कोलकाता । भारत सरकार ने कोलकाता स्थित सेना के ऐतिहासिक पूर्वी कमान मुख्यालय फोर्ट विलियम का नाम बदलकर ‘विजय दुर्ग’ किया है। यह कदम देश की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान को पुनर्स्थापित करने और सैन्य पराक्रम को सम्मानित करने के प्रयासों का हिस्सा है। इस निर्णय के जरिए औपनिवेशिक काल की विरासत को हटाकर भारत की समृद्ध परंपराओं और वीरता को नई पहचान देने की कोशिश की गई है। इस निर्णय से भारत की सांस्कृतिक स्वतंत्रता, सैन्य शक्ति और राष्ट्रीय स्वाभिमान को नई मजबूती मिलेगी, जो देश को एक आत्मनिर्भर, सशक्त और गौरवशाली भविष्य की ओर ले जाएगा। ‘विजय दुर्ग’ का अर्थ है ‘विजय का किला’, जो भारत की सैन्य शक्ति, रणनीतिक उत्कृष्टता और वीरता का प्रतीक है। यह भारतीय सेना की पूर्वी कमान (ईस्टर्न कमांड) का मुख्यालय रहा है और यह भारत की रक्षा तैयारियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। नया नाम भारतीय सेना की वीरता और बलिदान को सम्मान देने के साथ-साथ राष्ट्र की सैन्य शक्ति को मजबूत करने का संदेश देता है। ‘विजय’ शब्द भारतीय सेना की गौरवशाली विजय गाथाओं से जुड़ा हुआ है, जिसमें विशेष रूप से १९७१ के भारत-पाक युद्ध का उल्लेख किया जाता है। इस युद्ध में भारतीय सेना ने पूर्वी कमान के नेतृत्व में पाकिस्तान के खिलाफ ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का गठन हुआ। हर साल दिसंबर में ‘विजय दिवस’ के रूप में इस विजय का उत्सव मनाया जाता है। इसी कारण सरकार ने इस किले का नाम ‘विजय दुर्ग’ रखने का निर्णय लिया, जिससे यह नाम भारतीय सैन्य इतिहास की इस महान जीत से सीधा जुड़ सके। भारत ने स्वतंत्रता के बाद से औपनिवेशिक काल की छवि मिटाने और अपनी विरासत को पुनर्स्थापित करने के लिए कई प्रयास किए हैं। फोर्ट विलियम का निर्माण ब्रिटिश हुकूमत ने १६९६ में किया था और इसका नाम इंग्लैंड के राजा विलियम तृतीय के नाम पर रखा गया था। इसे ब्रिटिश शासन का प्रतीक माना जाता रहा है। राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक पहचान को सशक्त करने की पहलफोर्ट विलियम का नाम बदलकर ‘विजय दुर्ग’ करना सिर्फ प्रतीकात्मक बदलाव नहीं बल्कि यह भारत की खोई हुई विरासत को पुनः स्थापित करने की दिशा में एक ठोस कदम है। औपनिवेशिक काल में रखे गए कई नाम भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान को नहीं दर्शाते। ऐसे में सरकार का यह निर्णय राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत करता है और यह संदेश देता है कि भारत को अपनी संस्कृति, इतिहास और नायकों पर गर्व होना चाहिए। यह कदम ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ जैसी पहल से भी जुड़ा हुआ है, जिनका उद्देश्य स्वतंत्रता के बाद भारत की उपलब्धियों का उत्सव मनाना है। यह नाम परिवर्तन भारतीय गौरव और स्वाभिमान को दर्शाने के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करता है कि भारतीय इतिहास को भारतीय दृष्टिकोण से देखा जाए, न कि ब्रिटिश शासन के अवशेषों के रूप में। महत्वपूर्ण योगदान’विजय दुर्ग’ न केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है, बल्कि यह भारत की सैन्य तैयारियों का भी प्रतीक है। पूर्वी कमान का यह मुख्यालय कई महत्वपूर्ण सैन्य अभियानों का केंद्र रहा है, जिनमें शामिल हैं: १९६२ का भारत-चीन युद्ध१९७१ का बांग्लादेश मुक्ति संग्रामपूर्वोत्तर भारत में उग्रवाद विरोधी अभियान इन अभियानों में फोर्ट विलियम का रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ऐसे में इसका नाम ‘विजय दुर्ग’ करने से यह भारत की सैन्य परंपराओं और भविष्य की रक्षा तैयारियों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
स्त्री कविता उत्सव के साथ मनाया गया महिला दिवस
कोलकाता । नए युग में स्त्री भारतीय जागरण का एक मुख्य आधार है। स्त्रियां जहां भी हैं, वे उत्सव हैं और जागरण हैं। यह कहा अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर भारतीय भाषा परिषद द्वारा आयोजित स्त्री कविता उत्सव में अध्यक्ष डा. कुसुम खेमानी ने। इस अवसर पर सुपरिचित कथाकार शर्मिला बोहरा जालान के नए कहानी संग्रह ‘साख’ का लोकार्पण हुआ। इसपर बोलते हुए प्रो. इतु सिंह ने कहा कि शर्मिला बोहरा जालान की कहानियां स्त्री जीवन के साथ कोलकाता के जीवंत परिवेश की अभिव्यक्ति हैं। बिहार से आईं प्रतिभा चौहान के कविता संग्रह ‘क्षितिज हथेली पर’ का भी लोकार्पण संपन्न हुआ और उन्होंने कविता पाठ से स्त्री की दशा, उसके आत्मविश्वास और आदिवासियों के संघर्ष को सामने ला दिया। स्त्री कविता उत्सव में गया की चाहत अन्वी ने मुस्लिम स्त्री की मार्मिक मनोदशा को उभारा तो रांची से आईं सावित्री बड़ाइक ने आदिवासी आत्मपहचान और दर्द को। परिषद के सभागार में भारी उपस्थिति के बीच कोलकाता की वरिष्ठ और नवोदित कवयित्रियों ने स्त्री संवेदना से जुड़ी कविताएं पढ़ी हैं। स्त्री कविता उत्सव में गीता दूबे, रौनक अफरोज, पूनम सोनछात्रा, मनीषा गुप्ता, सविता पोद्दार, कविता कोठारी, कलावती कुमारी, मधु सिंह, सुषमा कुमारी, शुभश्री बैनर्जी ने अपनी कविताओं का पाठ किया।इस अवसर पर बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे।
नहीं रहे राजेंद्र नारायण वाजपेयी
कोलकाता । प्रसिद्ध विद्यानुरागी, दूरदर्शी और सौम्य व्यक्तित्व के धनी राजेन्द्र नारायण वाजपेयी का निधन हो गया है। अपनी धुन के पक्के श्री वाजपेयी भारतमित्र के संपादक थे। भारतमित्र के अलावा कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं का भी उन्होंने सफल प्रकाशन व संपादन किया। 1950 में जन्मे राजेन्द्र नारायण वाजपेयी ने पत्रकारिता के इतिहास में युगांतरकारी घटना का सूत्रपात करते हुए अपने प्रपितामह पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी के सपने को साकार करने का व्रत लिया। ज्ञात रहे कि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट के तहत भारतमित्र का प्रकाशन बंद करा दिया गया था लेकिन राजेंद्र नाराय़ण वाजपेयी (राजू बाबू) की निष्ठा और सतत प्रयास से भारतमित्र एक बार फिर जनता के बीच उपस्थित है। उनके निधन पर पूरा भारतमित्र परिवार शोकाकुल है एवं उनकी आत्मा की शांति की कामना करता है।
जान पर खेलकर बच्ची ने बचा ली 6 मासूम भाई-बहनों की जान
झुलस गए बाल और हाथ
फागी। जहां पूरा राजस्थान शनिवार को महिला दिवस व पन्नाधाय जयंती मना रहा था वहीं एक दस साल की बालिका अपने छोटे भाई-बहनों के लिए पन्नाधाय बनकर आग की लपटों में कूदकर उन्हें सुरक्षित बचा लाई। घटना है फागी उपखंड के निमेड़ा गांव में मांसी नदी किनारे बंजारा बस्ती की है। जहां बालिका ने छह जिंदगियां बचाकर सूझबूझ का परिचय दिया। इनमें दो दुधमुंहे बच्चे भी थे।
जानकारी के मुताबिक बंजारा बस्ती निमेडा में रहने वाले ओमप्रकाश, राकेश पुत्र गणेश बंजारा के छप्परपोश में शनिवार दोपहर करीब 12:30 बजे शॉर्ट शर्किट से अचानक आग लग गई। इस दौरान घर में बच्चों के अलावा कोई नहीं था। ओमप्रकाश व राकेश मजदूरी पर गए थे वहीं महिलाएं खेतों पर थी।
घर पर छोटे भाई-बहन कोमल (6), शीतल (6) नीतू (4) तनु (4) रितिका (2) हर्षित (18 माह) और रामधणी (3 माह) की देखभाल कक्षा 6 में पढ़ने वाली बालिका सरिपना कर रही थी। वह नहाने चली गई तो छोटी बहन कोमल ने बताया कि घर में आग लग गई।
इस पर बालिका ने बहादुरी दिखाते हुए आग बुझाने का प्रयास किया लेकिन आग नहीं बुझी तो पहले चारपाई पर सो रहे मासूम हर्षित व रामधनी को लपटों के बीच से निकालकर बाहर लाई। इसके बाद चार बहनों को भी आग से बचाकर बाहर निकाला। भाई-बहनों को बचाते समय सरिपना के बाल व हथेली झुलस गई। सभी बच्चों को बाहर निकालकर शोर मचाया तो आसपास के लोग एकत्र हुए और आग बुझाने के प्रयास किए लेकिन आग बढ़ गई। आग में तीन छप्परपोश जलकर राख हो गए। पास ही स्कूल से अध्यापक अवधेश शर्मा मौके पर पहुंचे और पानी का टैंकर मंगवाया। वहीं एक बाइक को सुरक्षित निकाला। छप्परपोश में बंधे कई मवेशी जिंदा जल गए। इसस पहले सरिपना ने उन्हें भी बचाने के लिए हिम्मत जुटाई लेकिन लोगों ने उसे रोक लिया। कुछ देर बाद सरपंच और पटवारी मौके पर पहुंचे और मदद का आश्वासन दिया।
कुछ बातें
-पुष्पा मल्ल
कुछ बातें
रह जाए
और कुछ कह दी जाए
शायद जरूरी है
कुछ रिश्तों के लिए!
सुना तो था पर कभी लगा नहीं
कि अपनी भी बारी आएगी
कई बार लगता है
कि
बड़ी देर लगा दी सीखने में
अपनों से छुपाने में
कुछ बातें!
सीख गई होती तो जान जाती
उस फर्क को
कि
कुछ बातें न कहने में
और कुछ बातों का अनसुना रह जाने में
बहुत फर्क है
जैसे कुछ रह जाए और कुछ बिखर जाए।
पता नहीं
कब और कैसे आई
यह औपचारिकता
घर के बाहर जो चीजें थी
वह कब कैसे अन्दर आई
पता नहीं।
शायद रिश्तों का बदलना इसे ही कहते हैं
कि कुछ बातें
कह दी जाए
और
कुछ रह जाए!
महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए भारतीय सेना ने शुरू किया ड्राइविंग कोर्स
श्रीनगर । भारतीय सेना की राष्ट्रीय राइफल्स ने 25 सीमावर्ती गांवों की महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए 40 दिवसीय ड्राइविंग कोर्स शुरू किया है। भारत-पाकिस्तान एलओसी के पास पुंछ के मेंढर में कोर्स शुरू कराया गया है। यह 40 दिवसीय ड्राइविंग कोर्स क्षेत्र के 25 सीमावर्ती गांवों की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस प्रशिक्षण के माध्यम से महिलाएं दोपहिया और चार पहिया वाहन चलाने में सक्षम होंगी। सीमावर्ती इलाकों में महिलाओं के लिए वाहन चलाने का प्रशिक्षण न केवल उनकी आजीविका के लिए बल्कि आपातकालीन परिस्थितियों में भी उपयोगी साबित होगा।
सेना द्वारा आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में महिलाओं को इस कोर्स की जानकारी दी गई, ताकि वे इसका पूरा लाभ उठा सकें। इस पहल का महिलाओं ने खुले दिल से स्वागत किया और भारतीय सेना का आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि सेना की इस सकारात्मक मुहिम से वे न केवल आत्मनिर्भर बनेंगी बल्कि अपने परिवारों और समाज के लिए भी योगदान दे पाएंगी।
एक प्रतिभागी मीनाक्षी बक्शी का कहना है कि मैं भारतीय सेना द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम को देखकर बहुत खुश हूं, एलओसी के किनारे रहने वाली महिलाओं के लिए यह एक अच्छी पहल है। इससे उन्हें अपने सशक्तिकरण को समझने में मदद मिलेगी और हर क्षेत्र में वो आगे बढ़ेगी। सेना ने जो ड्राइविंग कोर्स लागू किया है, वह महिलाओं को भाग लेने और अपने कौशल को बढ़ाने में सक्षम बनाएगा। मेरा मानना है कि महिलाओं को आत्मनिर्भर होना चाहिए। एलओसी के किनारे रहने वाली महिलाओं के लिए हमारी सेना जो यह पहल शुरू की है, उसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देती हूं। वहीं जेबा अंजुम ने कहा कि मैं सेना का धन्यवाद करना चाहूंगी कि उन्होंने ऑपरेशन सद्भाव के तहत जो ये मिशन शुरू किया है। एलओसी के पास रहने वाली महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए ड्राइविंग कोर्स शुरू किया है। यहां हम लोग बिना पैसे से ड्राइविंग कोर्स करेंगे। भारत की सेना की यह अच्छी पहल है। मैं उन्हें धन्यवाद देती हूं। भारतीय सेना का यह कदम सीमावर्ती क्षेत्रों में महिलाओं को सशक्त बनाने और उनकी सामाजिक स्थिति को मजबूत करने की दिशा में एक अनुकरणीय प्रयास है।
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बजट 2025-26 और महिलाओं का सशक्तिकरण …
जिस समय भारत वित्तीय वर्ष 2025-26 में प्रवेश कर रहा है, उस समय वो जेंडर बजटिंग (बजट बनाने का एक तरीका जिसका उद्देश्य लैंगिक समानता को बढ़ावा देना और महिलाओं एवं लड़कियों के विकास का समर्थन करना है) के दो दशकों का जश्न भी मना रहा है। अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक ऐसा दृष्टिकोण पेश किया जो महिलाओं को भारत के विकास की गाथा के केंद्र में रखता है. युवाओं, किसानों और महिलाओं को सशक्त बनाने पर स्पष्ट ध्यान के साथ इस साल का बजट 2047 तक विकसित भारत के व्यापक लक्ष्य के साथ मेल खाता है जिसमें ‘महिला केंद्रित विकास’ इस बदलाव की आधारशिला के रूप में है । इस बजट में निर्धारित सबसे महत्वाकांक्षी लक्ष्यों में से एक है वर्कफोर्स में 70 प्रतिशत महिलाओं को जोड़ना. लेकिन 2025-26 का जेंडर बजट इन ऊंचे लक्ष्यों पर कितना खरा उतरता है? ये लेख बजट के आवंटन की गहरी पड़ताल करता है। पता लगाता है कि रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं कल्याण और सुरक्षा जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर बहुत ज़्यादा ध्यान के साथ बजट आवंटन महिला केंद्रित विकास के साथ कैसे जुड़ता है और उसे कैसे आगे बढ़ाता है।
रोज़गार -इस साल के लैंगिक बजट ने महिलाओं समेत नए उद्यमियों को सशक्त बनाने के उद्देश्य के साथ एक महत्वपूर्ण पहल की है जिसके तहत अगले पांच वर्षों में 2 करोड़ रुपये तक का सावधि ऋण (टर्म लोन) दिया जाएगा। वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है और हर बजट में ये एक प्रमुख प्राथमिकता है। 2023-24 में महिला श्रम बल भागीदारी दर (फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट या (एफएलएफपीआर) में थोड़ी बढ़ोतरी देखी गई और ये 41.7 प्रतिशत पर पहुंच गई। प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम (पीएमईजीपी) जैसी पहल जहां उद्यमिता की सहायता के लिए तैयार की गई है। वहीं (पीएमईजीपी के लिए फंडिंग 2024-25 के 1,012.50 करोड़ रुपये की तुलना में घटकर 2025-26 में 862.50 करोड़ रुपये हो गई। ग्रामीण रोज़गार के मामले में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना , जो महिलाओं के द्वारा काम किए गए 57.8 प्रतिशत व्यक्ति दिवस प्रदान करती है, को 40,000 करोड़ रुपये मिले जो 2024-25 के 37,654 करोड़ रुपये से ज़्यादा है मगर इस आवंटन का केवल 33.6 प्रतिशत ही जेंडर बजट में दिखता है जो जेंडर उत्तरदायी बजट में महिलाओं के योगदान को पूरी तरह स्वीकार करने के बारे में चिंता पैदा करता है। इसके अलावा 80 प्रतिशत महिलाएं खेती में शामिल हैं लेकिन केवल 13.9 प्रतिशत ज़मीन मालिक महिलाएं हैं। इसके बावजूद कृषोन्नति योजना (2025-26 के लिए 2,550 करोड़ रुपये के आवंटन के साथ) जैसी कृषि योजना महिला किसानों के लिए समर्पित प्रावधान के बिना जेंडर बजट के पार्ट बी के तहत बनी हुई हैं।
शिक्षा -महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण को सामने लाने के लिए शिक्षा प्रमुख है. वैसे तो प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में लैंगिक अंतर को दूर करने में भारत ने प्रगति की है लेकिन उच्च शिक्षा में स्कूल छोड़ने की दर ज़्यादा है। उदाहरण के लिए स्टेम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग एंड मैथमेटिक्स) ग्रैजुएट में महिलाओं का हिस्सा 40 प्रतिशत से ज़्यादा है लेकिन स्टेम की भूमिकाओं में केवल 14 प्रतिशत महिलाएं काम करती हैं जो महिलाओं के कॅरियर छोड़ने के बारे में बताता है। 2025-26 का बजट पार्ट ए के तहत आईसीटी के माध्यम से शिक्षा पर राष्ट्रीय मिशन (एनईईआईसीटी) के ज़रिए लैंगिक डिजिटल बंटवारे का समाधान करता है जो महिलाओं के लिए 100 प्रतिशत फंडिंग का आवंटन करता है लेकिन इस योजना के लिए फंडिंग 2024-25 के 551.25 करोड़ रुपये से घटकर 229.25 करोड़ रुपये हो गई जो लैंगिक डिजिटल विभाजन को भरने के लिए संसाधनों के बारे में चिंता पैदा करती है। दूसरी तरफ समग्र शिक्षा अभियान के लिए आवंटन बढ़कर 12,375 करोड़ रुपये हो गया और पीएम श्री स्कूल योजना के लिए 2,250 करोड़ रुपये का महत्वपूर्ण आवंटन देखा गया। इस तरह शिक्षा की गुणवत्ता और स्कूल के बुनियादी ढांचे में सुधार का संकेत मिला. पिछले दो साल से प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण (पीएम पोषण) के बजट में बढ़ोतरी भी एक जीत है। 2025-26 का बजट पार्ट ए के तहत आईसीटी के माध्यम से शिक्षा पर राष्ट्रीय मिशन (एनईईआईसीटी) के ज़रिए लैंगिक डिजिटल बंटवारे का समाधान करता है जो महिलाओं के लिए 100 प्रतिशत फंडिंग का आवंटन करता है।
आवास – इस साल के जेंडर बजट में भी आवास को एक महत्वपूर्ण हिस्सा मिला है । प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएम आवास योजना)- शहरी के लिए आवंटन 2024-25 के 15,170 करोड़ रुपये की तुलना में बढ़कर 23,294 करोड़ रुपये हो गया जबकि पीएम आवास योजना -शहरी 2.0 के लिए आवंटन 1,500 करोड़ रुपये से बढ़कर 3,500 करोड़ रुपये हो गया। इसके अलावा पीएम आवास योजना-जी (ग्रामीण आवास) के लिए आवंटन 32,500 करोड़ रुपये से बढ़कर 54,832 करोड़ रुपये हो गया। इस अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी के बावजूद पीएम आवास योजना – जी के तहत केवल 73 प्रतिशत घर महिलाओं के नाम पर रजिस्टर्ड हैं जो इस बात को लेकर चिंता पैदा करता है कि किस हद तक ये फंड वास्तव में महिलाओं को सशक्त बना रहे हैं। इसके अलावा अतीत के वर्षों में पीएम आवास योजना-शहरी का पार्ट बी से पार्ट ए की तरफ परिवर्तन ने महिला विशिष्ट खर्च में उसी अनुपात की बढ़ोतरी के बिना कृत्रिम रूप से जेंडर बजट के आंकड़ों को बढ़ा दिया। वैसे तो फंडिंग में बढ़ोतरी एक सकारात्मक घटनाक्रम है लेकिन स्पष्टता की कमी और फंडिंग एवं नतीजों के बीच मेल-जोल नहीं होना ये बताता है कि इन संसाधनों के द्वारा वास्तविक बदलाव को आगे ले जाने को सुनिश्चित करने के लिए अधिक महिला केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
स्वास्थ्य -स्वास्थ्य महिला केंद्रित विकास का एक महत्वपूर्ण सूचक है और इस साल का बजट प्रमुख क्षेत्रों में लगातार प्रगति को दर्शाता है। सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 योजनाओं के लिए आवंटन 2023-24 के 450.98 करोड़ रुपये के आवंटन के पीछे चला गया है लेकिन ये पिछले साल के 220 करोड़ रुपये के आवंटन से बेहतर है। ध्यान देने की बात है कि आयुष्मान भारत- प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना ( पीएमजेएवाई) के लिए आवंटन 3,624.80 करोड़ रुपये से बढ़कर 4,482.90 करोड़ रुपये हो गया. लेकिन इस आवंटन को जेंडर बजट के पार्ट बी में शामिल किया गया है जिसके तहत कम-से-कम 30 प्रतिशत का प्रावधान महिलाओं के लिए आवश्यक है जो महिलाओं के स्वास्थ्य पर इसके वास्तविक प्रभाव के बारे में सवाल खड़े करता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत मासिक धर्म स्वच्छता योजना (एमएचएस), जो महिलाओं के लिए एक अनूठी चिंता है, को भी पार्ट बी में शामिल किया गया है जिससे पता चलता है कि इसकी केवल 30 प्रतिशत फंडिंग महिलाओं की तरफ निर्देशित है जो कि एक गंभीर अव्यवस्था है।
सुरक्षा -सच्चे सशक्तिकरण के लिए महिलाओं की सुरक्षा अहम है लेकिन बजट आवंटन अभी भी महत्वपूर्ण कमियों को उजागर करता है। निर्भया फंड, जो फास्ट-ट्रैक कोर्ट, संकट केंद्रों और निगरानी का समर्थन करता है, में मामूली बढ़ोतरी की गई- 180 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 2025-26 में 200 करोड़ रु. लेकिन इसकी शुरुआत के समय से आवंटित 7,212 करोड़ रुपये की राशि में से लगभग 74 प्रतिशत खर्च नहीं हो पाया है जो इसके प्रभावी उपयोग के बारे में सवाल खड़े करता है। अप्रैल 2024 में शुरू मिशन शक्ति दो तरीकों से महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण का समाधान करता है: सुरक्षा के लिए संबल (वन स्टॉप सेंटर, महिला हेल्पलाइन, इत्यादि) और सशक्तिकरण के लिए सामर्थ्य (प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, संकल्प, इत्यादि). ‘सामर्थ्य’ के लिए फंडिंग में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी की गई और ये 953.74 करोड़ रुपये से बढ़कर 2,396 करोड़ रुपये हो गया लेकिन ‘संबल’ को 2023-34 जैसा ही आवंटन मिला और ये 629 करोड़ रुपये पर बरकरार रहा। लैंगिक रूप से संवेदनशील सार्वजनिक परिवहन में निवेश की कमी एक बड़ी चूक बनी रही क्योंकि सार्वजनिक परिवहन को 91 प्रतिशत महिलाएं असुरक्षित एवं अविश्वसनीय मानती हैं जिससे रोज़गार तक उनकी पहुंच सीमित होती है.
लैंगिक उत्तरदायी बजट का रास्ता साफ करना – हर साल सरकार के वादों और बड़ी मात्रा में बजट आवंटन के बावजूद वास्तविक प्रगति अक्सर कम रहती है। इन आंकड़ों को सार्थक बनाने के लिए बजट आवंटन के साथ महत्वपूर्ण कदम उठाना ज़रूरी है। वास्तविक प्रभाव को सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम जेंडर बजटिंग एक्ट को लागू करना होगा जिसकी सिफारिश नीति आयोग ने की है. ये अधिनियम सभी मंत्रालयों और राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में जेंडर आधारित बजट को संस्थागत रूप देगा। इसके साथ-साथ ये लिंग के आधार पर विभाजित आंकड़ों को इकट्ठा करना और उनका प्रकाशन आवश्यक बना देगा जो फिलहाल प्रगति पर नज़र रखने में एक महत्वपूर्ण कमी है। वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए हमें मानवीय पूंजी को विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए. ये स्वास्थ्य, शिक्षा एवं कौशल विकास में निवेश को बढ़ाकर और बढ़ी हुई आवास सब्सिडी पर अनावश्यक खर्च को घटाकर हासिल किया जा सकता है। वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए हमें मानवीय पूंजी को विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए. ये स्वास्थ्य, शिक्षा एवं कौशल विकास में निवेश को बढ़ाकर और बढ़ी हुई आवास सब्सिडी पर अनावश्यक खर्च को घटाकर हासिल किया जा सकता है। इसके अलावा बिना वेतन देखभाल के बोझ (अनपेड केयर बर्डन), जो भारत की जीडीपी का 15 प्रतिशत से 17 प्रतिशत हिस्सा है, का पेड लीव नीतियों, केयर सर्विस सब्सिडी और देखभाल करने वालों के लिए कौशल निर्माण के माध्यम से समाधान करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
अंत में, जलवायु परिवर्तन के तेज़ होते असर के साथ महिलाएं विशेष रूप से कृषि और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में सबसे आगे है। अध्ययनों से पता चलता है कि झुलसाने वाली गर्मी और जलवायु से जुड़े दूसरे संकटों का महिलाओं पर अत्यधिक असर पड़ता है । जेंडर बजटिंग को अपडेट किया जाना चाहिए ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि ये वास्तव में समावेशी हो और सक्षी क्षेत्रों में महिलाओं की तत्काल और दीर्घकालिक- दोनों आवश्यकताओं को हल करता हो।
शैरॉन सारा थवानी कोलकाता में ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के डायरेक्टर की एग्ज़ीक्यूटिव असिस्टेंट हैं.
(साभार – ऑबजर्वर रिसर्च फाउंडेशन की वेबसाइट)
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भारत की पहली महिला चिकित्सक डॉ. आनंदीबाई जोशी
भारत के चिकित्सा क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। वर्ष 2023-24 में मेडिकल स्कूल के छात्रों में महिलाओं की हिस्सेदारी 54.6 % रही। वहीं एनएसएसओ 2017-18 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 29 फीसदी महिलाएं डॉक्टर हैं। दाइयों समेत लगभग 80 फीसदी नर्सिंग स्टाफ और 100 प्रतिशत आशा कार्यकर्ता महिलाएं हैं। महिला सशक्तिकरण के इतिहास में चिकित्सा क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है। भारतीय महिलाओं ने अपनी मेहनत और लगन से चिकित्सा के क्षेत्र में न केवल अपनी पहचान बनाई, बल्कि समाज में बदलाव भी लाया। मेडिकल के क्षेत्र में बढ़ रही महिलाओं की भागीदारी का श्रेय डॉ. आनंदीबाई जोशी को जाता है। डॉ. आनंदीबाई जोशी पहली भारतीय महिला डॉक्टर थीं। उनकी संघर्षपूर्ण यात्रा ने देश की अन्य महिलाओं को भी चिकित्सकीय शिक्षा हासिल करने और इस क्षेत्र में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। आइए जानते हैं भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदीबाई जोशी के चिकित्सक बनने के सफर के बारे में। डॉ. आनंदीबाई गोपालराव जोशी भारत की पहली महिला डॉक्टर थीं। उनका जन्म 31 मार्च 1865 को महाराष्ट्र के ठाणे जिले में जमींदार परिवार में हुआ था। मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनका विवाह गोपालराव जोशी से हुआ। गोपालराव उनसे 16 साल बड़े थे। गोपाल राव ने आनंदीबाई को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।
आनंदीबाई की शिक्षा और संघर्ष – आनंदीबाई 14 वर्ष की आयु में मां बनीं लेकिन शिशु चिकित्सा सुविधा की कमी के कारण बन नहीं सका। इस घटना से आनंदीबाई बहुत दुखी हुईं और डॉक्टर बनने का निश्चय किया ताकि भविष्य में भारत में महिला स्वास्थ्य की दिशा में काम कर सकें और चिकित्सकीय कमी के कारण किसी बच्चे की जान न जाए। उन्होंने 1883 में अमेरिका के पेनसिल्वानिया में महिला मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। पढ़ने के लिए आनंदी ने अपने सारे गहने बेच दिए। पति गोपालराव और कई शुभचिंतकों ने भी आनंदी को सहयोग किया। 1886 में महज 19 साल की उम्र में आनंदीबेन ने डॉक्टर ऑफ मेडिसिन (M.D.) की डिग्री हासिल कर ली। आनंदीबाई पहली भारतीय महिला थीं, जिन्होंने एमडी की डिग्री प्राप्त की थी और देश की पहली महिला डॉक्टर बनीं उनकी इस उपलब्धि के लिए उन्हें क्वीन विक्टोरिया से भी सराहना मिली। स्वदेश वापसी के बाद उन्होंने कोल्हापुर रियासत के अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल के महिला वार्ड में प्रभारी चिकित्सक पद पर कार्य शुरू किया हालांकि महज 22 वर्ष की आयु में 26 फरवरी 1887 को टीबी की बीमारी से ग्रस्त होने के चलते आनंदीबाई का निधन हो गया।
महिला दिवस विशेष : भारत की पहली महिला वकील कॉर्नेलिया सोराबजी
वर्तमान में भारत ही न्यायालयों में जज से लेकर वकील तक महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में बेहद कम है। साल 2022 में बार काउंसिल ऑफ इंडिया की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक, देशभर में सिर्फ 15.3 फीसदी महिला वकील हैं। इसमें सबसे बड़े हाई कोर्ट यूपी में सबसे कम केवल 8.7 % महिला वकील हैं। मेघालय (59.3%) और मणिपुर (36.3%) में सबसे अधिक महिला वकील नामांकित हैं।
हालांकि कोर्ट रूम में स्त्रियों के लिए जगह बनाने का काम एक ऐसी महिला ने किया, जिन्होंने उस दौर में कानून की पढ़ाई की थी, जब महिलाओं के वकालत करने पर प्रतिबंध हुआ करता था। उन्होंने पहली महिला एडवोकेट बनकर भविष्य की नारी के लिए कोर्ट रूम के दरवाजे खोल दिए। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर भारत की पहली महिला वकील और वकालत के क्षेत्र में उनकी चुनौतियों के बारे में जानिए ताकि उनके योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया जा सके।
कौन हैं भारत की पहली महिला वकील – भारत की पहली महिला वकील कॉर्नेलिया सोराबजी है। उनका जन्म 15 नवंबर 1866 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुआ था। उनके पिता एक पादरी थे, क्योंकि ईसाइयों पर पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव था, इस कारण ईसाई महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध नहीं था। हालांकि उच्च शिक्षा तो पहुंचने का रास्ता कोर्नेलिया के लिए भी आसान नहीं था। कोर्नेलिया की मां फ्रैंसिना फोर्ड की परवरिश एक अंग्रेज दम्पत्ति ने की थी, जिन्होंने उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाई। फ्रैंसिना ने भी अपनी बेटी की पढ़ाई पर जोर देते हुए उन्हें यूनिवर्सिटी पढ़ने भेजा। कोर्नेलिया सोराबजी की शिक्षा- कोर्नेलिया पहली लड़की थीं, जिन्हें बाॅम्बे यूनिवर्सिटी में पढ़ने की इजाजत मिली। इसके पहले तक उस यूनिवर्सिटी में लड़कियों को दाखिले का अधिकार नहीं था। यहां से ग्रेजुएशन के बाद कोर्नेलिया आगे की पढ़ाई के लिए लंदन जाना चाहती थीं। हालांकि उनके परिवार के पास कोर्नेलिया को विदेश भेजने के पैसे नहीं थे लेकिन उनके पिता ने नेशनल इंडियन एसोसिएशन को पत्र लिखकर आगे की शिक्षा के लिए आर्थिक मदद मांगी। ब्रिटिश ननिहाल के कारण कोर्नेलिया को आसानी से आक्सफोर्ड जाने का मौका मिल गया।
वकालत की पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला – कोर्नेलिया सोराबजी ने आक्सफोर्ड के समरविल कॉलेज से सिविल लाॅ की डिग्री हासिल की और वकालत की पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला बन गईं। इसी के साथ उस कॉलेज से टाॅप करने वाली वह पहली भारतीय महिला थीं। भारत वापस आकर कोर्नेलिया ने 1897 में बॉम्बे यूनिवर्सिटी से एलएलबी की। डिग्री और योग्यता के बाद भी कोर्नेलिया वकील नहीं बन पाईं क्योंकि तब महिलाओं को वकालत करने का अधिकार नहीं था।
प्रैक्टिस के लिए किया संघर्ष – वह संघर्ष करती रहीं। विरोध का सामना किया और अंत में 1923 में कानून में बदलाव होते ही अगले वर्ष कोर्नेलिया सोराबजी को कोलकाता में बतौर एडवोकेट प्रैक्टिस का मौका मिला। हालांकि 1929 में 58 वर्ष की आयु में उन्हें हाईकोर्ट से रिटायरमेंट मिल गई।
महिला दिवस विशेष : सबसे बड़ी चुनौती पितृसत्तात्मक सोच वाली शातिर महिलाएं ही हैं
महिला दिवस को लेकर आज जब हम बात कर रहे हैं तो हमें चीजों को अलग तरीके से देखना होगा क्योंकि आज की परिस्थिति में और कल की परिस्थिति में बहुत नहीं तो थोड़ा अन्तर तो आया ही है। महिला दिवस मेरे लिए आत्मविश्लेषण का अवसर है क्योंकि आज महिलाएं दो अलग छोर पर हैं, एक ऐसा वर्ग जो आज भी जूझ रहा है, जिसके पास बुनियादी अधिकार नहीं हैं, कुरीतियों और बंधनों से जकड़ी हैं…जीवन के हर कदम पर उनके लिए यातनाएं हैं, प्रताड़नाएं हैं। दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा है जो अल्ट्रा मॉर्डन है और उसे इतना अधिक मिल रहा है कि वह उसे बनाए रखने के लिए साजिशों पर साजिशें रच रहा है और दूसरी औरतों को सक्षम बनाने की जगह उनके साथ माइंड गेम खेल रहा है। उसे महिला होने की सुविधा चाहिए पर समानता को लेकर जो दायित्व हैं, उससे उसका सरोकार नहीं। पहले वर्ग पर बातें खूब हो रही हैं इसलिए आज मैं दूसरे वर्ग पर बात करना चाहूँगी। पितृसत्तात्मक सोच वाली ऐसी शातिर महिलाएं किचेन पॉलिटिक्स व ऑफिस पॉलिटिक्स में माहिर हैं। ऐसी औरतें हमारे घरों में हैं और दफ्तरों में हैं और इन सबका टारगेट हर वह संघर्ष कर रही महिला है जो प्रखर है, मुखर है, कहीं अधिक प्रतिभाशाली है और अपने दम पर आगे बढ़ने के लिए जूझ रही हैं और इन दोनों के बीच पिस रही है।
मेरा मानना है कि महिला हो या पुरुष, देवी या देवता जैसी चीज कभी नहीं रही। अच्छा और बुरा दोनों जगह रहा मगर चीजें आज जिस तरह से रूप ले रही हैं, मुझे लगता है कि घरेलू हिंसा के स्वरूप और दायरे को लेकर फिर से सोचने की जरूरत है। समानता के अर्थ को लेकर विचार करने की जरूरत है । यह सरासर हिप्पोक्रेसी है जब घरेलू हिंसा को सिर्फ ससुराल में की गयी हिंसा से ही जोड़कर देखा जाता है क्योंकि घरेलू हिंसा तो लड़कियां जन्म से ही झेलती हैं जब कन्या भ्रूण हत्या होती है। नियंत्रित तो बचपन से ही उनको किया जाता है, मां उनके हिस्से की रोटी से लेकर सम्पत्ति तक सब अपने बेटों को सौंप देती है..जीवनसाथी चुनने पर ऑनर किलिंग आज भी होती है। आप मुझे एक बात बताइए कि कितनी लड़कियों ने इसलिए घर छोड़ दिया और अपने घरवालों से मुआवजा मांगा या एफआईआर दर्ज करवायी कि उनके पिता शराबी हैं, भाई मारपीट करता है, मां पक्षपात करती है, भाभियां या रिश्तेदार ताने मारते हैं…आज तक आपने सुना है..अपवाद तो सब जगह होते हैं..आप हर एक गलत सहकर हर कीमत पर अपने मां-बाप की कमियां छुपाती हैं, मायके वालों से रिश्ते निभाती हैं। महान बनकर अपनी सम्पत्ति तक छोड़ देती हैं जो कि वाकई आपकी है क्योंकि आपका जन्म वहीं हुआ है। वहीं यह सारी बातें ससुराल में होती हैं तो आप क्रांति करने लगती हैं। अगर आप एक अनजान घर में अपना सब कुछ छोड़कर जा रही हैं तो वह घर भी आपके लिए अपने सालों पुराने कायदे बदल रहा है। अगर आप दलील देती हैं कि आप सब कुछ छोड़कर आ रही हैं और एक मां और बहन ने भी अपने बेटे पर से अधिकार आपको सौंपे हैं.। मां –बाप दहेज देते हैं तो अपनी बेटी के लिए और कई बार स्टेटस के लिए भी देते हैं और लड़के वाले लेते समय यह नहीं सोचते कि अगर वह कुछ ले रहे हैं तो इसके लिए उनको बहुत सी चीजों से समझौता करना पड़ेगा। अपनी सास और अपने ससुर को आप माता – पिता नहीं मानतीं…पति के भाई –बहन आपके लिए जान भी निकालकर रख दें तो भी वे आपके भाई बहन नहीं हैं तो आपको इतनी उम्मीद क्यों है। आज तक क्या किसी लड़की ने अपने पिता या भाई से एलिमनी की तरह मुआवजा मांगा है। महिलाएं आज के समाज में दो छोर पर खड़ी हैं…एक जो बहुत सशक्त है और दूसरी जो अभी भी जूझ रही है। महिलाओं की किचेन पॉलिटिक्स ऐसा मेंटल ट्रॉमा है जो न जाने कब से चला आ रहा है..राजमहलों में क्या षड्यंत्रकारियों में महिलाएं नहीं होती थीं। महिलाओं को खुद महिलाओं ने पीछे खींचा है…महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा राजनीति खुद महिलाएं ही करती हैं। आप हर बात के लिए पितृसत्ता को दोष देकर पीछा नहीं छुड़ा सकते क्योंकि पितृसत्ता तो है मगर उसे पालने वाली महिलाएं ही हैं । अगर सम्पत्ति के अधिकारों की बात करूँ तो ससुराल में उनका अधिकार उतना ही होना चाहिए जितना उनके पति का है…मगर बहुएं अपना ही नहीं..घर के बाकी सदस्यों का हिस्सा हड़प रही हैं। घर में राशन छिपाना, आर्थिक तौर पर कमजोर सदस्य को प्रताड़ित करना, उसे नीचा दिखाना, ताने मारना…यह काम घर की औरतें ही करती हैं। सब कुछ मुझे चाहिए…मायके में वह घर जोड़ती हैं और ससुराल में हर चीज तहस-नहस कर रही हैं। मायके में इनको बेटी का अधिकार चाहिए मगर जिम्मेदारी नहीं निभानी तो दूरी का बहाना बनाती हैं और ससुराल में खुद को पराया कहकर बार – बार विक्टिम कार्ड खेलती हैं और घर की बेटी को ही बहिरागत बनाकर रख देती हैं। क्या हम ऐसी औरतों की पूजा करें? अपने पति को उसके परिवार से छीनकर अलग करने वाली महिलाओं को घर जोड़ने वाली लड़की कहां से मिलेगी? आप घर छोड़कर आईं और बदले में आपने अपने पति का घर छीन लिया । जिन रिश्तों को जी रहा था, आप उसके बीच में आ गयीं। बच्चे ने कभी वह रिश्ते देखे ही नहीं तो निभाएगा कैसे? आपने नहीं अपनाया तो कोई आपको क्यों अपनाएं?
आप दहेज मत दीजिए मगर एलिमनी भी मत लीजिए । समानता और निर्भर होना, यह दोनों एक साथ नहीं चल सकते। बस की सीट चाहिए तो भी महिला होने का फायदा उठाइए और दफ्तर में छुट्टी चाहिए तो भी आप महिला बनकर लाभ उठाइए…अतुल सुभाष जैसे मामले जिस तरह से सामने आ रहे हैं..जिस तरह करोड़ों की एलिमनी एक आत्मनिर्भर व सक्षम महिलाएं ले रही हैं…वह महिलाओं को कहीं से सशक्त नहीं करने जा रहा। अभी एक फिल्म आई है मिसेज… सहमत भी हूँ…किरदार से पर एक सवाल..कमियां तो आपके पिता..भाई- बहन या माँ भी निकालते हैं..ताने भी मारते हैं..उत्पीड़न भी करते हैं..आपमें से कितनी महिलाओं ने उनके मुँह पर गंदा पानी फेंका है या विरोध किया है या कर रही हैं..अपने मायके को शराबी पिता या भाई के और उनकी घरेलू हिंसा कारण छोड़ देने की हिम्मत दिखाई है? वहाँ तो सब ओके ही है… मेरा आशय यह है कि हिंसा तो हिंसा है..वो तो कहीं भी अस्वीकार्य है तो फिर मायके में चलता है और ससुराल में नहीं सहेंगे और क्रांति…! ये दोहरा रवैया या यूं कहें दोगलापन क्यों????? महिला दिवस बाजार का दिवस बनकर रह गया है। अगर आप महिला हैं तो इसमें आपका कमाल क्या है और कोई पुरुष है तो उसमें उसका दोष क्या है…अगर आप सशक्त हैं तो दूसरों को सशक्त बनाइए। समानता का मतलब एक को कमजोर करना या हुकूमत चलाना नहीं है..। घर सिर्फ स्त्रियों के ही नहीं होते, पुरुषों के भी होते हैं…कभी उनको भी कहिए आज मैं सम्भाल लूंगी…इन्जॉय करो।