Monday, July 28, 2025
खबर एवं विज्ञापन हेतु सम्पर्क करें - [email protected]
Home Blog Page 159

भारतीय मूल के ऋषि सुनक ब्रिटेन के पहले एशियाई और हिंदू प्रधानमंत्री

लंदन । भारतीय मूल के ऋषि सुनक ब्रिटेन के पहले एशियाई और हिंदू प्रधानमंत्री बन गए है। दिवाली के मौके पर सुनक को कंजर्वेटिव पार्टी का नेता चुना गया और अब वह पूर्व पीएम लिज ट्रस की जगह लेंगे। ट्रस ने 45 दिनों के अंदर ही अपना इस्‍तीफा सौंप दिया और उसके बाद फिर से पीएम के लिए रेस शुरू हुई थी। सुनक के पीएम बनने पर ब्रिटिश मीडिया में भी अलग-अलग तरह से प्रतिक्रिया दी गई है। एक बड़े वर्ग का मानना है कि यह किसी मील के पत्‍थर सा है जो बताता है कि कई धर्मों वाले समाज के तौर पर ब्रिटेन कितना आगे बढ़ चुका है।
यूके में यूं तो पीएम की कैबिनेट में कई एशियाई रहे लेकिन यह पहली बार है जब किसी अश्‍वेत शख्‍स को देश का प्रधानमंत्री चुना गया है। ब्रिटिश फ्यूचर थिंकटैंक से जुड़े सुंदर कतवाल ने द गार्डियन से कहा, ‘यह एक एतिहासिक पल है जो आज से एक या दो दशक पहले असंभव था।’ उनकी मानें तो इससे साफ पता चलता है कि ब्रिटेन का सर्वोच्‍च पद अब हर धर्म और नस्‍ल के लिए खुला है। सुनक का पीएम बनना आने वाले समय में कई ब्रिटिश-एशियाई लोगों के लिए गर्व की अनुभूति करायेगा और उनके लिए प्रेरणा स्‍त्रोत बनेगा।
वो लोग जो सुनक की पारंपरिक राजनीति से सहमति नहीं रखते हैं, वो भी उनके कायल बने रहेंगे। भारत समेत जब दुनिया के अलग-अलग हिस्‍सों में जब दिवाली का जश्‍न जारी था और दीपक जलाये जा रहे थे, उसी समय सुनक के पीएम बनने की खबर आई। दो साल पहले जब सुनक एक चासंलर थे तो उन्‍होंने अपने आधिकारिक निवास 11 डाउनिंग स्‍ट्रीट के दरवाजे पर दीये लगाए थे। यह वह समय था जब कोविड-19 के प्रतिबंध जारी थे। पीएम बनते ही सुनक की वह फोटोग्राफ वायरल होने लगी। सुनक ने उस समय कहा था, ‘यह मेरे लिए गर्व की बात है कि मुझे दिवाली पर डाउनिंग स्‍ट्रीट के दरवाजे पर दीपक लगाने का मौका मिला।’

सुनक को खुद को हिंदू होने पर गर्व है। उन्‍होंने एक बार इंटरव्‍यू में कहा था, ‘मेरा धर्म मुझे ताकत देता है। यह मुझे एक मकसद देता है कि कैसे जिंदगी जीनी है। आज मैं जो कुछ हूं, यह उसका हिस्‍सा है।’ साल 2017 में जब उन्‍होंने आम चुनावों में जीत हासिल की तो भगवद गीता पर हाथ रखकर सांसद होने की शपथ ली थी। हालांकि पिछले हफ्ते देश के गृहमंत्री का पद संभालने वाले ग्रांट शैप्‍स सुनक के पीएम बनने को ज्‍यादा तवज्‍जो नहीं देते हैं। उन्‍होंने यह तो माना कि यह एक यादगार पल है लेकिन यह भी कहा कि यह कोई ऐसा मौका भी नहीं है जिसे असाधारण करार दिया जाये।

50 साल की उम्र में बनीं यूट्यूबर, छाई जौनपुर की ‘अम्‍मा की थाली’

जौनपुर । यूपी के पूर्वांचल में एक जिला है जौनपुर। जौनपुर में एक छोटा सा गांव है रखवा… शायद आपने सुना नहीं होगा लेकिन सात समंदर पार अमेरिका, फिजी, दुबई में इस गांव की ‘अम्‍मा की थाली’ मशहूर है। साल 2016 में जब इस गांव में 4जी इंटरनेट पहुंचा तो तीन बच्‍चों की मां शशिकला चौरसिया ने सोचा भी नहीं था कि वह घर की चौखट लांघकर साइबर स्‍पेस की दुनिया में शामिल होने वाली हैं। उनके बेटे चंदन ने यूट्यूब और इंटरनेट की ताकत को पहचाना और उसमें अपनी मां के हाथ के स्‍वाद को जोड़ दिया। नतीजा यह है कि आज शशिकला चौरसिया अपना यूट्यूब चैनल चला रही हैं। उनके 1.6 मिलियन यानि 16 लाख सब्‍सक्राइबर्स हैं। इस यूट्यूब चैनल की बदौलत वह आज हर महीने औसतन 70 हजार रुपये तक कमा लेती हैं।
शशिकला चौरसिया शुरू से ही ऐसा खाना बनाती थीं कि आस-पड़ोस, गली-मुहल्‍ले वाले उंगलियां चाटते रह जाते थे। खूब तारीफ भी होती थी। शशिकला इसी में खुश थीं। लेकिन उनके बेटे चंदन (29) ने देखा कि उसके कुछ दोस्‍त गांव में पहुंचे 4जी इंटरनेट की बदौलत यूट्यूब और सोशल मीडिया पर वीडियो वगैरह पोस्‍ट करके पैसे कमाने की बातें कर रहे हैं।
पहले तो शशिकला नहीं मानीं
चंदन ने कुछ दिन रिसर्च की और इसके बाद अपने भाइयों सूरज और पंकज से कुछ राय मशवरा किया। इसके बाद अपनी मां शशिकला से कहा कि क्‍यों न वह जो बेहतरीन व्‍यंजन बनाती हैं उसे यूट्यूब पर पोस्‍ट कर दिया करें। इससे तारीफ भी मिलेगी और भविष्‍य में पैसे भी मिल सकते हैं। शशिकला के गले यह बात नहीं उतरी, भला चूल्‍हे पर बने खाने का वीडियो कोई क्‍यों देखेगा… और पैसे… वह कोई क्‍यों देगा?
पहला वीडियो नहीं चल पाया
लेकिन बालहठ के आगे मां की एक न चली और 1 नवंबर 2017 को ‘बूंदी की खीर’ का वीडियो बनाकर यूट्यूब पर पोस्‍ट किया गया। कक्षा 5 तक पढ़ी शशिकला कैमरे के सामने आने में हिचक रही थीं इसलिए उनकी शर्त थी कि उनका चेहरा नहीं आना चाहिए। खैर, वीडियो बना… लेकिन बच्‍चों का दिल टूट गया। महज 15-20 व्‍यूज आए। लेकिन उन्‍होंने हिम्‍मत नहीं हारी।
आम का अचार हुआ वायरल
शशिकला भी पिछले 30 बरस से खाना ही बनाती आ रही थीं, वह उसी में खुश थीं लेकिन बच्‍चे लगे रहे। अबकी बार मई 2018 में उनकी जिद पर ‘आम के आचार’ का वीडियो पोस्‍ट किया गया। आम का अचार काम कर गया, यह वीडियो वायरल हो गया और लाखों लोगों ने इसे देखा। तब से आजतक ‘अम्‍मा की थाली’ ने पलटकर नहीं देखा।
अब पैसे आते हैं अम्‍मा के अकाउंट में
इसका चैनल का नाम ‘अम्‍मा की थाली’ क्‍यों रखा, यह पूछने पर चंदन बताते हैं कि यूट्यूब पर हमने किचन नाम से बहुत चैनल देखे थे। लेकिन मां या दादी मां के हाथ का स्‍वाद बताने वाला कोई चैनल नहीं दिखा इसलिए नाम रखा ‘अम्‍मा की थाली।’ अब चंदन इस चैनका तकनीकी पक्ष देखते हैं, पंकज वीडियो बनाते हैं और सूरज एडिट करते हैं लेकिन पैसा शशिकला के ही अकाउंट में आता है।
6 लाख सब्‍सक्राइबर्स हैं, 26 करोड़ व्‍यूज
तीनों बच्‍चे नौकरी और घर के व्यवसाय में लगे रहते हैं। खाली समय में वह चैनल का काम करते हैं। आज सबकी मेहनत की बदौलत चैनल पर लगभग 16 लाख सब्‍सक्राइबर्स हैं, 26 करोड़ व्‍यूज हैं। इनकी सदाबहार डिश ‘सूजी के गुलाब जामुन’ है जिसके 5 करोड़ व्‍यूज हैं, दूसरे नंबर पर रसगुल्‍ले का वीडियो है जिसे 4 करोड़ लोग देख चुके हैं।
शशिकला चौरस‍िया की यह कहानी किसी परीकथा के सच होने जैसा है। शशिकला के लिए तो है खुद हमारे आपके लिए भी यह भरोसा करना मुश्किल है कि तकनीक की ताकत हमारी किस्‍मत की बंद तिजोरी का ताला इस तरह भी खोल सकती है।
(साभार – नवभारत टाइम्स)

छत पर सब्जियां उगाकर 5 स्‍टार होटलों को बागवानी सिखा रहे सौरभ

कभी मंदी ने छीनी थी नौकरी

लखनऊ । कभी-कभी कामयाबी मुसीबत के वेष में आती है। ऐसा ही हुआ लखनऊ के सौरभ त्रिपाठी के साथ। उन्‍होंने बीटेक की डिग्री ली और प्राइवेट नौकरी करने लगे। फिर आई साल 2008 की मंदी, सैलरी कम हो गई, गुजारा मुश्किल हो गया तो उन्‍होंने सोचा कुछ बिजनेस किया जाए। लेकिन ज्‍यादा पूंजी नहीं थी। उन्‍हें ख्‍याल आया अपने शौक का। सौरभ को बागवानी का शौक था। सोचा उसी को लेकर कुछ करें। थोड़ी सी जमीन पर नर्सरी खोली। नर्सरी चली साथ ही उन्‍हें कुछ अनुभवी ग्राहक भी मिले तो उन्‍होंने अपने घर की छत पर ही टेरेस गार्डनिंग शुरू कर दी। इसमें भी कामयाबी मिल गई। फिर सौरभ ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और कॉरपोरेट दुनिया में टेरेस गार्डनिंग सिखाने और प्‍लान करने लगे। आज वह सफल व्‍यवसायी हैं, इतना ही नहीं एक ऐप के जरिए वह गार्डनिंग भी सिखाते हैं।
सौरभ की कामयाबी की सबसे बड़ी वजह है कि उन्‍होंने जानकारों से ज्ञान लेने और फिर उसे बांटने में कोई संकोच नहीं किया। जब उन्‍होंने मौसमी फूलों वगैरह की नर्सरी शुरू की उस समय उनके पास कई ऐसे कस्‍टमर आए जो माहिर बागवान थे। उनकी संगत में उन्‍होंने अपनी नर्सरी में माइक्रोगार्डनिंग शुरू की। प्रयोग करते रहे, इसमें वे किसानों, दूसरे नर्सरी वालों और यूट्यूब चैनलों की मदद लेने लगे।
छत पर उगाईं सब्जियां
इस पूरे अनुभव के इस्‍तेमाल से उन्‍होंने साल 2012 में अपने घर की 500 वर्ग फीट की छत पर टेरेस गार्डन लगाया। अब हालत यह है कि सौरभ टमाटर, मिर्च, बैंगन, भिंडी के साथ-साथ विदेशी सब्जियां भी अपनी छत पर ही उगा रहे हैं। इससे जो उपज मिलती है उसका इस्‍तेमाल वह अपनी किचन में तो करते ही हैं उसे बेचते भी हैं।
5 स्‍टार होटलों को सिखा रहे बागवानी
सौरभ कहते हैं कि एक बार ऑर्गेनिक सब्जियों-फलों का स्‍वाद ले लिया तो आप बाजार से खरीदी सब्जियां खा नहीं सकते। बदलते समय दो किल्‍लत हैं। पहली है जगह की और दूसरी है शुद्ध सब्जियों और फलों की। सौरभ ने इसका फायदा उठाया। पहले तो उन्‍होंने अपने जानकारों से वर्टिकल गार्डनिंग, लॉन मैनेजमेंट, कस्‍टमाइज्‍ड गार्डन वगैरह का ज्ञान जुटाया। अब वह इसी अनुभव और ज्ञान की मदद से 5 स्‍टार होटलों और दूसरी जगह गार्डन और लॉन डिजाइन करते हैं।
कामयाबी की यह है कुंजी
सौरभ अपनी हॉबी की बदौलत खुद भी अच्‍छा कमा रहे हैं, औरों को स‍िखा रहे हैं। वह कहते हैं कि टेरेस या छत पर गार्डनिंग में अगर आप दस से बीस हजार की लागत लगाते हैं तो पचास हजार तक का मुनाफा कमा सकते हैं। बस आपकी इसमें रुचि होनी चाहिए और सीखने की ललक भी। सौरभ की नर्सरी लखनऊ के इंदिरा नगर के सर्वोदय नगर क्षेत्र में विकास भवन के पास है।

(साभार – नवभारत टाइम्स)

नहीं रहे भारत के स्टील मैन पद्मभूषण जेजे ईरानी

असिस्टेंट बनकर टाटा स्टील आए थे एमडी बनकर निकले

नयी दिल्ली । टाटा समूह से जुड़ी दो दिग्गज शख्सियतों को कौन नहीं जानता। एक थे जमशेदजी टाटा और दूसरे जमशेद जे ईरानी । जमशेदजी टाटा भारत के जाने-माने औद्योगिक घराने टाटा समूह के संस्थापक थे। वहीं, जमशेद जे ईरानी टाटा स्टील के पूर्व एमडी रहे। ईरानी अब हमारे बीच नहीं हैं। जमशेद जे ईरानी ने गत 31 अक्टूबर जमशेदपुर में आखिरी सांस ली। ईरानी के जाने से टाटा स्टील को बड़ा नुकसान हुआ है। ईरानी ने टाटा स्टील को नई बुलंदियों तक पहुंचाया। पद्म भूषण डॉ जमशेद जे ईरानी 4 दशकों से भी अधिक समय से टाटा स्टील से जुड़े रहे। वे जून 2011 में टाटा स्टील के बोर्ड से रिटायर हुए थे। स्टील सेक्टर में व्यापक योगदान के लिए इन्हें भारत का स्टील मैन भी कहा जाता है।
विदेश जाकर की मेटल की पढ़ाई
जमशेद जे ईरानी नागपुर में 2 जून 1936 को जीजी ईरानी और खोरशेद ईरानी के घर जन्मे थे। डॉ ईरानी ने साल 1956 में साइंस कॉलेज, नागपुर से साइंस में स्नातक की डिग्री ली। इसके बाद उन्होंने साल 1958 में नागपुर यूनिवर्सिटी से भूविज्ञान से मास्टर्स किया। इसके बाद वे यूके में शेफील्ड यूनिवर्सिटी गए। यहां से उन्होंने साल 1960 में धातुकर्म से मास्टर किया। इसके बाद उन्होंने धातुकर्म से ही साल 1963 में पीएचडी की।
असिस्टेंट से एमडी तक का सफर
ईरानी ने साल 1963 में शेफील्ड में ब्रिटिश आयरन एंड स्टील रिसर्च एसोसिएशन के साथ अपने पेशेवर करियर की शुरुआत की। लेकिन वे हमेशा देश के विकास में योगदान देना चाहते थे। वे भारत वापस लौट आए। यहां आकर उन्होंने साल 1968 में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (वर्तमान में टाटा स्टील) जॉइन की। उन्होंने रिसर्च एंड डेवलपमेंट के डायरेक्टर इन-चार्ज के सहायक के रूप में जॉइन किया था। इसके बाद वे जनरल सुपरिटेंडेंट, जनरल मैनेजर, प्रेसिडेंट, जॉइंट एमडी और एमडी बने। टाटा स्टील और टाटा संस के अलावा डॉ ईरानी ने टाटा मोटर्स और टाटा टेलीसर्विसेज सहित टाटा समूह की कई कंपनियों के निदेशक के रूप में भी काम किया।
स्टील उद्योग में योगदान के लिए मिला पद्म भूषण
साल 2004 में भारत सरकार ने भारत के नए कंपनी अधिनियम के गठन के लिए विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष के रूप में डॉ ईरानी को नियुक्त किया। उद्योग में उनके योगदान के लिए उन्हें 2007 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। धातु विज्ञान के क्षेत्र में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें 2008 में भारत सरकार द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया था। उन्हें एक दूरदर्शी नेता के रूप में याद किया जाएगा। उन्होंने 1990 के दशक की शुरुआत में भारत के आर्थिक उदारीकरण के दौरान टाटा स्टील का नेतृत्व किया। उन्होंने भारत में इस्पात उद्योग के विकास में काफी अधिक योगदान दिया है। इसलिए उन्हें स्टील मैन ऑफ इंडिया कहा जाता है। ईरानी ने टाटा स्टील को दुनिया में सबसे कम लागत वाला स्टील उत्पादक बनने में सक्षम बनाया, जो अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्द्धा कर सके।
खेलते थे क्रिकेट
डॉ ईरानी भारत में क्वालिटी मूवमेंट के शुरुआती नेता थे। ईरानी एक अच्छे खिलाड़ी भी थे। उन्होंने अपने आखिरी समय तक क्रिकेट खेला और देखा। उन्हें स्टांप और कॉइन कलेक्शन का भी जुनून था। जमशेदपुर शहर के लिए उनके दिल में एक विशेष प्यार था। उन्होंने यहां कई महत्वपूर्ण विकास कार्य कराए, जिसका फायदा जमशेदपुर के लोगों को मिल रहा है। वे परिवार में अपने पीछे पत्नी डेजी ईरानी, एक पुत्र जुबिन, नीलोफर और तना को छोड़ गये हैं ।

ए से एप्‍पल और बी से बॉल नहीं, ‘अर्जुन’ और ‘बलराम’ पढे़ंगे बच्चे

लखनऊ । अंग्रेजी सीखने वाले बच्‍चे अब ‘ए से अर्जुन’ और ‘बी से पढे़ंगे। सोशल मीडिया पर इस नई वर्णमाला की तस्‍वीरें खूब वायरल हो रही हैं। इस पर लखनऊ के अमीनाबाद इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल का कहना है कि उनके यहां बच्‍चे अब इसी तरह से अंग्रेजी सीखेंगे। प्रिंसिपल साहब लाल मिश्र के मुताबिक, बच्‍चों को भारतीय इतिहास की बेहद कम जानकारी है। ऐसे में इस तरह का कदम उनके ज्ञान में बढ़ोत्तरी करेगा।
यह अनोखी वर्णमाला किसने तैयार की है इस बारे में कहा जा रहा है कि सीतापुर जिले के किसी वकील ने यह बनाई है, लेकिन वह सामने नहीं आ रहे हैं। चर्चा तो यह भी है कि मेरठ में एक पब्लिकेशन इसे छापने भी जा रहा है। दिन भर टीचर्स के सोशल मीडिया समूहों में इस पर चर्चा होती रही।
लेकिन सामने केवल अमीनाबाद इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल आए। अमीनाबाद का यह स्‍कूल 125 साल पुराना है। साहब लाल मिश्रा का कहना है कि, छात्रों को भारतीय संस्‍कृति से परिचित होने का मौका मिलेगा। इस तरह की अंग्रेजी एलफाबेट की पीडीएफ फाइल सोशल मीडिया पर उपलब्‍ध हैं। इसमें शब्‍दों से जुड़ी तस्‍वीरें हैं, जैसे कि ‘ए फॉर अर्जुन’ है तो वहां एक वाक्‍य में अर्जुन का परिचय भी दिया गया है कि वह एक महान योद्धा थे। ‘बी फॉर बलराम’ है और यहां बलराम को भगवान श्रीकृष्‍ण का बड़ा भाई बताया गया है।

डॉ. राजकुमार : कन्नड़ अभिनेता, जिनकी फिल्मों के 50 से ज्यादा बने रीमेक

कन्नड़ सिनेमा के सुपरस्टार रहे डॉ. राजकुमार के बारे में जिन्होंने कई ऐसे रिकॉर्ड बनाए जो शायद ही कोई तोड़ पाए। राजकुमार की कर्नाटक में एक हजार से भी ज्यादा प्रतिमाएं लगी हैं। कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन ने 2000 में राजकुमार का अपहरण भी कर लिया था।
दक्षिण सिनेमा के इतिहास में एक ऐसा हीरा रहा, जिसने दुनिया भर में खूब चमक बिखेरी और दशकों तक लोगों के दिलों पर राज किया। यह थे कन्नड़ सिनेमा के सुपरस्टार डॉ़. राजकुमार। डॉ. राजकुमार इकलौते अभिनेता थे, जिनकी फिल्मों का 50 से ज्यादा बार 9 भाषाओं में रीमेक बनाया गया। अमिताभ बच्चन भी डॉ. राजकुमार राव के पैर छूते थे। वहीं अनिल कपूर इन्हें ‘ का शहंशाह’ कहते थे। डॉ. राजकुमार ने अपने 58 साल के करियर में ऐसे रिकॉर्ड्स बनाए, जो हैरान कर देंगे।
डॉ. राजकुमार ने कन्नड़ सिनेमा को एक अलग पहचान दी। उनकी गिनती भारतीय सिनेमा के सबसे महान एक्टरों में की जाती है। डॉ. राजकुमार, दिवंगत अभिनेता पुनीत राजकुमार के पिता थे। पुनीत राजकुमार को हाल ही कर्नाटक रत्न सम्मान दिया गया।
डॉ. राजकुमार अभिनेता बनने से पहले एक नाटककार थे। वह गुब्बी वीराना की ड्रामा कंपनी के साथ काम करते थे। यहीं से उनके मन में एक्टिंग का कीड़ा जगा। साल 1942 में डॉ. राजकुमार ने ‘भक्त प्रह्लाद’ नाम की फिल्म में काम किया। उस समय वह बेहद छोटे थे। आठ साल की उम्र में वह फिल्म बेदारा कन्नपा में नजर आए। करीब 58 साल लंबे कॅरियर में डॉ. राजकुमार ने 208 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया और ढेरों गाने गाए। आपको जानकर हैरानी होगी कि डॉ. राजकुमार की 13 फिल्मों ने सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार जीते ।
गायक भी रहे राजकुमार, गाए 300 से ज्यादा गाने
डॉ. राजकुमार ने शास्त्रीय संगीत सीखा । उनकी शुरुआती फिल्मों में जहां अन्य गायकों ने आवाज दी । वहीं 1974 से डॉ. राजकुमार अपनी फिल्मों के लिए खुद ही गाने लगे। राजकुमार ने अन्य अभिनेताओं के लिए भी गाने गाए। उन्होंने 75 म्यूजिकल नाइट्स में परफॉर्म किया और 300 से ज्यादा गाने गाए। राजकुमार के गायन की खास बात यह रही कि वह किसी भी शैली में गा लेते। फिर चाहे कव्वाली हो, गजल हो, भजन हो या फिर इंग्लिश गाने।
राजकुमार के नाम हैरान कर देंगे ये रिकॉर्ड
डॉ. राजकुमार के नाम ऐसे-ऐसे रिकॉर्ड हैं, जो किसी को भी हैरान कर दें। वह इकलौते अभिनेता हैं जिन्हें अमेरिका में केंटकी के राज्यपाल द्वारा केंटकी कर्नल सम्मान दिया गया। वह एकमात्र नायक हैं, जिन्हें गायन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। यही नहीं, राजकुमार पहले एक्टर हैं, जिन्होंने 200 कन्नड़ फिल्मों में नायक की भूमिका निभाई । डॉ. राजकुमार ने मात्र 8 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ दी थी। बचपन से ही उनका झुकाव फिल्मों और अभिनय की तरफ होने लगा था। यह लाजमी भी था क्योंकि उनके माता-पिता अपने जमाने के जाने-माने थिएटर आर्टिस्ट रहे। राजकुमार ने नन्ही सी उम्र से फिल्मों में काम करना शुरू किया और 25 साल की उम्र तक फिल्मों में छोटे-मोटे रोल करते रहे।
बाद में राजकुमार फिल्मों में लीड रोल करने लगे। बतौर हीरो उन्होंने कई हिट फिल्में दीं। उन्होंने फिल्मी पर्दे पर ऐतिहासिक से लेकर पौराणिक और रोमांटिक तक, हर तरह के किरदार निभाए और अपनी अलग छाप छोड़ी। राजकुमार ने अपने करियर में कर्नाटक के मैसूर वंश से लेकर चालुक्य वंश तक को फिल्मी पर्दे पर उतारा लेकिन 2006 में राजकुमार की मौत हो गई। अपने 58 साल के लंबे कॅरियर में राजकुमार ने ढेरों अवॉर्ड और सम्मान जीते। रिपोर्ट्स के मुताबिक, कर्नाटक में उनकी 1100 प्रतिमाएं बनाई गई हैं।
जब वीरप्पन ने किया राजकुमार का अपहरण
उस घटना को भी कोई नहीं भूल सकता जब 2000 में कुख्यात चंदन तस्कर ने राजकुमार को उनके फार्महाउस से अपहरण कर लिया था। इसे पूरे देश में हड़कंप मच गया था। लोग राजकुमार के लिए सड़कों पर उतर आए थे। वीरप्पन ने 108 दिन बाद राजकुमार को अपनी कैद से आजाद किया था।

भारत में अमेरिका और ब्रिटेन से भी ज्यादा महिला पायलट

उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने साझा की सूची
नयी दिल्ली । भारत में सबसे अधिक महिला पायलट हैं। आनन्द महिन्द्रा के प्रमुख आनन्द महिन्द्रा ने यह जानकारी साझा की है । भारत महिला पायलट्स की 12.4 फीसदी हिस्सेदारी के साथ दुनिया में शीर्ष पर है। आनंद महिंद्रा ने अपने ट्वीट में लिखा, ‘क्या आप कुछ ऐसा खोज रहे हैं, जो आपको मिड-वीक ‘जोश’ दे? तब आप इस लिस्ट को देखें। हैलो वर्ल्ड, यह वर्कप्लेस पर नारी शक्ति की ताकत है।’ सूची के अनुसार, भारत में विश्व स्तर पर महिला पायलट्स का प्रतिशत सबसे अधिक है। भारत में कुल पायलट्स का 12.4 प्रतिशत महिलाएं हैं। जबकि दुनिया की सबसे बड़े एविएशन मार्केट अमेरिका में यह 5.5 प्रतिशत है और यूके में 4.7 प्रतिशत है। यह अनुमान इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ वुमन एयरलाइन पायलट का है।
भारतीय है दुनिया में सबसे कम उम्र की कमर्शियल एयरलाइन कैप्टन
साल 1989 में निवेदिता भसीन दुनिया की सबसे कम उम्र की कमर्शियल एयरलाइन कैप्टन बनी थीं। यह भारतीय पायलट आज भी अपने उन शुरुआती दिनों को याद करती हैं। उस समय दूसरे क्रू मेंबर्स उन्हें कॉकपिट में ही रहने के लिए कहते थे, ताकि यात्री एक महिला को विमान उड़ाते देख घबरा न जाएं। भसीन के करियर की शुरुआत के 3 दशक बाद, अब भारत में महिला पायलटों की भरमार हैं। जब एयरलाइन इंडस्ट्री में विविधता की बात आती है, तो भारत दुनिया के सामने एक मिसाल बनकर खड़ा दिखाई देता है।
ये आंकडे किसी को भी आश्चर्य में डाल सकते हैं। एक ऐसा देश जो विश्व आर्थिक मंच की लैंगिक समानता पर आधारित रैंकिंग में 146 देशों में 135 वें स्थान पर है। उस देश ने महिला पायलटों के मामले में पूरी दुनिया को पीछे छोड़ दिया। इस सवाल का जवाब खुद निवेदिता भसीन ने दिया है। भसीन ने कहा, ‘भारतीय महिलाओं को एविशन इंडस्ट्री में कई कारकों के चलते प्रोत्साहन मिलता है। इनमें आउटरीच कार्यक्रमों से लेकर बेहतर कॉर्पोरेट नीतियां और मजबूत पारिवारिक सर्मथन शामिल है। इसके अलावा कई महिलाएं नेशनल कैडेट कॉर्प्स (एनसीसी) के एयरविंग से उड़ानों की ओर आकर्षित होती हैं।’
दशकों पहले भारत ने उठाए कदम
फ्लोरिडा में रह रहीं प्रोफेसर मिशेल हॉलरन ने कहा, ‘भारत ने दशकों पहले ही पायलट्स सहित एसटीईएम पदों पर महिलाओं की नियुक्ति करनी शुरू कर दी थी। दुनिया के अन्य देशों में ऐसा नहीं हुआ। भारतीय एयरफोर्स ने महिला पायलट्स को हेलीकॉप्टर और ट्रांसपोर्ट के लिए 1990 के दशक से ही भर्ती करना शुरू कर दिया था।
साल 1948 में बनी एनसीसी एक युवा प्रोग्राम है, जहां छात्रों को हल्के एयरक्राफ्ट उड़ाना सिखाया जाता है। इससे महंगी कमर्शियल पायल ट्रेनिंग तक पहुंच महिलाओं के लिए आसान हो जाती है। देश में महिला पायलट्स के लिए बेहतर माहौल तैयार करने में सबने मिलकर प्रयास किया है। कुछ राज्य सरकारों ने सब्सिडी योजनाएं भी चला रखी हैं। इसके अलावा होंडा मोटर जैसी कंपनियां इंडियन फ्लाइंग स्कूल में महिलाओं को 18 महीने के कार्यक्रम की फुल स्कॉलरशिप देती हैं।
भारत में एयरलाइंस ने महिला पायलटों के लिए काफी सुविधाजनक माहौल तैयार किया है। देश की सबसे बड़ी एयरलाइन इंडिगो की ही बात करें, तो यह इन पायलटों को काफी आसान शर्तों पर नौकरी देती है। महिला पायलटों को गर्भावस्था के दौरान उड़ान की ड्यूटी नहीं दी जाती। कानून के अनुसार, उन्हें 26 महीने की तनख्वाह के साथ मातृत्व अवकाश दिया जाता है। इसके साथ ही बच्चों की देखभाल के लिए क्रेच भी उपलब्ध होते हैं। जब तक बच्चा 5 साल का न हो जाए, तब तक महिला पायलेट फ्लेक्सिबल कॉन्ट्रेक्ट ले सकती हैं। इसमें एक कैलेंडर महीने में 2 हफ्ते की छुट्टी दी जाती है। कई एयरलाइंस देर रात तक उड़ान भरने वाली महिलाओं को एक ड्राइवर और गार्ड की सुविधा भी देती हैं। विस्तारा एयरलाइंस की बात करें, तो यह गर्भवति महिला पायलट्स और केबिन क्रू को अस्थाई तौर पर ग्राउंड या प्रशासनिक ड्यूटी का विकल्प देती है। साथ ही इन्हें 6 महीने की तनख्वाह के साथ मातृत्व अवकाश दिया जाता है ।

7 वीं से सीधे 9 वीं जाएगा कानपुर का यशवर्द्धन

यूपी बोर्ड ने बदला अपना फैसला

कानपुर । यूपी के कानपुर के यशवर्द्धन शहर की शान हैं। मात्र 11 साल के हैं, और सिविल सेवा, एनडीए और एसएससी के अभ्यार्थियों को निःशुल्क कोचिंग देते हैं। यश का आईक्यू लेवल 129 हैं। यश 7वीं क्लास के विद्यार्थी थे। उनके अभिभावक चाहते थे कि आईक्यू लेवल के हिसाब से बेटे का दाखिला 9 वीं कक्षा में हो जाए। यश की प्रतिभा ने इतिहास रचा और यूपी बोर्ड को भी अपने नियमों से आगे जाकर यश का दाखिला 9वीं कक्षा में देने में कोई आपत्ति नहीं है । यहाँ ध्यान रखने वाली बात यह है कि 9 वीं में दाखिले के लिए आयु सीमा 14 वर्ष है । यूपी माध्यमिक शिक्षा परिषद यश का आईक्यू को देखते हुए 7 वीं से सीधे 9 वीं क्लास में एडमीशन देने का फैसला किया है। इसके लिए परिषद के सचिव ने जिला विद्यालय निरीक्षक को पत्र जारी किया है।
चकेरी थाना क्षेत्र स्थित शिवकटरा में रहने वाले अंशुमन सिंह पेशे से डॉक्टर हैं। परिवार में पत्नी कंचन, बेटी आनवी और बेटे यशवर्धन के साथ रहते हैं। यशवर्द्धन की मां कंचन प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका हैं। सातवीं क्लास का छात्र सिविल सेवा की तैयारी कर रहे अभ्यार्थीयों को कोचिंग दे रहा है। जिसने भी यश की प्रतिभा के बारे में सुना हैरान रह गया। यश का बचपन स्कूल और किताबों के बीच बीता है। जन्म के बाद से ही स्कूल के क्लास रूम यशवर्धन के प्ले ग्राउंड रहे हैं। किताबों के ढेर को पकड़कर खड़े होना और चलना सीखे हैं। इसी वजह से यश किताबों से प्यार करते हैं।
किताबों के बीच बीता बचपन
यश के पिता अंशुमान सिंह ने बताया कि यश की मां प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका हैं। यश जब बहुत छोटा था, तो उस वक्त पत्नी की नियुक्ति औरैया जिले में थी। जिसकी वजह से यश की देखभाल नहीं हो पाती थी। यश अपनी मां के साथ वैन से स्कूल जाता था, और छुट्टी के बाद साथ में वापस लौटता था। स्कूल के क्लास रूम यश के लिए खेल के मैदान थे। क्लास रूम में रखी किताबों को पकड़कर खड़े होना और फिर चलना सीखा था। इसी वजह से उसे किताबों से बहुत प्यार है।
9 वीं क्लास में दाखिले के लिए संघर्ष
यशवर्द्धन शिवकटरा स्थित रघुकुल स्कूल में 7 वीं क्लास के छात्र हैं। यश का आईक्यू स्तर 129 है, इस जिहाज से यश को 9 वीं क्लास का छात्र होना चाहिए था। यश के अभिभावक चाहते थे कि बेटे का दाखिला 9 वीं कक्षा में हो जाए। लेकिन उत्तर प्रदेश माध्मिक शिक्षा परिषद की गाइड लाइन है कि 9 वीं कक्षा के छात्र की उम्र 14 साल होनी चाहिए। जिसकी वजह से यश का दाखिला 9 वीं क्लास में नहीं हो पा रहा था।

विशेषाधिकार का किया प्रयोग
यश के पिता ने बताया कि कम उम्र के प्रतिभाशाली बच्चों को दाखिला देने का विशेषाधिकार है। इस संबंध में मैंने उच्च शिक्षामंत्री से मुलाकात कर पूरी बताई थी। शिक्षामंत्री ने डॉयरेक्टर एजुकेशन को पत्र लिखने के लिए कहा था। इसके बाद सचिव को पत्र भेजा था। सचिव ने डीआईओएस को पत्र भेजकर रिपोर्ट मांगी थी। डीआईओएस कानपुर ने यश का राजकीय मनोविज्ञानशाला में आईक्यू परीक्षण कराया था। यश की बौद्धिक स्तर 129 था। इसके बाद डीआईओएस ने अपनी रिपोर्ट बनाकर शासन को भेज दी थी। लेकिन जांच रिपोर्ट लंबित पड़ी हुई थी।
यश के पिता डॉ अंशुमन सिंह ने बताया कि माध्यमिक शिक्षा परिषद के सचिव दिव्यकांत शुक्ल का पत्र मिला है। पत्र जिला विद्यालय निरीक्षक को लिखा गया है। यश को सातवीं से 09 वीं क्लास में प्रवेश देने के लिए कहा गया है। इसके साथ यश अपनी इच्छानुसार विद्यालय भी चुन सकते हैं।

प्रतियोगी परीक्षाओं में पढ़ाते हैं
यशवर्द्धन सिविल सेवा, एसएससी और एनडीए के अभ्यर्थियों को राज व्यवस्था, भूगोल, देश-विदेश का इतिहास जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर लेक्चर देते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराने वाली कोचिंग में यश निःशुल्क पढ़ाते हैं। अभ्यर्थियों की ऑनलाइन और ऑफलाइन क्लास लेते हैं। यश जब बोलना शुरू करते हैं, तो लोग सिर्फ उनको सुनते हैं। इतिहास, भूगोल जैसे विषय जुबान पर रटे हुए हैं।

आईएफएस बनना चाहते हैं यश
यशवर्द्धन अपने अभिभावकों के साथ ही साथ शहर और देश का नाम रोशन करना चाहते हैं। भारत को विश्वगुरू बनते हुए देखना चाहते हैं। यश का आईएफएस (भारतीय विदेश सेवा) ऑफिसर बनकर युनाईटेड नेशन इंडिया का नेतृत्व करना चाहते हैं। यश को भारतीय राजनीति में खासी रूचि है। लेकिन राजनीति से दूर रहना चाहते हैं।

यश को क्यों कहा जाता है छोटा इतिहासकार
यशवर्द्धन सिंह का जैसा नाम वैसा काम भी है। यश को छोटे इतिहासकार के नाम से भी जाना जाता है। इसी वर्ष जनवरी 2022 में यश ने अपना नाम छोटे इतिहासकार का रेकॉर्ड दर्ज कराया है। लंदन की संस्था हार्वर्ड वर्ल्ड रेकॉर्ड अंतर्राष्ट्रीय संबंध और इतिहास विषय में सबसे छोटा इतिहासकार के रूप में दर्ज किया था।
यश के पिता अंशुमन बताते हैं कि यश की मां सिविल परीक्षाओं की तैयारी कर रही थीं। यश उस दौरान छोटा था, मां को देखकर किताबों का अध्ययन शुरू कर दिया। पढ़ते-पढ़ते उसे अच्छा ज्ञान हो गया। किसी भी विषय को पढ़ाने से पहले यश खुद इसकी तैयारी करता है। संपूर्ण जानकारी करने के बाद ही, उस विषय पर लेक्चर देता है। यश का सबसे अच्छा हुनर है कि अपने वक्तव्य को छात्रों के सामने इस प्रकार रखता है कि सुनते ही उसे दिमाग में बैठ जाए।
रिपोर्ट-सुमित शर्मा
(साभार – नवभारत टाइम्स)

 

सर्दियों में पहनिए शानदार जैकेट

सर्दियों का नाम सुनते ही सबसे पहला ख्याल कपड़ों का आता है। ज्यादातर महिलाओं को अपने सर्दियों में अपने परिधान और अपने स्टाइल को लेकर उलझन में रहती हैं । इस मौसम में जैकेट ही एक ऐसी चीज है जो सर्द हवाओं से आपको बचाने का काम करती है, इसलिए अपनी कलेक्शन में अलग-अलग तरह की जैकेट रखें तो और यह सर्दी में आपके फैशन को दुरुस्त रखेगा –
लेदर जैकेट
लेदर जैकेट शुरु का फैशन कभी भी पुराना नहीं होता। अलग आप रोज सफर करती हैं तो लेटर जैकेट आपके बहुत काम आ सकती है। स्टाइलिश होने के साथ-साथ ये आपको ठंड से भी बचाती है। अगर आप इसे बूट्स के साथ वियर करती हैं तो और भी ज्यादा स्टाइलिश लगेंगी इसलिए आपके वॉडरोब में एक लेदर जैकेट जरूर होनी चाहिए।
ट्रेंच कोट जैकेट
ये जैकेट हर तरफ से गर्म और आरामदायक रहती है। लंबाई ज्यादा होने के कारण ये जैकेट आपको घुटनों तक कवर करके रखती है और ठंड आपके आसपास भी नहीं फटकती। किसी भी पार्टी या फिर फंक्शन पर आप इसे अपनी मिडी या स्टाइलिश स्कर्ट के साथ स्टाइल कर सकती हैं।
फर वाली जैकेट
फर जैकेट मोटी होने के साथ-साथ मुलायम और गर्म भी होती हैं। इस तरह की जैकेट्स को पहनकर बेहद आरामदायक महसूस होता है । अपनी किसी भी रेगुलर ड्रेस के साथ ही आप फर जैकेट को स्टाइल कर सकती हैं। कैजुअल लुक के लिए ये फर जैकेट एक बेहतरीन ऑप्शन है, जो आपको आराम के साथ-साथ एक स्टाइलिश लुक भी देगी।
प्रिंटेड जैकेट
आजकल प्रिंटेड जैकेट्स काफी ट्रेंड में हैं। इसमें आपको अलग-अलग किस्म के प्रिंट मिल जाएंगे। प्लेन शर्ट और किसी भी तरह की प्लेन ड्रेस के साथ इसे वियर करेंगी तो बहुत सुंदर लगेंगी। तो वहीं ब्लैक कलर के साथ प्रिंटेड जैकेट्स देखने में और भी ज्यादा स्टाइलिश लगती हैं।
स्वेट जैकेट्स
इस तरह की स्पोर्ट्स जैकेट रोज पहनने के लिए काफी आरामदायक होती हैं। इसके अलावा बाहर निकलने के लिए भी यह जैकेट काफी अच्छा विकल्प है। सामान्य दिनों में आप टी-शर्ट अन्दर करके इस जैकेट को स्टाइल कर सकती हैं। इसे आप घर हो या जिम कहीं पर भी आसानी से स्टाइल करके जा सकती हैं। स्पोर्टी लुक में रहने वालों के लिए ये जैकेट एकदम परफेक्ट है। जिप को गले तक चढ़ाकर खुद को पूरी तरह कवर भी कर सकते हैं।
डेनिम जैकेट
डेनिम जैकेट सभी के वॉडरोब में जरूर होनी चाहिए। इस जैकेट की खास बात यह है कि इसे आप आधुनिक और पारंपरिक दोनो तरह की परिधानों के साथ पहन सकती हैं। स्टाइलिश होने के साथ-साथ यह आपके बजट में भी है। हालांकि यह जैकेट हल्की ठंड के लिए ज्यादा बेहतर विकल्प है। डेनिम जैकेट से अच्छा विकल्प कुछ नहीं हो सकता। इसमें भी ब्लू, ब्लैक और ऑफ व्हाइट शेड्स ट्राइ किया जा सकता है। तो वहीं लड़कियां डेनिम जैकेट के साथ चेरी, ब्राउन, पिंक रंगो को आजमा सकती हैं।

आखिर क्यों बद्रीनाथ धाम में नहीं बजाया जाता है शंख?

हिंदू मान्यताओं के हिसाब से 4 धामों में से एक बद्रीनाथ की खास महिमा है। प्रभु श्री हरि विष्णु स्वयं यहां विराजते हैं। इसलिए इसे धरती का बैकुंठ भी बोला जाता है। बद्रीनाथ धाम में यदि आपको दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा तो आपने ध्यान दिया होगा वहां मंदिर में शंख नहीं बजाया है जबकि शंख ध्वनि के फायदों एवं उसे बजाने से होने वाले लाभों को विज्ञान भी अपनी मान्यता देता है। दरअसल, बद्रीनाथ धाम में शंख नहीं बजाए जाने की कई वजह हैं जिसमें पौराणिक, धार्मिक मान्यताओं के अतिरिक्त वैज्ञानिक कारण भी है। ऐसे में आइये आपको बताते है बद्रीनाथ मंदिर में शंख न बजाने का क्या कारण है।।।

धार्मिक मान्यता – यहां शंख नहीं बजाने के पीछे कुछ धार्मिक मान्यताएं भी हैं। शास्त्रों के वर्णित एक कथा के अनुसार, एक बार मां लक्ष्मी बद्रीनाथ धाम में ध्यान में बैठी थीं। उसी समय प्रभु श्री विष्णु ने शंखचूर्ण नाम के एक राक्षस का वध किया था। तथा सनातन धर्म की मान्यताओं में जीत पर शंखनाद अवश्य किया जाता है, मगर विष्णु जी लक्ष्मी जी के ध्यान में विघ्न नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने शंख नहीं बजाया। ऐसी ही एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, एक मुनि इसी क्षेत्र में कहीं राक्षसों का नाश कर रहे थे। तभी अतापी एवं वतापी नाम के राक्षस वहां से भाग गए। अतापी जान बचाने के लिए मंदाकिनी नदी की शरण में गया तो वतापी अपने प्राण बचने के लिए शंख के भीतर छिप गया। ऐसे में बोला जाता कि यदि उस वक़्त कोई शंख बजाता, तो असुर उससे निकलकर भाग जाता, इस कारण बद्रीनाथ धाम में शंख नहीं बजाया जाता है।

वैज्ञानिक कारण – यहां पर पूरे वर्ष ठंड का अहसास होता है। कुछ महीनों को छोड़ दिया जाए तो यहां अक्सर बर्फ देखने को मिलती है। विज्ञान के मुताबिक, प्रत्येक जीवित शख्य या कोई ऑब्जेक्ट सबकी अपनी एक फ्रीक्वेंसी होती है। ऐसे हालातों में यदि यहां शंख बजाया जाए तो उसकी ध्वनि पहाड़ों से टकराकर प्रतिध्वनि पैदा करती है। इस कारण बर्फ में दरार पड़ने या फिर बर्फीले तूफान आने की आशंका बन सकती है। वहीं एक्सपर्ट्स का कहना है कि विशेष आवृत्ति वाले साउंड पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसा होने पर पहाड़ों में भूस्खलन का संकट बढ़ जाता है। ऐसे में संभव है कि इसी कारण इस धाम में शंख नहीं बजाया जाता हो।