Saturday, July 26, 2025
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डिजिटल गांव के सपने को साकार करती, झारखंड की टैबलेट दीदी!

 

गोद में बच्चा और हाथो में टैबलेट ये नजारा झारखंड के गांवों में आम है, झारखंड के सुदूर गांवों की ये महिलाएं अपने घर- परिवार बच्चों का ध्यान रखने के साथ-साथ अपने घर को चलाने के लिए खूब मेहनत करती है। हाथ में टैबलेट लिये ये महिलाएं है झारखंड की ‘टैबलेट दीदी’।

तकनीक के इस युग में गांव की महिलाएं भी नई तकनीक के साथ कदमताल कर रही है। गांव में जितने भी स्वयं सहायता समूह होते है, उनके लेन-देन और बैठक के आंकड़ें ये टैबलेट के जरिए अपलोड करती है, जिससे रियल टाईम में ये आंकड़े झारखंड सरकार और भारत सरकार के एमआईएस में अपडेट हो जाता है।

कल तक दर्जनों रजिस्टर में स्वयं सहायता समूह का लेखा-जोखा रखने वाली ये महिलाएं आज पेपरलेस काम करती है। समूह का हर आंकड़ा इनके फिंगरटीप पर होता है।

आज झारखंड की सैकड़ों महिलाए अपने में बदलाव महसूस कर रही है, जिन महिलाओं ने ये सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके पास अपना मोबाईल होगा, वो आज टैबलेट चला रही है। ये टैबलेट उनकी पहचान बन चुकी है। गांव की हर गली के लोग उनको टैबलेट दीदी के नाम से पुकारते है।

झारखंड के रांची, पाकुड़ और पश्चिमी सिंहभूम जिले में इस पहल को शुरू किया गया है, जिसे झारखंड स्टेट लाईवलीहुड प्रमोशन सोसाईटी के द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है। इसके तहत गांव की महिलाओं को टैबलेट प्रशिक्षण उपलब्ध कराकर बुक-कीपिंग का गुर सिखाया जाता है। ये महिलाएं गंव की उन चुनिंदा महिलाओं में से है जिनमें अदम्य इच्छाशक्ति है। टैबलेट दीदी के रुप में चुनी गई महिलाएं आज स्वयं सहायता समूह में बुककीपिंग के अलावा टैबलेट के जरिए गांव की महिलाओं को जागरुक भी करती है। टैबलेट दीदी के आने से एक ओर जहां समूह का लेखा जोखा पहले से अच्छा हो गया है वहीं गांव की गरीब महिलाओं को आजीविका के विभिन्न साधनों के बारे में जागरुक करने के लिए टैबलेट से फिल्म भी दिखाया जाता है।

गरीबी को मात देकर बाहर निकली ये महिलाएं, आज टैबलेट दीदी के रुप में काम करके अपने घर को तो चला ही रही हैं साथ ही अपने इलाके से गरीबी को दूर करने के मिशन को भी जमीन पर उतार रही है।

द बेटर इंडिया की टीम जब टैबलेट दीदी से मिलने रांची के अनगड़ा प्रखण्ड के सोसो गांव में पहुंची तो वहां की टैबलेट दीदी-उमा, गांव की महिलाओं को बकरी पालन के गुर से संबंधित विडियो दिखा रही थी।

 “टैबलेट तो अमीरों की चीज है। मैने कभी उम्मीद नहीं की थी कि मेरे पास भी टैबलेट होगा। आज मेरी पहचान टैबलेट से है और मैं इसके जरिए अपने गांव के सभी समूहों का आंकड़ा दर्ज करती हूं और दीदी लोगों को फिल्में भी दिखाती हूँ।

उमा टेबलेट दीदी  बताती है कि-शुरू में  तो लगा कि मैंने कभी मोबाईल नहीं छुआ है, मैं कैसे टैबलेट चला पाउंगी, लेकिन कुल 7 दिन के प्रशिक्षण के बाद मुझे डेटा अपलोड, फिल्मे देखना, गेम खेलना, फोटो खीचना सब कुछ आता है।

गेतलसूद की टैबलेट दीदी- बबली करमाली, बताती है कि-टैबलेट बेस्ड स्वलेखा एमआईएस के आने से गांव के समूहों के आंकड़ों में अब किसी तरह की गड़बड़ी नहीं हो सकती है और पल भर में साप्ताहिक बैठक से जुड़ी हर जानकारी हम देश-विदेश तक शेयर करते है।

गांव की टैबलेट दीदी अपने गांव को डिजिटल गांव बनाने के लिए प्रयासरत है। गांव के माहौल में ये सिर्फ समूह से जुड़ा काम ही नहीं करती हैं बल्कि फुर्सत के पलों में इंटरनेट, ईमेल और फेसबुक पर भी रहती है।

आने वाले दिनों में टैबलेट दीदी के जरिए स्वयं सहायता समूह के उत्पादों की बिक्री की योजना है, जो जल्द ही धरातल पर उतरेगा। वहीं टैबलेट दीदी की सेवाओं को झारखंड सरकार के प्रस्तावित मोबाईल गवर्नेंस की विभिन्न सेवाओं से जोड़ने का प्रस्ताव भी है, ताकि गांव के स्तर पर इन सेवाओं का लाभ सभी ग्रामीणों को मिल सके।

कल तक टैबलेट को अमीरों की चीज समझने वाली गांव की ये महिलाएं आज टैबलेट दीदी के रुप में अपने नए रोल को बखूबी निभा रही है  और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया के सपनों को पंख देकर धरातल पर उतारने के लिए दिन रात मेहनत कर रही है। इनका सपना है की आने वाले दिनों में गांव के लोग भी इंटरनेट के जरिए हर काम घर बैठे कर सके।

भारत गांवो में बसता है और गांव समूह से बनता है…..  समूह अगर डिजिटल होगा तो डिजिटल गांव और डिजिटल इंडिया का सपना भी साकार होगा। प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया के सपने को साकार करने के लिए टैबलेट दीदी सुदूर गांव की आखिरी महिला तक को डिजिटल बनाकर इस पहल को धरातल पर उतारने में भागीदारी निभा रहा है।

(साभार – द बेटर इंडिया)

 

करीना कपूर ने कहा- ‘उन दिनों’ में पुरुषों को रखना चाहिए महिलाओं का ख्याल

लखनऊ. करीना कपूर खान का कहना है कि पीरियड्स के दिनों में पुरुषों को महिलाओं का ख्याल रखना चाहिए। पीरियड्स नैचुरल प्रॉसेस का हिस्सा होते हैं। करीना ने शनिवार को यहां लॉ मार्टीनियर कॉलेज में यूनिसेफ के प्रोग्राम में ये बातें कहीं। करीना ने स्टूडेंट्स से कहा- आप जो चाहें हासिल कर सकते हैं…

करीना ने मेन्स्ट्रूअल हाइजीन को लेकर यूनिसेफ के प्रोग्राम में कहा, ”महिलाओं में पीरियड्स और उनके हेल्‍थ रिलेटेड प्रॉब्‍लम्‍स पर खुलकर बात नहीं होती है, जो गलत है।”

”भगवान ने हमें बनाया है। पीरयड्स नैचुरल होते हैं। आप कैसे कह सकते हैं कि पीरियड्स के दौरान महिलाएं प्योर नहीं होतीं?”
करीना ने स्टूडेंट्स से कहा, ”ऐसा कुछ नहीं है जिसे लड़कियां अचीव नहीं कर सकतीं। मेरा सभी लड़कियों को यही मैसेज है। पैरेंट्स को बच्‍चों से हर तरह के मुद्दे पर खुलकर बात करनी चाहिए।”
करीना ने बताया, ”हम सेलेब्रिटीज हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम उन चीजों से नहीं गुजरते, जिससे आम लोग गुजरते हैं। हम भी 40 डिग्री टेम्‍परेचर में काम करते हैं, जैसे आप करते हैं।”
”सैनिटेशन की जो प्रॉब्‍लम्‍स हैं, वो हमारे साथ भी है। लोगों को लगता है कि हमें सारी सुविधाएं मिलती हैं, लेकिन ऐसा नहीं है।”
”अक्सर ऐसा होता है कि सफर में शूटिंग के दौरान हमें भी ऐसी परेशानियों से गुजरना पड़ता है।”
”पोर्टेबल टॉयलेट होते हैं, जो मेल-फीमेल दोनों को यूज करने होते हैं। हम भी मैनेज करते हैं। हमारा भी काम नहीं रुकता। लेकिन लोग ये समझते है कि हम स्टार हैं और सुविधाओं से लैस हैं।”

मैंने और करिश्मा ने तोड़ा मिथ

करीना ने कहा, ”अगर जेंडर बायसनेस की बात करें तो उसमे भी बहुत बदलाव आया है।”
”जर्नलिज्म में भी ज्‍यादा लड़कियां नजर आ रही है। हर फील्‍ड में लड़कियां आगे आ रही हैं।”
”मेरे परिवार में महिलाओं को काम करने की परमिशन नहीं थी, लेकिन मैंने और करिश्मा ने इस मिथ को तोड़ दिया।”
”फिर लोगों ने कहा शादी मत करो करियर खत्म हो जाएगा, लेकिन मैंने शादी भी की और मेरा काम भी जारी है, तो बदलाव हो रहा है।”

 

अंधे कानून के खिलाफ जंग छेड़ रही हैं पाकिस्तानी महिलाएं  

पाकिस्तानी महिलाओं ने देश में संसद जैसी अहमियत रखने वाली काउंसिल ऑफ इस्लामिक आइडियोलॉजी (CII) द्वारा पतियों को अपनी बात ना मानने पर महिलाओं की थोड़ी पिटाई करने का अधिकार देने वाले बिल की मुखालफत शुरू कर दी है। पाकिस्तानी अखबार ट्रिब्यून ने इस मामले में पाकिस्तान की 12 प्रोफेशनल महिलाओं की राय ली।

इन महिलाओं का सीधे तौर पर कहना था कि अगर कोई इनकी ‘थोड़ी पिटाई’ करता है तो ये उसका मुंहतोड़ जवाब देने में कोई कोताही नहीं बरतेंगी। अखबार ने इन महिलाओं से #TryBeatingMeLightly के साथ अपनी बात रखने के लिए कहा।

आइए आपको पढ़ाते हैं कि इन महिलाओं ने क्या कहा

अकीदा लालवानी नाम की डिजिटल स्टोरी टेलर का कहना है, ‘#TryBeatingMeLightly मैं वो विध्वंस बन जाऊंगी जिसकी तुमने कभी उम्मीद नहीं की होगी।’

फहद एस. कमल नाम की एजुकेशन कंसल्टेंट का कहना है, ‘#TryBeatingMeLightly और मुझे बताओ कि क्या तुम्हें अपनी ‘हल्की पिटाई’ पसंद है।’

ट्रैवल एंड लाइफस्टाइल ब्लॉगर अंबर जुल्फिकार कहती हैं, ‘#TryBeatingMeLightly और बदले में Aa**! में घूंसा खाओ।’

डिजिटल मार्केटर प्रियंका पाहुजा का जवाब था, ‘#TryBeatingMeLightly और मैं अपने सात साल के अनुभव के साथ एक कार तुम पर दौड़ा दूंगी।’

इस मामले में सुम्बुल उस्मान नाम की सोशल मीडिया मैनेजर का रुख बिल्कुल साफ है, ‘#TryBeatingMeLightly और तुम सुबह देखने के लिए नहीं बचोगे।’

डॉक्टर शगुफ्ता अब्बास, ‘#TryBeatingMeLightly मैं वो हाथ तोड़ दूंगी जो तुम मुझपर उठाओगे. बाकी का हिसाब मैं अल्लाह पर छोड़ती हूं।

सीनियर ब्रांड मैनेजर फिजा रहमान, ‘#TryBeatingMeLightly मैं सबके सामने तुम्हारी भी ‘हल्की पिटाई’ करूंगी, क्योंकि मैं लैंगिक भेदभाव के सख्त खिलाफ हूँ।.’

जैसे को तैसा में भरोसा रखने वाली ब्लॉगर इरम खान का कहना है, ‘#TryBeatingMeLightly और परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहो।.’

स्कूल टीचर और रेडियो जॉकी संदस रशीद, ‘#TryBeatingMeLightly और तुम इसके लिए अपनी बाकी बची हुई अभागी जिंदगी अफसोस में बिताओगे।.’

डिजिटल मार्केटर और ब्लॉगर सादिया अजहर, ‘#TryBeatingMeLightly मुझे अपनी बुद्धिमत्ता से Beat करो, अगर तुम कर सकते हो. मुझे अपनी मुस्कुराहट से Beat करो, मुझे अपनी दया भावना से Beat करो. लेकिन अगर तुमने मुझे एक पंख से भी पीटने की कोशिश की तो मैं तुम्हें बहुत बुरी तरह पीटूंगी।.’

मेडिकल स्टूडेंट अल्वीरा राजपर, ‘#TryBeatingMeLightly मुझे बताओ अगर कोई तुम्हारी बेटी की पिटाई करे तो तुम्हें कैसा लगेगा.।’

फोटो ब्लॉगर राबिया अहमद, ‘मैं सूर्य हूं, मुझे छूओगे तो मैं तुम्हें नरक की आग की तरह जला दूंगी. मैं प्रकाश हूं, तुम चाहोगे लेकिन मुझे कभी रोक नहीं पाओगे. तुम मुझमें कभी शामिल नहीं हो सकते. मैं उस तरह की औरत हूं जिस पर तूफानों के नाम रखे जाते हैं. मैं तुम्हें ललकारती हूं।, #TryBeatingMeLightly’

 

50 साल तक गुम रही फ़िल्म के मिलने की दास्तां

यह एक ऐसी असाधारण पाकिस्तानी फ़िल्म की कहानी है जिसे आधी सदी के बाद भी सुबह के तारे का इंतज़ार है, एक ऐसी फ़िल्म जिसमें भारत और पाकिस्तान का साझा झलकता है।

यह फ़िल्म लिखी पाकिस्तान में गई, इसमें मुख्य क़िरदार एक भारतीय ने निभाया और शूटिंग ढाका में हुई, जो उस वक़्त पूर्वी पाकिस्तान का सबसे बड़ा शहर था। मशहूर शायर फ़ैज़़ अहमद फ़ैज़़ की ‘जागो हुआ सवेरा’ को पाकिस्तान के फ़िल्मी इतिहास का सबसे अहम मील का पत्थर मानते हैं। 1958 में बनी यह फ़िल्म, कुछ दिन पहले फ्रांस के शहर कांस में आयोजित 69 वें फ़िल्म महोत्सव में ‘बरामद’ की जाने वाली फ़िल्मों की श्रेणी में दिखाई गई।

रूस के अग्रणी फ़िल्म निर्माता आंद्रेई तारकवोस्की की ‘सोलारस’, फ्रांसीसी निर्देशक रीगी वारनेयर की ‘इंडोक्ट्रिन’ और मिस्र के फ़िल्मकार यूसुफ़ शाहीन की ‘गडबाई बोनापार्ट’ जैसी दुर्लभ फ़िल्में के साथ इसकी स्क्रीनिंग हुई।

फ़िल्म समीक्षक साइबल चटर्जी कहते हैं, “यह फ़िल्म पाकिस्तानी सिनेमा में मील का पत्थर है. मेरे हिसाब से इस देश की यह एकमात्र नई याथार्थवादी फ़िल्म है. जिसने भी इसे खोज निकाला, उन्होंने बड़ा काम किया है। “यह फ़िल्म ब्याज के चंगुल में फंसे मछुआरों की कहानी है। अजय कारदार ने जब सन् 1957 में उसकी शूटिंग शुरू की, उस समय पाकिस्तान में बहुत उथल पुथल थी। फ़िल्मकार नोमान तासीर के बेटे अंजुम तासीर कहते हैं, “दिसंबर 1958 में फ़िल्म की रिलीज़ से तीन दिन पहले सरकार ने मेरे पिता से इसे रोकने को कहा. दो महीने पहले जनरल अयूब ख़ान पहले सैन्य शासक बने थे।.”

अंजुम तासीर कहते हैं, “सरकार ने फ़िल्म के युवा कलाकारों और लेखकों को कम्युनिस्ट क़रार दिया. कहानी, गीत और संवाद प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने लिखे थे।.” फ़ैज़़ की बेटी सलीमा हाशमी ने बताया, “जनरल अयूब ख़ान ने मेरे पिता और कई अन्य कलाकारों को क़ैद कर दिया।.” तासीर ने बताया, “मेरे पिता और अन्य लोगों ने लंदन में इसे प्रदर्शित करने का फ़ैसला किया, पर सरकार ने पाकिस्तान उच्चायोग को इस के बहिष्कार का आदेश दिया.” लेकिन ब्रिटेन में तत्कालीन उच्चायुक्त इकराम अताउल्लाह और उनकी पत्नी ने इसके प्रीमियर में भाग लिया। इस फ़िल्म की प्रेरणा भारत के निर्देशक सत्यजीत राय की 1955 की फ़िल्म ‘पाथेर पंचाली’ से ली गई थी और इसे ‘न्यू रियलिज़्म’ पर आधारित सिनेमा श्रेणी में शामिल किया जाता है।

फ़िल्म ब्लैक एंड व्हाइट में बांग्लादेश के नदी मेघना के तट पर फ़िल्माया गया। फ़िल्म में ढाका के निकट सतवी गांव के मछुआरा समुदाय के बारे में दिखाया गया है कि कैसे वो महाजनों के रहमोकरम पर रहते हैं।

प्रमुख बंगाली लेखक मानिक बंधोपाध्याय की कहानी से फ़ैज़ ने इसकी प्रेरणा ली थी। इसमें कोलकाता में रहने वाले संगीतकार तीमर बार्न ने संगीत दिया है, जबकि इसकी एकमात्र पेशेवर अभिनेत्री तृप्ति मित्रा भी भारतीय थीं। सन् 1940 के दशक में तृप्ति और उनके पति शोमभो मित्रा दोनों ही ‘इप्टा’ के सदस्य थे. फ़ैज़़ ने ब्रिटिश सिनेमेटोग्राफ़र वाल्टर लीज़र्ली को हायर किया। बाद में लीज़र्ली को ‘ज़ोरबा दा ग्रीक’ के लिए वर्ष 1964 में ऑस्कर पुरस्कार मिला और फ़िर कैमरामैन के रूप में ‘हीट एंड डस्ट’ (1983) के लिए पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सौंदर्यशास्त्र और प्रोडक्शन के ऊंचे पैमाने और सरकार के साथ तनातनी के कारण मिलने वाली लोकप्रियता से इस फ़िल्म को सफ़ल होना चाहिए था लेकिन तासीर के अनुसार, आर्थिक रूप से यह फ़ायदेमंद साबित नहीं हुई। एक क्लासिक फ़िल्म जिसे ‘ला सेट्रिडा’, ‘दा साइकिल थीफ़’ और ‘पाथेर पंचाली’ जैसी फ़िल्मों की श्रेणी में होना चाहिए था लेकिन वह कहीं गुम हो गई।

फिर आने वाले 50 वर्षों तक किसी ने इसका ज़िक्र तक नहीं किया, जबतक फ्रांस के शहर नांते में ‘थ्री कांटीनेंट्स फ़िल्म महोत्सव’ के संस्थापक फ़्रेंच ब्रदर्स फ़िलिप और एलन ने 2007 में पुरानी पाकिस्तानी फ़िल्में दिखाने का फ़ैसला नहीं किया।

फ़िलिप जल्लाद ने बताया, “पाकिस्तानी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मकार शिरीन पाशा ने कहा कि ‘जागो हुआ सवेरा’ के बिना पाकिस्तानी फ़िल्मों के अतीत पर नज़र नहीं डाल सकते। “इसके बाद तासीर ने पाकिस्तान और बांग्लादेश, पुणे, लंदन और पेरिस के अभिलेखागारों में इस फ़िल्म की तलाश की। प्रदर्शनी से एक सप्ताह पहले उन्हें इस फ़िल्म की कुछ रीलें फ़्रांसीसी फ़िल्म वितरक के पास मिलीं जबकि कुछ लंदन और कुछ कराची से बरामद हुईं। ‘अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज़’ के निर्माता ने बताया कि इन सभी को एक साथ रखकर देखने लायक बनाया गया और नवंबर में नांते में इसकी स्क्रीनिंग हुई।

इसके बाद तासीर ने फ़िल्म के रखरखाव का बीड़ा उठा लिया और उसकी प्रतियां चेन्नई के प्रसाद लैब्स में भेजीं. अंततः 2010 में यह फ़िल्म मुकम्मल हुई। तासीर ने फ़ैज़ की बेटी सलीमा हाशमी और फ़िलिप के साथ कांस में इसे पेश किया। इसके प्रीमियर के दौरान आधा हॉल खाली था, कोई पाकिस्तानी फ़िल्म समीक्षक वहां मौजूद नहीं था, जबकि केवल चार भारतीय पत्रकार फ़िल्म देखने आए थे। तासीर कहते हैं, “मैं इस फ़िल्म को पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश में दिखाना चाहता हूँ, यह तीनों देशों की साझी विरासत है.”

 

(साभार – बीबीसी हिन्दी)

जिंदगी के स्वाद में भरें थोड़ी मिठास

 

 रसमलाई

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सामग्री – 3 लीटर दूध फुल क्रीम, 2 नींबू का रस, डेढ़ चम्मच अरारोट, आधा चम्मच इलायची पाउडर, 8 से 10 पिस्ता बारीक कटे, आधा कटोरी चिरौंजी, 2 चुटकी केसर, 6 कप चीनी, 2 से 3 कप पानी, सजाने के लिए बारीक कटे पिस्ता और केसर की पत्तियों से रसमलाई गार्निश करें।

 विधि –  2 लीटर दूध को एक भारी तले वाले बर्तन में गर्म करें।  दूध में उबाल आने के बाद, गैस बंद कर दें। जब दूध थोड़ा ठंडा हो जाए तो इसमें नींबू का रस थोड़ा-थोड़ा डालते हुए एक बड़े चम्मच से चलाएं। जब दूध पूरा फट जाए. तो उसे एक साफ कपड़े में छानकर, ऊपर से ठंडा पानी डाल दें। इससे रसमलाई में नींबू का स्वाद नहीं आएगा।  अब कपड़े को बांधकर उसे अच्छी तरह दबाएं, ताकि फटे हुए दूध का सारा पानी निकल जाए. रसमलाई बनाने के लिए पनीर तैयार है। इसके बाद पनीर को किसी थाली में निकाल लें और इसे कद्दूकस या हाथों से अच्छी तरह मैश करके आटे की तरह गूंद कर चिकना करें। फिर पनीर में अरारोट मिक्स करके उसे 4 से 5 मिनट और मैश करें और गूंदकर चिकने आटे की तरह तैयार कर लें। अब मिश्रण में से थोड़ा-थोड़ा भाग हाथों में लेकर, उसे गोल शेप देकर हथेली से दबाकर, रसमलाई के लिए छैने तैयार करके एक प्लेट में रखते जाएं।अब चाशनी बनाने के लिए एक भगोने में 4 कप चीनी और 2 कप पानी डाल कर गैस पर गर्म करने रख दें। चाशनी में उबाल आने के बाद, प्लेट में रखे तैयार छैने इसमें डाल दें. भगोने को एक प्लेट से ढक दें। छेने और चाशनी तेज आंच पर 15 से 20 मिनिट तक पकाएं। कुछ देर में चाशनी गाढ़ी होने लगेगी, तो उसमें एक बड़े चम्मच से थोड़ा-थोड़ा करके पानी डालते रहें. ध्यान रखें कि चाशनी में हमेशा उबाल आता रहे। इस तरह चाशनी में सिर्फ 1 से 2 कप तक पानी डालें, छेने पकने के बाद फूल कर दुगने हो जाएंगे, तब गैस बंद कर दें। रसमलाई जिस चाशनी के साथ परोसी जाएगी, उसे तैयार करने के लिए बचा हुआ एक लीटर दूध एक बर्तन में डालकर उबाल लें। दूध में उबाल आ जाए तो उसे मध्यम आंच पर पकने दें और उसमें पिस्ता, केसर व चिरौंजी मिलाकर एक बड़े चम्मच से चलाते हुए पकाएं। दूध गाढ़ा होकर आधा रह जाए तो उसमें इलायची पाउडर और 2 कप चीनी मिलाकर कुछ देर और पकाए.फिर गैस बंद कर दें। अब रसमलाई के छैने चाशनी से निकालकर दूध में डाल दें. कुछ देर के लिए यह मिठाई फ्रिज में रख दें।  2-3 घंटे बाद इस स्वादिष्ट रसमलाई का आनंद लें।

  मिल्‍क केक

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सामग्री – 8-10 कप दूध, 1/8 चम्‍मच फिटकिरी ,200 ग्राम चीनी ,2 चम्‍मच घी 

विधि – सबसे पहले एक गहरे तली के पैन में दूध को गाढ़ा होने तक पका लें। फिर उसमें चीनी और फिटकिरी मिलाकर लगातार चलाते रहें। जब दूध दानेदार दिखने लगे और गाढ़ा हो जाए तब उसमें घी मिक्‍स कर दें। एक थाली में घी लगाकर अलग रख दें। दूध चलाते रहें और जब दूध बर्तन के किनारे छोड़ना शुरु कर दे तो उसे चिकनाई लगी थाली में निकाल लें। अब इसे चार से पांच घंटे तक सेट होने के लिए रख दें। इसके बाद मिल्‍क केक को चौकोर टुकड़ों में काट लें। अब इसे लंच या डिनर के बाद डिजर्ट में सर्व करें।

 

 

 

 

वापसी

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  • उषा प्रियंवदा

गजाधर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नज़र दौड़ाई — दो बक्से, डोलची, बालटी — ”यह डिब्बा कैसा है, गनेशी?” उन्होंने पूछा। गनेशी बिस्तर बाँधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दु:ख, कुछ लज्जा से बोला, ”घरवाली ने साथ को कुछ बेसन के लड्डू रख दिए हैं। कहा, बाबूजी को पसन्द थे, अब कहाँ हम गरीब लोग आपकी कुछ खातिर कर पाएँगे।” घर जाने की खुशी में भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव किया जैसे एक परिचित, स्नेह, आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा था।
”कभी-कभी हम लोगों की भी खबर लेते रहिएगा।” गनेशी बिस्तर में रस्सी बाँधते हुआ बोला।
”कभी कुछ ज़रूरत हो तो लिखना गनेशी! इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।”
गनेशी ने अंगोछे के छोर से आँखे पोछी, ”अब आप लोग सहारा न देंगे तो कौन देगा! आप यहाँ रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।”
गजाधर बाबू चलने को तैयार बैठे थे। रेल्वे क्वार्टर का वह कमरा, जिसमें उन्होंने कितने वर्ष बिताए थे, उनका सामान हट जाने से कुरूप और नग्न लग रहा था। आँगन में रोपे पौधे भी जान पहचान के लोग ले गए थे और जगह-जगह मिट्टी बिखरी हुई थी। पर पत्नी, बाल-बच्चों के साथ रहने की कल्पना में यह बिछोह एक दुर्बल लहर की तरह उठ कर विलीन हो गया।

गजाधर बाबू खुश थे, बहुत खुश। पैंतीस साल की नौकरी के बाद वह रिटायर हो कर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय उन्होंने अकेले रह कर काटा था। उन अकेले क्षणों में उन्होंने इसी समय की कल्पना की थी, जब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के सहारे वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि से उनका जीवन सफल कहा जा सकता था। उन्होंने शहर में एक मकान बनवा लिया था, बड़े लड़के अमर और लड़की कान्ति की शादियाँ कर दी थीं, दो बच्चे ऊँची कक्षाओं में पढ़ रहे थे। गजाधर बाबू नौकरी के कारण प्राय: छोटे स्टेशनों पर रहे और उनके बच्चे तथा पत्नी शहर में, जिससे पढ़ाई में बाधा न हो। गजाधर बाबू स्वभाव से बहुत स्नेही व्यक्ति थे और स्नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ था, डयूटी से लौट कर बच्चों से हँसते-खेलते, पत्नी से कुछ मनोविनोद करते – उन सबके चले जाने से उनके जीवन में गहन सूनापन भर उठा। खाली क्षणों में उनसे घरमें टिका न जाता। कवि प्रकृति के न होने पर भी उन्हें पत्नी की स्नेहपूर्ण बातें याद आती रहतीं। दोपहर में गर्मी होने पर भी दो बजे तक आग जलाए रहती और मना करने पर भी थोड़ा-सा कुछ और थाली में परोस देती और बड़े प्यार से आग्रह करती। जब वह थके-हारे बाहर से आते, तो उनकी आहट पा वह रसोई के द्वार पर निकल आती और उनकी सलज्ज आँखे मुस्करा उठतीं। गजाधर बाबू को तब हर छोटी बात भी याद आती और उदास हो उठते। अब कितने वर्षों बाद वह अवसर आया था जब वह फिर उसी स्नेह और आदर के मध्य रहने जा रहे थे।

टोपी उतार कर गजाधर बाबू ने चारपाई पर रख दी, जूते खोल कर नीचे खिसका दिए, अन्दर से रह-रह कर कहकहों की आवाज़ आ रही थी, इतवार का दिन था और उनके सब बच्चे इकठ्ठे हो कर नाश्ता कर रहे थे। गजाधर बाबू के सूखे होठों पर स्निग्ध मुस्कान आ गई, उसी तरह मुस्कुराते हुए वह बिना खाँसे अन्दर चले आए। उन्होंने देखा कि नरेन्द्र कमर पर हाथ रखे शायद रात की फिल्म में देखे गए किसी नृत्य की नकल कर रहा था और बसन्ती हँस-हँस कर दुहरी हो रही थी। अमर की बहू को अपने तन-बदन, आँचल या घूंघट का कोई होश न था और वह उन्मुक्त रूप से हँस रही थी। गजाधर बाबू को देखते ही नरेंद्र धप-से बैठ गया और चाय का प्याला उठा कर मुँह से लगा लिया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढक लिया, केवल बसन्ती का शरीर रह-रह कर हँसी दबाने के प्रयत्न में हिलता रहा।

गजाधर बाबू ने मुस्कराते हुए उन लोगों को देखा। फिर कहा, ”क्यों नरेन्द्र, क्या नकल हो रही थी?”
”कुछ नहीं बाबू जी।” नरेन्द्रने सिर फिराकर कहा। गजाधर बाबू ने चाहा था कि वह भी इस मनो-विनोद में भाग लेते, पर उनके आते ही जैसे सब कुण्ठित हो चुप हो गए, उसे उनके मनमें थोड़ी-सी खिन्नता उपज आई। बैठते हुए बोले, ”बसन्ती, चाय मुझे भी देना। तुम्हारी अम्मा की पूजा अभी चल रही है क्या?”
बसन्ती ने माँ की कोठरी की ओर देखा, ”अभी आती ही होंगी” और प्याले में उनके लिए चाय छानने लगी। बहू चुपचाप पहले ही चली गई थी, अब नरेन्द्र भी चाय का आखिरी घूँट पी कर उठ खड़ा हुआ। केवल बसन्ती पिता के लिहाज में, चौके में बैठी माँ की राह देखने लगी। गजाधर बाबू ने एक घूँट चाय पी, फिर कहा, ”बिट्टी – चाय तो फीकी है।”
”लाइए, चीनी और डाल दूँ।” बसन्ती बोली।
”रहने दो, तुम्हारी अम्मा जब आएगी, तभी पी लूँगा।”

थोड़ी देर में उनकी पत्नी हाथ में अर्घ्य का लोटा लिए निकली और अशुद्ध स्तुति कहते हुए तुलसी को डाल दिया। उन्हें देखते ही बसन्ती भी उठ गई। पत्नी ने आकर गजाधर बाबू को देखा और कहा, ”अरे आप अकेले बैंठें हैं – ये सब कहाँ गए?” गजाधर बाबू के मन में फाँस-सी करक उठी, ”अपने-अपने काम में लग गए हैं – आखिर बच्चे ही हैं।”
पत्नी आकर चौके में बैठ गई, उन्होनें नाक-भौं चढ़ाकर चारों ओर जूठे बर्तनों को देखा। फिर कहा, ”सारे में जूठे बर्तन पड़े हैं। इस घर में धरम-करम कुछ है नहीं। पूजा करके सीधे चौंके में घुसो।” फिर उन्होंने नौकर को पुकारा, जब उत्तर न मिला तो एक बार और उच्च स्वर में फिर पति की ओर देख कर बोलीं, ”बहू ने भेजा होगा बाज़ार।” और एक लम्बी साँस ले कर चुप हो रहीं।

गजाधर बाबू बैठ कर चाय और नाश्ते का इन्तज़ार करते रहे। उन्हें अचानक गनेशी की याद आ गई। रोज़ सुबह, पॅसेंजर आने से पहले यह गरम-गरम पूरियाँ और जलेबियाँ और चाय लाकर रख देता था। चाय भी कितनी बढ़िया, काँच के गिलास में उपर तक भरी लबालब, पूरे ढ़ाई चम्मच चीनी और गाढ़ी मलाई। पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुँचे, गनेशी ने चाय पहुँचाने में कभी देर नहीं की। क्या मजाल कि कभी उससे कुछ कहना पड़े।

पत्नी का शिकायत भरा स्वर सुन उनके विचारों में व्याघात पहुँचा। वह कह रही थी, ”सारा दिन इसी खिच-खिच में निकल जाता है। इस गृहस्थी का धन्धा पीटते-पीटते उमर बीत गई। कोई ज़रा हाथ भी नहीं बटाता।”
”बहू क्या किया करती हैं?” गजाधर बाबू ने पूछा।
”पड़ी रहती है। बसन्ती को तो, फिर कहो कि कॉलेज जाना होता हैं।”
गजाधर बाबू ने जोश में आकर बसन्ती को आवाज़ दी। बसन्ती भाभी के कमरे से निकली तो गजाधर बाबू ने कहा, ”बसन्ती, आज से शाम का खाना बनाने की ज़िम्मेदारी तुम पर है। सुबह का भोजन तुम्हारी भाभी बनाएगी।” बसन्ती मुँह लटका कर बोली, ”बाबू जी, पढ़ना भी तो होता है।”
गजाधर बाबू ने प्यार से समझाया, ”तुम सुबह पढ़ लिया करो। तुम्हारी माँ बूढ़ी हुई, अब वह शक्ति नहीं बची हैं। तुम हो, तुम्हारी भाभी हैं, दोनों को मिलकर काम में हाथ बँटाना चाहिए।”
बसन्ती चुप रह गई। उसके जाने के बाद उसकी माँ ने धीरे से कहा, ”पढ़ने का तो बहाना है। कभी जी ही नहीं लगता, लगे कैसे? शीला से ही फुरसत नहीं, बड़े बड़े लड़के है उस घर में, हर वक्त वहाँ घुसा रहना मुझे नहीं सुहाता। मना करू तो सुनती नहीं।”

नाश्ता कर गजाधर बाबू बैठक में चले गए। घर लौटा था और ऐसी व्यवस्था हो चुकी थी कि उसमें गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था। जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ अस्थायी प्रबन्ध कर दिया जाता है, उसी प्रकार बैठक में कुरसियों को दीवार से सटाकर बीच में गजाधर बाबू के लिए पतली-सी चारपाई डाल दी गई थी। गजाधर बाबू उस कमरे में पड़े पड़े कभी-कभी अनायास ही इस अस्थायित्व का अनुभव करने लगते। उन्हें याद आती उन रेलगाडियों की जो आती और थोड़ी देर रुक कर किसी और लक्ष की ओर चली जाती।

घर छोटा होने के कारण बैठक में ही अब अपना प्रबन्ध किया था। उनकी पत्नी के पास अन्दर एक छोटा कमरा अवश्य था, पर वह एक ओर अचारों के मर्तबान, दाल, चावल के कनस्तर और घी के डिब्बों से घिरा था, दूसरी ओर पुरानी रजाइयाँ, दरियों में लिपटी और रस्सी से बाँध रखी थी, उनके पास एक बड़े से टीन के बक्स में घर-भर के गरम कपड़े थे। बींच में एक अलगनी बँधी हुई थी, जिस पर प्राय: बसन्ती के कपड़े लापरवाही से पड़े रहते थे। वह भरसक उस कमरे में नहीं जाते थे। घर का दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास था, तीसरा कमरा, जो सामने की ओर था। गजाधर बाबू के आने से पहले उसमें अमर के ससुराल से आया बेंत का तीन कुरसियों का सेट पड़ा था, कुरसियों पर नीली गद्दियाँ और बहू के हाथों के कढ़े कुशन थे।

जब कभी उनकी पत्नी को कोई लम्बी शिकायता करनी होती, तो अपनी चटाई बैढ़क में डाल पड़ जाती थीं। वह एक दिन चटाई ले कर आ गई। गजाधर बाबू ने घर-गृहस्थी की बातें छेड़ी, वह घर का रवय्या देख रहे थे। बहुत हलके से उन्होंने कहा कि अब हाथ में पैसा कम रहेगा, कुछ खर्चा कम करना चाहिए।
”सभी खर्च तो वाजिब-वाजिब है, न मन का पहना, न ओढ़ा।”

गजाधर बाबू ने आहत, विस्मित दृष्टि से पत्नी को देखा। उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी। उनकी पत्नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्लेख करतीं। यह स्वाभाविक था, लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका। उनसे यदि राय-बात की जाती कि प्रबन्ध कैसे हो, तो उन्हें चिन्ता कम, संतोष अधिक होता लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती थी, जैसे परिवार की सब परेशानियों के लिए वही ज‍िम्मेदार थे।
”तुम्हे कमी किस बात की है अमर की माँ – घर में बहू है, लड़के-बच्चे हैं, सिर्फ़ रुपए से ही आदमी अमीर नहीं होता।” गजाधर बाबू ने कहा और कहने के साथ ही अनुभव किया। यह उनकी आन्तरिक अभिव्यक्ति थी – ऐसी कि उनकी पत्नी नहीं समझ सकती।
”हाँ, बड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है, देखो क्या होता हैं?” कहकर पत्नी ने आँखे मूँदी और सो गई। गजाधर बाबू बैठे हुए पत्नी को देखते रह गए। यही थी क्या उनकी पत्नी, जिसके हाथों के कोमल स्पर्श, जिसकी मुस्कान की याद में उन्होंने सम्पूर्ण जीवन काट दिया था? उन्हें लगा कि वह लावण्यमयी युवती जीवन की राह में कहीं खो गई और उसकी जगह आज जो स्त्री है, वह उनके मन और प्राणों के लिए नितान्त अपरिचिता है। गाढ़ी नींद में डूबी उनकी पत्नी का भारी शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा था, श्रीहीन और रूखा था। गजाधर बाबू देर तक निस्वंग दृष्टि से पत्नी को देखते रहें और फिर लेट कर छत की ओर ताकने लगे।

अन्दर कुछ गिरा दिया शायद, और वह अन्दर भागी। थोड़ी देर में लौट कर आई तो उनका मुँह फूला हुआ था। ”देखा बहू को, चौका खुला छोड़ आई, बिल्ली ने दाल की पतीली गिरा दी। सभी खाने को है, अब क्या खिलाऊँगी?” वह साँस लेने को रुकी और बोली, ”एक तरकारी और चार पराठे बनाने में सारा डिब्बा घी उंडेल रख दिया। ज़रा-सा दर्द नहीं हैं, कमानेवाला हाड़ तोडे और यहाँ चीज़ें लुटें। मुझे तो मालूम था कि यह सब काम किसी के बस का नहीं हैं।” गजाधर बाबू को लगा कि पत्नी कुछ और रात का भोजन बसन्ती ने जान बूझ कर ऐसे बनाया था कि कौर तक निगला न जा सके।

गजाधर बाबू चुपचाप खा कर उठ गए पर नरेन्द्र थाली सरका कर उठ खड़ा हुआ और बोला, ”मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता।”
बसन्ती तुनककर बोली, ”तो न खाओ, कौन तुम्हारी खुशामद कर रहा है।”
”तुमसे खाना बनाने को किसने कहा था?” नरेंद्र चिल्लाया।
”बाबू जी ने।”
”बाबू जी को बैठे-बैठे यही सूझता है।”
बसन्ती को उठा कर माँ ने नरेंद्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ बना कर खिलाया। गजाधर बाबू ने बाद में पत्नी से कहा, ”इतनी बड़ी लड़की हो गई और उसे खाना बनाने तक का सहूर नहीं आया।”
”अरे आता सब कुछ है, करना नहीं चाहती।” पत्नी ने उत्तर दिया। अगली शाम माँ को रसोई में देख कपड़े बदल कर बसन्ती बाहर आई तो बैठक में गजाधर बाबू ने टोंक दिया, ”कहाँ जा रही हो?”
”पड़ोस में शीला के घर।” बसन्ती ने कहा।
”कोई ज़रूरत नहीं हैं, अन्दर जा कर पढ़ो।” गजाधर बाबू ने कड़े स्वर में कहा। कुछ देर अनिश्चित खड़े रह कर बसन्ती अन्दर चली गई। गजाधर बाबू शाम को रोज़ टहलने चले जाते थे, लौट कर आए तो पत्नी ने कहा, ”क्या कह दिया बसन्ती से? शाम से मुँह लपेटे पड़ी है। खाना भी नहीं खाया।”

गजाधर बाबू खिन्न हो आए। पत्नी की बात का उन्होंने उत्तर नहीं दिया। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया कि बसन्ती की शादी जल्दी ही कर देनी है। उस दिन के बाद बसन्ती पिता से बची-बची रहने लगी। जाना हो तो पिछवाड़े से जाती। गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्नी से पूछा तो उत्तर मिला, ”रूठी हुई हैं।” गजाधर बाबू को और रोष हुआ। लड़की के इतने मिज़ाज, जाने को रोक दिया तो पिता से बोलेगी नहीं। फिर उनकी पत्नी ने ही सूचना दी कि अमर अलग होने की सोच रहा हैं।
”क्यों?” गजाधर बाबू ने चकित हो कर पूछा।

पत्नी ने साफ़-साफ़ उत्तर नहीं दिया। अमर और उसकी बहू की शिकायतें बहुत थी। उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैं, कोई आने-जानेवाला हो तो कहीं बिठाने की जगह नहीं। अमर को अब भी वह छोटा-सा समझते थे और मौके-बेमौके टोक देते थे। बहू को काम करना पड़ता था और सास जब-तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थीं।
”हमारे आने के पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी?” गजाधर बाबू ने पूछा।

पत्नी ने सिर हिलाकर जताया कि नहीं, पहले अमर घर का मालिक बन कर रहता था, बहू को कोई रोक-टोक न थी, अमर के दोस्तों का प्राय: यहीं अड्डा जमा रहता था और अन्दर से चाय नाश्ता तैयार हो कर जाता था। बसन्ती को भी वही अच्छा लगता था।
गजाधर बाबू ने बहुत धीरे से कहा, ”अमर से कहो, जल्दबाज़ी की कोई ज़रूरत नहीं हैं।”

अगले दिन सुबह घूम कर लौटे तो उन्होंने पाया कि बैठक में उनकी चारपाई नहीं हैं। अन्दर आकर पूछने वाले ही थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अन्दर बैठी पत्नी पर पड़ी। उन्होंने यह कहने को मुँह खोला कि बहू कहाँ है, पर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्नी की कोठरी में झाँका तो अचार, रजाइयों और कनस्तरों के मध्य अपनी चारपाई लगी पाई। गजाधर बाबू ने कोट उतारा और कहीं टाँगने के लिए दीवार पर नज़र दौड़ाई। फिर उसपर मोड़ कर अलगनी के कुछ कपड़े खिसका कर एक किनारे टाँग दिया। कुछ खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी हो, तन आखिरकार बूढ़ा ही था। सुबह शाम कुछ दूर टहलने अवश्य चले जाते, पर आते-आते थक उठते थे। गजाधर बाबू को अपना बड़ा-सा, खुला हुआ क्वार्टर याद आ गया। निश्चित जीवन – सुबह पॅसेंजर ट्रेन आने पर स्टेशन पर की चहल-पहल, चिर-परिचित चेहरे और पटरी पर रेल के पहियों की खट्-खट् जो उनके लिए मधुर संगीत की तरह था। तूफ़ान और डाक गाडी के इंजिनों की चिंघाड उनकी अकेली रातों की साथी थी। सेठ रामजीमल की मिल के कुछ लोग कभी-कभी पास आ बैठते, वह उनका दायरा था, वही उनके साथी। वह जीवन अब उन्हें खोई विधि-सा प्रतीत हुआ। उन्हें लगा कि वह ज़िन्दगी द्वारा ठगे गए हैं। उन्होंने जो कुछ चाहा उसमें से उन्हें एक बूँद भी न मिली।

लेटे हुए वह घर के अन्दर से आते विविध स्वरों को सुनते रहे। बहू और सास की छोटी-सी झड़प, बाल्टी पर खुले नल की आवाज़, रसोई के बर्तनों की खटपट और उसी में गौरैयों का वार्तालाप – और अचानक ही उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब घर की किसी बात में दखल न देंगे। यदि गृहस्वामी के लिए पूरे घर में एक चारपाई की जगह यहीं हैं, तो यहीं पड़े रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई तो वहाँ चले जाएँगे।
यदि बच्चों के जीवन में उनके लिए कहीं स्थान नहीं, तो अपने ही घर में परदेसी की तरह पड़े रहेंगे। और उस दिन के बाद सचमुच गजाधर बाबू कुछ नहीं बोले। नरेंद्र माँगने आया तो उसे बिना कारण पूछे रुपए दे दिए बसन्ती काफी अंधेरा हो जाने के बाद भी पड़ोस में रही तो भी उन्होंने कुछ नहीं कहा – पर उन्हें सबसे बड़ा गम़ यह था कि उनकी पत्नी ने भी उनमें कुछ परिवर्तन लक्ष्य नहीं किया। वह मन ही मन कितना भार ढो रहे हैं, इससे वह अनजान बनी रहीं। बल्कि उन्हें पति के घर के मामले में हस्तक्षेप न करने के कारण शान्ति ही थी। कभी-कभी कह भी उठती, ”ठीक ही हैं, आप बीच में न पड़ा कीजिए, बच्चे बड़े हो गए हैं, हमारा जो कर्तव्य था, कर रहें हैं। पढ़ा रहें हैं, शादी कर देंगे।”
गजाधर बाबू ने आहत दृष्टि से पत्नी को देखा। उन्होंने अनुभव किया कि वह पत्नी व बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्तमात्र हैं।

जिस व्यक्ति के अस्तित्व से पत्नी माँग में सिन्दूर डालने की अधिकारी हैं, समाज में उसकी प्रतिष्ठा है, उसके सामने वह दो वक्त का भोजन की थाली रख देने से सारे कर्तव्यों से छुट्टी पा जाती हैं। वह घी और चीनी के डब्बों में इतना रमी हुई हैं कि अब वही उनकी सम्पूर्ण दुनिया बन गई हैं। गजाधर बाबू उनके जीवन के केंद्र नहीं हो सकते, उन्हें तो अब बेटी की शादी के लिए भी उत्साह बुझ गया। किसी बात में हस्तक्षेप न करने के निश्चय के बाद भी उनका अस्तित्व उस वातावरण का एक भाग न बन सका। उनकी उपस्थिति उस घर में ऐसी असंगत लगने लगी थी, जैसे सजी हुई बैठक में उनकी चारपाई थी। उनकी सारी खुशी एक गहरी उदासीनता में डूब गई।
इतने सब निश्चयों के बावजूद भी गजाधर बाबू एक दिन बीच में दखल दे बैठे। पत्नी स्वभावानुसार नौकर की शिकायत कर रही थी, ”कितना कामचोर है, बाज़ार की हर चीज़ में पैसा बनाता है, खाना खाने बैठता है तो खाता ही चला जाता हैं। ”गजाधर बाबू को बराबर यह महसूस होता रहता था कि उनके रहन सहन और खर्च उनकी हैसियत से कहीं ज्यादा हैं। पत्नी की बात सुन कर लगा कि नौकर का खर्च बिलकुल बेकार हैं। छोटा-मोटा काम हैं, घर में तीन मर्द हैं, कोई-न-कोई कर ही देगा। उन्होंने उसी दिन नौकर का हिसाब कर दिया। अमर दफ्तर से आया तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू बोली, ”बाबू जी ने नौकर छुड़ा दिया हैं।”
”क्यों?”
”कहते हैं, खर्च बहुत है।”
यह वार्तालाप बहुत सीधा-सा था, पर जिस टोन में बहू बोली, गजाधर बाबू को खटक गया। उस दिन जी भारी होने के कारण गजाधर बाबू टहलने नहीं गए थे। आलस्य में उठ कर बत्ती भी नहीं जलाई – इस बात से बेखबर नरेंद्र माँ से कहने लगा, ”अम्मा, तुम बाबू जी से कहती क्यों नहीं? बैठे-बिठाए कुछ नहीं तो नौकर ही छुड़ा दिया। अगर बाबू जी यह समझें कि मैं साइकिल पर गेंहूँ रख आटा पिसाने जाऊँगा तो मुझसे यह नहीं होगा।”
”हाँ अम्मा,” बसन्ती का स्वर था, ”मैं कॉलेज भी जाऊँ और लौट कर घर में झाड़ू भी लगाऊँ, यह मेरे बस की बात नहीं हैं।”
”बूढ़े आदमी हैं” अमर भुनभुनाया, ”चुपचाप पड़े रहें। हर चीज़ में दखल क्यों देते हैं?” पत्नी ने बड़े व्यंग से कहा, ”और कुछ नहीं सूझा तो तुम्हारी बहू को ही चौके में भेज दिया। वह गई तो पंद्रह दिन का राशन पाँच दिन में बना कर रख दिया।” बहू कुछ कहे, इससे पहले वह चौके में घुस गई। कुछ देर में अपनी कोठरी में आई और बिजली जलाई तो गजाधर बाबू को लेटे देख बड़ी सिटपिटाई। गजाधर बाबू की मुखमुद्रा से वह उनके भावों का अनुमान न लगा सकी। वह चुप, आँखे बंद किए लेटे रहे।

गजाधर बाबू चिठ्ठी हाथ में लिए अन्दर आए और पत्नी को पुकारा। वह भीगे हाथ लिए निकलीं और आँचल से पोंछती हुई पास आ खड़ी हुई। गजाधर बाबू ने बिना किसी भूमिका के कहा, ”मुझे सेठ रामजीमल की चीनी मिल में नौकरी मिल गई हैं। खाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएँ, वहीं अच्छा हैं। उन्होंने तो पहले ही कहा था, मैंने मना कर दिया था।” फिर कुछ रुक कर, जैसी बुझी हुई आग में एक चिनगारी चमक उठे, उन्होंने धीमे स्वर में कहा, ”मैंने सोचा था, बरसों तुम सबसे अलग रहने के बाद, अवकाश पा कर परिवार के साथ रहूँगा। खैर, परसों जाना हैं। तुम भी चलोगी?” ”मैं?” पत्नी ने सकपकाकर कहा, ”मैं चलूंगी तो यहाँ क्या होग? इतनी बड़ी गृहस्थी, फिर सयानी लड़की।”
बात बीच में काट कर गजाधर बाबू ने हताश स्वर में कहा, ”ठीक हैं, तुम यहीं रहो। मैंने तो ऐसे ही कहा था।” और गहरे मौन में डूब गए।

नरेंद्र ने बड़ी तत्परता से बिस्तर बाँधा और रिक्शा बुला लाया। गजाधर बाबू का टीन का बक्स और पतला-सा बिस्तर उस पर रख दिया गया। नाश्ते के लिए लड्डू और मठरी की डलिया हाथ में लिए गजाधर बाबू रिक्शे में बैठ गए। एक दृष्टि उन्होंने अपने परिवार पर डाली और फिर दूसरी ओर देखने लगे और रिक्शा चल पड़ा। उनके जाने के बाद सब अन्दर लौट आए, बहू ने अमर से पूछा, ”सिनेमा चलिएगा न?”
बसन्ती ने उछल कर कहा, ”भैया, हमें भी।”

गजाधर बाबू की पत्नी सीधे चौके में चली गई। बची हुई मठरियों को कटोरदान में रखकर अपने कमरे में लाई और कनस्तरों के पास रख दिया। फिर बाहर आ कर कहा, ”अरे नरेन्द्र, बाबू जी की चारपाई कमरे से निकाल दे, उसमें चलने तक को जगह नहीं हैं।”

 

पिता पर दो कविताएं

दो लड़कियों का पिता होने से

Chandrakantdewtale

– चन्द्रकान्त देवताले

पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी

मैं पिता हूँ

दो चिड़ियाओं का जो चोंच में धान के कनके दबाए

पपीते की गोद में बैठी हैं

सिर्फ़ बेटियों का पिता होने से भर से ही

कितनी हया भर जाती है

शब्दों में

मेरे देश में होता तो है ऐसा

कि फिर धरती को बाँचती हैं

पिता की कवि-आंखें…….

बेटियों को गुड़ियों की तरह गोद में खिलाते हैं हाथ

बेटियों का भविष्य सोच बादलों से भर जाता है

कवि का हृदय

एक सुबह पहाड़-सी दिखती हैं बेटियाँ

कलेजा कवि का चट्टान-सा होकर भी थर्राता है

पत्तियों की तरह

और अचानक डर जाता है कवि चिड़ियाओं से

चाहते हुए उन्हें इतना

करते हुए बेहद प्यार।

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पिता से गले मिलते

Kunwar_Narayan

– कुंवर नारायण

पिता से गले मिलते

आश्वस्त होता नचिकेता कि
उनका संसार अभी जीवित है।

उसे अच्छे लगते वे घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे की तुतलाते हस्ताक्षर,
यह अनुभूति अच्छी लगती
कि मां केवल एक शब्द नहीं,
एक सम्पूर्ण भाषा है,

अच्छा लगता
बार-बार कहीं दूर से लौटना
अपनों के पास,

उसकी इच्छा होती
कि यात्राओं के लिए
असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
और लौटने के लिए
हर समय हर जगह अपना एक घर

देश की पहली महिला जॉकी हैं रूपा सिंह

पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की भगीदारी अब चूल्हे-चौके से निकल कर हर क्षेत्र में बढ़ रही है फिर चाहे सेना में शामिल होकर देश सेवा करने का जज्बा हो या फिर जॉकी की बनकर घोड़ों को मैदान में दौड़ाने का हुनर. सारे दायरों को तोड़ते हुए 33 साल की रूपा सिंह भारत की पहली महिला जॉकी बनी हैं.

रूपा सिंह को मीडिया का साथ मिला, उनके अपनों ने उनका हौसला बढ़ाया और उनके नाम कई बड़े अवॉर्ड है। 720 रेस में हिस्सा ले चुकीं रूपा 7 बार चैम्पियन रह चुकी हैं और हाल ही में ऊटी में हुई अन्नामलाई प्लेट प्रतियोगिता भी उन्होंने अपने नाम कर ली है।

रूपा सिंह के दादा उगम सिंह ब्रिटिश सेना के घोड़ों को प्रशिक्षित किया करते थे। पिता नरपत और भाई रवींद्र भी जॉकी ही हैं। रूपा के पिता ने उन्हें चार साल की उम्र से ही घुड़सवारी सिखा दी थी। अपने में एक्सपर्ट होने के बाद भी रूपा को औसत घोड़े दिए जाते थे और उन्होंने औसत घोड़ों की सवारी करते हुए 50 रेस जीतीं और खुद को साबित किया।
एक बार जो कदम बढ़ गए तो सफलता दूर कहां थी, ऐसा ही कुछ हुआ रूपा के साथ अब वह अपनी पसंद के घोड़े पर रेस करने लगीं ओर 2010 में मद्रास क्लासिक जीतने के बाद मीडिया ने भी उन्हें नोटिस किया। 2014 में रूपा ने पौलैंड में हुई वर्ल्ड चैम्पियनशीप में सभी धुरंधर महिला जॉकीज को पछाड़ते हुए खिताब अपने नाम कर लिया।
रूपा कहना है कि घोड़े दौड़ना कोई आसान काम नहीं है और इस दौरान उन्होंने कई बार चोट खाई है लेकिन एक बार इस काम को चुनने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. बकौल रूपा, ‘मैं बस ये चाहती हूं कि काम को जेंडर के हिसाब से नहीं काबिलियत के हिसाब से देखा जाना चाहिए।

 

चाय की पत्तियों के जादू से निखारें खूबसूरती

 

चाय की चुस्क‍ियां लेते समय क्या आपने कभी ये सोचा है कि इसका इस्तेमाल और किस तरह से कर सकती हैं। शायद आपको पता न हो लेकिन चाय की पत्त‍ियां आपको खूबसूरत भी बना सकती हैं, जिनका इस्तेमाल न केवल त्वचा की खूबसूरती बढ़ाने के लिए किया जाता है बल्क‍ि ये बालों की सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है। आमतौर पर ग्रीन टी को ही ब्यूटी प्रोडक्ट के रूप में देखा जाता है लेकिन चाय की पत्ती चाहे जो भी हो, उसका इस्तेमाल खूबसूरती निखारने के लिए किया जा सकता है. चाय की पत्तियों में एंटी-ऑक्सीडेंट पाया जाता है. इसके अलावा इसमें anti-aging और anti-inflammatory गुण भी पाए जाते हैं। आप चाहें तो सौंदर्य समस्याओं के लिए चाय की पत्ती का इस्तेमाल कर सकती हैं-

बालों में चमक लाने के लिए आप ग्रीन टी या ब्लैक टी बैग्स का इस्तेमाल कर सकती हैं। इसके लिए एक बर्तन में पानी उबलने के लिए रख दें। इसमें कुछ टी-बैग्स भी डाल दें। 15 मिनट तक इस पानी को उबलने दें। इसके बाद ठंडा होने के लिए रख दें। बालों में शैंपू करने के बाद इस पानी को बालों में लगाकर कुछ देर के लिए छोड़ दें। इसके बाद किसी माइल्ड शैंपू से बालों को धो लें। एक वॉश में ही आपको फर्क नजर आने लगेगा।

क्या तमाम सनस्क्रीन इस्तेमाल करने के बावजूद आपको सनबर्न की प्रॉब्लम हो गई है? अगर आपको सनबर्न दूर करने का कोई सही तरीका समझ नहीं आ रहा है तो एकबार टी-बैग्स का इस्तेमाल करके देखें। कुछ टी-बैग्स लेकर ठंडे पानी में डुबो दें। उन्हें हल्के हाथों से दबाकर चेहरे पर रखकर कुछ देर के लिए लेट जाएं। इससे आपकी सनबर्न की समस्या दूर हो जाएगी।

अगर आपकी आंखों के नीचे काले घेरे हो गए हैं या फिर आपकी आंखें पफी-पफी रहती हैं तो भी ठंडे टी-बैग्स का इस्तेमाल करना आपके लिए फायदेमंद रहेगा। इसमें मौजूद कैफीन आंखों के नीचे के काले घेरों को दूर करने में मदद करती है।कई बार ऐसा होता है कि पार्क या बगीचे में जाने पर हमें कोई कीट-पतंगा काट लेता है। चाय की पत्त‍ियों का ये फार्मूला आप किसी भी कीट के काटने पर अपना सकते हैं. वो चाहे मच्छर ही क्यों न हो। प्रभावित जगहों पर। ठंडे टी-बैग्स रखने से बहुत जल्दी फायदा होता है।

अगर आपके पैरों से बदबू आती है तो भी चाय पत्ती का इस्तेमाल करना फायदेमंद रहेगा। चाय की पत्त‍ियों को पानी में डालकर उबाल लें। जब ये पानी ठंडा हो जाए तो इसे किसी टब में डाल दें. पैरों को कुछ देर तक इसमें डुबोकर रखें। ऐसा करने से पैरों की बदबू दूर हो जाएगी।

इसके अलावा चाय की पत्त‍ियों का इस्तेमाल ड्राई स्क‍िन को मॉइश्चराइज करने के लिए, आफ्टरशेव के रूप में और बालों का रंग बरकरार रखने के लिए भी किया जा सकता है।

 

सरहद पर तैनात इन महिला जवानों से थर-थर कांपते हैं आतंकी

यूं तो भारतीय सेना में महिलाओं की नियुक्त‍ि बहुत पहले से होती आ रही है लेकिन ये पहला मौका था जब महिला जवानों को सीमा की पहरेदारी का काम सौंपा गया। हाथों में बंदूकें लिए एसएसबी महिला जवान दिनरात सीमा की रखवाली में तैनात हैं। एसएसबी देश की पहली पैरा मिलिट्री फोर्स है जिसने सबसे पहले महिला जवानों की भर्ती की और उन्हें सरहद की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी। भारत और उसके पड़ोसरी देश नेपाल के बीच खुली सीमा है. ये करीब 17050 किलोमीटर में फैली हुई है. इस खुली सीमा का फायदा उठाकर कई बार आतंकवादी दाखिल हो जाते हैं. पिछले डेढ़-दो दशकों से ऐसा ही होता आ रहा है. लेकिन एसएसबी यानी सशस्त्र सीमा बल की महिला जवानों की मुस्तैदी से देश विरोधी गतिविधियों पर रोक लगी है। नेपाल में भूकंप के बाद मानव तस्करी का खतरा कई गुना बढ़ गया है। इसके साथ ही आतंकी घुसपैठ का खतरा भी काफी बढ़ गया हैअफीम, चरस, ब्राउन शुगर इसके अलावा जानवरों की खाल और मंहगी जड़ी बूटी की तस्करी होती है लेकिन रूपेड़िया पोस्ट पर महिला जवानों की तैनाती के बाद से इन मामलों में कमी आई है।

असिस्टेंट कमांडेंट रवि शंकर कुमार के अनुसार, ‘महिला जवान रात की पेट्रोलिंग के वक्त भी मुस्तैद रहती हैं. इसके साथ ही दोनों देशों के बीच बेहतर तालमेल के लिए नेपाल की महिला जवानों के साथ साझा पेट्रोलिंग की जाती है. 2008 से महिला जवानों को यहां पर तैनात किया गया है। सुबह 6 बजे से बॉर्डर पोस्ट पर निगरानी और चेकिंग का काम शुरू हो जाता है। सशस्त सीमा बल की पहली महिला महानिदेशक अर्चना रामासुंदरम ने एक टीवी चैनल को कहा कि नेपाल सीमा से मानव, नशीली चीजों और जाली नोटों की तस्करी करने वालों पर अंकुश लगाने की मुहिम को तेज किया जा रहा है। इन महिलाओं के इस जज्बे, बहादुरी और हौसले को पूरा देश सलाम करता है!