पर्यावरण दिवस विशेष : प्रकृति संरक्षण की जननी है भारतीय संस्कृति

भौतिक विकास के पीछे दौड़ रही दुनिया ने आज जरा ठहरकर सांस ली तो उसे अहसास हुआ कि चमक-धमक के फेर में क्या कीमत चुकाई जा रही है । आज ऐसा कोई देश नहीं है जो पर्यावरण संकट पर मंथन नहीं कर रहा हो । भारत भी चिंतित है लेकिन, जहां दूसरे देश भौतिक चकाचौंध के लिए अपना सबकुछ लुटा चुके हैं, वहीं भारत के पास आज भी बहुत कुछ है।
पश्चिम के देशों ने प्रकृति को हद से ज्यादा नुकसान पहुँचाया है । पेड़ काटकर जंगल के कांक्रीट खड़े करते समय उन्हें अंदाजा नहीं था कि इसके क्या गंभीर परिणाम होंगे? प्रकृति को नुकसान पहुंचाने से रोकने के लिए पश्चिम में मजबूत परंपराएं भी नहीं थीं ।
प्रकृति संरक्षण का कोई संस्कार अखण्ड भारतभूमि को छोड़कर अन्यत्र देखने में नहीं आता है जबकि सनातन परम्पराओं में प्रकृति संरक्षण के सूत्र मौजूद हैं । हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है । भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं । पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मां स्वरूप माना गया है । ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं ।
प्राचीन समय से ही भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी । वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है, अपना ही भारी नुकसान कर सकता है इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके ।
यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है । यह सब होने के बाद भी भारत में भौतिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति पददलित हुई है लेकिन, यह भी सच है कि यदि ये परंपराएं न होतीं तो भारत की स्थिति भी गहरे संकट के किनारे खड़े किसी पश्चिमी देश की तरह होती । हिन्दू परंपराओं ने कहीं न कहीं प्रकृति का संरक्षण किया है । हिन्दू धर्म का प्रकृति के साथ कितना गहरा रिश्ता है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही अग्नि की स्तुति में रचा गया है ।
हिन्दुत्व वैज्ञानिक जीवन पद्धति है । प्रत्येक हिन्दू परम्परा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक रहस्य छिपा हुआ है । इन रहस्यों को प्रकट करने का कार्य होना चाहिए । हिन्दू धर्म के संबंध में एक बात दुनिया मानती है कि हिन्दू दर्शन ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत पर आधारित है । यह विशेषता किसी अन्य धर्म में नहीं है । हिन्दू धर्म का सह अस्तित्व का सिद्धांत ही हिन्दुओं को प्रकृति के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है । वैदिक वाङ्मयों में प्रकृति के प्रत्येक अवयव के संरक्षण और सम्वद्र्धन के निर्देश मिलते हैं ।
हमारे ऋषि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है इसलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है- ‘वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव:’ अर्थात् वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है ।
जंगल को हमारे ऋषि आनंददायक कहते हैं- ‘अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु’ यही कारण है कि हिन्दू जीवन के चार महत्वपूर्ण आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास का सीधा संबंध वनों से ही है ।
हम कह सकते हैं कि इन्हीं वनों में हमारी सांस्कृतिक विरासत का सम्वद्र्धन हुआ है । हिन्दू संस्कृति में वृक्ष को देवता मानकर पूजा करने का विधान है । वृक्षों की पूजा करने के विधान के कारण हिन्दू स्वभाव से वृक्षों का संरक्षक हो जाता है । सम्राट विक्रमादित्य और अशोक के शासनकाल में वन की रक्षा सर्वोपरि थी । चाणक्य ने भी आदर्श शासन व्यवस्था में अनिवार्य रूप से अरण्यपालों की नियुक्ति करने की बात कही है । हमारे महर्षि यह भली प्रकार जानते थे कि पेड़ों में भी चेतना होती है. इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है ।
ऋग्वेद से लेकर बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङ्मयों में इसके संदर्भ मिलते हैं । छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं ।
हिन्दू दर्शन में एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है-
‘दशकूप समावापी: दशवापी समोहृद:।
दशहृद सम:पुत्रो दशपत्र समोद्रुम:।।
घर में तुलसी का पौधा लगाने का आग्रह भी हिन्दू संस्कृति में क्यों है? यह आज सिद्ध हो गया है । तुलसी का पौधा मनुष्य को सबसे अधिक प्राणवायु ऑक्सीजन देता है । तुलसी के पौधे में अनेक औषधिय गुण भी मौजूद हैं. पीपल को देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि वह भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है ।
परिवार की सामान्य गृहिणी भी अपने अबोध बच्चे को समझाती है कि रात में पेड़-पौधे को छूना नहीं चाहिए, वे सो जाते हैं, उन्हें परेशान करना ठीक बात नहीं । वह गृहिणी परम्परावश ऐसा करती है. उसे इसका वैज्ञानिक कारण नहीं मालूम । रात में पेड़ कार्बन डाइ ऑक्साइड छोड़ते हैं, इसलिए गांव में दिनभर पेड़ की छांव में बिता देने वाले बच्चे-युवा-बुजुर्ग रात में पेड़ों के नीचे सोते नहीं हैं ।
देवों के देव महादेव तो बिल्व-पत्र और धतूरे से ही प्रसन्न होते हैं. यदि कोई शिवभक्त है तो उसे बिल्वपत्र और धतूरे के पेड़-पौधों की रक्षा करनी ही पड़ेगी । वट पूर्णिमा और आंवला ग्यारस का पर्व मनाना है तो वटवृक्ष और आंवले के पेड़ धरती पर बचाने ही होंगे ।
सरस्वती को पीले फूल पसंद हैं । धन-सम्पदा की देवी लक्ष्मी को कमल और गुलाब के फूल से प्रसन्न किया जा सकता है । गणेश दूर्वा से प्रसन्न हो जाते हैं । हिन्दू धर्म के प्रत्येक देवी-देवता भी पशु-पक्षी और पेड़-पौधों से लेकर प्रकृति के विभिन्न अवयवों के संरक्षण का संदेश देते हैं ।
जलस्रातों का भी हिन्दू धर्म में बहुत महत्व है । ज्यादातर गांव-नगर नदी के किनारे पर बसे हैं। ऐसे गांव जो नदी किनारे नहीं हैं, वहां ग्रामीणों ने तालाब बनाए थे । बिना नदी या ताल के गांव-नगर के अस्तित्व की कल्पना नहीं है । हिन्दुओं के चार वेदों में से एक अथर्ववेद में बताया गया है कि आवास के समीप शुद्ध जलयुक्त जलाशय होना चाहिए । जल दीर्घायु प्रदायक, कल्याणकारक, सुखमय और प्राणरक्षक होता है. शुद्ध जल के बिना जीवन संभव नहीं है ।
यही कारण है कि जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया । पूर्वजों ने कल-कल प्रवाहमान सरिता गंगा को ही नहीं वरन सभी जीवनदायनी नदियों को मां कहा है । हिन्दू धर्म में अनेक अवसर पर नदियों, तालाबों और सागरों की मां के रूप में उपासना की जाती है । छान्दोग्योपनिषद् में अन्न की अपेक्षा जल को उत्कृष्ट कहा गया है । महर्षि नारद ने भी कहा है कि पृथ्वी भी मूर्तिमान जल है. अन्तरिक्ष, पर्वत, पशु-पक्षी, देव-मनुष्य, वनस्पति सभी मूर्तिमान जल ही है। जल ही ब्रह्मा है. महान ज्ञानी ऋषियों ने धार्मिक परंपराओं से जोड़कर पर्वतों की भी महत्ता स्थापित की है ।
देश के प्रमुख पर्वत देवताओं के निवास स्थान हैं । अगर पर्वत देवताओं के वासस्थान नहीं होते तो कब के खनन माफिया उन्हें उखाड़ चुके होते । विन्ध्यगिरि महाशक्तियों का वासस्थल है, कैलाश महाशिव की तपोभूमि है. हिमालय को तो भारत का किरीट कहा गया है । महाकवि कालिदास ने ‘कुमारसम्भवम्’ में हिमालय की महानता और देवत्व को बताते हुए कहा है- ‘अस्तुस्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:.’ भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन की पूजा का विधान इसलिए शुरू कराया था क्योंकि गोवर्धन पर्वत पर अनेक औषधि के पेड़-पौधे थे, मथुरा के गोपालकों के गोधन के भोजन-पानी का इंतजाम उसी पर्वत पर था । मथुरा-वृन्दावन सहित पूरे देश में दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा धूमधाम से की जाती है ।
इसी तरह हमारे महर्षियों ने जीव-जन्तुओं के महत्व को पहचानकर उनकी भी देवरूप में अर्चना की है । मनुष्य और पशु परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं । हिन्दू धर्म में गाय, कुत्ता, बिल्ली, चूहा, हाथी, शेर और यहां तक की विषधर नागराज को भी पूजनीय बताया है । प्रत्येक हिन्दू परिवार में पहली रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकाली जाती है। चींटियों को भी बहुत से हिन्दू आटा डालते हैं. चिडिय़ों और कौओं के लिए घर की मुंडेर पर दाना-पानी रखा जाता है । पितृपक्ष में तो काक को बाकायदा निमंत्रित करके दाना-पानी खिलाया जाता है ।
इन सब परम्पराओं के पीछे जीव संरक्षण का संदेश है । हिन्दू गाय को मां कहता है. उसकी अर्चना करता है । नागपंचमी के दिन नागदेव की पूजा की जाती है । नाग-विष से मनुष्य के लिए प्राणरक्षक औषधियों का निर्माण होता है । नाग पूजन के पीछे का रहस्य ही यह है । हिन्दू धर्म का वैशिष्ट्य है कि वह प्रकृति के संरक्षण की परम्परा का जन्मदाता है । हिन्दू संस्कृति में प्रत्येक जीव के कल्याण का भाव है । हिन्दू धर्म के जितने भी त्योहार हैं, वे सब प्रकृति के अनुरूप हैं । मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिव रात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी पड़वा, वट पूर्णिमा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सब पर्वों में प्रकृति संरक्षण का पुण्य स्मरण है ।
(साभार – आई चौक)

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