Thursday, August 21, 2025
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‘नागार्जुन और युद्ध प्रसाद मिश्र के रचना कर्म’ विषय पर संगोष्ठी

कल्याणी । कल्याणी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा प्रेमचंद सभागार में ‘नागार्जुन और युद्ध प्रसाद मिश्र के रचना कर्म’ विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गयी। उद्घाटन सत्र में उपस्थित विश्वविद्यालय के कला एवं वाणिज्य संकाय की डीन प्रो. सावित्री नंदा चक्रबर्ती, विशिष्ट अतिथि नेपाल प्रज्ञा प्रतिष्ठान के सदस्य सचिव डॉ. धन प्रसाद सुवेदी, मुख्य अतिथि के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय की पूर्व प्रो. डॉ. चन्द्रकला पाण्डेय ने दीप-प्रज्वलित कर संगोष्ठी का उद्घाटन किया और कार्यक्रम के आरंभ में विभाग के विद्यार्थी आकाश चौधरी ने नागार्जुन की कविता ‘शासन की बन्दुक’ और शोध छात्रादीपालीओरावं ने युद्ध प्रसाद मिश्र की नेपाली कविता का पाठ किया। स्वागत भाषण विभाग की एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. विभा कुमारी ने किया। उद्घाटन सत्र में प्रो. डॉ. सावित्री नंदा चक्रबर्ती जी ने नेपाली और हिन्दी भाषा के सम्मिलन को बेहद महत्वपूर्ण बताया। प्रो. चन्द्रकला पाण्डेय जी ने नागार्जुन और युद्ध प्रसाद मिश्र की कविताओं के तुलनात्मक सन्दर्भों को उद्घाटित किया। तकनीकी सत्र के अध्यक्ष पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. अरुण होता ने नागार्जुन और युद्ध प्रसाद मिश्र की कविताओं में व्यक्त मुक्ति की चेतना को रेखांकित किया। नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो. देवी नेपाल ने दोनों कवियों की कविताओं में वैचारिक समानता, मानवीय चेतना और जागरण का संवाहक बताया है। एस.डी.आई. कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. सत्य प्रकाश तिवारी ने कहा कि नेपाली समाज की संरचना को समझने के लिए युद्ध प्रसाद मिश्र को पढ़ना जरूरी है। डॉ. नवराजलम्साल ने दोनों कवियों को सत्ता का प्रतिरोधी बताया है। इस संगोष्ठी में देश भर के विभिन्न कॉलेजों, विश्वविद्यालयों से आए शिक्षकों और शोधार्थियों ने शोध-पत्र वाचन किया। अध्यक्षता विभाग की प्रोफेसर डॉ. विभा कुमारी ने की संगोष्ठी का संचालन विभाग के शोधार्थी अनूप कुमार गुप्ता और अध्यापक डॉ. इबरार खान ने किया। विभागाध्यक्ष डॉ. हिमांशु कुमारके धन्यवाद ज्ञापन से कार्यक्रम संपन्न हुआ।

पं. भरत व्यास ने बेटे के वियोग में गीत बनाया , बन गया प्रेमगीत

साल था 1957 । फ़िल्म “जनम जनम के फेरे” रिलीज हुई। यह म्यूजिकल हिट साबित हुई । इस फ़िल्म के एक गाने “जरा सामने तो आओ छलिये” ने तो जैसे उस दौर में तहलका मचा दिया। यह गाना इतना सुपरहिट साबित हुआ कि उस साल की ‘बिनाका गीत माला” का यह नम्बर 1 गीत बन गया। इस गाने का अनोखा किस्सा है । इस गाने को लिखा था पंडित भरत व्यास ने । तो हुआ यों था कि पंडित भरत व्यास जी के एक बेटा था श्याम सुंदर व्यास ! श्याम सुंदर बहुत संवेदनशील था। एके दिन भरत जी से किसी बात पर नाराज़ होकर बेटा श्याम सुंदर घर छोड़ कर चला गया।

भरत जी ने उसे लाख ढूंढा। रेडियो और अख़बार में विज्ञापन दिया। गली गली दीवारों पर पोस्टर चिपकाए। धरती, आकाश और पाताल सब एक कर दिया।ज्योतिषियों, नजूमियों से पूछा। मज़ारों, गुरद्वारे, चर्च और मंदिरों में मत्था टेका। लेकिन वो नही मिला। ज़मीन खा गई या आसमां निगल गया। आख़िर हो कहां पुत्र? तेरी सारी इच्छाएं और हसरतें सर आंखों पर। तू लौट तो आ। बहुत निराश हो गए भरत व्यास।

उस समय भरत व्यास जी कॅरियर के बेहतरीन दौर से गुज़र रहे थे। ऐसे में बेटे के अचानक चले जाने से ज़िंदगी ठहर सी गई। किसी काम में मन नहीं लगता। निराशा से भरे ऐसे दौर में एक निर्माता भरत जी से मिलने आया और उन्हें अपनी फिल्म में गाने लिखने के लिए निवेदन किया। भरत जी ने पुत्र वियोग में उस निर्माता को अपने घर से निकल जाने को कह दिया ।लेकिन उसी समय भरत जी की धर्मपत्नी वहां आ गई ।उन्होंने उस निर्माता से क्षमा मांगते हुए यह निवेदन किया कि वह अगले दिन सुबह पुनः भरत जी से मिलने आए ।निर्माता मान गए। इसके पश्चात उनकी धर्मपत्नी में भरत जी से यह  निवेदन किया की पुत्र की याद में ही सही उन्हें इस फिल्म के गीत अवश्य लिखना चाहिए । ना मालूम क्या हुआ कि पंडित भरत व्यास ने अपनी धर्मपत्नी कि इस आग्रह को स्वीकार करते हुए गाने लिखना स्वीकार कर लिया ।

उन्होंने गीत लिखा – “ज़रा सामने तो छलिये, छुप-छुप छलने में क्या राज़ है, यूँ छुप न सकेगा परमात्मा, मेरी आत्मा की यह आवाज़ है.… ” । इसे ‘जन्म जन्म के फेरे’ (1957 ) फ़िल्म में शामिल किया गया। रफ़ी और लता जी ने इसे बड़ी तबियत से , दर्द भरे गले से गाया था। बहुत मशहूर हुआ यह गीत। लेकिन अफ़सोस कि बेटा फिर भी न लौटा।

मगर व्यासजी ने हिम्मत नहीं हारी। फ़िल्म ‘रानी रूपमती’ (1959 ) में उन्होंने एक और दर्द भरा गीत लिखा – “आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं, मेरा सूना पड़ा संगीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं.…”। इस गीत में भी बहुत दर्द था, और कशिश थी। इस बार व्यास जी की दुआ काम कर गई। बेटा घर लौट आया।

लेकिन आश्चर्य देखिये कि वियोग के यह गाने उस दौर के युवा प्रेमियों के सर चढ़कर बोलते थे ।यह पंडित व्यास जी की कलम का ही जादू था ।

पंडित भरत व्यास राजस्थान के चुरू इलाके से 1943 में पहले पूना आये और फिर बंबई। बहुत संघर्ष किया। बेशुमार सुपर हिट गीत लिखे। हिंदी सिनेमा को उनकी देन का कोई मुक़ाबला नहीं। एक से बढ़ कर एक बढ़िया गीत उनकी कलम से निकले। आधा है चंद्रमा रात आधी.… तू छुपी है कहां मैं तपड़ता यहां…(नवरंग)…निर्बल की लड़ाई भगवान से, यह कहानी है दिए और तूफ़ान की.… (तूफ़ान और दिया).…सारंगा तेरी याद में (सारंगा)…तुम गगन के चंद्रमा हो मैं धरा की धूल हूं.… (सती सावित्री)…ज्योत से ज्योत जलाते चलो.…(संत ज्ञानेश्वर)…हरी भरी वसुंधरा पे नीला नीला यह गगन, यह कौन चित्रकार है.…(बूँद जो बन गई मोती)…ऐ मालिक तेरे बंदे हम.…सैयां झूठों का बड़ा सरताज़ निकला…(दो आंखें बारह हाथ)…दीप जल रहा मगर रोशनी कहां…(अंधेर नगरी चौपट राजा)…दिल का खिलौना हाय टूट गया.…कह दो कोई न करे यहां प्यार …तेरे सुर और मेरे गीत.…(गूँज उठी शहनाई)…क़ैद में है बुलबुल, सैय्याद मुस्कुराये…(बेदर्द ज़माना क्या जाने?) आदि। यह अमर नग्मे आज भी गुनगुनाए जाते हैं। गोल्डन इरा के शौकीनों के अल्बम इन गानों के बिना अधूरे हैं।

व्यास जी का यह गीत – ऐ मालिक तेरे बंदे हम.…महाराष्ट्र के कई स्कूलों में सालों तक सुबह की प्रार्थना सभाओं का गीत बना रहा।पचास का दशक भरत व्यास के फ़िल्मी जीवन का सर्वश्रेष्ठ दौर था। 5 जुलाई को भरत व्यास जी की पुण्यतिथि है । पंडित भरत व्यास जी का जन्म 6 जनवरी, 1918 को बीकानेर में हुआ था। वे जाति से पुष्करना ब्राह्मण थे। वे मूल रूप से चूरू के थे। बचपन से ही इनमें कवि प्रतिभा देखने लगी थी । मजबूत कद काठी के धनी भरत व्यास डूंगर कॉलेज बीकानेर में अध्ययन के दौरान वॉलीबॉल टीम के कप्तान भी रह चुके थे।

 

खादी कारीगरों के पारिश्रमिक में एक अप्रैल से होगी 20 प्रतिशत की वृद्धि

नयी दिल्ली ।   खादी और ग्रामोद्योग आयोग ने होली पर्व के उपलक्ष्य में लाखों कारीगरों को पारिश्रमिक वृद्धि का उपहार दिया है। इनके पारिश्रमिक में एक अप्रैल 2025 से 20 प्रतिशत की वृद्धि की जाएगी। खादी और ग्रामोद्योग आयोग (केवीआईसी) के अध्यक्ष मनोज कुमार ने बताया कि वर्तमान में चरखे पर प्रति लच्छा कताई करने पर कत्तिनों को 12.50 रुपये मिलते हैं, जिसमें एक अप्रैल से 2.50 रुपये की वृद्धि की जाएगी। बढ़ी हुई दर के अनुसार, अब उन्हें प्रति लच्छा कताई पर 15 रुपये मिलेंगे। सरकार द्वारा कत्तिनों और बुनकरों की आय में ऐतिहासिक वृद्धि की गई। पिछले 11 वर्षों में मोदी सरकार ने खादी कारीगरों के पारिश्रमिक में 275 प्रतिशत की वृद्धि की है।

उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली स्थित भारत मंडपम में आयोजित भारत टेक्स-2025 के दौरान ‘खादी पुनर्जागरण’ के लिए ‘खादी फॉर फैशन’ का मंत्र दिया है। इस मंत्र को जन-जन तक पहुंचाने और खादी को आधुनिक परिधान के रूप में लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से केवीआईसी ने हाल ही में नागपुर, पुणे, वडोदरा, चेन्नई, जयपुर, प्रयागराज सहित देश के प्रमुख शहरों में भव्य खादी फैशन शो का आयोजन किया। उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री मोदी की प्रेरणा से आयोजित इन फैशन शो के माध्यम से ‘नये भारत की नई खादी’ को विशेष रूप से युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया गया, जो अत्यंत सफल रहा है। इससे खादी को एक नया आयाम मिला है और यह आधुनिक परिधानों के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर रही है।

केवीआईसी अध्यक्ष ने बताया कि पिछले 10 वर्षों में खादी एवं ग्रामोद्योग उत्पादों की बिक्री में ऐतिहासिक वृद्धि हुई है। खादी एवं ग्रामोद्योग उत्पादों की बिक्री 5 गुना यानी 31,000 करोड़ से बढ़कर वित्त वर्ष 2023-24 में 1,55,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गई। खादी कपड़ों की बिक्री 6 गुना यानी 1,081 करोड़ से बढ़कर वित्त वर्ष 2023-24 में 6,496 करोड़ रुपये तक पहुंच गई। वित्त वर्ष 2023-24 में 10.17 लाख नए लोगों को रोजगार मिला। वित्त वर्ष 2024-25 में उत्पादन एवं बिक्री का नया रिकॉर्ड बनेगा।

नहीं रहे वयोवृद्ध कवि आलोक शर्मा

कोलकाता । अग्रज कवि आलोक शर्मा हमारे बीच नहीं रहे । उन्होंने 10 मार्च को उन्होंने अंतिम सांस ली । आलोक जी के कविता संकलनों के फ्लैप की सूचना के अनुसार उनकी पहली रचना सन् 1947 में प्रकाशित हुई थी, और हमारी अपनी जानकारी के अनुसार ,अंत के बीमारी के चंद दिनों को छोड़ दें तो लगभग उम्र की अंतिम घड़ी तक रचनारत रहें । लगभग 75 सालों के इस रचनाशील जीवन के प्राणों की ज्योति आज बुझ गई, इससे अधिक दुखजनक भला और क्या हो सकता है । आलोक जी का जन्म सन् 1936 में कोलकाता में ही हुआ था जबकि परिवार मूलतः उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ का था । कोलकाता विश्वविद्यालय से ही स्नात्तोतकर पढ़ाई के बाद 1963 में उन्होंने पंडितराज जगन्नाथ के जीवन पर शोध किया था । लेखन का संस्कार उन्हें अपनी मां से मिला । 1959 में ही उनका एक उपन्यास ‘उसे क्षमा करना’ प्रकाशित हो गया था । शुरू में उनकी कहानियां धर्मयुग, सारिका, नई कहानियां, कहानी, लहर, तरंगिनी, नई धारा, तथा अणिमा आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करती थी । उनका पहला कविता संकलन आयाम 1965 में प्रकाशित हुआ, समुद्र का एकान्त 1981 में और आजादी का हलफनामा (लंबी कविता) 1984 में । 1967 में ‘चेहरों का जंगल’ एक संवादहीन नाटक छपा । उन्होंने देश-विदेश की काफी यात्राएँ कीं और उनके यात्रा संस्मरण भी समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं । वे कोलकाता के दूरदर्शन और आकाशवाणी केंद्रों से भी जुड़े रहे । आलोक जी के बारे में उपरोक्त सीमित सूचनाएं हमने हमारे पास उपलब्ध उनके कविता संकलन ‘समुद्र का एकान्त’ और उनकी एक लंबी कविता ‘आजादी का हलफनामा’ से ली है । उनके बाद के संकलनों को तो हमें देखने का मौका नहीं मिला, पर विगत कई सालों से फेसबुक पर उनकी कविताएँ पढ़ा करता था और मैसेंजर पर उनकी कविताओं के संदर्भ में ही उनसे नियमित संपर्क भी बना रहता था । निजी तौर पर आलोक जी की हमारी स्मृतियां लगभग पचास साल से भी पुरानी है । तभी से उनके बात करने के अंदाज का एक बिंब तो हमारे मस्तिष्क पर हमेशा से अटका रहा है । सन् ’70 का वक्त था । हमारे पिता सेंट्रल एवेन्यू के कॉफी हाउस में हर शाम जाया करते थे । वहीं पर आलोक जी भी अपने मित्रों शंकर माहेश्वरी, नवल जी, कृष्णबिहारी मिश्र आदि के साथ एक टेबुल पर नियमित बैठते थे । एक बार इसराइल साहब के साथ हमें भी उनकी टेबुल पर बैठने का मौका मिला । वहां आधुनिक Abstract Art (अमूर्त कला) के बारे में बात चल रही थी । आलोक जी बड़ी गहराई से यथार्थवादी कला में थोथे अलंकरण की आलोचना करते हुए कह रहे थे कि जैसे कमीज में कॉलर की कोई उपयोगिता नहीं होती है, वैसे ही यथार्थवादी कला का अधिकांश निरर्थक और अनुपयोगी कहा जा सकता है । अनुभूति किसी समग्र, अलंकृत आकृति के बजाय रंगों, रेखाओं, आकारों और बनावटों के माध्यम से ही व्यक्त होती है । बाकी सब अनुभूतियों को छिपाते हैं ।
तब हमारी उम्र काफी कम थी । कॉलेज के बाद पार्टी आफिस जाना शुरू ही किया था । हम काफी उत्साहित रहते थे । कॉफी हाउस की उस छोटी सी चर्चा से ही एक प्रखर बुद्धिजीवी के रूप में मन में आलोक जी की जो छवि बनी, वह आज भी कायम है । पिछले कुछ सालों से वे हमें मैसेंजर पर अपनी कविताएं भेजा करते थे । काफी अच्छी लगती थी । बीच-बीच में हम उन पर टिप्पणियां भी करते थे । पांच साल पहले 2020 में उन्होंने अपनी एक बहुचर्चित थोड़ी लंबी कविता ‘संस्कार’ का एक अंश ‘आस्था’ शीर्षक लगा कर भेजा था । यह कविता उनके संकलन ‘समुद्र का एकान्त’ में संकलित है जो हमारे पास मौजूद थी । उसके फ्लैप पर नामवर जी ने ‘संस्कार’ पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि “कविता ‘संस्कार’ के बारे में क्या कहूं ? कहने के लिए बस इस समय सिर्फ इतना ही है कि यह कविता “एक अनुभव है” । मैंने इसे पढ़ा और आज का दिन सार्थक हुआ। बस – एक चित्र आंखों के सामने है “ऐसे वक्त सुबह की हल्की हवा में और ढलती हुई चांदनी में जैसे हमने किसी सफेद फूल को हँसते हुए देख लिया हो”… ” आलोक जी ने हमें ‘आस्था’ शीर्षक के साथ इस कविता का जो अंश भेजा उसमें सहारे की तलाश में बोगनबेलिया की काँटेदार शाखाओं को ही अनायास पकड़ते रहने की जीवन में दोहराव की मजबूरियों, “दिगन्त का सूनापन”, “मसीहा की तलाश”. “थकी हुई साँस”, “नीली रिक्तता” के बिंबों से प्रेषित आंतरिक बेचैनी अंततः यही कहती है कि ‘आस्था’ कोई बाहरी देन नहीं, बल्कि व्यक्ति की अपनी आंतरिक शक्ति और सतत संघर्ष से प्राप्त स्वीकृति है।
इसी प्रकार आलोक जी ने अपनी ‘फाग’ के तीन रंगों, काला, लाल और हरा पर अपनी अद्भुत तीन कविताएं पढ़वाई थी । इन कविताओं में ‘फाग’ के रंगों को पारंपरिक उल्लास से निकालकर संघर्ष, प्रतिरोध और सामाजिक न्याय के संदर्भ में स्थापित किया गया था । काला रंग अनोखे ढंग से सहानुभूति और इतिहासबोध का विस्तार लिए हैं, लाल रंग में विद्रोह और परिवर्तन की आकांक्षा है, तो हरा रंग धैर्य, आशा और भविष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।
प्रसिद्ध विचारक प्रोफेसर पी. लाल ने आलोक जी की कविताओं के बारे में बिल्कुल सही लिखा था कि वे “वेधक प्रतिबिम्बों से भरी हुई हैं।” वे एक कविता पर तो यहां तक लिख जाते हैं कि वह “मेरे सपनों में भी निरन्तर मेरा पीछा करती रहेगी । यह कविताएं, एक प्रयोगवादी मस्तिष्क को उजागर करती हैं…” । यही कवि और लेखक आलोक शर्मा जी का सच था ।
(फेसबुक के सौजन्य से अरुण माहेश्वरी द्वारा रचित)

जानिए कैसे होते हैं विषैले टॉक्सिक रिश्ते और लोग

क्या आप जानते हैं विषैले लोग कौन होते हैं? आपके पास कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो बहुत कुछ साथ में लग रहा है, लेकिन अंदर से, वह धीरे-धीरे आपको नष्ट कर रहा है।

विषैले व्यक्ति की उपस्थिति आपके जीवन में जहर के समान काम करती है। शुरू में, आप इसे महसूस नहीं करते, लेकिन समय के साथ, आपको उसके आसपास का बोझ महसूस होने लगता है, और आपका मन थका हुआ महसूस होने लगता है। एक दिन, आपको यह अहसास होगा कि जिस बोझ को आप ढो रहे थे, वह वास्तव में उसी व्यक्ति ने पैदा किया था।

लेकिन आप यह कैसे पहचान सकते हैं कि कोई व्यक्ति विषैले है? कुछ व्यवहार हैं, जो अगर आप ध्यान से देखें तो यह समझने में मदद करेंगे कि वह व्यक्ति आपके लिए कितना हानिकारक है। चलिए, हम विषैले लोगों के व्यवहार का विश्लेषण करते हैं:

1. सब कुछ की आलोचना करना एक विषैले व्यक्ति इस तरह आलोचना करता है कि आपको लगता है कि आप कुछ नहीं जानते या कुछ नहीं कर सकते। वे आपके अच्छे काम में भी दोष निकालते हैं, और उनकी आलोचना कभी भी रचनात्मक नहीं होती, यह केवल आपको नीचा दिखाने के लिए होती है।

2. शब्दों से आपको बांधना वे इस तरह बोलते या व्यवहार करते हैं कि आप खुद पर विश्वास खो बैठते हैं। वे आपको दोषी ठहराते हैं और परिस्थितियों को अपने फायदे के लिए मोड़ते हैं, जिससे आप खुद को उनके खेल का मोहरा महसूस करते हैं।

3. आपको गलत साबित करने की कोशिश करना वे हमेशा आपके निर्णयों या कार्यों पर शक करते हैं। भले ही आप किसी चीज़ के बारे में निश्चित हों, उनके शब्द आपको अपने फैसले पर सवाल उठाने के लिए मजबूर कर देते हैं।

4. अपने समस्याओं का दोष आप पर डालना वे हमेशा victim होते हैं और कभी अपनी समस्याओं की जिम्मेदारी नहीं लेते। वे कभी अपनी गलतियों को नहीं मानते और इसके बजाय आपको दोषी ठहराते हैं, जिससे आपको अपराधबोध महसूस होता है।

5. लगातार शिकायत करना उनके आसपास सब कुछ गलत लगता है। वे हर चीज़ की शिकायत करते हैं, और यह नकारात्मक मानसिकता धीरे-धीरे आपके जीवन को भी प्रभावित करने लगती है।

6. आपके भावनाओं से खेलना उन्हें आपकी खुशी या दुख से कोई फर्क नहीं पड़ता। चाहे आप दुखी हों या खुश, वे निष्ठुर रहते हैं। जब वे आपको चोट पहुँचाते हैं, तो उन्हें कोई करुणा नहीं होती।

7. आपकी सफलता देख कर असहज महसूस करना जब वे आपकी सफलता देखते हैं, तो वे आपके लिए खुश नहीं होते। इसके बजाय, वे जलते हैं। वे आपकी उपलब्धियों को तुच्छ मानते हैं, मजाक उड़ाते हैं या आपको नीचे गिराने की कोशिश करते हैं।

8. व्यवहार में दोहरे मानक एक दिन वे मीठे होते हैं, और अगले दिन अचानक शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं। यह असंगति आपको मानसिक दबाव में रखती है, जिससे यह समझना मुश्किल हो जाता है कि उनके साथ कैसे व्यवहार करें।

9. लेना और देना न जानना एक विषैले व्यक्ति के लिए रिश्ते सिर्फ लेने के बारे में होते हैं। वे आपको इस्तेमाल करते हैं और लाभ उठाते हैं, लेकिन बदले में कुछ नहीं देते।

10. आपके “न” को न मानना वे आपकी व्यक्तिगत सीमाओं का सम्मान नहीं करते। उनका आपके समय, विचारों या आराम से कोई मतलब नहीं होता।

एक विषैले रिश्ते से बाहर निकलना आसान नहीं है, लेकिन यह बेहद महत्वपूर्ण है। आपके जीवन के हर क्षण का मूल्य है। ऐसे लोगों के साथ समय बर्बाद करने के बजाय, अपनी मानसिक शांति और खुशी को प्राथमिकता दें।

याद रखें, जो लोग वास्तव में आपसे प्यार करते हैं, वे आपको मानसिक रूप से दबाव नहीं डालेंगे।

साभार ” पब्लिक ऑथर (सौजन्य – फेसबुक)

भारतीयता को आवाज देने वाले फनकार फिराक गोरखपुरी

ललित गर्ग
रघुपति सहाय से फिराक गोरखपुरी बने, वे भारत के एक प्रसिद्ध उर्दू शायर, कवि, लेखक और आलोचक थे। उनकी साहित्यिक प्रतिभा कविता, गजल, नज्म और निबंध सहित विभिन्न शैलियों में फैली हुई है। प्रगतिशील लेखक आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व, गोरखपुरी की रचनाओं में मानवीय भावनाओं, सांस्कृतिक मूल्यों और सामाजिक मुद्दों की गहरी समझ झलकती है। उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति ने शास्त्रीय लालित्य को आधुनिक संवेदनाओं के साथ जोड़ा, जिन्होंने शायरी को लोक बोलियों से जोड़कर उसमें नई लोच, नई रंगत, नई ऊर्जा एवं नये मानक उत्पन्न किये। उन्हें फारसी, हिन्दी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ थी, इन्हीं कारणों से उनकी शायरी में भारत की विविधताओं युक्त सांझी रची-बसी हुई है। वे जन-कवि और सौन्दर्य के परम उपासक के रूप में असंख्य लोगों के दिल और दिमाग में रचे-बसे हैं। वैसे भी फ़िराक़ के दौर को देखा जाए तो उस वक्त हर तरफ कद्दावर लोग थे। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत के अलावा पंडित जवाहर लाल नेहरू, महादेवी वर्मा, अमरनाथ झा, हरिवंशराय बच्चन समेत और भी कई बड़े कलमकार उसी इलाहाबाद में थे। इलाहाबाद के बाहर की दुनिया की बात करें तो महात्मा गांधी के उस दौर में कई बड़े दार्शनिक, कवि और शायर राष्ट्रीय फलक पर सितारे की तरह चमक रहे थे। उस कहकशां में भी फ़िराक़ की चमक कहीं कम नहीं पड़ती है।
फिराक को शायरी की प्रेरणा पिता मुंशी गोरख प्रसाद से भी मिली। बचपन के चमकते-दमकते वैभव के बावजूद उनकी नजरें हमेशा जमीन की ओर देखती रही। उनकी जिन्दगी और रचनाओं का सफर न केवल रोचक रहा, बल्कि प्रेरणा का स्रोत भी रहा। वे साहिर, इकबाल, फैज, तथा कैफी आजमी से अत्यधिक प्रभावित हुए। रामकृष्ण परमहंस की कहानियों से आरंभ करने के बाद उन्होंने अरबी, फारसी और अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण की। सन् 1917 में डिप्टी कलेक्टर के पद के लिए चुने गए परंतु महात्मा गांधी के स्वराज्य आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने 1918 में पद से त्यागपत्र दे दिया। 1920 में स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के कारण उनको डेढ़ वर्ष की जेल की यात्रा सहन करनी पड़ी। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक भी रहे। उनका कहना था कि उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा नहीं है बल्कि आम भारतवासियों की भाषा है। पंडित जवाहरलाल नेहरू उनकी इस सोच से अत्यधिक प्रभावित हुए, नेहरू ने फिराक को जेल से छूटने के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस के कार्यालय में अन्डर सेक्रेटरी बना दिया। इंदिरा गांधी भी उनको बहुत सम्मान देती थी और उनको राज्यसभा में भेजना चाहती थी। लेकिन उन्होंने राज्यसभा जाने से इंकार कर दिया।
फिराक अपनी हाजिर जवाबी की वजह से फिराक काफी मशहूर थे। उनका बातचीत का लहजा इतना चुटीला होता था कि एक बार कोई उनके पास बैठ जाए तो उठता नहीं था। वह जो भी बोलते थे, बेधड़क बोलते थे और अंदाज ऐसा कि महफिल ठहाकों में भर उठती थी। वे जिन्दादिल इंसान थे तो चित्रता में मित्रता के प्रतीक थे। स्वभाव में एक औलियापन है, फक्कड़पन है और अलमस्त अंदाज है। किसी को उनका व्यक्तित्व भाया तो किसी को वह बिल्कुल पसंद नहीं आए लेकिन उनके शेरों की कद्र हर किसी ने पूरी तबीयत से की। उनका लोहा तब भी जग ने माना और आज भी मान रहा है। वे सदियों तक इसी तरह अपनी शायरी के कारण जीवंत बने रहेंगे।
फिराक की जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा इलहाबाद बीता। और यहीं से वे शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचे। इलाहाबाद में फिराक, महादेवी वर्मा और निराला को मिलाकर उस दौर के साहित्य की दुनिया की त्रिवेणी बनती थी। उनकी अनौपचारिक संगोष्ठियों में अंग्रेजी के विद्वानों के साथ-साथ तुलसी, कालिदास और मीर के पाठ भी समानांतर चलते थे। उनके आवास लक्ष्मी निवास पर साहित्यकारों की खूब महफिल सजती थी। महफिल सजाने वालों में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द भी शामिल थे। फिराक भरी-पूरी संभावनाओं का नाम रहा है, जहां साहित्य की अनेक सरिताएं प्रवहमान रही हैं। फिराक तबीयत से भले ही हर किसी को बागी नजर आए लेकिन उनकी शायरी सहज थी। उनके शेरों में संवेदनाएं, नेकदिली और जिंदादिली का अहसास कोई भी कर सकता है। उर्दू गजल के पारंपरिक अंदाज में बिना किसी छेड़छाड़ के नए लहजे की शायरी की जो अद्भुत मिसाल उन्होंने पेश की, उससे शायरी के कद्रदानों के अलावा मशहूर शायर भी उनके कायल हो गए।
निदा फाजली जैसे शायर ने तो शायरी की दुनिया में गालिब और मीर के बाद फिराक को तीसरे पायदान पर रखा है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा जैसे साहित्यकारों के सान्निध्य में उन्होंने अपनी शायरी को ऊंचाई दी। पद्मश्री अली सरदार जाफरी ने फिराक को उर्दू शायरी की नई आवाज करार दिया। जोश मलीहाबादी ने कहा कि फिराक उर्दू के उस्ताद शायरों में एक बड़े नामवर गोशे के मालिक हैं। साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. विश्वनाथ तिवारी ने फक्कड़, मूडी, गुस्सैल आदि अनेक परिचय के धनी फिराक को शायरी के दुनिया का बेताज बादशाह कहा है। यही कारण है कि मिर्जा गालिब और अमीर खुसरो की तरह ही फिराक गोरखपुरी के जीवन पर भी कई फिल्में बन चुकी हैं। एक फिर फिल्म गवर्नमेंट आफ इंडिया के फिल्म डिविजन ने भी बनाई है।
फिराक के जीवन पर कई किताबें भी लिखी गईं हैं। उनकी स्वयं की अनेक पुस्तक हैं, जिनमें प्रमुख हैं- गुल-ए-नगमा, बज्म-ए-जिंदगी, रंगे शायरी, मशअल, रूह-ए-कायनात, नग्मा-ए-साज, गजलिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागा, शोअला व साज, हजार दास्तान, हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधी रात, परछाइया और ताराना-ए-इश्क, सत्यम शिवम सुंदरम। इसके अलावा फिराक ने एक उपन्यास ‘साधु और कुटिया’ तथा कई कहानियां भी लिखीं हैं। वे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हुए हैं- 1960 में साहित्य अकादमी अवार्ड, 1968 में साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में पद्मभूषण सम्मान, 1969 में गुल-ए-नगमा के लिए ज्ञानपीठ अवार्ड एवं 1969 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार। वे ऐसे लेखक एवं शायर हैं, जिनके जीवन की चादर पर सकारात्मकता, संवेदना एवं प्रेम के रंग बिखरे हुए है। फिराक दार्शनिक कवि-शायर हैं तो सनातन सत्य एवं जीवनमूल्यों को सहजता से उद्घाटित करने वाले जादूगर भी है। वे उर्दू नक्षत्र का ऐसा जगमगाता सितारा हैं, जिसकी रोशनी शायरी को सराबोर करती रहेगी, इस अलमस्त शायर की शायरी की गूंज हमारे दिल और दिमाग में हमेशा जिन्दा रहेगी।

(साभार – प्रभासाक्षी)

विजय दुर्ग हुआ फोर्ट विलियम का नया नाम

कोलकाता । भारत सरकार ने कोलकाता स्थित सेना के ऐतिहासिक पूर्वी कमान मुख्यालय फोर्ट विलियम का नाम बदलकर ‘विजय दुर्ग’ किया है। यह कदम देश की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान को पुनर्स्थापित करने और सैन्य पराक्रम को सम्मानित करने के प्रयासों का हिस्सा है। इस निर्णय के जरिए औपनिवेशिक काल की विरासत को हटाकर भारत की समृद्ध परंपराओं और वीरता को नई पहचान देने की कोशिश की गई है। इस निर्णय से भारत की सांस्कृतिक स्वतंत्रता, सैन्य शक्ति और राष्ट्रीय स्वाभिमान को नई मजबूती मिलेगी, जो देश को एक आत्मनिर्भर, सशक्त और गौरवशाली भविष्य की ओर ले जाएगा। ‘विजय दुर्ग’ का अर्थ है ‘विजय का किला’, जो भारत की सैन्य शक्ति, रणनीतिक उत्कृष्टता और वीरता का प्रतीक है। यह भारतीय सेना की पूर्वी कमान (ईस्टर्न कमांड) का मुख्यालय रहा है और यह भारत की रक्षा तैयारियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। नया नाम भारतीय सेना की वीरता और बलिदान को सम्मान देने के साथ-साथ राष्ट्र की सैन्य शक्ति को मजबूत करने का संदेश देता है। ‘विजय’ शब्द भारतीय सेना की गौरवशाली विजय गाथाओं से जुड़ा हुआ है, जिसमें विशेष रूप से १९७१ के भारत-पाक युद्ध का उल्लेख किया जाता है। इस युद्ध में भारतीय सेना ने पूर्वी कमान के नेतृत्व में पाकिस्तान के खिलाफ ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का गठन हुआ। हर साल दिसंबर में ‘विजय दिवस’ के रूप में इस विजय का उत्सव मनाया जाता है। इसी कारण सरकार ने इस किले का नाम ‘विजय दुर्ग’ रखने का निर्णय लिया, जिससे यह नाम भारतीय सैन्य इतिहास की इस महान जीत से सीधा जुड़ सके। भारत ने स्वतंत्रता के बाद से औपनिवेशिक काल की छवि मिटाने और अपनी विरासत को पुनर्स्थापित करने के लिए कई प्रयास किए हैं। फोर्ट विलियम का निर्माण ब्रिटिश हुकूमत ने १६९६ में किया था और इसका नाम इंग्लैंड के राजा विलियम तृतीय के नाम पर रखा गया था। इसे ब्रिटिश शासन का प्रतीक माना जाता रहा है। राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक पहचान को सशक्त करने की पहलफोर्ट विलियम का नाम बदलकर ‘विजय दुर्ग’ करना सिर्फ प्रतीकात्मक बदलाव नहीं बल्कि यह भारत की खोई हुई विरासत को पुनः स्थापित करने की दिशा में एक ठोस कदम है। औपनिवेशिक काल में रखे गए कई नाम भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान को नहीं दर्शाते। ऐसे में सरकार का यह निर्णय राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत करता है और यह संदेश देता है कि भारत को अपनी संस्कृति, इतिहास और नायकों पर गर्व होना चाहिए। यह कदम ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ जैसी पहल से भी जुड़ा हुआ है, जिनका उद्देश्य स्वतंत्रता के बाद भारत की उपलब्धियों का उत्सव मनाना है। यह नाम परिवर्तन भारतीय गौरव और स्वाभिमान को दर्शाने के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करता है कि भारतीय इतिहास को भारतीय दृष्टिकोण से देखा जाए, न कि ब्रिटिश शासन के अवशेषों के रूप में। महत्वपूर्ण योगदान’विजय दुर्ग’ न केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है, बल्कि यह भारत की सैन्य तैयारियों का भी प्रतीक है। पूर्वी कमान का यह मुख्यालय कई महत्वपूर्ण सैन्य अभियानों का केंद्र रहा है, जिनमें शामिल हैं: १९६२ का भारत-चीन युद्ध१९७१ का बांग्लादेश मुक्ति संग्रामपूर्वोत्तर भारत में उग्रवाद विरोधी अभियान इन अभियानों में फोर्ट विलियम का रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ऐसे में इसका नाम ‘विजय दुर्ग’ करने से यह भारत की सैन्य परंपराओं और भविष्य की रक्षा तैयारियों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

स्त्री कविता उत्सव के साथ मनाया गया महिला दिवस

कोलकाता । नए युग में स्त्री भारतीय जागरण का एक मुख्य आधार है। स्त्रियां जहां भी हैं, वे उत्सव हैं और जागरण हैं। यह कहा अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर भारतीय भाषा परिषद द्वारा आयोजित स्त्री कविता उत्सव में अध्यक्ष डा. कुसुम खेमानी ने। इस अवसर पर सुपरिचित कथाकार शर्मिला बोहरा जालान के नए कहानी संग्रह ‘साख’ का लोकार्पण हुआ। इसपर बोलते हुए प्रो. इतु सिंह ने कहा कि शर्मिला बोहरा जालान की कहानियां स्त्री जीवन के साथ कोलकाता के जीवंत परिवेश की अभिव्यक्ति हैं। बिहार से आईं प्रतिभा चौहान के कविता संग्रह ‘क्षितिज हथेली पर’ का भी लोकार्पण संपन्न हुआ और उन्होंने कविता पाठ से स्त्री की दशा, उसके आत्मविश्वास और आदिवासियों के संघर्ष को सामने ला दिया। स्त्री कविता उत्सव में गया की चाहत अन्वी ने मुस्लिम स्त्री की मार्मिक मनोदशा को उभारा तो रांची से आईं सावित्री बड़ाइक ने आदिवासी आत्मपहचान और दर्द को। परिषद के सभागार में भारी उपस्थिति के बीच कोलकाता की वरिष्ठ और नवोदित कवयित्रियों ने स्त्री संवेदना से जुड़ी कविताएं पढ़ी हैं। स्त्री कविता उत्सव में गीता दूबे, रौनक अफरोज, पूनम सोनछात्रा, मनीषा गुप्ता, सविता पोद्दार, कविता कोठारी, कलावती कुमारी, मधु सिंह, सुषमा कुमारी, शुभश्री बैनर्जी ने अपनी कविताओं का पाठ किया।इस अवसर पर बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे।

नहीं रहे राजेंद्र नारायण वाजपेयी

कोलकाता ।  प्रसिद्ध विद्यानुरागी, दूरदर्शी और सौम्य व्यक्तित्व के धनी राजेन्द्र नारायण वाजपेयी का निधन हो गया है। अपनी धुन के पक्के श्री वाजपेयी भारतमित्र के संपादक थे। भारतमित्र के अलावा कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं का भी उन्होंने सफल प्रकाशन व संपादन किया। 1950 में जन्मे राजेन्द्र नारायण वाजपेयी ने पत्रकारिता के इतिहास में युगांतरकारी घटना का सूत्रपात करते हुए अपने प्रपितामह पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी के सपने को साकार करने का व्रत लिया। ज्ञात रहे कि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट के तहत भारतमित्र का प्रकाशन बंद करा दिया गया था लेकिन राजेंद्र नाराय़ण वाजपेयी (राजू बाबू) की निष्ठा और सतत प्रयास से भारतमित्र एक बार फिर जनता के बीच उपस्थित है। उनके निधन पर पूरा भारतमित्र परिवार शोकाकुल है एवं उनकी आत्मा की शांति की कामना करता है।

जान पर खेलकर बच्ची ने बचा ली 6 मासूम भाई-बहनों की जान

झुलस गए बाल और हाथ
फागी। जहां पूरा राजस्थान शनिवार को महिला दिवस व पन्नाधाय जयंती मना रहा था वहीं एक दस साल की बालिका अपने छोटे भाई-बहनों के लिए पन्नाधाय बनकर आग की लपटों में कूदकर उन्हें सुरक्षित बचा लाई। घटना है फागी उपखंड के निमेड़ा गांव में मांसी नदी किनारे बंजारा बस्ती की है। जहां बालिका ने छह जिंदगियां बचाकर सूझबूझ का परिचय दिया। इनमें दो दुधमुंहे बच्चे भी थे।
जानकारी के मुताबिक बंजारा बस्ती निमेडा में रहने वाले ओमप्रकाश, राकेश पुत्र गणेश बंजारा के छप्परपोश में शनिवार दोपहर करीब 12:30 बजे शॉर्ट शर्किट से अचानक आग लग गई। इस दौरान घर में बच्चों के अलावा कोई नहीं था। ओमप्रकाश व राकेश मजदूरी पर गए थे वहीं महिलाएं खेतों पर थी।
घर पर छोटे भाई-बहन कोमल (6), शीतल (6) नीतू (4) तनु (4) रितिका (2) हर्षित (18 माह) और रामधणी (3 माह) की देखभाल कक्षा 6 में पढ़ने वाली बालिका सरिपना कर रही थी। वह नहाने चली गई तो छोटी बहन कोमल ने बताया कि घर में आग लग गई।
इस पर बालिका ने बहादुरी दिखाते हुए आग बुझाने का प्रयास किया लेकिन आग नहीं बुझी तो पहले चारपाई पर सो रहे मासूम हर्षित व रामधनी को लपटों के बीच से निकालकर बाहर लाई। इसके बाद चार बहनों को भी आग से बचाकर बाहर निकाला। भाई-बहनों को बचाते समय सरिपना के बाल व हथेली झुलस गई। सभी बच्चों को बाहर निकालकर शोर मचाया तो आसपास के लोग एकत्र हुए और आग बुझाने के प्रयास किए लेकिन आग बढ़ गई। आग में तीन छप्परपोश जलकर राख हो गए। पास ही स्कूल से अध्यापक अवधेश शर्मा मौके पर पहुंचे और पानी का टैंकर मंगवाया। वहीं एक बाइक को सुरक्षित निकाला। छप्परपोश में बंधे कई मवेशी जिंदा जल गए। इसस पहले सरिपना ने उन्हें भी बचाने के लिए हिम्मत जुटाई लेकिन लोगों ने उसे रोक लिया। कुछ देर बाद सरपंच और पटवारी मौके पर पहुंचे और मदद का आश्वासन दिया।