आस्था का पर्व छठ पूजा के चार दिवसीय छठ पूजा के दौरान बिहार एवं झारखंड के अलावा देश के अन्य राज्यों में बसे पूर्वांचल के लोग बेहद उत्साह एवं उमंग के साथ छठ पूजा करने को तैयार हैं। एक अनुमान के मुताबिक देशभर में लगभग 15 करोड़ से अधिक लोग इसमें शामिल होंगे जिससे 12 हजार करोड़ रुपये का व्यापार होने की संभावना है। कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के राष्ट्रीय महामंत्री और दिल्ली की चांदनी चौक से भाजपा सांसद प्रवीण खंडेलवाल ने कहा कि इस वर्ष छठ पूजा 96 घंटे (4 दिनों) में देशभर में करीब 12 हजार करोड़ रुपये का व्यापार होने की संभावना है। खंडेलवाल ने कहा कि कपड़े, फल, फूल, सब्जी, साड़ियों एवं मिट्टी के चूल्हे सहित छोटे उत्पादों के व्यापार में बड़ा उछाल देखा जा रहा है। उन्होंने बताया कि एक अनुमान के अनुसार देशभर में करीब 15 करोड़ से अधिक लोग छठ पूजा में शामिल होंगे, जिनमें स्त्री, पुरुष युवा के अलावा बच्चे शामिल हैं। खंडेलवाल ने कहा कि “छठ पूजा केवल एक धार्मिक आयोजन ही नहीं बल्कि यह भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा भी है, जो सामाजिक एकता और समर्पण का प्रतीक है। इससे व्यापार और स्थानीय उत्पादकों को भी सीधा लाभ पहुंचता है, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ के संकल्प को और मजबूत करेगा। छठ पूजा के दौरान इस्तेमाल होने वाले अधिकांश उत्पाद बड़े पैमाने पर स्थानीय कारीगरों और हस्तशिल्पियों द्वारा बनाये जाते हैं जिससे उन्हें रोजगार के नए अवसर प्राप्त हुए हैं। सांसद खंडेलवाल ने कहा कि छठ पूजा में प्रयुक्त होने वाली सामग्री, जैसे बांस के सूप, केले के पत्ते, गन्ना, मिठाई, फल विशेष रूप से नारियल, सेब, केला और हरी सब्जियां शामिल है। छठ पूजा के अवसर पर महिलाओं के पारंपरिक परिधानों, जैसे साड़ी, लहंगा-चुन्नी, सलवार कुर्ता और पुरुषों के लिए कुर्ता-पायजामा, धोती आदि की बड़ी खरीददारी हुई है, जिससे स्थानीय व्यापारियों को लाभ हुआ है और लघु एवं कुटीर उद्योग को भी बल मिला है। वहीं, घरों में छोटे पैमाने पर बनाये जाने वाले सामान की बड़ी बिक्री हो रही है।
रतन टाटा : एक युग, एक प्रेरणा
भारत के इतिहास में जब भी प्रेरणा की बात होगी तो रतन टाटा ऐसे व्यक्तित्व रहेंगे जो हम सबकी प्रेरणा रहेंगे । जिस उद्योग जगत को स्वार्थपरता के लिए अक्सर कठघरे में खड़ा किया जाता है, वहीं टाटा समूह और रतन टाटा ने समाज सेवा और व्यावसायिक चेतना को इस तरह जोड़ा कि वह कहीं अधिक संवेदनशील बना । दरअसल, टाटा नाम हम भारतीयों के जीवहै न का एक अनिवार्य अंग है।
रतन टाटा का जन्म 28 दिसंबर 1937 को हुआ। टाटा समूह में 1962 में शामिल होकर उन्होंने 1991 में नेतृत्व संभाला। उन्होंने नैनो कार और जगुआर-लैंड रोवर जैसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट पर काम किया। समाज सेवा में भी उनका योगदान अद्वितीय रहा। 9 अक्टूबर 2024 को उनका निधन हुआ। उनकी प्रेरणादायक यात्रा आज भी जीवित है।
28 दिसंबर 1937 की शाम, मुंबई के एक मध्यवर्गीय परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ। उस बच्चे का नाम था रतन नवरोज़ टाटा। रतन का परिवार भारतीय उद्योग के पितामह, जमशेदजी टाटा से जुड़ा हुआ था। उनके दादा ने भारतीय उद्योग की नींव रखी और अपने समय में कई महत्वपूर्ण संस्थानों की स्थापना की। रतन को बचपन से ही अपने दादा के कार्यों का प्रभाव महसूस हुआ। उन्होंने अपने दादा की कहानियों को सुना और हमेशा यही सोचा कि क्या वह भी एक दिन उनके पदचिन्हों पर चल सकेंगे।
रतन की मां सोनू टाटा और पिता नवरोज़ टाटा ने हमेशा उन्हें प्रेरित किया कि वे शिक्षा पर ध्यान दें। रतन की शिक्षा मुंबई में हुई और वह एक बुद्धिमान और मेहनती छात्र बने। हालांकि, उनकी जिंदगी में कठिनाइयां भी थीं। जब रतन केवल 10 साल के थे, उनके माता-पिता का तलाक हो गया। यह एक कठिन समय था, लेकिन इसने रतन को और मजबूत बना दिया। वह अपनी दादी के पास रहने लगे, जो उन्हें जीवन के मूल्यों और संघर्षों के बारे में सिखाती थीं।
रतन ने अपनी उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका के कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया, जहां उन्होंने आर्किटेक्चर और मैनेजमेंट की पढ़ाई की। उनकी शिक्षा ने उन्हें एक व्यापक दृष्टिकोण दिया, लेकिन उन्हें अपने देश से दूर रहने का गहरा अहसास भी हुआ। अमेरिका में पढ़ाई करते समय उन्होंने अपने दादा की बातें याद कीं, ‘यदि आप अपने सपनों को साकार करना चाहते हैं, तो आपको कड़ी मेहनत करनी होगी।’
1962 में, रतन ने टाटा समूह में एक कर्मचारी के रूप में काम करना शुरू किया। शुरुआत में उन्हें कई बार दूसरों ने नजरअंदाज किया और यह साबित करना पड़ा कि वह एक योग्य लीडर हैं। उन्होंने सबसे पहले एक छोटे से प्रॉजेक्ट पर काम किया, लेकिन जल्दी ही उनकी प्रतिभा का लोहा मान लिया गया।
नेतृत्व का सफर – 1991 में, रतन टाटा ने टाटा समूह का नेतृत्व संभाला। उन्होंने कई महत्वपूर्ण फैसले लिए, जिनमें से एक था टाटा नैनो का उत्पादन। यह दुनिया की सबसे सस्ती कार बनने का सपना था। रतन ने नैनो को बाजार में उतारने के लिए कड़ी मेहनत की, लेकिन जब उसकी बिक्री उम्मीद के मुताबिक नहीं हुई, तो उन्हें भारी आलोचना का सामना करना पड़ा। इस समय रतन का दिल टूट गया। उन्होंने सोचा, ‘क्या मैंने गलत निर्णय लिया?’ लेकिन उनकी दादी की बातें उनके दिमाग में गूंजने लगीं, ‘हर कठिनाई में एक अवसर होता है।’
रतन ने अपने अनुभवों से सीखा और नये दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने का निर्णय लिया। उन्होंने न केवल नैनो की रणनीति में बदलाव किया, बल्कि अपनी टीम को भी प्रेरित किया कि वे नए विचारों के साथ आगे बढ़ें। यह उनकी क्षमता का परिचायक था कि उन्होंने न केवल एक असफलता को सफल बनाया, बल्कि अपने इरादों में दृढ़ता भी दिखाई।
वैश्विक पहचान – रतन टाटा ने न केवल टाटा नैनो को फिर से सफल बनाया, बल्कि उन्होंने कई अन्य महत्वपूर्ण अधिग्रहण भी किए। उन्होंने जगुआर और लैंड रोवर को खरीदकर टाटा समूह को वैश्विक पहचान दिलाई। इसने भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नया मानक स्थापित किया। उनके इस कदम ने भारतीय उद्योग को एक नई दिशा दी और टाटा समूह को एक शक्तिशाली ब्रैंड बना दिया।
रतन की सफलता की कहानी केवल व्यवसाय तक सीमित नहीं थी। उन्होंने हमेशा समाज की भलाई के लिए काम किया। टाटा ट्रस्ट के माध्यम से उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक विकास के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाएं चलाईं। उनका मानना था, ‘सफलता का असली अर्थ है दूसरों की भलाई में योगदान करना।’ उन्होंने कहा, ‘हमेशा याद रखें कि असली उद्यमिता वही है जो समाज को बदलने के लिए काम करे।’
समाज सेवा और प्रभाव – रतन टाटा ने हमेशा समाज की भलाई के लिए काम किया। उन्होंने स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार, शिक्षा के स्तर को ऊंचा करने और गरीबों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के लिए कई योजनाएं बनाई। टाटा ट्रस्ट के माध्यम से उन्होंने कई अस्पतालों की स्थापना की और कई शिक्षण संस्थानों की मदद की।
उनका एक प्रसिद्ध उद्धरण है, ‘मैं अपने देश के लिए एक सपना देखता हूं, जहां हर व्यक्ति को अपने अधिकार मिलें।’ उन्होंने समाज में बदलाव लाने के लिए युवाओं को प्रेरित किया कि वे अपने सपनों के पीछे दौड़ें और समाज के उत्थान के लिए कार्य करें।
9 अक्टूबर 2024 को, रतन टाटा का निधन मुंबई में हुआ। उनका जाना केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि एक युग का अंत था। उनके द्वारा किए गए कार्य और उनके दृष्टिकोण ने उन्हें एक महान नेता बना दिया। उन्होंने हमें यह सिखाया कि असली सफलता का मतलब सिर्फ व्यवसाय में सफल होना नहीं है, बल्कि समाज की सेवा करना भी है।
उनकी प्रेरणादायक यात्रा हमें यह याद दिलाती है कि अगर हम अपने सपनों के लिए मेहनत करें और कभी हार न मानें, तो चांद की तरह चमकना संभव है। रतन टाटा की जीवनगाथा यह साबित करती है कि सपनों को साकार करने के लिए संघर्ष करना ही असली सफलता है। उन्होंने अपने जीवन में जो उपलब्धियां हासिल कीं, वे हमें प्रेरित करती रहेंगी। उनकी कहानी हर युवा के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगी, यह दिखाते हुए कि कठिनाईयों के बावजूद, अगर आपके इरादे मजबूत हों, तो आप किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
रतन टाटा की विरासत आज भी जीवित है। उनके विचार और कार्य हमें सिखाते हैं कि समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए हमें हमेशा एक कदम आगे बढ़ना चाहिए। उनका नाम न केवल भारतीय उद्योग में बल्कि पूरे विश्व में सम्मान के साथ लिया जाएगा। उन्होंने अपने जीवन में जो आदर्श स्थापित किए, वे हमें हमेशा प्रेरित करेंगे कि हम अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ते रहें और दूसरों की भलाई के लिए काम करें। असली नेतृत्व वही है, जो दूसरों के उत्थान के लिए किया जाए। रतन टाटा ने साबित किया कि अगर दिल में सच्ची मेहनत और समर्पण हो, तो कोई भी सपना साकार किया जा सकता है।
(साभार – नवभारत टाइम्स)
छठ पूजा विशेष : छठी मइया के गीत
छठ पूजा: प्रकृति की दृष्टि से

मनुष्य आदिकाल से ही प्रकृति का पुजारी रहा है। पशु से मानव बनने के क्रम में मनुष्य ने जब अपने बुद्धि एवं विवेक का प्रयोग करना सीखा होगा,तब दूर आसमान में चमकते सूर्य एवं चंद्रमा को नियमानुसार उगते एवं अस्त होते हुए देखा होगा। यह उनके
किसी चमत्कारी अजूबे से कम नहीं होगा। और धीरे-धीरे मनुष्य प्रकृति पुजारी बना होगा। इसी क्रम में परम्पराओं का जन्म एवं विकास हुआ होगा और समय के अंतराल में इन्हीं के मूल में विकसित हुई आस्थाऍं एक दिन विशाल वटवृक्ष की भॉंति जन समूह के हृदय में अपनी जड़ें गहरी और गहरी करतीं गईं।इस तथ्य का जीवंत उदाहरण ‘छठ पूजा’ जो कि कुछ वर्षों से महापर्व के रूप में सामने आया है, के रूप में हम देख सकते हैं।
यह पर्व सूर्य के अस्ताचल एवं उदयाचल के पूजन का पर्व है। यह पर्व प्रकृति पूजन का पर्व है। यह पर्व जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलूओं का पर्व है कि जीवन में यदि संध्या रूपी अंधकार है तो सूरज की नवीन किरणों के साथ फैलता प्रकाश भी है। यह पर्व प्रतीक है इस सच्चाई का कि संसारिक लोग केवल उगते सूरज की आराधना नहीं करते अपितु डूबते सूरज को भी सम्मान पूर्वक विदा करते हैं ताकि पुनः एक नवीन सूरज का आगमन हर्षोल्लास के साथ कर सके।
मेरा जन्म तकरीबन तैंतालीस वसंत पूर्व महादेव की नगरी में हुआ था। पहले बारह वसंत बनारस में व्यतीत हुआ। इस दरम्यान होली,दीपावली, तीज,कजरी आदि अनेकों त्योहारों के संस्कार हृदय में गहरी पैठ बना चुके थे किन्तु छठ पूजा से परिचय अभी शेष था ।तत्पश्चात् मॉं के साथ महाकाली की नगरी में आना हुआ।
बाड़ी में बनारस का एक परिवार और शेष जन छपरा, बलिया, आरा आदि राज्यों से थे। यहॉं पहली बार छठ का नाम एवं गीत सुना जो आज भी दीपावली के पश्चात अनायास ही गुनगुनाने लगती हूॅं। इस गीत के मुखड़े से शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा-‘कॉंच ही बॉंस के बंहगिया’और ‘छोटी-मोटी हमरो अंगनिया’। मेरे घर में कोई यह व्रत नहीं रखता था लेकिन पड़ोसियों के घर किया जाने वाला यह पर्व अपने घर सा लगता था। राह में मिलने वाले मनौती वाले व्रतियों के पॉंव छूते हुए घाट तक जाना(भले ही उनसे भूत या भविष्य में कोई लेना देना न हो) , व्रतियों के वस्त्रों को झपट कर धोना हम अपना परम कर्तव्य समझते थे। ये बचपन के वे पहलू हैं जो आज भी हृदय में इस प्रकार संग्रहित हैं मानों कोई अनमोल खजाना। यही वे संस्कार है जो हम अपनी आने वाली पीढ़ी में सींचते हैं।
इस पर्व के महात्म्य पर बहुत कुछ कहा एवं लिखा गया है, कुछ लोग इसका प्रारंभ त्रेता युग में माता सीता से जोड़कर देखते हैं तो कुछ लोग द्वापर युग में द्रौपदी से जोड़कर, वहीं कुछ लोग यह मानते हैं कि प्राचीन काल में निम्न वर्ग के लोगों को मंदिर में प्रवेश निषेध था अतः एक गांव में एक समुदाय विशेष के लोगों ने तालाब में जाकर सूर्य देव की आराधना शुरू की। वास्तविकता जो भी हो किन्तु यह अटल सत्य है कि युग चाहे जो भी हों प्रकृति सदैव पूजनीय रही है और रहेगी।
भौतिकवादी इस युग में भी, प्रकृति से छेड़छाड़ कर मनुष्य अपने अस्तित्व की सुरक्षा कभी नहीं कर पाएगा। इन धार्मिक अनुष्ठानों के पीछे छिपे उद्देश्य को समझकर पर्यावरण के हर एक अंग को सुरक्षित रखने का सफल प्रयास करना होगा।
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सूर्य नमस्कार और उसके लाभ
सूर्य नमस्कार योगासनों में सर्वश्रेष्ठ है। सूर्य नमस्कार का अभ्यास हमारे सम्पूर्ण शरीर का व्यायाम है। इसके दैनिक अभ्यास से हमारा शरीर निरोगी, स्वस्थ और चेहरा ओजपूर्ण हो जाता है। महिला हों या पुरुष, बच्चे हों या वृद्ध, सूर्य नमस्कार सभी के लिए बहुत लाभदायक है।
सूर्य नमस्कार में बारह आसन होते हैं: प्रणाम आसन, हस्तोत्तानासन, हस्तपाद आसन, अश्वसंचालन आसन, दंडासन, अष्टांग नमस्कार, भुजंग आसन, पर्वत आसन, अश्वसंचालन आसन, हस्तपाद आसन, हस्तोत्तानासन, ताड़ासन
सूर्य नमस्कार के लाभ
सूर्य नमस्कार से हृदय, यकृत, आँत, पेट, छाती, गला, पैर शरीर के सभी अंगो के लिए बहुत से लाभ हैं। सूर्य नमस्कार सिर से लेकर पैर तक शरीर के सभी अंगो को बहुत लाभान्वित करता है। यही कारण है कि सभी योग विशेषज्ञ इसके अभ्यास पर विशेष बल देते हैं। सूर्य नमस्कार के अभ्यास से शरीर, मन और आत्मा सबल होते हैं। सूर्य नमस्कार के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक कई निम्नलिखित लाभ हैं:
1. सूर्य नमस्कार करने से शरीर स्वस्थ और हृष्ट- पुष्ट बनता है -सूर्य नमस्कार न सिर्फ शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करता है बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक बल भी प्रदान करता है। सूर्य नमस्कार के 12 आसन हमारे पूरे शरीर के आंतरिक और बाहरी अंगों को स्वस्थ और निरोगी बनाए रखते हैं।
2. बेहतर होता है पाचन तंत्र – सूर्य नमस्कार के आसन हमारे पेट के आंतरिक भाग को मजबूत बनाए रखने में सहायता करते हैं। यदि आप नियमित रूप से सूर्य नमस्कार कर रहे हैं तो आपका पाचन तंत्र मजबूत रहता है और पेट से संबंधित बिमारियाँ आपको परेशान नहीं करतीं।
3. सूर्य नमस्कार करने से पेट की चर्बी घटती है – सूर्य नमस्कार करने से पेट की चर्बी घटती है। जो लोग दिन-रात गूगल पर पेट की चर्बी कम करने के उपाय ढूंढते रहते हैं, उनके लिए यह खुशखबरी है। आज से ही सूर्य नमस्कार को अपने दैनिक जीवन का अंग बना लें। कुछ दिन में आप अपने आपको फिट पाएंगे।
4. सूर्य नमस्कार शरीर का डीटॉक्स करता है – हमारा शरीर, आए दिन के तनाव और जीवन शैली के बदलाव के कारण विषाक्त पदार्थ इकठ्ठा करता रहता है। सूर्य नमस्कार का अभ्यास हमारे शरीर के अनचाहे विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में हमारी मदद करता है।
5. सूर्य नमस्कार चिंता और तनाव को दूर रखता है -सूर्य नमस्कार न केवल हमें शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त रखता है बल्कि मानसिक रूप से भी चिंतामुक्त और तनावमुक्त बनाए रखता है। सूर्य नमस्कार के 12 आसन हमें दिन भर तरोताजा अनुभव करने में हमारी मदद करते हैं।
6. सूर्यनमस्कार शरीर को लचीला बनाए रखने में मदद करता है – सूर्य नमस्कार 12 आसनों का एक व्यायाम है। इसके अलग-अलग आसन, शरीर के अलग-अलग अंगों पर अपना प्रभाव डालते हैं। जब हम एक आसन से दूसरे आसन में जाते हैं तो व्यायाम की निरंतरता बनी रहती है और हमारे शरीर के सभी अंगों में लचीलापन और मजबूती आती है। प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करने से शरीर में अकड़न नहीं रहती और हम अधिक लचीला अनुभव करते हैं।
7. रोज सूर्य नमस्कार करने से मासिक-धर्म नियमित रहता है – जो महिलाएं अपने मासिक धर्म में अनियमितता से परेशान हैं, सूर्य नमस्कार उनके लिए वरदान हो सकता है। नियमित सूर्य नमस्कार पेट के निचले हिस्से, नितम्ब, गर्भाशय (यूट्रस) और अंडाशय (ओवरी) को स्वस्थ बनाता है और मासिक धर्म की अनियमितता की समस्या को जड़ से दूर भगाता है। स्वास्थ्य के प्रति सचेत महिलाओं के लिए यह एक वरदान है। इससे न केवल अतिरिक्त कैलोरी कम होती है बल्कि पेट की मांसपेशियो के सहज खिचाव से बिना खर्च सही आकार पाया जा सकता है। सूर्य नमस्कार का नियमित अभ्यास महिलाओं के मासिक धर्म की अनियमितता को दूर करता है और प्रसव को भी आसान करता है। साथ ही, यह चेहरे पर निखार वापस लाने में मदद करता है, झुर्रियों को आने से रोकता है और चिरयुवा तथा कांतिमय बनाता है।
8. सूर्य नमस्कार से अंतर्दृष्टि (इंट्यूशन) विकसित होती है – सूर्य नमस्कार व ध्यान के नियमित अभ्यास से मणिपुर चक्र बादाम के आकार से बढ़कर हथेली के आकार का हो जाता है। मणिपुर चक्र का यह विकास जो कि दूसरा मस्तिष्क भी कहलाता है, अंतरदृष्टि विकसित कर, अधिक स्पष्ट और केंद्रित बनाता है। मणिपुर चक्र का सिकुड़ना अवसाद और दूसरी नकारात्मक प्रवृत्तियों की ओर ले जाता है। सूर्य नमस्कार के ढेरों लाभ हमारे शरीर को स्वस्थ और मन को शांत रखते हैं, इसलिए सभी योग विशेषज्ञ सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास पर विशेष बल देते हैं।
9. रीढ़ की हड्डी को मिलती है मजबूती – सूर्य नमस्कार से रीढ़ की हड्डी के निचले भाग से लेकर ऊपरी भाग तक बढ़िया व्यायाम होता है। इससे रीढ़ की हड्डी को लचीलापन और मजबूती दोनों मिलते हैं।
10. सूर्य नमस्कार बच्चों में एकाग्रता बढ़ाता है – सूर्य नमस्कार मन शांत करता है और एकाग्रता को बढ़ाता है। आजकल बच्चे प्रतिस्पर्धा का सामना करते हैं इसलिए उन्हें नित्यप्रति सूर्य नमस्कार करना चाहिए क्योंकि इससे उनकी सहनशक्ति बढ़ती है और परीक्षा के दिनों की चिंता और असहजता कम होती है।
सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से शरीर में शक्ति और ओज की वृद्धि होती है। यह माँसपेशियों का सबसे अच्छा व्यायाम है और हमारे भविष्य के खिलाड़ियों के मेरुदण्ड और दूसरे अंगो के लचीलेपन को बढ़ाता है। 5 वर्ष से बच्चे नियमित सूर्य नमस्कार करना प्रारंभ कर सकते हैं।
सूर्य नमस्कार के पीछे का विज्ञान – सूर्य नमस्कार करने की विधि जानना ही पर्याप्त नहीं है, इस प्राचीन विधि के पीछे का विज्ञान समझना भी आवश्यक है। इस पवित्र व शक्तिशाली योगिक विधि की अच्छी समझ, इस विधि के प्रति उचित सोच व धारणा प्रदान करती है। यह सूर्य नमस्कार की सलाहें आपके अभ्यास को बेहतर बनाती हैं और सुखकर परिणाम देती हैं।
भारत के प्राचीन ऋषियों के द्वारा ऐसा कहा जाता है कि शरीर के विभिन्न अंग विभिन्न देवताओं (दिव्य संवेदनाए या दिव्य प्रकाश) के द्वारा संचालित होते है। मणिपुर चक्र (नाभि के पीछे स्थित जो मानव शरीर का केंद्र भी है) सूर्य से संबंधित है। सूर्य नमस्कार के लगातार अभ्यास से मणिपुर चक्र विकसित होता है, जिससे व्यक्ति की रचनात्मकता और अंतर्ज्ञान बढ़ते हैं। यही कारण था कि प्राचीन ऋषियों ने सूर्य नमस्कार के अभ्यास पर इतना बल दिया।
(साभार -आर्ट ऑफ लीविंग )
छठ पूजा विशेष : छठ पूजा में इसलिए महत्वपूर्ण है सूर्यदेव को अर्घ्य देना
लोक मान्यता का महापर्व माना जाता है छठ। छठ पूजा के दौरान महिलाएं 36 घंटे का कठिन निर्जल व्रत रखती हैं और भगवान सूर्य एवं छठी मैया की पूजा कर संतान की उन्नति और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। चार दिनों तक चलने वाली छठ पूजा में पहले दिन नहाय खाय होता है, दूसरे दिन खरना किया जाता है, तीसरे दिन सूर्य को संध्या अर्घ्य दिया जाता है और चौथा यानी कि अंतिम दिन उषा अर्घ्य दिया जाता है। छठ पूजा कृतज्ञता बोध का पर्व है । अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देना इसी कृतज्ञताबोध का प्रतीक है और उदित होते सूर्य को अर्घ्य देना आशा का प्रतीक है ।
शास्त्रों में सूर्य देव को ग्रहों का राजा माना जाता है। सूर्य देव की पूजा से व्यक्ति का भाग्य साथ देने लगता है, सौभाग्य में वृद्धि होती है, कैसा भी रोग क्यों न हो वह दूर हो जाता है और अगर जीवन में सफलता पाने में दिक्कत आ रही हो या बाधाएं आ रही हों तो वो भी दूर हो जाती हैं और भरपूर तरक्की होती है।
सूर्य देव की पूजा करने से और विशेष रूप से उन्हें रोजाना अर्घ्य देने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और जीवन के संकट दूर हो जाते हैं। इसी कारण से रामायण में भगवान श्री राम और महाभारत में कर्ण ने अपने जीवनकाल में हमेशा सूर्य को जल चढ़ाया और सूर्य की विधिवत पूजा-आराधना भी की।
ऐसा माना जाता है कि जब पहली बार माता सीता ने छठ पूजा की शुरुआत की थी तब मात सीता ने भी सूर्य को अर्घ्य दिया था और तभी से यह परंपरा चली आ रही है। इसके अलावा, लव-कुश के जन्म से पूर्व और बाद में भी माता सीता रोजाना उनकी सुख-समृद्धि के लिए सूर्य को जल अर्पित किया करती थीं।
छठ पूजा के दौरान सूर्य को अर्घ्य दो बार दिया जाता है, एक बार छठ पूजा के तीसरे दिन संध्या अर्घ्य और छठ पूजा के चौथे दिन प्रातः काल का अर्घ्य। मान्यता है कि छठ पूजा के दौरान सूर्य को अर्घ्य देने से संतान को उच्च पद की प्राप्ति होती है और धन, वैभव, ऐश्वर्य से जीवन परिपूर्ण रहता है।
वरिष्ठ कवि मानिक बच्छावत का निधन
भवानीपुर कॉलेज की छात्रा बनीं विश्व शतरंज बॉक्सिंग में कांस्य पदक विजेता
कोलकाता अनुभव संस्था द्वारा एक आनंदमय सांस्कृतिक शाम का आयोजन
2000 साल पुराना है परम्परा, फैशन की खूबसूरत पहचान बनारसी साड़ी का इतिहास
जातक कथाओं में मिलता है बनारसी साड़ी का जिक्र –महाकाव्य महाभारत और कुछ बौद्ध धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख किया गया है। प्राचीन लोग राजसीपन का प्रतिनिधित्व करने के लिए इन खूबसूरत साड़ियों को पहनते थे। उन पुराने दिनों में, साड़ियों को असली सोने और चांदी के धागों का उपयोग करके बनाया जाता था और इसे बनाने में एक साल तक का समय लग सकता था। हालाँकि इन साड़ियों को भारत में बहुत पुराने समय से पसंद किया जाता रहा है, लेकिन मुगल सम्राट अकबर ने ही बनारसी सिल्क साड़ियों को और अधिक प्रसिद्ध बनाया। बनारसी साड़ी का सीधा मतलब सिल्क (रेशम) के कपड़े से है। अभी तक यह माना जाता है कि चीन में सबसे पहले सिल्क ईजाद हुआ और लंबे समय तक चीन ने इसे गुप्त रखा, लेकिन बनारसी साड़ी का जिक्र 300 ईसा पूर्व जातक कथाओं में मिलता है। इन कथाओं में गंगा किनारे कपड़ों की खूब खरीद-फरोख्त होने का जिक्र है. वहीं इनमें रेशम और जरी की साड़ियों का वर्णन मिलता है। ऐसा माना जाता है कि ये बनारसी साड़ी ही है जबकि ऋग वेद में ‘हिरण्य’ नाम का जिक्र है जिसे को रेशम पर हुई जरी का काम माना जाता है। जानकार कहते हैं कि यह बनारसी साड़ी की एक खासियत होती है। भारी जरी काम के लिए रेशम सबसे मुफीद होता है। वहीं इतिहासकार राल्फ पिच ने बनारस को सूती वस्त्र उद्योग के एक संपन्न केंद्र के रूप में वर्णित किया है. बनारस के जरी वस्त्रों का सबसे स्पष्ट उल्लेख मुगल काल के 14वीं शताब्दी के आस-पास का मिलता है जिसमें रेशम के ऊपर सोने और चांदी के धागे का उपयोग करके इन साड़ियों को बनाया जाता था।
बनारसी साड़ी कड़ुआ और फेकुआ – बनारसी साड़ी दो तरह की होती है कड़ुआ और फेकुआ। जब साड़ी को ढरकी पर बुना जाता है तो उसी समय दूसरा कारीगर सिरकी से डिजाइन को बनाता है। इस तरह की कारीगरी में दो लोगों की आवश्यकता होती है। एक साड़ी की बिनाई करता है तो दूसरा रेशम के ऊपर जरी के धागों से कढ़ाई करता है। इन साड़ियों पर कैरी की डिजाइन के साथ फूल पत्तियों की डिजाइन भी बनाई जाती है। कड़ुआ साड़ी को तैयार करने में कम से कम 2 महीने का समय लगता है. इसी वजह से इन साड़ियों की कीमत सबसे ज्यादा होती है जबकि फेकुआ साड़ी को बनाने में कड़ुआ जितनी मेहनत नहीं लगती है। आज बनारस के बजरडीहा इलाके में कड़ुआ बनारसी साड़ी बड़े पैमाने पर बनाई जाती है। वहीं वर्तमान में बनारसी साड़ी को सिल्क, कोरा, जार्जेट, शातिर पर बनाया जाता है. इनमें सबसे ज्यादा मशहूर सिल्क है।
बनारसी साड़ी को अकबर ने दिलाई बड़ी पहचान – मुगल बादशाह अकबर के समय बनारस में बनने वाली इस साड़ी को सबसे ज्यादा तवज्जो मिली। मुगल बादशाह बनारसी सिल्क और जरी के काम को बहुत पसंद करते थे। वह अपनी बेगमों के लिए यह साड़ियां तैयार करवाते थे. इन साड़ियों पर सोने-चांदी की जरी का काम भी होता था। वहीं वह इन साड़ियों का प्रयोग उपहार के तौर पर भी करते थे। वहीं बनारस में बनने वाली बनारसी साड़ी पर सबसे ज्यादा मुगल बादशाहों की छाप देखने को मिलती है। इस साड़ी का सबसे ज्यादा विकास अकबर और जहांगीर के शासनकाल में हुआ। उस समय इन साड़ियों पर इस्लामिक डिजाइन की फूल पत्तियां बनाई जाती थवहीं पर जाली का काम भी होता था, जो मुगलों का ही प्रभाव है. वर्तमान में अब बनारसी साड़ी पर हिंदू देवी देवताओं की डिजाइन भी देखने को मिलती है ।
बनारसी साड़ी का डिजाइन बनाना आसान नहीं – बनारसी साड़ी की डिजाइन को बनाना कोई आसान काम नहीं है. बल्कि यह एक सधा हुआ ज्ञान है। साड़ियों पर डिजाइन बनाने से पहले उसे ग्राफ पेपर पर बनाया जाता है फिर नक्शा पत्रा पर उसे उभारा जाता है। वहीं इनकी डिजाइन बनाना एक सधा हुआ विज्ञान है, जिसमें बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है. क्योंकि अगर साड़ी का डिजाइन बिगड़ जाए तो उस पर खर्च होने वाले समय की बर्बादी भी होती है। सबसे पहले, सोने के मिश्र धातु के टुकड़ों से धातु की पट्टियाँ निकाली जाती हैं जिन्हें मशीनों से चपटा किया जाता है। फिर उनकी चमक बढ़ाने के लिए उन्हें पॉलिशर से गुज़ारा जाता है। साड़ी पर लगाए जाने वाले डिजाइन पहले कागज पर बनाए जाते हैं, जिनमें छिद्र ब्रेल लिपि की याद दिलाते हैं। एक साड़ी के लिए सैकड़ों पैटर्न बनाए जाते हैं, या तो फूलों की आकृति के रूप में या किसी अन्य पैटर्न के रूप में। साड़ियों को तैयार होने में 15 दिन से लेकर एक महीने तक का समय लग सकता है। कुछ मामलों में, इसमें छह महीने तक का समय लग सकता है। बनारसी साड़ियाँ असंख्य रंगों और खूबसूरत पैटर्न में आती हैं।
हाथ से बनी हुई बनारसी साड़ी की अलग पहचान – हाथ से बनने वाली बनारसी साड़ी पर डिजाइन और जरी का काम बहुत सधे हुए कारीगरों द्वारा किया जाता है। वहीं इस काम को करने में काफी समय भी लगता है. एक बनारसी साड़ी पर कम से कम 2 महीने तक समय खर्च होता है. वहीं कुछ साड़ियों पर तो महीनों का भी समय लग जाता है जिसके कारण इन साड़ियों की कीमत काफी ज्यादा होती है. जितनी अच्छी डिजाइन बनारसी साड़ी पर होती है, उसे बनाने में उतने ही महंगे कारीगर का इस्तेमाल होता है। इससे उस साड़ी की कीमत तय की जाती है. बनारसी साड़ी पर सोने-चांदी के जरी का इस्तेमाल किया जाए तो इनकी कीमत लाखों में पहुंचती है।
बनारसी में मोटिफ के प्रकार
बूटी – बनारसी साड़ी – बूटी छोटे-छोटे तस्वीरों की आकृति लिए हुए होता है। इसके अलग-अलग पैटर्न दो या तीन रंगो के धागे की सहायता से बनाये जाते हैं और यदि पाँच रंग के धागों का प्रयोग किया जाता है तो इसे पचरंगा (जामेवार) कहा जाता है। यह बनारसी साड़ी के लिए प्रमुख आवश्यक तथा महत्वपूर्ण डिजाइनों में से एक है। इससे साड़ी की जमीन या मुख्य भाग को सुसज्जित किया जाता है। पहले रंग को ‘हुनर का रंग ‘ कहा जाता है। जो सामान्यतः गोल्ड या सिल्वर धागे को एक एक्सट्रा भरनी से बनाया जाता है जिसके लिए सिरकी (बौबिन) का प्रयोग किया जाता है। हालाँकि आजकल इसके लिए रेशमी धागों का भी प्रयोग किया जाता है जिसे मीना कहा जाता है जो रेशमी धागे से ही बनता है। सामान्यतः मीने का रंग हुनर के रंग का होने चाहिए।
बूटा – जब बूटी की आकृति को बड़ा कर दिया जाता है तो इस बढ़ी हुई आकृति को बूटा कहा जाता है। छोटे बड़े पेड़-पौधे जिसके साथ छोटी-छोटी पत्तियाँ तथा फूल लगे हों इसी आकृति को बूटे से उभारा जाता है। यह पेड़ पौधे भी हो सकते हैं और कुछ फूल भी हो सकते हैं। गोल्ड, सिल्वर या रेशमी धागे या इनके मिश्रण से बूटा काढ़ा जाता है। रंगों का चयन डिज़ाइन तथा आवश्यकता के अनुसार किया जाता है। बूटा साड़ी के बॉर्डर, पल्लू तथा आंचल में काढ़ा जाता है जबकि ब्रोकेड के आंगन (पोत) में इसे काढ़ा जाता है। कभी-कभी साड़ी के किनारे में एक खास प्रकार के बूटे को काढ़ा जाता है, जिसे यहाँ के लोग अपनी भाषा में कोनिया कहते हैं।
कोनिया – पट्टी, बेल, कोनिया, शिकारगाह, जंगला – जब एक खास प्रकार की (आकृति) के बूटे को बनारसी वस्त्रों के कोने में काढ़ा जाता है तो उसे कोनिया कहते हैं। डिज़ाइन आकृति को इस तरह से बनाया जाता है जिससे वे कोने के आकार में आसानी से आ सकें तथा बूटे से वस्त्र और अच्छी तरह से आलंकृत हो सके। जिन वस्त्रों में स्वर्ण तथा चाँदी के धागों का प्रयोग किया जाता है उन्हीं में कोनिया को बनाया (काढ़ा) जाता है। सामान्यतः कोनिया काढ़ने के रिए रेशमी धागों का प्रयोग नहीं किया जाता है क्योंकि रेशमी धागों से शुद्ध फूल पत्तियों का डिजाइन सही ढ़ंग से नहीं उभर पाता। पल्लु डिज़ाइन के बाद, कोने से कोनिया बनाया जाता है जो कि प्राय: आम के आकार का रहता है जिसे बनाना बहुत कठिन होता है क्योंकि एक साथ इसमें तीन जालों से बुनाई की जाती है। यह एक पारम्परिक कला है।
बेल – यह एक आरी या धारीदार फूल पत्तियों या ज्यामितीय ढंग से सजाए गए डिज़ाइन होते हैं। इन्हें क्षैतिज, आडे या टेड़े मेड़े तरीके से बताया जाता है, जिससे एक भाग को दूसरे भाग से अलग किया जा सके। कभी-कभी बूटियों को इस तरह से सजाया जाता है कि वे पट्टी का रूप ले लें। भिन्न-भिन्न जगहों पर अलग-अलग तरीके के बेल बूटे बनाए जाते हैं। बेल साडी के किनारे पर लगती है और चार अंगुल में नापी जाती है। इससे घुंघट का नाप तय होता है। बेल में फूल-पत्तियों के अतिरिक्त विभिन्न पशु-पक्षियों व मानव आकृतियों के मोटिफ भी बनाए जाते हैं।
जाल और जंगला – जाल, जैसे नाम से ही स्पष्ट होता है जाल के आकृति लिए हुए होते हैं। जाल एक प्रकार का पैटर्न/बंदिश है, जिसके भीतर बूटी बनाई जाती है तथा इसे जाल- जंगला कहते हैं। जंगला डिज़ाइन प्राकृतिक तत्वों से काफी प्रभावित है। जंगला कतान और ताना का प्लेन वस्त्र है। ताना-बाना कतान का रहता है और डिज़ाइन के लिए सुनहरी या चाँदी की ज़री का प्रयोग होता है जिसमें समस्त फूल, पत्ते, जानवर, पक्षी इत्यादि बने होते हैं। जंगला, जाल से काफी मिलता जुलता होता है। यदि जंगले में मीनाकारी करनी हो तो अलग अलग रंगों के रेशम के धागों का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार बेल जंगला भी बनाया जाता है।
झालर -बॉर्डर के तुरंत बाद जहाँ कपड़े का मुख्य भाग जिसे अंगना कहा जाता है की शुरुआत होती है वहाँ एक खास डिज़ाइन वस्त्र को और अधिक अलंकृत करने के लिए दिया जाता है, जिसे झालर कहा जाता है। सामान्यतः यह बॉर्डर के डिज़ाइन से रंग तथा मैटीरियल में मिलता होता है। झालर में तोता, मोर, पान, कैरी, तिन पतिया, पाँच पतिया मोटिव डिज़ाइन बनाए जाते हैं। झालर बेल के आखिर में साड़ियों के अलावा जरदोजी का काम भी यहाँ चालू हो चुका है। ये बनारस की अपनी अलग परम्परा नहीं है परन्तु अब लोगों ने बनारसी साड़ी में भी जरदोजी का काम करना प्रारम्भ कर दिया है।
बनारसी साड़ी के प्रकार
बनारसी चिनिया सिल्क-यह एक प्रकार की बनारस साड़ी है जो चिनिया नामक रेशम के धागे से बनाई जाती है। इसे आप कम बजट में भी खरीद सकते है। तो आपको एक बनारस चिनिया सिल्क साड़ी तो जरूर खरीद लेनी चाहिए।
बनारसी सूती साड़ी-बनारसी सूती साड़ी देखने में बेहद खूबसूरत होती है। यह संयोजन बनारसी कॉटन साड़ियों को कालातीत और आरामदायक बनाता है। यह उन लोगों के लिए बिल्कुल सही है जो रोजमर्रा में तरह तरह की साड़ियां पहनना पसंद करती हैं।
बनारसी जूट सिल्क साड़ियां-बनारसी जूट सिल्क साड़ियां टिकाऊ जूट के साथ उच्च गुणवत्ता वाले रेशम के संयोजन से बनाई जाती हैं। ये दूर से ही देखने में खूबसूरत नजर आती है। इस साड़ी को पहनकर आप कहीं भी और कभी भी जा सकती हैं।
शिफॉन बनारसी सिल्क साड़ियां-शिफॉन बनारसी सिल्क साड़ियां शिफॉन कपड़े में बनी खास प्रकार की बनारसी साड़ी है। ये गर्मियों के लिए बेस्ट होती है और बहुत आरामदेह होती है। आप इसे कभी भी पहन सकती हैं। इसे पहनकर आपको बहुत आराम महसूस होगा।
बनारसी कातन सिल्क-बनारसी कातन सिल्क की खास बात ये है कि ये बेहद हल्की होती है और इसे पहनकर आपको अलग ही महसूस होगा। यह एक विशेष बुनाई तकनीक से बनी होती है जिसमें रेशम की ताकत को कपास की कोमलता के साथ मिश्रित होती है।
बनारसी कुबेर सिल्क-बनारसी कुबेर सिल्क साड़ियां बढ़िया रेशम सामग्री से बनी होती हैं। यह नरम और हल्का है और इसमें बहने वाला गुण है जो इसकी चमकदार उपस्थिति को काफी लोकप्रिय बनाता है। इसे आप शादी के मौके पर भी पहन सकती हैं।
बनारसी जॉर्जेट-इस प्रकार की साड़ी शुद्ध कलात्मकता वाली होती है। बनारसी जॉर्जेट साड़ियों में एक जटिल इंटरवॉवन डिजाइन तकनीक इस्तेमाल होती है। कपड़े का डिजाइन पारंपरिक रूप से हमारी जटिल भारतीय विरासत को प्रदर्शित करती है। ज़री का काम और पत्थर का काम कुशल बुनकरों और कारीगरों द्वारा तैयार किया जाता है जिसे कटवर्क तकनीक कहा जाता है।
बनारसी मॉडल सिल्क- मॉडल फैब्रिक के आराम के साथ बनारसी के जटिल डिजाइनों का संयोजन, बनारसी मॉडल रेशम साड़ियाँ पारंपरिक बनारसी साड़ियों के लिए एक नरम और किफायती विकल्प प्रदान करती हैं, जिन्हें आप रोज पहन सकती हैं।
बनारसी साड़ी की कायापलट – नवाचार के परिणामस्वरूप बनारसी कपड़ों का उपयोग सजावट के लिए तेजी से किया जा रहा है। बनारसी कपड़ों की विविधता में वृद्धि हुई है। बनारसी ब्रोकेड लंबे समय से दुल्हन के कपड़ों से जुड़ा हुआ है, लेकिन अब इसका उपयोग सजावट, पोटली-गिफ्टिंग बैग, पर्दे, असबाब, ब्रोकेड आभूषण, सीट कुशन कवर, टेबल रनर, पर्दे, छत, उपहार लपेटने और शादी के कार्ड के लिए भी किया जा सकता है। चूंकि शिल्प की मूल आत्मा ही उसकी वास्तविक पहचान है, इसलिए यह वही रहेगा लेकिन शैली और प्रस्तुति के तरीके में इसे विकसित करना होगा। रंगों को तटस्थ रंगों में संशोधित किया जाता है। बनारसी रेशमी कपड़े में विभिन्न प्रकार के सामान बनाने की बहुत गुंजाइश है। उनमें से एक स्कार्फ है, लेकिन इसे इस तरह से डिज़ाइन और संशोधित किया जाना चाहिए कि विदेशी बाज़ार में इसे स्वीकार किया जा सके।
बनारसी साड़ी को मिल चुका है जी-आई टैग – बनारसी साड़ी की नकल करके चीन मशीनों के द्वारा सस्ती साड़ियां तैयार करने लगा, जिससे यहां के कारीगरों को नुकसान होने लगा। वही अब इन साड़ियों को जीआई टैग मिल चुका है। एक खास इलाके में बनी हुई साड़ियों को ही बनारसी साड़ी कहा जा सकेगा। बनारस, मिर्जापुर, चंदौली, जौनपुर और आजमगढ़ के जनपदों में बनने वाली साड़ी ही बनारसी कही जाएंगी।

सबसे अलग और सुन्दर दिखना सबकी कोशिश है मगर बजट का ख्याल रखना भी तो जरूरी है। अगर हम कहें कि आपकी बनारसी या बनारसी के लुक वाली कोई भी साड़ी आपको सुपर फैशनिस्ता बना सकती है तो विश्वास करिए कि ऐसा हो सकता है।
जरा सी सूझबूझ से आप अनोखे परिधान बनवा सकते हैं और बगैर बहुत अधिक खर्च के तैयार हो सकती हैं तो जरा ध्यान दीजिए इधर –
लहंगा और चोली – पुरानी बनारसी साड़ी को लहंगा और चोली में बदलें। लहंगे के लिए साड़ी के पल्लू का उपयोग करें और चोली के लिए साड़ी के अन्य हिस्सों का उपयोग करें।
अनारकली सूट – पुरानी बनारसी साड़ी को अनारकली सूट में बदलें। साड़ी के पल्लू का उपयोग सूट के लिए करें और अन्य हिस्सों का उपयोग दुपट्टे के लिए करें।
साड़ी को स्कार्फ और शॉल में बदलें – पुरानी बनारसी साड़ी को स्कार्फ और शॉल में बदलें। साड़ी के पल्लू का उपयोग स्कार्फ के लिए करें और अन्य हिस्सों का उपयोग शॉल के लिए करें।
बैग या क्लच – पुरानी बनारसी साड़ी के फैब्रिक से बैग या क्लच बनाएं। साड़ी के पल्लू का उपयोग बैग के लिए करें और अन्य हिस्सों का उपयोग क्लच के लिए करें।
जैकेट, कुरता या जोधपुरी ट्राउजर – सिर्फ महिलाएं ही नहीं बल्कि पुरुष भी बनारसी रिक्रेएशन को आजमा सकते हैं। सिल्क कुरते पर बनारसी जैकेट या जोधपुरी जैकेट और इसके साथ ही अगर आप कुछ और जोड़ना है तो पुरानी बनारसी या बनारसी दुप्पटे से पगड़ी बनाइए। शानदार दिखेंगे।