वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाता है और हर बदलाव के पीछे उम्मीद होती है कि कुछ अच्छा होगा। कुछ अच्छा होने के पहले जो था, वह उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा और उतरा भी तो उससे बेहतर की उम्मीद होती है। यही कहानी एक आम आदमी की है और व्यवस्था की भी। परीक्षाओं के बाद जब नतीजे घोषित होते हैं तो परीक्षार्थी को भी उम्मीद होती है कि अच्छे अंक से पास हुआ तो नौकरी या दाखिला पक्का है और जब ऐसा नहीं होता, तो कहीं न कहीं या तो टूटने लगता है या फिर उदासीन हो जाता है। व्यवस्था की बात करें तो यह विकल्पहीनता की स्थिति है और जो कम बुरा है, वही अच्छा मान लिया जाता है।
बंगाल में शायद कुछ ऐसा ही हुआ है। अपार बहुमत के बावजूद तृणमूल की सीटें कम होना और नोटा का अधिक प्रयोग सम्भवतः इसी का परिचायक है और यह विफलता तमाम राजनीतिक पार्टियों की विफलता है। जो भी हो, बंगाल में एक बार फिर त़ृणमूल सरकार है और एक बार फिर ममता बनर्जी यानि दीदी से लोगों की उम्मीदें जुड़ गयी हैं। जून यानि आधा साल बीत गया, हमारी और आपकी दोस्ती भी अब लगभग 6 महीने पुरानी हो चुकी है। मई का महीना माँ के नाम तो जून का महीना पिता के नाम होता है, फादर्स डे इसी महीने में पड़ता है और पर्यावरण दिवस भी। देखा जाए तो इन दोनों रिश्तों का प्रकृति से तारतम्य है क्योंकि तभी तो माँ को धरती और पिता को आकाश या समन्दर देखा जाता है। हमारे देश में पुरुषों को इतना मजबूत मान लिया जाता है कि उनको न तो रोने की इजाजत है और न ही खुलकर जिंदगी से वे जुड़ ही पाते हैं। वह हारने से और टूटने से डरते हैं इसलिए घुटते हैं मगर अपने मन की बात अपने मन में ही रखते हैं। क्या सभी पुरुष और उनमें छिपा पिता एक सा हो सकता है? पिता का मतलब अनुशासन की ऐसी छड़ी जो बच्चों को डराने के काम आती रही है जिससे बच्चे बात करने से भी कतराते हैं मगर वक्त बदला है तो पुरुष और उसमें छिपा पिता बदला है। वह पत्नी के साथ अपने बच्चों की परवरिश दोस्ताना तरीके से करता है। कई बार वह महिलाओं से भी अधिक संवेदनशील साबित हुआ है इसलिए यह मामला तो व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। यह फर्क आप विज्ञापन से लेकर फिल्मों में देख सकते हैं। समाज से लेकर साहित्य तक का फलसफा औरतों को समझने और उसे फटकारने में गुजर गया मगर पुरुषों को भी समझे जाने की जरूरत है, यह ख्याल किसी को नहीं आया। स्त्री शिक्षा की तरह ही पुरुषों को भी शिक्षित और मानसिक रूप से समझदार होने की जरूरत है। अपराजिता संतुलन पर जोर देती है और उसका मानना है कि स्त्री और पुरुष, अगर दोनों को समझा जाए और विकास के लिहाज से दोनों को साथ लेकर चला जाए, तो बेहतर समाज बन सकता है जहाँ कुँठा नहीं होगी तो स्वस्थ परिवेश बनेगा। बात अगर सेल्फी विद् डॉटर की हो तो सेल्फी विद् सन क्यों नहीं हो सकता? यह सही है कि हमारे देश में महिलाओं का अनुपात सही नहीं है मगर स्थिति को बेहतर बनाने के लिए बच्चों के साथ भेदभाव जरूरी है? बच्चे तो बच्चे ही होते हैं, बचपन से ही उनमें स्त्री और पुरुष होने का भाव भरा ही क्यों जाए। सेल्फी विद् सन एंड डॉटर हमारी समझ से एक बेहतर विकल्प हो सकता है। संसार को धरती औऱ आकाश, दोनों की जरूरत है इसलिए लड़कियों के साथ लड़कों को भी हर क्षेत्र में मानसिक रूप से संतुलित परिवेश देने की जरूरत है। यही संतुलन पर्यावरण में होना चाहिए। दरअसल, अपनी जीवनशैली में थोड़ा सा बदलाव लाकर भी पर्यावरण की हिफाजत की जा सकती है। प्रकृति ने हमें काफी कुछ दिया है तो हमारा भी फर्ज बनता है कि उसकी हिफाजत करें वरना बाढ़, सूखा और भूकम्प जैसी आपदा हम सबकी किस्मत बन सकती है। एक अनुरोध, यह कि अगर आप इस पत्रिका में कुछ सुझाव देना चाहते हैं तो संतुलित तरीके से दे सकते हैं और रचनात्मक सहयोग भी।