Tuesday, April 22, 2025
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देशभक्ति प्रेम कविताओं और गीतों की गोष्ठी सम्पन्न

राइटर्स एंड जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन महिला इकाई कोलकाता द्वारा किया गया आयोजन

कोलकाता । राइटर्स एंड जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन महिला इकाई कोलकाता की ओर से आयोजित काव्य गोष्ठी में देशप्रेम और देशभक्ति के साहित्यिक गीतों और कविताओं द्वारा देश के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त किया गया। गत 3 मई 2024 शुक्रवार को यह कार्यक्रम जूम पर संध्या 3 बजे से किया गया। कोलकाता की वाजा महिला ईकाई कोलकाता की कार्यकारी समिति के सभी सदस्यों ने इस गोष्ठी में हिस्सा लिया।
कार्यक्रम का शुभारंभ अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविता आओ फिर से दिया जलाएँ से शुभ्रा त्रिवेदी ने किया।वाजा की उपाध्यक्ष डॉ मंजूरानी गुप्ता ने जयशंकर प्रसाद की रचना हिमालय के आंगन में , महासचिव डॉ सुषमा हंस ने विनोद प्रसून की रचना तिरंगे की शान ,संयुक्त सचिव, पूनम त्रिपाठी ने स्वरचित कविता गढ़ आला पर सिंह गेला छत्रपति शिवाजी के परम योद्धा ताना जी पर सुनाई , संयुक्त सचिव कविता कोठारी ने वंशीधर शुक्ल की कदम कदम बढ़ाए जा और स्वरचित कविता 26 जनवरी देश के इतिहास में एक स्वर्णिम दिन…. का वाचन किया । सुषमा त्रिपाठी ने यदि तुम्हारे घर के/एक कमरे में आग लगी हो/तो क्या तुम/दूसरे कमरे में सो सकते हो?सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता , शकुन त्रिवेदी ने देश के लिए किसी पहचान की आवश्यकता नहीं है सुनाई,
रीमा पांडेय ने गजल मंदिर की मस्जिदों की हिफाजत की बात कर, अम्न-ओ-अमान और मुहब्बत की बात कर सुनाई ।
उषा श्राफ ने हम दिवानों की क्या हस्ती है आज यहां कल वहां चले -भगवतीचरण वर्मा की कविता सुनाई, शौर्यांक त्रिवेदी ने सोहनलाल द्विवेदी की रचना वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो गाकर सभी को देश के साथ जोड़ा।
विशन सिखवाल ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता कलम आज उनकी जय बोल सुनाई। डॉ सुषमा हंस ने
डाॅ विनोद प्रसून रचित ‘ शान तिरंगा रहे हमारी, सीमा भावसिंहका ने खूब लडी़ मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी – कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान की लोकप्रिय कविता सुनाई।
बेंगलूरू से वाजा के अध्यक्ष हिरेमगलूर नरसिंहा ने और वामिका संस्था की सदस्या सुनीता सिंह ने स्वरचित कविताएँ पढ़ीं।
डॉ वसुंधरा मिश्र ने सोहनलाल द्विवेदी द्वारा लिखित रचना जन्म भूमि मेरी वह मातृभूमि मेरी/ऊँचा खड़ा हिमालय आकाश चूमता है/नीचे पखार पग तल, नित सिंधु झूमता है,
गंगा पवित्र यमुना, नदियाँ लहर रही हैं/पल-पल नई छटाएँ, पग पग छहर रही हैं पक्तियों से संचालन करते हुए देशभक्ति कविताओं से अपने देश प्रेम के प्रति व्यक्त किया। राइटर्स एंड जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय महासचिव और नई पीढ़ी दिल्ली के संपादक शिवेंद्र प्रकाश द्विवेदी ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की भेड़िया कविता सुनाकर वाजा लेडिज विंग कोलकाता की अध्यक्ष डॉ वसुंधरा मिश्र के साथ सभी सदस्याओं को कार्यक्रम के लिए हार्दिक बधाई दी।

ताजा टीवी के निदेशक वरिष्ठ संपादक वाजा कोलकाता के अध्यक्ष विश्वंभर नेवर ने अपने धन्यवाद वक्तव्य में कहा कि इस तरह के राष्ट्रगीत और देश भक्ति के कार्यक्रम हमें देश से जोड़े रखते हैं। राष्ट्र बढ़ेगा तो हम बढ़ेंगे राष्ट्र रहेगा तो हम रहेंगे। दिनकर जी कविता सुनाकर वाजा लेडिज विंग कोलकाता के सभी सदस्याओं को धन्यवाद दिया। नयी पीढ़ी के संपादक शिवेंद्र प्रकाश द्विवेदी वाजा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कार्यक्रम की सराहना की एवं शुभकामनाएं दी। कार्यक्रम की जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

म्हारा मेवाड़ी सरदार

शुभांगी उपाध्याय
शोधार्थी, कलकत्ता विश्वविद्यालय

महाराणा प्रताप की जयंती पर विशेष 
“बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः। उभयत्र समो वीरः वीरभावो हि वीरता।।”

यह नीति वाक्य वीरत्व के गुण को उजागर करते हुऐ भारत के गौरवशाली इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित उन अनगिनत शूरवीरों की याद दिलाता है, जिन्होंने जीवनपर्यंत इस वाक्य में वर्णित श्रेष्ठ गुणों को धारण किया। वास्तव में शौर्य क्या है ? अपने लिए लड़ना ? अपने अधिकारों के लिए लड़ना ? नहीं। अपने लिए तो हर कोई लड़ सकता है परन्तु अपनी मातृभूमि के लिए लड़ना ही शौर्य है। जब व्यक्ति स्व से ऊपर उठकर अपनी मिट्टी के लिए मर-मिटे, उसे ही वीरता कहते हैं। भारतवर्ष का इतिहास ऐसे असंख्य वीर-वीरांगनाओं से भरा पड़ा है जिन्होंने आजीवन कष्ट झेले, मृत्यु का आलिंगन कर लिया परन्तु आक्रांताओं के समक्ष कभी घुटने नहीं टेके। इस राष्ट्र के इतिहास में राजस्थान का इतिहास अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। उसमें भी मेवाड़ का इतिहास सबसे भारी है।

महाराणा उदय सिंह और महारानी जयवंता बाई के ज्येष्ठ पुत्र वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। हिन्दू पञ्चांग के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को प्रताप जयंती मनाई जाती है। वे सूर्यवंशी राजा थे और उनके कुल को मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के वंशज कहलाने का गौरव प्राप्त है। महाराणा प्रताप का नाम सुनते ही धमनियों में शौर्य और पराक्रम का रक्त प्रवाहित होने लगता है, मस्तक गर्व और स्वाभिमान से ऊँचा हो उठता है। यह बात उस कालखण्ड की है जब भारतवर्ष पर मलेच्छ वंशियों का निरंतर आक्रमण हो रहा था और वे अपना राज्य विस्तार करने में सफल भी हो रहे थे। आबू, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, मालवा आदि शक्तिशाली राजे-रजवाड़े अकबर का आधिपत्य स्वीकार कर चुके थे। ऐसे में, एकमात्र महाराणा प्रताप ही थे जो अपने शौर्य पर अटल थे। उनके नाम मात्र से ही विधर्मी अकबर और उसकी सेना थर्रा उठती थी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ तथाकथित दरबारी इतिहासकारों ने बड़े ही प्रायोजित ढंग से हमारे भीतर हीन भावना पैदा करने की घृणित चेष्टा की। हमारे मन-मस्तिष्क में यह भर दिया गया कि भारत का इतिहास तो पराजय का इतिहास है। हद तो तब हो गई जब मलेच्छों के सिरमौर अकबर को इन तथाकथित इतिहासकारों ने‘द ग्रेट’का स्थायी विशेषण जोड़कर, माँ भारती के अमर सपूत महाराणा प्रताप सहित समूचे भारतवर्ष को भी अपमानित कर दिया। उनके विराट व्यक्तिव को संकुचित और धूमिल करने हेतु हल्दीघाटी युद्ध में उनको पराजित घोषित कर अध्याय ही समाप्त कर दिया। सत्य तो यह है कि मुगल न तो महाराणा प्रताप को कभी पकड़कर बंदी ही बना सके और न ही मेवाड़ पर पूर्ण आधिपत्य जमा सके। हल्दीघाटी का भयावह युद्ध अकबर के गुरुर और प्रताप के स्वाभिमान की पहली लड़ाई मात्र थी। तत्पश्चात् अगले 10 वर्षों में मेवाड़ में महाराणा ने कैसे स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखी, इसकी जानकारी इतिहास पुस्तकों से नदारद ही रही। यदि अकबर वास्तव में विजयी हो गया था तब कालांतर में भी युद्ध क्यों हुए ?

कुछ तथाकथित विद्वान महाराणा प्रताप और अकबर को एक ही तराजू में तौलते हुए यह घोषणा करते हैं कि दोनों ही समान रूप से वीर थे। परन्तु मैं ऐसा कदापि नहीं मानती। दूसरे के घर पर अकारण आक्रमण करने वाला, लूटपाट मचाने वाला भला वीर कैसे हो सकता है ? स्वयं योद्धा की तरह सामने से कभी कोई युद्ध न लड़कर, मुठ्ठी भर राजपूती सेना से अपने लाखों सैनिकों को लड़वाने वाला वीर कत्तई नहीं हो सकता। वीर तो वह थे जिन्होंने अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता हेतु राजपाट, सुख, वैभव का एक क्षण में त्याग कर दिया, जंगलों-बीहड़ों के खाक छाने, घांस की रोटियाँ खायी, जिनके पूरे परिवार ने दर्दनाक कष्ट उठाए परन्तु किसी भी मूल्य पर अपनी पगड़ी नहीं उतारी। भारत माँ के उस वीर सपूत का दृढ़ संकल्प था कि, “ कटे शीश पड़े, पर ये पाग नहीं, पराधीन कदे ना होवण दूँ ।।”उनके इसी आत्मबल का परिणाम था कि विधर्मी अकबर समस्त भारतवर्ष का सम्राट बनने के केवल स्वप्न ही देखता रह गया।

तथाकथित महान अकबर लंबे समय तक मोइनुद्दीन चिश्ती का मुरीद रहा, जो हिन्दू धर्म-समाज पर इस्लामी हमले का बड़ा प्रतीक था। सन् 1568 में चित्तौड़गढ़ पर कब्ज़ा जमाने के बाद अकबर ने चिश्ती अड्डे से ही ‘फतहनामा-ए-चित्तौड़’ जारी किया था, जिस के हर वाक्य से जिहादी जुनून टपकता है। उस युद्ध में 8 हजार वीरांगना क्षत्राणियों ने जौहर कर अपनी अस्मिता की रक्षा की थी। अकबर ने राजपूत सैनिकों के अलावा 30 हजार सामान्य नागरिकों का भी कत्ल किया था। मारे गए सभी पुरुषों के जनेऊ को एकत्रित कर तौला गया, जो साढ़े चौहत्तर मन था। यह केवल एक स्थान पर, एक बार में! इस भयावह नरसंहार के विवरण में अकबर लिखवाता है कि, “हम अपना क़ीमती वक्त, अपनी सलाहियत के मुताबिक़ जंग और जिहाद में गुजारते हैं। शैतान काफिरों के खिलाफ़ टोली बनाकर हमला हुआ और उस जगह कब्ज़ा हो गया जहाँ क़िला खुलता है। हम अपनी ख़ून की प्यासी तलवारों से एक के बाद एक कत्ल करते गए और कत्ल हुए लोगों का अंबार हो गया। बाकी बचे हुए लोगों का पीछा हुआ जैसे वो डरे हुए गधे हों शेर से भागते हुए।” समाज की स्त्रियों पर कुदृष्टि डालने वाला, अनगिनत निर्दोष, निहत्थे लोगों की हत्या करवाकर स्वयं को श्रेष्ठ समझने वाला वीर तो क्या साधारण मनुष्य कहलाने का भी अधिकारी हो सकता है भला ?

इतिहास साक्षी है कि भारत के वीरों की तलवारें कभी म्यानों में सोयी ही नहीं। इस पावन धरा पर निरंतर संघर्ष चलता रहा और हम सदा विजयश्री का वरण करते आए। अकबर तो क्या! किसी भी मुग़ल की हुक़ूमत कभी भी समूचे भारतवर्ष पर रही ही नहीं। वे अलग-अलग राजाओं के साथ मिलकर इस देश पर शासन करते रहे। इनके लिए साम्राज्य या सल्तनत शब्द प्रयुक्त करना किसी उपहास से कम नहीं। वास्तव में तो मगध, चोला, चेरा, पांड्यान आदि साम्राज्य हुआ करते थे। महरौली से यमुना तक शासन करने वाले चंद लुटेरों को हमने आवश्यकता से अधिक सम्मान दे दिया और अपने शूरवीर पूर्वजों को बिसराकर इन अपराधियों को नायक बना दिया। क्या यह सत्य नहीं कि जिन-जिन देशों पर विदेशी-विधर्मी आक्रांताओं ने आक्रमण किया वहाँ की संस्कृति समूल नष्ट हो गई? जैसे पर्शिया गुलाम हुआ तो ईरान हो गया, मेसोपोटामिया इराक़ हो गया, इजिप्ट की हालत तो हमारे सामने है ही। परन्तु भारत अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखने में सफल रहा है। अब इस तथ्य को कौन उजागर करेगा कि हमारा इतिहास पराजय का नहीं अपितु संघर्ष, साहस, शौर्य, पराक्रम, त्याग और बलिदान का इतिहास रहा है ?

यह इस देश की विडंबना ही तो है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों पश्चात भी हमसे हमारे गौरवशली इतिहास को छुपाया जाता है। वहीं दूसरी ओर, विदेशी आक्रांताओं की पीढ़ी को रटवाकर मस्तिष्क को कलुषित करने का प्रयास होता है। महाराणा प्रताप जिस महान कुल के उजियाले थे उसमें अनेक वीर पैदा हुए जिन्होंने अपने अदम्य साहस का न सिर्फ परिचय दिया अपितु विदेशी आक्रांताओं से सदैव इस पावन धरा की रक्षा भी की। हमारी पीढ़ियों को आखिर कब बतलाया जायेगा कि सातवीं सदी में बप्पा रावल ने मोहम्मद बिन क़ासिम को ईरान तक दौड़ा-दौड़ा कर मारा था। महाराणा हमीर सिंह ने मोहम्मद बिन तुगलक को छः महीने कैद में रखा था, महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को महीनों बंदी बनाकर रखा। महाराणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को खटोली के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया था, यह सब अध्याय इतिहास पुस्तकों में कब सम्मिलित होंगे ? यह कब पढ़ाया जाएगा कि जब हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप ने मानसिंह के हाथी पर चढ़ाई कर दी तब अकबर की शाही फ़ौज भयातुर हो पाँच-छः कोस दूर भाग गई थी और अकबर के रणभूमि में स्वयं आने की झूठी अफवाह से पुनः युद्ध में सम्मिलित हुई।

दिवेर का निर्णायक महासंग्राम :

इतिहास साक्षी है कि सन् 1576 में हुए हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी अकबर ने महाराणा को बंदी बनाने और उनकी हत्या करने के लिए सन् 1577 से 1582 के बीच लगभग एक लाख सैन्यबल भेजे। अंग्रेजी इतिहासकारों ने लिखा है कि हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको उन्होंने ‘बैटल ऑफ दिवेर’ कहा है, मुगल बादशाह के लिए एक करारी हार सिद्ध हुआ था। कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में जहाँ हल्दीघाटी को ‘थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़’ की संज्ञा दी, वहीं दिवेर के युद्ध को ‘मेवाड़ का मैराथन’ बताया है (मैराथन का युद्ध 490 ई.पू. मैराथन नामक स्थान पर यूनान के मिल्टियाड्स एवं फारस के डेरियस के मध्य हुआ, जिसमें यूनान की विजय हुई थी, इस युद्ध में यूनान ने अद्वितीय वीरता दिखाई थी), कर्नल टॉड ने महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, युद्ध कुशलता को स्पार्टा के योद्धाओं सा वीर बताते हुए लिखा है कि वे युद्धभूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से भी नहीं डरते थे।

हल्दीघाटी के पश्चात् अक्तूबर 1582 में दिवेर का निर्णायक युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुगल सेना की अगुवाई करने वाला अकबर का चाचा सुल्तान खां था। विजयादशमी का दिन था और महाराणा ने अपनी नई संगठित सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया। एक टुकड़ी की कमान स्वयं महाराणा के हाथों में थी, तो दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे। अपने पिता की तरह ही कुंवर सा भी बड़े पराक्रमी योद्धा थे। उन्होंने मुगल सेनापति पर भाले का ऐसा वार किया कि भाला उसके शरीर और घोड़े को चीरता हुआ जमीन में जा धंसा और सेनापति मूर्ति की तरह एक जगह गड़ गया। इसी भीषण युद्ध में महाराणा ने बहलोल खान के सिर पर इतना तीव्र प्रहार किया कि वह घोड़े समेत दो टुकड़ों में कट गया। प्रताप का ऐसा रौद्र रूप देख मुग़ल सेना में हाहाकार मच गया। वीर राजपूती सैनिकों ने शत्रु की सेना को अजमेर तक खदेड़ा। बचे-खुचे 36,000 भयभीत मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। दिवेर के युद्ध ने मुगलों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। इस युद्ध के पश्चात् प्रताप ने गोगुंदा, कुम्भलगढ़, बस्सी, चावंड, जावर, मदारिया, मोही, माण्डलगढ़ जैसे महत्वपूर्ण ठिकानों को अपने अधीन कर लिया। केवल चितौड़गढ़ को छोड़ अन्य सभी दुर्गों पर पुनः केसरिया ध्वज फहरने लगा। यह भी वर्णित है कि इसके पश्चात भयातुर अकबर ने आगरा छोड़कर लाहौर को अपनी राजधानी बना ली थी।

वीर बलिदानी चेतक :

जिस प्रकार प्रभु श्रीराम की कथा हनुमान जी महाराज के बिना अधूरी है ठीक उसी प्रकार वीरों के सिरमौर महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा भी उनके घोड़े चेतक के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। चेतक भले ही पशु योनी में जन्मा एक अश्व मात्र था परन्तु उसकी बुद्धिमता और स्वामीभक्ति का कोई सानी नहीं। एक ओर जहां मनुष्य योनी में जन्म पाकर भी राजपूती कुल कलंक मान सिंह केवल अपनी झूठी शान में मश्गूल होकर विधर्मी शत्रुओं की सेना का प्रतिनिधित्व कर रहा था वहीं दूसरी ओर रणभूमि में पूज्य चेतक महाराणा के साथ कदम से कदम मिलाकर अपनी मातृभूमि का ऋण चुका रहा था। महाकवि श्याम नारायण पाण्डेय अपनी कृति ‘हल्दीघाटी’में लिखते हैं, “रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर, चेतक बन गया निराला था। राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था। गिरता न कभी चेतक–तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था। वह दौड़ रहा अरि–मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था।। जो तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था। राणा की पुतली फिरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था।।”

वीर चेतक अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए विशालकाय हाथी पर चढ़ बैठा जिसपर गद्दार मान सिंह सवार था। यह घटना विश्व के इतिहास में अत्यंत अनूठी, अकल्पनीय और अद्भुत घटना है। इस युद्ध में चेतक अपने राणा को सकुशल सुरक्षित स्थान पर पहुँचाकर स्वयं सदा के लिए सो गया। प्रताप अपने परम मित्र, भाई समान घोड़े को हृदय से लगाकर दहाड़ मारकर रोने लगे। इस दारुण दृश्य को देखकर शक्ति सिंह (महाराणा के छोटे भाई जो मुग़लों से जा मिले थे) का हृदय परिवर्तन हो गया और वे अपने भ्राता के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे।

महाराणा की जयंती के अवसर पर हमें इस बात का मूल्यांकन करने की महती आवश्यकता है कि वर्तमान पीढ़ी को कौन सा इतिहास पढ़ाया जाए ? वह कायरतापूर्ण इतिहास जिसमें साम्राज्य-विस्तार की लपलपाती-अंधी लिप्सा थी, अनैतिकता और अधर्म की दुर्गंध थी अथवा अपने पूर्वजों का वह गौरवशाली ओजपूर्ण इतिहास जिसमें संघर्ष, स्वाभिमान, साहस, त्याग, बलिदान और नैतिकता की पुण्यसलिला भावधारा समाहित है। आज यह विचार आवश्यक है कि क्या हमें गुलामी की उन ग्रंथियों को ही पोसने-सींचने-फैलाने का कार्य निर्बाध रूप से करते रहना है अथवा उस शाश्वत सत्य को पुनः प्रतिष्ठित कर राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा करनी है। आज जब नवभारत अंगड़ाई ले रहा है तब क्या हमारा यह परम कर्त्तव्य नहीं बनता कि हम भावी पीढ़ी को अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित मानबिन्दुओं और जीवन-मूल्यों की रक्षा हेतु तैयार करें ? जिस क्षण हमें इन प्रश्नों के उत्तर ज्ञात हो जायेंगे उसी क्षण महाराणा प्रताप व अन्य पूर्वजों तक हमारी सच्ची श्रद्धांजलि पहुँचेगी।

 

तपती लू में भवानीपुर कॉलेज की एनएसएस टीम ने  किया सेवाकार्य

   कॉलेज पथिकों को पिलाया जल और ग्लूकॉन डी 

कोलकाता । भवानीपुर एजूकेशन सोसाइटी कॉलेज की एनएसएस टीम के विद्यार्थियों ने सोमवार 29 अप्रैल से 3 मई तक सड़क पर पानी और ग्लूकॉन डी की व्यवस्था की है। कोलकाता का तापमान पिछले 10 दिनों से 40-43 डिग्री तक चल रहा है। भीषण गर्मी और लू को देखते हुए छात्र और छात्राओं ने पथिकों को जल और ग्लूकॉन डी देकर सेवा कार्य कर रहे हैं। अगले पांच दिनों तक यह जल सेवा कार्य करने के लिए विद्यार्थियों ने निश्चय किया है। कॉलेज की ओर से आयोजित इस कार्य सेवा में रेक्टर, डीन प्रो दिलीप शाह, प्रो मीनाक्षी चतुर्वेदी, प्रो चंदन झा, एनएसएस कोआर्डिनेटर प्रो गार्गी, दर्शना त्रिवेदी, प्रो समीक्षा खंडूरी आदि शिक्षकों ने विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया। यह जल सेवा कार्य भवानीपुर एजूकेशन सोसाइटी कॉलेज के विद्यार्थियों ने यह कदम उठा कर अन्य कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए एक उत्प्रेरक पहल है।इसके लिए कॉलेज के कला विभाग, कॉमर्स विभाग के सभी शिक्षक और शिक्षिकाओं और विद्यार्थियों ने धन दान देकर जल सेवा में अपना योगदान दिया । कार्यक्रम की जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

शेयरस्किल कक्षाओं के युवा विद्यार्थी शिक्षकों का अभिनंदन

एक कहावत है कि किसी को सिखाने से आप बेहतर सीखते हैं। तो किसी मित्र को कोई कौशल सिखाने से बेहतर क्या है? ठीक उसी तरह, भवानीपुर एजुकेशन सोसाइटी कॉलेज ने स्टूडेंट शेयरस्किल क्लासेस के एक और संस्करण का समापन किया और कौशल साझा करने की कला को स्वीकार करने के लिए यह तृतीय बार शेयर-स्किल 3.0 कक्षाओं के सम्मान की मेजबानी की। 24 अप्रैल को सुबह 10:30 बजे से जुबली हॉल में समारोह का आयोजन किया गया. से आगे। यह समारोह उन युवा छात्र शिक्षकों को सम्मानित करने के लिए आयोजित किया गया था जिन्होंने एक्सेल, एंकरिंग, स्केटिंग, ग्राफिक डिजाइन और स्केचिंग जैसे विभिन्न कौशल सिखाने और सीखने में योगदान दिया था। समारोह की शुरुआत विद्यार्थियों को दिखाए गए एक वीडियो से हुई जिसमें शेयर स्किल कलेक्टिव में कक्षाओं के अंश शामिल थे और समग्र वातावरण में अपने साथियों से सीखने में छात्रों की उत्साही भागीदारी को दर्शाया गया था।
 रेक्टर और छात्र मामलों के डीन प्रो दिलीप शाह ने विद्यार्थियों को संबोधित किया और शेयर-स्किल 3.0 पर अपने विचार साझा किए और बताया कि कैसे इसने उन सभी कौशलों को पेश किया जो एक ही समय में प्रासंगिक और ट्रेंडिंग थे। उन्होंने छात्रों को उनकी रुचि के अनुकूल नई गतिविधियाँ सीखते रहने के लिए प्रोत्साहित किया और इसके साथ ही प्रमाणपत्रों का वितरण भी शुरू हो गया। प्रत्येक प्रतिभागी को सीखने और उसके परिणामस्वरूप आगे बढ़ने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के लिए सम्मानित किया गया।
प्रदर्शन के बीच में क्रिसेंडो  के सदस्यों द्वारा एक मधुर प्रस्तुति, शेयर स्किल 4.0 में स्वर सिखाने जा रही है। विद्यार्थियों को मंत्रमुग्ध कर दिया. बाद में, छात्र शिक्षकों को अन्य सभी छात्रों को उनके उत्कृष्ट मार्गदर्शन और समर्थन के लिए प्रमाण पत्र प्रदान किए गए। सभी प्रमाणपत्र सौंपे जाने के साथ, शेयर स्किल कक्षाओं के एक और संस्करण की घोषणा की गई जिसका नाम “शेयर-स्किल 4.0” रखा गया। गायन, घुड़सवारी, डूडलिंग, डीजे कक्षाएं, वीडियो-संपादन, शास्त्रीय नृत्य और शेयर बाजार की बिल्कुल नई कक्षाएं शुरू करना। अंत में सभी को बधाई दी गई, और सभी के चेहरों पर गर्व और कुछ सीखने का जज्बा रहा। रिपोर्ट पूजा डबराई और फोटोग्राफी अर्पिता बिस्वास ने किया। कार्यक्रम की जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

भवानीपुर कॉलेज 2024 का शिक्षा इंडियन ब्रांड एंड लीडरशिप कॉन्क्लेव अवार्ड से सम्मानित

कोलकाता । भवानीपुर एजुकेशन सोसाइटी कॉलेज को 20 अप्रैल को गोवा में इंडियन ब्रांड एंड लीडरशिप कॉन्क्लेव 2024 प्रतिष्ठित शिक्षा श्रेणी पुरस्कार, द ब्रांड स्टोरी अवार्ड मिला है। यह अवार्ड शिक्षा में उत्कृष्टता के प्रति भवानीपुर एजूकेशन सोसाइटी कॉलेज की अटूट प्रतिबद्धता और सीखने के माध्यम से एक उज्जवल भविष्य को आकार देने के प्रति समर्पण को रेखांकित करती है। भवानीपुर कॉलेज उच्चरोत्तर शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट रूप से पहचान बनाने के लिए कृतबद्ध है। गोवा में हुए कार्यक्रम में कॉलेज के डीन और रेक्टर प्रो दिलीप शाह को इंडियन ब्रांड एंड लीडरशिप कॉन्क्लेव अवार्ड प्रदान किया गया। मैनेजमेंट के उपाध्यक्ष मिराज डी शाह ने विद्यार्थियों और शिक्षक शिक्षिकाओं को शुभकामनाएँ दीं ।जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

जयंती पर विशेष : राजनीति में साहित्यिक योद्धा : आचार्य विष्णुकांत शास्त्री


शुभांगी उपाध्याय
शोधार्थी, कलकत्ता विश्वविद्यालय
भारत में लोकतंत्र के महा पर्व का शुभारंभ हो चुका है। जल्द ही पश्चिम बंगाल में भी मतदान होने वाले हैं। देश भर में विभिन्न नेता ऐसे हैं जो साहित्य में रुचि रखते हैं और राजनीति में भी अपनी क़िस्मत आज़मा रहे हैं। ऐसे में, 2 मई, 1929 को कलकत्ता के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में, पंडित गांगेय नरोत्तम शास्त्री तथा रूपेश्वरी देवी के घर में जन्में आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री का स्मरण हो आता है जो साहित्य, संस्कृति और राजनीति के अद्भुत समन्वयक थे। इन्होंने भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाते हुए अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
एक बार उनसे किसी बंगाली प्रोफेसर ने प्रश्न किया कि, ‘आप कहाँ के रहने वाले हैं?’ इसपर आचार्य शास्त्री ने बड़ा ही रोचक उत्तर दिया, “मेरा मन बंगाली है, बंगाल में जन्मा, पला, बढ़ा, बांग्ला- साहित्य पढ़ा, बंगाल की भावुकता पायी, अतः मन से बंगाली हूँ। मेरे पिता, पितामह, प्रपितामह काशी में संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन करते रहे। पारिवारिक संस्कार और आचार-विचार का विवेक भी काशी से ही प्राप्त हुआ है, अतः कह सकता हूँ कि बुद्धितत्त्व काशी का है। चित्त और चित्तेश्वरी दोनों जम्मू की देन हैं। पूर्वज जम्मू से आए थे। आन-बान, स्वाभिमान और दृढ़ता का डोगरा स्वभाव विरासत में मिला है। अहंकार सारे भारतवर्ष का है। अब आप ही बताइये कि मैं अपने को कहाँ का कहूँ ।”
आचार्य जी की शिक्षा कलकत्ता के सारस्वत क्षत्रिय विद्यालय, प्रेसीडेंसी कॉलेज (अब विश्वविद्यालय), विद्यासागर कॉलेज और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से हुई। उन्होंने अपने छात्र जीवन की सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आगे चलकर आचार्य जी को छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर द्वारा मानद उपाधि, डी.लिट. तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट्. की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। 1953 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए तत्पश्चात् विभागाध्यक्ष भी बने। आचार्य के पद से उन्होंने 31 मई, 1994 को अवकाश ग्रहण किया।
राजनैतिक योगदान
प्रखर राष्ट्रप्रेम और समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का अनुभव करते हुए आचार्य जी 1944 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्त्ता बने। 1977 में नवगठित जनता पार्टी की ओर से वे कलकत्ता के जोड़ासाँको अंचल से विधान सभा प्रत्याशी बने और भारी मतों से विजयी घोषित हुए। 1977 से 1982 तक पश्चिम बंगाल विधान सभा के विधायक रहे। 1980 में नवगठित भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध होते हुए उन्हें बंगाल का प्रदेश अध्यक्ष चुना गया। 1988 से 1993 तक आचार्य जी भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे। 1992 से 1998 तक वे राज्यसभा सांसद भी निर्वाचित हुए। केन्द्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 2 दिसंबर 1999 को उन्हें हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया। 23 नवंबर 2000 तक वे इस प्रदेश के संवैधानिक मुखिया रहे। तत्पश्चात् उन्हें देश के अत्यंत महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश स्थानांतरित कर दिया गया, जहाँ 24 नवंबर 2000 से 2 जुलाई 2004 तक उन्होंने राज्यपाल के रूप में कार्य करते हुए अपार लोकप्रियता अर्जित की। शास्त्रीजी ने कुछ दिनों तक पंजाब के राज्यपाल एवं चंडीगढ़ के प्रशासक का अतिरिक्त कार्यभार भी सँभाला।
शास्त्रैरपि, शरैरपि गुण के धारक : 
प्रख्यात विद्याव्रती आचार्य विष्णुकांत शास्त्री शास्त्रैरपि, शरैरपि गुण के धारक भी थे। 1962 में भारत-चीन युद्ध में देश की पराजय का क्षोभ हर राष्ट्रप्रेमी के हृदय में व्याप्त था। आचार्य जी भी उसी दौरान एन.सी.सी. से जुड़े और 1964-65 में तीन कम्पनियों के कमाण्डर नियुक्त हुए। ‘मेरी रचना प्रक्रिया’ शीर्षक आलेख में वे लिखते हैं- “मेरे स्वभाव का एक पहलू यह भी है कि मैं समाज और देश के सामने आयी चुनौतियों से तटस्थ नहीं रह पाता। देश कठिन समय से गुजरता रहे और मैं पढ़ने-लिखने आदि में ही लगा रहूँ, यह मैं नहीं कर पाता।”
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भूमिका :
1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) ने अपनी स्वाधीनता के लिए संघर्ष प्रारंभ किया, तो उस कालखण्ड में कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा गठित ‘बांग्लादेश सहायक समिति’ से  जुड़ गए और उसकी कार्यसमिति के सदस्य के रूप में सक्रिय रहे। डॉ० धर्मवीर भारती जी के साथ मिलकर वे मोर्चे पर गए साथ ही बांग्लादेश की तत्कालीन स्थिति को बयां करने वाले ऐतिहासिक रिपोर्ताज लिखे। साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ के संपादक डॉ० भारती ने उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाओं को प्रमुखता से निरंतर प्रकाशित किया। आचार्य जी लिखते हैं, “कैसे अद्भुत थे वे दिन! उत्तेजना, विक्षोभ और उत्साह का जैसा अनुभव उन दिनों हुआ, वैसा कभी नहीं हुआ था। कहाँ विश्वविद्यालय का शान्तिपूर्ण प्राध्यापक जीवन और कहां युद्ध के मोर्चों पर अर्द्ध सैनिक वेश में गोलों के बीच मुक्ति योद्धाओं का साहचर्य। शरणार्थियों को दुर्दशा देखकर कलेजा मुँह को आता था, तो बांग्लादेश के नौजवान कार्यकर्त्ताओं की निष्ठा और लगन आश्वस्त करती थी कि स्थिति पलटकर रहेगी।”
श्रीराम के अनन्य भक्त :
आचार्य शास्त्री भक्ति काव्य के मर्मज्ञ विद्वान के रूप में समादृत रहे हैं। धर्म संस्कृति एवं अध्यात्म के गहन विश्लेषक, उपनिषद् एवं गीता के प्रवचनकार के रूप में भी उनकी पहचान बनी। भगवान श्रीराम के प्रति उनकी भक्ति सुविदित थी। वे लिखते हैं कि, “मैं आस्तिक विद्वान परिवार में पैदा हुआ था। भजन, पूजन, कथाश्रवण, दान पुण्य, तीर्थाटन आदि हम लोगों के परिवार का सहज अंग था। विद्वान पंडितों, संतों, संन्यासियों के प्रवचन मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ। चढ़ती जवानी में ही मैंने रामकृष्ण, विवेकानंद के साहित्य के अधिकांश का पारायण कर लिया था। श्रीमद्भागवत गीता एवं रामचरित मानस मेरे नित्य पाठ के पूज्य ग्रंथ रहे हैं।”
वे अपनी उपलब्धियों को ‘रामजी की कृपा’ और असफलताओं को ‘रामजी की इच्छा’ मानते थे। भक्तिपरक रचनाओं में अपने आराध्य रामजी के प्रति उनका समर्पण बड़े ही भावपूर्ण शब्दों में व्यक्त हुआ है। अपार भक्ती और विनम्रता का परिचय देते हुए वे लिखते हैं, “तुम्हीं काम देते हो स्वामी, तुम्हीं उन्हें पूरा करते हो, असफलता के दारुण क्षण में, अश्रु पोंछ पीड़ा हरते हो। कभी-कभी अचरज होता है, इतना अगुणी होने पर भी, कैसे, क्योंकर तुम मुझपर, यों कृपा मेघ जैसे झरते हो।”
निष्कर्षतः आचार्य विष्णुकांत शास्त्री का सम्पूर्ण जीवन शिक्षा, आध्यात्म, समाजसेवा, भक्ति और राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत था। उनका नाम एक कुशल वक्ता और अप्रतिम राजनेता में शुमार है। इसके इतर वे छात्र वत्सल प्राध्यापक भी थे। राजनीति में रहने के पश्चात भी उनकी साहित्य साधना कभी कम नहीं हुई। आज के दौर में बंगाल की राजनीति में ऐसे कुशल प्रभावशाली नेतृत्व की महती आवश्यकता है।

आयुर्वेदिक उत्पादों पर बढ़ रहा लोगों का भरोसा, अगले 5 साल में दोगुना हो जाएगा बाजार!

नयी दिल्ली । भारत में आयुर्वेद उत्पादों का बाजार लगातार तेजी से बढ़ रहा है। यह वित्त वर्ष 2028 तक बढ़कर 1.2 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है, जो फिलहाल 57,450 करोड़ रुपये है। यह बात आयुर्वेद टेक स्टार्टअप निरोगस्ट्रीट ने अपने एक अध्ययन में कही है।
निरोगस्ट्रीट का कहना है कि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कुदरती और हर्बल उपचारों की मांग बढ़ रही है। आयुर्वेदिक चिकित्सकों की तादाद में भी इजाफा हो रहा। इस क्षेत्र में युवा उद्यमी भी बड़ी संख्या में आ रहे हैं। साथ ही, सरकार भी आयुर्वेदिक चिकित्सा को बढ़ावा दे रही है।
15 प्रतिशत के सीएजीआर से बढ़ने की उम्मीद – निरोगस्ट्रीट सर्वे के मुताबिक, आयुर्वेद उत्पादों और सेवाओं का समग्र बाजार वित्त वर्ष 2023 से वित्त वर्ष 2028 तक 15 प्रतिशत की सीएजीआर से बढ़ने की उम्मीद है। सर्वे में यह भी अनुमान लगाया गया है कि वित्त वर्ष 2022 में देश के आयुर्वेदिक मैन्युफैक्चरिंग की वैल्यू तकरीबन 89,750 करोड़ रुपये थी। निरोग स्ट्रीट सर्वे में 10 राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, जम्मू और कश्मीर और केरल- के करीब 7,500 निर्माताओं ने हिस्सा लिया।
10 वर्षों में 24 अरब डॉलर तक पहुंचा आयुष क्षेत्र- हाल ही में आयुष मंत्रालय ने भी जोर दिया कि वैश्विक बाजारों में आयुष उत्पादों की धाक जमाने के लिए इनोवेशन और बेहतर इकोसिस्टम बनाने की जरूरत है। मंत्रालय ने बताया कि आयुष क्षेत्र 10 वर्षों में 24 अरब डॉलर तक पहुंच गया है।
निरोग स्ट्रीट का कहना है कि आयुर्वेद उत्पादों का बाजार जिस तेजी से बढ़ रहा है, उससे जाहिर होता है कि इसमें देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने की क्षमता है। पिछले कुछ में आयुर्वेदिक इलाज पद्धति पर लोगों का भरोसा भी काफी बढ़ा है, क्योंकि इसके ज्यादा साइड इफेक्ट नहीं होते।

8 अप्रैल को पूर्ण सूर्य ग्रहण पर नजर रखेगा आदित्य एल 1

नयी दिल्‍ली । 8 अप्रैल को दुनिया के कई हिस्‍सों में पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखाई देगा। सूर्य, चंद्रमा और पृथ्‍वी के एक सीधी रेखा में आने पर करीब चार मिनट के लिए अंधेरा छा जाएगा। इस दौरान आदित्‍य एल-1 भी सूर्य ग्रहण के दौरान सूर्य को लैग्रेंज प्‍वाइंट-1 से को ऑब्‍जर्व करेगा, जो पृथ्‍वी और सूर्य की 15 लाख किलोमीटर दूरी पर है। आदित्य एल1 अंतरिक्ष यान ने 2023 में पृथ्वी छोड़ने के बाद इस साल की शुरुआत में लैग्रेंज प्वाइंट 1 पर अपनी हेलो कक्षा में प्रवेश कर गया था। अंतरिक्ष यान को एल1 पर अंतरिक्ष की ठंडक में कैलिब्रेट किया जा रहा है और इसने विज्ञान अवलोकन शुरू कर दिया है।
आदित्‍य एल-1 के 6 इंस्‍ट्रूमेंट्स सूर्य को ऑर्ब्‍जव करता हैं, लेकिन इसमें से दो इंस्‍ट्रूमेंट्स विसि‍बल एमिशन लाइन कोरानाग्राफ (वीईएलसी) और सोलर अल्‍ट्रावॉयलेट इमेजिंग टेलीस्‍कोप (एसयूआईटी ) प्राथमिक रूप से सूर्य ग्रहण को ऑब्‍जर्व करेंगे। इनमें से कोरोनोग्राफ सूर्य की डिस्क को अवरुद्ध करता है और स्‍पेसक्राफ्ट पर एक कृत्रिम ग्रहण बनाकर सूर्य की बाहरी परत कोरोना का अध्ययन करता है। वहीं इस बीच, SUIT निकट पराबैंगनी में सौर प्रकाशमंडल और क्रोमोस्फीयर की तस्वीरें लेता है।
आदित्य एल-1 दुर्लभ ग्रहण के दौरान सूर्य को ऑब्‍जर्व करने वाला एकमात्र अंतरिक्ष यान नहीं होगा, 4 अप्रैल को सूर्य के सबसे करीब पहुंचे यूरोप के सोलर ऑर्बिटर के उपकरण भी ग्रहण को ऑब्‍जर्व करने के लिए सक्रिय हो जाएंगे।
ग्रहण के दौरान, सूर्य की बाहरी पर कोरोना दृश्‍य होती है, क्योंकि चंद्रमा सौर डिस्क को अवरुद्ध करता है और बाहरी चमकदार परतों को चमकता हुआ दिखाता है और इसे पृथ्वी से एक संक्षिप्त क्षण के लिए देखा जा सकता है। अन्य समय कोरोना पृथ्‍वी से दिखाई नहीं देता है।
आदित्य-एल1 पर लगे आदित्य पेलोड के लिए प्लाज्मा एनालाइज़र पैकेज ने फरवरी में कोरोनल मास इजेक्शन के पहले सौर पवन प्रभाव का पता लगाया। इस बीच, 6 मीटर लंबा मैग्नेटोमीटर बूम जनवरी में तैनात किया गया था। सौर ऑर्बिटर पृथ्वी पर हमारे परिप्रेक्ष्य की तुलना में सूर्य का अवलोकन करेगा। इसका मतलब यह है कि सूर्य के बाहरी वातावरण की संरचनाएं, जो हम पृथ्वी से सूर्य के दाहिनी ओर देखते हैं, उन्हें स्‍पेसक्राफ्ट द्वारा सीधे आमने-सामने देखा जाएगा।

अगले 20 सालों में दोगुने हो जाएंगे प्रोस्टेट कैंसर के मरीज

नयी दिल्ली ।  दुनिया भर में 2020 तथा 2040 के बीच प्रोस्टेट कैंसर के मामले दोगुने से अधिक होने और मौतों में 85 प्रतिशत की वृद्धि होने की आशंका है तथा इसका सर्वाधिक प्रभाव निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों (एलएमआईसी) पर पड़ सकता है। यह बात प्रोस्टेट कैंसर संबंधी लैंसेट आयोग ने कही। यह वैश्विक स्तर पर पुरुषों में होने वाला सबसे आम प्रकार का कैंसर है।
वृद्ध पुरुषों को ज्यादा खतरा – अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि कम निदान और एलएमआईसी में डेटा संग्रह संबंधी अवसर चूकने के कारण वास्तविक संख्या बहुत अधिक होने की संभावना है। अनुसंधान से जुड़े लोगों ने कहा कि वृद्ध पुरुषों में प्रोस्टेट (पौरुष ग्रन्थि) कैंसर के अधिक मामले सामने आएंगे और 50 वर्ष या उससे अधिक उम्र जोखिम कारक होने के मद्देनजर जीवनशैली में बदलाव एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य हस्तक्षेप आगामी वृद्धि को रोकने में सक्षम नहीं हो पाएंगे।
क्या होता है प्रोस्टेट कैंसर – अध्ययन के अनुसार, दुनिया भर में 2020 तथा 2040 के बीच प्रोस्टेट कैंसर के मामले दोगुने से अधिक होने और मौतों में 85 प्रतिशत की वृद्धि होने की आशंका है । प्रोस्टेट कैंसर जेनेटिक, मोटापे जैसे कारकों से संबंधित लोगों में अन्य लोगों की तुलना में अधिक होता है। यह अखरोट के आकार की एक छोटी ग्रंथि होती है जो पुरुषों के ब्लैडर और प्राइवेट पार्ट के बीच में स्थित होती है। आमतौर पर प्रोस्टेट कैंसर तब शुरू होता है जब प्रोस्टेट ग्रंथि में कोशिकाएं नियंत्रण से बाहर होने लगती हैं।
प्रोस्टेट कैंसर की जांच करवानी जरूरी – प्रोस्टेट कैंसर के शुरुआती स्टेज में कोई लक्षण नहीं दिखता है। अगर कैंसर ज्यादा बढ़ जाता है तो पुरुष के रीढ़ की हड्डी पर दबाव पड़ता है, मूत्राशय और मलाशय पर उनका नियंत्रण हट जाता है। डॉक्टर सलाह देते हैं कि 45-50 की उम्र के बाद हर पुरुष को प्रोस्टेट कैंसर की जांच करानी चाहिए ताकि शुरुआती स्टेज में ही इसका इलाज हो सके।