Thursday, July 31, 2025
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सुप्रीम कोर्ट ने लॉन्च किया नया मोबाइल ऐप

साल भर में 71000 से ज्यादा लंबित मामलों वाले सुप्रीम कोर्ट में भी अब डिजिटल इंडिया की हवा चल पड़ी है। बीते बुद्धवार को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने एंड्रॉयड यूजर्स के लिए सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया की ओर से सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ऐप का नया अपडेटेड वर्जन लॉन्च कर दिया गया है। साथ ही, जस्टिस चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट के वकीलों से ये आग्रह भी किया है कि वह कोर्ट का लोड कम करने के लिए इस ऐप का इस्तेमाल करें।

क्या है इस ऐप में?
इस ऐप में वकीलों से लेकर आम फरियादी तक सबके लिए केस के बारे में जांचने की सुविधा है। इस ऐप में केस लिस्ट देखी जा सकती है, केस का स्टेटस जाना जा सकता है। किस कोर्ट रूम के आज कौन सा केस चलने वाला है, इसकी जानकारी भी ली जा सकती है। साथ ही, रूल्स और एक्ट के बारे में जानकारी भी इस ऐप से मिल सकती है। यहां तक की इस ऐप की मदद से सर्टिफाइड कॉपी भी हासिल की जा सकती है। इसके अलावा किस जज ने क्या जजमेंट दिया है, यह भी इस ऐप से देखा जा सकता है। इसकी मदद से कोर्ट में भीड़ तो कम होगी ही, साथ ही वकीलों का टाइम भी बचेगा और केस लड़ने वाले भी घर बैठे सारी जानकारी मिलती रहेगी। ऐप स्टोर के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ऐप का ये 3.0 वर्जन है।

कौन कर सकता है इस ऐप को एक्सेस?

यूं तो यह ऐप खास उनके लिए बना है जिनका या तो सुप्रीम कोर्ट में केस दाखिल है या जो खुद वकील हैं और केस लड़ रहे हैं। हालांकि जजेस भी अपने मोबाइल फोन से ही घर बैठे इस ऐप की मदद से अन्य केस के बारे में भी जानकारी ले सकते हैं। लेकिन आम जनता के लिए भी ये ऐप मौजूद है। बल्कि इसमें आपको लॉगिन करने की भी जरूरत नहीं है, आप बिना अपना नाम मोबाइल नंबर या ईमेल डाले ही सारी जानकारी ले सकते हैं। इसमें आप रूल्स, एक्ट, सर्कुलर के साथ-साथ प्रैक्टिस और प्रोसीजर भी देख सकते हैं। लॉगिन आपको तभी करना पड़ेगा जब आप कोई रिपोर्ट या कॉपी डाउनलोड करना चाहें। इस ऐप की मदद से अब कोर्ट का भार तो कम होगा ही, साथ-साथ आम जनता के लिए पारदर्शिता भी बढ़ेगी। चीफ जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने आश्वासन दिया है कि एंड्रॉयड के साथ-साथ यह आप 7 दिन बाद iOS ऑपरेटर यानी आईफोन वालों के लिए भी उपलब्ध होगा

दिव्यांग गनौरी पासवान ने पत्थर को काट कर पहाड़ी मंदिर के लिए बनाई 800 सीढ़ी

पत्थर काट कर बना डाली मंदिर की 800 सीढ़ी
जहानाबाद । बिहार की धरती जुनूनी लोगों से उर्वर रही है। इस कड़ी में गया के दशरथ मांझी के बाद एक और नाम जुड़ गया है। गनौरी पासवान का। जिन्होंने पहाड़ का सीना चीरकर सीढ़ियों की कतार लगा दी है। उन्होंने बाबा योगेश्वर के श्रद्धालुओं के लिए राह आसान कर दी है। जहानाबाद जिले के वनवरिया गांव के गनौरी पासवान का नाम इन दिनों खूब चर्चा में है। जहानाबाद के वनवरिया टोला के बैजू बिगहा निवासी 68 वर्षीय दिव्यांग गनौरी की मेहनत और हौसले ने सैकड़ों श्रद्धालुओं को योगेश्वर नाथ के मंदिर तक जाने का रास्ता मुहैया करा दिया है।
800 सीढ़ी का निर्माण
दरअसल, जहानाबाद जिले के वनवरिया पहाड़ी की ऊंची चोटी पर योगेश्वर नाथ का मंदिर है, मगर सीढ़ी नहीं होने से अधिकांश श्रद्धालु वहां चाह कर भी नहीं पहुंच पाते थे। वृद्ध और महिलाओं को ज्यादा परेशानी होती थी। बस इसी बात से परेशान गनौरी ने तकरीबन 800 फीट ऊंची पहाड़ी पर सपाट और सुगम रास्ता बनाने का प्रण ले लिया और फिर चापाकल मिस्त्री का काम छोड़कर पहाड़ी को सपाट बनाने में जुट गए।
वर्षों की मेहनत
गनौरी की वर्षों की मेहनत और हाल में 4 साल के अथक प्रयास से 2018 के अंत तक मंदिर तक 6 फीट चौड़ा रास्ता बना दिया गया। लेकिन, उस रास्ते पर भी आवागमन सुरक्षित नहीं था। तभी, उन्होंने रास्ते पर सीढ़ी बनाने की ठान ली और उनके मेहनत के बदौलत बगैर किसी सरकारी मदद के बगैर आज लगभग 800 फीट तक सीढ़ी भी बनकर तैयार है।
पत्नी तेतरी देवी का मिला साथ
लॉकडाउन से पहले श्रद्धालु महादेव के दर्शन के लिए कतार लगाए रहते थे। अब वृद्ध और दिव्यांग जन भी बड़े आराम से पहाड़ी की चोटी पर पहुंच कर योगेश्वर नाथ का दर्शन कर पाते हैं। गनौरी शुरुआती दिनों को याद करके बताते हैं कि कई बार तो लगता था कि नहीं हो पाएगा। लेकिन, उनकी पत्नी तेतरी देवी उन्हें हताश नहीं होने दिया और फिर बच्चों का साथ भी उन्हें मिलने लगा था। गनौरी कहते हैं, सीढ़ी निर्माण को लेकर पत्नी ने अपने जेवर तक गिरवी रख दिया।
बगैर सरकारी सहायता के बनाई सीढ़ी
गनौरी को इस साहसिक काम के लिए सरकार से कोई मदद मिली या नहीं यह सवाल सुनकर वो बड़ा उदास हो जाते हैं। स्थानीय निवासी कौशलेन्द्र शर्मा कहते हैं कि गनौरी के कुछ परिचित और मंदिर में आने वाले श्रद्धालु कभी कभार थोड़ा-बहुत सहयोग किया कर देते हैं। लेकिन, वो सहयोग नाम मात्र ही होता है। योगेश्वर नाथ के मंदिर तक सीढ़ी के निर्माण का पूरा श्रेय गनौरी पासवान की मेहनत और उसके लगन को जाता है। गनौरी और उनकी पत्नी तेतरी देवी का अरमान है कि बाबा योगेश्वर नाथ का मंदिर पर्यटन स्थल के रूप विकसित हो।

सात साल में 40 तालाबों में पानी लौटाने वाले पॉन्ड मैन रामवीर तंवर

नोएडा । एक समय था जब हर गांव का एक तालाब होता था। यह तालाब ग्रामीण जनजीवन, उसकी परंपराओं का अटूट हिस्‍सा होता था। धीरे-धीरे ये तालाब मिटने लगे। उन्‍हें पाटकर उनपर घर बनाए जाने लगे, कहीं-कहीं उन्‍हें सामूहिक कूडे़दान का रूप दे दिया गया। ग्रेटर नोएडा के डाढा गांव के रामवीर तंवर का बचपन इन्‍हीं तालाबों के किनारे बीता था। जब बचपन के साथी यों दम तोड़ने लगे तो उन्‍होंने तालाबों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठा लिया। पिछले सात साल में उन्‍होंने 40 तालाबों में फिर से पानी लौटाया है। इनमें उनके अपने गांव और जिले के ही नहीं दूसरे प्रदेशों के भी तालाब शामिल हैं। यूपी के सीएम योगी आदित्‍यनाथ ने भी रामवीर को सम्‍मानित किया है। रामवीर तंवर ‘पॉन्‍ड मैन ऑफ इंडिया’ के नाम से भी मशहूर हैं। वह कहते हैं कि जब बचपन में अपने गांव की झील, तालाबों और नदियों में नहाने जाते थे, तो बहुत अच्छा लगता था। लेकिन अब ये सभी चीजे धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं। इन्‍हें पुनर्जीवित करने के लिए रामवीर तंवर ने साल 2015 में एक अभियान की शुरुआत की। शुरू में तो वह केवल लोगों को जागरुक करते थे। धीरे-धीरे वह इन पर बसे अवैध अतिक्रमण हटाने, तालाबों का सुंदरीकरण करने और पुनर्जीवित करने में लग गए। अकेले ही इस राह पर चलने वाले रामवीर तंवर के साथ आज करीब एक दर्जन साथी हैं।
यूपी के बाहर भी तालाबों को लौटाया जीवन
धीरे-धीरे उनका यह अभियान इतना व्‍यापक हो गया कि उन्‍हें मेकेनिकल इंज‍िनियर की अपनी नौकरी भी साल 2018 में छोड़नी पड़ गई। उनका अभियान यूपी से बाहर मध्यप्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और कर्नाटक तक फैल गया। आम जनता को इस अभियान से जोड़ने के लिए उन्‍होंने ‘सेल्‍फी विद पॉन्‍ड’ की शुरुआत की। इससे लोगों को अपने क्षेत्र के तालाबों की मौजूदा हालत की जानकारी भी होती थी और फिर वे उन्‍हें सुधारने के लिए भी पहल करते थे।

मात्र 12 हजार में आजमगढ़ के युवा ने बना दी अनोखी बाईसाइकिल

10 रुपये खर्च कर इस बाइक से चलिए 150 किलोमीटर
आजमगढ़ । पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम से लगभग हर वर्ग परेशान है। देश भर में इसका विकल्प तलाशने में लोग जुटे हुए हैं। वहीं उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के एक युवक का अविष्कार आम लोगों को बड़ी राहत देने वाला है। यहां युवक ने ऐसी इलेक्ट्रिक बाइक तैयार कर दी है, जिसमें एक नहीं दो नहीं 6 लोग बैठकर सफर कर सकते हैं। साथ ही मात्र 10 रुपये के खर्च में इस नई इलेक्ट्रिक बाइक पर 150 किलोमीटर का सफर तय किया जा सकता है। इसकी स्पीड 40 किलोमीटर प्रति घंटा है। यह दावा आजमगढ़ के लोहरा फखरुद्दीन पुर गांव के असहद अब्दुल्ला का है। असहद अब्दुल्ला ने आईटीआई से मैकेनिकल इंजीनियरिंग और बीसीए किया है। असहद ने केवल 12 हजार रुपये में कबाड़ की चीजों से इस 6 सीटर बाइक को तैयार किया है।
इस 6 सीटर बाइक का वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर किया गया था। तभी से बाइक और इसके अविष्कारक असहद अब्दुल्ला चर्चा में है। असहद ने बताया कि इस तरह के आविष्कारों की शौक बचपन से है। इससे पहले भी वह अपनी केटीएम बाइक को इलेक्ट्रिक बाइक में बदल चुके हैं। साथ ही छोटे-मोटे खिलौने से लेकर कई ऐसे उपयोगी सामानों का आविष्कार भी किया है। इलाके के लोगों का कहना है कि बड़ी खुशी होती है, जब कोई बच्चा कुछ अलग करता है। उन्होंने कहा कि पेट्रोल और डीजल के बढ़ते दाम से निजात पाने के लिए यह सबसे सस्ता माध्यम है। इसे सरकार को प्रोत्साहित करना चाहिए, जिससे कि इस तरह की चीजें समाज में लोगों के लिए उपयोगी हो सके।
बाइक को पेटेंट कराने की कोशिश जारी
असहद अब्दुल्ला का यह भी कहना है की रजिस्ट्रेशन और पेटेंट की फॉर्मेलिटी को पूरा करने का भी प्रयास कर रहे हैं। ताकि आम जनता तक हमारा यह प्रयास आसानी से पहुंच सके और लोगों को ज्यादा से ज्यादा फायदा मिल सके। इस तरह के अविष्कार वह जारी रखेंगे। साथ ही भविष्य में वह सोलर प्लेन और बहु उपयोगी गैजेट का वह आविष्कार भी करने की सोच रखते हैं।

जब 800 गोरखा जवानों के आगे 6000 पाकिस्‍तानियों ने टेके घुटने

रोंगटे खड़े कर देने वाले सिलहट युद्ध की कहानी

ढाका: तीन दिसंबर 1971 को जब पाकिस्‍तान एयरफोर्स ने भारत के एयरबेसेज को निशाना बनाना शुरू किया तो दोनों देशों के बीच जंग का आगाज हो गया। चार दिसंबर 1971 को भारत ने पाकिस्‍तान के साथ जंग का ऐलान कर दिया। इस ऐलान के साथ ही भारत ने बांग्‍लादेश के साथ हाथ मिलाया जो कि उस समय पूर्वी पाकिस्‍तान के तौर पर जाना जाता था। यहां से शुरू हुई बांग्‍लादेश की आजादी की कहानी जो 16 दिसंबर 1971 को भारत की जीत पर आकर खत्‍म हुई। इस युद्ध में यूं तो कई एतिहासिक मौके आए थे और सिलहट की लड़ाई इनमें से ही एक मौका थी। सात दिसंबर को सिल‍हट की लड़ाई शुरू हुई। भारतीय सेना इस लड़ाई में अजेय साबित हुई। सिलहट की लड़ाई में पहली बार था जब भारत ने दुश्‍मन की धरती पर कोई हेलीबॉर्न ऑपरेशन चलाया था। सिलहट की जंग नौ दिनों तक चली थी।

पाकिस्‍तान पर हुआ हमला
हवाई सर्वे के बाद सात दिसंबर को 4/5 गोरखा रेजीमेंट जिसके साथ माउंटेन गन और इंजीनियरों की एक टीम थी उसने हमले की शुरुआत कर दी थी। इसके साथ ही सेना की माउंटेन ब्रिगेड भी साथ थी। एमआई 4 हेलीकॉप्‍टर्स से एयरलिफ्ट किया गया था। ये हेलीकॉप्‍टर्स पहले से तय एक जगह पर उतरे थे। यह जगह थी मीरापुरा से बहने वाली सुरमा नदी की पूर्वी किनारा। पुल से करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर भारतीय सेना ने एक ऑपरेशन चलाकर सैनिकों को एयरलिफ्ट किया था। दोपहर में हेलीकॉप्‍टर्स ने जब लैंडिंग शुरू की तो दुश्‍मन हैरान रह गया था। सुरमा नदी बांग्‍लादेश की सबसे शक्तिशाली मेघना नदी का ही हिस्‍सा है। अगर भारतीय सेना को सिलहट पहुंचना था तो उन्‍हें सुरमा नदी को पार करना था।

शुरू हुई फायरिंग
दुश्‍मन को जैसे ही इसकी भनक लगी उसने फायरिंग शुरू दी। सिलहट में पाकिस्‍तान सेना के जवानों की संख्‍या भारतीय सेना की तुलना में आठ गुना तक ज्‍यादा थी। आज भी रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि यह जंग ताकत नहीं सूझ-बूझ, बेहतर रणनीति और हौसले से लड़ी गई थी। समय-समय पर भारतीय सेना ने युद्ध का अपना तरीका और तब जाकर जीत मिली। सिलहट में पाकिस्‍तान के 6000 सैनिक मौजूद थे। भारतीय सेना को जो इंटेलीजेंस मिली थी उसके मुताबिक यह संख्‍या काफी कम थी। जब भारतीय सेना यहां पर पहुंची तो गलती का अहसास हुआ। सुरमा नदी पर बने पुल को पाकिस्‍तान की सेना ने नष्‍ट कर दिया था। सिलहट पाकिस्‍तान की सेना का वह ठिकाना था जिसकी वजह से ढाका के साथ सप्‍लाई रूट काफी मजबूत था। ऐसे में ढाका तक पहुंचने का रास्‍ता सिलहट से होकर जाता था। बिना सिलहट को जीते ढाका तक पहुंचना नामुमकिन था। सिलहट के उत्‍तर में मेघालय और पूरब में असम की सीमा से लगा हुआ है। पाकिस्‍तान की फौज ने यहां पर काफी तगड़ी घेराबंदी कर रखी थी। 31 पंजाब ने यहां पर मोर्चा संभाला हुआ था। सुरमा नदी से ठीक पहले पाकिस्‍तानी सैनिक मौजूद थे।

मुस्‍तैद गोरखा जवान
मुक्तिवाहिनी इस नदी को क्‍लीयर करने का काम दिया गया था और वह इसे पूरा नहीं कर सकी। फिर 750 सैनिक वाली गोरखा राइफल्‍स को इसका जिम्‍मा सौंपा गया। भारत को जानकारी मिली थी कि पाकिस्‍तान की 202 इंफेंट्री ब्रिगेड को सिलहट की सुरक्षा में तैनात है। लेकिन यह सूचना गलत साबित हो गई और दुश्‍मन ने हमला कर दिया। युद्ध के ऐलान से पहले ही गोरखा जवान मुस्‍तैद थे। गोरखा जवानों ने खुखरी से पाकिस्‍तानी जवानों को पस्‍त कर दिया और पाक सैनिकों को पीछे हटना पड़ा।

टॉर्च की रोशनी में लैंडिंग
अटग्राम और गाजीपुर पर जब पाकिस्‍तानी सेना ने कब्‍जा छोड़ा तो गोरखा सैनिकों के 10 हेलीकॉप्‍टर्स से सिलहट में लैंडिंग की योजना बनाई गई। गोरखा सैनिकों को हेलीबॉर्न ऑपरेशन के आदेश दिए। इससे पहले गोरखा जवान कभी भी हेलीकॉप्‍टर पर नहीं चढ़े थे और न ही उन्‍हें इसकी कोई ट्रेनिंग दी गई थी। रात करीब 9:30 बजे गोरखा सैनिकों ने इसका पूर्वाभ्‍यास किया और रात ढाई बजे ऑपरेशन लॉन्‍च कर दिया गया। प्‍लान के तहत सात एमआई हेलीकॉप्‍टर के जरिए गोरखा जवानों को हेलीकॉप्‍टर से लैंड कराया जाना था। मगर मुश्किल यह थी कि रात के वक्‍त न तो लैंडिंग हो सकती थी और न ही टेक ऑफ मुमकिन था। इसके बाद 80 टॉर्च की मदद से जमीन पर हैलीपैड का आकार बनाया गया। यह बिल्‍कुल हैलीपैड वाली जगह सा बना था। लैंडिंग का सिग्‍नल साफ नजर आया और लैंडिंग संभव हो सकी।

बीबीसी की गलती का फायदा
गोरखा जवानों के हेलीकॉप्‍टर की आवाज सुनते हुए पाकिस्‍तानी सैनिकों ने अल्‍लाह-हू-अकबर बोलते हुए हमला कर दिया। इसके बाद खुखरी के साथ पाकिस्‍तानी सैनि‍कों पर हमला किया गया। जिस जगह पर लड़ाई हो रही थी वहां से ढाका करीब 300 किलोमीटर दूर था। इसी दूरी का फायदा उठाया गया। जब तक पाकिस्‍तानी सैनिक सिलहट पहुंचते तब तक गोरखा सैनिक अपना मिशन पूरा कर देते। गोरखा सैनिकों की संख्‍या कितनी है इस बात की जानकारी पाकिस्‍तान को नहीं थी। इस पर बीबीसी की गलती ने भी भारतीय सेना का फायदा पहुंचाया। बीबीसी ने अपनी रिपोर्ट में गोरखा बटालियन को ब्रिगेड बता दिया यानी 3000 जवानों की संख्‍या। यह सुनकर पाकिस्‍तान भी घबरा गया था। हेलीबॉर्न ऑपरेशन को भारतीय वायुसेना की 110 हेलीकॉप्‍टर यूनिट ने अंजाम दिया था।

पाकिस्‍तान ने डाले हथियार

भारतीय जवानों ने एक बड़ा सा घेरा बना लिया था। इससे दुश्‍मन को लगा कि भारतीय सैनिक भारी तादाद में मौजूद हैं। पाकिस्‍तान के सैनिक डर के मारे बाहर ही नहीं आए। 800 गोरखा सैनिकों ने पाकिस्‍तान के 6000 सैनिकों को बंद करके रख दिया था। दिन में भारतीय वायुसेना के मिग और हंटर विमान हमले करते तो रात में गोरखा जवान कहर बनकर टूटते। पाकिस्‍तानी सैनिकों का हौसला टूट गया और नौ दिनों के बाद पाकिस्‍तानी सैनिकों ने हथियार डालने शुरू कर दिए थे।

रंग-बिरंगे कार्टून और कहानियों संग बच्‍चे सीखेंगे जेनेटिक्‍स के मुश्किल फंडे

वाराणसी । आजकल बहुत‍ सी ऐसी आनुवंशिक बीमारियां हैं जिनका इलाज मुमकिन नहीं है। इन बीमारियों का अपना दर्द तो है ही लेकिन इस तकलीफ को समाज की असंवेदनशीलता और अज्ञान कई गुना बढ़ा देता है। इसके लिए जरूरी है कि जब बच्‍चे छोटे हों और स्‍कूल में पढ़ रहे हों, उसी समय उन्‍हें इन आनुवंशिक बीमारियों के बारे में जानकारी दें ताकि वे इन्‍हें बेहतर तरीके से समझ सकें। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की दो महिला वैज्ञानिकों चंदना बसु और गरिमा जैन ने यह बीड़ा उठाया है। इसके लिए उन्‍हें इंडिया बायोसाइंस की ओर से आउटरीच ग्रांट मिलेगी।
चंदना ओर गरिमा दोनों ‘जेनेटिक्‍स 4 यू’ नाम के प्रोजेक्‍ट पर काम कर रही हैं। ये दोनों नौवीं से लेकर 12वीं तक के बच्‍चों को जेनेटिक्‍स के मुश्किल सिद्धांत, कायदे, कानून समझाएंगी। जेनेटिक्‍स विज्ञान की वह शाखा है जिसके तहत हमारे आनुवंशिक गुण-दोष एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में कैसे जाते हैं ,इसका अध्ययन होता है।
चंदना और गरिमा के प्रोजेक्‍ट की खूबी यह होगी कि रंगबिरंगे चित्रों, इन्‍फोग्राफिक, कॉमिक्‍स और कहानियों के जरिए ये मुश्किल नियम, सिद्धांत समझाए जाएंगे। इसके लिए वे नंद‍िनी चिलकम के साथ मिलकर काम करेंगे। नंदिनी चिलकम ‘लर्न विद कॉमिक्‍स’ की को-फाउंडर हैं।
ये महिला वैज्ञानिक शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्‍कूलों के बच्‍चों को यह सब सिखाएंगी। कुछ प्राइवेट स्‍कूल भी उनके इस प्रोजेक्‍ट का हिस्‍सा होंगे। बच्‍चे इन नए तरीकों के जरिए जेनेटिक्‍स के बारे में सीखेंगे साथ ही उन्‍हें कुछ एक्‍सपेरिमेंट भी करने का मौका मिलेगा। इतना ही नहीं बायोलॉजी के शिक्षकों के लिए वेबसाइट पर फ्री ईबुक भी मिलेगी।

रेडियो वाले दोस्त अमीन सयानी और बिनाका गीतमाला

ये बात है साल 1952 की सर्दियों की। जब एक विज्ञापन कंपनी के अधिकारी जाने माने रेडिया सीलोन पर ग्राहकों के लिए हिंदी फिल्मों के गानों की एक सीरीज की योजना बना रहे थे। विज्ञापन कंपनी एक रासायनिक और फार्मास्युटिकल ग्रुप के लिए विज्ञापन बना रही थी, जो कई उत्पादों के अलावा एक टूथपेस्ट बनाती थी। मशहूर रेडियो आर्टिस्ट हामिद सयानी द्वारा अंग्रेजी गीतों का एक शो रेडियो सीलोन पर बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहा था। विज्ञापन कंपनी हिंदी फिल्मी गीतों की लोकप्रियता को देखते हुए हिंदी बाजार में टैप करने के लिए उत्सुक थी।
हामिद सयानी ने अमीन को हिंदी शो के लिए किया राजी
विज्ञापन कंपनी की इस योजना के लिए कोई लेखक या कंपेयर तैयार नहीं हो रहा था, क्योंकि इसके बदले में मिलने वाले 25 रुपये प्रति सप्ताह हिट परेड पर रिसर्च करने, पटकथा लिखने और फिर इसे पेश करने के लिए कम थे लेकिन हामिद भाई ने जोर देकर मुझे इसमें शामिल कर लिया। उन्होंने मुझे शो करने के लिए राजी कर लिया और इस तरह एक लंबी, शानदार रेडियो यात्रा की शुरुआत हुई। जिसका नाम था- ‘बिनाका गीत माला। ये बात रेडियो किंग अमीन सयानी ने कही। उन्होंने बताया कि 1986 में ‘बिनाका गीत माला’ का नाम बदलकर ‘सिबाका गीत माला’ कर दिया गया।
सयानी सीनियर इस महीने 90 साल के हो जाएंगे। उनकी नाजुक तबियत को देखते हुए बेटे राजिल ने बिनाका गीत माला कहानी में पिता की कमी को पूरा करने में मदद की, जो स्वतंत्रता के बाद के भारत के सांस्कृतिक आख्यान से जुड़ी हुई है। दरअसल, सयानी इस प्रोजेक्ट को लेकर थोड़ी नर्वस थे। वो एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखते हैं जो साहित्य, गांधीवादी मूल्यों और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत को फॉलो करता है। जबकि ‘गीत माला’ का मतलब सबसे कम कॉमन डिनोमिनेटर होई पोलोई को खुश करना था।
कॉलेज के स्टूडियो से शुरू हुआ सिलसिला
कॉलेज से निकलते ही सेंट जेवियर्स के टेक्निकल इंस्टीट्यूट के एक स्टूडियो में सयानी ने हिट परेड में अपना पूरा ध्यान लगा दिया। युवा अमीन ने ब्रॉडकास्टिंग की कला सीखने और उसे फॉलो करने में जी जान लगा दिया। उनकी मेहनत वे जाति-समुदाय-पंथ के भेदों को सहजता से धुंधला कर दिया। मशहूर विजुअलाइजर विनायक पोंक्षे ने कहा, “समय आ गया है कि हम इस तथ्य को पहचानें कि बीआरसीसी और आईआईटी की तरह बिनाका गीत माला भी नेहरूवादी भारत का प्रतीक है।”
सयानी की घर में बुनी हुई हिंदुस्तानी और आसान शैली के लोग कायल थे। उन्होंने ‘सरताज’ जैसे नए शब्द गढ़े। अमीन हर रैंक को पायदान कहते थे, जिससे बिनाका गीतमाला टॉप पर पहुंच जाता था। एक गाना दूसरे से या तो एक पायदान ऊपर होता था या नए गाने से पीछे होकर इसकी रैंक नीचे चली जाती थी। धीरे-धीरे वो रेडियो श्रोताओं के लिए दिल में बसने लगे। जब 1950 के दशक में ऑल इंडिया रेडियो ने सिनेमा संगीत पर प्रतिबंध लगा दिया था। उनका मानना था का ये युवाओं को भटका रहा है।
1952 को शुरू हुआ पहला शो
इसके बाद 3 दिसंबर, 1952 को सात गानों की सीरीज का पहला शो रिले किया गया। ये शो काफी सफल रहा। एक साल के भीतर सयानी के कोलाबा के दफ्तर में हर हफ्ते 65000 चिठ्ठियां आने लगीं। बाद में इस शो में गानों की संख्या सात से बढ़कर 16 हो गई। बुधवार को प्रसारित होने वाले इस शो के लिए पिछले शनिवार को ही रिकॉर्डिंग की जाती थी। 1952 में आई हिंदी फिल्म आसमान का गाना ‘पोम पोम बाजा बोले’ काफी मशहूर हुआ। इसे ओ. पी. नय्यर द्वारा ट्यून किया गया है। कहा जाता है कि ये ‘जिंगल बेल, जिंगल बेल’ पर आधारित है। ये गीत माला की सिग्नेचर ट्यून थी।
अमीन सयानी हर दिन 12 घंटे काम करते थे। उनके काम में उनकी पत्नी रमा भी मदद करती थीं। सयानी की बेटे राजिल ने कहा, “मैं रविवार को छोड़कर कभी भी पापा से नहीं मिल सका। वह अपने स्टूडियो में व्यस्त रहते थे। उनके मन में बुधवार को होने वाले गीत माला के प्रसारण की बात चलती रहती थी।’ 1989 में सयानी ने ऑल इंडिया रेडियो के लोकप्रिय शो विविध भारती में शिफ्ट कर दिया।
सयानी मजबूती से रेडियो को आगे ले जाने की कोशिश करते रहे। उन्होंने उसके लिए कई प्रयोग भी किए। धीरे-धीरे देश के हर कोने में उनके श्रोता हो गए। गीत माला के सहयोगी पीयूष मेहता ने बताया कि श्रोताओं के दिल पर सयानी की आवाज ने अलग छाप छोड़ी। वो केवल एक रेडियो जॉकी नहीं बल्कि लोगों के दोस्त थे। उन्होंने आगे कहा कि हर बुधवार को 6 बजे जब सयानी की शो रेडियो पर आता तो पूरा भारत एक साथ ठहर जाता।
सयानी के शो में कौन से गाने जाने चाहिए इसके लिए देशभर के प्रमुख रिकॉर्ड डीलरों से रिपोर्ट मांगा जाती थी। पहले दो दशकों तक नौशाद अली, सी. रामचंद्र, हेमंत कुमार, रोशन और मदन मोहन साप्ताहिक हिट परेड में प्रमुखता से शामिल रहे। वहीं 1960 का दशक शंकर-जयकिशन, ओ. पी. नय्यर और एस. डी. बर्मन का था। इधर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी और आर. डी. बर्मन ने उनकी जगह लेने के लिए तैयार थे।
प्रसिद्ध लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जोड़ी के प्यारेलाल ने कहा, “मैं और लक्ष्मीभाई दोनों बिनाका गीत माला के प्रबल प्रशंसक थे। मुंबई के रिकॉर्डिंग स्टूडियो में जूनियर संगीतकार के रूप में संघर्ष करते हुए, हमने एक दिन का सपना देखा था जब हमारे गीत गीत माला चार्ट-बस्टर होंगे।”
हालांकि, 1970 के दशक में निजी टीवी चैनलों के आने और फिल्मी गीतों की गुणवत्ता में लगातार गिरावट के कारण गीत माला ने अपनी चमक खोनी शुरू कर दी थी। वहीं, रेडियो किंग अमीन सयानी खुद को व्यस्त रखते हैं। अपने आरामदायक न्यू मरीन लाइन्स अपार्टमेंट में पढ़ना और लिखना उनका डेली रूटीन है। रेडियो के जादूगर अपने होठों पर एक गीत के साथ अपने संस्मरण लिख रहे हैं।
(साभार – नवभारत टाइम्स)

दिलचस्प है 170 साल पुरानी खाकी का इतिहास

1852 में भारत से ही हुई शुरुआत
नयी दिल्ली । अंग्रेजों के जमाने से ही खाकी पुलिस की पहचान है। खाकी कहिए या लिख दीजिए लोग समझ जाएंगे पुलिस की बात हो रही है। लेकिन बहुत ही कम लोग ये जानते हैं कि पुलिस के लिए खाकी का इस्तेमाल सबसे पहले भारत में ही हुआ। कर्नाटक के तटीय शहर मेंगलुरू में इसका जन्म हुआ। साल था 1851; जॉन हॉलर नाम के एक जर्मन टेक्सटाइल इंजीनियर और ईसाई मिशनरी शहर में बालमपट्टा के बाजल मिशन वीविंग इस्टेब्लिशमेंट (कपड़े बनाने की फैक्ट्री) में काम करता था। उसी ने पहली बार कपड़ों को रंगने के लिए खाकी डाई को ईजाद किया। आइए जानते हैं खाकी के 170 साल के दिलचस्प इतिहास की अनसुनी कहानियां।
1989 में बेसल मिशन पर रिसर्च करने वाले विवेकानंद कॉलेज, पुत्तुर के प्रिंसिपल डॉक्टर पीटर विल्सन प्रभाकर बताते हैं, ‘1851 में हॉलर को फैक्ट्री के इंचार्ज की जिम्मेदारी दी गई। उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी खाकी डाई का आविष्कार। उसके नेतृत्व में कपड़ा फैक्ट्री ने 1852 से खाकी कपड़ों को बनाना शुरू किया।’ प्रभाकर ने कन्नड़ में ‘भारतदल्ली बाजल मिशन’ (भारत में बाजल मिशन) नाक की किताब भी लिखी है।
खाकी एक उर्दू का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है धूल का रंग। यह खाक शब्द से बना है। प्रभाकर बताते हैं कि 1848 में ही खाकी शब्द ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में जगह पा चुका था। लेकिन इसके 3 साल बाद इस नाम से पहली बार डाई बनी। हॉलर ने काजू के खोल का इस्तेमाल करते हुए इस डाई को बनाया। वैसे भी दक्षिण कर्नाटक में बड़ी तादाद में काजू का उत्पादन होता है।
खाकी रंग की डाई जल्द ही तेजी से लोकप्रिय होती गई। थियोलॉजिकल कॉलेज में आर्काइव दस्तावेज के मुताबिक, ‘कपड़े की फैक्ट्री चलती रही…खूब फली-फूली। हर तरह के कपड़े बनते और पहनने के लिए तैयार किए जाते थे। लेकिन हॉलर की खाकी सेना के बीच अपने टिकाऊपन की वजह से काफी चर्चित हो गयी।’
उसी दौरान हॉलर के बनाए खाकी कपड़ों को तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी के केनरा जिले में पुलिस यूनिफॉर्म के रूप में अपनाई गई। कासरागोड, साउथ केनरा, उडुपी और नॉर्थ केनरा में खाकी पुलिस की वर्दी बन गई।
खाकी की चर्चाएं मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर लॉर्ड रॉबर्ट्स तक भी पहुंच गईं। उनके मन में जिज्ञासा जगी कि आखिर इतना टिकाऊ कपड़ा कहां और कैसे बन रहा है। प्रभाकर बताते हैं कि लॉर्ड रॉबर्ट्स ने बलमट्टा की उस फैक्ट्री का दौरा किया जहां खाकी कपड़े बन रहे थे। वह इतना संतुष्ट हुआ कि उसने ब्रिटिश सरकार से सिफारिश की कि आर्मी के लिए खाकी को वर्दी तौर पर चुना जाए। ब्रिटिश सरकार ने उसकी सिफारिशें मान ली और इस तरह खाकी मद्रास प्रेसीडेंसी के तहत आने वाले सैनिकों की वर्दी का रंग बन गई। कुछ समय बाद ब्रिटेन ने भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर के अपने उपनिवेशों में सैनिकों के लिए खाकी को अनिवार्य कर दिया।
बाद में दूसरी सेनाओं औ भारत सरकार के विभागों ने भी अपने जूनियर-लेवल स्टाफ के यूनिफॉर्म के लिए खाकी को अपना लिया। भारतीय डाक और पब्लिक ट्रांसपोर्ट वर्करों की यूनिफॉर्म भी खाकी ही है। पुलिस ही नहीं अब डाक विभाग, परिवहन विभाग. टैक्सी एवं बस चालक, कंडक्टर से लेकर एनसीसी तक का परिधान भी खाकी ही है । बाजल मिशन की उपलब्धियों में पहले कन्नड़ अखबार ‘मंगलुरु समाचारा’ के प्रकाशन के साथ-साथ ‘खाकी का आविष्कार’ सबसे प्रमुख है।

पूरे देश में एकमात्र कोलकाता पुलिस पहनती है सफेद वर्दी

पूरे देश से अलग कोलकाता की पुलिस अभी भी सफेद रंग की वर्दी पहनती है। 1845 में अंग्रेजों ने ही कोलकाता पुलिस का गठन किया था। तब देशभर की तरह उनकी वर्दी भी सफेद ही थी। दो साल बाद सर लम्सडेन ने सफेद रंग को बदलकर खाकी करने का प्रस्ताव दिया। मगर कोलकाता पुलिस ने इससे इनकार कर दिया। उनका तर्क था कि कोलकाता तटीय क्षेत्र है, इसलिए यहां नमी ज्यादा है। खाकी में गर्मी ज्यादा लगेगी जबकि सफेद वातावरण के हिसाब से ठीक है। ऐसा नहीं है कि कोलकाता पुलिस की तरह पूरा पश्चिम बंगाल ही सफेद वर्दी पहनता है। सफेद वर्दी सिर्फ कोलकाता पुलिस ही पहनती है। राज्य की बाकी पुलिस अन्य राज्यों की तरह खाकी वर्दी ही पहनती है।

(साभार – नवभारत टाइम्स)

अद्भुत गाँव, यहां हिंदू-मुसलमान सब संस्कृत में करते हैं बात

नयी दिल्ली । गांव की सुबह, आसमान में चहकती पक्षियों की आवाज, सफेद कुर्ता धोती पहने झोला टांगकर स्कूल जाते बच्चे, घरों से आती संस्कृत के श्लोकों और शंख की मधुर ध्वनि, ये दृश्य किसी गुरुकुल का नहीं बल्कि एक साधारण से गांव का है। ये गांव कर्नाटक के शिवमोगा जिले में बसा है। हम बात कर रहे हैं ‘मत्तूरु’ गांव की। इस गांव को ‘संस्कृत गांव’ के नाम से जाना जाता है। इस गांव में सब लोग आपस में संस्कृत में बातचीत करते हैं। इस बात पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल है लेकिन ये बिल्कुल सच है। आप जब इस गांव में कदम रखेंगे तो आपको ‘नमो नम:, कथम् अस्ति? अहम् गच्छामि। त्वम् कुत्र अस्ति?’ जैसे वाक्य सुनने को मिलेंगे।
संस्कृत को मानते हैं मातृभाषा
इस गांव में संस्कृत की शिक्षा देने वाले श्रीनिधि ने बताया कि मत्तूरु गांव में करीब साढ़े 9 हजार आबादी है। गांव के लोग पिछले 40 सालों से संस्कृत में बात करते आ रहे हैं। इस गांव के लोग संस्कृत भाषा को मातृभाषा मानते हैं। अब गांव में देश विदेश से लोग संस्कृत सीखने आते हैं। गांव के लोगों को संस्कृत सीखना अनिवार्य है। गांव के सभी बच्चों को बचपन से ही संस्कृत के साथ योग और वेदों की शिक्षा दी जाती है।
संस्कृत बोलने के लिए चलाया आंदोलन
श्रीनिधि ने बताया कि गांव में संस्कृत बोलने की शुरुआत साल 1981 में हुई, जब गांव में संस्कृत भारती संस्था की स्थापना की गई। इस संस्था ने ‘संस्कृत संभाषण आंदोलन’ को शुरू किया। इस आंदोलन के तहत ये तय किया गया कि सब लोग संस्कृत को मातृभाषा मानें और अपने व्यवहार में शामिल करें। इसके बाद गांव के लोगों ने संस्था के साथ मिलकर काम किया। केवल दो साल में ही यानी 1982 में गांव को देशभर में ‘संस्कृत ग्राम’ के नाते जाना जाने लगा।
श्रीनिधि ने एनबीटी से भी संस्कृत में ही बात की। उन्होंने कहा कि वो ये नहीं मानते कि पूरा गांव संस्कृत बोलता है, लेकिन पूरा गांव संस्कृत सीखने और बोलने की कोशिश जरूर करता है। गांव के बच्चों की संस्कृत भाषा में नींव मजबूत हो सके इस वास्ते गांव में ‘शारदा शाला’ की शुरुआत की गई। ये एक स्कूल है, जहां बच्चों को संस्कृत के साथ-साथ योग और वेद की शिक्षा दी जाती है। गांव में संस्कृत और वेद की शिक्षा लेने के लिए विदेशों से तक लोग आते हैं।
संस्कृत भाषा सीखने विदेशों से आते हैं लोग
संस्कृत भारती संस्था के साथ काम करने वाले कृष्णन ने बताया कि गांव में संस्कृत सीखने के लिए कोर्स चलाए जाते हैं। यह सब परंपरागत परिधान पहनते है और चोटी रखते हैं। अगर कोई संस्कृत सीखना चाहता है तो यहां 20 दिनों का एक कोर्स चलता है। इसके लिए कोई फीस भी नहीं ली जाती। गांव के लोग संस्कृत सीखकर देशभर में बड़े पदों पर तैनात हैं। गांव में हिंदू या फिर मुसलमान सब लोग संस्कृत में ही संवाद करते हैं।
ऐसा नहीं है कि गांव के लोगों को केवल संस्कृत भाषा का ज्ञान है। इस गांव में रहने वाले लोग फर्राटेदार अंग्रेजी भी बोल सकते हैं और कर्नाटक की स्थानीय भाषा को भी जानते हैं। गांव में एक चौपाल लगती है, जहां कई बुजुर्ग हाथ में माला लिए मंत्रोच्चारण करते हैं। मत्तूरु गांव की एक खास बात यहां की शादियां हैं। गांव में आज भी पारंपरिक तरीके से शादियां होती हैं। यहां करीब 6 दिन की शादियां होती है और लोग पारंपरिक रस्मों को निभाते हैं। गांव में जातिभेद है न ही कोई और विवाद। सब लोग एक दूसरे का भरपूर सहयोग करते हैं। एक और जहां हम अपनी संस्कृति से दूर हो रहे हैं, वहीं ये कर्नाटक का मत्तूरु गांव अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने की कोशिश कर रहा है। गांव के लोगों ने संस्कृत को केवल एक भाषा न मानकर आंदोलन की तरह बचाने का काम किया है।

एमसीसीआई में जेम, ट्रेड्स, उद्यम पंजीकरण पर कार्यशाला

कोलकाता । मर्चेंट्स चेम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने जीईएम, टीआरईडीएस और उद्यम पंजीकरण पर एक कार्यशाला का आयोजन किया। कार्यशाला को संबोधित करते हुए मार्वल इन्फोकॉम प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक नितिन जैन ने उन अवसरों के बारे में बताया जो जीईएम प्रदान कर रहा है। उन्होंने कहा कि 54,000 सरकारी विभाग हैं जो जेम में पंजीकृत हैं और खरीदार और विक्रेता दोनों बिना किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के अपना सौदा पूरा कर सकते हैं । आज की तारीख में जीईएम के 55 लाख पंजीकृत उपयोगकर्ता हैं और खरीद आदेश पर तत्काल वित्तपोषण की सुविधा थी, जिसे जीईएम सहाय एप्लिकेशन के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।” जेम ने वितरण सेवाओं के लिए भारतीय डाक के साथ सहयोग किया है। उन्होंने कहा कि वित्त वर्ष 22 में जेम प्लेटफॉर्म के माध्यम से 1 लाख करोड़ रुपये का कारोबार किया गया है और वित्त वर्ष 23 में 2 लाख करोड़ रुपये के कारोबार का लक्ष्य था।
टीआरईडीएस पर विचार रखते हुए रिसिवेबल्स एक्सचेंज ऑफ इंडिया लिमिटेड के असिस्टेंट वाइस प्रेसिडेंट एवं रीजनल हेड मैनाक मंडल ने कहा कि इस साल जून में प्रकाशित नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 25.80 लाख करोड़ रुपये का क्रेडिट गैप है और ट्रेड रिसीवेबल्स डिस्काउंटिंग सिस्टम (टीआरईडीएस) इस अन्तर को कम करने की कोशिश कर रहा है।
उद्यम पंजीकरण की जानकारी देते हुए सुविधा कन्स्लटेंट प्राइवेट लिमिटेड के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर (एमएसएमई), विश्वरूप चक्रवर्ती ने कहा कि जेम और ट्रेड्स का लाभ प्राप्त करने के लिए उद्यम में पंजीकृत होना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि बिना आईटी रिटर्न वाले नए उद्यम भी उद्यम पंजीकरण ले सकते हैं।
स्वागत भाषण एमसीसीआई की एमएसएमई काउंसिल के चेयरमैन संजीव कोठारी ने दिया । धन्यवाद एमसीसीआआई की एमएसएमई काउंसिल के को चेयरमैन प्रतीक चौधरी ने दिया ।

अंशधारकों के हित को ध्यान में रखना जरूरी


कोलकाता । मर्चेंट्स चेम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने अरविंद फैशन के निदेशक एनं अरविंद लिमिटेड के एक्जीक्यूटिव निदेशक कुलिन लालभाई के साथ ऑनलाइन सत्र आयोजित किया । लालभाई समूह की डिजिटल गतिविधियों का दायित्व सम्भालते हैं । उन्होंने कहा कि भारत एवं दक्षिण में विश्व में सबसे अधिक मध्यमवर्गीय लोगों को विकसित होता देख रहे हैं । आपूर्ति चेन चीन से भारत में स्थानांतरित हो रही है, सेवा क्षेत्र में निरंतर प्रगति हो रही है । डिजिटल क्षेत्र भारत की शक्ति बन रहा है । भारत में कपड़ों का घरेलू बाजार, स्थायी और किफायती होना एक वास्तविकता है । व्यवसाय के क्षेत्र में नेतृत्व करने वालों को अंशधारकों के हित को ध्यान में रखकर अंशधारक मूल्य (वैल्यू) निर्धारित करना होगा और यह आगे बढ़ने के लिए प्रेरक होगा ।