कोलकाता । आरबी डायग्नोस्टिक ने महानगर कोलकाता में एक और ब्रांच खोला है। महानगर कोलकाता हावड़ा और नेपाल में कुल 12 शाखाओं बाद आरबी डायग्नोस्टिक ने अपनी 13वीं शाखा महानगर कोलकाता के देशप्रिय पार्क में खोला है।
आरबी डायग्नोस्टिक के निदेशक अभिनय गोयनका ने कहा कि आज कोलकाता, हावड़ा, नेपाल में फैली कुल 12 शाखाओं के साथ 13वीं शाखा कोलकाता के देशप्रिय पार्क में खोले हैं। इस नई शाखा खोलने के साथ, हम न केवल किफायती हैं बल्कि विश्वसनीय, शीघ्र और सटीक भी।
अभिनय गोयनका ने कहा कि आरबी डायग्नोस्टिक एक ऐसा स्थान है जहां रोगी के स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिलती है। आरबी डायग्नोस्टिक भारत के पूर्वी हिस्से में गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सेवा प्रदाता के न होने के कारण शुरू किया गया था। श्रेणी में सर्वोत्तम सेवाएं प्रदान करने के दृष्टिकोण के साथ, सबसे किफायती कीमतों पर सटीक रिपोर्ट देना शुरू किया। 2010 में अपनी स्थापना के बाद से, लेक टाउन में एक शाखा के साथ, आरबी डायग्नोस्टिक सभी को असाधारण सेवाएं प्रदान करने का प्रयास कर रहा है, चाहे वह पैथोलॉजी, रेडियोलॉजी, इमेजिंग या शहर के कुछ बेहतरीन डॉक्टरों की सहायता हो।
उपयोग डिजिटल रेडियोलॉजी भी कुछ ऐसा है जिसे हमने पूर्वी भारत में पेश किया है। हमने प्रतीक्षा समय को कम किया है और रोगियों को तेजी से ठीक होने में मदद की है। आधे घंटे के भीतर एक्सरे, सीटी, एमआरआई रिपोर्ट उपलब्ध कराते हैं। उन्होंने कहा कि यह बताते हुए भी गर्व हो रहा है, कि कोविड के दौरान आरबी ने अपनी कोई भी दर नहीं बढ़ाई थी। बल्कि हम अपने सीटी स्कैन दरों को कम करने वाले एकमात्र केंद्र थे।
आरबी के निदेशक दीपक अग्रवाल ने कहा कि हमारे पास विश्व स्तर पर उपलब्ध कुछ बेहतरीन उपकरण हैं जो हमें अपने वैश्विक मानकों की गुणवत्ता बनाए रखने में मदद करते हैं। हमारे पास अनुकूलित पैकेज के पेशकश करने के लिए बहुत कुछ है। और हमारी ताकत में से एक घरेलू संग्रह है, जिसमें सभी पैथोलॉजी परीक्षण शामिल हैं, साथ ही कुछ रेडियोलॉजी परीक्षण जैसे पोर्टेबल एक्सरे, ईसीजी, होल्टर, 24 घंटे बीपी मॉनिटरिंग।
इस अवसर पर आरबी की ओर से गोपाल अग्रवाल ने कहा कि कोविड के दौरान हमने 3000 रिपोर्ट, 7000 रक्त के नमूने एकत्र किए। साथ ही 500 सीटी स्कैन और 1100 घरेलू संग्रह दैनिक आधार पर किया। अपनी नई दरों के साथ, वे अन्य ऑफ़लाइन ब्रांडों की तुलना में न केवल सबसे किफायती हैं, बल्कि ऑनलाइन दिग्गजों की तुलना में भी सबसे किफायती हैं।
जीवन है तो परेशानी है, मन की उलझनें हैं और जरूरी होता है कि कोई हमारे मन की बात को समझे, हमें सुनें और समाधान बताये। मनोचिकित्सक पीहू पापिया सुलझाएंगी आपके मन की उलझनें। तो आप अपनी समस्या हमें भेज दें ..और हम करेंगे इन पर बात पीहू के साथ
लत या आदतें चाहे बुरी हो या अच्छी, एक दिन में तो बनती नहीं है। लगातार प्रयोग और अभ्यास के कारण आदतें बनती हैं। अच्छी लत तो यकीनन जीवन को संतुलित करती है और कामयाबी की ऊँचाइयों पर पहुंचाती है, वहीं बुरी आदतें दीमक की तरह जीवन को खोखला कर देती हैं। इसलिए जितनी जल्दी सजग होकर इन बुरी लतों से छुटकारा पाने की कोशिश की जाये, उतना ही श्रयस्कर होता है।
हमेशा से ही हमने शराब, बीड़ी और सिगरट आदि को बुरी लतों की सूची में शीर्ष पर रखा है। पर कोरोना काल ने कुछ नयी लतों को भी जन्म दिया है जिससे अब तक हम कुछ हद तक बचे हुए थे। मोबाइल क्रांति ने जहां पुरी दुनिया और ज्ञान दोनों को मुट्ठी में ला दिया है, वहीं पास की चीज़ों से कोसो दूर भी करने का काम किया है।
कोरोना के आशीर्वाद से दो साल घर की चाहरदीवारी में रहकर अधिकतर बच्चे, जवान, बुढ़े सभी मोबाइल, टीवी और गेमिंग के लतों का शिकार हो गयें हैं। बच्चे अब पढ़ाई के बाहर भी घंटों मोबाइल में घुसे रहते हैं। दुलार से या डाँट कर समझाने पर भी कोई असर नहीं होता। टीवी सीरियल के तो एक्सपर्ट बनते जा रहे हैं। और, गेमिंग ने तो दिमाग ही खराब कर रखा है, जो जुनून-सा बन गया है। यह सच बात है कि यह चीज़ें बुरी नहीं है, यह आज की दुनिया के आविष्कार और कुछ तो उपयोगी वस्तुएं हैं, परन्तु इनके अत्यधिक प्रयोग के कारण इनकी लत पड़ जाने के कारण बुरी चीज़ की संज्ञा दी जाने लगी है।
जैसे कोई भी लत या आदत डाली जा सकती है, तो बदली भी जा सकती है, जिसे कम्प्यूटर की भाषा में कहें तो इंस्टॉल और अनइंस्टॉल। बात हमारे मस्तिष्क से जुड़ी हुई है। जिस प्रकार रोग तो एक होता है पर हम उसका इलाज कई तरह से, यानि एलोपेथी, होमियोपेथी, आयुर्वेद आदि, से करते हैं, उसी प्रकार इन लतों से भी हम अपने ब्रेन पावर, वर्ड पावर, थोट पावर आदि से छुटकारा पा सकते हैं।
इस संबंध में “मिशन रख होसला” द्वारा कार्यशालाएं आयोजित की जा रही हैं। माइंड पावर का इस्तेमाल कर कुछ अनोखे तरीकों के माध्यम से अपनी लतों से छुटकारा पाने के लिए कार्यशाला में हिस्सा लें।
(पीहू पापिया शुभ सृजन नेटवर्क और शुभजिता के मेंटर ग्रुप की सदस्य हैं)
मन्नू भंडारी की पहली रचना कब पढ़ी थी, वह तो याद नहीं लेकिन इतना जरूर याद है कि जब बचपन से किशोरावस्था की यात्रा करते हुए मेरी रुचि हिंदी कथा -साहित्य की ओर जागृत हुई तो प्रेमचंद के अलावा जिन लेखिकाओं के साहित्य ने प्रभावित किया उनमें एक महत्वपूर्ण नाम मन्नू भंडारी जी का था। कॉलेज में पढ़ने लगी तो इनके नाम और रचनात्मक अवदान के चर्चें सुनाई देने लगे। कोलकाता के हिंदी अध्यापक और साहित्यकार इस गर्व बोध से भरे नजर आते थे कि मन्नू जी का कलकत्ते से प्रगाढ़ रिश्ता रहा। कहा जा सकता है कि उनके रचनात्मक व्यक्तित्व का गठन भी यहीं रहते हुए हुआ। पहली कहानी “मैं हार गई” (1956) यहीं रहते हुए छपी और इसी नाम से प्रथम कहानी संग्रह (1957) भी उनके कलकत्ता में रहते हुए ही राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। राजेन्द्र जी के साथ उनका प्रेम भी यहीं परवान चढ़ा। उस समय मन्नू जी बालीगंज शिक्षासदन ( वर्तमान में “द बी एस एस”) में हिंदी की अध्यापिका के रूप में कार्यरत थीं और राजेंद्र जी स्कूल की पुस्तकालय को संवारने तथा पुस्तकों का चयन करने के लिए नियुक्त किये गये थे। उनका विवाह इसी स्कूल के प्रांगण में संपन्न हुआ था और बिटिया टिंकू अर्थात रचना का जन्म भी इसी कलकत्ते में हुआ। स्कूल में अध्यापन के बाद उन्होंने कुछ अरसा रानी बिड़ला कॉलेज में भी अध्यापन -कार्य किया इसलिए कलकत्ते के लोगों का उन पर हक जताना स्वाभाविक ही है। बाद में मन्नू जी राजेन्द्र जी के साथ दिल्ली चली गईं लेकिन कलकत्ता के लोगों के दिलों में हमेशा बनी रहीं। मेरी एक मित्र हैं, रेणु गौरीसरिया जो बालीगंज शिक्षा सदन में मन्नू जी की शिष्या थीं और वर्षों उसी स्कूल में अध्यापन करने के बाद अवकाश ग्रहण कर चुकी हैं। रेणु दी के सामने मन्नू जी का नाम भर ले लो कि उनका चेहरा मन्नू जी के प्रति स्नेह और आदर की आभा से चमक उठता है, दिल -दिमाग में बसे अनंत किस्सों का दरवाजा खुल जाता है और वह उमगते हुए अपनी स्मृतियों को साझा करने लगती हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा “ज़करिया स्ट्रीट से मेफे़यर रोड” में भी मन्नू जी से जुड़े कई प्रसंगों को भावभीने ढंग से चित्रित किया है। ऐसा सिर्फ उनके साथ ही नहीं है बल्कि बहुत से लोग, वे लेखक हों या साधारण पाठक अगर एक बार मन्नू भंडारी के संपर्क में आए, अब वह रचनात्मक हो या व्यक्तिगत, उनके सहज- सरल ओर स्नेहिल व्यक्तित्व के सम्मोहन से मुक्त नहीं हो सकते।
कह सकती हूँ कि मन्नू भंडारी के बारे में सुन- सुन कर ही उनके प्रति मन में श्रद्धा मिश्रित प्रेम ने स्थान बना लिया था। कॉलेज में पढ़ते समय स्कूल के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हुए उनकी किताबों में मन्नू जी की दो कहानियाँ पढ़ीं- “खोटे सिक्के” और “दो कलाकार”। संभवतः “रानी माँ का चबूतरा” भी उसी दौरान पढ़ी। स्वाभाविक रूप से इन कहानियों ने न केवल अपनी विषयवस्तु के कारण बल्कि बेहद सहज शैली और सरल भाषा के कारण भी प्रभावित किया। उस दौरान उनके दोनों उपन्यासों “आपका बंटी” (1971) और महाभोज (1979) की बड़ी चर्चा थी। “आपका बंटी” पढ़ने की सलाह तो अध्यापिकाएँ तपाक से देती थीं और स्वाभाविक ही था कि अपने महाविद्यालय के अति समृद्ध पुस्तकालय से लेकर यह उपन्यास मैंने पढ़ा । पढ़ते हुए बहुत बार मन तकलीफ से भर गया और आँसू छलक आए। ये आँसू उन आँसुओं से बिल्कुल अलग थे जो “गुनाहों का देवता” पढ़ते हुए उमड़े थे। कहा जाता है कि यह उपन्यास मोहन राकेश के जीवन से प्रेरित था और इस ने समाज को दिशा देने का काम किया। इसे पढ़ने के बाद न जाने कितने दंपतियों के बीच विवाह- विच्छेद इसलिए टल गये क्योंकि वे अपने बच्चों को बंटी की तरह अधर में झूलते नहीं देख सकते थे। बंटी का दुख तो सबने देखा, मन्नू जी की तारीफ भी की कि उन्होंने सैकड़ों परिवारों को टूटने से बचा लिया लेकिन मन्नू जी पीड़ा यह रही कि बंटी के दर्द के पीछे शकुन का दर्द छिप गया। उस पर पाठकों की निगाह उस तरह नहीं पड़ी जिस तरह लेखिका ने चित्रित किया था। विवाह टूटने से परिवार बिखरता है और बच्चे भटकाव का शिकार होते हैं लेकिन एक स्त्री, जिस पर तलाक थोप दिया जाता है किस तकलीफ से गुजरती है, इस सच की ओर भी मन्नू जी समाज के लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहती थीं। परिवार में जब दरकन इतनी ज्यादा हो जाती है कि उसका बना रहना मुमकिन नहीं होता तो टूटना ही बेहतर होता है। लेकिन टूटन की यह प्रक्रिया स्त्री को भी अंदर तक तोड़ देती है। शकुन की मानसिक उथल- पुथल और पीड़ा को मन्नू जी ने कुशलता से उकेरा है- “एक अध्याय था, जिसे समाप्त होना था और वह हो गया। दस वर्ष का यह विवाहित जीवन- एक अँधेरी सुरंग में चलते चले जाने की अनुभूति से भिन्न न था। आज जैसे एकाएक वह उसके अंतिम छोर पर आ गई है। पर आ पहुँचने का संतोष भी तो नहीं है, ढकेल दिए जाने की विवश कचोट-भर है। पर कैसा है यह छोर ? न प्रकाश, न वह खुलापन। न मुक्ति का एहसास। लगता है जैसे इस सुरंग ने उसे एक दूसरी सुरंग के मुहाने पर छोड़ दिया है- फिर एक और यात्रा- वैसा ही अंधकार, वैसा ही अकेलापन।” तकलीफ इस बात की भी है कि टूटने का सारा दोष स्त्री के सिर पर ही पड़ता है। उसे ही सुनना पड़ता है कि वह अपने पति को बाँध कर नहीं रख पाई। शकुन का चरित्र गढ़ते हुए मन्नू जी ने उसे आम पारंपरिक औरतों से अलग गढ़ा। वह उसे आधुनिक दृष्टि से संपन्न नारी के रूप में गढ़ती हैं जो पुत्र की देखभाल को ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य ना मानकर अपनी खुशी और इच्छाओं के बारे में भी सोचती है और इसीलिए पुनर्विवाह का निर्णय लेती है। इसका एक कारण संभवतः पूर्व पति अजय को यह दिखाना भी था कि अगर वह उसे मीरा के लिए छोड़ सकता है तो शकुन भी डॉक्टर जोशी के साथ नयी जिंदगी की शुरुआत कर सकती है। वह नये वैवाहिक रिश्ते में अपने और बंटी के लिए खुशियाँ तलाशने की कोशिश करती है। लेकिन अपने इस निर्णय के लिए भी उसे लोगों की व्यंगपूर्ण दृष्टि का सामना करना पड़ता है। फूफी तो उसके मुँह पर ही कहती है- “जवानी यों ही अंधी होती है बहूजी, फिर बुढ़ापे में उठी हुई जवानी। महासत्यानाशी ! साहब ने जो किया तो आपकी मिट्टी- पलीद हुई और अब आप जो कर रही हैं, इस बच्चे की मिट्टी पलीद होगी। चेहरा देखा है बच्चे का ? कैसा निकल आया है, जैसे रात दिन घुलता रहता हो भीतर ही भीतर।” हालांकि इस विवाह के बावजूद न शकुन को खुशी मिलती है न बंटी को। शकुन तो परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती भी है लेकिन बंटी असुरक्षा बोध से घिरकर, मानसिक उथल-पुथल से भरकर पिता के पास भेजा जाता और फिर वहाँ भी सामंजस्य न बिठा पाने के कारण अंततः छात्रावास भेजा जाता है। उपन्यास के इस कारुणिक अंत ने तो बहुत से परिवारों को बिखरने से बचा लिया लेकिन स्वयं मन्नू जी ने अपने परिवार को बचाए रखने के वर्षों के प्रयास के बाद खुद ही उसे तोड़ने का निर्णय लिया था। यह बात और है कि तब तक काफी देर हो चुकी थी। पारिवारिक दायित्वों के प्रति राजेंद्र जी का असहयोगात्मक आचरण और वर्षों तक किया गया मानसिक उत्पीडन, जो शारीरिक हिंसा से कई गुना ज्यादा घातक होता है, ने मन्नू जी के मन पर गहरा आघात किया था। उनकी रचनात्मकता को क्षति पहुँचाई थी और एक लेखक के लिए सृजन न कर पाने की पीड़ा असहनीय होती है। संभवतः इसी पीड़ा ने उन्हें उस स्नायु रोग की ओर ढकेला जिसने अंततः उनकी जान ले ली। ओमा शर्मा ने उनसे की गई बातचीत में जो “मेरे साक्षात्कार” ( 2015) में संकलित है, जब उनसे उनके दुखों के बारे में पूछा तो मन्नू जी का जवाब उनकी व्यथा को बयान करने के लिए काफी है- “न लिख पाने का दुख है। और वैसे कहूँ तो राजेंद्र ने मुझे बहुत दुख दिए हैं। बहुत रातें मैंने रोकर काटी हैं। इतने तनाव में रही हूँ।….इस बीमारी का मुख्य कारण तनाव ही बताया जाता है। मैं राजेंद्र से कहती भी हूँ कि आपने मुझे और कुछ दिया हो या न दिया हो, यह बीमारी जरूर दे दी है।”
बाद में मैंने उनका उपन्यास “महाभोज” भी पढ़ा और ढेरों कहानियाँ भी। “महाभोज” के यथार्थ चित्रण ने दिमाग को सुन्न कर दिया। भ्रष्टाचार से घिरी राजनीतिक व्यवस्था में कहीं कोई आशा की किरण दिखाई नहीं देती। भारतीय राजनीति पर छाए कृष्ण पक्ष की कथा बड़ी कुशलता और सघनता के साथ ही विश्वसनीयता के साथ मन्नू जी ने लिखी। मूल्यहीनता भारतीय राजनीति में नये मूल्यबोध के रूप में स्थापित हो रही है और मूल्यों की बात करने वालों को या तो बिसेसर की तरह जहर दे दिया जाता है, बिंदा की तरह जेल में ठूंस दिया जाता है, सक्सेना की तरह सस्पेंड कर दिया जाता है या फिर लोचन की तरह बिल्कुल अलग -थलग कर दिया जाता है और आम जनता रुक्मा की तरह रुदन करती रहती है। भारतीय राजनीति के विकास की गौरवगाथा (?) में सांसदों और मंत्रियों के खरीद- फरोख्त के ढेरों किस्से हमने पिछले कुछ वर्षों में खूब पढ़े और सुने। अपने इस उपन्यास में इस तरह की घटनाओं का यथार्थ चित्रण करते हुए मन्नू जी ने इस ओर संकेत किया है कि आगामी वर्षों में राजनीति कितनी अधिक भ्रष्ट और दूषित होने वाली है और वर्तमान समय में यह साफ नजर आ रहा है। गीतापाठी तथाकथित धार्मिक नेता दा साहब किसी गिद्ध की तरह जनता की आशाओं, आकांक्षाओं यहाँ तक कि उनके जीवन तक की बलि चढ़ाकर किस तरह अपनी महत्वाकांक्षाओं का महाभोज संपन्न करते हैं, इसका मर्मस्पर्शी चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। विषयवस्तु के नयेपन और वर्णन शैली की जीवंतता ने न केवल पाठकों को प्रभावित किया बल्कि साहित्यिक हलके में भी उनके व्यक्तित्व को नई ऊंचाइयाँ प्रदान की। घर- परिवार और समाज की सीधी- सरल कहानियाँ कहने वाली लेखिका के रूप में जानी जाने वाली मन्नू जी की स्वीकृति नये रूप में हुई। राजेन्द्र यादव प्रेमी आलोचकों ने उनके व्यक्तित्व को हमेशा राजेन्द्र जी से कम करके आंका लेकिन आम पाठकों की बात करें तो मन्नू भंडारी हमेशा उनके हृदय के अधिक निकट रही हैं। उनकी रचनाएँ अपनी जीवंतता और रवानी में पाठकों को सहजता से बाँध लेती हैं। इस उपन्यास का नाट्य रूपांतरण उन्होंने स्वयं किया जो 1983 में प्रकाशित हुआ। इसका मंचन पहली बार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली के रंग-मंडल ने मार्च 1982 में किया और देश भर में अब तक इसके कई सफल मंचन हो चुके है। प्रसिद्ध रंगकर्मी ऊषा गांगुली जी ने भी कलकत्ते में इस नाटक का सफल मंचन किया।
“एक इंच मुस्कान” जिसे लेखक दंपति ने प्रयोग के तौर पर मिलकर लिखा था में भी मन्नू जी के अध्याय अधिक स्वाभाविक और पठनीय बन पड़े हैं और इस तथ्य को स्वयं राजेंद्र जी ने अपने लेखकीय वक्तव्य में स्वीकार किया है। हालांकि यह प्लॉट भी मन्नू जी का ही था जिसे इस प्रयोग के लिए राजेंद्र जी ने चुन लिया था और मन्नू जी को समझा- बुझा कर राजी भी कर लिया था। यह बात और है कि मन्नू जी को इसका कोई मलाल नहीं रहा। एक प्रेम त्रिकोण जो जितना काल्पनिक था उतना ही सच, की दुखांत कथा इस प्रयोगधर्मी उपन्यास में अत्यंत सशक्त ढंग से अभिव्यक्त हुई है।
मन्नू जी की कहानियों की बात करें तो “एखाने आकाश नाई”, “स्त्री सुबोधिनी”, “ईसा के घर इंसान”, “एक प्लेट सैलाब”, “सजा”, “नायक खलनायक विदूषक” समेत उनकी तकरीबन सभी कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं और सबने अपना अलग -अलग प्रभाव डाला है। कामकाजी औरतों की दुनिया से हमारा प्रथम परिचय मन्नू जी ही करवाती हैं। हालांकि उनकी रचनाएँ नारीवाद का झंडा बुलंद नहीं करती लेकिन नारी के अंतर्मन की पड़ताल गंभीरतापूर्वक करती हुई, उनके संघर्षों से हमें परिचित करवाती हैं और सहजता लेकिन गंभीरता के साथ उसकी निसंगता, अकेलेपन के साथ ही उसके जीवन की चुनौतियों को भी सामने रखती हैं। “यही सच है” की दीपा दो शहरों और दो प्रेमियों के बीच झूलती हुई अंततः अपने सच को स्वीकार कर लेती है तो “स्त्री सुबोधिनी” की नैरेटर कामकाजी स्त्रियों की महत्वाकांक्षाओं, आशाओं और टूटन को सामने रखती हुए अपनी बहनों को जीवन के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र सौंपती है जिससे वे गुमराह और प्रताड़ित होने से बच जाएँ। उनकी कहानियों में हास्य और व्यंग का पुट भी सहजता से लक्षित किया जा सकता है। “अकेली” कहानी के माध्यम से सोमा बुआ के अकेलेपन और समाज से जुड़ने की ललक की कथा कहनेवाली मन्नू जी ने “सयानी बुआ” की कथा में सयानी बुआ के सयाने स्वभाव का वर्णन बहुत रोचक और विनोदपूर्ण ढ़ंग से किया है। “त्रिशंकु” में तो वह तथाकथित आधुनिकता पर बड़ी सरसता से व्यंग्य करती हैं और प्रकारांतर से अपनी ही पीढ़ी को सवालों के घेरे में खड़ा करती हैं। “तीसरा हिस्सा” के तथाकथित प्रगतिशील शेरा बाबू के माध्यम से वह कुंठित मर्दवादी मानसिकता को चित्रित करती हैं। यह कहानी इस मायने में थोड़ी भिन्न है कि पुरूष की स्त्रियों के प्रति सोच को बेबाकी से सामने लाती है। पत्रिका निकाल कर क्रांति का दंभ पालने वाले शेरा बाबू भी सफल स्त्री के बारे में यही सोच रखते हैं- ” ऊँचे ओहदों पर पहुँचने के लिए दो ही लियाकत होनी चाहिए औरत में। – बड़े बाप की बेटी या अफसर संग लेटी।” और ऐसी मानसिकता महज शेरा बाबू की नहीं बहुत से पुरुषों की है जो आधुनिकता की ऊपरी खोल के बावजूद बेहद संकीर्ण और रुढिवादी होते हैं। ऐसे पाखंडी लोगों को मन्नू भंडारी साहस के साथ अपनी रचनाओं में बेनकाब करती हैं। उनकी अंतिम दो कहानियाँ ‘हंस’ के जनवरी (2022) अंक में प्रकाशित हुई हैं जिनमें “सीढियों पर बैठी लड़की” नामक कहानी में उन्होंने अपने माँ के जीवन में घटी घटनाओं के हवाले से पूरी स्त्री जाति के प्रति हुए अन्याय और शोषण को क्षोभ के साथ व्यक्त किया है। क्षोभ के साथ दुख भी है कि बेटी जिसे शोषण समझकर आक्रोश से भर उठती है, माँ के लिए वे बातें बिल्कुल सहज हैं। पितृसत्ता स्त्री की मानसिक संरचना की बचनावट इस ढंग से करती है कि वह अपने साथ हुए शोषण की निशानदेही तक नहीं कर पाती। “गोपाल को किसने मारा” मानवीयता के मर जाने और संवेदनशीलता के पथरा जाने की कथा है। दो बेटों का पिता रामनिझावन बुढापे में अकेला पड़ जाता है क्योंकि बड़ा बेका गोविंदा बिजली का करंट लगने से मर जाता है और छोटा गोपाल पसरते बाजार की बाजारू आधुनिकता के फेर में पड़कर अपनी आत्मा और विवेक को कुचल देता है। कहानी में उठाया गया सवाल पाठकों की चेतना को झकझोर कर रख देता है। मन्नू भंडारी की सशक्त सृजन शक्ति का ठोस उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, दोनों कहानियाँ। साथ ही यह सिद्ध भी करती हैं कि उनकी रचनात्मक क्षमता चुकी नहीं थी, बीमारियों ने उसे कुछ समय के लिए मंद जरूर कर दिया था।
“एक कहानी यह भी” के माध्यम से जब मन्नू जी अपनी कथा सबको सुनाने का निर्णय लेती हैं तब भी वह बहुत उघाड़ने या औरों को सुनाने- समझाने की कोशिश करने की जगह अपने निजी जीवन और संघर्ष की कुछ झलकियाँ पाठकों के समक्ष रखती हैं। किसी को छोटा करके खुद को बड़ा करने की चाह उनके अंदर कहीं नजर नहीं आती। बेकार के आरोप- प्रत्यारोपों में उलझने के बजाय वह बड़ी सहजता और साफगोई से अपने जीवन के खट्टे- मीठे पलों को सबके साथ साझा करती हैं। साहित्य और जीवन के बीच की कड़ी को जोड़ने या छोड़ने को लेकर उनके मन में दुविधा भी उठती है- “लेखन और साहित्य से हटकर अपने निजी जीवन की त्रासदियों भरे ‘पूरक प्रसंग’ को लेखकीय जीवन पर केंद्रित अपनी इस कहानी में सम्मिलित किया जाए या नहीं, इस दुविधा ने कई दिनों तक मुझे परेशान रखा। अपने कुछ घनिष्ठ मित्रों से सलाह ली और उनके आग्रह पर अंततः इसे सम्मिलित करने का निर्णय ही लिया।” और उन्हीं के शब्दों में कहें तो “पूरी आवेगहीन तटस्थता” के साथ उन्होंने अपना निजी जीवन भी एक कहानी की तरह पाठकों के समक्ष रख दिया और निर्णय का अधिकार पाठकों पर ही छोड़ दिया। लेकिन मर्दवादी आलोचक मन्नू जी पर यह आरोप लगाने से नहीं चूके कि उन्होंने एक स्त्री होने के नाते दूसरी स्त्री अर्थात मीता की व्यथा को नहीं समझा और उसके दुख दर्द को अपनी कथा में पिरोकर उसे असाधारण बनाने से चूक गईं। इसका सम्यक उत्तर तो मन्नू जी ने अपने साक्षात्कार में दिया ही है, राजेंद्र जी के साथ हुए इस वार्तालाप का ब्योरा भी दिया है- “एक बार मैंने राजेंद्र जी से पूछा था कि जैसा आपने किया, वैसा ही अगर मैं करती…तो क्या आप बर्दाश्त करते। वे कुछ देर चुप रहे, फिर कहा, ‘नहीं, मैं बर्दाश्त नहीं कर पाता।” मन्नू जी का साहित्य ही नहीं जीवन भी स्त्रियों के प्रति हुए अन्याय का गवाह है। समाज और साहित्य दोनों में स्त्रियों के प्रति दोयम दरजे का व्यवहार होता है लेकिन आशा यही कि जाती है कि वे दया, सद्भावना और त्याग की प्रतिमूर्ति बनी रहेंगी। मन्नू जी ने भी यह सब कम नहीं झेला।
दूरदर्शन के बहुचर्चित धारावाहिक “रजनी” समेत कई लोकप्रिय धारावाहिकों और फिल्मों की पटकथा मन्नू जी ने लिखी और दो नाटकों- “बिना दीवारों के घर” तथा “उजली नगरी चतुर राजा” (2013) की रचना भी की है। नाटककार के रूप में तो इनकी बहुत अधिक चर्चा नहीं होती लेकिन पटकथा लेखक के तौर पर ये काफी सफल रहीं। “कथा-पटकथा” (2003) जिसमें विभिन्न भाषाओं की कुल आठ कहानियाँ और उनपर केंद्रित मन्नू जी द्वारा लिखित पटकथाएँ संकलित हैं, में सशक्त फिल्म निर्देशक और पटकथा लेखक बासु चटर्जी जिन्होंने उनकी कहानी “यही सच है” पर “रजनीगंधा” नाम से एक सफल ओर चर्चित फिल्म बनाई थी, ने इनकी लेखन प्रतिभा का आकलन करते हुए लिखा है – “मन्नू भंडारी एक प्रसिद्ध लेखिका हैं और उन्हें साहित्यिक कृतियों के फिल्मांतरण और बारीकियों की जबर्दस्त समझ है। अपने उपन्यास महाभोज का नाट्य रूपांतरण करके भी उन्होंने इसे सिद्ध कर दिया है।”
दरअसल मन्नू भंडारी होने का मतलब नई कहानी आंदोलन का एक सशक्त और सहज स्तंभ होना तो है ही जिनकी स्वीकृति और छाप जितनी साहित्य की किताबों में है, उतनी ही आम पाठकों के दिलों दिमाग पर है। आधुनिक नारी की समस्याओं को सफलतापूर्वक अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य के केंद्र में लाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। नई कहानी आंदोलन की एकमात्र स्त्री हस्ताक्षर होने के साथ ही वह स्त्री मन की प्रतिनिधि रचनाकार भी थीं और बच्चों तथा किशोरों के लिए भी उन्होंने खूब लिखा। उनकी रचनाओं को पढ़ने के लिए किसी शब्दकोश का सहारा नहीं लेना पड़ता और न ही किसी शिल्पगत चमत्कार से गुजरना होता है। जीवन की तरह सहज लेकिन सच्ची रचनाओं की रचयिता मन्नू भंडारी का स्थान और प्रभाव शब्दों की दुनिया में हमेशा कायम रहेगा। उनकी रचनाएँ हमें किसी जादुई लोक की सैर नहीं करातीं बल्कि इसी लोक के हाड़ मांस से गढ़े सच्चे पात्रों की कथा साफगोई से कहती हैं हैं। मन्नू जी अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार करती हैं -“मैंने उन चीजों पर लिखा है जो या तो मेरे साथ हुई हैं या मेरे अनुभव का हिस्सा रही हैं।” संभवतः यही कारण है कि इनकी रचनाओं में इतनी सहजता और विश्वसनीयता है।
सहिष्णुता, सौहार्द, समरसता ऐसे शब्द हैं जो किसी भी समाज और देश को मजबूत बनाते हैं। यह तब होता है कि वह देश या समाज अपनी नीतियों को निष्पक्षता के साथ निर्मित और लागू करे। समस्या तब होती है जब समरसता के नाम पर दो अलग – अलग मतों को जबरन साथ लाने का प्रयास किया जाता है या एक को दबाकर, दूसरे को महत्वहीन बना दिया जाता है। सत्य को ढकने या लीपापोती करने के परिणाम घातक होते हैं। यह सब हालिया घटनाओं को देखते हुए कहना पड़ रहा है। दो अलग – अलग विचारधाराओं के लोग अपनी अस्मिता के साथ अलग रहकर भी सौहार्द के साथ रह सकते हैं क्योंकि तब उन दोनों का अपना अस्तित्व होगा, पहचान सुरक्षित रहेगी। सारी समस्याओं की जड़ असुरक्षा का बोध होता है। तुष्टीकरण की राजनीति ने इसे मजबूत किया है और नतीजा है हमारे आस – पास होने वाली हिंसक घटनाएं।
ऐसी परिस्थिति में आम आदमी को ही इन परिस्थितियों के बीच उस धागे को सहेजना होगा मगर इसके लिए कदम दोनों ओर से उठाने होंगे, तभी कुछ हो सकता है। अगर आपको यह गलतफहमी है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी या कोई भी संगठन आपके विश्वास की रक्षा के लिए सड़क पर उतर रहा है तो यह सम्भल जाने का समय है। एक दूसरे की रक्षा के लिए अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर आगे बढ़ने की जरूरत है। ओवेसी हों या राज ठाकरे हों, महबूबा मुफ्ती हों, सबकी अपनी राजनीति है, अपने हथकंडे हैं और इन सबके बीच हम हैं। बस इतनी सी बात समझने की जरूरत है कि न तो हनुमान को अजान से दिक्कत है और न अजान को राम नवमी की यात्रा से…क्योंकि रास्ते अलग हो सकते हैं मगर लक्ष्य तो वही एक है ईश्वर…ईश्वर सत्य देखता है, प्रपंच नहीं..। हमारा धर्म, हमारा मजहब..सब एक ही होने चाहिए भारत…मानवता…और कुछ नहीं।
मुंबई । इंडी पॉप गायक तरसामे सिंह सैनी का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। वह 54 वर्ष के थे। सैनी ‘ताज’ कनाम से मशहूर थे। उनके एक पारिवारिक मित्र के अनुसार, कोविड-19 से पीड़ित होने के बाद सैनी को हर्निया हुआ था और तभी से वह अस्वस्थ थे।
उनके पारिवारिक मित्र ने पीटीआई-भाषा से कहा, “कोविड से पीड़ित होने से पहले उन्हें हर्निया हुआ था लेकिन लॉकडाउन के कारण उन्हें अस्पताल में बिस्तर नहीं मिला। इसके बाद मार्च में वह कोमा में चले गए थे। कोमा से वापस आने के बाद भी वह ठीक नहीं हुए थे। शुक्रवार को अस्पताल में उनका निधन हो गया।”
भारतीय मूल की ब्रिटिश फिल्मकार गुरिंदर चड्ढा ने ताज के निधन की खबर साझा की और कहा कि उनका “दिल टूट गया।” नब्बे के दशक के एक अन्य लोकप्रिय कलाकार बल्ली सागू ने भी ताज के निधन पर शोक व्यक्त किया। विख्यात गायक अदनान सामी ने कहा कि ताज के निधन की खबर सुनकर कहा कि वह स्तब्ध हो गए।
नयी दिल्ली । जनरल मनोज पांडे ने शनिवार को जनरल एम.एम. नरवणे के सेवानिवृत्त होने के बाद 29वें थलेसना प्रमुख के तौर पर पदभार संभाल लिया। उप थलसेना प्रमुख के तौर पर सेवाएं दे चुके जनरल पांडे बल की इंजीनियर कोर से सेना प्रमुख बनने वाले पहले अधिकारी बन गए हैं। एक फरवरी को थल सेना का उप-प्रमुख बनने से पहले वह थल सेना की पूर्वी कमान का नेतृत्व कर रहे थे। इस कमान पर सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश सेक्टर में वास्तविक नियंत्रण रेखा की रक्षा की जिम्मेदारी है।
जनरल पांडे ने ऐसे समय में थल सेना की कमान संभाली है, जब भारत चीन और पाकिस्तान से लगी सीमाओं पर चुनौती सहित असंख्य सुरक्षा चुनौतियों का सामना कर रहा है। सेना प्रमुख के रूप में, उन्हें थिएटर कमांड को तैयार करने की सरकार की योजना पर नौसेना और वायु सेना के साथ समन्वय करना होगा।
भारत के पहले प्रमुख रक्षा अध्यक्ष जनरल बिपिन रावत थिएटर कमांड तैयार करने पर काम कर रहे थे, जिनका पिछले साल दिसंबर में हेलीकॉप्टर दुर्घटना में निधन हो गया। सरकार ने अभी नया प्रमुख रक्षा अध्यक्ष नियुक्त नहीं किया है।लेफ्टिनेंट जनरल पांडे अपने करियर के दौरान अंडमान निकोबार कमान के प्रमुख के तौर पर भी काम कर चुके हैं। अंडमान निकोबार कमान भारत में तीनों सेनाओं की एकमात्र कमान है।
पांडे राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के पूर्व छात्र हैं और उन्हें दिसंबर 1982 में कोर ऑफ इंजीनियर्स (द बॉम्बे सैपर्स) में शामिल किया गया था। उन्होंने अपने बेहतरीन करियर में कई अहम पदों पर काम किया और विभिन्न इलाकों में आतंकवाद रोधी अभियानों में भाग लिया। उन्होंने जम्मू कश्मीर में ऑपरेशन पराक्रम के दौरान नियंत्रण रेखा के पास एक इंजीनियर रेजिमेंट की कमान संभाली। इसके अलावा उन्होंने पश्चिमी लद्दाख के ऊंचाई वाले इलाकों में एक पर्वतीय डिवीजन और पूर्वोत्तर में एक कोर की भी कमान संभाली।
माउंटेन व्यू (अमेरिका) । सर्च इंजन गूगल ने ऑनलाइन व्यक्तिगत जानकारी को निजी रखने के लिए नए विकल्प पेश किए हैं। कम्पनी ने गत शुक्रवार को कहा कि अब लोग व्यक्तिगत संपर्क जानकारी जैसे फोन नंबर, ईमेल और भौतिक पते को खोज परिणामों से हटाने के लिए अनुरोध कर सकेंगे।
नयी नीति ऐसी अन्य जानकारी को भी हटाने की अनुमति देती है, जिससे कि निजी जानकारी के सार्वजनिक होने का खतरा है जैसे कि गोपनीय ‘लॉग-इन क्रेडेंशियल’। ये ‘लॉग-इन क्रेडेंशियल’ उपयोगकर्ताओं को इंटरनेट पर ऑनलाइन खातों को लॉग-इन करने और उनकी पहचान सत्यापित करने में सक्षम बनाते हैं।
कम्पनी ने एक बयान में कहा कि सूचना तक स्वतंत्र पहुंच महत्वपूर्ण है, ‘‘ लेकिन साथ ही लोगों को उन उपकरणों के साथ सशक्त बनाना भी जरूरी है, जिनकी जरूरत उन्हें अपनी संवेदनशील, व्यक्तिगत पहचान संबंधी जानकारी की रक्षा करने के लिए है।’’
बयान में कहा गया, ‘‘ गोपनीयता और ऑनलाइन सुरक्षा साथ-साथ चलती है। इसलिए जब आप इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं तो यह जरूरी है कि आपकी संवेदनशील, निजी पहचान संबंधी जानकारी तक कैसे पहुंचा जा सकता है, यह नियंत्रण आपके पास हो।’’
‘गूगल सर्च’ ने इससे पहले लोगों को ऐसी व्यक्तिगत सामग्री हटाने के लिए अनुरोध करने की अनुमति भी दी थी, जिसके सार्वजनिक होने से उन्हें प्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुंच सकता है। इसमें ‘डॉक्सिंग’ के कारण निजी जानकारी हटाने और धोखाधड़ी से बचने के लिए बैंक खाता या क्रेडिट कार्ड नंबर जैसे व्यक्तिगत विवरण हटाने के लिए अनुरोध किया जा सकता है।
‘डॉक्सिंग’ से तात्पर्य, विशेष रूप से दुर्भावनापूर्ण इरादे से इंटरनेट पर किसी विशेष व्यक्ति के बारे में निजी या पहचान संबंधी जानकारी खोजना और प्रकाशित करना है।
कम्पनी ने कहा कि इस तरह की जानकारियां कई अप्रत्याशित मंचों पर दिखने लगती हैं और इनका कहीं तरीकों से इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए नीतियों को बदलने की जरूरत है। व्यक्तिगत संपर्क जानकारी के ऑनलाइन उपलब्ध होने से खतरा उत्पन्न हो सकता है। गूगल ने कहा कि ऐसी सामग्री हटाने के वास्ते विकल्प देने के लिए उनसे कई अनुरोध किए गए थे।
नयी दिल्ली । कृषि व्यापार मंच पोषण ने कारोबार के विस्तार और भविष्य की वृद्धि के लिए प्राइम वेंचर पार्टनर्स सहित विभिन्न निवेशकों से 28.8 करोड़ रुपये जुटाए हैं। पोषण कृषि उत्पादों के क्रेता-विक्रेताओं को ऑनलाइन व्यापार की सुविधा उपलब्ध कराता है। इसके साथ ही यह वस्तुओं के थोक व्यापार को सुगम बनता है और जिंसों के थोक कारोबार के लिए कई तरह की सेवाएं प्रदान करता है। कंपनी ने ई-कॉमर्स, आधुनिक व्यापार और सामान्य व्यापार में 100 से अधिक थोक विक्रेताओं के साथ भागीदारी की है।
कंपनी ने एक बयान में कहा, ‘पोषण ने प्राइम वेंचर पार्टनर्स के नेतृत्व में शुरुआती वित्तपोषण के रूप में 28.8 करोड़ रुपये जुटाए हैं। वित्तपोषण के इस दौर में जेफायर पीकॉक ने भी भाग लिया।’’ पोषण के सह-संस्थापक शशांक सिंह ने कहा, ‘‘हम प्रसंस्कृत कृषि क्षेत्र के साथ-साथ थोक खरीद क्षेत्र में भी एक बड़ा अवसर देखते हैं।‘’
नयी दिल्ली । केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर और सीमाशुल्क बोर्ड (सीबीआईसी) ने अपने फील्ड अधिकारियों से कहा है कि वे ऑक्सीजन से संबंधित उपकरणों के आयातकों को सीमाशुल्क से छूट से सिर्फ इसलिए इनकार नहीं करें, क्योंकि वे पिछले साल कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के दौरान आयात प्रक्रिया का पालन नहीं कर रहे थे।
सीबीआईसी ने कहा कि छूट प्राप्त कर दर पर वस्तुओं के आयात (आईजीसीआर) की शर्तों का अनुपालन नहीं करने का विषय इस तरह के उपकरणों के आयात के ऑडिट और सत्यापन के दौरान सामने आया।
सीबीआईसी ने अपने फील्ड अधिकारियों को दिए निर्देश में कहा कि कोविड-19 महामारी की असामान्य परिस्थिति के चलते आपात जरूरत के आधार पर मेडिकल ऑक्सीजन से संबंधित उपकरणों के कलपुर्जों का आयात किया गया और कई बार अस्पतालों या अन्य संस्थानों के परिसरों में इन्हें जोड़कर उपकरण तैयार किए गए।
देश के सामने बनी राष्ट्रीय चिकित्सा आपात स्थिति पर विचार करते हुए और इय अत्यंत असामान्य परिस्थिति के कारण संभवत: आयातक आईजीसीआर के कुछ प्रक्रियात्मक पहलुओं का पालन नहीं कर सके।
सीबीआईसी ने कहा, ‘‘इन उपकरणों के आयात की परिस्थितियों को देखते हुए छूट के लाभ से महज इसलिए इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।’’
गर्मी में पेड़ पौधे तेज धूप से सूखने लगते हैं। ऐसे में पौधों की सही देखभाल करना जरूरी है। इनडोर प्लांट्स लगाने से घर में धूल-गंदगी कम होती है और प्रदूषण से भी राहत मिलती है। हालांकि इन प्लांट्स की सही देख-भाल करना भी जरूरी है। गर्मियों में पानी की कमी से पौधे सूखने लगते हैं। ऐसे में अगर आपके घर में रखे पौधे भी सूख रहे हैं तो इन बातों का ख्याल रखें. इससे आपके इन डोर प्लांट्स एकदम हरे-भरे रहेंगे।
अगर पौधों पर धूल या ग्रीस जम गई है तो किसी मुलायम कपड़े से पत्तियों की सफाई करें। आप कपड़े को पानी में भिगोकर इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके अलावा पत्तियों को पानी देने के लिए आप वाटर स्प्रे का भी इस्तेमाल कर सकती हैं।
समय समय पर पौधे में खाद और पानी लगाते रहें। इससे विकास के वक्त पौधों का सही विकास होगा और पेड़ हरे भरे रहेंगे। अगर मिट्टी की ऊपरी तरह सूख गई है और पत्तियां भूरे-स्लेटी रंग की दिख रही हैं तो इन्हें पानी जरूर दें। हां इस बात का भी ख्याल रखें कि जरूरत से ज्यादा पानी देने पर भी पौधे मर जाते हैं।
तेज धूप में पौधों को भी सनबर्न हो सकता है इसलिए ध्यान रखें कि पौधे को ज्यादादेर तक धूप में न रखें। कुछ लोग खिड़की के पास इंडोर प्लांट्स को रख देते हैं जिससे पौधे को धूप मिलती रहे लेकिन गर्मी में धूप बहुत तेज होती है जो प्लांट को जला सकती है।
अगर आपका पौधा ठीक से विकसित नहीं हो पा रहा है और मुरझा रहा है तो समझिए पौधा तनावग्रस्त हैं। ऐसे समय में पौधे को फर्टिलाइज्ड नहीं करना चाहिए। जब तक पौधा पूरी तरह से ठीक न हो जाए खाद नहीं डालनी चाहिए।
अगर पौधे पर कीड़े लगे हों तो तुरंत इसका इलाज करें। किसी भी ऑर्गेनिक पेस्टिसाइड से इसका इलाज करें. पौधों को स्वस्थ रखने के लिए प्रकाश में रखें। प्लांट्स पर रोजाना वाटर स्प्रे से दिन में 1-2 बार स्प्रे जरूर करें।