Thursday, December 11, 2025
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केंद्र की ओबीसी सूची से हटाई गईं बंगाल की मुस्लिम समुदाय की 35 जातियां

कोलकाता। केंद्र की पिछड़ा वर्ग राष्ट्रीय आयोग (एनसीबीसी) द्वारा पश्चिम बंगाल की मुस्लिम समुदाय की 35 जातियों को केंद्रीय ओबीसी सूची से हटाने के फैसले पर राजनीतिक विवाद तेज हो गया है। भाजपा ने बुधवार को कहा कि यह कदम साबित करता है कि राज्य में ममता बनर्जी सरकार ने वर्षों तक तुष्टिकरण की राजनीति की है, जिससे वास्तविक रूप से पिछड़े हिन्दू वर्ग अपने उचित अधिकारों से वंचित रहे। यह जानकारी समाज कल्याण एवं अधिकारिता मंत्रालय के राज्य मंत्री बी. एल. वर्मा ने संसद में एक असितारांकित प्रश्न के लिखित उत्तर में दी है। यह प्रश्न नदिया जिले के रानाघाट से भाजपा सांसद जगन्नाथ सरकार ने पूछा था। मंत्री के उत्तर में कहा गया है कि पश्चिम बंगाल राज्य के लिए केंद्रीय ओबीसी सूची से 35 जातियों को बाहर करने की सलाह पिछड़ा वर्ग राष्ट्रीय आयोग ने 03.01.2025 को दी थी। इस फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए भाजपा के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के प्रमुख और पश्चिम बंगाल के केन्द्रीय पर्यवेक्षक अमित मालवीय ने कहा कि धार्मिक समुदायों को ओबीसी समूहों में शामिल कर वोट बैंक मजबूत करने की राजनीति वर्षों से चलती रही है, जिसका खामियाज़ा वास्तविक रूप से पिछड़े हिन्दू समुदायों को भुगतना पड़ा। मालवीय ने कहा कि मोदी सरकार तुष्टिकरण आधारित विकृतियों को सुधार रही है और यह सुनिश्चित कर रही है कि सामाजिक न्याय केवल वास्तविक पिछड़ेपन के आधार पर मिले, न कि वोट बैंक की राजनीति के आधार पर। ममता बनर्जी की राजनीति अब पुरानी पड़ चुकी है। इधर, पश्चिम बंगाल ओबीसी सूची के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सुनवाई चार सप्ताह के लिए स्थगित कर दी थी और साफ कहा था कि जब तक मामला शीर्ष अदालत में लंबित है, तब तक कलकत्ता हाई कोर्ट इस पर कोई और कार्यवाही नहीं करेगा। इस वर्ष 17 जून को हाई कोर्ट की खंड पीठ ने अंतरिम आदेश देते हुए राज्य सरकार को नई ओबीसी सूची की अंतिम अधिसूचना 31 जुलाई तक प्रकाशित नहीं करने का निर्देश दिया था।

शिमला में तीन दोस्तों ने पहाड़ काटकर बनाया खेल मैदान

– अब क्रिकेट स्टेडियम की तैयारी

शिमला । हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में वर्षों से युवाओं को अच्छी क्रिकेट सुविधाओं का इंतजार था, लेकिन इस कमी ने तीन युवाओं बिनू दीवान, अजय और अभय को ऐसा प्रेरित किया कि उन्होंने असंभव दिखने वाले सपने को हकीकत में बदल दिया। कसुम्पटी विधानसभा क्षेत्र के पड़ेची गांव में 5,400 फीट की ऊंचाई पर बन रहा यह शानदार क्रिकेट स्टेडियम अपने आप में मिसाल है। प्राकृतिक खूबसूरती के बीच खड़ा यह मैदान आधुनिक सुविधाओं से लैस है और गुणवत्ता में किसी अंतरराष्ट्रीय स्तर के स्टेडियम से कम नहीं माना जा रहा। तीनों युवा शिमला के रहने वाले हैं और व्यवसायी हैं। तीनों का अपना-अपना अलग निजी व्यवसाय है। पहाड़ की कटिंग सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य करीब पांच-छह साल पहले शुरू हुई इस पहल को मुकाम तक पहुंचाना आसान नहीं था। इन्होंने पहले पहाड़ीनुमा निजी भूमि को खरीदा था। बिनू दीवान ने बताया कि 45 डिग्री से अधिक ढलान वाले पहाड़ को काटकर उसे खेल मैदान का आकार देना सबसे कठिन काम था। करीब 70 हजार टिप्पर मलबा पहाड़ से निकाला गया। जब काम शुरू हुआ, तब वहां मशीनरी ले जाने तक की सुविधा नहीं थी। तीनों युवाओं ने सबसे पहले सड़क बनाई, फिर लगभग 150 मीटर लंबी और 20 से 40 मीटर ऊंची मजबूत रिटेनिंग वॉल खड़ी की। इन दीवारों ने मैदान को सुरक्षित आधार दिया। लगभग 90 बीघा क्षेत्र में बने इस मैदान को समतल करते हुए 91 मीटर चौड़ा और 120 मीटर लंबा ग्रीन आउटफील्ड तैयार किया गया। चारों ओर बिछी सघन हरी घास और पूरी तरह लेवल मैदान इसे खेलने योग्य बनाते हैं। स्टेडियम का करीब 80 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है और क्रिकेटर्स यहां अभ्यास भी शुरू कर चुके हैं।

सरकारी परियोजना अटकी, युवाओं ने कर दिखाया कमाल – यह भी खास है कि जहां शिमला के कटासनी में सरकार 15 साल में भी इंडोर स्टेडियम पूरा नहीं कर सकी, वहीं तीन युवाओं ने बिना सरकारी बजट और निजी संसाधनों से सिर्फ चार साल में पहाड़ काटकर आधुनिक सुविधाओं वाला मैदान तैयार कर दिया। यही कारण है कि अब शिमला, सिरमौर, किन्नौर, सोलन, मंडी और बिलासपुर के युवा इस मैदान को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का महत्वपूर्ण मंच मान रहे हैं। धर्मशाला भले एक अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम हो, लेकिन हर युवा वहां नहीं पहुंच पाता। ऐसे में पड़ेची स्टेडियम पहाड़ी खिलाड़ियों के लिए उम्मीद की नई किरण साबित हो रहा है। अप्रैल 2026 में पड़ेची मैदान में होगा प्रो-एचपीसीएल क्रिकेट प्रेमियों के लिए एक बड़ा मौका तब आएगा जब हिमाचल प्रीमियर क्रिकेट लीग प्रो-एचपीसीएल का चौथा सीजन अप्रैल 2026 में इसी मैदान पर आयोजित होगा।

इससे पहले तीनों सीजन शिमला में मैदान न होने के कारण चंडीगढ़ में कराने पड़े थे। अब अपने मैदान में पहली बार इतने बड़े आयोजन का रोमांच देखने को मिलेगा। युवाओं के लिए बनेगा क्रिकेट स्कूल बिनू दीवान का अगला लक्ष्य इस मैदान में प्रोफेशनल क्रिकेट स्कूल शुरू करना है, ताकि पहाड़ी युवा खेल प्रशिक्षण लेकर बड़े स्तर पर अपनी पहचान बना सकें। उनका कहना है कि वे युवाओं को नशे और मोबाइल की लत से बाहर लाकर खेल के मैदान में लाना चाहते थे और यही सोच उन्हें इस मिशन तक लाई। पड़ेची स्टेडियम तक पहुंचना भी अब आसान हो गया है। शिमला से मेहली-अश्वनी खड्ड मार्ग से यह दूरी लगभग 11 किलोमीटर है, जबकि चायल रोड मार्ग से लगभग 35 किलोमीटर पड़ती है।

बंगाल में भी महंगी हुई शराब

-सरकार को चार हजार करोड़ की अतिरिक्त आय की उम्मीद

कोलकाता। राज्य सरकार की पूर्व घोषणा के अनुसार एक दिसंबर से पश्चिम बंगाल में शराब की कीमतों में बढ़ोतरी लागू हो गई है। नए नियम के तहत राज्य में नया आबकारी शुल्क प्रभावी हो गया है। पश्चिम बंगाल के आबकारी विभाग ने स्पष्ट किया है कि बीयर को छोड़कर देशी व विदेशी सभी तरह की शराब पर अतिरिक्त टैक्स लगाया गया है। आबकारी विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, नई नीति में 750 मिलीलीटर विदेशी शराब की बोतलें 30–40 रुपये तक महंगी हो गई हैं। वहीं 180 मिलीलीटर पैक पर 10 रुपये की वृद्धि की गई है। देशी शराब खरीदने पर भी उपभोक्ताओं को लगभग 10 रुपये अतिरिक्त चुकाने होंगे। विभाग ने शराब विक्रेताओं को पहले ही निर्देश दिया था कि उनके पास मौजूद पुराने स्टॉक को 30 नवंबर तक पुरानी कीमतों में बेच देना होगा। एक दिसंबर से पुराने स्टॉक समेत नया माल भी नई कीमतों पर ही बेचा जाएगा। इसके लिए प्रत्येक बोतल पर नई कीमत का स्टिकर लगाना अनिवार्य है।पुरानी कीमत पर शराब बेचते पकड़े जाने पर विक्रेता के खिलाफ जुर्माना, यहां तक कि लाइसेंस रद्द करने तक की सख्त कार्रवाई की जा सकती है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले चुनावों से पहले राज्य की राजस्व-आय बढ़ाने के उद्देश्य से ममता बनर्जी सरकार ने यह कदम उठाया है। प्रशासनिक अधिकारियों के एक वर्ग का कहना है कि इस बढ़ोतरी से 2025–26 वित्त वर्ष में करीब चार हजार करोड़ रुपये की अतिरिक्त राजस्व आय होने की संभावना है। राजनीतिक हलकों में यह भी चर्चा है कि बढ़े हुए राजस्व का उपयोग सरकार विकास योजनाओं में आवंटित कर सकती है। अगले साल चुनाव से पहले राज्य सरकार का अंतरिम बजट पेश होना है, जिसमें इस अतिरिक्त आय को विकास परियोजनाओं में खर्च करने की घोषणा की जा सकती है। यही वजह बताई जा रही है कि राज्य में शराब के दामों में वृद्धि की गई है।

सावधान ! नाबालिगों में भी मिले एचआईवी के वायरस

– मालदह जिले में तीन हजार से अधिक मरीज
-पश्चिम मेदिनीपुर में सात महीनों में एचआईवी के सौ से अधिक मरीज मिले
मालदह। मालदह जिले में एचआईवी पॉजिटिव और एड्स से पीड़ित लोगों की संख्या चिंताजनक रूप से बढ़ रही है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, वर्तमान में जिले में तीन हजार 100 संक्रमित मरीज दर्ज किए गए हैं। इनमें 300 नाबालिग शामिल हैं, जिनकी उम्र 15 वर्ष से कम है। जिले के मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. सुदीप्त भादुड़ी ने इस स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। स्वास्थ्य विभाग के अनुसार, मालदह के कई गांवों में काला ज्वर से कई लोगों की मौत हुई है। इनमें से बड़ी संख्या में मरीज एचआईवी पॉजिटिव पाए गए। यही नहीं, टीबी से पीड़ित कई मरीजों में भी एचआईवी संक्रमण की पुष्टि हुई है। टीबी से होने वाली मौतें अब भी जिले में जारी हैं, जिससे विभाग की चिंता और भी बढ़ गयी है। सोमवार को जिले के स्वास्थ्य विभाग ने बताया कि एचआईवी रोकथाम के लिए विशेष कदम उठाए गए हैं। इसके लिए चिकित्सकों की विशेष टीम बनाई गई है। गर्भवती महिलाओं में एचआईवी संक्रमण की पहचान होने पर उनके लिए विशेष देखभाल और निगरानी की व्यवस्था की जाएगी। बच्चों के लिए भी अलग उपचार योजना तैयार की गई है ताकि संक्रमण आगे न फैले। इसके साथ ही स्वास्थ्य विभाग ने बताया कि संवेदनशील क्षेत्रों में सख्त निगरानी बढ़ाई जा रही है। संक्रमण रोकथाम को ध्यान में रखते हुए लगातार मॉनीटरिंग की जा रही है। मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी ने कहा कि लोगों को जागरूक करने के लिए व्यापक अभियान चलाया जा रहा है। इसके लिए जिला प्रशासन, नगर पालिका और पंचायतों के साथ मिलकर जनजागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग की ओर से एक टैब्लो भी तैयार किया गया है, जो विभिन्न क्षेत्रों में घूमकर लोगों को जानकारी दे रहा है। अंत में अधिकारी ने कहा कि हमारा लक्ष्य केवल मरीजों को उपचार देना नहीं, बल्कि आने वाले समय में एक एड्स-मुक्त समाज का निर्माण करना है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले सात महीनों में केवल पश्चिम मेदिनीपुर जिले में ही एचआईवी संक्रमण के सौ से अधिक मामले सामने आए हैं। घाटाल, खडग़पुर और मेदिनीपुर सदर क्षेत्रों में इस बीमारी का प्रभाव अधिक देखा जा रहा है। जिला स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि गर्भवती महिलाओं में भी संक्रमण की दर चिंताजनक है। भले ही पिछले वर्षों की तुलना में मामलों की संख्या कुछ कम हुई है, फिर भी स्थिति को गंभीर माना जा रहा है। स्वास्थ्य विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल से अक्टूबर 2025 के बीच कुल 32 हजार 453 लोगों की जांच की गई। इनमें से 106 लोगों में एचआईवी संक्रमण पाया गया। अधिकांश संक्रमित मरीज वर्तमान में उपचाराधीन हैं। इसी अवधि में चार हजार 720 गर्भवती महिलाओं की जांच की गई, जिनमें 13 महिलाएं एचआईवी पॉजिटिव पाई गईं, जबकि छह महिलाएं सिफिलिस से संक्रमित मिलीं। वित्त वर्ष 2024–25 में डेबरा में 16, घाटाल में 24, खडग़पुर में 28 और मेदिनीपुर मेडिकल कॉलेज में 73 संक्रमित मरीज मिले थे। वहीं इस वर्ष अक्टूबर तक ये संख्या घटकर डेबरा में पांच, घाटाल में 18, खडग़पुर में 15 और मेदिनीपुर में 35 रह गई है। जिला मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी सौम्यशंकर सारंगी ने बताया कि चिन्हित लगभग सभी एचआईवी संक्रमित व्यक्तियों को उपचार के दायरे में लाया गया है और उनका नियमित इलाज चल रहा है। उनके अनुसार, वर्षभर जागरूकता अभियान और विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से संक्रमण रोकने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस प्रयास में ‘संपूर्णा’, ‘स्पर्श’ और ‘अग्रगामी महिला एवं बाल कल्याण समिति’ जैसी कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी आगे आई हैं। ये संगठन स्वास्थ्य विभाग के साथ मिलकर विभिन्न क्षेत्रों में शिविर लगाकर लोगों को जागरूक कर रहे हैं।

15 भगोड़े आर्थिक अपराधियों पर 58,000 करोड़ की देनदारी

-विजय माल्या और नीरव मोदी का भी नाम
नयी दिल्ली । केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने सोमवार को लोकसभा को सूचित किया कि 31 अक्टूबर, 2025 तक भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 (एफईओए) के तहत कुल 15 व्यक्तियों को भगोड़ा आर्थिक अपराधी ( एफईओ) घोषित किया गया है। यह जानकारी संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान लोकसभा सदस्य और दौसा से कांग्रेस सांसद मुरारी लाल मीणा द्वारा उठाए गए एक अतारांकित प्रश्न के उत्तर में साझा की गई। मीणा ने लोकसभा में वित्त मंत्री से पूछा कि भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 के तहत आज तक कितने व्यक्तियों को भगोड़ा आर्थिक अपराधी घोषित किया गया है, विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के खिलाफ बड़े पैमाने पर किए गए वित्तीय धोखाधड़ी से संबंधित मामलों में; इन घोषित भगोड़े आर्थिक अपराधियों द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को हुई कुल वित्तीय हानि (रुपये में) का विवरण, नाम-वार और बैंक-वार; निपटान में शामिल व्यक्तियों का नाम और संख्या, संबंधित बैंकों के नाम, निपटाई गई राशि और दी गई छूट। चौधरी ने कहा कि इन 15 अपराधियों में से नौ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के साथ बड़े पैमाने पर की गई वित्तीय धोखाधड़ी में शामिल हैं। इस सूची में विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे कई बड़े नाम शामिल हैं। वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने बताया कि इन 15 भगोड़े आर्थिक अपराधियों (एफईओ) ने सामूहिक रूप से 31 अक्टूबर, 2025 तक बैंकों को 26,645 करोड़ रुपये का मूल वित्तीय नुकसान पहुँचाया है। इसके अलावा, इन ऋणों पर एनपीए बनने की तिथि से 31 अक्टूबर, 2025 तक अर्जित ब्याज 31,437 करोड़ रुपये है। चौधरी ने सदन को बताया कि 31 अक्टूबर, 2025 तक इन अपराधियों से 19,187 करोड़ रुपये वसूल किए जा चुके हैं। घोषित भगोड़े आर्थिक अपराधियों के नाम हैं: विजय माल्या, नीरव मोदी, नितिन जे संदेसरा, चेतन जे संदेसरा, दीप्ति सी संदेसरा, सुदर्शन वेंकटरमन, रामानुजम शेषरत्नम, पुष्पेश कुमार बैद और हितेश कुमार नरेंद्रभाई पटेल। यह पूछे जाने पर कि क्या सरकार ऐसी कोई नीति बना रही है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि ऐसे अपराधियों को भविष्य में कानूनी प्रतिबंधों या निगरानी सूची के माध्यम से देश छोड़ने से रोका जा सके, पंकज चौधरी ने कहा कि वर्तमान में ऐसी कोई नीति तैयार नहीं की जा रही है।

अब स्मार्ट फोन में संचार साथी’ ऐप अनिवार्य

नयी दिल्ली । दूरसंचार विभाग (डीओटी) ने भारत में स्मार्टफोन बनाने वाली कंपनियों को निर्देश दिया है कि वे अपने सभी नए मोबाइल फोनों में सरकार द्वारा विकसित साइबर सुरक्षा ऐप ‘संचार साथी’ को अनिवार्य रूप से प्री-इंस्टॉल करें। विभाग ने यह भी स्पष्ट किया है कि उपयोगकर्ता इस ऐप को अपने फोन से डिलीट नहीं कर पाएंगे। सरकार का कहना है कि यह कदम उपभोक्ताओं को ऑनलाइन धोखाधड़ी, फर्जी कॉल-मैसेज और मोबाइल चोरी जैसी बढ़ती घटनाओं से बचाने के बड़े अभियान का हिस्सा है। निर्देश के तहत कंपनियों को तीन महीने के भीतर इसे लागू करना होगा। इसका सीधा प्रभाव एप्पल, सैमसंग, शाओमी, ओप्पो, वीवो जैसे प्रमुख स्मार्टफोन निर्माताओं पर पड़ेगा। रिपोर्ट के अनुसार, कंपनियों ने इस निर्देश पर तत्काल टिप्पणी नहीं की है, लेकिन उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि कई निर्माता इस कदम पर आपत्ति जता सकते हैं। अब तक ‘संचार साथी’ एक वैकल्पिक ऐप था, जिसे उपयोगकर्ता एप्पल या गूगल ऐप स्टोर से अपनी इच्छा से डाउनलोड करते थे। लेकिन नए निर्देश के बाद यह ऐप हर नए फोने में पहले से मौजूद होगा और पुराने फोनों में सॉफ्टवेयर अपडेट के माध्यम से जोड़ा जाएगा। यह ऐप इस साल जनवरी में लॉन्च किया गया था और अगस्त तक इसके 50 लाख से अधिक डाउनलोड दर्ज किए जा चुके हैं। सरकारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, ऐप की मदद से अब तक 37 लाख से अधिक चोरी या गुम मोबाइल फोन ब्लॉक किए गए हैं और लगभग 23 लाख फोन ट्रैक कर लिए गए हैं। ऐप फोन के IMEI यानी 15 अंकों के विशिष्ट पहचान नंबर के माध्यम से चोरी हुए डिवाइस को ब्लॉक करने और खोजने में मदद करता है। इसके अलावा, यह फर्जी कॉल, एसएमएस और व्हाट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म पर आए संदिग्ध संदेशों की शिकायत दर्ज करने की सुविधा भी देता है। मोदी सरकार का तर्क है कि बढ़ते साइबर फ्रॉड, फर्जी कॉल सेंटर, और मोबाइल चोरी के नेटवर्क पर रोक लगाने के लिए यह कदम जरूरी है, लेकिन सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या अनिवार्य प्री-इंस्टॉल ऐप उपभोक्ताओं की निजी पसंद और गोपनीयता पर असर डालेगा। देखा जाए तो सरकार द्वारा ‘संचार साथी’ जैसे उपयोगी और जनहितकारी ऐप को बढ़ावा देना निश्चित रूप से एक सकारात्मक कदम है, खासकर ऐसे समय में जब साइबर अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं। चोरी हुआ मोबाइल तुरंत ब्लॉक करना, फर्जी कॉल और संदेशों की रिपोर्टिंग—ये सभी सुविधाएँ वास्तव में नागरिकों की सुरक्षा मजबूत करती हैं। लेकिन दूसरी ओर, ऐप को अनिवार्य बनाना और उसे हटाने का विकल्प न देना, उपभोक्ता की स्वतंत्रता और डिजिटल गोपनीयता को लेकर चिंताएँ भी पैदा करता है। किसी भी सरकारी ऐप को फोन में स्थायी रूप से इंस्टॉल रखने का निर्देश तकनीकी कंपनियों और नागरिक अधिकार समूहों के बीच स्वाभाविक रूप से बहस छेड़ेगा। टेक उद्योग का तर्क होगा कि यह उपयोगकर्ता अनुभव और स्वतंत्रता में हस्तक्षेप है, जबकि गोपनीयता विशेषज्ञ यह सवाल उठाएँगे कि क्या सिम-बाइंडिंग और अनिवार्य ऐप जैसी नीतियाँ निगरानी के जोखिम को बढ़ा सकती हैं।

बीरभूम जिले में बनेंगे चार नए दमकल केंद्र

बीरभूम। जिले में अग्निशमन सेवाओं को और अधिक सुदृढ़ करने के लिए राज्य सरकार चार नए दमकल केंद्र स्थापित करने की दिशा में तेज़ी से काम कर रही है। जिला परिषद और प्रशासनिक सूत्रों के अनुसार, लाभपुर, नलहाटी, मुरारई और तारापीठ में नए अग्निशमन केंद्र निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। जिला परिषद ने जानकारी दी कि नलहाटी दमकल केंद्र के लिए निविदा जारी कर दी गई है। इसके अलावा, लाभपुर दमकल केंद्र के लिए राज्य सरकार की ओर से निर्माण कार्य का औपचारिक निर्देश भी जारी कर दिया गया है। अधिकारियों का कहना है कि इन केंद्रों के बन जाने के बाद दमकल कर्मियों को घटनास्थल पर पहुंचने में कम समय लगेगा, जिससे आगजनी से होने वाले नुकसान की संभावना कम हो जाएगी। वर्तमान में जिले में पांच स्थायी दमकल केंद्र मौजूद हैं। तीन महकमा शहरों के साथ-साथ सांतलिया और दुबराजपुर में भी स्थायी केंद्र संचालित हैं। इसके अतिरिक्त, तारापीठ में एक अस्थायी दमकल केंद्र कार्यरत है। प्रशासन का मानना है कि नए केंद्र शुरू होने के बाद जिले की अग्निशमन व्यवस्था और अधिक प्रभावी हो जाएगी। राज्य सरकार ने 14 नवंबर को लाभपुर दमकल केंद्र के निर्माण के लिए आधिकारिक कार्यादेश जारी किया है। यह केंद्र लाभपुर के बकुल क्षेत्र में बनाया जाएगा। जानकारी के अनुसार, इस भवन का निर्माण दो चरणों में होगा। पहले चरण में लगभग 3 करोड़ 60 लाख रुपये की लागत से दो मंज़िला भवन बनाया जाएगा और तुरंत ही उसे चालू कर दिया जाएगा। बाद में इसे चार मंज़िला भवन के रूप में विस्तारित किया जाएगा। लाभपुर, नानूर, मयूरेश्वर–1, मयूरेश्वर–2, पूर्व बर्दवान का खेतुग्राम–1 और 2, तथा मुर्शिदाबाद के बड़ज्ञा और भरतपुर समेत कुल आठ ब्लॉक इस लाभपुर दमकल केंद्र के अधीन आएंगे। लाभपुर के विधायक अभिजीत सिंह ने बताया कि चार मंज़िला भवन की मंज़ूरी पहले ही मिल चुकी है और उन्होंने जिला शासक के साथ निर्माण स्थल का निरीक्षण भी कर लिया है। नलहाटी में भी एक नया दमकल केंद्र बनाया जाएगा, जिसके लिए निविदा प्रक्रिया पूरी की जा चुकी है। यह केंद्र राष्ट्रीय राजमार्ग के पास स्थित सीएडीसी मोड़ पर स्थापित किया जाएगा। मुरारई विधानसभा क्षेत्र के पाइकर में भी दमकल केंद्र निर्माण की तैयारी जारी है। सिंचाई विभाग के अधीन रही जमीन अब दमकल विभाग को हस्तांतरित कर दी गई है और वहाँ विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार की जा रही है। तारापीठ में भी स्थायी दमकल केंद्र के लिए भूमि चिह्नित कर ली गई है। वहाँ भी अब भवन के नक्शे और डीपीआर तैयार होने की प्रक्रिया चल रही है। जिला प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने सोमवार सुबह बताया कि इन चार नए दमकल केंद्रों के चालू हो जाने के बाद जिले में आग की घटनाओं पर नियंत्रण पाने में काफी आसानी होगी।

परिवार, समाज और देश और तेजपत्ता सा जीवन

गोरखपुर में मां के शव को अंतिम संस्कार के लिए चार दिन फ्रिज में रखने की बात कहने वाले बेटों को समाज में बहुत अपमान झेलना पड़ा। जब बेटों को पछतावा हुआ, तो उन्होंने पिता से माफी मांगी और पिता भुआल ने उन्हें माफ कर दिया। अब पंडित की सलाह पर परिवार ने मां का आटे का पुतला बनाकर उसका दाह संस्कार करने की सलाह दी। दरअसल, बुजुर्ग दंपती भुआल मद्धेशिया और शोभा देवी वृद्धाश्रम में रहते थे। बुजुर्ग भुआल मद्धेशिया(68) 17 महीने से पत्नी शोभा (65) के साथ जौनपुर में एक वृद्धाश्रम में रह रहे थे। बीते 19 नवंबर को शोभा का निधन हो गया था। जिसके बाद वृद्धाश्रम संचालक रवि कुमार चौबे ने भुआल के छोट बेटे अज्जू को फोन किया। अज्जू ने बताया कि घर में बड़े भाई संजय के बेटे की शादी है। इसलिए उन्होंने इस समय दाह संस्कार के लिए मना कर दिया है और कहा कि शव को फ्रिज में रखवा दो, शादी के बाद आकर दाह संस्कार करवाएंगे। इसके बाद भुआल को करमैनी घाट पर पत्नी का शव दफनाना पड़ा। इस बात से बेटों की बहुत बदनामी हुई और उन्हें अपमान झेलना पड़ा। बेटों ने पंचायत में पिता से माफी मांगी और पिता ने उन्हें माफ भी कर दिया। शुक्र है कि दौर सोशल मीडिया का है।
तेजपत्ता देखा है आपने ? कोई भी सब्जी हो, दाल हो, पकवान हो, छौंक लगाने के लिए तेजपत्ता हम डालते हैं। यह तेजपत्ता अपनी खुशबू और गुणों से हर व्यंजन का स्वाद बढ़ा देता है और इस प्रक्रिया में वह अपना अस्तित्व भूल जाता है, रूप खत्म हो जाता है इसका। पकवान बनता है और लाजवाब बनता है और जब थाली में पकवान आता है तो सबसे पहले तेजपत्ता ही फेंका जाता है। वह किसी काम का नहीं रहा, कड़वा हो चुका है, उसे निगला नहीं जा सकता और अंत में फेंक दिया जाता है। आज परिवार, समाज और कॉरपोरेट लोग तेजपत्ते की तरह होते हैं। माता -पिता, भाई-बहन तेजपत्ता हैं।
परिवार की बात करें तो यह स्थिति माता-पिता और भाई -बहनों के सामने आती है और कॉरपोरेट दुनिया में उन कर्मचारियों के साथ जो अपनी निजी जिंदगी भूलकर अपनी सारी जिंदगी स्वाहा कर देते हैं और नयेपन के नाम पर अपने कर्मचारियों की जिंदगी की खुशियां वसूलने वाली कम्पनी उनको बाहर का रास्ता दिखा देती है।
परिवार में किसी भी व्यक्ति की सफलता के पीछे माता -पिता के साथ भाई -बहनों का भी योगदान रहता है। चाचा-चाची, बुआ-फूफा जैसे कई रिश्तों का योगदान रहता है मगर जैसे -जैसे समय बीतता है, ये सारे रिश्ते अप्रासंगिक हो जाते हैं। जब कोई लड़की घर में कदम रखती है तो सबसे पहले घर का कोई जेठ, देवर या ननद एक अनजान लड़की के लिए अपना कमरा छोड़ते हैं मगर उनका यह त्याग कोई त्याग नहीं बल्कि उनका फर्ज मान लिया जाता है। माता – पिता बहू के लिए अपने जीवन भर की कमाई दांव पर लगाकर गहने बनवाते हैं। जिस लड़के की पढ़ाई और भविष्य के लिए कर्जा लिया, एक दिन वह लड़का भी वह इस अनजान लड़की को दे आते हैं मगर समाज में यह भी त्याग नहीं फर्ज समझा जाता है। वहीं लड़कियों के मामले में यह माता-पिता का फर्ज नहीं त्याग समझा जाता है। त्याग और फर्ज के बीच गजब का असंतुलन है और कितना एकतरफा है। अधिकतर लड़कियां ससुराल में रहने नहीं आतीं, वह अपना साम्राज्य बनाने आती हैं और उनके निशाने पर वह सारे रिश्ते रहते हैं जिनका सहारा लेकर वह उसने घर में कदम रखा। लड़के की दुनिया लड़की और फिर अपने बच्चों में सिमट जाती है और ठगे से रह जाते हैं, वह तमाम रिश्ते जिनके सहारे वह वर्तमान की बुलंदियों पर पहुंचा है। अपने अनुभव से कहूँ तो ऐसी भी स्थिति आती है कि घर के फैसलों में नौकरों की राय ली जाती है, ससुराल की राय ली जाती है मगर अपने भाई -बहनों की राय लेना व्यक्ति को रास नहीं आता। ऐसे लोगों को अपनी पत्नी हमेशा बिचारी नजर आती है और बच्चे हमेशा प्रताड़ित दिखते हैं। भाई की शादी हो तो देवरानी के रूप में सहेली भी मिल जाती हैं और दो परायी औरतें उस घर पर अपना कब्जा जमाती हैं जो उन लोगों ने बनाया ही नहीं है। इन औरतों को एक वृद्धा की तपस्या पर हक जताना है, एक बुजुर्ग के उस घर में हिस्सा लेना है जिसे बनाने में उसके पति का कोई योगदान तक नहीं रहता है। यह पारिवारिक विषमता कहीं नहीं दिखती। यह साम्राज्यवाद नहीं नजर आता। उनको नहीं दिखती, वह पीड़ा जिससे वह सारे रिश्ते जूझ रहे हैं। यह कैसा समाजवाद है जो साथ रहकर चलना नहीं सिखाता। यह कैसी समानता है जो किसी और की मेहनत को लूटकर महल खड़े करते हैं। भारतीय कानून में दहेज के मामलों में देवर व ननद को आसानी से टारगेट किया जाता है मगर कोई भी धारा देवर और नदद के पक्ष में खड़ी नजर नहीं आती। भाभियों को 16 -18 साल की ननद भी बोझ दिखती है जिसे वे घर के काम सिखाकर बस विदा कर देना चाहती हैं जिससे उनकी संतानों का रास्ता साफ हो। क्या कोई धारा है जो भाइयों और भौजाइयों के जहरीले वाणी बाणों से छोटे या बड़े भाई बहनों को बचा सके ? बॉडी शेमिंग, अपने ही घर में अछूत बना देना, पति को उसके माता-पिता व भाई-बहनों से दूर करना, भड़काना किसी की जिंदगी बरबाद कर देता है मगर भारतीय संविधान की कोई धारा इनको नहीं बचाती। लड़कियों का मायका छुड़वा देने वाली, बहनों को घर में अछूत बना देने वाली और अपने बच्चों की नजर में बुआ -चाचा जैसे तमाम रिश्तों को जहर बना देने का काम कोई और नहीं बल्कि घर की तथाकथित लक्ष्मियां ही करती आ रही हैं। ससुराल में मायका बसा देने वाली औरतें अपनी गृहस्थी में अपने सास-ससुर का हस्तक्षेप नहीं चाहतीं और उनको वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देती हैं। क्यों कोई समाज और कानून इन सारे रिश्तों की रक्षा नहीं करता और नहीं करता तो पारिवारिक व्यवस्था की रक्षा कैसे होगी? आखिर शादी के बाद ऐसा क्या हो जाता है इंसान अपने पार्टनर का गुलाम बन जाता है। जिन लोगों की मदद से उसने सफलता प्राप्त की, वह अब उनके लिए तेजपत्ता हैं। अलग होने वाले लोग और वधुएं कभी अपनी गलती नहीं देखते। बहनें आती हैं तो उनके आने से ज्यादा शगुन की चिंता रहती है। दिखावा बढ़ गया, प्यार सतह पर चला गया और आप इसे परफेक्शन कहते हैं। बुआ जितनी पुरानी होगी, घर उससे उतना ही दूर होता जाएगा…यह कौन सी व्यवस्था है? रोज रात को नाना-नानी, मौसा-मौसी, मामा-मामी और भाई -बहनों को फोन करना याद रहता है मगर रूठे भाई -बहनों से दो बातें करना याद नहीं रहता और आप चले हैं कि भारतीय पारिवारिक व्यवस्था को बचाना है। घर के छोटे- छोटे बच्चे अपने व्यवहार से जब हर चीज पर हक जताते हुए खुद को थोड़ा अधिक अधिक सर्वश्रेष्ठ और बड़ों को थोड़ा और पराया बताने की कोशिश करते हैं तब उनकी असुरक्षा देखकर हंसी नहीं आती। तरस आता है उन लोगों पर जिन्होंने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया।
मध्य प्रदेश सरकार में आईएएस अधिकारी संतोष कुमार वर्मा द्वारा बीते दिनों ब्राह्मणों की बेटियों को लेकर विवादास्पद बयान देने के चलते, उनके खिलाफ राज्य शासन ने नोटिस जारी की है। बता दें कि “एक परिवार में एक व्यक्ति को आरक्षण तब तक मिलता रहना चाहिए, जब तक मेरे बेटे को कोई ब्राह्मण अपनी बेटी दान में न दे, या उससे संबंध न बन जाए।”
समाज में जो वर्ग विक्टिम कार्ड खेलता है, वह उतना ही बड़ा शोषक होता है और यह बात मैं आरक्षण के सन्दर्भ में कह रही हूँ तो समझ नहीं आता कि ब्राह्मण और सामान्य श्रेणी के लोग निशाने पर क्यों हैं जबकि आज उनके हिस्से की नौकरियां कोटाधारी खा रहे हैं। एक को 70 प्रतिशत पाने पर भी दाखिला और नौकरी नहीं मिलती और एक आप हैं कि 45 प्रतिशत पाकर भी उच्चासन पर आसीन हैं। 75 साल से ज्यादा लंबा वक्त बीत गया, बता दीजिए कि किस दलित ने कहा कि उसकी तीन पीढ़ियां पढ़ गयीं और अब वह किसी जरूरतमंद को अपने हिस्से का आरक्षण देने जा रहा है। अधिकार मिल जाने से योग्यता और मेधा नहीं मिल जाती। जो मेधावी है, वह कहीं भी हों, अपना मार्ग बना लेते हैं। हर घर में बाल्मीकि रामायण मिलती है, उसे किसी ब्राह्मण ने नहीं लिखा….बाल्मिकि मेधा का प्रतिनिधित्व करते हैं। कबीर, रैदास, रसखान ये सब किसी अगड़ी जाति से नहीं आते। भीमराव आंबडवेकर के नाम में अंबेडकर जुड़ने का किस्‍सा स्‍कूल के ही दिनों का है. बाबा साहब पढ़ने-लिखने में काफी तेज थे। इसी खूबी के कारण स्‍कूल के एक शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर उनसे खास स्‍नेह करते थे। कृष्णा महादेव आंबेडकर एक ब्राह्मण थे। खास स्‍नेह के कारण शिक्षक कृष्‍णा महादेव ने भीमराव के नाम में अंबेडकर सरनेम जोड़ दिया। इस तरह बाबा साहब का नाम हो गया भीमराव अंबेडकर। इसके बाद से ही इन्‍हें अंबेडकर उपनाम से पुकारा जाने लगा। हम आपको बताते हैं उस महाराजा के बारे में, जिसने युवा अंबेडकर की मदद की। ये मदद उन्हें तीन साल तक दी गई। पढाई पूरी करने के बाद जब अंबेडकर वहां से लौटे तो महाराजा से मिले. इसके बाद लंबे समय तक वो उनसे जुड़े रहे। वैसे ये तो तय है कि अगर महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ तृतीय ने उनकी मदद नहीं की होती तो शायद अंबेडकर के लिए वहां तक पहुंचना मुश्किल होता, जहां पर वो थे। इन महाराजा का नाम तो आपको ऊपर की पंक्तियों में बताया जा चुका है। वो उस समय भारत के सबसे समृद्ध राज्यों में एक बडौदा के शासक थे। उन्होंने अपने शासन के दौरान सामाजिक सुधार से लेकर जात-पांत खत्म करने और शिक्षा के क्षेत्र में कई बड़े काम किए। बेनगुल नरसिम्हा राव (बी एन. राव) का जन्म 26 फ़रवरी 1887, मंगलौर में हुआ। इन्होंने केनरा हाई विद्यालय (1901), ट्रिनिटी कॉलेज, और मद्रास विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। बेनगुल नरसिम्हा राव (बी एन. राव) अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय मेंन्यायाधीश थे, इससे पहले वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे। इन्होंने भारतीय संविधान निर्माण में सहलाकर के रूप में भूमिका अदा की थी, तथा भारतीय संविधान निमार्ण के समय संवैधानिक सलाहकार थे। इन्होंने भारतीय संविधान का प्रथम प्रारूप इनके द्वारा तैयार किया था। भारतीय संविधान का मूल प्रारूप बी. एन. राव ने तैयार किया था, इसके अलावा संविधान निर्माण के लिए सारी सामग्री राव ने ही उपलब्ध करवाई थी। संविधान निर्मात्री सभा ने डॉ भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में जिस प्रारूप की जांच की उसे बी एन. राव ने ही तैयार किया था। जब संविधान अंगीकार किया उस वक्त सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने बी एन राव को उनके योगदान के लिए धन्यवाद दिया। इतना ही नहीं, डॉ. अंबेडकर ने अपनी पहली पत्नी रमाबाई की मृत्यु के बाद, 15 अप्रैल 1948 को दूसरी शादी की। यह शादी उन्होंने डॉ. सविता कबीर से की जो एक पढ़ी-लिखी, पेशे से डॉक्टर और ब्राह्मण परिवार से थीं। इस शादी को लेकर उनके अपने परिवार और कुछ साथियों ने नाराज़गी जताई, क्योंकि वह एक अलग जाति की थीं। अम्बेडकर संविधान निर्माताओं में से एक थे,एकमात्र नहीं थे। बी.एन. राव और महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ तृतीय अम्बेडकर के जीवन में तेजपत्ता बने। आज आरक्षण की आग में सामान्य वर्ग तेजपत्ता है जो कर तो देता है मगर उसके हिस्से की सब्जी आज तक दूसरे खा रहे हैं।

बिहार चुनाव में शराबबंदी, प्रशांत किशोर और मीडिया

बिहार चुनाव हाल ही में बीता है और नीतीश सरकार ने प्रचंड बहुमत के साथ वापसी की है। गौर करने वाली बात यह है पिछले कुछ सालों से महिलाएं खुलकर मतदान करती आ रही हैं। पुरुषों के लिए चुनाव सत्ता बदलने का माध्यम हो सकता है मगर महिलाओं के लिए हर चुनाव उनके अस्तित्व की लड़ाई होता है। बिहार में भी चुनाव ऐसा ही था। सच तो यह है कि बिहार में एनडीए की जीत से महिलाओं में खुशी थी मगर निराशा पुरुषों में ज्यादा रही। पता है, इसका प्रमुख कारण क्या था, वह यह कि विपक्ष ने वापसी के लिए शराबबंदी और गुंडागर्दी को हथियार बनाया। लोग लालू प्रसाद यादव के जंगलराज को नहीं भूले महिलाएं अपने साथ होने वाले अत्याचारों को। ऐसा नहीं है कि नीतीश राज में अपराध घटने की कोई शत-प्रतिशत गारंटी है मगर पहले से कम होने की, महिलाओं के स्वालंबन की गारंटी जरूर है। विपक्ष ने चुनाव जीतने के लिए महिलाओं की जिंदगी को दांव पर लगा दिया और हैरत की बात यह है कि ऐसा करने में वह पार्टी आगे रही जो बिहार में बदलाव की बड़ी -बड़ी बातें करती नजर आई। मेरी समझ के बाहर था कि बिहार में बदलाव लाने का यह कौन सा रास्ता था जो प्रशांत किशोर जैसे व्यक्ति ने शराब की नैया का सहारा लिया। सीधी सी बात है, उनको वोट से मतलब है।
हर एक पार्टी को वोट से मतलब है और सबको पता है कि बिहार में शराबबंदी से महिलाओं का जीना आसान हुआ है मगर पुरुष समाज अभी भी पितृसत्तात्मक सोच के दबाव में अपना वही रुआब वापस लाने की ख्वाहिश पाले बैठा है जहां औरतें उसके लिए पैर की जूती रहीं। शराब उसकी अंधी सत्ता और अहंकार के प्रदर्शन का माध्यम है जिसके नशे में वह अपने घर का सब कुछ लुटा सकता है, औरतों पर अपनी मर्दानगी दिखा सकता था मगर किसी तेजस्वी या प्रशांत किशोर को इन बातों से क्या मतलब है? उनको तो चुनाव जीतना है, 28 हजार करोड़ के राजस्व के घाटे की बात बताकर…मैं पूछना चाहती हूँ..प्रशांत किशोर से…आप इतने पढ़े – लिखे हैं, आपके सम्पर्क इतने अच्छे हैं, आप अर्थशास्त्रियों के सम्पर्क हैं तो आपको शराबबंदी की बैसाखी क्यों चाहिए थी? तेजस्वी तो मान लिया कि नौवीं फेल हैं मगर आप तो शिक्षित थे, आपको चुनाव चिह्न भी स्कूल बैग मिला था। आप क्या कक्षाओं में बच्चों को शराब पीने की ट्रेनिंग देने को तैयार हैं। आप एलिट क्लास से हैं, आपका बच्चा आपके सामने शराब पीयेगा तो आप इसे आधुनिकता मानकर स्वीकार कर लेंगे मगर उन मध्यमवर्गीय परिवारों का क्या, जिनकी जिंदगी शराबखोरी ने तबाह की है। नीतीश ने भी माना था कि शराबबंदी से राज्य सरकार को हर साल 5,000-6,000 करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान होता है। शराबबंदी की घोषणा के समय स्वयं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि यह नीति मैं महिलाओं के आग्रह पर ला रहा हूं। मैं जानता हूं कि इससे हमें राजस्व की हानि होगी, लेकिन यह समाज की बेहतरी के लिए है। इस बयान ने नीतीश कुमार को महिला समर्थक नेता के रूप में स्थापित किया। शराबबंदी ने इस बार भी महिला मतदाताओं के बीच एनडीए को अद्भुत समर्थन दिलाया।महिलाओं ने 10 हजार रुपए के बजाय शराबबंदी के नाम पर वोट दिया है। यही एनडीए और नीतीश कुमार की जीत का बड़ा कारण बना है। चुनाव आयोग ने पार्टी को ‘स्कूल बैग’ के चिह्न पर राज्य की सभी 243 सीटों पर ताल लड़ी और हार गयी और इसका कारण प्रशांत किशोर की बेशर्म स्वार्थपरता है जो सत्ता के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर सकती है। आप खुद को शिक्षित कहते हैं तो पहले एक बार शिक्षा शब्द का अर्थ किताबों में जाकर देखिए। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार बिहार में दोनों चरणों में कुल मतदान 66.91 फीसदी रहा था। मतदान के दोनों ही चरणों में पुरुषों के मुकाबले में महिलाओं ने ज्यादा वोटिंग की। आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं का मतदान प्रतिशत 71.6 फीसदी रहा था। वर्ष 2015 में जब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव का महागठबंधन जीता था, तब महिलाओं (60.48 प्रतिशत) ने पहली बार पुरुषों (53.32 प्रतिशत) को मतदान में पीछे छोड़ दिया था। इस परिवर्तन का सीधा असर चुनाव परिणाम पर पड़ा था। हालांकि, उस समय तक शराबबंदी लागू नहीं हुई थी, लेकिन महिलाओं को उम्मीद थी कि अगर नीतीश कुमार सत्ता में लौटे तो वह शराब पर रोक लगाएंगे। नीतीश कुमार ने इसी महिला समर्थन को साइलेंट रिवोल्यूशन कहा था और यही भावनात्मक जुड़ाव वर्ष 2016 में शराबबंदी लागू होने की पृष्ठभूमि बना। वर्ष 2020 के चुनाव में भी महिलाओं का मतदान प्रतिशत 59.58 और पुरुषों का 54.68 रहा था। महिला मतदाताओं की एकजुटता ने एनडीए और नीतीश कुमार को चुनौतीपूर्ण संघर्ष में जीत दिलाई थी। इस बार भी महिला वोटर एनडीए के लिए सत्ता की धुरी बनी हैं। जहां महिलाओं का वोट प्रतिशत 71.6 रहा, वहीं 62.8 प्रतिशत पुरुषों ने ही वोट डाला। यह अब तक का सबसे बड़ा अंतर है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि महिलाओं ने न केवल मतदान किया, बल्कि अपनी राजनीतिक चेतना को नए स्तर पर पहुंचाया है। नवोदित नेता प्रशांत किशोर ने तो शराबबंदी को खत्म करने का ऐलान तक कर दिया था। राजद और कांग्रेस ने शराबबंदी को नीतीश कुमार की सबसे बड़ी नीतिगत विफलता बताया था। हालांकि, नीतीश कुमार इसे अपनी नैतिक उपलब्धि मानते हैं। उनका स्पष्ट तौर पर कहना है कि शराबबंदी से घरेलू हिंसा घटी, महिलाओं की स्थिति सुधरी और पारिवारिक माहौल बेहतर हुआ। सवाल यह नहीं कि शराबबंदी नीति का उद्देश्य क्या था? बल्कि यह है कि उसका परिणाम क्या हुआ? बिहार में हुए हालिया सर्वे के अनुसार 95–99 प्रतिशत महिलाएं शराबबंदी का समर्थन करती हैं। उनका मानना है कि इस कानून ने घर की शांति लौटाई है। पति की आमदनी अब बच्चों की पढ़ाई में लगती है। सड़क पर महिलाओं की सुरक्षा बेहतर हुई है। प्रशांत किशोर इस हद तक नीचे गिर चुके हैं कि उन्होंने बिहार की स्वाभिमानी महिलाओं को लालची तक कह दिया। महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े मामलों पर मौनी बाबा बने रहे जबकि हकीकत यह है कि बिहार की महिलाओं के खाते में जब 10 हजार जाते हैं, तो उनको रोजगार का साधन भी मिलता है। बिहार की महिलाएं स्वावलंबी बन रही हैं। यह वह प्रशांत किशोर हैं जो आर जी कर पर मौन रहते हैं, संदेशखाली पर मौन रहते हैं, जब बंगाल में ममता दीदी लक्खी भंडार योजना चलाती हैं तो उनको बंगाल की महिलाएं लालची नहीं, मासूम लगती हैं। सत्य यह है कि बंगाल में लक्खी भंडार ने महिलाओं की सृजन शक्ति छीन ली है और युवाओं को काहिल बना दिया है, इतना स्वार्थी बना दिया है कि वे दूसरी महिलाओं का दर्द न देख पा रही हैं और न समझ पा रही हैं। तुष्टीकरण की राजनीति को देखकर भी सबके मुंह में दही जमा है।
यह वही प्रशांत किशोर हैं जो ममता बनर्जी की सरकार बनवाने का दावा करते हैं और इनकी ही नीतियों के कारण आज बंगाल जल रहा है। चुनावी हिंसा में न जाने कितनों के घर छूटे मगर इनके मुंह से बोल नहीं फूटे। आप शायद वही हैं जिनको खुद नीतीश कुमार ने ही जदयू का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया, तब भी चाहते थे तो बिहार के लिए बहुत कुछ कर सकते थे मगर इन्होंने नहीं किया। यह वही प्रशांत किशोर हैं जिनके एक नहीं बल्कि दो मतदाता पहचान पत्र हैं और यह धांधली की बात करते हैं और अब तो इन्होंने अपने दर्शन करवाने के लिए एक हजार रुपये की डिमांड रख दी है। पिछले दस वर्षों में राज्य की राजनीति में महिलाओं ने न केवल मतदान का स्वरूप बदला है, बल्कि उन्होंने एक ऐसा मतदाता वर्ग तैयार किया है, जो अब चुनावी परिणामों को निर्णायक रूप से प्रभावित करता है।
दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा अल्कोहल बाज़ार है। साल 2024 के आकंड़ों के मुताबिक, भारत का अल्कोहल का बाजार 4.4 लाख करोड़ रुपए को पार कर गया है, जो दुनिया के 90 से ज्यादा देशों की जीडीपी से ज्यादा है। भारत में हर साल लगभग 6 अरब लीटर की खपत होती है। जो साल दर साल बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, साल 2019 में प्रति व्यक्ति (15+आयु) शुद्ध एल्कोहल की खपत 5.5 लीटर थी। अब बात शराब के कारण होने वाले नुकसान की बात की जाए। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि शराब का सेवन हर साल 26 लाख से ज्यादा लोगों की मौत का कारण बन रहा है। यह दुनिया भर में हो रही कुल मौतों का 4.7 फीसदी है। मतलब कि हर 20 में से एक मौत के लिए शराब जिम्मेवार है। वहीं नशीली दवाओं और ड्रग्स से होने वाली मौतों को भी इसमें जोड़ दें तो यह आंकड़ा बढ़कर 30 लाख से ज्यादा है। मरने वालों में पुरुषों का आंकड़ा कहीं ज्यादा रहा। आंकड़ों के मुताबिक जहां 20 लाख पुरुषों की मौत के लिए शराब जिम्मेवार रही, वहीं नशीली दवाएं सालाना चार लाख पुरुषों को जिंदगियां लील रही हैं। जनसत्ता में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 16 करोड़ या इससे अधिक लोग शराब पीते हैं। इनमें 95 प्रतिशत 18 से 49 वर्ष की आयु के हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सालाना दो लाख सड़क दुर्घटनाएं होती हैं और इनमें से 75 प्रतिशत दुर्घटनाओं का कारण शराब पीकर गाड़ी चलाना है। बीते कुछ समय से शराब पीकर गाड़ी चलाने और लोगों को कुचल देने के अनेक मामले आए जिनमें कई अपराधी नाबालिग थे।
बात शराबबंदी की हो रही है तो बात मीडिया और उन सभी संस्थानों की भी करने का मन है जहां शराबखोरी को प्रश्रय दिया जाता है। पत्रकार होने के नाते इस मामले में आउटडेटेड हूँ क्योंकि जहां शराबखोरी हो और बोतलें हों, जाम पर जाम छलकाए जा रहे हों..वहां पल भर भी रुकना गवारा नहीं है। कोई भी शहर हो…ये वहां के प्रेस क्लब हैं और कॉकटेल पार्टियां हैं जो युवा पत्रकारों को शराबी बना रही हैं। बुजुर्ग पत्रकार शराब के इतने आदी हो चुके हैं कि जिसकी बुराइयां वह लिखते हैं, जिस शराबखोरी पर स्टोरी करके ईनाम जीतते हैं, उसी शराब के बगैर उनको लगता है कि वह लिख नहीं सकते। एक समय था जब हमारे बड़े सही रास्ता दिखाते थे मगर आज के बड़े दोस्ती के नाम पर अपने बच्चों की उम्र के युवाओं के साथ बेशर्मी से जाम छलकाते हैं। हमारे कई युवा साथी पत्रकार असमय काल के ग्रास हो गये क्योंकि अत्यधिक मदिरापान से उनके लीवर सड़ गये, मल्टी ऑर्गन फैल्योर हो गया। आप तो चले जाते हैं मगर एक मिनट के लिए भी उन लोगों के बारे में नहीं सोचते जो आप पर निर्भर हैं। प्रेस क्लब और संस्थाओं का क्या है, वह तो एक तस्वीर पर माला चढ़ाकर अपनी ड्यूटी से फारिग हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर एक बड़ा सा पोस्ट लिखा और बात खत्म और तब तक एक युवा मौत की राह पर निकल पड़ा है। प्रेस क्लब की आलमारियों में शराब की बोतलों की जगह किताबें देखने का इंतजार जारी रहेगा। जारी रहेगा इंतजार जहां युवाओं को राष्ट्र निर्माण से जुड़े प्रशिक्षण मिलें। काश कि ऐसे लोग कभी अपनी सत्ता के मद से बाहर निकलकर उस मासूम की गुहार सुन सकें जिसने शराबखोरी के कारण अपने पिता या माता को खोया है…तब तक हम आउटडेटेड ही भले।

गीता जयंती पर विशेष : सहज कर्म-पथ का आह्वान है भगवद्गीता

गिरीश्वर मिश्र

कालजयी श्रीमद्भगवद्गीता उस महाभारत का अंश है जिसे भारतीय चिंतन की परम्परा में इतिहास में परिगणित किया गया है। यह महान रचना इस अर्थ में विशिष्ट है कि इसके रचयिता महर्षि वेदव्यास स्वयं उन घटनाओं के साक्षी और भागीदार भी थे जिनका वर्णन उन्होंने अपनी रचना में किया था। आगे चल कर भारत की सभी मुख्य भाषाओं में यह अमर गाथा निरंतर गाई जाती रही और भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा द्वारा महाभारत से सामग्री को लेकर प्रचुर संख्या में उपन्यास, नाटक और काव्य रचे जाते रहे हैं। इसने संगीत और नृत्य को भी निरंतर प्रभावित किया है।

वस्तुत: यह केवल एक सर्वसमावेशी औपचारिक शास्त्र ही नहीं रहा बल्कि लोक-जीवन में भी गहरे रच बस गया। महाभारत की महागाथा में धर्म की अवधारणा ही प्रमुख है। गीता का आरम्भ भी धर्म शब्द के साथ होता है। धर्म का तत्व देश, काल और पात्र के सापेक्ष होता है और गतिशील जीवन-पद्धति को इंगित करता है। स्वधर्म की बात आगे समझायी गई है। ईश्वर का अवतार धर्म को पहचानने और स्थापित करने के लिए होता है। धर्म को रीति और नीति से भिन्न समझना होगा। अपने से दुर्बल की सहायता करना ही परम धर्म है। इस दृष्टि से सामाजिक संदर्भ के सापेक्ष ही धर्म की समझ भी आकार लेती है। ऋग्वेद, उपनिषद और धर्मशास्त्र आदि सब का संज्ञान लेते हुए महाभारत रचा गया।

भगवद्गीता महाभारत का हृदय सरीखा है। भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व में है पर उसके पहले वन पर्व में व्याध-गीता का भी एक आख्यान आता है। आश्चर्य यह कि दोनों हिंसा की पृथभूमि में हैं, एक कसाई के घर में तो दूसरी युद्ध-भूमि में। भौतिक (प्रकृति) और मानसिक चैतन्य (पुरुष) का भेद दोनों में ही दिखता है। प्रकृति का सत्य विविधताओं से भरा हुआ है। मनुष्य की कल्पनाशीलता उसे चर-अचर अन्य सभी जीवों या पदार्थों से अलग करती है। वह अमरता की कल्पना कर सकता है। इसी क्रम में अर्थ की तलाश करते हुए चैतन्य या देही की अवधारणा प्रस्तुत हुई। मनुष्य से यह अपेक्षा है कि वह पाशविक वृत्ति से ऊपर उठ कर ऊर्ध्वमुखी हो। यही जीवन में व्याप्त हीनता और क्षुधा को दूर करने वाला है।

गीता की विचारधारा सदियों से देश-विदेश में मानवीय चिंतन को प्रभावित करती आ रही है। अब तक विश्व की विभिन्न भाषाओं में गीता के तीन हज़ार से अधिक अनुवाद हो चुके हैं। गीता की व्याख्या के लिए अनेक महत्वपूर्ण भाष्य शंकराचर्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, अभिनव गुप्तपादाचार्य, संत ध्यानेश्वर, तथा स्वामी रामसुख दास आदि अनेकानेक आचार्यों और संतों ने ही नहीं लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, संत बिनोबा भावे आदि अनेक राष्ट्रप्रेमी नेताओं ने भी रचे हैं। गीता की संगीतात्मकता, उसकी लयबद्धता और विचार की विशालता ने उसके अनुवाद और पुनराख्यान के लिए प्रेरित किया। कहा गया कि गीता को अच्छी तरह गाना और गुनगुनाना चाहिए– गीता सुगीता कर्तव्या। सारे शास्त्रों को विस्तार में पढ़ने की जगह गीता को हृदयंगम करना ही पर्याप्त है। पर गीता को पढ़ें तो लगता है कि वहाँ सीधी रेखा में बात आगे नहीं बढ़ती है। कुछ विचार गीता में कई अध्यायों में इतस्तत: बिखरे मिलते हैं, कुछ बार-बार अनेक स्थलों पर दुहराये गए हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो अन्यत्र वेद तथा उपनिषद आदि में विद्यमान हैं। यदि इसमें एक ही शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं तो एक ही अर्थ के लिए कई भिन्न शब्द भी प्रयुक्त मिलते हैं। आत्मा, देही, तथा शरीर आदि शब्दों का प्रयोग इसी तरह का है।

कृष्ण जीवन के अनेकानेक संदर्भों में आज भी प्रासंगिक बनी हुई है। संरचना की दृष्टि से यह भी विलक्षण है कि कृष्ण के विचार सीधे हम तक नहीं पहुचते। धृतराष्ट्र ने पूछा और संजय ने सुना कर बताया। अधिकारहीन पर अद्भुत दृष्टिसंपन्न संजय वक्ता हैं जो युद्ध को देख कर दृष्टिहीन परन्तु अधिकारसंपन्न धृतराष्ट्र को वर्णन सुनाते हैं और उन्होंने जो देख कर सुनाया वह हम सुनते पढ़ते हैं। कृष्ण स्रोत हैं पर संजय सूचना या संदेश के प्रस्तोता हैं। शायद धृतराष्ट्र और अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण के वचनों को सुनते हैं पर अपने अपने ढंग से और कदाचित भिन्न भिन्न रूपों में। अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछते हैं। धृतराष्ट्र चुप रहते हैं। वे डरे सहमे हुए हैं, शायद मन ही मन कृष्ण के वचनों को सुन कर गुनते-आंकते हैं।

गीता में उपस्थित विमर्श में श्रीकृष्ण विश्लेषण (सांख्य) और संश्लेषण (योग) दोनों पद्धतियों का उपयोग करते हैं। उन्होंने व्यावहारिक कर्म-योग, भावनात्मक भक्ति-योग और बौद्धिक ज्ञान-योग का प्रतिपादन किया है। गीता के पाँचवे अध्याय में श्रीकृष्ण शरीर को नौ द्वारों वाली एक पुरी बताते हैं। गीता द्वारा मानस का विस्तार और यथार्थ का बोध संभव होता है। कर्म का सिद्धांत यह बताता है कि आप वर्तमान परिस्थिति को तो नहीं नियंत्रित कर सकते किंतु उस परिस्थिति के प्रति प्रतिक्रिया कैसे करें यह जरूर चुन सकते हैं। गीता का कर्मवाद यह भी स्पष्ट करता है कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का स्वयं निर्माता भी है। इसका संदेश यही है कि आप स्वयं अपने जीवन के लिए उत्तरदायी हैं। हमारे बस में मात्र यही है कि हम परिस्थिति के प्रति किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं। पर हम समाज के अंग हैं और सबसे अलग-थलग भी नहीं हैं। हम दूसरों के कर्म से भी प्रभावित होते हैं। इसलिए कई बार बीज कुछ होता है और फल उससे भिन्न कुछ अन्य प्रकार का।

इसीलिए गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म पर ध्यान देने को कहते हैं न कि फल पर। कर्म का परिणाम जो भी हो पाँच चीज़ों पर निर्भर करता है– शरीर, मन, उपकरण, विधि तथा दैव (भाग्य)। मूर्ख ही ख़ुद को अकेले कारण मानता है। यदि हम ख़ुद को कर्मों के परिणामों से नहीं बाँधते तो कर्म भी हमको नहीं बाँधते। सुख, शक्ति और स्वर्ग की कामना से किया गया कर्म जब किया जाता है तो आँख फल पर टिकी होती है न कि कर्म पर। कर्म, विकर्म और अकर्म के बीच के अंतर को समझना कठिन है। बुद्धिमान लोग कर्म फल से बिना जुड़े निर्लिप्त हो कर काम करते हैं। कर्तृत्व के अभिमान से मुक्त होने और फ़लेच्छा का त्याग करने पर कर्म अकर्म हो जाता है। कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त हो कर कर्म करना कर्मयोगी श्रेष्ठ बनाता है। सक्रिय होना कर्म है पर जब कर्म-परिणाम को बिना नियंत्रित करने की चेष्टा के कर्म करना कर्म-योग है। बिना किसी प्रत्याशा के कर्म के विचार को देख कर यह प्रश्न उठता है कि उस स्थिति में कर्म के लिए क्या प्रेरणा का तत्व होगा। वृक्ष और पशु अपने लिए खाद्य और सुरक्षा पाने के लिए सक्रिय होते हैं। एक मनुष्य ही है जो दूसरों के खाद्य और सुरक्षा के लिए कर्म कर सकता है। इसी दृष्टि को अपनाना धर्म है।

हमारा शरीर मरणधर्मा है और सुरक्षा चाहता है। वह सीमाएं भी बनाता है। किंतु इस शरीर में अमर आत्मा का वास है जिसे किसी किस्म की सुरक्षा या बन्धन की दरकार नहीं है। मरणधर्मा हाड़ मांस से लिपट कर यह आत्मा जीवन और मृत्यु का स्वाद बार-बार लेता है। अमरता और पुनर्जन्म के विचार के साथ श्री कृष्ण मानवीय जीवन के विमर्श का पूरा नक़्शा ही बदल देते हैं: शरीर का अंत अंत नहीं होता और न शरीर का आरम्भ आरम्भ होता है। क्षण-क्षण बदलती दुनिया जिस पर अधिकार जमाना संभव नहीं उसे बदले और अस्थायी चीजों में हम अवलोकन करते हैं, खोज करते हैं और गद्गद होते हैं। वस्तुत: हम एक महा आख्यान के हिस्से होते हैं, अतीत की कथा वर्तमान को और वर्तमान भविष्य को रचती चलती रहती है। उन कथाओं को तो हम नहीं जानते पर उनमें भूमिका जरूर अदा करते हैं। जो कथा हम अनुभव करते हैं या याद करते हैं वह कोई अकेली कथा नहीं होती। हमारी जिंदगी दूसरी कथाओं में हमारी भूमिकाओं पर निर्भर करतो है।

रोचक बात यह है कि कथा या भूमिका याद न भी हो तो भी हम उसके परिणामों से नहीं बच सकते। पुनर्जन्म यह भी बताता चलता है कि यह विश्व हमारे पहले भी था और हमारे बाद भी रहेगा। गीता व्यक्ति के मानसिक-आध्यात्मिक उन्नयन पर बल देती है। अस्तित्व का अर्थ और मूल्य ही गीता का प्रतिपाद्य है। कर्म मार्ग का प्रवर्तन ही उसका प्रमुख उद्देश्य है। कर्म की गति गहन होती है। कर्म से मुक्ति संभव नहीं है। कर्म की गुणवत्ता उसे करने में नहीं बल्कि उसके पीछे निहित इच्छा के त्याग में है। त्याग इच्छाओं का अभाव है। गीता इच्छाओं से आसक्ति दूर करना चाहती है न कि कर्म से। लोक-संग्रह के लिए जीवन का ढर्रा बदलना होगा। बंधुत्व का भाव आवश्यक है। अपने स्वभाव के अनुसार कर्म में निरत हो कर मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होती है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतररराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

(साभार – हिन्दुस्तान समाचार)