला – “पर करें क्या? हड्डियों में तो जाड्डा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाए।”

“उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदल ले।” – यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।

वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला – “मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!” इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।

लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा – “अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।”

“हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।”

“लाडी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलाने वाली फरंगी मेम…”

“चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।”

“देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।”

“अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?”

“अच्छा है।”

“जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी क़े सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी क़े तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मंदे पड़ जाना। जाडा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।”

“मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”

वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा – “क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ, भाइयों, कैसे?”

दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए —
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
कद्द बणाया वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।

कौन जानता था कि दाढ़ियां वाले, घर-बारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!
(तीन)

रात हो गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।

“क्यों बोधा भाई¸ क्या है?”

” पानी पिला दो।”

लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा — ” कहो कैसे हो?” पानी पी कर बोधा बोला – ” कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।”

” अच्छा¸ मेरी जरसी पहन लो !”

” और तुम?”

” मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।”

” ना¸ मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए…”

” हाँ¸ याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें¸ गुरू उनका भला करें।” यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।

” सच कहते हो?”

“और नहीं झूठ?” यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा भर थी।

आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आई – ” सूबेदार हजारासिंह।”

” कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर !” – कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।

” देखो¸ इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं¸ जब तक दूसरा हुक्म न मिले डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।”

” जो हुक्म।”

चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें¸ इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा- ” लो तुम भी पियो।”

आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला – ” लाओ साहब।” हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?”

शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया हैं! लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।

” क्यों साहब¸ हमलोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?”

” लड़ाई खत्म होने पर। क्यों¸ क्या यह देश पसंद नहीं?”

” नहीं साहब¸ शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है¸ पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे!

हाँ- हाँ, वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था!

‘बेशक पाजी कहीं का!’

सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्‌ठे में निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब¸ शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगायेंगे।

‘हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।’

” ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?”

” हाँ¸ लहनासिंह¸ दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?”

” पीता हूँ। साहब¸ दियासलाई ले आता हूँ।” कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।

” कौन? वजीरसिंह?”

” हां¸ क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?”
(चार)

” होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।”

” क्या?”

” लपटन साहब या तो मारे गये है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है¸ पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।”

” तो अब!”

” अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा¸ कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो¸ एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।

सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ¸ खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।”

“हुकुम तो यह है कि यहीं– ”

” ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम — जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है¸ उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।”

” पर यहाँ तो सिर्फ तुम आठ हो।”

” आठ नहीं¸ दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”

लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बांध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी¸ जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने ही वाला था कि बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आँख मीन गौट्‌ट’कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।

साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला – ” क्यों लपटन साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो¸ ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिन ‘डेम’के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।”

लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए¸ दोनों हाथ जेबों में डाले।

लहनासिंह कहता गया – ” चालाक तो बड़े हो पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिये चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रूपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो…”

साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आये।

बोधा चिल्लाया- ” क्या है?”

लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि ‘एक हड़का हुआ कुत्ता आया था¸ मार दिया’और¸ औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।

इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था – वह खड़ा था और¸ और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे।

अचानक आवाज आई ‘वाह गुरूजी का खालसा, वाह गुरूजी की फतह!!’और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।

एक किलकारी और – ‘अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरूजी दी फतह! वाह गुरूजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरूख!!!’और लड़ाई खत्म हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव -भारी घाव लगा है।

लड़ाई के समय चाँद निकल आया था¸ ऐसा चाँद¸ जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्‌ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।

इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दर-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएंगे¸ इसलिये मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा – ” तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।”

” और तुम?”

” मेरे लिये वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिये भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ, वजीरासिंह मेरे पास है ही।”

“अच्छा, पर..”

“बोधा गाड़ी पर लेट गया, भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।”

गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा- ” तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा, साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?”

“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।”

गाड़ी के जाते लहना लेट गया। – ” वजीरा पानी पिला दे¸ और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।”

मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।

लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दही वाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब ‘धत्‌’ कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा – ” हाँ, कल हो गई¸ देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू!’सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?”

” वजीरासिंह¸ पानी पिला दे।”

पचीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी¸ या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है¸ फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।

जब चलने लगे¸ तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला-” लहना¸ सूबेदारनी तुमको जानती हैं¸ बुलाती हैं। जा मिल आ।” लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर ‘मत्था टेकना’कहा। आसीस सुनी। लहनासिंह चुप।

मुझे पहचाना?”

“नहीं।”

‘तेरी कुड़माई हो गई -धत्‌ -कल हो गई – देखते नहीं¸ रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में.. ‘

भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।

‘वजीरा¸ पानी पिला’- ‘उसने कहा था।’

स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है – ” मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है¸ लायलपुर में जमीन दी है¸ आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पल्टन क्यों न बना दी¸ जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए¸ पर एक भी नहीं जीया।’ सूबेदारनी रोने लगी। ‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे¸ आप घोड़े की लातों में चले गए थे¸ और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।’

रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।

‘वजीरासिंह¸ पानी पिला दे’ – ‘उसने कहा था।’

लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है¸ तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा¸ फिर बोला – “कौन ! कीरतसिंह?”

वजीरा ने कुछ समझकर कहा- ” हाँ।”

” भइया¸ मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।” वजीरा ने वैसे ही किया।

“हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस¸ अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था¸ उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।”

वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।

कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा – फ्रान्स और बेलजियम — 68 वीं सूची — मैदान में घावों से मरा – नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।

 

 

रामायण परीक्षा में अव्वल रही फ़ातिमा ने ये सीखा

हिंदू धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने वाले मुसलमान बच्चों में नया नाम है 15 साल की फ़ातिमा राहिला का। फ़ातिमा पिछले साल नवंबर में एक निजी संस्थान भारतीय संस्कृति प्रतिष्ठान की ओर से आयोजित परीक्षा में 93 प्रतिशत अंकों के साथ अव्वल आई हैं.

फ़ातिमा राहिला की कामयाबी इसलिए ख़ास है कि वे कर्नाटक में धार्मिक असहिष्णुता और तनाव का प्रतीक बन चुके पुट्टर ज़िले से आती है.

वे पुट्टर के सर्वोद्य उच्च विद्यालय में 9वीं कक्षा में पढ़ती हैं.

उन्होंने बीबीसी को बताया, ”हमारे टीचर ने बताया कि जो भी रामायण की परीक्षा में शामिल होना चाहता है, अपना नाम दे. ये जुलाई की बात है. मैंने अपना नाम दे दिया. सभी मेरे रिज़ल्ट से बहुत ख़ुश हैं।’’

स्कूल के प्रधानाध्यापक एचडी शिवरामू का कहना है, ”हमें उस पर गर्व है. वो एक मेधावी छात्रा है. वो न केवल पढ़ाई में बल्कि दूसरी गतिविधियों में भी आगे है. इस परीक्षा में जिन 39 बच्चों ने हिस्सा लिया, उसमें दो मुसलमान थे।.’’

शिवरामू ने बताया कि ये परीक्षा राज्य स्तरीय नहीं है बल्कि तालुका स्तर पर ही होती है.

फ़ातिमा के पिता इब्राहिम एक फैक्ट्री में काम करते हैं. वे बताते हैं, ” वह मेरे पास आई और बताया कि वो इस परीक्षा में हिस्सा लेना चाहती है. उसके चाचा यानी मेरे भाई ने भी उसे परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किय।.’’

लेकिन फ़ातिमा ने रामायण पढ़कर हिंदू धर्म के बारे में क्या जाना?

फ़ातिमा झट से बोल उठी, ”सच्चाई हर धर्म का आधार है.’’

लेकिन फ़ातिमा के क़दम यहीं रुकने वाले नहीं. उसने अपना अगला लक्ष्य तय कर लिया है. अब वह महाभारत की परीक्षा देना चाहती है. हालांकि इसमें एक रुकावट है.

स्कूल उन बच्चों को इन परीक्षाओं में शामिल होने की इजाज़त नहीं देता जिन्हें 10वीं कक्षा की परीक्षा देनी होती है लेकिन फिर भी फ़ातिम ने उम्मीद नहीं छोड़ी है.

 

यंगेस्ट स्पीकर बनीं दस साल की इशिता, जीता सबका दिल

पुणे. 10 साल की इशिता कटियाल दुनिया के सबसे बड़े टेड यूथ कॉन्फ्रेंस (टेडएक्स) में स्पीच देने वाली भारत की सबसे कम उम्र की स्पीकर बन गई हैं। टेडएक्स कॉन्फ्रेंस कनाडा के वैंकूवर में सोमवार को ऑर्गनाइज की गई थी। इशिता की स्पीच पूरी होते ही लोगों ने खड़े होकर तालियां बजाईं।

– टेक्नोलॉजी, एंटरटेनमेंट और डिजाइन (T.E.D) सेक्टर की हस्तियां इस कॉन्फ्रेंस में शामिल होती हैं।
– कॉन्फ्रेंस में आम जनता से जुड़े मुद्दों पर बोलने की इजाजत होती है।

– ओपनिंग स्पीच देकर इशिता सिर्फ 10 साल की उम्र में टेड की सबसे कम उम्र की स्पीकर बन गई हैं।

क्या कहा कॉन्फ्रेंस के दौरान?

– इशिता ने कहा, “बच्चों से यह पूछने की जगह कि वह बड़े होकर क्या करना चाह रहे हैं, उनसे यह पूछना चाहिए कि वे अभी क्या करना चाहते हैं।”

– “आज भी हम बहुत कुछ कर सकते हैं, लेकिन एक बड़ी ताकत ऐसी भी है, जो बच्चों के सपनों के खिलाफ काम कर रही है।”

– “बड़े अक्सर बच्चों को कम आंकने की कोशिश करते हैं और इस दौरान वह बच्चों के भीतर एक डर पैदा कर देते हैं।”

किस बात के लिए हजार बार सोचना चाहिए?

“बच्चों की स्कूल की फीस बढ़ाने से पहले स्कूल को 10 बार सोचना चाहिए, लड़ाई में जाने से पहले देश को 100 बार सोचना चाहिए, फूड और वाटर वेस्ट करने से पहले हजार बार सोचना चाहिए और बच्चों को आगे बढ़ने से रोकने से पहले 10 हजार बार सोचना चाहिए।”

-“मुझे पूरी आशा है की आप बड़े हम बच्चों को दुनिया को अपने नजरिए से देखने में सहायता करेंगे।”

– जैसे ही स्पीच पूरी हुई, कार्यक्रम में मौजूद सैकड़ों लोगों ने खड़े होकर तालियां बजाईं।
– इस कार्यक्रम में ऑस्कर विनर म्यूजिक कम्पोजर ए.आर. रहमान ने भी परफॉर्म किया।

कौन हैं इशिता कटियाल?

– पुणे की रहने वाली 10 साल की इशिता बालेवाड़ी के विबग्योर हाई स्कूल की स्टूडेंट हैं।
– इससे पहले इशिता साल 2015 में बाल दिवस के मौके पर ‘आप अब क्या बनना चाहते हैं?’ टॉपिक पर स्पीच दे चुकी हैं।
– टेडएक्स से उनका जुड़ाव उनके स्कूल में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान हुआ।
– इशिता ने अपनी मां नैन्सी कटियाल से टेड टीम में शामिल होने की इच्छा जताई।
– इसके बाद स्काइप पर दो इंटरव्यू दिए और इशिता एशिया में टेडएक्स की आर्गनाइजिंग टीम की सबसे कम उम्र की मेंबर बन गईं।
– इशिता ने टेडएक्स का पहला इवेंट 7 फरवरी को अपने स्कूल में आयोजित किया था।
– सिर्फ 10 साल की उम्र में इशिता ने ‘सिमरन डायरी’ नाम की एक किताब भी लिखी है।
– इस किताब में एक 10 साल की लड़की दुनिया को कैसे देखती है, यह बताया गया है।

 

अगर आप हैं कामकाजी मम्मी तो बनाएं इस तरह जिम्मेदारी आसान

बीते कुछ महीने आपके लिए बेहद हसीन थे। एक नन्हा मेहमान आपकी दुनिया में आया। उसका साथ पाकर आप अपनी सारी परेशानियां भूल गईं। उसके साथ हंसते-खिलखिलाते आपकी छुट्टियां कैसे खत्म हो जाती हैं, इसका पता ही नहीं चलता। अब आपको दोबारा अपनी पुरानी दुनिया में यानी काम पर लौटना है।

अपनी दिनचर्या को फिर से वैसा ही बनाना है, जैसी अब से कुछ महीने पहले थी। अब फिर आपके सामने हैं-ऑफिस की बदलती शिफ्ट्स, डेडलाइंस, असाइनमेंट्स, प्रोजेक्ट्स और आपका करियर, मगर इन सबके साथ है एक प्यारी और खूबसूरत-सी जिम्मेदारी भी।

उस नन्हे मेहमान को भी आपका पूरा वक्त चाहिए। छुट्टियां खत्म होने से पहले आपको अपने नवजात शिशु की हिफाजत की चिंता सताने लगती है। चिंताएं कई स्तरों पर होती हैं। जैसे-ऑफिस जाना शुरू करेंगी तो आपकी अनुपस्थिति में उसकी सही देखभाल हो पाएगी या नहीं? उसकी हर जरूरत आपसे शुरू होती है और आप पर ही खत्म। ऐसे में कैसे संभालें इस खूबसूरत लेकिन मुश्किल जिम्मेदारी को…इस सवाल के जवाब से रूबरू होना जरूरी है। अगर आप सोचती रहेंगी तो मुश्किल होगा, करना शुरू करेंगी, तो सब आसान हो जाएगा…आखिर सब करते हैं।

जरूरी है तैयारी

काम पर वापस लौटने के बाद सबसे जरूरी है- सही टाइम मैनेजमेंट। अपने दिन को पहले से प्लान करना आपकी काफी मदद कर सकता है। इससे सारे जरूरी काम समय पर पूरे होते रहेंगे और आपको हड़बड़ी में भागदौड़ भी नहीं करना पड़ेगी। हर काम के बीच में 10 मिनट का ब्रेक जरूर लें। इससे आपको थकान महसूस नहीं होगी। साथ ही ना कहने की आदत भी डालना होगी। इस समय खुद को ऐसे कामों में उलझाना ठीक नहीं होगा, जो ज्यादा जरूरी नहीं हैं।

जरूरी है अपनों का साथ

जॉब पर लौटने के बाद सारे कामकाज का बोझ अकेले न उठाएं। ऑफिस की जिम्मेदारियां तो खैर आपको खुद ही उठानी होंगी लेकिन बच्चे की देखभाल में पति, परिवार के अन्य सदस्यों और अपने करीबी दोस्तों से मदद लेने में संकोच न बरतें। आखिर जीवन के मुश्किल वक्त में अपने ही लोग एक-दूसरे के काम आते हैं। संभव हो तो कुछ दिनों के लिए मां, सास या किसी करीबी रिश्तेदार को अपने पास बुला लें।

धैर्य का साथ न छोड़ें

हो सकता है कि बच्चे की नई जिम्मेदारी के दबाव में ऑफिस के काम से आपका मन ऊबने लगे। ऐसे हालात में कुछ स्त्रियां घबराकर बहुत जल्दी जॉब छोड़ने का निर्णय ले लेती हैं, बाद में उन्हें बहुत पछतावा महसूस होता है। यह न भूलें कि हमारी जिंदगी के हर पड़ाव पर आने वाली खुशियां अपने साथ कुछ चुनौतियां भी लेकर आती हैं। यह भी आपके जीवन का एक ऐसा खूबसूरत मोड़ है, जिसे यादगार बनाया जा सकता है। बशर्ते बिना किसी घबराहट के आप धैर्य के साथ बच्चे की देखभाल और ऑफिस की जिम्मेदारियों का निर्वाह करें।

योग को अपनाएं

योग सिर्फ शरीर के लिए नहीं बल्कि मस्तिष्क के लिए भी बेहद फायदेमंद है। इसलिए रोजाना योगाभ्यास के लिए समय जरूर निकालें। इससे आप तनावमुक्त होकर घर और ऑफिस की जिम्मेदारियों पर पूरा ध्यान दे पाएंगी।

सेहत पर दें ध्यान

बच्चे के साथ शुरुआती कुछ महीने नई मांओं के लिए काफी मुश्किल होते हैं। ऐसे में उन्हें सोने का वक्त नहीं मिलता। नींद पूरी न होने से तनाव, सिरदर्द जैसी कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इससे बचने के लिए थोड़ा वक्त नींद के लिए जरूर निकालें। फिर चाहे दिन में कुछ पल के लिए सुस्ताना ही क्यों न पड़े।

इन दिनों आप मल्टीटास्कर की भूमिका में हैं इसलिए अपनी सेहत और खानपान का पूरा ध्यान रखें। शिशु के आने के बाद आमतौर पर महिलाएं अपनी सेहत के प्रति लापरवाह हो जाती हैं। ऐसा करना ठीक नहीं है। कोई भी तकलीफ होने पर अपने मन से दवा न लें। बिना देर किए डॉक्टर से सलाह लें और सभी सुझावों पर पूरी तरह अमल करें।

अभी आप पर दोहरी जिम्मेदारियां हैं और आप लैक्टेशन पीरियड के दौर से भी गुजर रही हैं। इसलिए आपकी डाइट में पोषक तत्वों का होना बहुत जरूरी है। अगर आप भी इन छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखेंगी तो तनावमुक्त होकर सभी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह निभा पाएंगी और किसी तरह की परेशानी भी सामने नहीं आएगी।

अपराध-बोध से बचें

बच्चे की जिम्मेदारी के साथ जॉब करने का आपका फैसला गलत नहीं है। अक्सर मां बनने के बाद ऑफिस की जिम्मेदारियां निभाते हुए बच्चे को घर पर अकेला छोड़ना काफी मुश्किल साबित होता है। कई मामलों में स्त्रियां इसके लिए स्वयं को ही दोषी भी मानने लगती हैं, पर अपने मन में अपराध-बोध रखने के बजाय स्थिति को संभालना ज्यादा जरूरी है। अन्यथा ऐसी स्थिति से पोस्टपार्टम डिप्रेशन (डिलिवरी के बाद उपजने वाला अवसाद) की आशंका बढ़ जाती है।

इस समस्या से बचने के लिए जरूरी है अपनी सोच बदलना। परफेक्शन की कोई परिभाषा नहीं होती। खुद को परफेक्ट मां और परफेक्ट प्रोफेशनल बनाने की कोशिश में आपको अपने ऊपर जरूरत से ज्यादा दबाव डालने की कोई जरूरत नहीं है। जितनी क्षमता हो उतना ही काम करें और बाकी समय अपने बच्चे को दें।

 

 

 तिग्मांशु के गहरे शोध का फल है फिल्म पान सिंह तोमर

ग्वालियर। पान सिंह तोमर की जानकारी तिग्मांशु धूलिया को उस समय मिली, जब वे बैंडिट क्वीन की शूटिंग के लिए चंबल के बीहड़ों में घूम रहे थे। उसके बाद उन्होंने सालों रिसर्च की और जैसे ही मौका मिला पान सिंह के कैरेक्टर को फिल्मी पर्दे पर उतार दिया।

पान सिंह एक फौजी और एक एथलीट व किसान था, यानि एक दिलचस्प कैरेक्टर। ऐसे में तिग्मांशु ने तय कर लिया कि वे इस पर फिल्म बनाएंगे। उन्होंने करीब डेढ़ साल तक बीहड़ों में घूमकर पान सिंह तोमर पर रिसर्च की। हर उस शख्स से मिले, जिसका संबंध पान सिंह से था।

बैंडिट क्वीन की शूटिंग के दौरान ही तिग्मांशु ने तय किया था वे अपने फिल्मी डाकुओं को घोड़ों पर नहीं दौड़ाएंगे। बीहड़ों में कभी भी घोड़े नहीं दौड़ते। रिसर्च के दौरान यह जानकारी मिली कि डकैत बीहड़ और जंगल में पैदल ही चलते हैं। इसलिए पान सिंह तोमर में डकैत बीहड़ में पैदल ही चलते दिखाई देते हैं। इसी सच को लोगों ने पसंद किया।

तिग्मांशु के मुताबिक एक ऐसा इंसान जो 7 साल तक नेशनल एथलीट चैम्पियन रहा और फिर विद्रोह करके हथियार उठाता है। पुलिस उसे एनकाउंटर में मार गिराती है। देश को उसके बारे में मालूम नहीं। इस सबजेक्ट ने उन्हें मजबूर किया कि वे फिल्म बनाएं। यही कारण है कि पान सिंह तोमर का कैरेक्टर फिल्मी पर्दे पर सामने आया। इसके लिए उन्होंने इरफान का चयन किया और पान सिंह तोमर के रूप में इरफान ने जीवंत अभिनय किया।

 

पुरुषों की फोन चेक करने की आदत से इसलिए चिढ़ती हैं महिलाएं

इसमें कोई शक नहीं कि फोन हमारी जिंदगी का एक जरूरी हिस्सा है, लेकिन परेशानी तब बढ़ जाती है, जब इसके चलते रिलेशनशिप में मिसअंडरस्टैंडिंग के साथ लड़ाई-झगड़े होने लगें। जहां पुरुष आसानी से अपना फोन महिलाओं को दे देते हैं, वहीं महिलाएं ऐसा करने में आनाकानी करने के साथ ही तमाम तरह के बहाने भी बनाती हैं। आखिर क्या वजहें हो सकती हैं, इसके पीछे….जानेंगे।

मॉनिटरिंग

महिलाओं को लगने लगता है कि कोई उनपर नजर रखा है। भले ही उनके फोन में ऐसा-वैसा कुछ न हो लेकिन जब आप उनसे फोन का पासवर्ड पूछते हैं तो ये उनके ऊपर आपके शक को बयां करता है। महिलाएं रिलेशनशिप में स्पेस चाहती हैं और फोन की चेकिंग एक तरह से उनके उस स्पेस को छीनने जैसा होता है।

डर

ये सभी महिलाओं पर लागू नहीं होता लेकिन ज्यादातर महिलाएं अंदर से अलग और बाहर से अलग मिजाज की होती हैं। उन्हें उस पुरुष के हर एक स्टेप के बारे में पता होता है जो उनके साथ रिलेशनशिप में है। अपने इसी नेचर के चलते वो पुरुषों से ज्यादा घुलना-मिलना और किसी तरह की कोई शेयरिंग करना पसंद नहीं करतीं।

हैकिंग

महिलाओं के अंदर ये भी डर होता है कि एक बार पुरुषों के हाथ में फोन जाने का मतलब है वो उसे हैक कर लेंगे और उसके बाद उनकी हर एक बात, हर एक एक्टिविटी पर नजर रखेंगे। जिसे लेकर बहुत सारे सवाल-जवाब होंगे और बेवजह के लड़ाई-झगड़े। इन सबको देखते हुए वो ज्यादातर मिलने पर अपने फोन या तो स्विच ऑफ कर लेती हैं या साइलेंट मोड पर डाल देती हैं।

पर्सनल डिटेल्स

महिलाएं अपनी ज्यादातर डिटेल्स फोन में सेव करके रखती हैं जिसमें उनके बैंक से लेकर कई जरूरी चीजों के पासवर्ड रहते हैं। इसे वो किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहती जब तक आप उनके बहुत करीबी न हों।

 

महिलाओं को अपने फोन के साथ इसलिए भी छेड़खानी पसंद नहीं क्योंकि उनमें उनकी कई तरह की फोटोज होती हैं जिन्हें वो दिखाने से बचती हैं। खासतौर से पुरुषों का उन फोटोज को देखकर उसपर कमेंट करना महिलाओं को नागवार गुजरता है।

गर्ल्स टॉक

महिलाएं आपस में कई सारी बातें शेयर करती हैं वो पर्सनल लाइफ से लेकर प्रोफेशनल तक हो सकती हैं और कभी-कभार शरारत भरी बातें भी। कपड़े, सैंडल्स, लिपस्टिक, काजल और यहां तक कि अंडर गारमेन्ट्स तक का डिस्कशन महिलाएं आपस में करती हैं। इसलिए महिलाओं को बिल्कुल भी नहीं पसंद होता कि पुरुष उनके फोन से किसी तरह की कोई छेड़खानी करे और उनके चैट्स पढ़े।

शिकायतें

पुरुषों की अच्छी और बुरी आदतों को वो अपने किसी एक न एक फ्रेंड के साथ जरूर शेयर करती हैं जिसके बारे में वो चाहती हैं कि आपको भनक तक न लगे। इन बातों में आपके नजदीकी रिश्तों, खर्राटे, गैस, कब्ज जैसे कई टॉपिक्स का भी डिस्कशन हो सकता है।

बचने के लिए

पुरुषों का कोई बेकार सा फ्रेंड हो सकता है उनकी गर्लफ्रेंड या पत्नी का अच्छा फ्रेंड हो और उससे उनकी अच्छी बात होती हो। वो बिल्कुल नहीं चाहती कि इसे लेकर बेकार का कोई इश्यू बने इसलिए भी वो फोन में तमाम तरह के पासवर्ड लगाकर रखना पसंद करती हैं।

 

 

निदा फाजली की दो कविताएं

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ

याद आती है चौका-बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ

बाँस की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे

आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी माँ

चिड़ियों के चहकार में गूंजे
राधा-मोहन अली-अली

मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ

बिवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी थोड़ी सी सब में

दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ

बाँट के अपना चेहरा, माथा,
आँखें जाने कहाँ गई

फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ

.indian mother

 

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार
लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती मीर के संग श्याम
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम
सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप
सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास
चाहे गीता बाचिये या पढ़िये क़ुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान

ग्रामीण महिलाओं ने ढाई साल में खड़ी की करोड़ों की कम्पनी

 धौलपुर. राजस्थान के धौलपुर जिले की 3 महिलाओं ने महज ढ़ाई साल में डेढ़ करोड़ की कंपनी खड़ी कर दी। कम पढ़ी-लिखी होने के बावजूद तीनों महिलाएं गांव की 800 महिलाओं को रोजगार दे रहीं हैं । उनकी इस पहल से कई महिलाएं आत्मनिर्भर बन चुकी हैं।

– ये कंपनी खड़ी की है धौलपुर जिले की रहने वाली अनीता, हरिप्यारी व विजय शर्मा ने।

– तीनों ही आर्थिक रूप से कमजोर परिवार से हैं।

– वे तीनों दूधियों (दूध खरीदने वाले) से रूपए उधार लेकर भैंस खरीदती थी व दूधियों को दूध बेचकर उधारी चुकाती थी।

– लेकिन दूधिया इनके दूध को बाजार भाव से काफी कम कीमत पर खरीदते थे। इसलिए इन्होंने खुद की कंपनी बनाने की ठान ली।

– रुपए की जरूरत के लिए इन्होंने प्रदान संस्था की सहायता से महिलाओं का स्वयं सहायता समूह बनाया और लोन लिया।

– जिससे एक अक्टूबर 2013 को एक लाख की लागत से अपनी सहेली प्रोड्यूसर नाम की उत्पादक कंपनी बना ली।

– मंजली फाउण्डेशन के निदेशक संजय शर्मा की तकनीकी सहायता से करीमपुर गांव में दूध का प्लांट लगाया।

– कंपनी के शेयर ग्रामीण महिलाओं को बेचना शुरू किया।

– वर्तमान में कंपनी की 800 ग्रामीण महिलाएं शेयरधारक हैं व महज ढ़ाई वर्ष में कंपनी डेढ़ करोड़ की हो गई है।

– शेयरधारक महिलाएं कंपनी को दूध भी देती हैं। कंपनी के बोर्ड में फिलहाल कुल 11 महिलाएं हैं। जिनकी 12 हजार रुपए प्रतिमाह आय है।

ऐसे काम करती है सहेली कंपनी

– करीब 18 गांव में कंपनी की शेयरधारक महिलाएं हैं।

– प्रत्येक गांव में महिला के घर पर दूध का कलेक्शन सेन्टर बना रखा है। जहां महिलाएं खुद दूध दे जाती हैं।

– गांवों को 3 क्षेत्रों में विभाजित कर अलग-अलग गाडियां लगा रही हैं। जो कि दूध को करीमपुर में लगे प्लांट तक पहुंचाती हैं।

– प्लांट पर 20 हजार रूपए प्रतिमाह के वेतन पर उच्च शिक्षित ब्रजराज सिंह को मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त कर रखा है।

मिलता है महिलाओं को फायदा
– गांव में दूधियां 20-22 रूपए प्रति लीटर में महिलाओं से दूध खरीदते थे। जबकि कंपनी 30-32 रूपए लीटर में खरीदती है।

– जिससे दूध देने वाली हर महिला को अच्छी आय हो जाती है।

– इसके अलावा शेयर के अनुपात में कंपनी के शुद्ध लाभ में से भी हिस्सा मिलता है।

जिले में घी और पनीर भी बेचती है कंपनी

500 ग्राम पैकिंग की दूध की थैली कंपनी द्वारा धौलपुर शहर में बेची जाती है। जिसके लिए शहर में दो बिक्री केन्द्र बना रखे हैं। बचे हुए दूध का घी, पनीर आदि बनाकर बेचा जाता है। वर्ष 2015 में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग ने कंपनी के घी का नमूना भी लिया था। जो कि जांच में खरा उतरा तथा अन्य कंपनियों की अपेक्षा इसके उत्पाद सस्ते भी हैं।

खुद इंटरव्यू लेकर करती हैं चयन

जब भी कंपनी में कोई वैकेंसी होती है तो न्यूज़पेपर में विज्ञापन निकाला जाता है व महिलाओं द्वारा इन्टरव्यू लिया जाता है और उसके बाद खुद महिलाएं ही चयन करती हैं। कंपनी के बोर्ड में कुल 11 महिलाएं हैं। जिनकी आय प्रतिमाह 12 हजार रुपए है।

 

दो महीने बाद लॉन्च होगा भारत में बना रोबोट टाटा ब्राबो

मई 2014 में टाटा मोटर्स की टीएएल मेन्‍युफैक्‍चरिंग के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर अनिल भिंगुर्दे ने कंपनी के रोबोटिक वेंचर के बारे में चेयरमैन रविकांत और बोर्ड मेंबर्स के सामने प्रेजेंटेशन दिया था। इस प्रोटोटाइप रोबोट को सभी ने पसंद किया था और अब यह एक रोबोट के रूप में सामने आने वाला है जिसका नाम ब्राबो दिया गया है।

कहा जा रहा है‍ कि अगले दो महीने में इसे लॉन्‍च कर दिया जाएगा। इस रोबो को मुंबई में मेक इन इंडिया वीक में पेश किया जाएगा। ब्राबो को कंपनी की ही 6 इंजीनियर्स की टीम ने बनाया है जिनकी उम्र 24 साल से ज्‍यादा नहीं है। इस रोबोट को बनाने में 10 करोड़ रुपये का खर्च आया है। भिरगुंडे के अनुसार, ‘यह मेड इन इंडिया के, इंडिया के लिए बना है।’

खबरों के अनुसार इस रोबोट की डिजाइन टीएएल द्वारा बनाई गई है वहीं स्‍टाइल टाटा एल्‍क्‍सी में तैयार हुई है। इसके कुछ पार्ट्स टाटा ऑटोकॉम्‍प में बने जबकि टाटा कैपिटल ने इसके लिए धन मुहैया करवाया है।

बताया जा रहा है कि कंपनी का लक्ष्‍य दुनिया की बड़ी कंपनियों से प्रति‍योगिता नहीं बल्कि 3,6 और 10 लख रुपये तक के बजट में माइक्रो, स्‍माल और मीडियम इंडस्‍ट्री के लिए रोबोटिक सॉल्‍यूशन देना है। भारत में छोटी इंटरप्राइजेस द्वारा 5 हजार प्रोडक्‍ट बनाए जाते हैं जिनमें पारंपरिक बिजनेस सॉल्‍युशन के अलावा हाईटेक प्रोडक्‍ट भी बना रहीं है जिन्‍हें इन रोबोट्स की जरूरत पड़ेगी

 

तिरुपति मंदिर के लिए मुसलमान ने किया ट्रक दान

विजयवाड़ा। चेन्नई के एक मुसलमान ने प्रसिद्ध तिरुपति मंदिर में सब्जियां पहुंचाने के लिए एक रेफिजरेटर ट्रक दान किया है। 35 लाख की कीमत के इस ट्रक को सोमवार को मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडु ने हरी झंडी दिखाई। आठ टन की क्षमता वाला यह ट्रक अब्दुल गनी ने दान किया है। इसका इस्तेमाल मंदिर की भोजन दान करने वाली नित्य आनंदम योजना के लिए किया जाएगा। इस योजना के लिए सब्जियों का दान मांडव कुटुंब राव और उनका परिवार वर्ष 2007 से करता आ रहा है।