Thursday, July 31, 2025
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27वां हिंदी मेला सांस्कृतिक विविधता के साथ 26 दिसंबर से

कोलकाता । देश में सांस्कृतिक विविधता और अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में कोलकाता का हिंदी मेला आगामी 26 दिसंबर को लघु नाटक मेला के साथ मानिकतला के राममोहन हाल में शुरू हो रहा है। 1 जनवरी तक बाकी 6 दिनों का आयोजन भारतीय भाषा परिषद में होगा। आजादी के 75 वर्ष पर एक विशेष अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 31 दिसंबर को होगी जिसमें देश और बाहर के विद्वान भाग लेंगे।
सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा भारतीय भाषा परिषद के साथ आयोजित इस मेले का मुख्य आकर्षण इस बार विभिन्न भाषाओं के गान पर काव्य नृत्य की प्रस्तुति है। सभागार के समानांतर ऑनलाइन हिंदी मेला में देश के दूसरे राज्यों के विश्वविद्यालयों के भी विद्यार्थी बड़ी संख्या में भाग ले रहे हैं। हिंदी मेला विद्यार्थियों और नौजवानों के बीच खासतौर पर लोकप्रिय है और कोलकाता का गौरव है। यह मेले का 27वां साल है। इस बार भी यूको बैंक ने सहयोग का हाथ बढ़ाया है।
हिंदी मेला भारत में अपनी तरह का अनोखा है। यह बच्चों, विद्यार्थियों और नौजवानों के बीच साहित्य को लोकप्रियकरण बनाने का एक साझा अभियान है। इसमें पश्चिम बंगाल के विभिन्न कोनों से हर साल 3000 से अधिक बच्चे, विद्यार्थी और नौजवान भाग लेते हैं। हिंदी मेले का उद्देश्य उनके मन में हिंदी भाषा, साहित्य और उदार भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग पैदा करना और उनकी सृजनात्मक प्रतिभा को प्रकाश में लाना है।
27वें हिंदी मेले में कई सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया है – लघु नाटक, काव्य आवृत्ति, काव्य संगीत, काव्य नृत्य, आशु भाषण, हिंदी प्रश्न मंच, लोक गीत, कविता पोस्टर, मल्टीमीडिया, रचनात्मक लेखन, और चित्रांकन। इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले बच्चे और नौजवान निराला, प्रसाद, महादेवी वर्मा, नागार्जुन, अज्ञेय, मुक्तिबोध, हरिवंश राय बच्चन, धूमिल, सर्वेश्वर, केदारनाथ सिंह, दुष्यंत कुमार आदि की कविताओं की आवृत्ति करते हैं, उन्हें वाद्ययंत्र पर गाते हैं, उन कविताओं के भाव पर आधारित नृत्य करते हैं और पोस्टर या चित्र बनाते हैं। लोक धुनों के बाजारीकरण के समानांतर लोकगीत स्वस्थ-सांस्कृतिक उमंग के साथ गाए जाते हैं। हिंदी मेला साहित्य और कला का अंत:संबंध मजबूत करने का अभियान भी है।

यह चिंताजनक है कि उच्चत्तर उद्देश्यों को समर्पित शिक्षण-संस्थान भी पॉप कल्चर की चपेट में आ गए हैं। हिंदी मेला की सांस्कृतिक प्रतियोगिताएं पॉप कल्चर के प्रतिवाद और असहमति में खड़ी हैं। 27वें हिंदी मेले का उद्घाटन 26 दिसंबर, 2021 को होगा। 31 दिसंबर को स्वतंत्रता के 75 वर्ष की पूर्ति के अवसर पर एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया है, जिसका विषय है –स्वतंत्रता के 75 साल : साहित्य, संस्कृति और मीडिया। इस संगोष्ठी में मुख्य वक्ता होंगे –विजय बहादुर सिंह (भोपाल), शंभुनाथ (कोलकाता), रविभूषण (रांची), अवधेश प्रधान (वाराणसी), अजय तिवारी (दिल्ली), दामोदर मिश्र (हावड़ा), हितेंद्र पटेल (कोलकाता), सोमा बंद्योपाध्याय (कोलकाता), संतोष भदौरिया (इलाहाबाद), अंजुमन आरा (कटक), वेदरमण (मॉरीशस)। इस मेले में ‘आज का विमर्श और मेरा लेखन’ साक्षात्कार श्रृंखला के अंतर्गत अशोक वाजपेयी (दिल्ली), राजेश जोशी (भोपाल), मोहनदास नैमिशराय (मेरठ), ए. अरविंदाक्षन (कोच्चि), भगवानदास मोरवाल (दिल्ली), रणेंद्र (रांची), अनिल प्रभा कुमार (अमेरिका), अग्निशेखर (जम्मू) का साक्षात्कार प्रसारित किया जाएगा। सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन ने यह निर्णय लिया है कि इस वर्ष युवा पत्रकार  अनवर हुसैन को ‘युगल किशोर सुकुल पत्रकारिता सम्मान’, रंगकर्मी ओम पारीक को ‘माधव शुक्ल नाट्य सम्मान’ और प्रसिद्ध लेखिका प्रो. सोमा बंद्योपाध्याय को कल्याणमल लोढ़ा शिक्षक सम्मान दिया जाएगा।
हम हिंदी मेले में हिंदी की अखंडता और भारतीय भाषाओं के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए आवाज उठाएंगे। यह उल्लेखनीय है कि हिंदी मेला शिक्षकों, लेखकों और साहित्य प्रेमियों के आर्थिक सहयोग के साथ यूको बैंक की प्रेरणाशक्ति से आयोजित हो रहा है। इस बार भारतीय भाषा परिषद का सह-योगदान भी हमें मिला है। इस तरह का हिंदी मेला हिंदी राज्यों में भी आयोजित होना चाहिए।

भारत का गौरव गणित के जादूगर श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर

श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर (22 दिसम्बर, 1887 – 26 अप्रैल, 1920) एक महान भारतीय गणितज्ञ थे। इन्हें आधुनिक काल के महानतम गणित विचारकों में गिना जाता है। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।
ये बचपन से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवन भर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।
महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को मद्रास से 400 किमी दूर इरोड नामक एक छोटे से गांव में हुआ था। रामानुजन जब एक वर्ष के थे तभी उनका परिवार पवित्र तीर्थस्थल कुंभकोणम में आकर बस गया था। इनके पिता यहाँ एक कपड़ा व्यापारी की दुकान में मुनीम का कार्य करते थे। पाँच वर्ष की आयु में रामानुजन का दाखिला कुंभकोणम के प्राथमिक विद्यालय में करा दिया गया।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा की एक रोचक घटना है। गणित के अध्यापक कक्षा में भाग की क्रिया समझा रहे थे। उन्होंने प्रश्न किया कि अगर तीन केले तीन विद्यार्थियों में बांटे जाये तो हरेक विद्यार्थी के हिस्से में कितने केले आयेंगे? विद्यार्थियों ने तत्काल उत्तर दिया कि हरेक विद्यार्थी को एक-एक केला मिलेगा। इस प्रकार अध्यापक ने समझाया कि अगर किसी संख्या को उसी संख्या से भाग दिया जाये तो उसका उत्तर एक होगा। लेकिन तभी कोने में बैठे रामानुजन ने प्रश्न किया कि, यदि कोई भी केला किसी को न बाँटा जाए, तो क्या तब भी प्रत्येक विद्यार्थी को एक केला मिल सकेगा? सभी विद्यार्थी इस प्रश्न को सुनकर हँस पड़े, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह प्रश्न मूर्खतापूर्ण था। लेकिन बालक रामानुजन द्वारा पूछे गए इस गूढ़ प्रश्न पर गणितज्ञ सदियों से विचार कर रहे थे। प्रश्न था कि अगर शून्य को शून्य से विभाजित किया जाए तो परिणाम क्या होगा? भारतीय गणितज्ञ भास्कराचार्य ने कहा था कि अगर किसी संख्या को शून्य से विभाजित किया जाये तो परिणाम `अनन्त’ होगा। रामानुजन ने इसका विस्तार करते हुए कहा कि शून्य का शून्य से विभाजन करने पर परिणाम कुछ भी हो सकता है अर्थात् वह परिभाषित नहीं है। रामानुजन की प्रतिभा से अध्यापक बहुत प्रभावित हुए।

प्रारंभिक शिक्षा के बाद इन्होंने हाई स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ पर तेरह वर्ष की अल्पावस्था में इन्होने ‘लोनी’ कृत विश्व प्रसिद्ध ‘त्रिकोणमिति’ को हल किया और पंद्रह वर्ष की अवस्था में जार्ज शूब्रिज कार कृत `सिनोप्सिस ऑफ़ एलिमेंट्री रिजल्टस इन प्योर एण्ड एप्लाइड मैथेमैटिक्स’ का अध्ययन किया। इस पुस्तक में दी गयी लगभग पांच हज़ार प्रमेयों को रामानुजन ने सिद्ध किया और उनके आधार पर नए प्रमेय विकसित किये। इसी समय से रामानुजन ने अपनी प्रमेयों को नोटबुक में लिखना शुरू कर दिया था। हाई स्कूल में अध्ययन के लिए रामानुजन को छात्रवृत्ति मिलती थी परंतु रामानुजन के द्वारा गणित के अलावा दूसरे सभी विषयों की उपेक्षा करने पर उनकी छात्रवृत्ति बंद कर दी गई। उच्च शिक्षा के लिए रामानुजन मद्रास विश्वविद्यालय गए परंतु गणित को छोड़कर शेष सभी विषयों में वे अनुत्तीर्ण हो गए। इस तरह रामानुजन की औपचारिक शिक्षा को एक पूर्ण विराम लग गया। लेकिन रामानुजन ने गणित में शोध करना जारी रखा।

कुछ समय उपरांत इनका विवाह हो गया गया और वे आजीविका के लिए नौकरी खोजने लगे। इस समय उन्हें आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ा। लेकिन नौकरी खोजने के दौरान रामानुजन कई प्रभावशाली व्यक्तियों के सम्पर्क में आए। ‘इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी’ के संस्थापकों में से एक रामचंद्र राव भी उन्हीं प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक थे। रामानुजन ने रामचंद्र राव के साथ एक वर्ष तक कार्य किया। इसके लिये इन्हें 25 रू. महीना मिलता था। इन्होंने ‘इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी’ की पत्रिका (जर्नल) के लिए प्रश्न एवं उनके हल तैयार करने का कार्य प्रारंभ कर दिया। सन् 1911 में बर्नोली संख्याओं पर प्रस्तुत शोधपत्र से इन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली और मद्रास में गणित के विद्वान के रूप में पहचाने जाने लगे। सन् 1912 में रामचंद्र राव की सहायता से मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के लेखा विभाग में लिपिक की नौकरी करने लगे। सन् 1913 में इन्होंने जी. एम. हार्डी को पत्र लिखा और उसके साथ में स्वयं के द्वारा खोजी प्रमेयों की एक लम्बी सूची भी भेजी।
यह पत्र हार्डी को सुबह नाश्ते के टेबल पर मिले। इस पत्र में किसी अनजान भारतीय द्वारा बहुत सारे प्रमेय बिना उपपत्ति के लिखे थे, जिनमें से कई प्रमेय हार्डी पहले ही देख चुके थे। पहली बार देखने पर हार्डी को ये सब बकवास लगा। उन्होंने इस पत्र को एक तरफ रख दिया और अपने कार्यों में लग गए परंतु इस पत्र की वजह से उनका मन अशांत था। इस पत्र में बहुत सारे ऐसे प्रमेय थे जो उन्होंने न कभी देखे और न सोचे थे। उन्हें बार-बार यह लग रहा था कि यह व्यक्ति या तो धोखेबाज है या फिर गणित का बहुत बड़ा विद्वान। रात को हार्डी ने अपने एक शिष्य के साथ एक बार फिर इन प्रमेयों को देखा और आधी रात तक वे लोग समझ गये कि रामानुजन कोई धोखेबाज नहीं बल्कि गणित के बहुत बड़े विद्वान हैं, जिनकी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाना आवश्यक है। इसके बाद हार्डी और रामानुजन में पत्रव्यवहार शुरू हो गया। हार्डी ने रामानुजन को कैम्ब्रिज आकर शोध कार्य करने का निमंत्रण दिया। रामानुजन का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। वह धर्म-कर्म को मानते थे और कड़ाई से उनका पालन करते थे। वह सात्विक भोजन करते थे। उस समय मान्यता थी कि समुद्र पार करने से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। इसलिए रामानुजन ने कैम्ब्रिज जाने से इंकार कर दिया। लेकिन हार्डी ने प्रयास जारी रखा और मद्रास जा रहे एक युवा प्राध्यापक नेविल को रामानुजन को मनाकर कैम्ब्रिज लाने के लिए कहा। नेविल और अन्य लोगों के प्रयासों से रामानुजन कैम्ब्रिज जाने के लिए तैयार हो गए। हार्डी ने रामानुजन के लिए केम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में व्यवस्था की।
जब रामानुजन ट्रिनिटी कॉलेज गए तो उस समय पी.सी. महलानोबिस [प्रसिद्ध भारतीय सांख्यिकी विद] भी वहां पढ़ रहे थे। महलानोबिस रामानुजन से मिलने के लिए उनके कमरे में पहुंचे। उस समय बहुत ठंड थी। रामानुजन अंगीठी के पास बैठे थे। महलानोबिस ने उन्हें पूछा कि रात को ठंड तो नहीं लगी। रामानुजन ने बताया कि रात को कोट पहनकर सोने के बाद भी उन्हें ठंड लगी। उन्होंने पूरी रात चादर ओढ़ कर काटी थी क्योंकि उन्हें कम्बल दिखाई नहीं दिया। महलानोबिस उनके शयन कक्ष में गए और पाया कि वहां पर कई कम्बल हैं। अंग्रेजी शैली के अनुसार कम्बलों को बिछाकर उनके ऊपर चादर ढकी हुई थी। जब महलानोबिस ने इस अंग्रेजी शैली के बारे में बताया तो रामानुजन को अफ़सोस हुआ। वे अज्ञानतावश रात भर चादर ओढ़कर ठंड से ठिठुरते रहे। रामानुजन को भोजन के लिए भी कठिन परेशानी से गुजरना पड़ा। शुरू में वे भारत से दक्षिण भारतीय खाद्य सामग्री मंगाते थे लेकिन बाद में वह बंद हो गयी। उस समय प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था। रामानुजन सिर्फ चावल, नमक और नीबू-पानी से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। शाकाहारी होने के कारण वे अपना भोजन खुद पकाते थे। उनका स्वभाव शांत और जीवनचर्या शुद्ध सात्विक थी।
रामानुजन ने गणित में सब कुछ अपने बलबूते पर ही किया। इन्हें गणित की कुछ शाखाओं का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था पर कुछ क्षेत्रों में उनका कोई सानी नहीं था। इसलिए हार्डी ने रामानुजन को पढ़ाने का जिम्मा स्वयं लिया। स्वयं हार्डी ने इस बात को स्वीकार किया कि जितना उन्होंने रामानुजन को सिखाया उससे कहीं ज्यादा रामानुजन ने उन्हें सिखाया। सन् 1916 में रामानुजन ने केम्ब्रिज से बी. एस-सी. की उपाधि प्राप्त की।
रामानुजन और हार्डी के कार्यों ने शुरू से ही महत्वपूर्ण परिणाम दिये। सन् 1917 से ही रामानुजन बीमार रहने लगे थे और अधिकांश समय बिस्तर पर ही रहते थे। इंग्लैण्ड की कड़ी सर्दी और कड़ा परिश्रम उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुई। इनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा और उनमें तपेदिक के लक्षण दिखाई देने लगे। इधर उनके लेख उच्चकोटि की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। सन् 1918 में, एक ही वर्ष में रामानुजन को कैम्ब्रिज फिलोसॉफिकल सोसायटी, रॉयल सोसायटी तथा ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज तीनों का फेलो चुन गया। इससे रामानुजन का उत्साह और भी अधिक बढ़ा और वह शोध कार्य में जोर-शोर से जुट गए। सन् 1919 में स्वास्थ बहुत खराब होने की वजह से उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा।
रामानुजन की स्मरण शक्ति गजब की थी। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी और एक महान गणितज्ञ थे। एक बहुत ही प्रसिद्ध घटना है। जब रामानुजन अस्पताल में भर्ती थे तो डॉ. हार्डी उन्हें देखने आए। डॉ. हार्डी जिस टैक्सी में आए थे उसका नम्बर था 1729 । यह संख्या डॉ. हार्डी को अशुभ लगी क्योंकि 1729 = 7 x 13 x 19 और इंग्लैण्ड के लोग 13 को एक अशुभ संख्या मानते हैं। परंतु रामानुजन ने कहा कि यह तो एक अद्भुत संख्या है। यह वह सबसे छोटी संख्या है, जिसे हम दो घन संख्याओं के जोड़ से दो तरीके में व्यक्त कर सकते हैं। (1729 = 12x12x12 + 1x1x1,और 1729 = 10x10x10 + 9x9x9)।
सन् 1903 से 1914 के बीच, कैम्ब्रिज जाने से पहले रामानुजन अपनी `नोट बुक्स’ में तीन हज़ार से ज्यादा प्रमेय लिख चुके थे। उन्होंने ज्यादातर अपने निष्कर्ष ही दिए थे और उनकी उपपत्ति नहीं दी। सन् 1967 में प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट को जब ‘रामानुजन नोट बुक्स’ दिखाई गयी तो उस समय उन्होंने इस पुस्तक में कोई रुचि नहीं ली। बाद में उन्हें लगा कि वह रामानुजन के प्रमेयों की उत्पत्तियाँ दे सकते हैं। प्रोफेसर बर्नाड्ट ने अपना पूरा ध्यान रामानुजन की पुस्तकों के शोध में लगा दिया। उन्होंने रामानुजन की तीन पुस्तकों पर 20 वर्षों तक शोध किया। सन् 1919 में इंग्लैण्ड से वापस आने के पश्चात् रामानुजन 3 महीने मद्रास, 2 महीने कोदमंडी और 4 महीने कुंभकोणम में रहे। उनकी पत्नी ने उनकी बहुत सेवा की। पति-पत्नी का साथ बहुत कम समय तक रहा। रामानुजन के इंग्लैंड जाने से पूर्व वे एक वर्ष तक उनके साथ रही और वहां से आने के एक वर्ष के अन्दर ही परमात्मा ने पति को सदा के लिए उनसे छीन लिया। उन्हें माँ होने का सुख भी प्राप्त नहीं हुआ। 26 अप्रैल 1920 को 32 वर्ष 4 महीने और 4 दिन की अल्पायु में रामानुजन का शरीर परब्रह्म में विलीन हो गया।
गणितीय कार्य एवं उपलब्धियाँ
रामानुजन ने इंग्लैण्ड में पाँच वर्षों तक मुख्यतः संख्या सिद्धान्त के क्षेत्र में काम किया। भारत में प्रत्येक वर्ष 22 दिसम्बर को महान गणितज्ञ श्रीनिवास अयंगर रामानुजन की स्मृति में ‘राष्ट्रीय गणित दिवस’ के रूप में मनाया जाता है । यह फिल्म एक बॉयोपिक है और रामानुजन की जिंदगी पर आधारित है। पहले विश्वयुद्ध के समय पर बनी, फिल्म ‘द मैन हू न्यू इनफिनिटी’ रॉबर्ट कनिगेल की किताब पर आधारित है। फिल्म की कहानी ऐसी दोस्ती पर आधारित है जिसने हमेशा के लिए गणित की दुनिया को बदलकर रख दिया। रामानुजन एक गरीब स्वयं पढ़ने वाले भारतीय गणितज्ञ थे। फिल्म की कहानी उनके ट्रिनिटी कॉलेज मद्रास से कैंब्रिज जाने की है।

सूत्र
रामानुजन् ने निम्नलिखित सूत्र प्रतिपादित किया-
1+\frac{1}{1\cdot 3} + \frac{1}{1\cdot 3\cdot 5} + \frac{1}{1\cdot 3\cdot 5\cdot 7} + \frac{1}{1\cdot 3\cdot 5\cdot 7\cdot 9} + \cdots + {{1\over 1 + {1\over 1 + {2\over 1 + {3\over 1 + {4\over 1 + {5\over 1 + \cdots }}}}}}} = \sqrt{\frac{e\cdot\pi}{2}}
इस सूत्र की विशेषता यह है कि यह गणित के दो सबसे प्रसिद्ध नियतांकों ( ‘पाई’ तथा ‘ई’ ) का सम्बन्ध एक अनन्त सतत भिन्न के माध्यम से व्यक्त करता है।
पाई के लिये उन्होने एक दूसरा सूत्र भी (सन् १९१० में) दिया था-
\pi = \frac{9801}{2\sqrt{2} \displaystyle\sum^\infty_{n=0} \frac{(4n)!}{(n!)^4} \times \frac{[1103 + 26390n]}{(4 \times 99)^{4n}}}
रामानुजन संख्याएँ
‘रामानुजन संख्या’ उस प्राकृतिक संख्या को कहते हैं जिसे दो अलग-अलग प्रकार से दो संख्याओं के घनों के योग द्वारा निरूपित किया जा सकता है।
उदाहरण – 9^3 + 10^3 = 1^3 + 12^3 = 1729.
इसी प्रकार,
2^3 + 16^3 = 9^3 + 15^3 = 4 104
10^3 + 27^3 = 19^3 + 24^3 = 20 683
2^3+ 34^3 = 15^3 + 33^3 = 39 312
9^3 + 34^3 = 16^3 + 33^3 = 40 033
अतः 1729, 4104, 20683, 39312, 40033 आदि रामानुजन संख्याएं हैं।

(साभार – विज्ञान विश्व डॉट इन)

भवानीपुर कॉलेज ने सीएफओ समिट 2.0 में एम ओ यू पर किये हस्ताक्षर

कोलकाता । भवानीपुर एजूकेशन सोसाइटी कॉलेज के डीन प्रो दिलीप शाह ने इंस्टीट्यूट ऑफ कॉस्ट एकाउंटेंट्स द्वारा आयोजित सीएफओ समिट 2.0 में एम ओ यू पर हस्ताक्षर किए। इस कार्यक्रम का उद्घाटन पश्चिम बंगाल के सलाहकार अमित मित्रा ने किया। कोरोना काल के दौरान कंपनी कार्य में जो सक्रियता आनी चाहिए थी वह नहीं हो सकी। अमित मित्रा ने भारत के सत्तर से अधिक कंपनियों के चीफ़ फायनेंशियल ऑफिसरों के साथ बैठक की जिसमें कई महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे शिक्षा, बेरोजगार आदि पर अपना वक्तव्य रखा। इस अवसर पर पर पूर्व वित्तीय अध्यक्ष और वर्तमान अध्यक्ष पी. राजू भी उपस्थित थे जो भवानीपुर कॉलेज के विद्यार्थी भी रहे हैं।
भवानीपुर एजूकेशन सोसाइटी कॉलेज की ओर से प्रो. दिलीप शाह ने देश के कंपनियों से आए सीएफओ की उपस्थिति में कॉलेज के एम ओ यू पर हस्ताक्षर किए। प्रो. दिलीप शाह ने अपने वक्तव्य में कहा कि शिक्षा और शिक्षा से संबंधित बहुत से विषयों पर पूरी सक्रियता से काम किया जाएगा। यह कार्यक्रम बंगाल क्लब में आयोजित किया गया है। कार्यक्रम की जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

प्रदर्शनी में सराही गयी मूर्तिकार वंदना सिंह की पेपर मैशे कला

वाराणसी । दि कलाई फेस्टिवल 2.0 द्वारा आयोजित प्रदर्शनी कला और क्राफ्ट का समन्वय है जो स्वागत आर्ट के तहत उन्नीस दिसंबर को सुबह दस बजे से श्री श्री कला केंद्र संत आश्रम संत नगर गुरूबाग, वाराणसी में संपन्न हुआ। कला के विभिन्न कार्यों के प्रदर्शन किए गए जिसमें वंदना सिंह के कला शिल्प का भी प्रदर्शन हुआ जो पेपर मैशे में है। वंदना सिंह का पेपर मैशे बचे हुए समाचार पत्रों की विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा कलाकृतियों को बनाया जाता है जो प्रदर्शनी का आकर्षण रहा। कला प्रेमियों को कला का पेपर मैशे का काम बहुत ही अलग और महत्वपूर्ण लगा। मूर्तिकार वंदना सिंह ने जीवन के अनुभवों को कई शीर्षकों में अपनी कला में उकेरा है।

अपनी गुरु माँ के साथ वन्दना सिंह

वर्तमान समय में सिमटते रिश्ते – – कला को बहुत पसंद किया गया जिसमें स्वतंत्र विचार और बेख़ौफ़ समाज में सिमटे हुए परिवेश को दिखाया गया है। अवरोध– कला में रास्ते के अवरोध जिसके साथ रेखाओं का संघर्ष मानो सामाजिक विडंबना को दर्शा रहा हो । प्रवाह–प्रकृति के साथ मानवीयता के कारकों को अपनी रेखाओं के साथ पशु- पक्षी से जोड़ने का प्रयास है। परिवर्तन– इसमें किसानों की समस्याओं के बदलते परिवेश को दर्शाया गया है। समूह- – जीवन के अतीत और भविष्य के सपनों में खो कर अकेलेपन का एहसास को दिखाया गया है, जो हर मनुष्य में होता है।

विस्थापन- – करुणा महामारी में आए जीवन में हुए परिवर्तन जो अपनों से दूर करते एक एहसास को प्रदर्शित करता है। इस प्रदर्शनी का संयोजन एवं आयोजन मूर्तिकार वंदना सिंह की श्री गुरु मांँ और उनकी पुत्री इंद्राणी दास द्वारा किया गया, जिनके निर्देशन में प्रारंभिक काल में वंदना सिंह ने कला की बारिकियों को समझा था। कार्यक्रम की जानकारी दी डॉ वसुंधरा मिश्र ने ।

भक्ति और विरक्ति के स्वरों को कविता में समेटने वाली बहिणाबाई

प्रो. गीता दूबे

सभी सखियों को नमस्कार। सखियों, कई बार इतिहास में ऐसे रचनाकार भी मिल जाते हैं जिन्हे अपने समय में अपने देश में  वह पहचान या लोकप्रियता नहीं मिलती जिसके वह हकदार होते हैं लेकिन कुछ देर से ही सही उनकी कद्र अवश्य होती है। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण भक्त कवयित्री हैं, महाराष्ट्र की संत बहिणाबाई। वह महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय के जनप्रिय संत तुकाराम की शिष्या थीं। हालांकि ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाली बहिणाबाई की संत तुकाराम के प्रति भक्ति और श्रद्धा का लोगों ने आरंभिक दौर में बहुत विरोध किया लेकिन कवयित्री पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। स्वयं बहिणाबाई के पति को यह भक्ति स्वीकार्य नहीं थी लेकिन वह अपनी साधना से जौ भर हिलीं। माना जाता है कि तुकाराम के अभंग सुनकर वह उनकी भक्त हो गईं और उन्हें गुरु रूप में स्वीकार करना चाहती थीं लेकिन उनकी मुलाकात के पहले ही संत तुकाराम की मृत्यु हो गई। फिर भी उन्होंने आस नहीं छोड़ी और उनकी कठिन साधना से प्रसन्न होकर तुकाराम ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर ज्ञान दिया था। कुछ लोगों का कहना यह भी है कि संत तुकाराम ने बहिणाबाई से अश्वघोष द्वारा संस्कृत में रचित ग्रंथवज्रशुचिका अनुवाद मराठी में करवाया था जिसमें जातिवाद की कड़ी आलोचना की गई है। तथाकथित शूद्र गुरु और ब्राह्मण शिष्या का यह संबंध दुर्लभ और प्रशंसनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है।

बहिणाबाई का जन्म कन्नड़ तालुका के वेलगंगा नदी के तट पर बसे देवगाँव में सन 1628 के आसपास हुआ था। उनकी माता का नाम जानकी और पिता का नाम औजी कुलकर्णी था। तकरीबन तीन वर्ष की उम्र में उनका विवाह 30 वर्षीय दुहाजू रत्नाकर पाठक से कर दिया गया जिसके पहले से ही दो बच्चे थे। बचपन से ही उनके मन में भक्ति का बीजारोपण हो गया था और वह खेलखेल में भी भजन गया करती थीं। बाद में वह घरगृहस्थी या खेतों का काम करते हुए भी अभंग गाती रहती थीं। हालांकि उनका घर अभावों और असुविधाओं से भरा था लेकिन संत के मन में सांसारिक विषयवासनाओं के प्रति कोई आसक्ति नहीं थी। यह भी सुना जाता है कि पति उनसे दुर्व्यवहार करते थे लेकिन उन्होंने प्रेमपूर्वक अपनी घरगृहस्थी संभाली और पति को पर्याप्त आदर दिया। नौ वर्ष की उम्र में पारिवारिक समस्याओं के चलते बहिणाबाई के परिवार को देवगाँव छोड़ना पड़ा। वह अपने पति और मातापिता के साथ गोदावरी नदी के तट पर स्थित तीर्थ स्थानों की यात्रा करती रहीं और भिक्षाटन के द्वारा अपना और अपने परिवार का निर्वाह किया। पंढरपुर की यात्रा के दौरान उन्होंने वहाँ स्थित विठोबा के मंदिर में प्रभु के दर्शन किये और अपना जीवन विठोबा को अर्पित कर दिया। अंततः ग्यारह वर्ष की उम्र में वह परिवार सहित कोल्हापुर में बस गयीं। पारिवारिक जीवन के उतारचढ़ाव के बावजूद वह भक्तिभाव में डूबती गईं और  विठोबा अर्थात कृष्ण की भक्ति में उन्होंने अभंगों की रचना की। उनकी रचनाओं में गुरु की महिमा, ईश्वरीय भक्ति, वेदांत के सिद्धांतों आदि का सम्यक वर्णन हुआ है। स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने अपनी रचनाओं में ब्राह्मणवाद की रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया है सहज, सरल भाषा में लिखित उनकी कविताएं ह्रदय पर स्थायी प्रभाव डालती हैं। उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए आचार्य अत्रे ने लिखा है– “बहिणाबाई की कविता करें सोने की तरह है जो पुराने में चमकती है और नये में चमकती है।उनकी मृत्यु 2 अक्टूबर 1700 में हुई। उनकी समाधि शिउर में स्थित है। हालांकि उन्होंने अपनी मातृभाषा मराठी में ही पदों की रचना की है लेकिन उनका हिंदी रूप भी उपलब्ध है। काका कालेलकर ने सत्रहवीं शताब्दी की इस महत्वपूर्ण संत कवि की रचनाओं को सहेजकर बीसवीं शताब्दी मेः उन्हें हिंदी  पाठकों के लिए  उपलब्ध करवाया और इनकी रचनाओं को पर्याप्त प्रसिद्धि मिली हिंदी के जनपद संत” (1963) में उनके अभंग संकलित हैं। भले ही अपने समय में उन्हें अपनी भक्ति के लिए गाँव,, समाज और परिवार की अवहेलना मिली लेकिन बाद में उनके अवदान को समाज ने श्रद्धा के साथ स्वीकार किया। वैराग्य का भाव उनके पदों में प्रमुखता से व्यक्त हुआ है। संसार की नश्वरता को अपने पदों में वर्णित करती हुई वह अल्ला या कृष्ण के नाम को ही पतवार मानती हैं। यही है मानवतावादी भक्ति का स्वरूप जिसमें कवयित्री धर्म और जाति की खाई को पाटकर समस्त मानव जाति को भक्ति और प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं। पद देखिए

दो दिन की दुनिया रे बाबा 

दो दिन की है दुनिया॥ 

ले अल्ला का नाम कूल धरो ध्यान। 

बंदे न होना गुंमान। 

गाव रतन से ही सार। 

नई आवेगा दूज बार। 

वेगी करो है फिकीर। 

करो अल्ला की जिकीर॥ 

करो अल्ला की फिकीर। 

तब मिलेगा गामील पीर। 

बहिणी कहे तुजे पुकार। 

कृष्ण नाम तमे हुसियार॥

ईश्वर की बंदगी में बहिणाबाई ने स्वयं को इस तरह न्योछावर कर दिया है कि उन्हें दीन -दुनिया की कोई फ़िक्र नहीं है। अपने सच्चे साहब अर्थात गोविंद की चाकरी में ही वह जीवन की सार्थकता मानती हैं

सच्चा साहब तूं येक मेरा, 

काहे मुजे फिकीर। 

महाल मुलुख परवा नही, 

क्या करूं पील पथीर॥ 

गोविंद चाकरी पकरी, 

पकरी पकरी तेरी॥ 

साहेब तेरी जिकीर करते, 

माया परदा हुवा दूर। 

चारो दील भाई पीछे रहते हैं, 

बंदा हुज़ूर॥ 

मेरा भी पन सट कर, 

साहेब पकरे तेरे पाय। 

बहिनी कहे तुमसे गोंविंद, 

तेरे पर बलि जाय॥

बहिणाबई मृत्यु को शाश्वत मानती हैं और उससे जरा भी डरती या घबराती नहीं। जिसने ज्ञान का प्रकाश पा लिया है, गुरु की कृपा प्राप्त कर ली है, उसने मृत्यु भय  को जीत लिया है

मरन सो हक रे है बाबा

मरन सो हक है॥

काहे डरावत मोहे बाबा,

उपजे सो मर जाये भाई।

मरन धरन सा कोई बाबा,

जनन-मरन ये दोनों भाई।

मोकले तन के साथ

मोती पुरे सो आपही मरेंगे,

बदनामी झुठी बात॥

जैसा करना वैसा भरना,

संचित ये ही प्रमान।

तारन हार तो न्यारा है रे,

हकीम वो रहिमान॥

बहिनी कहे वो अपनी बात,

काहे करे डौर (गौर)।

ग्यानी होवे तो समज लेवे,

मरन करे आपे दूर॥

बहिणाबाई एक ऐसी संत थीं जिन्होंने वैवाहिक बंधनों में बंधने के बावजूद सांसारिकता की परवाह नहीं की। सामाजिक बंधनों को नकार कर भक्ति की सरिता में स्वयं को प्रवाहित कर दिया। यह कथा भी सुनने में आती है कि उनकी अल्पायु में उनके पति का देहांत हो गया था और उन्होंने संसार से वैराग्य ले लिया था। बहिणाबाई की कविताओं में भक्ति और विरक्ति का सहज स्वर गुंजरित होता है। उनके जीवन के साथ कई चमात्कारिक कहानियों को भी जोड़ा जाता है लेकिन उनका लेखन इन सब से ऊपर है जिसे पढ़ते हुए उनकी निर्भीकता और उदारता के साथ ही उनकी मानवतावादी दृष्टि का सहज परिचय मिलता है।

मानव तस्करी प्रतिरोध : गुवाहाटी में यू.एस. कॉन्सुलेट का कन्क्लेव

कोलकाता । यू. एस. कॉन्सुलेट, कोलकाता देश मानव तस्करी को रोकने के लिए शक्ति वाहिनी के साथ पिछले 10 सालों से काम कर रही है। दशम वर्षपूर्ति समारोह का पालन करते हुए हाल ही में गुवाहाटी में यू.एस. कॉन्सुलेट शक्ति वाहिनी ने कन्क्लेव आयोजित किया। इस कन्क्लेव में राज्य स्तर पर साझेदारों, सरकारी विभागों, कानून प्रवर्तन, बाल संरक्षण एवं अभियोजन एजेंसियों के साथ कार्य प्रणाली को मजबूत करने की रणनीति पर चर्चा हुई। यू. एस एम्बैसी, दिल्ली में पब्लिक डिप्लोमैसी ऑफिसर (नीति एवं संसाधन) डॉ. इग्विन बी ने कहा कि साझीदारी का मुख्य लक्ष्य मानव तस्करी के हर रूप को खत्म करना है। भारत और कोलकाता में यू. एस. का यह मिशन साझेदारों को उत्साहित करता रहेगा जिससे यह अभियान मजबूत हो सके। अभियोजन, संरक्षण और बचाव इन तीन बड़े कदमों से अभियान और मजबूत होगा। गुवाहाटी के बाद यह कन्क्लेव चंडीगढ़, हैदराबाद, मुम्बई और नयी दिल्ली में होगा। कई रिपोर्ट्स के मुताबिक कोविड – 19 के दौरान मानव तस्करी की समस्या और बढ़ गयी है। सूचना और संचार से जुड़ी नयी तकनीकों का दुरुपयोग हो रहा है। इंटरनेट के जरिए विज्ञापनों, आर्थिक लेनदेन के अतिरिक्त बाल यौन उत्पीड़न और चाइल्ड पोर्नोग्राफी की घटनायें भी बढ़ गयी हैं। तस्करी करने वाले तकनीक इस्तेमाल कर रहे हैं। इसे लेकर केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने एडवायजरी भी जारी की है। शक्तिवाहिनी के अध्यक्ष रविकांत ने कहा है कि लॉकडाउन के बाद से ही वे तस्करी के मामलों में वृद्धि देख रहे हैं। इस समय निगरानी की प्रणाली को मजबूत करने की जरूरत है। वे सभी एजेंसियों के साथ काम करते हुए सुनिश्चित करेंगे की पीड़ित को हर प्रकार की सुविधा मिल सके। कार्यक्रम में असम विधानसभाध्यक्ष विश्वजीत डेमैरी, उप विधानसभाध्यक्ष नोमुल मोमिन, इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फोरम के महासचिव तथा प्रयास के संस्थापक आईपीएस अधिकारी आमोद कंठ, प्रज्ज्वला की संस्थापक सामाजिक कार्यकर्ता पद्मश्री सुनीता कृष्णन, असम के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस आईपीएस भास्कर ज्योति महन्त, असम पुलिस के आईजीपी आईपीएस सुरेन्द्र कुमार भी उपस्थित थे।

ध्यान को लेकर क्या कहते थे स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानंद का सबसे प्रसिद्ध चित्र ध्यानस्थ मुद्रा में है। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस उन्हें ध्यानसिद्ध कहते थे…स्वामी जी ने अपने व्याख्यानों में ध्यान के विभिन्न पहलुओं पर काफ़ी कुछ कहा, जो किताबों में संकलित है। प्रस्तुत हैं उनमें से कुछ संपादित अंश…
ध्यान क्या है? वह बल, जो हमें इस सब (प्रकृति के प्रति हमारी दासता) का प्रतिरोध करने का सामर्थ्य देता है। प्रकृति हमसे कह सकती है, ‘देखो, वहां एक सुंदर वस्तु है।’ मैं नहीं देखता। अब वह कहती है, ‘यह गंध सुहावनी है, इसे सूंघो।’ मैं अपनी नाक से कहता हूं, ‘इसे मत सूंघ।’ और नाक नहीं सूंघती। ‘आंखो, देखो मत!’ प्रकृति जघन्य कार्य करती है, और कहती है, ‘अब, बदमाश, बैठ और रो! गर्त में गिर!’ मैं कहता हूं, ‘मुझे न रोना है, न गिरना है।’ मैं उछल पड़ता हूं। मुझे मुक्त होना ही चाहिए। कभी इसे करके देखो। ध्यान में, एक क्षण के लिए, तुम इस प्रकृति को बदल सकते हो। अब, यदि तुममें यह शक्ति आ जाती है, तो क्या वह स्वर्ग या मुक्ति नहीं होगी? यही ध्यान की शक्ति है। इसे कैसे प्राप्त किया जाए? दर्जनों विभिन्न रीतियों से प्रत्येक स्वभाव का अपना मार्ग है। पर सामान्य सिद्धांत यह है कि मन को पकड़ो। मन एक झील के समान है, और उसमें गिरने वाला हर पत्थर तरंगें उठाता है। ये तरंगें हमें देखने नहीं देतीं कि हम क्या हैं। झील के पानी में पूर्ण चंद्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ता है, पर उसकी सतह इतनी आंदोलित है कि वह प्रतिबिम्ब हमें स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देता। इसे शांत होने दो। प्रकृति को तरंगें मत उठाने दो। शांत रहो, और तब कुछ समय बाद वह तुम्हें छोड़ देगी। तब हम जान सकेंगे कि हम क्या हैं। ईश्वर वहां पहले से है, पर मन बहुत चंचल है, सदा इन्द्रियों के पीछे दौड़ता रहता है। तुम इन्द्रियों को रोकते हो और (फिर भी) बार-बार भ्रमित होते हो। अभी, इस क्षण मैं सोचता हूं कि मैं ठीक हूं और मैं ईश्वर में ध्यान लगाऊंगा, लेकिन एक मिनट में मेरा मन लंदन पहुंच जाता है। यदि मैं उसे वहां से खींचता हूं तो वह न्यूयॉर्क चला जाता है, और मेरे द्वारा वहां अतीत में किए गए क्रियाकलापों के बारे में सोचने लगता है। इन तरंगों को ध्यान की शक्ति से रोकना है।

परम आनंद का द्वार
ध्यान के द्वार से हम उस परम आनंद तक पहुंचते हैं। प्रार्थनाएं, अनुष्ठान और पूजा के अन्य रूप ध्यान की शिशुशाला मात्र हैं। तुम प्रार्थना करते हो, तुम कुछ अर्पित करते हो।
एक सिद्धांत था- सभी बातों से मनुष्य का आध्यात्मिक बल बढ़ता है। कुछ विशेष शब्दों, पुष्पों, प्रतिमाओं, मंदिरों, ज्योतियों को घुमाने के समान अनुष्ठानों- आरतियों- का उपयोग मन को उस अभिवृत्ति में लाता है, पर वह अभिवृत्ति तो सदा मनुष्य की आत्मा में है, कहीं बाहर नहीं। लोग यह कर रहे हैं; पर वे जो अनजाने कर रहे हैं, उसे तुम जान-बूझकर करो। यही ध्यान की शक्ति है।
हमें धीरे-धीरे अपने को प्रशिक्षित करना है। यह प्रश्न एक दिन का, या वर्षों का, और हो सकता है कि, जन्मों का नहीं है। चिंता मत करो! अभ्यास जारी रहना चाहिए! इच्छापूर्वक, जान-बूझकर, अभ्यास जारी रखना चाहिए। हम उन वास्तविक सम्पदाओं को अनुभव करने लगेंगे, प्राप्त करने लगेंगे, जिन्हें हमसे कोई नहीं ले सकता- वह सम्पत्ति जिसे कोई नहीं छीन सकता; नष्ट नहीं कर सकता; वह आनंद जिसे कोई दुःख छू नहीं सकता।

साधना की पद्धति
ब्राह्ममुहूर्त और गोधूलि, इन दो समयों में प्रकृति अपेक्षाकृत शांत भाव धारण करती है। ये दो समय मन की स्थिरता के लिए अनुकूल हैं। इस दौरान शरीर बहुत कुछ शांत भावापन्न रहता है। इस समय साधना करने से प्रकृति हमारी काफ़ी सहायता करेगी, इसलिए इन्हीं दो समयों में साधना करना आवश्यक है।
तुममें से जिनको सुभीता हो वे साधना के लिए स्वतंत्र कमरा रख सकें तो अच्छा हो। इसे सोने के काम में न लाओ। बिना स्नान किए और शरीर-मन को शुद्ध किए इस कमरे में प्रवेश न करो। इस कमरे में सदा पुष्प और हृदय को आनंद देने वाले चित्र रखो। सुबह और शाम वहां धूप और चंदन-चूर्ण आदि जलाओ। उस कमरे में क्रोध, कलह और अपवित्र चिंतन न किया जाए। ऐसा करने पर शीघ्र वह कमरा सत्वगुण से पूर्ण हो जाएगा। यहां तक कि जब किसी प्रकार का दु:ख या संशय आए अथवा मन चंचल हो तो उस समय उस कमरे में प्रवेश करते ही मन शांत हो जाएगा।
शरीर सीधा रखकर बैठो। संसार में पवित्र चिंतन का एक स्रोत बहा दो। मन ही मन कहो- संसार में सभी सुखी हों, शांति लाभ करें, आनंद पाएं। इस प्रकार चहुंओर पवित्र चिंतन की धारा बहा दो। ऐसा जितना करोगे, उतना ही अच्छा अनुभव करने लगोगे।

(‘ध्यान तथा इसकी पद्धतियां’ और ‘राजयोग’ से)

55 साल की महिला बुलेट राइड पर निकली, अब घूम रही देश

पति ने कहा था- रोज ऑफिस नहीं छोड़ सकता, बाइक सीख लो
चित्तौड़गढ़ । आजादी के अमृत महोत्सव पर केनरा बैंक ने महिला सशक्तिकरण के लिए रोड ट्रिप को प्रायोजित की। जब रॉयल एनफील्ड क्लासिक से यह रोड ट्रिप होने वाला था, तो केनरा बैंक ने मिनी को एक सशक्त महिला कर्मचारी के रूप में भेजा। इसके बाद केरल निवासी मिनी ऑगस्टिन (55) अपनी रॉयल एनफील्ड के साथ शामिल हुई। मिनी ने इससे पहले दिल्ली से लेह-लद्दाख और लेह से हिमाचल होते हुए चंडीगढ़ तक की कुल 2200 किलोमीटर की ट्रिप की थी। वह बाइक से लेह-लद्दाख की ट्रिप करने वाली सबसे ज्यादा उम्र की इंडियन वुमेन है। उस समय मिनी ऑगस्टिन 51 साल की थी। राजस्थान टूर के बारे में पूछने पर मिनी ने बताया कि राजस्थान आना उनका सपना था।
पति ने कहा- रोज ऑफिस नहीं छोड़ सकता, बाइक सीख लो
मिनी ऑगस्टिन ने बताया कि मैं ऐसे समय में पली बढ़ी हूं, जब महिलाएं बाइक नहीं चलाती थी। शादी के बाद 1995-96 में जब एक दिन मेरे पति विजो पॉल ने कहा कि मैं रोज तुम्हें ऑफिस छोड़ने नहीं जा सकता, बाइक सीख लो, तो मुझे यह मजाक लगा। लेकिन वह अपनी बात पर डटे रहे। उन्होंने ही अपनी पुरानी बुलेट चलाना सिखाया। उस दिन से मुझे बाइक से प्यार हो गया।
केरल से तमिलनाडु बाइक राइड कर जाती हैं माता-पिता से मिलने
मिनी ऑगस्टिन ने बताया कि वह अपने माता-पिता से मिलने जब भी केरल से तमिलनाडु जाती है तो 250 किलोमीटर का रास्ता वह बाइक से ही पूरा करती है। वहां का रास्ता इतना आसान नहीं है, खड्डे और ऊंचे नीचे पथरीले रास्तों से होने के बाद भी वह बाइक से जाना पसंद करती है। उन्होंने बताया कि राजस्थान के इस ट्रिप में 27 लोगों के इस ग्रुप में सिर्फ तीन महिलाएं है। उनके अलावा दिल्ली निवासी पारुल (30) और चेन्नई निवासी मरियम (33) भी ग्रुप में शामिल है।
(साभार – दैनिक भास्कर)

कोटा की डिब्बेवालियां:भावी डॉक्टरों-इंजीनियरों को खिलाती हैं माँ की तरह खाना

टिफिन में बच्चों की पर्चियां आती गईं और मेन्यू बदलता गया
कोटा । राजस्थान का कोटा शहर आईआईटी और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी का गढ़ माना जाता है। यहां देश भर से 10वीं और 12वीं पास कर चुके छात्र इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए यहां आते हैं। घर से दूर यहां रह रहे छात्र-छात्राओं को वक्त-बेवक्त मां और मां के हाथ के बने खाने की याद सताती है। बच्चों का ध्यान पढ़ाई से न भटके इसलिए कोटा की डिब्बेवालियां मां की तरह मनपसंद खाना खिलाती हैं। यहां मिलिए दाल-बाटी चूरमा बनाने वाली उन महिलाओं से जिन्होंने बच्चों के लिए बेड़मी पूरी, इडली-सांभर और लिट्टी-चोखा बनाना ​सीखा…
कोटा के एक मेस की मालकिन ममता गुप्ता बताती हैं, ‘ साल 2004 की बात है। शादी के बाद ससुराल आए हुए एक साल गुजर गया। परिवार वाले मेरे हाथ के खाने की तारीफ करते नहीं थकते। एक रोज मैंने सोचा कि क्यों न मैं उन बच्चों को अपनी किचन का खाना खिलाऊं, जो कोटा में रहकर अपने घर के खाने को मिस करते हैं। जब पति और सास को यह बात बताई तो उन्होंने इस विचार को साकार करने में मेरा साथ दिया। बस फिर क्या था मैंने अपने घर के पास ही एक मेस खोल लिया। इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में लगे कुछ छात्र-छात्रा यहां खाना खाने आते तो कुछ अपने रूम पर ही डिब्बा मंगाना पसंद करते। शुरुआती दौर में सिर्फ 60 बच्चे थे, लेकिन धीरे-धीरे यह संख्या 700 के पार पहुंच गई।’
‘बच्चों के चेहरे देख बढ़ाती गई स्वाद की वैरायटी’
ममता गुप्ता कहती हैं, ‘शुरुआत में मैं बच्चों के टिफिन और मैस में आकर खाना खाने वालों के लिए रोटी-सब्जी, दाल और सलाद देती थी। कभी-कभी दाल-बाटी चूरमा भेजती थी। अगले दिन जब नया डिब्बा जाता और पुराना टिफिन वापस आता, तो कुछ एक के साथ कुछ स्लिप भी आतीं। जिन पर स्वाद की तारीफ होती या फिर बच्चा अपना पसंदीदा खाना बनाने का अनुरोध करता। इस तरह मेन्यू में राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पंजाब और साउथ इंडियन स्वाद भी शामिल हो गया। बच्चों के लिए पाव भाजी, छोले-भटूरे, इटली-सांभर और बड़ा बनाना भी सीख लिया।’
एक हॉस्टल में मैस की मालकिन अंजू शर्मा बताती हैं, ‘मेरे पति सरकारी विभाग में सिविल इंजीनियर थे। आए दिन उनके तबादले होते रहते। इस वजह से हमने पूरा देश घूम लिया। अलग-अलग शहरों में रही। वहां के खाने का जायका लिया। संस्कृति को जाना-समझा। जब बच्चे बड़े होने लगे तो शहर बदलने से उनकी पढ़ाई में दिक्कत आने लगी। बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए हमने कोटा को ही अपना ठिकाना बना लिया। पति ने नौकरी छोड़ खुद का कुछ करने का सोचा तो मैंने भी स्वाद बांटने का इरादा बना लिया।’
‘स्वाद के साथ सेहत का रखती हूं ख्याल’
अंजू शर्मा कहती हैं, ‘कोटा में देश भर से बच्चे आते हैं और मैं पूरे भारत का जायका चख चुकी थी। इसलिए मैंने साल 2011 में एक हॉस्टल के मेस का जिम्मा उठा लिया। मैं हर दिन 100 से ज्यादा बच्चों का खाना बनाती हूं। नाश्ते में पोहा, उपमा, बेड़मी पूरी, चीला और परांठा खिलाती हूं। दाल-बाटी, चूरमा और रोटी-सब्जी सलाद, रायता और स्वीट के अलावा इडली-सांभर, डोसा, लिट्टी-चोखा भी मेन्यू में शामिल किया। मेरी कोशिश रहती हूं कि बच्चों को हर दिन कुछ अलग खिलाऊं ताकि वे एक ही खाना खा-खाकर ऊब न जाएं। मैं बिजनेस माइंडेड नहीं हूं, एक मां हूं जो अच्छा लगता है और हेल्दी है, वो बच्चों को खिलाती हूं। मैं खाने में स्वाद के साथ सेहत का पूरा ख्याल रखती हूं। मेरी बड़ी बेटी डायटीशियन है, बच्चों के हेल्दी फूड रेडी करने में वो मेरी मदद करती है। जो खाना मैं यहां रह रहे बच्चों को खिलाती हूं, उसी खाने को मेरे बच्चे और प​ति भी खाते हैं।’
स्वाद में मिले प्यार से बन गए कई अनमोल रिश्ते
ममता गुप्ता कहती हैं कि बच्चों की मम्मियां आती हैं तो बहुत प्यारे-प्यारे कॉम्पलिमेंट देती हैं। जो बच्चे यहां पढ़कर डॉक्टर-इंजीनियर बन गए, वो अब भी हमसे जुड़े हुए हैं। कई बार उनके कॉल भी आते हैं। वहीं अंजू शर्मा बताती हैं, ‘पति की नौकरी के चलते हम शहर बदलते रहे। इसलिए हमारे यहां मेहमान नहीं आते थे, लेकिन अब पूरा भारत आता है। बच्चों विशेषकर ​​बेटियों की मां कहती हैं कि आपके भरोसे छोड़कर जा रही हूं। आप हो तो हमको कोई चिंता नहीं। ​बेटियां डॉक्टर और इंजीनियर बन गईं, लेकिन अब भी कॉल और मैसेज आते हैं।
‘डिब्बे वाली मां’ को भी नहीं मिलती होली-दिवाली पर छुट्टी
ममता सरकार कहती हैं कि होली दिवाली पर सारे बच्चे नहीं जाते हैं। अगर हम डिब्बा नहीं भेजेंगे तो हमारे बच्चे खाना कहां खाएंगे। इसलिए होली-दिवाली पर भी मेस खुला रहता है। अंजू शर्मा कहती हैं कि जब कोई त्योहार आता है और साथ के बच्चे चले जाते हैं तो जो यहां रह जाते हैं, वे इमोशनल हो जाते हैं। खाना खिलाने के साथ ही मेरा परिवार उनके साथ होली-दिवाली मनाता है।
‘​जो बनाते थे मजाक, आज वही देते हैं उदाहरण’
ममता कहती हैं कि यह राह आसान नहीं थी। शुरुआत में कुछ लोगों ने मजाक भी बनाया कि नई बहू अपने नहीं, पूरे कोटा के बच्चों को खाना खिलाएगी। अब वही लोग मेरा उदाहरण देते हैं कि देखिए, ममता, घर और काम दोनों संभाल रही है। उससे सीखो।

कोरोना में मिला प्रयोग करने के लिए वक्त
डिब्बेवालियों का कहना है कि कोरोना में वक्त मिला तो उन्होंने नई-नई डिश पर हाथ आजमाया। घर में अचार, मसाले और सॉस तैयार किया। लॉकडाउन में कोरोना वॉरियर्स के लिए खाना बनाने की जिम्मेदारी उठाई। तड़के 3 बजे जागती और सुबह 7 बजे तक टिफिन कोरोना वॉरियर्स तक पहुंचा देती। कोरोना ने हमारी माली हालत भी बिगाड़ी। अंजू कहती हैं कि कोरोना में हमने अपना स्टाफ नहीं निकाला क्योंकि टीम वर्क से ही काम चलता है। जो लोग अपनी मर्जी से छोड़कर गए, उन्हें हमने रोका नहीं। दो साल से यहां बच्चे नहीं हैं, लेकिन फिर मैं स्टाफ को वेतन दे रही हूं।वहीं ममता कहती हैं कि कोरोना के बाद से लगातार मैस बिल्डिंग का किराया देती हूं। उम्मीद है कि जल्द कोरोना जाएगा और मेरे बच्चे फिर से आएंगे। फिर से हमारे शहर में चहल-पहल होगी।
(साभार – दैनिक भास्कर)

पाकिस्तान में मिला बौद्ध काल का 2,300 साल पुराना मंदिर : अधिकारी

पेशावर । पाकिस्तान में खुदाई के दौरान 2,300 साल पुराने एक दुर्लभ बौद्ध मंदिर की खोज की गई है। खुदाई के दौरान मंदिर के अलावा 2,700 से अधिक कलाकृतियाँ भी मिली हैं। पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी इलाके स्वात प्रांत में पाकिस्तान और इटली के पुरातत्वविदों के एक संयुक्त दल ने इन कृतियों को खोजा है। कहा जा रहा है कि यह मंदिर पाकिस्तान में बौद्ध काल का सबसे प्राचीन मंदिर है।

यह मंदिर खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के स्वात जिले में बारीकोट तहसील के बाजीरा शहर में मिला है। इस संबंध में एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ”पाकिस्तान और इतालवी पुरातत्वविदों ने उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान में एक ऐतिहासिक स्थल पर संयुक्त रूप से खुदाई के दौरान बौद्ध काल के 2,300 साल पुराने एक मंदिर की खोज की है। इसके साथ ही अन्य बेशकीमती कलाकृतियाँ भी बरामद की गई हैं। स्वात जिले में मिला यह मंदिर पाकिस्तान के तक्षशिला में मिले मंदिरों से भी पुराना है।”

मंदिर के अलावा पुरातत्वविदों को मिले 2,700 बौद्धकालीन कलाकृतियों में सिक्के, अंगूठियाँ, बर्तन और यूनान के राजा मिनांदर के काल की खरोष्ठी भाषा में लिखी सामग्री भी शामिल हैं। इटली के विशेषज्ञों कहना है कि स्वात जिले के ऐतिहासिक बाजीरा शहर में खुदाई के दौरान और भी पुरातात्विक स्थल मिल सकते हैं।

संग्रहालय एवं पुरातत्व विभाग के निदेशक डॉ अब्दुस समद ने बताया कि स्वात के बारीकोट का बजीरा शहर तक्षशिला से भी पुराना है। यहाँ इटली के प्रमुख विश्वविद्यालयों और खैबर पख्तूनख्वा पुरातत्व विभागों के पीएचडी छात्र बजीरा शहर में ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई में लगे हुए हैं।

डॉ समद ने खुलासा किया कि खैबर पख्तूनख्वा सरकार ने चौदह पुरातात्विक स्थलों को खरीदा है और वहाँ खुदाई का काम चल रहा है। उन्होंने कहा कि हाल ही में बज़ीरा शहर में कलाकृतियों की खोज ने साबित कर दिया कि स्वात छह से सात धर्मों के लिए पवित्र स्थान रहा है।

इससे पहले साल 2020 में पाकिस्तान के स्वात जिले में ही खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को विष्णु मंदिर के अवशेष मिले थे। इस मंदिर के अवशेषों से पता चला कि यहाँ कम-से-कम 1,000 साल पुराना हिंदू मंदिर था। इस मंदिर की खोज भी पाकिस्तान और इटली के पुरातत्वविदों के संयुक्त दल ने ही की थी। इस मंदिर का अवशेष बारीकोट घुंडई के पहाड़ियों के बीच खुदाई के मिला था। उस समय खैबर पख्तूनख्वा के पुरातत्व विभाग के अधिकारी फजले खलीक ने बताया था कि यह मंदिर भगवान विष्णु का है। उन्होंने दावा किया कि इस मंदिर को हिंदू साम्राज्य के काल में बनाया गया था। वहीं, इसी साल जुलाई के महीने में इसी इलाके में भगवान बुद्ध की एक प्रतिमा मिली थी, जिसे कामगारों ने टुकड़े-टुकड़े कर दिया था।

इसी साल अप्रैल में श्रीलंका के वरिष्ठ बौद्ध भिक्षुओं का एक 14-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तान में स्थित विभिन्न बौद्ध विरासत स्थलों की धार्मिक तीर्थयात्रा पर पहुँचा था। इस दौरान बौद्ध भिक्षुओं ने लाहौर संग्रहालय में रखे गांधार सभ्यता के कुछ बेहतरीन और दुर्लभ बौद्ध अवशेषों को देखा, जिनमें 4,000 वर्ष पुराने ‘उपवास बुद्ध’ और ‘सीकरी स्तूप’ भी शामिल थे।