संत शिरोमणि जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य

शुभा्गी उपाध्याय

प्राचीन काल से ही भारत भूमि महान ऋषि-मुनियों की जननी रही है। गुरु-शिष्य परंपरा से सुशोभित इस धरा पर अनगिनत संत और महापुरुष जन्में, जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शन किया। अपने तेज, त्याग और तपस्या से संपूर्ण ब्रह्माण्ड को आलोकित किया। सदियों से ही धर्म भारत की आत्मा रही है। अपने आध्यात्म के बल पर ही यह राष्ट्र विश्वगुरू के पद पर आसीन था। कालांतर में युग बदले तब अनेक रूपों में धर्म की हानि हुई। ऐसे में धर्म की संस्थापना हेतु भारत के दिव्य संतों ने समाज-सुधार का बीड़ा उठाया और असंख्य कष्टों का सामना करते हुए समय-समय पर जनमानस में निर्भीकता, जागरूकता, आस्था, भक्ति, सत्यपरायणता, राष्ट्रीयता जैसे श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को स्थापित करने का साहसिक कार्य किया।
जब सन् 1528 में विधर्मी मुग़ल आक्रांता बाबर ने अयोध्या स्थित श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को तोड़कर वहां मस्जिद बनाने का आदेश दिया तब उस कुकृत्य से भारतीय अस्मिता को गहरी ठेस पहुँची। राम हमारी आस्था हैं, आदर्श हैं, इष्ट हैं, गौरवशाली सनातन संस्कृति के परिचायक हैं। ऐसे में, जनमानस में विद्रोह की ज्वाला का भड़क उठना स्वाभाविक था। इन विधर्मियों ने हिंदू आस्था के केंद्र कहलाने वाले सैकड़ों मंदिर तोड़ डाले जिनका आज तक जीर्णोंद्धार न हो सका।
श्रीराम के अनन्य भक्त का जन्म : धर्म की स्थापना हेतु माघ कृष्ण एकादशी विक्रम संवत 2006 (तदनुसार 14 जनवरी, सन् 1950), मकर संक्रांति की तिथि को रात 10:34 बजे, उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के शांडीखुर्द नामक ग्राम में एक रामभक्त का जन्म हुआ। माता शची देवी और पिता पण्डित राजदेव मिश्र ने उनका नाम गिरिधर मिश्र रखा। जन्म के मात्र दो माह पश्चात ही बालक की नेत्रदृष्टि क्षीण हो गई और त्वरित उपचार के बाद भी कोई लाभ न हुआ। वे तभी से प्रज्ञाचक्षु हो गए अर्थात लिख-पढ़ नहीं सकते। केवल श्रवण कर सीख पाने और बोलकर रचनाएँ लिपिबद्ध करवाना ही उनकी शिक्षा का एकमात्र साधन है।
मात्र 3 वर्ष की अल्पायु में गिरिधर ने अवधी में अपनी सर्वप्रथम कविता रची और अपने पितामह को सुनायी। एकश्रुत प्रतिभा से युक्त बालक गिरिधर ने अपने पड़ोसी पण्डित मुरलीधर मिश्र की सहायता से 5 वर्ष की आयु में मात्र 15 दिनों में श्लोक संख्या सहित 700 श्लोकों वाली सम्पूर्ण भगवद्गीता कण्ठस्थ कर ली। 7 वर्ष की आयु में गिरिधर ने अपने पितामह की सहायता से छन्द संख्या सहित सम्पूर्ण श्रीरामचरितमानस 60 दिनों में कण्ठस्थ कर ली। किसे ज्ञात था कि नियति ने यह चमत्कार किसी विराट उद्देश्य के लिए किया है।
शैक्षणिक योग्यता एवं उपलब्धियाँ : 7 जुलाई 1967 को जौनपुर स्थित आदर्श गौरीशंकर संस्कृत महाविद्यालय से गिरिधर मिश्र ने अपनी औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ की, जहाँ उन्होंने संस्कृत व्याकरण के साथ-साथ हिन्दी, आङ्ग्लभाषा, गणित, भूगोल और इतिहास का अध्ययन किया। तीन महीनों में उन्होंने वरदराजाचार्य विरचित ग्रन्थ लघुसिद्धान्तकौमुदी का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर लिया। प्रथमा से मध्यमा की परीक्षाओं में चार वर्ष तक कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। तत्पश्चात उच्च शिक्षा हेतु वाराणसी स्थित सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत व्याकरण में उन्होंने शास्त्री (स्नातक उपाधि) से लेकर वाचस्पति (डी.लिट्) तक की उपाधि प्राप्त की। इस दौरान उन्हें परीक्षा में स्वर्णपदक भी प्राप्त हुए। उनके चतुर्मुखी ज्ञान के कारण विश्वविद्यालय ने उन्हें केवल व्याकरण ही नहीं अपितु वहां अध्यापित सभी विषयों का आचार्य घोषित कर दिया।
19 नवम्बर 1983, कार्तिक पूर्णिमा के दिन रामानन्द सम्प्रदाय में श्री श्री 1008 श्री रामचरणदास महाराज फलाहारी से विरक्त दीक्षा लेकर गिरिधर मिश्र रामभद्रदास नाम से आख्यात हुए। 1987 में उन्होंने चित्रकूट में तुलसीपीठ की स्थापना की और श्रीचित्रकूटतुलसीपीठाधीश्वर की उपाधि से अलंकृत हुए। 24 जून 1988 को काशी विद्वत् परिषद् वाराणसी ने रामभद्रदास का तुलसीपीठस्थ जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के रूप में चयन किया। 3 फरवरी 1989 को प्रयाग में महाकुंभ में रामानन्द सम्प्रदाय के तीन अखाड़ों के महन्तों, सभी सम्प्रदायों, खालसों और संतों द्वारा सर्वसम्मति से काशी विद्वत् परिषद् के निर्णय का समर्थन किया गया। इसके बाद 1 अगस्त 1995 को अयोध्या में दिगंबर अखाड़े ने रामभद्रदास का जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के रूप में विधिवत अभिषेक किया। रामभद्रदास अब जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य हो गए। स्वामी वल्लभाचार्य के 500 वर्षों पश्चात पहली बार संस्कृत में प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखकर लुप्त हुई जगद्गुरु परम्परा को स्वामी रामभद्राचार्य ने पुनर्जीवित किया।
श्रीराम मंदिर आंदोलन में योगदान : अयोध्या नगरी को उजाड़ने जैसे असहनीय आपराधिक कृत्य से संपूर्ण हिन्दू समाज आक्रोशित था। श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए देश में अनेकों प्रयास किए गए थे। लगभग 500 वर्षों से अधिक समय से यह मामला न्यायालय से निर्णित होने के मोड़ पर पहुँचकर अटका हुआ था। एक विराट आंदोलन हुआ जिसमें जगद्गुरु रामभद्राचार्य भी शामिल थे। पुलिस ने उनपर लाठीचार्ज की जिससे उनकी दाहिनी कलाई चोटिल हो गई और आज भी टेढ़ी है। उन्हें 8 दिनों तक निरपराध होने के बावजूद जेल में बंद किया गया।
माननीय उच्च न्यायालय ने जब प्रश्न किया क्या रामलला के अयोध्या में जन्म का शास्त्रों में कोई प्रमाण है? ऐसे में, बड़े-बड़े दिग्गज जवाबदेही से पीछे हट गए परन्तु पूज्य स्वामी जी साक्ष्य देने हेतु स्वयं कठघरे में प्रस्तुत हो गए। न्यायालय ने स्वाभाविक प्रश्न किया कि आप बिना देखे साक्ष्य कैसे देंगे? इस पर प्रज्ञाचक्षु श्री रामभद्राचार्य जी ने कहा कि शास्त्रीय साक्ष्य के लिए भौतिक आँखों की आवश्यकता नहीं होती। शास्त्र ही सबकी आँखें हैं। जिनके पास शास्त्र नहीं वे दृष्टिहीन हैं। उनके इस वक्तव्य को न्यायालय ने स्वीकार कर पूछा कि शास्त्रीय प्रमाण दीजिए तब उन्होंने अथर्ववेद के दशम काण्ड के 31वें अनुवाक्य के दूसरे मंत्र को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहा कि-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्या हिरण्यय: कोश: स्वर्गो ज्योतिषवृत:।।
अर्थात वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि 8 चक्र और 9 द्वार वाली अयोध्या, श्रीरामजन्मभूमि से 300 धनुष उत्तर में सरयू नदी विद्यमान है और आगे इस तरह के 441 साक्ष्य प्रस्तुत किए और जब वहां खुदाई हुई तब 437 साक्ष्य स्पष्ट निकले। उनमें से केवल 4 अस्पष्ट थे, लेकिन वह भी रामलला के ही प्रमाण थे। इस प्रकार 8 अक्टूबर 2019 को तीन सदस्यीय जजों की बेंच ने महाराज श्री द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों की रोशनी में कोटि-कोटि भारतवासियों के आराध्य भगवान श्रीराम की जन्मभूमि से विवादों का समापन करते हुए निर्णय दिया।
वर्ष 2015 में स्वामी रामभद्राचार्य को भारत के द्वितीय सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से विभूषित किया गया। उन्होंने भारतीय संस्कृति, साहित्य और दर्शन विषय पर 225 से अधिक पुस्तकों की रचना की है। 22 भाषाएँ बोलते हैं। संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में कवि और रचनाकार हैं। वे चित्रकूट स्थित ‘जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय’ के संस्थापक और आजीवन कुलपति हैं। समस्त भारतवर्ष आज उनका आभारी है, जिनके महत्वपूर्ण योगदान से हम सभी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर के साक्षी बन पा रहे हैं। यह दैविक संयोग है कि अयोध्या में नव निर्मित श्री राममंदिर के भव्य शुभारम्भ और पूज्यपाद जी के 75वें जन्मोत्सत्व का सुअवसर एक साथ आया । ऐसे महान संत के श्रीचरणों में विनम्र प्रणति।
( लेखिका शुभांगी उपाध्याय, कलकत्ता विश्वविद्यालय में पी.एच.डी. शोधार्थी हैं।)

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