अयोध्या फैज़ाबाद जिले में सरयू नदी के तट पर स्थित है। भारत की गौरवशाली आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाली अयोध्या प्राचीनकाल से ही धर्म और संस्कृति की परम -पावन नगरी के रूप में सम्पूर्ण विश्व में विख्यात रही है। अयोध्या की माहात्म्य व प्रशस्ति वर्णन से इस नगरी के महत्व और लोकप्रियता का स्वयं ही अनुभव हो जाता है। मर्यादा पुरोषत्तम भगवान श्रीराम के जीवन दर्शन से गौरवान्वित इस पावन नगरी के सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र और सुरसरि गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने वाले राजा भगीरथ सिरमौर रहे है। जैन धर्म के प्रणेता श्री आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकर इसी नगरी में जन्मे थे। चीनी यात्री द्वयफाह्यान व ह्वेनसांग के यात्रा -वृत्तान्तों में भी अयोध्या नगरी का उल्लेख मिलता है।
अयोध्या उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रसिद्ध धार्मिक नगर है। अयोध्या फ़ैज़ाबाद ज़िले में आता है। रामायण के अनुसार दशरथ अयोध्या के राजा थे। श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था। राम की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएँ तट पर स्थित है। अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है। अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। कई शताब्दियों तक यह नगर सूर्य वंश की राजधानी रहा। अयोध्या एक तीर्थ स्थान है और मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहाँ आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहाँ आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।
इतिहास
अयोध्या पुण्यनगरी है। अयोध्या श्रीरामचन्द्रजी की जन्मभूमि होने के नाते भारत के प्राचीन साहित्य व इतिहास में सदा से प्रसिद्ध रही है। अयोध्या की गणना भारत की प्राचीन सप्तपुरियों में प्रथम स्थान पर की गई है।[1] अयोध्या की महत्ता के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनसाधारण में निम्न कहावतें प्रचलित हैं-
गंगा बड़ी गोदावरी,
तीरथ बड़ो प्रयाग,
सबसे बड़ी अयोध्यानगरी,
जहँ राम लियो अवतार।
अयोध्या रघुवंशी राजाओं की बहुत पुरानी राजधानी थी। स्वयं मनु ने अयोध्या का निर्माण किया था। वाल्मीकि रामायण से विदित होता है कि स्वर्गारोहण से पूर्व रामचंद्र जी ने कुश को कुशावती नामक नगरी का राजा बनाया था। श्रीराम के पश्चात् अयोध्या उजाड़ हो गई थी, क्योंकि उनके उत्तराधिकारी कुश ने अपनी राजधानी कुशावती में बना ली थी। रघु वंश से विदित होता है कि अयोध्या की दीन-हीन दशा देखकर कुश ने अपनी राजधानी पुन: अयोध्या में बनाई थी। महाभारत में अयोध्या के दीर्घयज्ञ नामक राजा का उल्लेख है जिसे भीमसेन ने पूर्वदेश की दिग्विजय में जीता था। घटजातक में अयोध्या के कालसेन नामक राजा का उल्लेख है। गौतमबुद्ध के समय कोसल के दो भाग हो गए थे- उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल जिनके बीच में सरयू नदी बहती थी। अयोध्या या साकेत उत्तरी भाग की और श्रावस्ती दक्षिणी भाग की राजधानी थी। इस समय श्रावस्ती का महत्त्व अधिक बढ़ा हुआ था। बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट एक नई बस्ती बन गई थी जिसका नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में साकेत और अयोध्या दोनों का नाम साथ-साथ भी मिलता है जिससे दोनों के भिन्न अस्तित्व की सूचना मिलती है।
रामायण में अयोध्या का उल्लेख कोशल जनपद की राजधानी के रूप में किया गया है।
पुराणों में इस नगर के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु इस नगर के शासकों की वंशावलियाँ अवश्य मिलती हैं, जो इस नगर की प्राचीनता एवं महत्त्व के प्रामाणिक साक्ष्य हैं। ब्राह्मण साहित्य में इसका वर्णन एक ग्राम के रूप में किया गया है।
सूत और मागध उस नगरी में बहुत थे। अयोध्या बहुत ही सुन्दर नगरी थी। अयोध्या में ऊँची अटारियों पर ध्वजाएँ शोभायमान थीं और सैकड़ों शतघ्नियाँ उसकी रक्षा के लिए लगी हुई थीं। राम के समय यह नगर अवध नाम की राजधानी से सुशोभित था।
बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अयोध्या पूर्ववर्ती तथा साकेत परवर्ती राजधानी थी। हिन्दुओं के साथ पवित्र स्थानों में इसका नाम मिलता है। फ़ाह्यान ने इसका ‘शा-चें’ नाम से उल्लेख किया है, जो कन्नौज से 13 योजन दक्षिण-पूर्व में स्थित था।
मललसेकर ने पालि-परंपरा के साकेत को सई नदी के किनारे उन्नाव ज़िले में स्थित सुजानकोट के खंडहरों से समीकृत किया है। नालियाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी ने भी इसका समीकरण सुजानकोट से किया है। थेरगाथा अट्ठकथा में साकेत को सरयू नदी के किनारे बताया गया है। अत: संभव है कि पालि का साकेत, आधुनिक अयोध्या का ही एक भाग रहा हो।
शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के लिए जाने का वर्णन है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वितीय के समय (चतुर्थ शती ई. का मध्यकाल) और तत्पश्चात् काफ़ी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघु वंश में कई बार उल्लेख किया है। कालिदास ने उत्तरकौशल की राजधानी साकेत और अयोध्या दोनों ही का नामोल्लेख किया है, इससे जान पड़ता है कि कालिदास के समय में दोनों ही नाम प्रचलित रहे होंगे। मध्यकाल में अयोध्या का नाम अधिक सुनने में नहीं आता था। युवानच्वांग के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उत्तर बुद्धकाल में अयोध्या का महत्त्व घट चुका था।
महाकाव्यों में अयोध्या
अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था। अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानो मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो।
अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था, जिसकी पुष्टि वाल्मीकि रामायण में भी होती है। एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र ने नगर का क्षेत्रफल 12×9 योजन बतलाया है जो कि निश्चित ही अतिरंजित वर्णन है। साक्ष्यों के अवलोकन से नगर के विस्तार के लिए कनिंघम का मत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लगता है। उनकी मान्यता है कि नगर की परिधि 12 कोश (24 मील) थी, जो वर्तमान नगर की परिधि के अनुरूप है।
धार्मिक महत्ता की दृष्टि से अयोध्या हिन्दुओं और जैनियों का एक पवित्र तीर्थस्थल था। इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिका पुरियों में की गई है। अयोध्या में कंबोजीय अश्व एवं शक्तिशाली हाथी थे। रामायण के अनुसार यहाँ चातुर्वर्ण्य व्यवस्था थी- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। उन्हें अपने विशिष्ट धर्मों एवं दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता था। रामायण में उल्लेख है कि कौशल्या को जब राम वन गमन का समाचार मिला तो वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उस समय कौशल्या के समस्त अंगों में धूल लिपट गयी थी और श्रीराम ने अपने हाथों से उनके अंगों की धूल साफ़ की।
मध्यकाल में अयोध्या
मध्यकाल में मुसलमानों के उत्कर्ष के समय, अयोध्या बेचारी उपेक्षिता ही बनी रही, यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई, जो आज भी विद्यमान है। मस्जिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के हैं। अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं, और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू को छोड़कर रामचंद्रजी के समय की कोई निशानी नहीं है। कहते हैं कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई थी तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई थी।
बौद्ध साहित्य में अयोध्या
बौद्ध साहित्य में भी अयोध्या का उल्लेख मिलता है। गौतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बन्ध था। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के इस नगर से विशेष सम्बन्ध की ओर लक्ष्य करके मज्झिमनिकाय में उन्हें कोसलक (कोशल का निवासी) कहा गया है।
धर्म-प्रचारार्थ वे इस नगर में कई बार आ चुके थे। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मानव जीवन की निस्वारता तथा क्षण-भंगुरता पर व्याख्यान दिया था। अयोध्यावासी गौतम बुद्ध के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने उनके निवास के लिए वहाँ पर एक विहार का निर्माण भी करवाया था। संयुक्तनिकाय में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने यहाँ की यात्रा दो बार की थी। उन्होंने यहाँ फेण सूक्त और दारुक्खंधसुक्त का व्याख्यान दिया था। एक ही नगर से समीकृतअयोध्या और साकेत दोनों नगरों को कुछ विद्वानों ने एक ही माना है। कालिदास ने भी रघुवंश में दोनों नगरों को एक ही माना है, जिसका समर्थन जैन साहित्य में भी मिलता है। कनिंघम ने भी अयोध्या और साकेत को एक ही नगर से समीकृत किया है। इसके विपरीत विभिन्न विद्वानों ने साकेत को भिन्न-भिन्न स्थानों से समीकृत किया है। इसकी पहचान सुजानकोट,आधुनिक लखनऊ, कुर्सी, पशा (पसाका), और तुसरन बिहार, इलाहाबाद से 27 मील दूर स्थित है) से की गई है। इस नगर के समीकरण में उपर्युक्त विद्वानों के मतों में सवल प्रमाणों का अभाव दृष्टिगत होता है। बौद्ध ग्रन्थों में भी अयोध्या और साकेत को भिन्न-भिन्न नगरों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या को कोशल की राजधानी बताया गया है और बाद के संस्कृत ग्रन्थों में साकेत से मिला दिया गया है। ‘अयोध्या’ को संयुक्तनिकाय में एक ओर गंगा के किनारे स्थित एक छोटा गाँव या नगर बतलाया गया है। जबकि ‘साकेत’ उससे भिन्न एक महानगर था। अतएव किसी भी दशा में ये दोनों नाम एक नहीं हो सकते हैं।
जैन ग्रन्थ के अनुसार
जैन ग्रन्थ विविधतीर्थकल्प में अयोध्या को ऋषभ, अजित, अभिनंदन, सुमति, अनन्त और अचलभानु- इन जैन मुनियों का जन्मस्थान माना गया है। नगरी का विस्तार लम्बाई में 12 योजन और चौड़ाई में 9 योजन कहा गया है। इस ग्रन्थ में वर्णित है कि चक्रेश्वरी और गोमुख यक्ष अयोध्या के निवासी थे। घर्घर-दाह और सरयू का अयोध्या के पास संगम बताया है और संयुक्त नदी को स्वर्गद्वारा नाम से अभिहित किया गया है। नगरी से 12 योजन पर अष्टावट या अष्टापद पहाड़ पर आदि-गुरु का कैवल्यस्थान माना गया है। इस ग्रन्थ में यह भी वर्णित है कि अयोध्या के चारों द्वारों पर 24 जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित थीं। एक मूर्ति की चालुक्य नरेश कुमारपाल ने प्रतिष्ठापना की थी। इस ग्रन्थ में अयोध्या को दशरथ, राम और भरत की राजधानी बताया गया है। जैनग्रन्थों में अयोध्या को ‘विनीता’ भी कहा गया है।
जैन ग्रंथ महापुराण (आदिपुराण) के अनुसार करोड़ों वर्ष पूर्व अयोध्या में पांच तीर्थंकरों के जन्म तो हुए ही हैं, साथ ही वहाँ अन्य अनेक इतिहास भी जुड़ें। अयोध्या में वर्तमान में रायगंज परिसर में 31 फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। वहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण नवमी के दिन भगवान ऋषभदेव के जन्म कल्याणक दिवस का वार्षिक मेला आयोजित होता है। जिसमें हज़ारों श्रद्धालु भक्त भाग लेकर पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। अयोध्या में स्वर्गद्वार मोहल्ले में ऋषभदेव का सुन्दर जिन मंदिर बना है। वह भगवान का वास्तविक जन्म स्थान माना जाता है। सरयू नदी के निकट ही भगवान ऋषभदेव उद्यान बहुत सुंदर बना हुआ है, जहाँ देश- विदेश के हज़ारों पर्यटक प्रतिदिन आकर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हैं।
राज डेविड्स के अनुसार
राज डेविड्स का कथन है कि दोनों नगर वर्तमान लंदन और वेस्टमिंस्टर के समान एक-दूसरे से सटे रहे होंगे जो कालान्तर में विकसित होकर एक हो गये। अयोध्या सम्भवत: प्राचीन राजधानी थी और साकेत परवर्ती राजधानी । विशुद्धानन्द पाठक भी राज डेविड्स के मत का समर्थन करते हैं और परिवर्तन के लिए सरयू नदी की धारा में परिवर्तन या किसी प्राकृतिक कारण को उत्तरदायी मानते हैं, जिसके कारण अयोध्या का संकुचन हुआ और दूसरी तरफ़ नई दिशा में परवर्ती काल में साकेत का उद्भव हुआ।
साक्ष्यों के अवलोकन के अनुसार
साक्ष्यों के अवलोकन से दोनों नगरों के अलग-अलग अस्तित्व की सार्थकता सिद्ध हो जाती है तथा साकेत के परवर्ती काल में विकास की बात सत्य के अधिक समीप लगती है। इस सन्दर्भ में ई. जे. थामस रामायण की परम्परा को बौद्ध परम्परा की अपेक्षा उत्तरकालीन मानते हैं। उनकी मान्यता है कि पहले कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी और जब बाद में कोशल का विस्तार दक्षिण की ओर हुआ तो अयोध्या राजधानी बनी, जो कि साकेत के ही किसी विजयी राजा द्वारा दिया हुआ नाम था।
पुरातत्त्वविदों के अनुसार
पिछले समय में कुछ पुरातत्त्वविदों यथा-प्रो. ब्रजवासी लाल तथा हंसमुख धीरजलाल साँकलिया ने रामायण इत्यादि में वर्णित अयोध्या की पहचान नगर की भौगोलिक स्थिति, प्राचीनता एवं सांस्कृतिक अवशेषों का अध्ययन किया, रामायण में वर्णित उपर्युक्त विवरणों के अन्तर की व्याख्या भी प्रस्तुत की है। इन दोनों विद्वानों का यह मत था कि पुरातात्विक दृष्टि से न केवल अयोध्या की पहचान की जा सकती है, रामायण में वर्णित अन्य स्थान यथा- नन्दीग्राम, श्रृंगवेरपुर, भारद्वाज आश्रम, परियर एवं वाल्मीकि आश्रम भी निश्चित रूप से पहचाने जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में प्रो. ब्रजवासी लाल द्वारा विशद रूप में किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षण एवं उत्खनन उल्लेखनीय है।पुरातात्विक आधार पर प्रो. लाल ने रामायण में उपर्युक्त स्थानों की प्राचीनता को लगभग सातवीं सदी ई. पू. में रखा। इस साक्ष्य के कारण रामायण एवं महाभारत की प्राचीनता का जो क्रम था, वह परिवर्तित हो गया तथा महाभारत पहले का प्रतीत हुआ। इस प्रकार प्रो. लाल तथा साँकलिया का मत हेमचन्द्र राय चौधरी के मत से मिलता है। श्री रायचौधरी का भी कथन था कि महाभारत में वर्णित स्थान एवं घटनाएँ रामायण में वर्णित स्थान एवं घटनाओं के पूर्व की हैं।
मुनीश चन्द्र जोशी के अनुसार
श्री मुनीश चन्द्र जोशी ने प्रो. लाल एवं सांकलिया के इस मत की खुलकर आलोचना की, तथा तैत्तिरीय आरण्यक में उद्धृत अयोध्या के उल्लेख का वर्णन करते हुए यह मत प्रस्तुत किया। जब तैत्तिरीय आरण्यक की रचना हुई, उस समय मनीषियों की नगरी अयोध्या एवं उसकी संस्कृति (अगर यह थी तो) को लोग पूर्णत: भूल गये थे। अयोध्या पूर्णत: पौराणिक नगरी प्रतीत होती है। आधुनिक अयोध्या और राम से इसका साहचर्य परवर्ती काल का प्रतीत होता है।
हनुमान गढ़ी, अयोध्या
इन आधारों पर श्री जोशी ने कहा कि वैदिक या पौराणिक सामग्री के आधार पर पुरातात्विक साक्ष्यों का समीकरण न तो ग्राह्य है और न ही उचित। उनका यह भी कथन था कि अधिकतर भारतीय पौराणिक एवं वैदिक सामग्री का उपयोग धर्म एवं अनुष्ठान के लिए किया गया था। ऐतिहासिक रूप से उनकी सत्यता संदिग्ध है।
ब्रजवासी लाल के अनुसार
श्री जोशी के मतों का खण्डन प्रो. ब्रजवासी लाल ने पुरातत्त्व में छपे अपने एक लेख में किया है। श्री लाल का कहना है कि श्री जोशी का प्रथम मत उनके तृतीय मत से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि प्रथम तो जोशी यह मानने को तैयार ही नहीं होते एवं द्वितीय यह स्पष्ट नहीं है कि राम एवं आधुनिक अयोध्या का सम्बन्ध किस काल में एवं कैसे जोड़ा गया। प्रो. लाल का कहना है कि अयोध्या शब्द न केवल तैत्तिरीय आरण्यक में है, बल्कि इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी मिलता है। इसके विस्तृत अध्ययन से अयोध्या शब्द का प्रयोग अयोध्या नगरी से ही नहीं बल्कि ‘अजेय’ से लिया जा सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक में वर्णित अयोध्या नगरी का समीकरण उन्होंने मनुष्य शरीर से किया है तथा श्रीमद्भागवदगीता में आए उस श्लोक का जिक़्र किया है, जिसमें शरीर नामक नगर का वर्णन है। श्री लाल का कहना है कि तैत्तरीय आरण्यक, अथर्ववेद तथा श्रीमदभगवदगीता में शरीर के एक समान उल्लेख मिलते हैं। जिसमें कहा गया है कि देवताओं की इस स्वर्णिम नगरी के आठ चक्र (परिक्षेत्र) और नौ द्वार हैं, जो कि हमेशा प्रकाशमान रहता है।
नगर के प्रकाशमान होने की व्याख्या मनुष्य के ध्यानमग्न होने के पश्चात् ज्ञान ज्योति के प्राप्त होने की स्थिति से की गई है। आठ चक्रों (परिक्षेत्रों) का समीकरण आठ धमनियों के जाल-नीचे की मूलधारा से शुरू होकर ऊपर की सहस्र धारा तक-से की गई है। नवद्वारों का समीकरण शरीर के नवद्वारों-दो आँखें, नाक के दो द्वार, दो कान, मुख, गुदा एवं शिश्न- से किया गया है।
प्रो. ब्रजवासी लाल ने श्री मुनीशचन्द्र जोशी के शोधपत्र एवं सम्बन्धित सामग्री का विस्तृत विवेचन करके अपने इस मत का पुष्टीकरण किया कि आधुनिक अयोध्या एवं रामायण में वर्णित अयोध्या एक ही है। यदि पुरातात्विक सामग्री एवं रामायण में वर्णित सामग्री में मेल नहीं खाती तो इसका अर्थ यह नहीं कि अयोध्या की पहचान ग़लत है या कि वह पौराणिक एवं काल्पनिक नगर था। वास्तव में दोनों सामग्रियों के मेल न खाने का मुख्य कारण रामायण के मूल में किया गया बार-बार परिवर्तन है।
चीनी यात्रियों का यात्रा विवरण
फ़ाह्यान
चीनी यात्री फ़ाह्यान ने अयोध्या को ‘शा-चे’ नाम से अभिहित किया है। उसके यात्रा विवरण में इस नगर का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन मिलता है। फ़ाह्यान के अनुसार यहाँ बौद्धों एवं ब्राह्मणों में सौहार्द नहीं था। उसने यहाँ उन स्थानों को देखा था, जहाँ बुद्ध बैठते थे और टहलते थे। इस स्थान की स्मृतिस्वरूप यहाँ एक स्तूप बना हुआ था।
ह्वेन त्सांग
ह्वेन त्सांग नवदेवकुल नगर से दक्षिण-पूर्व 600 ली यात्रा करके और गंगा नदी पार करके अयुधा (अयोध्या) पहुँचा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र 5000 ली तथा इसकी राजधानी 20 ली में फैली हुई थी।[59] यह असंग एवं बसुबंधु का अस्थायी निवास स्थान था। यहाँ फ़सलें अच्छी होती थीं और यह सदैव प्रचुर हरीतिमा से आच्छादित रहता था। इसमें वैभवशाली फलों के बाग़ थे तथा यहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक थी। यहाँ के निवासी शिष्ट आचरण वाले, क्रियाशील एवं व्यावहारिक ज्ञान के उपासक थे। इस नगर में 100 से अधिक बौद्ध विहार और 3000 से अधिक भिक्षुक थे, जो महायान और हीनयान मतों के अनुयायी थे। यहाँ 10 देव मन्दिर थे, जिनमें अबौद्धों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी। ह्वेन त्सांग के अनुसार राजधानी में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान है जहाँ देशबंधु ने कठिन परिश्रम से विविध शास्त्रों की रचना की थी। इन भग्नावशेषों में एक महाकक्ष था। जहाँ पर बसुबंधु विदेशों से आने वाले राजकुमारों एवं भिक्षुओं को बौद्धधर्म का उपदेश देते थे।
ह्वेन त्सांग लिखते हैं कि नगर के उत्तर 40 ली दूरी पर गंगा के किनारे एक बड़ा संघाराम था, जिसके भीतर अशोक द्वारा निर्मित एक 200 फुट ऊँचा स्तूप था। यह वही स्थान था जहाँ पर तथागत ने देव समाज के उपकार के लिए तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्तों का विवेचन किया था। इस विहार से 4-5 ली पश्चिम में बुद्ध के अस्थियुक्त एक स्तूप था। जिसके उत्तर में प्राचीन विहार के अवशेष थे, जहाँ सौतान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी विभाषा शास्त्र की रचना की गई थी।
ह्वेन त्सांग के अनुसार नगर के दक्षिण-पश्चिम में 5-6 ली की दूरी पर एक आम्रवाटिका में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान था जहाँ असङ्ग़ बोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था।
आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 100 क़दम की दूरी पर एक स्तूप था, जिसमें तथागत के नख और बाल रखे हुए थे। इसके निकट ही कुछ प्राचीन दीवारों की बुनियादें थीं। यह वही स्थान है जहाँ पर वसुबंधु बोधिसत्व तुषित। स्वर्ग से उतरकर असङ्ग़ बोधिसत्व से मिलते थे।
अयोध्या का पुरातात्विक उत्खनन
अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य किए। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रोफ़ेसर अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने 1967-1970 में किया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ। उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है-
दिगम्बर जैन मंदिर, अयोध्या
उत्खनन में प्रथम काल के उत्तरी काले चमकीले मृण्भांड परम्परा (एन. बी. पी., बेयर) के भूरे पात्र एवं लाल रंग के मृण्भांड मिले हैं। इस काल की अन्य वस्तुओं में मिट्टी के कटोरे, गोलियाँ, ख़िलौना, गाड़ी के चक्र, हड्डी के उपकरण, ताँबे के मनके, स्फटिक, शीशा आदि के मनके एवं मृण्मूर्तियाँ आदि मुख्य हैं।
द्वितीय काल
इस काल के मृण्भांड मुख्यत: ईसा के प्रथम शताब्दी के हैं। उत्खनन से प्राप्त मुख्य वस्तुओं में मकरमुखाकृति टोटी, दावात के ढक्कन की आकृति के मृत्पात्र, चिपटे लाल रंग के चपटे आधारयुक्त लम्बवत धारदार कटोरे, स्टैंप और मृत्पात्र खण्ड आदि हैं।
तृतीय काल
इस काल का आरम्भ एक लम्बी अवधि के बाद मिलता है। उत्खनन से प्राप्त मध्यकालीन चमकीले मृत्पात्र अपने सभी प्रकारों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त काही एवं प्रोक्लेन मृण्भांड भी मिले हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी के डैबर, लोढ़े, लोहे की विभिन्न वस्तुएँ, मनके, बहुमूल्य पत्थर, शीशे की एकरंगी और बहुरंगी चूड़ियाँ और मिट्टी की पशु आकृतियाँ (विशेषकर चिड़ियों की आकृति) हैं। ।
अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन
अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुन: उत्खनन दो सत्रों 1975-1976 तथा 1976-1977 में ब्रजवासी लाल और के. वी. सुन्दराजन के नेतृत्व में हुआ। यह उत्खनन मुख्यत: दो क्षेत्रों- रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी में किया गया। इस उत्खनन से संस्कृतियों का एक विश्वसनीय कालक्रम प्रकाश में आया है। साथ ही इस स्थान पर प्राचीनतम बस्ती के विषय में जानकारी भी मिली है। उत्खनन में सबसे निचले स्तर से उत्तर कालीन चमकीले मृण्भांड एवं धूसर मृण्भांड परम्परा के मृत्पात्र मिले हैं। धूसर परम्परा के कुछ मृण्भांडों पर काले रंग में चित्रकारी भी मिलती है।
हनुमानगढ़ी क्षेत्र में उत्खनन
हनुमानगढ़ी क्षेत्र से भी उत्तरी काली चमकीली मृण्भांड संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आए हैं। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार के मृतिका वलय कूप तथा एक कुएँ में प्रयुक्त कुछ शंक्वाकार ईंटें भी मिली हैं। उत्खनन से बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनमें मुख्यत: आधा दर्जन मुहरें, 70 सिक्के, एक सौ से अधिक लघु मृण्मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं।
महत्त्वपूर्ण उपलब्धि
इस उत्खनन में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृण्भांडों की प्राप्ति है। ये मृण्भांड प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई. के हैं। इस प्रकार के मृण्भांडों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन अयोध्या में वाणिज्य और व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। यह व्यापार सरयू नदी के जलमार्ग द्वारा गंगा नदी से सम्बद्ध था।
ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन
आद्य ऐतिहासिक काल के पश्चात् यहाँ के मलबों और गड्ढों से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर व्यावसायिक क्रम में अवरोध दृष्टिगत होता है। सम्भवत: यह क्षेत्र पुन: 11वीं शताब्दी में अधिवासित हुआ। यहाँ से उत्खनन में कुछ परवर्ती मध्यकालीन ईंटें, कंकड़, एवं चूने की फ़र्श आदि भी मिले हैं। अयोध्या से 16 किलोमीटर दक्षिण में तमसा नदी के किनारे स्थित नन्दीग्राम में भी श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया। उल्लेख है कि राम के वनगमन के पश्चात् भरत ने यहीं पर निवास करते हुए अयोध्या का शासन कार्य संचालित किया था। यहाँ के सीमित उत्खनन से प्राप्त वस्तुएँ अयोध्या की वस्तुओं के समकालीन हैं।
सीमित क्षेत्र में उत्खनन
1981-1982 ई. में सीमित क्षेत्र में उत्खनन किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्रों में हुआ। इसमें 700-800 ई. पू. के कलात्मक पात्र मिले हैं। श्री लाल के उत्खनन से प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध काल में अयोध्या का महत्त्वपूर्ण स्थान था।
बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में 2002-2003 ईसवी में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन कार्य किया गया। यह उत्खनन कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर संचालित हुआ। उत्खनन से पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति से लेकर परवर्ती मुग़लकालीन संस्कृति तक के अवशेष प्रकाश में आए। प्रथम काल के अवशेषों एवं रेडियो कार्बन तिथियों से यह निश्चित हो जाता है कि मानव सभ्यता की कहानी अयोध्या में 1300 ईसा पूर्व से प्रारम्भ होती है।
पर्यटन
अयोध्या घाटों और मंदिरों की प्रसिद्ध नगरी है। सरयू नदी यहाँ से होकर बहती है। सरयू नदी के किनारे 14 प्रमुख घाट हैं। इनमें गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। मंदिरों में ‘कनक भवन’ सबसे सुन्दर है। लोकमान्यता के अनुसार कैकेयी ने इसे सीता को मुंह दिखाई में दिया था। ऊँचे टीले पर हनुमानगढ़ी आकर्षक का केंद्र है। इस नगर में रामजन्मभूमि-स्थल की बड़ी महिमा है। इस स्थान पर विक्रमादित्य का बनवाया हुआ एक भव्य मंदिर था किंतु बाबर के शासनकाल में वहाँ पर मस्जिद बना दी गयी जिसे 6 दिसंबर 1992 को कुछ कट्टरपंथियों ने गिरा दिया। इस विवादास्पद स्थान पर इस समय रामलला की मूर्ति स्थापित है सरयू के निकट नागेश्वर का मंदिर शिव के बारह ज्योतिलिंगों में गिना जाता है। ‘तुलसी चौरा’ वह स्थान है जहाँ बैठकर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना आरंभ की थी। प्रह्लाद घाट के पास गुरु नानक भी आकर ठहरे थे। अयोध्या जैन धर्मावलंबियों का भी तीर्थ-स्थान है। वर्तमान युग के चौबीस तीर्थकरों में से पाँच का जन्म अयोध्या में हुआ था। इनमें प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव भी सम्मिलित है।
(साभार – भारतकोश, मूल लेख व सन्दर्भ..आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं )