Friday, December 26, 2025
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वीर बाल दिवसः दो मासूम साहिबजादों की अद्वितीय शहादत

-रावेल पुष्प
सिख इतिहास ही न्याय और धार्मिक स्वतंत्रता एवं स्वाभिमान की रक्षा के लिए बलिदानों से भरा पड़ा है लेकिन जिस बलिदान की बात यहां हो रही है वो शायद दुनिया के इतिहास में लासानी ही कहा जाएगा। आठ साल और पांच साल के बच्चों ने निडरता के साथ जुल्मी शासक के समक्ष अपने पूर्वजों की शहादत की गरिमा को बरकरार रखते हुए अपने आपको प्रस्तुत किया और शहादत दी।गुरु नानक देव ने बाबर के आक्रमण के समय देश के नागरिकों पर हुए जुल्मों-सितम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए निडरता से कहा था- बाबर तूं जाबर है।
सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव को जहांगीर के शासनकाल में गर्म तवे पर बिठाकर और सिर पर गर्म रेत डालते हुए शहीद कर दिया गया था। इसके बाद सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों पर हो रहे जुल्मों के प्रतिवाद और व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता को बरकरार रखने की खातिर औरंगजेब के आदेश से दिल्ली के चांदनी चौक में शहादत दी। अब हम बात करें सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह की, जिन्होंने ऐसे जुल्मी शासकों से टक्कर लेने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों और जातियों से लेकर पांच प्यारों की शुरुआत की और वीर खालसा पंथ स्थापना की। उसके बाद मुगल सेना और कई पहाड़ी राजाओं के साथ गुरुजी की सेना के कई बार युद्ध हुए और हर बार गुरुजी बेहद कम सैनिक होने के बावजूद विजयी रहे। इसीलिए गुरुजी का ये उद्घोष सार्थक नजर आता है-
सवा लाख से एक लड़ाऊं, तबै गोबिन्द सिंह नाम कहाऊं
यानि एक-एक सिख सवा-सवा लाख से लड़ने की क्षमता रखता है।
पंजाब का आनंदपुर साहिब, जो गुरु गोविंद सिंह जी की मुख्य कर्मस्थली रही है, वहीं उन्होंने सुरक्षा के लिहाज से पांच किलों का निर्माण कराया था। सन् 1700 के समय वहां हुई पहली जंग में मुगल सेना ने जीत न पाने के कारण गुरुजी के साथ संधि कर ली थी लेकिन फिर 1702 में एक बड़ी फौज के साथ हमला कर दिया और यह भी लंबा चला। उसके बाद मुगल सेना ने फिर एक संधि की और कसम खाई कि आप यह किला छोड़ कर यहां से चले जाएं और कोई हमला नहीं किया जाएगा।
आनंदपुर साहिब का किला छोड़ते समय जो वादा मुगलों और पहाड़ी राजाओं के साथ हुआ था कि अब किसी पर कोई हमला नहीं करेगा, लेकिन जब गुरु गोबिंद सिंह अपने परिवार और सिख योद्धाओं को लेकर सिरसा नदी के किनारे तक पहुंचे ही थे, तभी सारी कसमें भुलाकर पीछे से उन लोगों ने इनके काफ़िले पर हमला कर दिया। वहां गुरुजी ने शत्रुओं को ललकारा, जिसे सूफी शायर हकीम अल्ला यार खां जोगी ने बड़े ख़ूबसूरत अंदाज से बयान किया है-
देखा ज्योंही हुजूर ने, दुश्मन सिमट गए,
बढ़ने की जगह खौफ से, नामर्द हट गए,
घोड़े को एड़ी दे के गुरु रण में डट गए,
फ़रमाए बुजदिलों से कि तुम क्यों पलट गए,
अब आओ रण में, जंग के अरमां निकाल लो
तुम, कर चुके हो वार, हमारा संभाल लो।
जब सारा काफ़िला सिरसा नदी के पास था तब उस नदी में भीषण बाढ़ आई हुई थी और आंधी-तूफान भी था। इसी में गुरुजी की माता गुजरी और उनके साथ दो छोटे बेटे जोरावर और फतेह सिंह बिछड़ गए। उसके बाद लाख तलाश करने के बाद भी नहीं मिले।
इस दौरान दो बड़े बेटों और दूसरे साथियों के साथ गुरुजी को तो चमकौर में युद्ध करना पड़ा, जहां दोनों बड़े साहिबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह बड़ी बहादुरी से युद्ध करते हुए शहीद हो गए। इधर परेशान छोटे बच्चे बार-बार अपनी दादी से माता-पिता और भाइयों के बारे में पूछ रहे थे। इस बीच उनका घरेलू रसोईया गंगू जो ताउम्र उनके यहां ही पलता रहा, वो भी साथ था लेकिन उसने दगा किया और करीब ही अपने घर सहेड़ी गांव ले गया और फिर सरहिंद के सूबेदार वजीर खान को इनाम के लालच में पकड़वा दिया। उसके बाद उन बच्चों तथा उनकी दादी को एक खंडहर किस्म के ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया गया। फिर उन दोनों बच्चों को वजीर खान की अदालत में पेश करने के‌ लिए ले जाया गया। उन बच्चों को अदालत ले जाने से पहले उनकी दादी ने उन्हें उनके पूर्वजों और दादा गुरु तेग बहादुर की शहादत के बारे में बताते हुए ये ताकीद की थी कि आततायियों के सामने कभी सिर नहीं झुकाना और अपने गौरवशाली इतिहास को धूमिल मत होने देना।
उन छोटे साहिबजादों को जब कचहरी ले जाया जा रहा था तो वहां का बड़ा दरवाजा बंद कर दिया गया था और बिल्कुल छोटा खिड़कीनुमा दरवाजा खुला रखा गया था ताकि वहां जाते हुए छोटे साहबजादे झुक कर ही अंदर प्रवेश करें। लेकिन साहबजादों ने सबसे पहले अपने पैर अंदर किए और फिर तन कर खड़े हो गए और उन्होंने जोर से जयकारा लगाया-
वाहे गुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तेह।
उनकी बुलंद आवाज सुनकर मानो कचहरी की दरो-दीवार कांप उठे। वजीर खान की आंखों में लहू उतर आया। उसने छोटे साहबजादों को कई तरह के लालच दिये और अपना धर्म त्याग कर इस्लाम स्वीकार करने को कहा। छोटे साहबजादों ने साफ़ मना कर दिया। वजीर खान ने तब काजी से फतवा सुनाने के लिए कहा। काजी ने फतवा दिया कि इनकी उम्र बहुत छोटी है और कुरान मजीद के अनुसार इन बच्चों को नहीं मारा जा सकता।
फिर वजीर खान ने उन दोनों को दरबार में उपस्थित मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान को सुपुर्द करते हुए कहा कि तुम्हारे लिए ये बड़ा अच्छा मौका है, अपने भाई और भतीजे की मौत का बदला ले सकते हो। शेर मोहम्मद खान ने साफ़ कहा कि मेरी लड़ाई गुरु गोविंद सिंह जी के साथ अवश्य है लेकिन मैं इन मासूम बच्चों पर जुल्म नहीं ढा सकता। ये कोई बहादुरी की बात नहीं। मलेरकोटला के नवाब की यह बात सुनने के बाद वहां उपस्थित वजीर खान भयंकर गुस्से में आ गया और उसने क्रोधित होकर काजी को कहा- मैंने तुम्हें फतवा देने को कहा है ये दोषी हैं। तब काजी ने नया फतवा दिया कि इन बच्चों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाए! उसी आदेश के अनुसार उस ठंडे बुर्ज से जब सैनिक लेकर जाने लगे थे, उससे पहले दादी माता गुजरी का दर्द शायर ने कुछ यूं बयान किया है –
“जाने से पहले आओ, गले से लगा तो लूं
केशों को कंघी कर दूं, जरा मुंह धुला तो लूं
प्यारे, सिरों पे नन्ही-सी कलगी सजा तो लूं,
मरने से पहले तुमको दूल्हा बना तो लूं।”
क्रूर जल्लादों ने उन दो मासूम असहाय निर्दोष बच्चों को दीवार में जिंदा चिनना शुरू कर दिया। जब दीवार छोटे साहबजादे को पूरा ढंकने लगी तो बड़े साहेबजादे की आंखों में आंसू आ गए। ये देखकर छोटे ने कहा- वीर जी, आपकी आंखों में आंसू? क्या आप डर गये हो? तो उसने जवाब दिया कि बड़ा मैं हूं और मुझसे पहले शहीद तुम हो रहे हो। यह सुनकर छोटे साहबजादे ने अपना एक हाथ ऊंचा कर दिया और कहा कि लो वीर जी, पहले शहादत का हक तुम्हारा ही बनता है। और फिर उन दोनों साहिबजादों की शहादत हो गई। यह समाचार सुनकर बुजुर्ग दादी ने भी अपना शरीर त्याग दिया।
अल्ला यार खां योगी इस सरहिंद की दर्दनाक घटना को सिख राज्य की नींव के रूप में भी देखता है और छोटे साहिबजादों की ओर से कुछ यूं बयान करता है-                                                                                               “हम जान दे के औरों की जानें बचा चले,
सिक्खी की नींव हम हैं सिरों पर उठा चले,
गुरुआई का है किस्सा जहां में बना चले,
सिंघो की सल्तनत का है पौधा, लगा चले
गुरु गोबिंद सिंह के।”
इतिहास में हमेशा मोतीराम मेहरा तथा दीवान टोडरमल जी को याद किया जाएगा। मोतीराम मेहरा जी द्वारा जब माता गुजरी वा छोटे साहिबजादे ठंडे बुर्ज में कैद होते है तो उनको गर्म दूध पिलाया जाता है और ये दूध मुफ्त में नहीं पिलाया पहरे पर खड़े सैनिकों को पैसे देकर पिलाया अगले दिन जब पैसे खत्म हो गए तो अपना घर बेचकर दूध की सेवा की जाती है । बाद में जब वजीर खान को ये पता लगा तो उसके द्वारा मोतीराम के पूरे परिवार को कोल्हू में पीर दिया गया। 27 दिसंबर 1704 को दोनों साहिबजादों को जिंदा निहो में चुकवा दिया जाता है पूरी दुनिया में सबसे छोटे शहीद बाबा जोरावर सिंह जी तथा बाबा फतेह सिंह जी है दीवान टोडरमल जी को जब ये पता लगा कि गुरु जी की माता और छोटे साहिबजादों को वजीर खान द्वारा शहीद कर दिया गया है तथा उनके लाशे बाहर फेक दी है तो वह वजीर खान से उनके अंतिम संस्कार के लिए आग्रह करता है वजीर खान द्वारा कहा जाता है कि जितनी जगह आपको अंतिम संस्कार के लिए चाहिए उतनी ही सोने की मोहरे मुझे चाहिए दीवान टोडरमल जी अपनी सारी संपत्ति बेच के सोने की मोहरे ले कर आते है तथा जमीन पर सोने की मोहरे बिछाते है।
इतिहास कहता है कि वजीर खान द्वारा बोला जाता है कि आपको जमीन चाहिए तो सारी मोहरे खड़ी करो फिर दीवान टोडरमल जी द्वारा सारी सोने की मोहरे खड़ी करके जमीन खरीदी जाती है और ये दुनिया के इतिहास में आज तक की सबसे महंगी जमीन है-
धन है गुरु के शिष्य मोतीराम मेहरा जी तथा
दीवान टोडरमल जी
पहला मरण कबूल है, जीवन की शढ आस !!
हो सबना कि रेन का, तो आओ हमारे पास !!….
उन दोनों मासूम लेकिन दृढ़ निश्चयी, अपने निश्चय पर अटल रहने वाले महज नौ साल के साहिबजादे जोरावर सिंह और छह साल के फ़तेह सिंह की 26 दिसंबर 1705 को दी गई लासानी शहादत दुनिया के इतिहास में अद्वितीय है।
( मूल लेख -हिंदुस्थान समाचार से साभार। इनपुट -मोतीराम मेहरा तथा दीवान टोडरमल जी की गाथा फेसबुक पर एक पोस्ट से)

 

अन्याय के समक्ष खड़ी मजबूत दीवार गुरू गोविंद सिंह

इतिहास में कुछ संघर्ष ऐसे होते हैं जो केवल युद्ध नहीं होते, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए चेतावनी और प्रेरणा बन जाते हैं। गुरु गोविंद सिंह जी और मुगल बादशाह औरंगज़ेब के बीच हुआ टकराव भी ऐसा ही था। यह जंग सिर्फ़ तलवारों, तीरों और सेनाओं की नहीं थी, बल्कि विचारों की थी। एक तरफ़ धार्मिक स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा और न्याय का पक्ष था, तो दूसरी ओर सत्ता का अहंकार, ज़बरदस्ती का धर्मांतरण और भय के ज़रिये शासन करने की नीति। गुरु गोविंद सिंह जी की कहानी सिर्फ़ अतीत को देखने का मौका नहीं देती, बल्कि यह भी बताती है कि अन्याय के सामने झुकने से इनकार कैसे इतिहास रचता है।
टकराव की पृष्ठभूमि: ज़ुल्म की नींव और विरोध की चिंगारी
सिखों और मुग़लों के बीच टकराव की जड़ें औरंगज़ेब के शासन से पहले ही पड़ चुकी थीं। पाँचवें गुरु, गुरु अर्जन देव जी की शहादत ने यह स्पष्ट कर दिया था कि सत्ता सिख परंपरा की स्वतंत्र चेतना से असहज है। लेकिन औरंगज़ेब के दौर में यह असहजता खुली दुश्मनी में बदल गई। उसने अपने शासन को धार्मिक कठोरता के ज़रिये मज़बूत करने की कोशिश की। मंदिरों का विध्वंस, जज़िया कर की पुनः शुरुआत और गैर-मुस्लिमों पर बढ़ता दबाव उसकी नीति का हिस्सा बन गया। यह वही दौर था जब आस्था को व्यक्तिगत अधिकार नहीं, बल्कि सत्ता के नियंत्रण का साधन बनाया जा रहा था। ऐसे माहौल में सिख परंपरा का न्याय, समानता और धार्मिक स्वतंत्रता पर आधारित दर्शन सीधे टकराव में आ गया।
गुरु तेग़ बहादुर की शहादत: जिसने इतिहास की दिशा मोड़ दी
गुरु गोविंद सिंह जी के पिता, नौवें गुरु तेग़ बहादुर जी, केवल सिखों के नहीं, बल्कि हर उस इंसान के अधिकारों के लिए खड़े हुए जिनकी आस्था खतरे में थी। कश्मीरी पंडितों की व्यथा लेकर आए प्रतिनिधि जब आनंदपुर साहिब पहुँचे, तो गुरु तेग़ बहादुर जी ने यह संघर्ष केवल उनका नहीं, बल्कि पूरे मानव धर्म का मानकर स्वीकार किया। दिल्ली जाकर मुगल दरबार में विरोध दर्ज कराना उनके लिए सत्ता को सीधी चुनौती देना था। इसका परिणाम भयानक था। 1675 में चांदनी चौक में उनकी शहादत ने यह साफ़ कर दिया कि औरंगज़ेब संवाद नहीं, दमन चाहता है। यही वह क्षण था जिसने बालक गुरु गोविंद सिंह के भीतर यह दृढ़ संकल्प पैदा किया कि ज़ुल्म के विरुद्ध संघर्ष अब केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि सशस्त्र भी होगा।
ख़ालसा पंथ की स्थापना: भय के सामने निर्भयता का जन्म
1699 की बैसाखी केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं थी, बल्कि इतिहास का निर्णायक मोड़ थी। आनंदपुर साहिब में गुरु गोविंद सिंह जी ने ख़ालसा पंथ की स्थापना कर दी। यह एक ऐसा समुदाय था जो अन्याय के सामने सिर झुकाने के लिए नहीं, बल्कि उसका सामना करने के लिए खड़ा किया गया था। पाँच ककार और समान पहचान ने यह संदेश दिया कि अब सिख किसी जाति, वर्ग या सामाजिक हैसियत से नहीं, बल्कि अपने कर्म, साहस और चरित्र से पहचाने जाएंगे। ख़ालसा का जन्म औरंगज़ेब के लिए सीधी चुनौती था। अब उसके सामने केवल साधु-संत नहीं, बल्कि संगठित, अनुशासित और आत्मसम्मान से भरा समुदाय था, जो सत्ता के अन्याय को स्वीकार करने को तैयार नहीं था।
संघर्ष का विस्तार: एक जंग नहीं, कई मोर्चे
गुरु गोविंद सिंह जी और औरंगज़ेब का टकराव किसी एक युद्ध तक सीमित नहीं रहा। यह संघर्ष वर्षों तक चला और अलग-अलग रूपों में सामने आया। पहाड़ी राजा गुरु गोविंद सिंह की बढ़ती शक्ति से भयभीत थे। उनकी राजनीतिक ईर्ष्या और मुगल सत्ता की नीतियाँ एक-दूसरे से मिल गईं। आनंदपुर साहिब को बार-बार घेरा गया। 1704-1705 की घेराबंदी विशेष रूप से कुख्यात रही, जब महीनों तक रसद काट दी गई और झूठी क़समों के सहारे सिखों को बाहर निकलने पर मजबूर किया गया। यह केवल सैन्य चाल नहीं थी, बल्कि विश्वासघात का प्रतीक बन गई।
चमकौर और मुक्तसर: वीरता की अमर गाथाएँ
चमकौर की गढ़ी में हुआ युद्ध इतिहास की सबसे मार्मिक कहानियों में से एक है। संख्या में अत्यंत कम होते हुए भी गुरु गोविंद सिंह जी और उनके सिखों ने हज़ारों की सेना का सामना किया। यहीं उनके दो साहिबज़ादे शहीद हुए। यह युद्ध केवल बलिदान नहीं, बल्कि यह दिखाने का प्रमाण था कि साहस संख्या का मोहताज नहीं होता। इसके बाद मुक्तसर की लड़ाई ने यह सिखाया कि पश्चाताप और कर्तव्यबोध से भी मोक्ष मिलता है। चालीस सिखों की शहादत और उन्हें “मुक्त” घोषित किया जाना इस संघर्ष को आध्यात्मिक ऊँचाई पर ले जाता है।
मुग़ल साम्राज्य को लगी असली चोट
मुग़लों को हुआ नुकसान केवल सैनिक हताहतों तक सीमित नहीं था। गुरु गोविंद सिंह जी के नेतृत्व ने उनकी नैतिक और वैचारिक नींव को हिला दिया। औरंगज़ेब स्वयं को धार्मिक न्याय का प्रतीक मानता था, लेकिन बार-बार किए गए विश्वासघातों और गुरु तेग़ बहादुर की शहादत ने उसकी छवि को धूमिल कर दिया। एक छोटे से समुदाय से निर्णायक विजय न पा सकना मुग़ल सत्ता की कमजोरी को उजागर करता रहा। ख़ालसा की यह घोषणा कि अन्याय के सामने लड़ना ईश्वरीय कर्तव्य है, साम्राज्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गई।
ज़फ़रनामा: शब्दों से दिया गया सबसे तीखा उत्तर
औरंगज़ेब के अंतिम वर्षों में गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा लिखा गया ज़फ़रनामा केवल एक पत्र नहीं था, बल्कि नैतिक साहस का दस्तावेज़ था। फ़ारसी में लिखे इस पत्र में बादशाह को उसके झूठ, क़समतोड़ने और अन्याय का आईना दिखाया गया। तलवारों से जो बात अधूरी रह गई थी, वह शब्दों ने पूरी कर दी। यही वैचारिक चोट आगे चलकर बंदा सिंह बहादुर के नेतृत्व में मुग़ल सत्ता के वास्तविक पतन का कारण बनी।

खुदरा महंगाई की गणना में ई-कॉमर्स, ऑनलाइन स्रोत होंगे शामिल

नयी दिल्‍ली। केंद्र सरकार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) की विश्वसनीयता, सटीकता और गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार लाने के उद्देश्य से खुदरा महंगाई की गणना में ऑनलाइन स्रोतों के साथ-साथ ई-कॉमर्स मंच को भी शामिल करेगी। सीपीआई की नई श्रृंखला के आंकड़े 12 फरवरी को जारी किए जाने की संभावना है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) ने मंगलवार को नई दिल्‍ली के भारत मंडपम में सीपीआई, जीडीपी और आईआईपी के आधार में वर्ष संशोधन पर दूसरी परामर्श कार्यशाला का आयोजन किया। इसमें मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. वी. अनंत नागेश्वरन, नीति आयोग के उपाध्यक्ष सुमन के. बेरी और मंत्रालय के सचिव डॉ. सौरभ गर्ग, सचिव, एन. के. संतोषी, महानिदेशक (केंद्रीय सांख्यिकी), उद्योग, शिक्षा जगत, अनुसंधान संस्थानों और नीति निर्माण निकायों के अन्य गणमान्य व्यक्ति शामिल हुए। मंत्रालय ने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में नए आंकड़ा स्रोतों को शामिल करने के संबंध में कहा कि वर्तमान श्रृंखला में भौतिक दुकानों से एकत्र किए जा रहे आंकड़ों के अतिरिक्त 25 लाख से अधिक आबादी वाले 12 चयनित शहरों में ई-कॉमर्स मंच से भी कीमत आंकड़े प्राप्त की जाएंगी। रेल किराया के लिए रेलवे, ईंधन की कीमतों के लिए पेट्रोलियम मंत्रालय और डाक शुल्क के लिए डाक विभाग के साथ समन्वय में प्रशासनिक आंकड़े प्राप्त करने के भी प्रयास किए जाएंगे। एमओएसपीआई ने बताया कि हवाई किराये, दूरसंचार सेवाओं और ओटीटी (ओवर द टॉप) मंच के लिए, वेब-आधारित तरीकों का उपयोग करके ऑनलाइन स्रोतों से मूल्य आंकड़े संकलित करने का प्रस्ताव है। मंत्रालय के अनुसार इन वैकल्पिक और डिजिटल डेटा स्रोतों को अपनाने से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की प्रतिनिधित्व क्षमता, विश्वसनीयता, सटीकता और समग्र गुणवत्ता में काफी सुधार होने की उम्मीद है। जीडीपी आधार वर्ष संशोधन से नए आंकड़ों के स्रोतों को शामिल करने और संकलन प्रक्रिया कार्यप्रणालीगत सुधारों, मानकों और वर्गीकरणों के अनुरूप बनाने में भी सुविधा होगी। सीपीआई, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना के लिए आधार वर्षों को संशोधित करने की प्रक्रिया में है। केंद्र सरकार वित्त वर्ष 2022-23 को आधार वर्ष मानकर राष्ट्रीय लेखा संबंधी आंकड़े 27 फरवरी को जारी करेगी, जबकि 2022-23 को आधार वर्ष मानते हुए आईआईपी की नई श्रृंखला के आंकड़े 28 मई को जारी होंगे।

नहीं रहे कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल

रायपुर । हिन्दी के शीर्ष कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल का निधन हो गया है। वे पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ थे और इसी अस्पताल में भर्ती थे। वह 88 साल के थे और पिछले कुछ दिनों से गंभीर रूप से बीमार चल रहे थे। उन्हें सांस की समस्या के चलते एम्स, रायपुर के क्रिटिकल केयर यूनिट (सीसीयू) में भर्ती कराया गया था। विनोद कुमार शुक्ल के निधन (23 दिसंबर 2025) के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने उनके सम्मान में रायपुर में होने वाले अपने सभी आधिकारिक कार्यक्रमों को रद्द (निरस्त) कर दिया है। बताया गया कि यह फैसला उनकी साहित्यिक विरासत और प्रदेश के लिए उनके योगदान को श्रद्धांजलि देने का एक महत्वपूर्ण कदम है। पिछले ही महीने उन्हें हिन्दी साहित्य के सर्वोच्च सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में 1 जनवरी 1937 को जन्मे विनोद कुमार शुक्ल हिन्दी साहित्य में ऐसे लेखक के रूप में प्रतिष्ठित थे जिनकी साहित्यिक आवाज़ दूर-दूर तक सुनाई देती थी। निराशा में आशा का संचार करने वाले कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल साहित्य के इस युग में काव्य धारा को नई दिशा देने वाले हैं। उनकी कविताएं सीधे परेशानियों की जड़ों पर कुठाराघात करती हैं। उन्हें कुरेदती हैं। उनकी कल्पना शक्ति का सीमांकन समीक्षकों के लिए हमेशा एक चुनौती रहा है। उनका पहला कविता-संग्रह ‘लगभग जय हिन्द’ 1971 में प्रकाशित हुआ, जिसके साथ ही उनकी अपने तरह की भाषिक बनावट, चुप्पी और भीतर तक उतरती संवेदनाएँ हिन्दी कविता के परिदृश्य में दर्ज होने लगीं। इसके बाद ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह’, ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’, ‘अतिरिक्त नहीं’, ‘कविता से लंबी कविता’, ‘आकाश धरती को खटखटाता है’, ‘पचास कविताएँ’, ‘कभी के बाद अभी’, ‘कवि ने कहा’, ‘चुनी हुई कविताएँ’ और ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ जैसे संग्रहों ने उन्हें समकालीन हिन्दी कविता के एक अलग तरह के स्वरों में शामिल कर दिया, जो अपने आप में नयापन और मौलिकता लिए हुए था। कथा-साहित्य में उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ ने 1979 में हिन्दी कहानी और उपन्यास की धारा को एक अलग मोड़ दिया। इस उपन्यास मणि कौल ने फ़िल्म भी बनाई है। आगे चलकर ‘खिलेगा तो देखेंगे’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’, ‘यासि रासा त’ और ‘एक चुप्पी जगह’ के माध्यम से उन्होंने लोकआख्यान, स्वप्न, स्मृति, मध्यवर्गीय जीवन और मनुष्य की जटिल आकांक्षाओं को एक विशिष्ट कथा-शिल्प में रूपांतरित किया। उनके कहानी संग्रह ‘पेड़ पर कमरा’, ‘महाविद्यालय’, ‘एक कहानी’ और ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ’ जैसे संग्रहों में दर्ज हैं, हिंदी साहित्य में अपनी विशिष्टता के लिए जाने जाते हैं। उनकी अनेक रचनाएँ भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित हुई हैं। अपनी लंबी रचनात्मक यात्रा में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, रजा पुरस्कार, शिखर सम्मान, राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, हिन्दी गौरव सम्मान, मातृभूमि पुरस्कार, साहित्य अकादमी का महत्तर सदस्य सम्मान और 2023 का पैन-नाबोकोव पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

भवानीपुर एडुकेशन सोसाइटी कॉलेज ने कैंपस फ्रांस सेमिनार का आयोजन

कोलकाता । आप एक भाषा तब तक नहीं समझ सकते जब तक आप कम से कम दो भाषाएँ न समझ लें। यह उक्ति भाषा को सीखने की है जानने की है शिक्षित होने के लिए है। किसी देश से संपर्क करना है तो भाषाई आदान-प्रदान ही संस्कृति को बढ़ावा देना ही होगा। इन्हें मद्देनजर रखते हुए भवानीपुर एडुकेशन सोसाइटी कॉलेज ने कैंपस फ्रांस के द्वारा फ्रांस की भाषा फ्रेंच के विषय में विशेष जानकारी दी ।
फ्रांस में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक छात्रों का मार्गदर्शन करने के लिए, भवानीपुर एजुकेशन सोसाइटी कॉलेज ने कैंपस फ्रांस के सहयोग से 17 दिसंबर 2025 को सोसाइटी हॉल में “एन रूट टू फ्रांस” शीर्षक से एक सेमिनार का आयोजन किया। कॉलेज के वाणिज्य विभाग (मॉर्निंग) के संकाय सदस्य प्रो अतहर जमाल इस कार्यक्रम की पहल थी और माननीय रेक्टर और डीन प्रो दिलीप शाह की अनुमति और समर्थन से फ्रेंच भाषा के लिए विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया गया।
सेमिनार का उद्देश्य छात्रों को फ्रांस में अध्ययन के लिए एक स्पष्ट रोडमैप प्रदान करना और भारतीय छात्रों और फ्रांसीसी शैक्षणिक अवसरों के बीच अंतर को पाटना था। सत्र का नेतृत्व फ्रांसीसी भाषा में सहयोग के लिए सुश्री अताशे जूलिया लेग्रोस मार्टिन और सुश्री अनिंदिता मजूमदार ने किया जो
कैंपस फ्रांस मैनेजर, कोलकाता, भारत में फ्रांस के दूतावास के तहत फ्रेंच इंस्टीट्यूट इन इंडिया (आईएफआई) का प्रतिनिधित्व करती हैं।
80 से अधिक छात्रों की भागीदारी के साथ, सेमिनार में अकादमिक पहलुओं , फ्रेंच भाषा सीखने, छात्रवृत्ति, वित्त पोषण के अवसरों को शामिल किया गया और प्रवेश, भाषा बाधाओं और जीवनयापन की लागत से संबंधित आम गलतफहमियों को संबोधित किया गया। फ्रेंच भाषा की वैश्विक प्रासंगिकता और फ्रांस की मजबूत अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर भी प्रकाश डाला गया।
डॉ वसुंधरा मिश्र ने जानकारी देते हुए बताया कि कार्यक्रम का समापन एक इंटरैक्टिव प्रश्नोत्तर सत्र के साथ हुआ, जिसके बाद सम्मानित अतिथियों के लिए एक सम्मान समारोह आयोजित किया गया। कुल मिलाकर, सेमिनार जानकारीपूर्ण और प्रेरक साबित हुआ, जिसने छात्रों को फ्रांस में उच्च शिक्षा की दिशा में अपनी यात्रा शुरू करने के लिए मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की।रिपोर्ट नीलेशा नाथ ने दी।

बंगाल में पिछड़े वर्गों तक सीमित है संस्थागत कर्ज

कोलकाता । बैंकरों की एक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल में सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी ) के लोग शामिल हैं, को संस्थागत लोन तक सीमित पहुंच मिल रही है। मौजूदा वित्तीय वर्ष 2025-26 के पहले छह महीनों में, पश्चिम बंगाल में कुल 48,08,752.02 करोड़ रुपये का संस्थागत लोन दिया गया, जिसमें से सिर्फ 29,654.03 करोड़ रुपये सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को दिए गए। आंकड़ों के हिसाब से, इसका मतलब है कि समीक्षाधीन अवधि के दौरान राज्य में दिए गए कुल लोन का सिर्फ छह प्रतिशत ही सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों को मिला। इसी अवधि में ऐसे लोन पाने वालों की संख्या के मामले में, सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व कुल लोन पाने वालों की संख्या के मुकाबले न के बराबर था। समीक्षाधीन अवधि के दौरान, सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के संस्थागत लोन पाने वालों की कुल संख्या 15,12,216 थी, जबकि कुल लोन पाने वालों की संख्या 64,07,678 थी। इसका मतलब है कि सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को मिले संस्थागत लोन की संख्या कुल लोन पाने वालों की संख्या का सिर्फ 23 प्रतिशत थी। यह आंकड़ा पश्चिम बंगाल की स्टेट लेवल बैंकर्स कमेटी (SLBC) की हालिया बैठक में दिया गया, इस कमेटी में राज्य में काम करने वाले बैंकों के साथ-साथ राज्य सरकार के प्रतिनिधि भी शामिल हैं। बैठक का विवरण IANS के पास उपलब्ध है। हालांकि, अच्छी बात यह थी कि 30 सितंबर, 2025 तक पश्चिम बंगाल में क्रेडिट टू डिपॉजिट (CD) अनुपात पिछले वित्तीय वर्ष की इसी अवधि के मुकाबले काफी बेहतर हुआ। 30 सितंबर, 2025 तक सीडी अनुपात 70.59 प्रतिशत था, जबकि 30 सितंबर, 2024 तक यह 69.88 प्रतिशत था। हालांकि, इसी अवधि में बीरभूम, कोलकाता, मालदा और पुरुलिया जैसे जिलों में सीडी अनुपात में नकारात्मक रुझान देखा गया। पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री और राज्य सरकार के मौजूदा मुख्य आर्थिक सलाहकार, अमित मित्रा ने इन जिलों के लीड डिस्ट्रिक्ट मैनेजरों से तुरंत सुधारात्मक उपाय शुरू करने का आग्रह किया।

 

एसआईआर की मसौदा सूची में 1.4 करोड़ मामले संदिग्ध, बीएलओ को देना होगा जवाब

कोलकाता । भारत निर्वाचन आयोग पश्चिम बंगाल में चल रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआऱ) में लगे बूथ-लेवल अधिकारियों से 16 दिसंबर को जारी हुई ड्राफ्ट वोटर लिस्ट में संदिग्ध मामलों पर लिखित स्पष्टीकरण लेगा। पश्चिम बंगाल के मुख्य निर्वाचन अधिकारी (सीईओ) के ऑफिस के अंदरूनी सूत्रों ने बताया कि निर्वाचन आयोग ने ऐसे लगभग 1.4 करोड़ संदिग्ध मामलों की पहचान की है, जिनमें बीएलओ से लिखित स्पष्टीकरण मांगा जाएगा। इस मामले पर लिखित बयान में, संबंधित बीएलओ को पहले ड्राफ्ट वोटर लिस्ट में और बाद में अगले साल 14 फरवरी को पब्लिश होने वाली फाइनल वोटर लिस्ट में उनके नाम शामिल करने की सिफारिश के पीछे का कारण बताना होगा। बीएलओ द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण के आधार पर, ECI तय करेगा कि इनमें से किन संदिग्ध मामलों को दावों और आपत्तियों पर सुनवाई के लिए भेजा जाएगा। दावों और आपत्तियों पर सुनवाई सत्र 27 दिसंबर तक शुरू होने की उम्मीद है। इन संदिग्ध मामलों में ऐसे वोटर शामिल हैं जो 2002 की वोटर लिस्ट में लिस्टेड नहीं थे, जबकि उनकी मौजूदा उम्र 45 या उससे ज़्यादा है, और इसलिए उन्होंने प्रोजेनी मैपिंग के ज़रिए ड्राफ्ट वोटर लिस्ट में शामिल होने के लिए अप्लाई किया था। सीईओ ऑफिस के एक अंदरूनी सूत्र ने कहा, “पिछली बार पश्चिम बंगाल में एसआईआर 2002 में हुआ था। एक वोटर, जो अभी 45 साल या उससे ज़्यादा उम्र का है, उसका नाम 2002 की लिस्ट में होना चाहिए था, यह देखते हुए कि उस समय वे 18 साल या उससे ज़्यादा उम्र के थे। सवाल यह उठता है कि वे तब वोटर के तौर पर एनरोल क्यों नहीं हुए और इसलिए मौजूदा एसआईआर के दौरान उन्हें प्रोजेनी मैपिंग पर निर्भर रहना पड़ा।”ऐसे संदिग्ध मामलों की दूसरी कैटेगरी उन वोटरों के बारे में है जो 15 साल की उम्र में या उससे भी कम उम्र में पिता बन गए थे। एक ऐसा मामला सामने आया है जहां एक खास वोटर सिर्फ पांच साल की उम्र में पिता बन गया था। ऐसे संदिग्ध मामलों की तीसरी कैटेगरी उन लोगों की है जो सिर्फ 40 साल की उम्र में या उससे भी कम उम्र में दादा बन गए थे। ऐसे संदिग्ध मामलों की चौथी और आखिरी कैटेगरी उन वोटरों की है जिनके मामलों में पिता और माता के नाम एक जैसे हैं। वोटरों की फाइनल लिस्ट 14 फरवरी, 2026 को जारी की जाएगी। इसके तुरंत बाद, निर्वाचन अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान करेगा।

26 दिसम्बर से बढेगा रेलवे का यात्री किराया

नयी दिल्ली । रेलवे ने 26 दिसंबर से अपने यात्री किराए में मामूली बढ़ोतरी की है। नई बढ़ोतरी के तहत 500 किलोमीटर तक नॉन एसी यात्रा के लिए महज 10 रूपये अतिरिक्त देने होंगे। रेलवे का कहना है कि उसकी ऑपरेशन लागत में पिछले 1 साल में ढाई लाख करोड़ से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। इस कमी को पूरा करने के लिए रेलवे एक तरफ माल ढुलाई बढ़ा रहा है और दूसरी ओर यात्री किरायों को बेहतर करने में लगा है। रेल मंत्रालय ने रविवार को इस संबंध में जानकारी साझा की। रेलवे का कहना है कि बढ़ाया गया 26 दिसंबर से प्रभावी होगा। इससे रेलवे को चालू वर्ष में लगभग 600 करोड़ रुपये की अतिरिक्त आय होने की संभावना है। साधारण श्रेणी में 215 किलोमीटर से अधिक दूरी पर यात्रा करने पर 1 पैसा प्रति किलोमीटर की वृद्धि होगी। मेल/एक्सप्रेस नॉन-एसी श्रेणी में 2 पैसे प्रति किलोमीटर की वृद्धि की गई है। एसी श्रेणी में भी 2 पैसे प्रति किलोमीटर की वृद्धि की गई है। नॉन-एसी कोच में 500 किलोमीटर की यात्रा पर यात्रियों को केवल 10 रुपये अतिरिक्त देने होंगे। उपनगरीय सेवाओं और मासिक सीजन टिकट के किराए में कोई वृद्धि नहीं की गई है। साधारण श्रेणी में 215 किलोमीटर तक की यात्रा पर कोई किराया वृद्धि नहीं होगी। मंत्रालय ने कहा है कि पिछले एक दशक में रेलवे ने अपने नेटवर्क और परिचालन का उल्लेखनीय विस्तार किया है। बढ़े हुए परिचालन स्तर और सुरक्षा में सुधार के लिए रेलवे जनशक्ति (मैनपावर) बढ़ा रहा है। इसके परिणामस्वरूप जनशक्ति पर होने वाला खर्च बढ़कर 1,15,000 करोड़ रुपये हो गया है। पेंशन व्यय बढ़कर 60,000 करोड़ रुपये हो गया है। वर्ष 2024-25 में कुल परिचालन लागत बढ़कर 2,63,000 करोड़ रुपये हो गई है। मंत्रालय के मुताबिक जनशक्ति की बढ़ी हुई लागत को पूरा करने के लिए रेलवे अधिक कार्गो लोडिंग पर ध्यान केंद्रित कर रहा है तथा यात्री किराए में सीमित युक्तिकरण किया गया है। सुरक्षा और परिचालन में सुधार के इन प्रयासों के चलते रेलवे सुरक्षा में उल्लेखनीय सुधार करने में सफल रहा है। भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा माल परिवहन करने वाला रेलवे नेटवर्क बन गया है। हाल ही में त्योहारी सीजन के दौरान 12,000 से अधिक ट्रेनों का सफल संचालन भी बेहतर परिचालन दक्षता का उदाहरण है। रेलवे अपने सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के लिए आगे भी दक्षता बढ़ाने और लागत को नियंत्रित करने के प्रयास जारी रखेगा।

बंगाल के जंगलमहल में मिला सोने का भंडार

-बहुरेंगे आदिवासी बहुल इलाकों के दिन

कोलकाता। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (जीएसआई) के सर्वे में पश्चिम बंगाल के कई जिलों में संभावित सोने और ज़रूरी मिनरल भंडार की पहचान की गई है। राज्यसभा सांसद शमिक भट्टाचार्य को एक लिखित जवाब में केंद्रीय खनन मंत्रालय ने राज्य में नौ जगहों पर सोने के भंडार की संभावना की पुष्टि की है। पिछले पांच सालों में राज्य के दक्षिणी और पश्चिमी इलाकों में मैपिंग के तहत कीमती मेटल और रेयर अर्थ एलिमेंट पाये जाने के संकेत मिले हैं। पहचानी गई ज़्यादातर सोने की जगहें अभी शुरुआती स्टेज में हैं।
खोज ज़्यादातर पुरुलिया-बांकुड़ा क्षेत्र पर रही है, जो जंगलमहल इलाके का हिस्सा है। यहाँ शुरुआती जांच में सोने वाली चट्टानें मिली हैं। अधिकारियों का कहना है कि ये नतीजे झारखंड के साथ इलाके की जियोलॉजिकल नज़दीकी से मेल खाते हैं, जो अपने मिनरल से भरपूर पठार के लिए जाना जाता है।
सोने के अलावा सर्वे ने राज्य में ज़रूरी मिनरल रिज़र्व की ओर इशारा किया है। पुरुलिया में 17 रेयर अर्थ मिनरल की पहचान हुई है। अकेले ज़िले के कालापत्थर-रघुडीह ब्लॉक में लगभग 0.67 मिलियन टन रेयर अर्थ एलिमेंट्स का रिज़र्व है जो ईवी बैटरी, डिफ़ेंस मैन्युफ़ैक्चरिंग और इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए ज़रूरी रिसोर्स हैं।
ज्ञात रहे कि 2019 और 2024 के बीच केंद्र ने पश्चिम बंगाल में कम से कम 28 मिनरल तलाश प्रोजेक्ट शुरू किए, जिनके तहत झाड़ग्राम, पश्चिम मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरुलिया के अलावा दार्जिलिंग और कलिम्पोंग के कुछ हिस्सों में मैंगनीज़, टंगस्टन, कॉपर और ग्रेफ़ाइट जैसी चीज़ों को खोजना था। पुरुलिया में चार एपेटाइट ब्लॉक — पंकरीडीह, पुरदाहा, चिरुगोड़ा और मेदनीटांड़ — की पहचान की गई है और उन्हें संभावित नीलामी के लिए तैयार किया जा रहा है।

सूत्र बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में लगभग 12.83 मिलियन टन प्राइमरी गोल्ड ओर है, जो ज़्यादातर पुरुलिया में है। इसमें, अनुमानित गोल्ड मेटल कंटेंट लगभग 0.65 टन (650 kg) है। कर्नाटक की तुलना में इसे लो-ग्रेड माना जाता है, लेकिन अधिकारियों का कहना है कि सोने की मौजूदा कीमतों को देखते हुए यह कमर्शियली महत्वपूर्ण बना हुआ है।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी : ऐसो को उदार हिन्दी जग माहीं..

-गौरव अवस्थी

बोलियों में बंटी हिंदी भाषा को परिमार्जित करके भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा प्रारंभ किए आधुनिक खड़ी बोली हिंदी आंदोलन को सफलता के शिखर पर स्थापित करने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। अपनी अथक मेहनत के बल पर उन्होंने हिंदी खड़ी बोली में कई संपादक लेखक कवि तैयार किए। आचार्य द्विवेदी को भाषा और व्याकरण में किसी भी तरह की भाषाई अशुद्धि और व्याकरण की अराजकता अस्वीकार थी। हिंदी की इस प्रतिष्ठा के लिए ही अपने समय के प्रतिष्ठित साहित्यकारों से आचार्य द्विवेदी का वाद-विवाद और प्रतिवाद होता रहा। कुछ विवाद तो आधुनिक हिंदी साहित्य में आज भी अमिट हैं। बालमुकुंद गुप्त से अस्थिरता और अनस्थिरता शब्द पर वर्षों चला विवाद हो या नागरी प्रचारिणी सभा की खोजपूर्ण रिपोर्ट को लेकर बाबू श्यामसुंदर दास से हुआ मतभेद या सरस्वती में लेख न छपने पर बीएन शर्मा से हुई लट्ठमलट्ठ। आमतौर पर उनकी छवि कलहप्रिय, क्रोधी, घमंडी और तुनक मिजाज के तौर पर स्थापित करने की समय- समय पर कोशिशें की गईं लेकिन इन विवादों के अंत सौहार्दपूर्ण एवं सौजन्यता के साथ ही हुए। बालमुकुंद गुप्त से चले विवाद का अंत आचार्य के चरणों में सिर रखने से हुआ। आचार्य द्विवेदी ने भी उन्हें गले लगा कर सहृदयता दिखाई।

नागरी प्रचारिणी सभा के काम की आलोचना खोजपूर्ण रिपोर्ट छपने पर बाबू श्यामसुंदर दास से पैदा हुए मतभेद के बाद सभा ने सरस्वती से अपने संबंध समाप्त कर लिए। आचार्य द्विवेदी ने ‘अनुमोदन का अंत’ शीर्षक से लेख लिखा तो सभा के कार्य से बाहर गए पं. केदारनाथ पाठक बहुत नाराज हुए और लौटने पर सीधे कानपुर आचार्य द्विवेदी के पास पहुंचकर अपनी नाराजगी प्रकट की। कोमल हृदय आचार्य द्विवेदी ने उन्हें ससम्मान आसन दिया और घर के अंदर से मिठाई-जल लेकर आए और साथ में एक लाठी भी। शिष्टाचार के बाद उन्होंने पं. पाठक को प्रतिवाद पूरा करने के लिए लाठी देते हुए कहा-‘आपकी लाठी और मेरा सर..’। इस पर पं. पाठक बहुत लज्जित हुए और वह हमेशा के लिए आचार्य जी के भक्त हो गए। इस विवाद का अंत भी श्यामसुंदर दास द्वारा ‘भारत मित्र’ में द्विवेदी जी की उदारता पर लिखे गए लेख के साथ हुआ। सौजन्यता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि बाबू श्याम सुंदर दास द्वारा स्थापित नागरी प्रचारिणी सभा ने आचार्य द्विवेदी के सम्मान में 1933 में ‘अभिनंदन ग्रंथ’ प्रस्तुत किया और आचार्य द्विवेदी ने अपने संपादन से जुड़ी महत्वपूर्ण सामग्री और लाइब्रेरी की हजारों पुस्तकें सभा को ही दान में दीं।

भाषा एवं व्याकरण सुधार के आंदोलन में ऐसे अनेक विवादों के दृष्टांत आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में दर्ज हैं, जिनका पटाक्षेप सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुआ। यह इसलिए संभव हुआ कि आचार्य द्विवेदी और संबंधित पक्ष के बीच विवाद के कारण हिंदी भाषा की शुद्धता थी न कि व्यक्तिगत। अपना लेख सरस्वती में न छपने पर बीएन शर्मा ने अवश्य आलोचनापूर्ण लेख में आचार्य द्विवेदी पर व्यक्तिगत आक्षेप किए लेकिन क्षमा प्रार्थना के बाद आचार्य द्विवेदी ने इस विवाद का भी अंत सौजन्यता के साथ कर दिया। ऐसा ही एक प्रकरण महामना पं. मदन मोहन मालवीय के अनुज कृष्णकांत मालवीय के साथ भी हिंदी साहित्य में दर्ज है।

रेलवे की 200 रुपये प्रतिमाह की नौकरी छोड़कर 50 रुपये प्रतिमाह में ‘सरस्वती’ का संपादन स्वीकार करने वाले आचार्य द्विवेदी का इंडियन प्रेस के संस्थापक बाबू चिंतामणि घोष से प्रथम परिचय उनके ही प्रेस से प्रकाशित हिंदी रीडर की कड़ी आलोचना के साथ हुआ था लेकिन फिर भी घोष बाबू ने आचार्य द्विवेदी को सरस्वती का संपादक नियुक्त करना तय किया। उनके संपादक नियुक्त होने पर कुछ साहित्यकारों ने घोष बाबू से कहा कि यह मनुष्य बहुत घमंडी है। तुनुक मिजाज है। इसे संपादक बनाकर बड़ी भूल कर रहे हो। उससे एक दिन भी नहीं पटेगी लेकिन उन्होंने किसी भी आलोचना को कान न देकर आचार्य द्विवेदी को संपादन का दायित्व सौंपा। 18 वर्षों तक सरस्वती के संपादन कार्यकाल में आचार्य द्विवेदी और घोष बाबू में घड़ी भर की अनबन नहीं हुई। सरस्वती के प्रकाशक और सेवक संपादक के बीच के सरस संबंध आज भी मुद्रक-प्रकाशक एवं संपादक के बीच सरस संबंधों का आदर्श उदाहरण है।

बात नवंबर 1905 की है। छतरपुर के राजा ने आचार्य द्विवेदी जी से कहा कि आप प्रतिवर्ष एक अच्छे अंग्रेजी ग्रंथ का अनुवाद किया कीजिए। पारिश्रमिक के रूप में मैं आपको 500 रुपये दिया करूंगा। उन्होंने 1907 में हर्बर्ट स्पेंसर की ‘एजुकेशन’ पुस्तक का अनुवाद ‘शिक्षा’ के नाम से किया और राजा को पत्र लिखा। अपनी बात से मुकरते हुए राजा ने पारिश्रमिक के रूप में केवल 25 रुपये ही देने की बात कही। इस पर नाराज हुए आचार्य द्विवेदी ने राजा को कड़ा पत्र लिखकर अपनी आपत्ति प्रकट करने से परहेज नहीं किया।

जन्म ग्राम दौलतपुर (रायबरेली) की पाठशाला के एक शिक्षक एक पद का गलत अर्थ बता रहे थे। बालक द्विवेदी ने शिक्षक को टोका और सही अर्थ बताया लेकिन शिक्षक अपनी गलती स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। द्विवेदी जी के प्रतिवाद करने पर वह पंडितराज संजीवन के अर्थ को प्रमाणिक मानने को तैयार हुए। तब द्विवेदी जी पंडितराज के घर गए और सही अर्थ लिखाकर लाए। उन्होंने भी द्विवेदी जी के ही अर्थ का समर्थन किया। फिर शिक्षक को बालक द्विवेदी के सामने अपनी गलती स्वीकार ही करनी पड़ी।

दरअसल, बचपन से ही स्वाध्यायी आचार्य द्विवेदी का गलत को गलत कहने का स्वभाव था। गलत को गलत कहने में तनिक भी हिचक न होने का यह स्वभाव आचार्य द्विवेदी में अंतिम समय तक विद्यमान रहा। किसी के आगे झुकना उन्होंने स्वीकार नहीं किया। सामने वाला कोई भी हो या कितना भी बड़ा हो। इसी स्वभाव के बल पर वह आधुनिक हिंदी खड़ी बोली को गद्य और पद्य दोनों की भाषा बनाने में सफल हो सके।

(साभार – हिन्दुस्तान समाचार)